नए साल के पहले दिन मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पुरी के समुद्र किनारे कुर्सी डाल कर बैठे चिंतन मनन कर रहे थे जिसकी उन्हें इन दिनों सख्त जरूरत भी है. दर्शन शास्त्र के छात्र रहे शिवराज सिंह को समझ आ रहा है राजनीति अनिश्चितताओं का समुच्चय है, जिसमें एक झटके में सारा वैभव छिन जाता है, ठीक वैसे ही जैसे कभी कभी एक झटके में मिल भी जाता है. लोकतांत्रिक राजनीति में भाग्य ब्रह्मा नहीं बल्कि वोटर लिखता है, यह बात भी उन्हें बीती 11 दिसंबर को समझ आ गई थी जब राज्य में न भाजपा की सरकार रही थी और न वे मुख्यमंत्री रह गए थे. वोटर ने उन्हें खारिज कर दिया था.
अब जो करना है उन्हें ही करना है यह बात भी भ्रम ही साबित हो रही है क्योंकि भाजपा में नेता का भविष्य नागपुर से लिखा जाता है. खुद अपनी तरफ से वे केंद्रीय राजनीति में जाने बाबत अनिच्छा जाहिर कर चुके हैं, क्योंकि वहां उनके करने लायक कुछ है नहीं, उनके क्या सिवाय नरेंद्र मोदी के किसी के पास करने कुछ नहीं है.
दिल्ली में शिवराज सिंह की कद काठी के दर्जनों भाजपाई नेताओं की फौज है जो सुबह कुल्ला कर लौन या दफ्तर मैं बैठकर मुलाकातियों को चाय पिलाया करते हैं. इन नेताओं की हालत पर कटे पक्षियों सरीखी है जिनका काम साहब की हां में हां मिलाना होता है, शायद इन्हीं को ध्यान में रखते मिर्जा गालिब काफी पहले कह गए थे कि, बना है साहिब का मुसाहिब फिरे है इतना इतराता, वगरना शहर में गालिब की आबरू क्या है.
13 साल तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह इन मुसाहिबों की फौज का हिस्सा नहीं बनना चाहते तो यह उनकी समझदारी ही है, लेकिन दिक्कत यह है कि अब उनके गृह राज्य के मुसाहिब ही उन्हें साहिब मानने तैयार नहीं, यानि सर्वमान्य तरीके से उन्हें विपक्ष का नेता स्वीकारने तैयार नहीं. जितनी परेशानियां कांग्रेस को कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाने में पेश नहीं आईं थीं उससे ज्यादा भाजपा को अपने विधानसभा नेता चुनने में आ रहीं हैं. शिवराज सिंह यह पद (उनके शब्दों में ज़िम्मेदारी) चाहते तो हैं, लेकिन वोटिंग के जरिये नहीं, वे निर्विरोध चुने जाना चाहते हैं, जिससे उनकी साख और रुतबा बना रहे.
दूसरी तरफ भाजपा का कथित लोकतंत्र है, जो इस बात पर अड़ा है कि नेता प्रतिपक्ष का चुनाव होना चाहिए. यह सुगबुगाहट विस्फोट की शक्ल में सामने न आए इसकी जिम्मेदारी गृह मंत्री राजनाथ सिंह को सौंपी गई है, जिन्हें बेहतर मालूम है कि सर पर खड़े लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ज्यादा हो हल्ला पार्टी को नुकसान ही पहुंचाएगा. राजनाथ सिंह को यह भी मालूम है कि मध्यप्रदेश में दूसरी पंक्ति के महत्वाकांक्षी नेताओं की भरमार है जो यह कह और पूछ रही है कि क्या इस अप्रत्याशित हार के बाद भी शिवराज सिंह ही सर्वेसर्वा होंगे, हमारी कोई अहमियत नहीं, हमें क्या कभी मौका ही नहीं मिलेगा.
इसमें कोई शक नहीं कि शिवराज सिंह हार के बाद भी लोकप्रिय हैं जिसे बनाए रखने वे हर मुमकिन कोशिश कर भी रहे हैं, इसलिए दिल्ली में वे सभी बड़े मुसाहिबों से मिले और अपने मन की बात कही, अब देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा शिवराज सिंह के बारे में क्या फैसला लेती है. संभावना इस बात की ज्यादा है कि उन्हें विदिशा लोकसभा सीट से लड़ने मना लिया जाये, जहां से विदेश मंत्री सुषमा स्वराज सांसद हैं और चुनाव लड़ने से मना कर चुकी हैं. हालांकि इस विधानसभा सीट से शिवराज सिंह के चहेते मुकेश टंडन कांग्रेस के शशांक भार्गव के हाथों हार चुके हैं, लेकिन बाकी 4 सीटें भाजपा अच्छे अंतर से जीतने में कामयाब रही है जिससे उसकी उम्मीदें अभी मरी नहीं हैं.
भाजपा की ब्राह्मण लाबी नहीं चाहती कि शिवराज सिंह को प्रदेश की राजनीति में अहमियत दी जाये, इस बाबत उसके अपने तर्क भी हैं कि शिवराज सिंह की दलित हिमायती इमेज के चलते भाजपा चौथी बार सत्ता के मुहाने तक आकर फिसल गई. खासतौर से एक वायरल हुये वीडियो को हार का जिम्मेदार बताया जा रहा है जिसमें दलितों के एक कार्यक्रम में शिवराज सिंह पूरी गर्मजोशी से कह रहे हैं कि जब तक वे हैं तब तक कोई माई का लाल आरक्षण खत्म नहीं कर सकता.
यह देखना भी दिलचस्प होगा कि कहीं भाजपा जरूरत से ज्यादा कड़ाई से पेश आते शिवराज सिंह को घर न बैठाल दे, इसमे आरएसएस की भूमिका अहम होगी जो भाजपा नेताओं की जन्मकुंडली के ग्रह नक्षत्रों की चाल और दशा तय करती है.