राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में तलाक को लेकर जो बयान दिया है, उससे स्त्रियों के प्रति उनकी दकियानूसी सोच तो जाहिर होती ही है, यह भी पता चलता है कि भारतीय समाज के बारे में उनकी जानकारी कितनी कम है. भागवत ने कहा कि – ‘तलाक के ज्यादातर मामले पढ़े-लिखे और सम्पन्न परिवारों में ही देखने को मिल रहे हैं. इन दिनों शिक्षा और आर्थिक सम्पन्नता के साथ लोगों में घमंड भी आ रहा है, जिसके कारण परिवार टूट रहे हैं.’

भागवत के इस बयान पर पहली प्रतिक्रिया बॉलीवुड अभिनेत्री सोनम कपूर की आयी. सोनम ने ट्विटर पर भागवत की आलोचना करते हुए लिखा, ‘कौन समझदार इंसान ऐसी बातें करता है? पिछड़ा हुआ मूर्खतापूर्ण बयान.’

इस छोटी सी प्रतिक्रिया के निहितार्थ बड़े हैं. सोनम की हिम्मत की दाद देनी होगी. सोनम ने थोड़े से शब्दों में भागवत की अक्लमंदी पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. उनकी दकियानूसी सोच पर सवाल खड़ा कर दिया है. भागवत के बयान पर गौर करें तो भारतीयों को न तो ज्यादा पढ़ा लिखा होना चाहिए और न ही सम्पन्न होना चाहिए, क्योंकि शिक्षित और सम्पन्न होना तलाक का कारण है. इसे विडम्बना ही कहिए कि ऐसी बदबू मारती विचारधारा आज देश की सत्ता चला रहे लोगों के पीछे काम कर रही है. यही विचारधारा जो पति को परमेश्वर का दर्जा दे कर औरत को उसके पैरों में पड़ा रहने को मजबूर करती है. यही विचारधारा जो औरत को ताड़ण का अधिकारी बनाती है. पुरुष को औरत पर प्रहार करने के लिए उकसाती है. यही विचारधारा जो देश और स्त्री की प्रगति के मार्ग में अवरोध है. यही विचारधारा है जो देश को सदियों पीछे ढकेल देना चाहती है. यही विचारधारा स्त्रियों की आजादी की दुश्मन है. यही विचारधारा है जो मनुवाद को पुन: स्थापित करके स्त्रियों को फिर से बंधनों में जकड़ देना चाहती है, उसे पुरुष का गुलाम बना देना चाहती है.

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एनआरसी, सीएए, एनपीआर के जरिए हिन्दू राष्ट्र यानी मनुवाद की स्थापना की मंशा लेकर निकले संघ को अब स्त्रियां चुनौती दे रही हैं. इसीलिए शाहीनबाग ने जन्म लिया है, जामिया और जेएनयू सीना तान कर खड़ा है. संघ के खिलाफ लड़ाई में आज हर धर्म से जुड़ी औरतें कूद पड़ी हैं. आधी आबादी हरगिज नहीं चाहती कि ‘मनुवाद की स्थापना’ जैसी संघ की अतिमहत्वकांक्षी योजना मोदी-शाह के हाथों परवान चढ़ जाए. भारतीय स्त्री जो पितृसत्ता की गुलामी से किसी तरह बाहर आ रही है, वह क्यों चाहेगी कि वापस उसी कुएं में ढकेल दी जाएं. यह मोर्चाबंदी इसलिए जोर पकड़ रही है क्योंकि संघ के हिन्दू राष्ट्र में जिस तरह की नारी की कल्पना है, वह देश की पढ़ी-लिखी, तरक्कीपसंद लड़कियों के सपनों के ठीक उलटी है. आने वाले वक्त में संघ की विचारधारा, उसकी मानसिकता और सबल लड़कियों का टकराव और तेज होगा, इसमें कोई शक नहीं है.

गौरतलब है कि संघसरचालक जिन्हें ‘परम-पूज्य’ कह कर सम्बोधित किया जाता है और जिनकी वाणी को ‘देववाणी’ जैसा महत्व दिया जाता है, उनके अनुसार नारी को हमेशा पुरुष के ऊपर आश्रित होना चाहिए. संघसरचालक के कथनानुसार- ‘पति और पत्नी एक अनुबंध में बंधे हैं जिसके तहत पति ने पत्नी को घर संभालने की जिम्मेदारी सौंपी है और वादा किया है कि मैं तुम्हारी सभी जरूरतें पूरी करूंगा, मैं तुम्हें सुरक्षित रखूंगा. अगर पति इस अनुबंध की शर्तों का पालन करता है, और जब तक पत्नी इस अनुबंध की शर्तों को मानती है, पति उसके साथ रहता है, अगर पत्नी अनुबंध को तोड़ती है तो पति उसे छोड़ सकता है.’ इस बकवास को आज की पढ़ी-लिखी पीढ़ी भला क्योंकर मानने लगी?

उल्लेखनीय है कि औरतों से संघ के रिश्ते हमेशा छत्तीस के रहे हैं. संघ में औरतों का प्रवेश वर्जित है क्योंकि संघ का नेतृत्व हमेशा से ब्रह्मचर्य का व्रत लेने वालों के हाथों में रहा है. इन्हें औरतों से खतरा महसूस होता है. उनकी नजरों में औरतें माता या पुत्री हो सकती हैं, जिनका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व सम्भव नहीं है. उनके मुताबिक औरतें स्वयंसेवक नहीं हो सकतीं, वे सिर्फ सेविकाएं हो सकती हैं. वे सेवा कर सकती हैं, लेकिन वह भी स्वयं की इच्छा से नहीं, बल्कि अपने पुरुष के कहे अनुसार. संघ का मत है कि पुरुष का कार्य है बाहर जाकर काम करना, धन कमाना, पौरुष दिखाना, जबकि स्त्री का गुण मातृत्व है. स्त्री को साड़ी पहननी चाहिए, शाकाहारी भोजन करना चाहिए, विदेशी संस्कृति का परित्याग करना चाहिए, धार्मिक कार्यों में अपना समय लगाना चाहिए, हिन्दू संस्कृति की रक्षा करनी चाहिए, खेलकूद और राजनीति से बिल्कुल दूर रहना चाहिए.

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औरतों को बंधनों में जकड़े रखने वाली ऐसी विचारधारा को संघ के अनुयायी कैसे सिर-आंखों पर रखते हैं और उसका पालन करवाने की कोशिश करते हैं, इसके उदाहरण भी समाज में बिखरे पड़े हैं. बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रोफेसर गिरीश चन्द्र त्रिपाठी कहते हैं, ‘मैं आरएसएस से जुड़ा हुआ हूं और मुझे इस पर गर्व है. मैं बीएचयू को जेएनयू नहीं बनने दूंगा.’

गौरतलब है कि नवंबर 2014 में जब देश में भाजपा का शासन आया तो मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) में संघ से जुड़े प्रोफेसर गिरीश चन्द्र त्रिपाठी वाइसचांसलर नियुक्त हुए थे और तभी से उन्होंने संघ की महिला-विरोधी विचारधारा को यूनिवर्सिटी में लागू करना शुरू कर दिया था. उन्होंने गर्ल्स हॉस्टल के भीतर ड्रेस कोड लागू कर डाला और रात दस बजे के बाद छात्राओं द्वारा मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी. बीते छह सालों में बीएचयू में लड़कियों के ऊपर पाबन्दियां बढ़ती चली गयीं. पाबंदियों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है. यहां छात्राओं के जीवन को संघ के दर्शन के अनुरूप ढालने के प्रयास में वाइसचांसलर गिरीश चन्द्र त्रिपाठी दिनरात एक किये हुए हैं. यूनिवर्सिटी में लड़कों और लड़कियों के लिए एक नियम नहीं, बल्कि अलग-अलग नियम चल रहे हैं. वहां लड़कियों को हर हाल में अपने हॉस्टल में रात आठ बजे तक लौटना होता है. वहां लड़कों को मेस में मांसाहारी भोजन मिलता है, लेकिन लड़कियों को नहीं मिलता है. वहां लड़कियां रात दस बजे के बाद अपना मोबाइल फोन इस्तेमाल नहीं कर सकती हैं. वहां छात्राओं को लिखित शपथ लेनी होती है कि वे किसी राजनीतिक गतिविधि या विरोध प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लेंगी. वहां गर्ल्स हॉस्टल के भीतर भी छोटे कपड़े पहनने पर पाबंदी है.

संघ और मोदी-शाह के लिए बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी अपने एजेंडे को लागू करने के लिए मॉडल यूनिवर्सिटी है. वहां का कुलपति संघ का आदमी है, जो सीना पीट कर कहता है कि वह बीएचयू को जेएनयू नहीं बनने देगा. वह वहां लड़कियों पर संघ की विचारधारा को लागू कर सकता है. इसलिए बीएचयू मोदी की मॉडल यूनिवर्सिटी है.

लेकिन सारे प्रतिबंधों के बावजूद आज बीएचयू की छात्राएं शासन-प्रशासन से मोर्चा ले रही हैं. वहां से आने वाली तस्वीरों पर नजर दौड़ाइये, धरना-प्रदर्शनों में शामिल कोई लड़की साड़ी में नजर नहीं आती, सभी जींस-पैंट या सलवार-कुर्ते में हैं. इनके हाथों में सरकार विरोधी पोस्टर हैं. वे पुलिस के डंडे खाने के लिए तैयार हैं क्योंकि इन लड़कियों की आंखों में मां बनने के नहीं, करियर के सपने हैं. उन्हें मालूम है कि अगर आज वे नहीं निकलीं तो सदियों पीछे ढकेल दी जाएंगी. वे बहुत जद्दोजहद के बाद घर से निकल पायी हैं, वे समाज में अपने दम पर इज्जत से रहना चाहती हैं. हॉस्टल में रहने की अनुमति उन्हें आसानी से नहीं मिली होगी. इसके लिए उन्होंने संघर्ष किया होगा. अपनों से लड़ी होंगी. इस सफलता को वे संघ की इच्छा की बलिवेदी पर हरगिज नहीं चढ़ने देंगी.

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उन्हें हिन्दू राष्ट्र की रक्षा के लिए सबल और संस्कारी पुत्र पैदा करने की भूमिका में धकेला जाना कैसे मंजूर होगा? वे साक्षी महाराज के चार बच्चे पैदा करने के आह्वान में योगदान करने वाली माताएं बनने के इरादे से तो यूनिवर्सिटी नहीं आयी हैं. संघ की पौधशाला से उमा भारती और साध्वी निरंजन ज्योति ही पैदा हो सकती हैं, जिन्होंने कभी किसी यूनिवर्सिटी की शोभा नहीं बढ़ायी, लेकिन ये लड़कियां वहां से बहुत आगे निकल चुकी हैं. उन्हें आदर्श बहू या संस्कारी हिन्दू माता बनाने की कोशिश जिस किसी यूनिवर्सिटी में होगी, वहां ऐसा ही टकराव ही देखने को मिलेगा.

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