पाकिस्तान के पहले तानाशाह अयूब खां की एक बात काफी चर्चित हुई थी कि गरम आबोहवा के कारण हमारा देश लोकतंत्र के मुफीद नहीं है. अब हालिया इतिहास के तानाशाह परवेज मुशर्रफ ने फरमाया है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र बिल्कुल बेअसर रहा है और उसकी नाकामियों को दुरुस्त करने के लिए फौज को तमाम जरूरी कदम उठाने चाहिए.

मुशर्रफ का बयान उतना बेतुका नहीं है, जितना कि अयूब का जुमला हंसने लायक, मगर अहम बात यह है कि इन दोनों तानाशाहों के बयान एक ही सोच से प्रेरित हैं. दरअसल, लोकतंत्र में तानाशाहों के लिए कोई जगह नहीं होती, यही वजह है कि इन तानाशाहों ने सबसे पहले लोकतंत्र का गला घोटा. लेकिन उन्हें लोकतंत्र की जुबानी हिमायत के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि जनता उनकी इस बदगुमानी से इत्तफाक नहीं रखती.

जनरल अयूब की ‘बेसिक डेमोक्रेसीज स्कीम’ हो या जिया उल हक के बगैर पार्टियों वाले चुनाव या फिर मुशर्रफ का लगातार यह कहते रहना कि सही मायने में वही पाकिस्तान में लोकतंत्र ला रहे हैं, ये उनकी मजबूरियों की देन थे. कहने की जरूरत नहीं कि मुशर्रफ की निगाह में असली लोकतंत्र वही था, जो उन्हें हुकूमत में बनाए रखता. लेकिन जब देश के लोगों को वाकई तय करने का मौका मिला और उन्होंने उनका बोरिया-बिस्तर बंधवा दिया, तब उनके लिए लोकतंत्र (चाहे वह असली हो या कुछ और) की कोई उपयोगिता नहीं रही. उनका हालिया बयान यही दिखाता है.

तानाशाह लोकतंत्र के प्रति अपने तिरस्कार को छिपाने की अक्सर कोशिश करते हैं, मगर वे इसमें कामयाब नहीं हो पाते, क्योंकि लोग उनके ख्यालों से सहमत नहीं होते. आखिरकार छात्रों, कामगारों और किसानों की साझा मुहिम ने ही अयूब को तख्त से बेदखल किया, जबकि जिया को अहिंसक जन-आंदोलन से जूझना पड़ा था, इसी तरह साल 2007 में जब मुशर्रफ ने दोबारा तख्तापलट की कोशिश की, तो उनको भी सिविल सोसायटी की नाराजगी का सामना करना पड़ा था. दरअसल, ये तानाशाह इसलिए लोकतंत्र का मजाक उड़ाते हैं, क्योंकि कुछ सत्ता-लोलुप राजनेताओं की उनसे मिलीभगत रही है.

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