मध्य प्रदेश में आदिवासियों की तादाद सवा करोड़ से भी ज्यादा है और इनमें से अधिकांश राज्य की लाइफ लाइन कही जाने वाली नर्मदा नदी के किनारे रहते हैं. कहने सुनने को तो ये आदिवासी बड़े सरल और सहज हैं, पर इनका एक बड़ा एब खुद को हिन्दू न मानने की जिद है. पिछले साल फरबरी में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत आदिवासी बाहुल्य जिले बैतूल गए थे, तो वहां के आदिवासियों ने साफ तौर पर सार्वजनिक एतराज यह जताया था कि वे हिन्दू किसी भी कीमत या शर्त पर नहीं हैं, लेकिन संघ से जुड़े लोग आए दिन उन्हें हिन्दू बनाने और साबित करने उतारू रहते हैं, इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.
तब आदिवासी संगठनो की अगुवाई कर रहे एक आदिवासी शिक्षक कल्लू सिंह उइके ने इस प्रतिनिधि को बताया था कि आदिवासी हिंदुओं की तरह पाखंडी नहीं हैं और न ही मूर्ति पूजा में भरोसा करते हैं. ऐसे कई उदाहरण इस आदिवासी नेता ने गिनाए थे, जो यह साबित करते हैं कि वाकई आदिवासी हिन्दू नहीं हैं, यहां तक की शादी के फेरे भी इस समुदाय में उल्टे लिए जाते हैं और शव को दफनाया जाता है, जबकि हिन्दू धर्म में शव को जलाए जाने की परम्परा है.
तमाम शिक्षित और जागरूक आदिवासियों का डर यह है कि आरएसएस और भाजपा उन्हें हिन्दू करार देकर उनकी मौलिकता और प्राकृतिकता खत्म करने की साजिश रच रहे हैं, जिससे आदिवासियों की पहचान खत्म करने में सहूलियत रहे और धर्म व राजनीति में उनके इस्तेमाल किया जा सके. उधर संघ का दुखड़ा यह है कि ईसाई संगठन आदिवासियों को लालच और सहूलियतें देकर उन्हें अपने धर्म में शामिल कर रहे हैं, जो हिन्दुत्व के लिए बड़ा खतरा है.
ये तीनों ही बातें सच हैं और इस बाबत कोई रत्ती भर भी झूठ नहीं बोल रहा है. ईसाई मिशनरियां आजादी के पहले से इन जंगलों में घुसकर जानवरों सी जिंदगी जी रहे आदिवासियों के लिए स्वास्थ व शिक्षा मुहैया कराती रहीं हैं. अब यह हिंदुओं की कमजोरी या खुदगरजी रही कि वे कभी आदिवासियों के नजदीक नहीं गए, उल्टे उन्हे शूद्र और जंगली कहकर दुतकारते ही रहे. आदिवासी खुद को ईसाई धर्म में ज्यादा सहज और फिट महसूसते हैं तो इसकी कई वजहें भी हैं, एक लंबा ऐतिहासिक और धार्मिक विवाद इन वजहों की वजह है. यह विवाद द्रविड़ों और आर्यों का संघर्ष है, जो अब नए नए तरीकों से सामने आता रहता है. आदिवासी खुद को देश का मूल निवासी और बाकियों को बाहरी मानते हैं.
ये करेंगे कमाल
इस पूरे फसाद में आरएसएस ने कभी या अभी भी हथियार नहीं डाले हैं, इसकी ताजी मिसाल मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान द्वारा पांच संतों को राज्य मंत्री का दर्जा दे देना है. चुनावी साल के लिहाज से विवादित और चर्चित ये गैर जरूरी नियुक्तियां निश्चित ही एक जोखिम भरा फैसला है, जो हर किसी को चौंका रहा है और हर कोई अपने स्तर पर कयास भी लगा रहा है.
साधु संतों को राज्यमंत्री का दर्जा दिये जाने की एक बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि चूंकि इन पांचों ने शिवराज सिंह की चर्चित और विवादित नर्मदा यात्रा से जुड़े घोटाले उजागर करने की धोंस दी थी, इसलिए उनका मुंह बंद करने शिवराज सिंह के पास यही इकलौता रास्ता बचा था. बात एक हद तक सही भी है कि बीती 28 मार्च को इंदौर के गोम्मटगिरि में संत समुदाय की एक अहम मीटिंग में इस आशय का फैसला लेकर उसे सार्वजनिक भी किया गया था. इन संतों ने एलान किया था कि 1 अप्रेल से 15 मई तक वे नर्मदा घोटाला यात्रा निकालेंगे. यह धौंस पूर्वनियोजित इस लिहाज से लग रही है कि भारीभरकम खर्च के अलावा कोई घोटाला हुआ होता तो वह विपक्ष और मीडिया से छिपा नहीं रह पाता.
जिन पांच संतों को राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है उनमे सबसे बड़ा नाम चौकलेटी चेहरे बाले युवा संत भय्यू महाराज का है, जिनके दरबार में देश भर के दिग्गज नेता आकर माथा टेकते हैं, दूसरे चार हैं कंप्यूटर बाबा, नर्मदानन्द, हरिहरानंद और महंत योगेन्द्र. इन पांचों में कई बातें समान हैं, मसलन इन सभी ने कम उम्र में ही खासी दौलत और शोहरत हासिल कर ली है, इन पांचों का सीधा कनेकशन भगवान से है और अहम बात यह कि इन पांचों का नर्मदा नदी के घाटों और इलाकों पर अच्छा असर है, यानि इनका बड़ा भक्त वर्ग यहीं है.
नर्मदा नदी की परिक्रमा अगर कोई करे, तो वह राज्य की 230 विधानसभा सीटों में से 100 की नब्ज टटोल कर बता सकता है कि सियासी बहाव किस पार्टी की तरफ है. अपनी नर्मदा यात्रा के दौरान ही शिवराज सिंह को यह एहसास हो गया था कि उनकी इस धार्मिक तामझाम वाली यात्रा में आदिवासियों ने कोई दिलचस्पी नहीं ली है, इसके बाद भी वे संतुष्ट थे कि कुछ आदिवासी तो उनकी तरफ झुकेंगे ही.
शिवराज सिंह और आरएसएस का मकसद आदिवासी ही थे और हैं, जो इस बार धार्मिक कारणों के चलते भाजपा से बिदकने लगे हैं. जब बैतूल में मोहन भगवत का विरोध हुआ था तभी समझने वाले समझ गए थे कि इस दफा आदिवासी इलाकों में भगवा दाल नहीं गलने वाली, लिहाजा संघ ने भी इन इलाकों से अपनी गतिविधियां समेट लीं थीं. राज्य सरकार ने नर्मदा किनारे के इलाकों में पौधारोपण और जलसंरक्षण जैसे उबाऊ मसलों पर एक जागृति लाने एक विशेष समिति गठित कर इन पांचों को उसका सदस्य बनाते राज्य मंत्री का भी दर्जा दे डाला, तो किसी को इसकी वजह शिवराज सिंह की डोलती नैया लगी तो किसी को इस फैसले के पीछे उनकी सियासी लड़खड़ाहट नजर आई.
इत्तफाक से यह फैसला उस वक्त लिया गया जब सुप्रीम कोर्ट के एससी एसटी एक्ट में बदलाव या ढील के खिलाफ दलितों ने सड़कों पर आकर विरोध जताया था और देशव्यापी हिंसा में कोई डेढ़ दर्जन लोग मारे गए थे. सर्वाधिक हिंसा और मौतें भी इत्तफाक से मध्यप्रदेश में ही हुई थीं. दलितों ने अदालत से ज्यादा दोषी नरेंद्र मोदी की सरकार को करार दिया था, तो पूरी भाजपा थर्रा उठी थी और डेमेज कंट्रोल में जुट गई थी. इस हिंसक प्रदर्शन से एक अहम बात यह भी उजागर हुई थी कि दलितों का भाजपा से मोह भंग हो चुका है.
इन बातों से चिंतित और हैरान परेशान शिवराज सिंह को सहारा अगर आदिवासी वोटों में दिख रहा है तो उन्होंने उन्हें अपने पाले में खींचने इन पांडवों को जिम्मेदारी सौंप एक तीर से दो चार निशाने साधने की कोशिश ही की है जो कामयाब होंगे, इसमें शक है.
भाजपा की धर्म की राजनीति से अब आम लोग चिढ़ने लगे हैं, फिर पहले से ही चिढ़े बैठे आदिवासियों को ये संत रिझा पाएंगे ऐसा लग नहीं रहा. भाजपा के राज में साधु संतों की मौज ज्यादा रहती है और उन्हें दान दक्षिणा भी ज्यादा मिलती है. अब तो संत मंत्री बन गए हैं, लिहाजा उनका रुतबा और बढ़ा है, अब वे किसी घोटाले की बात नहीं कर रहे और न ही सरकार से मिलने वाली 7500 रुपये की पगार की उन्हें दरकार है, जो उनका शायद एक मिनट का भी खर्च पूरा न कर पाये.
इन संतों को चाहिए थे अफसरों के झुके सर और आगे पीछे हिफाजत में लगी पुलिस और यह सब इन्हें मिल रहा है तो वे आदिवासियों को हिन्दू होने के फायदे भी समझाएंगे और यह भी बताएंगे कि हनुमान, शबरी, केवट, सुग्रीव और अंगद आदिवासी होते हुये भी राम भक्त थे और कैसे राम ने उनका उद्धार किया था. अब नर्मदा किनारे रोपे गए 6 करोड़ पेड़ गिनने के बजाय नर्मदा के घाटों पर पूजा–पाठ, यज्ञ- हवन और आरतियां व प्रवचन होंगे, क्योंकि इन संतों का तो पेशा ही यही है. लपेटे में अगर आया तो वह गरीब आदिवासी होगा, जो हिन्दू धर्म के कर्मकांडों और पाखण्डों का न तो आदी है और न ही पहले कभी इससे सहमत हुआ था.