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सर्दियों की इन परेशानियों का इलाज है हरा लहसुन

सर्दियों में कई तरह की सब्जियां बाजार में रहती हैं. इस दौरान जो सब्जी सबसे ज्यादा बाजार में दिखती है वो है हरा लहसुन. सर्दियों में इसे खाने से कई लाभ होते है. यहां हम इसके कुछ फायदे बता रहे हैं.

1.ब्‍लड शुगर को करे नियंत्रित

ब्लड सुगर पर नियंत्रण करने में हरा लहसुन काफी कारगर है. डायबिटीज के मरीजों को इसका सेवन जरूर करना चाहिए. ब्लडप्रेशर के मरीजों के लिए ये किसी दवा से कम नहीं है.

2.श्‍वसन तंत्र के लिए फायदेमंद

सांस की परेशानियों में इसका रोज सेवन बेहद फायदेमंद है. यह श्वसन तंत्र की कार्य प्रणाली को बेहतर बनाता है.

3. आयरन का स्‍त्रोत

हरे लहुसन में मौजूद प्रोटीन फेरोपौर्टिन कोशिका के अंदर आयरन को संग्रहित करता है, जिससे शरीर को आवश्यकतानुसार आयरन मिलता रहता है.

4.दिमाग में ब्‍लड सकुर्लेशन बढ़ाए

दिमाग में ब्लड सकुर्लेशन को बेहतर करने में भी हरा लहसुन काफी फायदेमंद होता है. इस मौसम में आप दिमाग तेज करना चाहते हैं तो हरे लहसुन का सेवन करना शुरू कर दें.

5.गुड कौलेस्‍ट्रौल बढ़ाता है

हरे लहसुन में पौलीसल्फाइड की भरपूर मात्रा होती है. दिल की बीमारी में ये काफी लाभकारी होता है. इसके अलावा इसमें मैग्‍नीज की भरपूर मात्रा होती है, ये गुड कौलेस्ट्रौल के लिए महत्वपुर्ण कारक है. दिल की बेहतरी के लिए ये काफी कारगर होता है.

6.एंटीसेप्टिक की तरह करता है काम

हरे लहुसन में एंटीबैक्‍टीरियल गुण होते हैं. यह एक बेहतरीन एंटीसेप्टिक की तरह काम करता है. किसी भी तरह के घाव में ये काफी असरदार होता है. इसको नियमित खाने से आपके अंदर घावों को जल्दी भरने की क्षमता विकसित होती है.

लालच : रंजीता क्या बच पाई जिस्मफरोशी के जाल से

रंजीता बहुत खूबसूरत तो नहीं थी, लेकिन बननेसंवरने में उसे बहुत दिलचस्पी थी. जब वह सजसंवर कर खुद को आईने में देखती, तो मुसकराने लगती. रंजीता अपनी असली उम्र से कम लगती थी. उसे घर के कामों में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी और वह बाजार में खरीदारी करने की शौकीन थी.

रंजीता को शेरोशायरी से लगाव था और वह अपनी शोखियों से महफिल लूट लेने का दम रखती थी. रंजीता का अपने पति रमेश से झगड़ा चल रहा था. इसी बीच उन के महल्ले का साबिर मुंबई से लौट आया था. वह चलता पुरजा था.

एक दिन मुशायरे में उन दोनों का आमनासामना हो गया. साबिर ने आदाब करते हुए कहा, ‘‘आप तो पहुंची हुई शायरा लगती हैं. आप मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में क्यों नहीं कोशिश करती हैं?’’ रंजीता पति रमेश की जलीकटी बातों से उकताई हुई थी. साबिर की बातों से जैसे जले पर रूई के फाहे सी ठंडक मिली. उस ने अपना भाव जाहिर करते हुए कहा, ‘‘साबिर, आप क्या मुझे बेवकूफ समझते हैं?’’

साबिर ने तुरंत अपना जाल बिछाया, ‘‘नहीं मैडम, मैं सच कह रहा हूं कि आप वाकई पहुंची हुई शायरा हैं.’’ रंजीता ने साबिर को अपने घर दिन के खाने पर बुला लिया. रात के खाने पर रमेश से झगड़ा हो सकता था.

खाने पर रंजीता व साबिर ने खूब खयालीपुलाव पकाए और योजना बनाई कि रंजीता अपनी जमापूंजी ले कर हफ्ते के आखिर में जा रही ट्रेन से मुंबई चलेगी. साबिर ने तो उस की जवान होती लड़की को भी साथ चलने के लिए कहा, पर रंजीता ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं. बेटी को घर पर ही रख कर वह अपनी पक्की सहेली से बेटी से मिलते रहने की कह कर 50 हजार रुपए ले कर चल दी.

रंजीता जब गाड़ी में बैठी, तो उस का दिल धकधक कर रहा था. पर वह मन में नए मनसूबे बनाती जा रही थी. इन्हीं सब बातों को याद करती हुई वह मुंबई पहुंच गई. साबिर ने उसे वेटिंग रूम में ही तैयार होने को कहा और फोन पर किसी से मिलने की मुहलत मांगी.

रंजीता का चेहरा बुझ सा गया था. वह नए शहर में गुमसुम हो गई थी. साबिर ने उस से कहा, ‘‘चलो, कहीं होटल में कुछ खा लेते हैं.’’

कुछ देर में वे दोनों एक महंगे रैस्टोरैंट में थे. साबिर ने उस से पूछे बिना ही काफी महंगी डिश का और्डर किया. जब दोनों ने खाना खा लिया, तो साबिर ने यों जाहिर किया कि मानो उस का पर्स मिल नहीं रहा था. झक मार कर रंजीता ने ही वह भारी बिल अदा किया. रंजीता को घर की भी बेहद याद आ रही थी. घर से दूर आ कर वह महसूस कर रही थी कि पति के साए में वह कितनी बेफिक्र रहती थी.

अब साबिर व रंजीता एक टैक्सी से किसी सरजू के दफ्तर जा रहे थे. इस बार रंजीता ने खुद ही टैक्सी का भाड़ा दे दिया. उस ने साबिर को नौटंकी करने का चांस नहीं दिया. सरजू एक ऐक्टिंग इंस्टीट्यूट चलाता था. हालांकि वह खुद एक पिटा हुआ ऐक्टर था, पर मुंबई में ऐक्टिंग सिखाने का उस का धंधा सुपरहिट था.

सरजू के दफ्तर तक रंजीता को पहुंचा कर साबिर को जैसे कुछ याद आया. वह उठ खड़ा हुआ और ‘बस, अभी आता हूं’ कह कर बगैर रंजीता के जवाब का इंतजार किए चला गया. अब रंजीता और सरजू आमनेसामने बैठे थे. वह इधरउधर देखने की कोशिश करने लगी, जबकि सरजू उसे देख रहा था.

कुछ देर की खामोशी के बाद सरजू बोला, ‘‘लगता है कि आप थकी हुई हैं. आप ऐसा कीजिए कि रात तक नींद ले लीजिए.’’ सरजू की एक नौकरानी ने सोने का कमरा दिखा दिया. रंजीता सोई तो नहीं, पर वह उस कमरे में अपनी शायरी की किताब निकाल कर पढ़ने लगी. कब आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला.

सुबह जब संगीता को होश आया, तो उस ने खुद को पुलिस से घिरा पाया. एक खूबसूरत लड़की भी उस के पास खड़ी थी. पुलिस इंस्पैक्टर विनोद ने कहा, ‘‘लगता है कि आप होश में आ गई हैं.’’

रंजीता उठ बैठी. कपड़े टटोले. वह लड़की मुसकरा रही थी. इंस्पैक्टर विनोद ने उस लड़की को देख कर कहा, ‘‘थैंक्स समीरा मैडम, अब आप जा सकती हैं.’’

रंजीता भी उठ खड़ी हुई. इंस्पैक्टर विनोद ने कहा, ‘‘आप भी समीरा मैडम का शुक्रिया अदा कीजिए.’’ रंजीता कुछ नहीं समझी. तब इंस्पैक्टर विनोद ने बताया, ‘‘आप को साबिर ने सरजू को बेच दिया था. यह शख्स ऐटिंक्ग इंस्टीट्यूट की आड़ में जिस्मफरोशी का धंधा चलाता है.

समीरा मैडम को इन्होंने इसी तरह से धोखा दे कर बेचा था, पर वे बार डांसर बन कर आज आप जैसी धोखे की शिकार औरतों को बचाने की मुहिम चलाती हैं.’’ समीरा बोली, ‘‘और विनोदजी जैसे पुलिस इंस्पैक्टर मदद करें, तभी हम बच सकती हैं, वरना…’’

यह कहते हुए समीरा के आंसुओं ने सबकुछ कह दिया. तभी वह नौकरानी आ गई. समीरा ने उसे कुछ रुपए दिए और बताया कि इसी काम वाली ने उसे फोन कर के बताया था. शाम को रंजीता अपने शहर जा रही ट्रेन पर सवार हो गई. उस ने मन ही मन समीरा का शुक्रिया अदा किया और इस मायानगरी को अलविदा कह दिया.

मकर संक्राति 2023 : ड्राई फ्रूट के लड्डू ऐसे बनाएं

दोस्तों आज हम बनाने जा रहे हैं ड्राई फ्रूट का लड्डू जो एनर्जी से भरपूर होता है. इस लड्डू को आप चाहे तो अपने घर पर भी बना सकते हैं. यह लड्डू स्वादिष्ट होने के साथ- साथ फायदेमंद भी होता है.

समाग्री

  1. 1/2 कप बादाम कटे हुए
  2. 1/2 कप काजू कटे हुए
  3. 1/2 कप अखरोट कटे हुए
  4. 1/4 कप पिस्ता
  5. 1 टी स्पून छोटी इलायची पाउडर
  6. 4 टेबलस्पून देसी घी
  7. 1/4 कप किशमिश
  8. 1 कप चीनी
  9. 3 कप नारियल कद्दूकस किया
  10. विधि
    -लड्डू बनाने के लिए सबसे पहले एक पैन में एक टेबलस्पून घी डालकर गर्म होने के लिए रख दे.अब इसमें बादाम,काजू डालकर चलाते हुए हल्की आंच पर रोस्ट कर ले.

-दो मिनिट काजू,बादाम को भूनने के बाद इसमें अखरोट, पिस्ता ओर किशमिश डालकर सभी चीजों को स्लो गैस पर हल्का सा भून ले.

-नारियल से लड्डू में बाई डि ग अच्छे से हो जाती है.जब नारियल में कर्चिपन आ जाए तो गैस को स्लो कर दे . इसमें इलायची पाउडर भी डाल दे.

-पैन में चाशनी बनाने के लिए एक कप पानी डालकर लो टू मीडियम आंच पर पकने दे.जब चाशनी को पकते हुए.५से७ मिनिट हो जाए . तो चाशनी को चेक कर ले. चाशनी बन गई तो गैस बद कर दे.(अगर आपकी चाशनी का तार ना बना हो तो चाशनी को थोड़ी देर ओर पका ले.

-अब नारियल में सभी रोस्ट किये हुए ड्राई फ्रूट डालकर चाशनी के साथ दो मिनिट तक सभी चीजों को चलाते हुए पकाएं.ताकि लड्डू आसानी से बन जाए.

-दो मिनिट में ही हमारा मिश्रण लड्डू बनाने के लिए रेडी है. गैस को बद कर दे ओर मिश्रण लेकर लड्डू बना ले.सभी लड्डू इसी तरह से बनाकर तेयार कर ले.

-जब मिश्रण थोड़ा ठ डा हो जाए तो हाथो पर घी लगाकर चिकना कर ले.फिर थोड़ा मिश्रण लेकर लड्डू बना ले.सभी लड्डू इसी तरह से बनाकर लड्डू तेयार है.

 

बगावत-भाग 1 : कैसे प्यार से भर गया उषा का आंचल

महीने भर का राशन चुकने को हुआ तो सोचा, आज ही बाजार हो आऊं. आज और कहीं जाने का कार्यक्रम नहीं था और कोई खास काम भी करने के लिए नहीं था. यही सोच कर पर्स उठाया, पैसे रखे और बाजार चल दी. दुकानदार को मैं अपने सौदे की सूची लिखवा रही थी कि अचानक पीछे से कंधे पर स्पर्श और आंखों पर हाथ रखने के साथसाथ ‘निंदी’ के उच्चारण ने उलझन में डाल दिया. यह तो मेरा मायके का घर का नाम है. कोई अपने शहर का निकट संबंधी ही होना चाहिए जो मेरे घर के नाम से वाकिफ हो. आंखों पर रखे हाथ को टटोल कर पहचानने में असमर्थ रही. आखिर उसे हटाते हुए बोली, ‘‘कौन?’’

‘‘देख ले, नहीं पहचान पाई न.’’ ‘‘उषा तू…तू यहां कैसे…’’ अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, कालिज में साथ पढ़ी अपनी प्यारी सखी उषा को सामने खड़ी देख कर. मुखमंडल पर खेलती वही चिरपरिचित मुसकान, सलवारकमीज पहने, 2 चोटियों में उषा आज भी कालिज की छात्रा प्रतीत हो रही थी.

‘‘क्यों, बड़ी हैरानी हो रही है न मुझे यहां देख कर? थोड़ा सब्र कर, अभी सब कुछ बता दूंगी,’’ उषा आदतन खिलखिलाई. ‘‘किस के साथ आई?’’ मैं ने कुतूहलवश पूछा.

‘‘उन के साथ और किस के साथ आऊंगी,’’ शरारत भरे अंदाज में उषा बोली. ‘‘तू ने शादी कब कर ली? मुझे तो पता ही नहीं लगा. न निमंत्रणपत्र मिला, न किसी ने चिट्ठी में ही कुछ लिखा,’’ मैं ने शिकायत की.

‘‘सब अचानक हो गया न इसलिए तुझे भी चिट्ठी नहीं डाल पाई.’’ ‘‘अच्छा, जीजाजी क्या करते हैं?’’ मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी.

‘‘वह टेलीफोन विभाग में आपरेटर हैं,’’ उषा ने संक्षिप्त उत्तर दिया. ‘‘क्या? टेलीफोन आपरेटर… तू डाक्टर और वह…’’ शब्द मेरे हलक में ही अटक गए.

‘‘अचंभा लग रहा है न?’’ उषा के मुख पर मधुर मुसकान थिरक रही थी. ‘‘लेकिन यह सब कैसे हो गया? तुझे अपने कैरियर की फिक्र नहीं रही?’’

‘‘बस कर. सबकुछ इसी राशन की दुकान पर ही पूछ लेगी क्या? चल, कहीं पास के रेस्तरां में कुछ देर बैठते हैं. वहीं आराम से सारी कहानी सुनाऊंगी.’’ ‘‘रेस्तरां क्यों? घर पर ही चल न. और हां, जीजाजी कहां हैं?’’

‘‘वह विभाग के किसी कार्य के सिलसिले में कार्यालय गए हैं. उन्हीं के कार्य के लिए हम लोग यहां आए हैं. अचानक तेरे घर आ कर तुझे हैरान करना चाहते थे, पर तू यहीं मिल गई. हम लोग नीलम होटल में ठहरे हैं, कल ही आए हैं. 2 दिन रुकेंगे. मैं किसी काम से इस ओर आ रही थी कि अचानक तुझे देखा तो तेरा पीछा करती यहां आ गई,’’ उषा चहक रही थी. कितनी निश्छल हंसी है इस की. पर एक टेलीफोन आपरेटर के साथ शादी इस ने किस आधार पर की, यह मेरी समझ से बाहर की बात थी.

‘‘हां, तेरे घर तो हम कल इकट्ठे आएंगे. अभी तो चल, किसी रेस्तरां में बैठते हैं,’’ लगभग मुझे पकड़ कर ले जाने सी उतावली वह दिखा रही थी.

दुकानदार को सारा सामान पैक करने के लिए कह कर मैं ने बता दिया कि घंटे भर बाद आ कर ले जाऊंगी. उषा को ले कर निकट के ही राज रेस्तरां में पहुंची. समोसे और कौफी का आदेश दे कर उषा की ओर मुखातिब होते हुए मैं ने कहा, ‘‘हां, अब बता शादी वाली बात,’’ मेरी उत्सुकता बढ़ चली थी. ‘‘इस के लिए तो पूरा अतीत दोहराना पड़ेगा क्योंकि इस शादी का उस से बहुत गहरा संबंध है,’’ कुछ गंभीर हो कर उषा बोली.

‘‘अब यह दार्शनिकता छोड़, जल्दी बता न, डाक्टर हो कर टेलीफोन आपरेटर के चक्कर में कैसे पड़ गई?’’ 3 भाइयों की अकेली बहन होने के कारण हम तो यही सोचते थे कि उषा मांबाप की लाड़ली व भाइयों की चहेती होगी, लेकिन इस के दूसरे पहलू से हम अनजान थे.

उषा ने अपनी कहानी आरंभ की. बचपन के चुनिंदा वर्ष तो लाड़प्यार में कट गए थे लेकिन किशोरावस्था के साथसाथ भाइयों की तानाकशी, उपेक्षा, डांटफटकार भी वह पहचानने लगी थी. चूंकि पिताजी उसे बेटों से अधिक लाड़ करते थे अत: भाई उस से मन ही मन चिढ़ने लगे थे. पिता द्वारा फटकारे जाने पर वे अपने कोप का शिकार उषा को बनाते.

‘‘मां और पिताजी ने इसे हद से ज्यादा सिर पर चढ़ा रखा है. जो फरमाइशें करती है, आननफानन में पूरी हो जाती हैं,’’ मंझला भाई गुबार निकालता. ‘‘क्यों न हों, आखिर 3-3 मुस्टंडों की अकेली छोटी बहन जो ठहरी. मांबाप का वही सहारा बनेगी. उन्हें कमा कर खिलाएगी, हम तो ठहरे नालायक, तभी तो हर घड़ी डांटफटकार ही मिलती है,’’ बड़ा भाई अपनी खीज व आक्रोश प्रकट करता.

कुशाग्र बुद्धि की होने के कारण उषा पढ़ाई में हर बार अव्वल आती. चूंकि सभी भाई औसत ही थे, अत: हीनभावना के वशीभूत हो कर उस की सफलता पर ईर्ष्या करते, व्यंग्य के तीर छोड़ते. ‘‘उषा, सच बता, किस की नकल की थी?’’

‘‘जरूर इस की अध्यापिका ने उत्तर बताए होंगे. उस के लिए यह हमेशा फूल, गजरे जो ले कर जाती है.’’ उषा तड़प उठती. मां से शिकायत करती लेकिन मांबेटों को कुछ न कह पाती, अपने नारी सुलभ व्यवहार के इस अंश को वह नकार नहीं सकती थी कि उस का आकर्षण बेटी से अधिक बेटों के प्रति था. भले ही वे बेटी के मुकाबले उन्नीस ही हों.

यौवनावस्था आतेआते वह भली प्रकार समझ चुकी थी कि उस के सभी भाई केवल स्नेह का दिखावा करते हैं. सच्चे दिल से कोई स्नेह नहीं करता, बल्कि वे ईर्ष्या भी करते हैं. हां, अवसर पड़ने पर गिरगिट की तरह रंग बदलना भी वे खूब जानते हैं.

‘‘उषा, मेरी बहन, जरा मेरी पैंट तो इस्तिरी कर दे. मुझे बाहर जाना है. मैं दूसरे काम में व्यस्त हूं,’’ खुशामद करता छोटा भाई कहता. ‘‘उषा, तेरी लिखाई बड़ी सुंदर है. कृपया मेरे ये थोड़े से प्रश्नोत्तर लिख दे न. सिर्फ उस कापी में से देख कर इस में लिखने हैं,’’ कापीकलम थमाते हुए बड़ा कहता.

भाइयों की मीठीमीठी बातों से वह कुछ देर के लिए उन के व्यंग्य, उलाहने, डांट भूल जाती और झटपट उन के कार्य कर देती. अगर कभी नानुकर करती तो मां कहतीं, ‘‘बेटी, ये छोटेमोटे झगड़े तो सभी भाईबहनों में होते हैं. तू उन की अकेली बहन है. इसलिए तुझे चिढ़ाने में उन्हें आनंद आता है.’’ भाइयों में से किसी को भी तकनीकी शिक्षा में दाखिला नहीं मिला था. बड़ा बी.काम. कर के दुकान पर जाने लगा और छोटा बी.ए. में प्रवेश ले कर समय काटने के साथसाथ पढ़ाई की खानापूर्ति करने लगा. इस बीच उषा ने हायर सेकंडरी प्रथम श्रेणी में विशेष योग्यता सहित उत्तीर्ण कर ली. कालिज में उस ने विज्ञान विषय ही लिया क्योंकि उस की महत्त्वाकांक्षा डाक्टर बनने की थी.

‘‘मां, इसे डाक्टर बना कर हमें क्या फायदा होगा? यह तो अपने घर चली जाएगी. बेकार इस की पढ़ाई पर इतना खर्च क्यों करें,’’ बड़े भाई ने अपनी राय दी. तड़प उठी थी उषा, जैसे किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो. भाई अपनी असफलता की खीज अपनी छोटी बहन पर उतार रहा था. ‘आखिर उसे क्या अधिकार है उस की जिंदगी के फैसलों में हस्तक्षेप करने का? अभी तो मांबाप सहीसलामत हैं तो ये इतना रोब जमा रहे हैं. उन के न होने पर तो…’ सोच कर के ही वह सिहर उठी.

पिताजी ने अकसर उषा का ही पक्ष लिया था. इस बार भी वही हुआ. अगले वर्ष उसे मेडिकल कालिज में दाखिला मिल गया. डाक्टरी की पढ़ाई कोई मजाक नहीं. दिनरात किताबों में सिर खपाना पड़ता. एक आशंका भी मन में आ बैठी थी कि अगर कहीं पहले साल में अच्छे अंक नहीं आ सके तो भाइयों को उसे चिढ़ाने, अपनी कुढ़न निकालने और अपनी कुंठित मनोवृत्ति दर्शाने का एक और अवसर मिल जाएगा. वे तो इसी फिराक में रहते थे कि कब उस से थोड़ी सी चूक हो और उन्हें उसे डांटने- फटकारने, रोब जमाने का अवसर प्राप्त हो. अत: अधिकांश वक्त वह अपनी पढ़ाई में ही गुजार देती.

कालिज के प्रांगण के बाहर अमरूद, बेर तथा भुट्टे लिए ठेले वाले खड़े रहते थे. वे जानते थे कि कच्चेपक्के बेर, अमरूद तथा ताजे भुट्टों के लोभ का संवरण करना कालिज के विद्यार्थियों के लिए असंभव नहीं तो कम से कम मुश्किल तो है ही. उन का खयाल बेबुनियाद नहीं था क्योंकि शाम तक लगभग सभी ठेले खाली हो जाते थे.

अपनी सहेलियों के संग भुट्टों का आनंद लेती उषा उस दिन प्रांगण के बाहर गपशप में मशगूल थी. पीरियड खाली था. अत: हंसीमजाक के साथसाथ चहल- कदमी जारी थी. छोटा भाई उसी तरफ से कहीं जा रहा था. पूरा नजारा उस ने देखा. उषा के घर लौटते ही उस पर बरस पड़ा, ‘‘तुम कालिज पढ़ने जाती हो या मटरगश्ती करने?’’ उषा कुछ समझी नहीं. विस्मय से उस की ओर देखते हुए बोली, ‘‘क्यों, क्या हुआ? कैसी मटरगश्ती की मैं ने?’’

तब तक मां भी वहां आ चुकी थीं, ‘‘मां, तुम्हारी लाड़ली तो सहेलियों के साथ कालिज में भी पिकनिक मनाती है. मैं ने आज स्वयं देखा है इन सब को सड़कों पर मटरगश्ती करते हुए.’’ ‘‘मां, इन से कहो, चुप हो जाएं वरना…’’ क्रोध से चीख पड़ी उषा, ‘‘हर समय मुझ पर झूठी तोहमत लगाते रहते हैं. शर्म नहीं आती इन को…पता नहीं क्यों मुझ से इतनी खार खाते हैं…’’ कहतेकहते उषा रो पड़ी.

‘‘चुप करो. क्या तमाशा बना रखा है. पता नहीं कब तुम लोगों को समझ आएगी? इतने बड़े हो गए हो पर लड़ते बच्चों की तरह हो. और तू भी तो उषा, छोटीछोटी बातों पर रोने लगती है,’’ मां खीज रही थीं. तभी पिताजी ने घर में प्रवेश किया. भाई झट से अंदर खिसक गया. उषा की रोनी सूरत और पत्नी की क्रोधित मुखमुद्रा देख उन्हें आभास हो गया कि भाईबहन में खींचातानी हुई है. अकसर ऐसे मौकों पर उषा रो देती थी. फिर दोचार दिन उस भाई से कटीकटी रहती, बोलचाल बंद रहती. फिर धीरेधीरे सब सामान्य दिखने लगता, लेकिन अंदर ही अंदर उसे अपने तीनों भाइयों से स्नेह होने के बावजूद चिढ़ थी. उन्होंने उसे स्नेह के स्थान पर सदा व्यंग्य, रोब, डांटडपट और जलीकटी बातें ही सुनाई थीं. शायद पिताजी उस का पक्ष ले कर बेटों को नालायक की पदवी भी दे चुके थे. इस के प्रतिक्रियास्वरूप वे उषा को ही आड़े हाथों लेते थे.

‘‘क्या हुआ हमारी बेटी को? जरूर किसी नालायक से झगड़ा हुआ है,’’ पिताजी ने लाड़ दिखाना चाहा. ‘‘कुछ नहीं. आप बीच में मत बोलिए. मैं जो हूं देखने के लिए. बच्चों के झगड़ों में आप क्यों दिलचस्पी लेते हैं?’’ मां बात को बीच में ही खत्म करते हुए बोलीं.

जंगलराज-भाग 1 : राजन को कैसे मिली अपने गुनाहों की सजा

जिंदगी की राह-भाग 1: रंजना और दीपक से क्यों दूर हो गई दीप्ति?

7 वर्ष पहले की वह रात, जब मैं उस से पहली बार मिली थी, मुझे आज भी याद है. शनिवार का दिन था, रात के 8 बज चुके थे. सोने से पहले मैं कपड़े बदलने जा रही थी, तभी रात के सन्नाटे को चीरती हुई, बाहर की घंटी बजी. पतिदेव बिस्तर में लेट चुके थे. मेरी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देख कर बोले, ‘‘इस समय कौन हो सकता है?‘‘

‘‘क्या पता,‘‘ कहते हुए मेरे चेहरे पर भी प्रश्नचिन्ह उभर आया.

कुछ दुखी, कुछ अनमने से हो कर, वह बिस्तर से उठ कर अपना गाउन लपेट ही रहे थे कि घंटी दोबारा बज उठी. इस बार तो घंटी 3 बार बजी – डिंगडांग, डिंगडांग, डिंगडांग… आगंतुक कुछ ज्यादा ही जल्दी में लगता था.

‘‘अरे, इस समय कौन आ गया? यह भी भला किसी के घर जाने का समय है?‘‘ बड़बड़ाते हुए पति ने दरवाजे की ओर तेजी से कदम बढ़ाए.

दरवाजा खुलने की आवाज के साथ ही मुझे किसी महिला की आवाज सुनाई पड़ी. वह बहुत जल्दीजल्दी कुछ कह रही थी, और ऐसा लग रहा था कि मेरे पति उस से कदाचित सहमत नहीं हो रहे थे. यह आवाज तो हमारे किसी परिचित की नहीं लगती, सोचते हुए मैं ने कमरे के बाहर झांका.

‘‘हैलो, आप रंजना हैं ना? मैं दीप्ति, दीप्ति जोशी,‘‘ कहते हुए वह मेरी ओर आ गई और अपना दाहिना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया. हाथ पकडे़पकड़े ही वह लगातार बोलती चली गई, ‘‘मैं आप की कालोनी में ही रहती हूं, उधर 251 नंबर में. बहुत दिन से आप लोगों से मिलने की इच्छा थी, मौका ही नहीं मिल रहा था. आज मैं ने सोचा, बस अब और नहीं, आज तो मिलना ही है.‘‘

‘‘आइए ना,‘‘ कुछ बुझे मन से मैं ने बोला. मैं थकी हुई थी और उस समय अतिथि सत्कार के मूड में तो बिलकुल नहीं थी.

‘‘नहींनहीं, यहां नहीं. चलिए, हम लोग कौफी पीने ताज में चल रहे हैं. ‘‘

‘‘ताज में…? इस वक्त…? कल चलें तो…?‘‘

‘‘अरे नहीं, कल किस ने देखा है? हम आज ही चलेंगे. बहुत मजा आएगा. कौफी शौप तो खुली ही होगी.‘‘

इस से पहले कि मैं कुछ और कह पाती, दीप्ति जल्दी से दरवाजे की ओर मुड़ गई और जातेजाते एक सांस में बोल गई, ‘‘जल्दी से आप दोनों बाहर आ जाओ. कपड़े बदलने की जरूरत नहीं है. किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप ने क्या पहना हुआ है. मेरी कार बाहर सड़क के बीचोंबीच खड़ी है. इस से पहले कि लोग हौर्न मारना शुरू कर दें, मैं चली. कार में आप का इंतजार कर रही हूं.‘‘

मैं और मेरे पति एकदूसरे को देखते रह गए और दीप्ति सटाक से घर के बाहर थी. अब हमारे पास और कोई चारा तो था नहीं, हम दोनों ने जल्दी से जींस और शर्ट पहने और दीप्ति की कार में पहुंच गए.

तो यह थी दीप्ति, जीवन से भरपूर, कोई दिखावेबाजी नहीं, जो दिल में वही जबान पर. हालांकि मैं ने उसे कालोनी में आतेजाते कई बार देखा था, परंतु आमनेसामने आज मैं उस से पहली बार मिल रही थी. पर मुझे लग रहा था कि जैसे मैं उसे सदियों से जानती हूं. लंबी कदकाठी, छरहरा बदन, दोनों गालों में डिंपल, जो मुसकराते समय और भी गहरे हो जाते थे. कंधे के नीचे तक झूलते उस के बाल, जो उस के लंबे चेहरे को मानो फ्रेम की भांति सजा देते थे. इन सब के ऊपर उस की बड़ीबड़ी काली आंखें जो बिन बोले ही कितना कुछ बोल जाती थीं. पर आंखों को बोलने का मौका तो तब मिलता, जब दीप्ति कभी बोलना बंद करती. कुलमिला कर कहें तो एक बेहद खुशमिजाज और जिंदादिल लड़की.

मुझे और दीप्ति को दोस्ती करने में बिलकुल समय न लगा. हम दोनों ही देहरादून के रहने वाले थे और दोनों ही पब्लिक सैक्टर की बैंकों में नौकरी करते थे. पहले साधारण कैपुचिनो के बाद आयरिश कौफी और फिर कोल्ड कौफी विद आइसक्रीम, गप्पें मारतेमारते कब रात के 3 बज गए, पता ही नहीं चला. बातों ही बातों में उस ने बताया कि उस का एक बौयफ्रैंड भी है दीपक, जो इस समय एमबीए करने अमेरिका गया हुआ है, एक साल बाद लौटेगा. हालांकि उस के मातापिता इस विवाह के पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि दीप्ति का रंग सांवला है, पर दीपक ने अपना मन पक्का कर लिया है कि वह शादी करेगा तो उसी से, नहीं तो किसी से नहीं.

उस रात जो हमारे बीच मित्रता का एक अटूट बंधन बन गया, दिनोंदिन प्रगाढ़ होता चला गया. लगता था, जैसे पिछले जन्म का कोई नाता था. हम रोज शाम को इकट्ठा घूमते, शौपिंग करते और फिल्में देखने भी साथ जाते. कुछ ही महीनों में दीप्ति एक प्रकार से परिवार की तीसरी सदस्य बन गई थी.

दीप्ति के व्यक्तित्व में दिखावेबाजी का नामोनिशान भी न था. दोटूक बातें और कोई लगावछिपाव नहीं. एक रविवार के दिन सुबहसुबह बाहर की घंटी बजी… वही जल्दीबाजी, जो अब तक दीप्ति की पहचान बन चुकी थी. दरवाजा खोला तो निश्चय ही दीप्ति थी. ना हाय, ना हैलो. ना दुआ, ना सलाम. बस सीधे वह मेरे किचन में थी. इस से पहले कि मैं कुछ समझ सकूं, उस ने ड्रौअर खोला और सारे चम्मच और कांटे उठा लिए.

‘‘मेरे घर में कुछ लोग लंच पर आ रहे हैं और मेरे पास चम्मच कम हैं. तुम लोग आज हाथ से खा लेना. चलो, अच्छा 2 चम्मच रख लो. बाकी सब शाम को लौटा दूंगी.‘‘

भागतेभागते उस ने पीछे मुड़ कर देखा, ‘‘अच्छा, फिर शाम को मिलते हैं. मैं बचा हुआ खाना ले आऊंगी, इकट्ठा खाएंगे.‘‘

मैं मुसकरा दी. दीप्ति मुझ से कुछ साल छोटी थी और मुझे उस पर छोटी बहन जैसा ही प्यार आता था.

शाम हुई और फिर रात हो गई, मैं ने डिनर में कुछ नहीं बनाया. दीप्ति का इंतजार कर रही थी. अपने वादे के अनुसार वह मेरे चम्मच और कांटे ले कर वापस आ गई और आते ही बोली, ‘‘कुछ खाना नहीं बचा. मेरे मेहमान सब खा गए. तेरे फ्रिज में कुछ पड़ा है क्या? निकाल ले. मैं तब तक खिचड़ी बनाती हूं.‘‘

ऐसे ही महीने निकल गए. उस की सुहबत में पता नहीं समय कहां उड़ जाता था. फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ, जिस की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. मैं गेट के बाहर खड़ी थी और दीप्ति दफ्तर से वापस आ रही थी. दूर से देखा तो मन में एक खटका सा हुआ. उस की चाल कुछ ठीक नहीं लग रही थी. वह पास आई, तो मैं ने पूछा, ‘‘कैसे चल रही है टेढ़ीमेढ़ी? क्या हुआ? सब ठीक तो है न?‘‘

यह सुन कर वह हंस पड़ी और उस के गालों के डिंपल और गहरे हो गए, ‘‘अरे, कुछ नहीं, कुछ दिनों से मैं सीधे नहीं चल पा रही हूं. मेरा डाक्टर कह रहा था कि कमजोरी होगी, कुछ विटामिन खा लो, पर मुझे लगता है कि कहीं तो कुछ गड़बड़ है. कल किसी स्पैशलिस्ट को दिखाने की सोच रही हूं. अभी तो देर हो रही है, चलती हूं,‘‘ कह कर वह कुछ झूमती हुई, कुछ लड़खड़ाती हुई अपने फ्लैट की ओर चल पड़ी.

3 दिन बाद उस का फोन आया, ‘‘रंजना, अरे यार, मैं अस्पताल में पहुंच गई हूं. सबकुछ इतनी जल्दी में हुआ कि मैं तुझे बता भी नहीं पाई.‘‘

‘‘क्या…? अस्पताल में…? कौन से अस्पताल में? क्या हुआ…?‘‘

‘‘कुछ ज्यादा नहीं. मेरे दिमाग में कोई कीड़ा है, यह तो मुझे हमेशा से ही पता था, पर अब न्यूरोलौजिस्ट को एक ट्यूमर भी मिल गया है. शायद कीड़े का घर होगा,‘‘ कह कर वह जोर से हंस पड़ी.

‘‘साफसाफ बता. पहेलियां मत बुझा,‘‘ मैं ने फटकार लगाई.

“डाक्टर ने कहा है, तुरंत आपरेशन करना चाहिए. मैं ने कहा ठीक है, जैसी आप की मरजी. मम्मी को देहरादून से बुला लिया है. कल आपरेशन है. तू आएगी न मुझे अस्पताल में मिलने?‘‘ मैं सकते में आ गई और कुछ बोल भी न सकी.

इतने बड़े और सीरियस आपरेशन की पूर्व संध्या को कोई इतना चिंतामुक्त कैसे हो सकता है?

मैं उस की मम्मी से मिलने और दीप्ति का हाल जानने रोज अस्पताल जाती रही.

5 दिन बाद उसे आईसीयू से कमरे में लाया गया. उस के सिर के सारे बाल घुटा दिए गए थे और पूरे सिर पर सफेद पट्टी बंधी हुई थी. शक्ल से कुछ कमजोर लग रही थी, पर उस की मुसकराहट ज्यों की त्यों थी. कितनी बहादुर लड़की है, मेरे दिल में उस के लिए इज्जत और बढ़ गई. पर मुझे लगा कि उस का चेहरा कुछ बदलाबदला सा लग रहा है. ऐसा लगा कि कहीं उस के चेहरे पर लकवा तो नहीं मार गया, पर पूछने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी.

उस ने मेरा दिमाग तुरंत पढ़ लिया, ‘‘क्या देख रही है? मेरा मुंह टेढ़ा लग रहा है ना? वो बदतमीज ट्यूमर मेरे दिमाग की नर्व के चारों ओर लिपटा हुआ था. बेचारे सर्जन ने बहुत कोशिश की, पर हार कर उसे वह नर्व काटनी ही पड़ गई,‘‘ कह कर वह हंस दी, पर उस हंसी के पीछे छिपी मायूसी साफ दिख रही थी.

‘‘डाक्टर का कहना था, गनीमत समझो कि तुम्हारी जान बच गई. शक्ल का क्या है? जो मुझे जानते हैं, मुझ से प्यार करते हैं, वे सब तो खुश ही होंगे कि मैं जिंदा हूं. जो मुझे जानते नहीं, वह कुछ भी सोचें, मुझे क्या फर्क पड़ता है? क्यों ठीक है ना…?‘‘ फिर वही हजार वाट बल्ब वाली मुसकराहट…

जीवन की इतनी बड़ी मार उस ने कैसे हंसतेहंसते झेल ली, देख कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ.

अस्पताल की घंटी बजने लगी, आगंतुकों के घर जाने का समय हो गया था. मैं भी घर लौट आई, पर रास्ते भर सोचती रही कि बेचारी दीप्ति के साथ ऊपर वाले ने कितना अन्याय किया है.

2 दिन बाद जब मैं अस्पताल पहुंची तो देखा, दीप्ति काला चश्मा लगा कर बिस्तर पर लेटी हुई है.

‘‘अरे वाह, क्या स्टाइल है? अंदर कमरे में भी काला चश्मा…?‘‘ मैं ने बिना सोचेसमझे ही बोल दिया, पर उस का उतरा हुआ चेहरा देख कर तुरंत ही मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया. उस ने मुझे गंभीरता से बताया कि लकवे की वजह से उस की पलक झपक नहीं रही है और उस में इनफैक्शन का खतरा है, इसीलिए डाक्टर ने उस की आंख पर टांके लगा दिए हैं. उसी को छिपाने के लिए उसे चश्मा लगाना पड़ रहा है. उस के आपरेशन के बाद उस दिन पहली बार लगा कि वह परेशान है.

मैं ने उसे सांत्वना देने का प्रयास तो किया, ‘‘कोई बात नहीं, कुछ दिन की बात है. जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा,‘‘ पर मेरा अपना दिल उस की यह दशा देख कर डूब रहा था.

अस्पताल से डिस्चार्ज होने के उपरांत वह स्वास्थ्य लाभ के लिए अपने मातापिता के साथ देहरादून चली गई. तकरीबन 2 महीने बाद वह वापस दिल्ली अपने घर आ गई. वही पतलीदुबली और लंबी आत्मविश्वासी लड़की. उस के बाल भी कुछ बढ़ गए थे, हालांकि थे छोटे ही. बस अब एक ही फर्क आ गया था. वह हर समय बड़ा सा काला चश्मा लगा कर रखती थी, जिस से उस की बंद बाईं आंख और विकृत चेहरा किसी को पूरी तरह दिखाई न दे.

एक शाम जब हम दोनों कालोनी में टहल रहे थे, उस ने अपने दिल का दर्द मुझे बता ही दिया, ‘‘रंजना, क्या तुम्हें लगता है कि मेरी ऐसी सूरत देख कर भी दीपक मुझ से वैसे ही प्यार करेगा, जैसे वह पहले करता था? क्या तुम्हें लगता है कि वह अभी भी मुझ से शादी करना चाहेगा?‘‘

मुझे समझ नहीं आया कि मुझे क्या कहना चाहिए? मैं तो दीपक से कभी मिली भी नहीं थी, पर हिम्मत कर के मैं ने कहा, ‘‘अगर वह तुम से सच्चा प्यार करता है तो जरूर शादी करेगा,‘‘ मेरा दिल जानता था कि मैं उसे खुश करने के लिए ही ऐसा कह रही थी.

‘‘पता है रंजना, वह मुझे हजारों टैक्स्ट मैसेज भेज चुका है. और पता नहीं सैकड़ों बार उस के फोन आ चुके हैं, पर मैं उस को कोई जवाब नहीं दे रही हूं.‘‘

मैं ने देखा, वह अपना दुपट्टा उंगली में लपेटे जा रही थी. स्पष्ट था कि वह काफी परेशान थी और किसी उलझन में पड़ी हुई थी.

‘‘हैं…? ऐसा क्यों पागल? तू ने उसे अपनी सर्जरी के बारे में बताया नहीं क्या? उस को तेरी कितनी फिक्र हो रही होगी? बेचारा क्या सोचता होगा?‘‘ मैं ने उसे प्यारभरी फटकार लगाई.

‘‘जानती हूं, जानती हूं. सर्जरी के समय उस के सेमेस्टर एग्जाम होने वाले थे, उसे टैंशन हो जाती तो पढ़ता कैसे? बाद में मैं ने सोचा कि क्या बताऊं. जिन आंखों में डूब जाने की बात वह हमेशा करता था, उन में से एक तो हमेशा के लिए बंद हो गई है. मैं नहीं सोचती कि उसे अब मुझ से शादी करनी चाहिए.‘‘

‘‘पर, उस ने तुम से शादी का वादा किया है. तुम्हें उसे बताना तो चाहिए था. उस का इतना हक तो बनता है न?‘‘

‘‘मुझे पता है रंजना, पर मुझे रिजैक्शन से डर लगता है. अगर उस ने मना कर दिया तो…?‘‘

‘‘पर, जानने का अधिकार तो उसे है न?‘‘ मैं ने फिर वही बात दोहराई.

‘‘लेकिन, मैं यह समझती हूं कि वह एक बिना आंख की लड़की से क्यों शादी करेगा? उसे करनी भी नहीं चाहिए. सारी जिंदगी क्यों खराब करेगा बेचारा? मुझे कोई हक नहीं कि मैं उस की जिंदगी खराब करूं. अभी तो हमारी शादी हुई नहीं है. उसे कोई और मिल जाएगी और मैं उस की जिंदगी से कहीं दूर चली जाऊंगी,‘‘ कहते समय उस का गला रुंध गया था और उस का घर भी आ गया था. बिना कुछ बोले वह घर की ओर मुड़ गई. शाम के अंधेरे में भी उस की आंखों से बहते आंसू मुझ से छिप न सके.

अगले 2-3 सप्ताह तक मैं भी काम में कुछ ज्यादा ही मशगूल रही. बैंक में इंस्पैक्शन चल रहा था. फिर एक दिन अचानक वह मुझे दिखी, टैक्सी में कहीं जा रही थी. उस ने टैक्सी रुकवाई और बैठेबैठे ही बोली, ‘‘रंजना, मेरा ट्रांसफर हो गया है. मैं दिल्ली से बाहर जा रही हूं.‘‘

‘‘क्या…? अचानक…? कहां जा रही है?‘‘

‘‘सब बताऊंगी, पर अभी नहीं. फ्लाइट छूट जाएगी. मैं वहां पहुंच कर तुम्हें फोन करती हूं. बाय…,‘‘ कहते हुए उस ने ड्राइवर को चलने का इशारा किया और टैक्सी चल पड़ी.

अकल्पित-भाग 3 : सोनम के दादा जी क्या किया था?

हमारी पूरी क्लास में सोनम ही सब से होशियार छात्रा थी. हालांकि नर्सरी, केजी से बच्चों की असली होशियारी का पता नहीं चलता, लेकिन एक बात पक्की थी कि सोनम को पढ़ाई में बहुत ज्यादा दिलचस्पी थी. क्लास में पढ़ाई गई हर बात वह दिलोजान से ग्रहण कर लेती थी. मैथ्स के टेबल्स हों या इंग्लिश के नेम्स औफ द बर्ड्स… एनिमल्स… कलर्स हों या… औफ ट्रांसपोर्ट… हर चीज वह एक ही दिन में याद कर लेती थी. उस का हस्ताक्षर बहुत ही सुंदर था. और अपना निजी सामान वह बड़ी सहजता से संभाल कर रखती थी. उस का स्कूल बैग, लंच बौक्स, वाटर बोटल… हर चीज बड़े सलीके से रखी रहती. क्लास में दिया गया हर काम वह झट से पूरा करती. और अपने पोलियोग्रस्त पैर को सहलाते हुए तकरीबन दौड़ते हुए ही आभा के पास आ कर अपना काम चैक करना चाहती… मैं कभीकभार उसे उस की कापी मांगती तो कुछ गरमा कर, हंस कर कहती, ‘‘पहले मैम को दिखाऊंगी…’’

हम दोनों फिर उस पर खूब हंस पड़ते थे… सोनम देखने में भी काफी सुंदर थी. उस का मासूम चेहरा और नटखट सी आंखें पहली ही नजर से किसी को भी आकर्षित करती थी.

जिस दिन सोनम की मां ने अपनी निजी समस्या मुझे बताई थी, उस दिन से मैं और आभा स्कूल खत्म होते ही सोनम का खास ध्यान रखने लगे थे. हालांकि उस दिन के बाद एकदो बार ही सोनम के दादाजी सोनम को घर लिवाने आए थे, मगर आभा ने उसी वक्त बड़े सख्त और तीखे स्वर में उन्हें बता दिया था कि सोनम अब सिर्फ उस के मांबाप के साथ ही घर वापस जाएगी…

आभा के बोलने का तरीका इतना सख्त और पक्का होता कि उस के आगे कुछ कहने की कोई हिम्मत ही न कर सकता था.

दिन ऐसे ही गुजर रहे थे… सोनम अब हम दोनों से इतनी ज्यादा घुलमिल गई थी कि अकसर अपनी घर की बात भी हमें और खासकर आभा को बताने लगी थी.

एक दिन सोनम का चेहरा कुछ उतरा हुआ और दुखी लग रहा था तो आभा ने उस से पूछा था, ‘‘क्या बात है बेटा… आप की तबीयत ठीक नहीं है क्या…’’

तो उस पर लगभग रोतेरोते ही वह बोल पड़ी थी, ‘‘मम्मीपापा की बड़ी जोर की लड़ाई हुई आज… और पापा ने मम्मी को मारा… मम्मी बहुत रो रही थी… मुझे बहुत डर लग रहा था… तो दादीजी मुझे अपने कमरे में ले गई… फिर मैं सो गई… मगर, अब मुझे मम्मी की बहुत याद आ रही है…’’

मैं और आभा कुछ देर उसे देखते ही रह गए थे. उस का मासूम चेहरा सचमुच घबराया हुआ था… कुछ देर तो क्या करें, हमें समझ नहीं आ रहा था… लेकिन, फिर हमेशा की तरह आभा ने ही बात को संभाल लिया था और बोली थी, ‘‘देखो बेटा… अपने घर की… मम्मीपापा की ही बातें किसी को नहीं बताते… मम्मीपापा के तो झगड़े होते ही रहते है… क्योंकि वे दोनों बैस्ट फ्रैंड्स होते हैं न… अब तुम्हारे ही तो कितने ही बैस्ट फ्रैंड्स हैं… हैं न… अब तुम से क्या लड़ाईझगड़ा नहीं होता… होता है कि नहीं… और तुम लोग भी तो एकदूसरे को मारतेपीटते रहते हो… इस में डरने की कोई बात नहीं है… देखो, अब तुम घर जाओगी ना… तब देखना मम्मीपापा की फिर से…. दोस्ती हो गई होगी.

“जाओ, अब रोना नहीं… अब अपनी जगह पर जा कर बैठो… और याद रखना, मम्मीपापा की बात किसी से नहीं करते… मुझ से भी नहीं…”

आभा की बातों से सोनम तो उस दिन संभल गई थी… मगर, हम दोनों उस दिन जाने कितनी देर तक बेचैन से हो कर रह गए थे.

और फिर एक दिन स्कूल में खबर आई कि सोनम की मां ने आत्महत्या कर ली… जिस दिन खबर आई, उस के बाद 2-3 दिन सोनम स्कूल नहीं आर्ई थी… और फिर जिस दिन अपने पापा के साथ स्कूल आई थी, उस दिन बड़ी उखड़ीउखड़ी सी लग रही थी. उस की तरफ देखा नहीं जा रहा था.

सोनम के पापा भी बड़ी अजीब सी अवस्था में थे… समझ नहीं पा रहे थे कि हम से क्या कहें… हम दोनों की तरफ कुछ नजर छिपाने से देख रहे थे…

आभा ने ही फिर हिम्मत जुटा कर उन से कहा था, ‘‘बहुत दुख हुआ सोनम की मां की खबर सुन कर. क्या कैसे हुआ यह सब…’’

‘‘मैडमजी, पागल थी वह… यही समझ लीजिए… अब क्या कहूं…’’

कुछ पल में ही सोनम के पापा तो अपनी बेटी को बायबाय कह कर चले गए, मगर हम दोनों निःशब्द से हो कर उसे देखते ही रह गए थे.

अपने सब से करीबी व्यक्ति की मौत के बारे में कोई इस तरह की टिप्पणी करे, तो निःशब्द होने के सिवा कोई क्या कर सकता है…

हम दोनों को सोनम के लिए बहुत ज्यादा दुख हो रहा था… सोनम आखिर बच्ची ही थी… दोचार दिनों में अपने संगीसाथियों के साथ रह कर संभल गई थी. और हम दोनों फिर उसे हमेशा खुश रखने की कोशिश करते रहते थे. लेकिन खुश रहना शायद सोनम की जिंदगी में ही नहीं था.

सोनम की मां को गुजरे दोचार महीने ही हुए थे कि सोनम के पापा को किडनी की बीमारी की वजह से अस्पताल में एडमिट किया गया. उन की दोनों किडनियां ठीक से काम नहीं कर रही थीं… इसी से उन की मां ने यानी सोनम की दादी ने अपने एकलौते बेटे के लिए खुद की एक किडनी बेटे को दान की थी.

कुछ दिनों तक तो सोनम के पापा ठीक थे, लेकिन फिर अचानक जाने क्या हुआ कि पहले सोनम की दादी की और फिर 6-7 दिनों के बाद ही सोनम के पापा की भी मौत हो गई… हम से सोनम की तरफ देखा भी नहीं जा रहा था. उस जरा सी बच्ची ने केवल इन्हीं 3-4 महीनों में क्याक्या देखा था… घर में 3-3 मौत हो गई थी और वह नन्ही सी बच्ची सिर्फ गुमसुम सी हो कर रह गई थी.

दिन गुजर रहे थे. सोनम अब अपनी बूआजी के साथ रहने लगी थी. लेकिन बूआजी का अपना घरपरिवार था, इसलिए सोनम को स्कूल छोड़ने और लिवाने अब उस के दादाजी ही आते थे. दादाजी की हालत भी अब काफी खराब थी. घर पर टूटे हुए दुखों के पहाड़ ने उन्हें ऐसे बदल डाला था कि अब उन्हें पहचानना भी मुश्किल हो जाता था. सोनम को खुद की सेहत को और पूरे घर को संभालना उन के लिए अब शायद बहुत ही कठिन था. और उसी से सोनम अब बिलकुल मुरझा सी गई थी. रोज स्कूल तो आ रही थी, मगर समय ने उस का वह नटखट बचपन पूरा छीन लिया था. अब वह हरदम बुझीबुझी सी डरीडरी सी रहने लगी थी.

उन्हीं दिनों आभा की बेटी की शादी की बात तय होने जा रही थी और उसी वजह से आभा ने 10-15 दिनों की छुट्टी ले रखी थी. बेटी की शादी की बात थी, इसलिए आभा ने वह बात सिर्फ मुझ से कही थी, छुट्टी उस ने अपनी सेहत का बहाना बना कर ले रखी थी. जिस दिन से आभा छुट्टी पे गई थी, सोनम तकरीबन रोज ही मुझ से आ कर पूछती, ‘‘आभा मैम कब आएंगी….’’

‘‘उन की तबीयत ठीक नहीं है न बेटा. जब ठीक हो जाएंगी, तो आ जाएंगी…’’ यह बड़ी सहजता से बोल देती थी.

लेकिन जब आभा को छुट्टी लिए हुए 10-12 दिन हो चुके थे, तब एक दिन अचानक ही आंखों में आंसू भरते हुए सोनम मेरे पास आई थी और बोली थी, ‘‘मैम… मैम… आभा मैम भी मर तो नहीं जाएंगी…

‘‘अरे… नहींनहीं… ऐसा क्यों कहती हो… कल ही उन का फोन आया था. 1-2 दिन में आ जाएंगी वह…’’

‘‘मुझे डर लग रहा है मैम… जब भी कोई इतना बीमार होता है… मर ही जाता है…’’ और फिर मेरे टेबल पे सिर रख कर वह रोने लगी थी… और मैं फिर एक बार नि:शब्द सी हो कर रह गई थी.

जिस उम्र में मरने का अर्थ ही बच्चों को समझ नहीं आता और अकसर उसे भगवान के घर जाने का नाम दिया जाता है. उस छोटी सी उम्र में सोनम को मरने के नाम से ही कैसा भयभीत कर दिया था. मुझे उस उस हालत में देखा ही नहीं गया… और बिना कुछ सोचे ही मैं ने आभा को फोन लगाया और उसे सारी बात बताई.

आभा भी फिर अपने सारे कामधाम छोड़ कर स्कूल आई थी… और फिर सोनम ने जैसे ही आभा को देखा तो वह उस से लिपट ही गई थी. और फिर कुछ देर के लिए ही सही… मगर फिर उस वक्त वह बिलकुल पहले जैसी नटखट सी सोनम दिखने लगी थी. कभी हंसते हुए तो कभी अजीब सा मुंह बनाते हुए वह आभा से जाने क्या कुछ कहती जा रही थी… मुझे वह पल इतने अद्भुत से लगे कि उस वक्त आज की तरह मेरे पास मोबाइल होता तो उन क्षणों को मैं तुरंत अपने मोबाइल के कैमरे में कैद कर लेती… लेकिन, आज लग रहा है कि कुदरत ने तो हर इनसान के मन में एकएक कैमरा फिट कर रखा होता है. जिस के सहारे जब मन करे, तभी अपने अंतर्मन के पटल पर वह चाहे जब कोई भी भूतकालीन तसवीर अंकित कर सकता है.

इस घटना के बाद सोनम धीरेधीरे संभलती जा रही थी और वह पहले जैसी सोनम लगने लगी थी, ऐसा मुझे लगा था… मगर, ऐसा था नहीं.

उस जरा सी बच्ची की जिंदगी के फेरे अभी खत्म नहीं हुए थे… एक दिन अचानक लगभग रोते हुए ही बूआ के साथ सोनम स्कूल आई थी और कहने लगी थी कि दादाजी ने उसे बहुत मारा… और वह अब उन के पास नहीं जाएगी. उस की हालत देख कर आभा ने झट से उसे अपने गोदी में बैठाया था और पूछा था, ‘‘दादाजी ने तुम्हें मारा… लेकिन…’’

‘‘क्योंकि, वह मेरा अंडरवियर उतार रहे थे… मैं ने मना किया तो बहुत गुस्सा हुआ… और मुझे पीटने लगे… मैं भाग कर बूआजी के पास गई… फिर दादाजी और बूआजी में खूब लड़ाई हुई. मुझे डर लग रहा है मम… अब तो बूआजी मुझे भी डांटने लगी हैं…’’

सोनम की बातें सुन कर हम दोनों हैरान रह गए थे… एक झटके के साथ हम दोनों को सोनम की मां की कही हुई बातें याद आ गर्ई थीं. सोनम की मां ने दादाजी के बारे में हमें आगाह कर दिया था, मगर कुछ परिस्थितियों की वजह से हम दोनों ने दिमाग से वह बातें शायद निकाल दी गई थीं. और फिर सोनम के दादाजी भी आजकल बदल से गए थे. उन्हें देख कर कहीं लग ही नहीं रहा था कि वह अपनी ही पोती के बारे में कुछ ऐसावैसा सोच सकते हैं.

दरअसल, दादाजी की उम्र तक आ कर कोई इस प्रकार से सोच सकता है. यही बात किसी के भी समझ के बाहर थी. आजकल अखबार में आएदिन बलात्कारों की घटनाएं जिस तरह छपी रहती हैं, उन्हें देख कर ऐसे लगता था जैसे पूरे देश में इस तरह की कोई संसर्गजन्य बीमारी ही फैली हुई है… घर से बाहर निकली हुई हर लड़की के मांबाप को अपनी बेटी घर वापस आने तक एक अजीब सी बेचैनी और डर बना रहता है. और जिस के घर में ही ऐसा कोई व्यक्ति मौजूद हो, उस के मांबाप के तो हरदम होश ही उड़े रहते होंगे. लेकिन जिस के मांबाप ही न हों, वह बेचारी लड़कियां क्या करें.

सोनम ऐसी ही लड़कियों में से एक थी, यही सब सोच कर मैं और आभा बेहद बेचैन से हो कर चिंतित हो गए थे. और सोच रहे थे कि आज सोनम की मां या बाप दोनों में से एक तो होना ही चाहिए था.

उस दिन सोनम को चुप कराने के लिए आभा ने उसे गले लगाते हुए सिर्फ इतना ही कहा था, ‘‘डोंट वरी. हम अभी तुम्हारे दादाजी को बुला लेते हैं… और उन्हें खूब पनिशमैंट भी देंगे. हमारी बिटिया को मारते हैं, तो हम चुप थोड़ी न बैठेंगे. जाओ, जगह पे बैठो. हम अभी तुम्हारे दादाजी और बूआजी से बात करेंगे…’’

आभा की बात सुन कर सोनम अपनी जगह पर जा कर बैठ गई थी. उस 4 साल की बच्ची को दादाजी के बरताव का असली रूप भला कैसे समझ आता. वह नन्ही सी जान तो सिर्फ दादाजी की मार से ही डरी हुई थी. उसे आभा से जैसे ही प्यार मिला चुप हो गई थी. मगर हम दोनों के तो जैसे होश ही उड़ गए थे.

जब कभी अखबार में या टीवी पर जैसे खबर सुनते हैं, तो उस खबर की काफी चर्चा और बहस भी हम बड़े चाव से सुनते हैं. मगर, अपने ही करीबी बच्ची के बारे में ऐसा कुछ हो तो क्या हालत होती है…. यह हम दोनों ने उसी दिन जाना था… और बारबार यही मन में आ रहा था कि सोनम के मांबाप को इस वक्त होना ही चाहिए था…

ऐसा कुछ और इतना कुछ हो जाने के बाद मैं तो सिर्फ हड़बड़ा कर दुखी हो कर चुप सी हो कर रह गई थी.

इस घटना के सिर्फ 2 दिन बाद आभा सोनम को अपने घर ले गई थी. सोनम के दादाजी और बूआ से मिलने के बाद ही उस ने यह कदम उठाया था. उन दोनों को आभा ने क्या और कैसे समझाया, यह सिर्फ वही जाने… लेकिन, एक असहाय सी बच्ची का पूरी तरह जिम्मा उठाते हुए आभा ने सोनम को हमारी स्कूल के होस्टल में दाखिल कराने का काम बड़ी सावधानी से किया था.

हमारे स्कूल का होस्टल और उस का नाम दिल्ली में माना हुआ होस्टल था. लड़के और लड़कियों के रहने का उस से अलग इंतजाम तो था ही, मगर 4 साल से 12 साल तक के बच्चों के रहने के लिए एक अलग इमारत थी, जहां किसी डे केयर सैंटर की तरह की सारी सुविधा उपलब्ध थी. वहां की जो केयरटेकर थी, वह आभा से खूब अच्छी तरह परिचित थी. उसी की वजह से सोनम को उस होस्टल में एडमिशन बड़ी आसानी से मिल गया था. और फिर उस होस्टल में रह कर ही सोनम अपनी जिंदगी बिताने लगी थी. कभीकभार सोनम की बूआ या मौसी सोनम से मिलने होस्टल में आती. मगर अब स्कूल के होस्टल में रहने से ही सोनम काफी खुश रहने लगी थी.

दिन बीतते गए थे. 6-7 साल बाद मेरे पति का तबादला यहां पूना में होने के कारण मैं ने स्कूल छोड़ दिया था और हम लोग अब यहां पूना में ही सैटल हो गए थे.

शुरूशुरू में 4-6 साल आभा की और मेरी फोन पर बात होती रहती थी. तब सोनम की खबर आभा मुझे जरूर सुनाती. पढ़ाई में सोनम हरदम अव्वल आती थी. लेकिन फिर 4-5 सालों के बाद हम दोनों अपनीअपनी गृहस्थी में इतने उलझ गए थे कि बाद में हमारे फोन भी बंद हो चुके थे. हमारे बच्चे भी बड़े हो रहे थे. उन की पढ़ाई, शादियां इन में समय कैसे निकल गया, पता ही नहीं चला था और 10-12 साल बाद सोनम मुझे आज इस तरह मिली थी…

इंफोसिस जैसी कंपनी में काम करने वाली सोनम आज मुझे एक अलग ही रूप में नजर आ गई थी. सचमुच जिंदगी के खेल कैसे अजीब होते हैं… लेकिन, इसे सिर्फ कुदरत का खेल नहीं माना जा सकता. इस खेल को संवारने वाला आभा जैसा कैप्टन हो तो ही जिंदगी के खेल का यह रूप देखने को मिलता है. सच में कितना अकल्पित है यह सब…

Winter 2023 : ऐसे रखें अपनी सेहत का ख्याल

सर्दीयों के  मौसम में सर्द कठोर हवा सेहत और त्वचा के लिए काफी हानिकारक है. इसलिए सेहत का ख्याल रखना और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है. लगातार बदलते मौसम में शरीर को मौसम के अनुरूप ढलने में भी कुछ वक्त लगता है. इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए आपको बताते  लिए  कुछ जरूरी हेल्थ टिप्स, जिससे आप अपनी सेहत का ख्याल रख सकेंगे.

  1. करें व्यायाम

इस मौसम में जरूरी है कि आप व्यायाम करें. अपने शरीर को थोड़ा हिलाएं डुलाएं जिससे शरीर लचीला बना रहे। जिम जाना भी एक बेहतर विकल्प होगा.

2. खूब पिएं पानी

ठंड के कारण शरीर से पानी निकलता नहीं है इसलिए लंबे समय तक हमें प्यास नहीं लगती. शरीर के अंदर होने वाली सफाई के लिए जरूरी है कि दिन भर में कम से कम 4 लीटर पानी पिएं. इसके अलावा आप ग्रीन टी पी सकते हैं.

3. रोज नहाएं

एक शोध से ये बात सामने आई कि सर्दियों में 10 मिनच नहाना चाहिए ताकि शरीर की नमी ना खत्म हो. साबुन को ले कर काफी सतर्क रहें. ऐसे साबुन का इस्तेमाल करें जिससे शरीर को नमी मिले.

 

4. करें हरे साग सब्जियों का सेवन

इस मौसम में हरे साग सब्जियों का खूब सेवन करें. ये आपकी त्वचा और शरीर के लिए बेहद जरूरी है.

खेल : मासूम दिखने वाली दिव्या तो मुझ से भी माहिर निकली

आज से 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम्हारा फोन आया था तब भी मैं नहीं समझ पाया था कि तुम खेल खेलने में इतनी प्रवीण होगी या खेल खेलना तुम्हें बहुत अच्छा लगता होगा. मैं अपनी बात बताऊं तो वौलीबौल छोड़ कर और कोई खेल मुझे कभी नहीं आया. यहां तक कि बचपन में गुल्लीडंडा, आइसपाइस या चोरसिपाही में मैं बहुत फिसड्डी माना जाता था. फिर अन्य खेलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कुश्ती, क्रिकेट, हौकी, कूद, अखाड़ा आदि. वौलीबौल भी सिर्फ 3 साल स्कूल के दिनों में छठीं, 7वीं और 8वीं में था, देवीपाटन जूनियर हाईस्कूल में. उन दिनों स्कूल में नईनई अंतर्क्षेत्रीय वौलीबौल प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ था और पता नहीं कैसे मुझे स्कूल की टीम के लिए चुन लिया गया और उस टीम में मैं 3 साल रहा. आगे चल कर पत्रकारिता में खेलों का अपना शौक मैं ने खूब निकाला. मेरा खयाल है कि खेलों पर मैं ने जितने लेख लिखे, उतने किसी और विषय पर नहीं. तकरीबन सारे ही खेलों पर मेरी कलम चली. ऐसी चली कि पाठकों के साथ अखबारों के लोग भी मुझे कोई औलराउंडर खेलविशेषज्ञ समझते थे.

पर तुम तो मुझ से भी बड़ी खेल विशेषज्ञा निकली. तुम्हें रिश्तों का खेल खेलने में महारत हासिल है. 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम ने फोन किया था तो मैं किसी कन्या की आवाज सुन कर अतिरिक्त सावधान हो गया था. ‘हैलो सर, मेरा नाम दिव्या है, दिव्या शाह. अहमदाबाद से बोल रही हूं. आप का लिखा हुआ हमेशा पढ़ती रहती हूं.’

‘जी, दिव्याजी, नमस्कार, मुझे बहुत अच्छा लगा आप से बात कर. कहिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं.’ जी सर, सेवावेवा कुछ नहीं. मैं आप की फैन हूं. मैं ने फेसबुक से आप का नंबर निकाला. मेरा मन हुआ कि आप से बात की जाए.

‘थैंक्यूजी. आप क्या करती हैं, दिव्याजी?’ ‘सर, मैं कुछ नहीं करती. नौकरी खोज रही हूं. वैसे मैं ने एमए किया है समाजशास्त्र में. मेरी रुचि साहित्य में है.’

‘दिव्याजी, बहुत अच्छा लगा. हम लोग बात करते रहेंगे,’ यह कह कर मैं ने फोन काट दिया. मुझे फोन पर तुम्हारी आवाज की गर्मजोशी, तुम्हारी बात करने की शैली बहुत अच्छी लगी. पर मैं लड़कियों, महिलाओं के मामले में थोड़ा संकोची हूं. डरपोक भी कह सकते हैं. उस का कारण यह है कि मुझे थोड़ा डर भी लगा रहता है कि क्या मालूम कब, कौन मेरी लोकप्रियता से जल कर स्टिंग औपरेशन पर न उतर आए. इसलिए एक सीमा के बाद मैं लड़कियों व महिलाओं से थोड़ी दूरी बना कर चलता हूं.

पर तुम्हारी आवाज की आत्मीयता से मेरे सारे सिद्धांत ढह गए. दूरी बना कर चलने की सोच पर ताला पड़ गया. उस दिन के बाद तुम से अकसर फोन पर बातें होने लगीं. दुनियाजहान की बातें. साहित्य और समाज की बातें. उसी दौरान तुम ने अपने नाना के बारे में बताया था. तुम्हारे नानाजी द्वारका में कोई बहुत बड़े महंत थे. तुम्हारा उन से इमोशनल लगाव था. तुम्हारी बातें मेरे लिए मदहोश होतीं. उम्र में खासा अंतर होने के बावजूद मैं तुम्हारी ओर आकर्षित होने लगा था. यह आत्मिक आकर्षण था. दोस्ती का आकर्षण. तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मिस्री सरीखी घुलती. तुम बोलती तो मानो दिल में घंटियां बज रही हैं. तुम्हारी हंसी संगमरमर पर बारिश की बूंदों के माध्यम से बजती जलतरंग सरीखी होती. उस के बाद जब मैं अगली बार अपने गृहनगर गांधीनगर गया तो अहमदाबाद स्टेशन पर मेरीतुम्हारी पहली मुलाकात हुई. स्टेशन के सामने का आटो स्टैंड हमारी पहली मुलाकात का मीटिंग पौइंट बना. उसी के पास स्थित चाय की एक टपरी पर हम ने चाय पी. बहुत रद्दी चाय, पर तुम्हारे साथ की वजह से खुशनुमा लग रही थी. वैसे मैं बहुत थका हुआ था. दिल्ली से अहमदाबाद तक के सफर की थकान थी, पर तुम से मिलने के बाद सारी थकान उतर गई. मैं तरोताजा हो गया. मैं ने जैसा सोचा समझा था तुम बिलकुल वैसी ही थी. एकदम सीधीसादी. प्यारी, गुडि़या सरीखी. जैसे मेरे अपने घर की. एकदम मन के करीब की लड़की. मासूम सा ड्रैस सैंस, उस से भी मासूम हावभाव. किशमिशी रंग का सूट. मैचिंग छोटा सा पर्स. खूबसूरत डिजाइन की चप्पलें. ऊपर से भीने सेंट की फुहार. सचमुच दिलकश. मैं एकटक तुम्हें देखता रह गया. आमनेसामने की मुलाकात में तुम बहुत संकोची और खुद्दार महसूस हुई.

कुछ महीने बाद हुई दूसरी मुलाकात में तुम ने बहुत संकोच से कहा कि सर, मेरे लिए यहीं अहमदाबाद में किसी नौकरी का इंतजाम करवाइए. मैं ने बोल तो जरूर दिया, पर मैं सोचता रहा कि इतनी कम उम्र में तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है? तुम्हारी घरेलू स्थिति क्या है? इस तरह कौन मां अपनी कम उम्र की बिटिया को नौकरी करने शहर भेज सकती है? कई सवाल मेरे मन में आते रहे, मैं तुम से उन का जवाब नहीं मांग पाया. सवाल सवाल होते हैं और जवाब जवाब. जब सवाल पसंद आने वाले न हों तो कौन उन का जवाब देना चाहेगा. वैसे मैं ने हाल में तुम से कई सवाल पूछे पर मुझे एक का भी उत्तर नहीं मिला. आज 20 अगस्त को जब मुझे तुम्हारा सारा खेल समझ में आया है तो फिर कटु सवाल कर के क्यों तुम्हें परेशान करूं.

मेरे मन में तुम्हारी छवि आज भी एक जहीन, संवेदनशील, बुद्धिमान लड़की की है. यह छवि तब बनी जब पहली बार तुम से बात हुई थी. फिर हमारे बीच लगातार बातों से इस छवि में इजाफा हुआ. जब हमारी पहली मुलाकात हुई तो यह छवि मजबूत हो गई. हालांकि मैं तुम्हारे लिए चाह कर भी कुछ कर नहीं पाया. कोशिश मैं ने बहुत की पर सफलता नहीं मिली. दूसरी पारी में मैं ने अपनी असफलता को जब सफलता में बदलने का फैसला किया तो मुझे तुम्हारी तरफ से सहयोग नहीं मिला. बस, मैं यही चाहता था कि तुम्हारे प्यार को न समझ पाने की जो गलती मुझ से हुई थी उस का प्रायश्चित्त यही है कि अब मैं तुम्हारी जिंदगी को ढर्रे पर लाऊं. इस में जो तुम्हारा साथ चाहिए वह मुझे प्राप्त नहीं हुआ.

बहरहाल, 25 जुलाई को तुम फिर मेरी जिंदगी में एक नए रूप में आ गई. अचानक, धड़धड़ाते हुए. तेजी से. सुपरसोनिक स्पीड से. यह दूसरी पारी बहुत हंगामाखेज रही. इस ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. मैं ठहरा भावुक इंसान. तुम ने मेरी भावनाओं की नजाकत पकड़ी और मेरे दिल में प्रवेश कर गई. मेरे जीवन में इंद्रधनुष के सभी रंग भरने लगे. मेरे ऊपर तुम्हारा नशा, तुम्हारा जादू छाने लगा. मेरी संवेदनाएं जो कहीं दबी पड़ी थीं उन्हें तुम ने हवा दी और मेरी जिंदगी फूलों सरीखी हो गई. दुनियाजहान के कसमेवादों की एक नई दुनिया खुल गई. हमारेतुम्हारे बीच की भौतिक दूरी का कोई मतलब नहीं रहा. बातों का आकाश मुहब्बत के बादलों से गुलजार होने लगा.

तुम्हारी आवाज बहुत मधुर है और तुम्हें सुर और ताल की समझ भी है. तुम जब कोई गीत, कोई गजल, कोई नगमा, कोई नज्म अपनी प्यारी आवाज में गाती तो मैं सबकुछ भूल जाता. रात और दिन का अंतर मिट गया. रानी, जानू, राजा, सोना, बाबू सरीखे शब्द फुसफुसाहटों की मदमाती जमीन पर कानों में उतर कर मिस्री घोलने लगे. उम्र का बंधन टूट गया. मैं उत्साह के सातवें आसमान पर सवार हो कर तुम्हारी हर बात मानने लगा. तुम जो कहती उसे पूरा करने लगा. मेरी दिनचर्या बदल गई. मैं सपनों के रंगीन संसार में गोते लगाने लगा. क्या कभी सपने भी सच्चे होते हैं? मेरा मानना है कि नहीं. ज्यादा तेजी किसी काम की नहीं होती. 25 जुलाई को शुरू हुई प्रेमकथा 20 अगस्त को अचानक रुक गई. मेरे सपने टूटने लगे. पर मैं ने सहनशीलता का दामन नहीं छोड़ा. मैं गंभीर हो गया था. मैं तो कोई खेल नहीं खेल रहा था. इसलिए मेरा व्यवहार पहले जैसा ही रहा. पर तुम्हारा प्रेम उपेक्षा में बदल गया. कोमल भावनाएं औपचारिक हो गईं. मेरे फोन की तुम उपेक्षा करने लगी. अपना फोन दिनदिन भर, रातभर बंद करने लगी. बातों में भी बोरियत झलकने लगी. तुम्हारा व्यवहार किसी खेल की ओर इशारा करने लगा.

इस उपेक्षा से मेरे अंदर जैसे कोई शीशा सा चटख गया, बिखर गया हो और आवाज भी नहीं हुई हो. मैं टूटे ताड़ सा झुक गया. लगा जैसे शरीर की सारी ताकत निचुड़ गई है. मैं विदेह सा हो गया हूं. डा. सुधाकर मिश्र की एक कविता याद आ गई,

इतना दर्द भरा है दिल में, सागर की सीमा घट जाए.

जल का हृदय जलज बन कर जब खुशियों में खिलखिल उठता है. मिलने की अभिलाषा ले कर,

भंवरे का दिल हिल उठता है. सागर को छूने शशधर की किरणें,

भागभाग आती हैं, झूमझूम कर, चूमचूम कर,

पता नहीं क्याक्या गाती हैं. तुम भी एक गीत यदि गा दो,

आधी व्यथा मेरी घट जाए. पर तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि मेरी व्यथा कटने वाली नहीं है.

अभी जैसा तुम्हारा बरताव है, उस से लगता है कि नहीं कटेगी. यह मेरे लिए पीड़ादायक है कि मेरा सच्चा प्यार खेल का शिकार बन गया है. मैं तुम्हारी मासूमियत को प्यार करता हूं, दिव्या. पर इस प्यार को किसी खेल का शिकार नहीं बनने दे सकता. लिहाजा, मैं वापस अपनी पुरानी दुनिया में लौट रहा हूं. मुझे पता है कि मेरा मन तुम्हारे पास बारबार लौटना चाहेगा. पर मैं अपने दिल को समझा लूंगा. और हां, जिंदगी के किसी मोड़ पर अगर तुम्हें मेरी जरूरत होगी तो मुझे बेझिझक पुकारना, मैं चला आऊंगा. तुम्हारे संपर्क का तकरीबन एक महीना मुझे हमेशा याद रहेगा. अपना खयाल रखना.

विमलाजी : दूसरों के लिए रहस्यमय सा क्यों था विमलाजी का व्यक्तित्व

विमलाजी का रोरो कर बुरा हाल था. उन का इकलौता बेटा मनीष 10 दिनों से लापता था. सब ने समझाया कि थाने में रिपोर्ट दर्ज करवा देनी चाहिए, लेकिन इस बात पर वे चुप्पी साध लेती थीं. उन के पति बारबार कालोनी के लोगों के सामने उन को ताने दे रहे थे कि उन के सिर चढ़ाने का ही यह परिणाम है, अवश्य किसी लड़की के साथ भाग गया होगा, जब पैसे खत्म होंगे तो अपनेआप घर लौट कर आएगा. अचानक एक दिन विमला भी घर से गईं और लौट कर नहीं आईं तो उन के पति और कालोनीवासियों का माथा ठनका कि जरूर दाल में कुछ काला है. पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई. विमलाजी की खोज जोरशोर से की जाने लगी, सब ने अंदाजा लगाया कि मांबेटे दोनों के लापता होने के पीछे एक ही कारण होगा.

पुलिस ने घर के आसपास तथा उन सभी स्थानों पर उन को तलाशा, जहां उन के जाने की संभावना थी, लेकिन सब बेकार. कालोनी के पास ही एक कोठी थी, जिस में कोई नहीं रहता था. लोगों का मानना था कि उस में भूत रहते हैं, इसलिए वह ‘भुतहा कोठी’ कही जाती थी. किसी की उस के अंदर जाने की हिम्मत नहीं होती थी. पुलिस ने वहां भी छानबीन करनी चाही, अंदर का भयावह दृश्य देख कर पुलिस वाले और कालोनी वाले सन्न रह गए. विमलाजी की लाश वहां पड़ी थी, पूरा शरीर चाकुओं से गुदा हुआ था. हाथों में जो मोटेमोटे सोने के कंगन थे और गले में 5 तोले की चैन पहने रहती थीं, वे सब गायब थे. उन के आभूषण रहित नग्न शरीर को उन की ही साड़ी से ढक कर रखा गया था.

बहुत से लोग अटकलें लगाया करते थे कि उस कोठी को भुतहा कोठी कह कर जानबूझ कर बदनाम किया गया था जिस से उस में डर के मारे कोई प्रवेश न करे. वास्तविकता यह थी कि उस कोठी को आपराधिक गतिविधियों को अंजाम देने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. कालोनी में सनसनी फैल गई. पुलिस कार्यवाही कर के चली गई. लाश के क्रियाकर्म की तैयारी आरंभ हो गई, तभी उन का बेटा मनीष आता हुआ दिखाई पड़ा. सब लोग विस्फारित आंखों से अवाक् उस की ओर देख रहे थे. वह भी अपनी मां की लाश देख कर सकते में आ गया था और पेड़ की डाल की तरह टूट कर अपनी मां से लिपट कर खूब रोया. फिर उस ने जो वृतांत सुनाया, उसे सुन कर सभी सन्न रह गए. उस ने बताया, ‘‘मैं घर से भागा नहीं, मुझे दुकान से लौटते हुए कुछ लोगों ने किडनैप कर लिया था और अगले दिन से ही मां से 50 लाख रुपए की फिरौती की मांग करने लगे थे मेरे सामने उन के फिरौती न देने पर मुझे मार देने की धमकी देते थे. उन का फोन स्पीकर पर रहता था. मेरी मां ने इतना रुपया न देने की असमर्थता जताई, तो ऊंची आवाज में उन को धमकाते थे कि चाहे जैसे भी दो, हमें पैसा चाहिए. ‘‘वे पापा से भी कुछ नहीं बता सकती थीं, क्योंकि उन्होंने मां को सख्ती से मना कर रखा था कि वे उन को न बताएं वरना वे लोग पापा को बता देंगे कि वे अकसर एक बाबा से अपनी परेशानियों का समाधान पूछने के लिए मिलती थीं. उन के वार्त्तालाप से ही उसे ये सब जानकारी मिली थी और इस से साफ जाहिर था कि मां उन को अच्छी तरह जानती थीं.

‘‘फिर परसों अचानक उस भुतहा कोठी में अपनी मां को अपने सामने देख मैं हक्काबक्का रह गया. मां के हाथ में एक पोटली थी, जिस में गहने थे. मां तो वहीं खड़ी रहीं और मुझे आधी रात को एक कार में ले जा कर कहीं दूर छोड़ दिया था. मुझे मां से गले लग कर रोने भी नहीं दिया.’’ इतना कह कर वह फूटफूट कर रोने लगा. सारा अप्रत्याशित वृतांत सुन कर, सभी डर कर कांपने लगे. पुलिस ने मनीष से पूछा, ‘‘तुम उन लोगों का चेहरा पहचान सकते हो.’’

‘‘नहीं सर, वे हर समय अपना मुंह ढके रहते थे.’’ पुलिस को सारी स्थिति समझने में देर नहीं लगी. पुलिस ने कहा, ‘‘अपराधियों ने गहने मिलने के बाद लड़के को तो छोड़ दिया क्योंकि वह तो उन्हें पहचान ही नहीं पाया था और मां को जान से मार दिया कि कहीं वह घर जा कर उन का भेद न खोल दे.’’ थोड़ी देर सोच कर जांच अधिकारी ने कहा, ‘‘ठीक है, हम पूरी कोशिश करेंगे अपराधी को ढूंढ़ने की.’’

प्रतिदिन ही कुछ न कुछ इन बाबाओं के कुकृत्य मीडिया के द्वारा तथा इधरउधर से सुनने को मिलते हैं, फिर भी लोग न जाने क्यों इतने अंधविश्वासी होते हैं कि उन के जाल में फंस जाते हैं और एक बार फंसने के बाद ये ढोंगी अपने ग्राहक को ऐसा सम्मोहित कर लेते हैं कि फिर उन से पीछा छुड़ाना असंभव सा हो जाता है. लेकिन बाबाओं के चक्कर में पड़ने के पीछे पारिवारिक पृष्ठभूमि भी बहुत बड़ा कारण होती है, उस का ही ये लोग फायदा उठाते हैं और विमलाजी तथा उन के क्रियाकलाप ऐसे ही थे  विमलाजी कालोनी में फर्स्ट फ्लोर पर पिछले 5 वर्षों से रह रही थीं. अकसर वे आंगन में घूमती दिखाई पड़ जाती थीं. कपड़े धोना, सब्जी काटना, बरतन साफ करना, स्वेटर बुनना, कंघी करना आदि, जैसे उन के घर का सारा काम आंगन में ही सिमट कर आ गया हो. घर का अंदरूनी हिस्सा तो उन्हें काटने को दौड़ता था. आखिर, क्यों न ऐसा हो, सुबह ही दोनों बापबेटे दुकान के लिए निकल जाते थे और रात के 12 बजे तक आते थे. बेटी कोई थी नहीं.

पति को उन से अधिक अपना व्यवसाय प्यारा था. कभी मैं ने उन दोनों को आंगन में एकसाथ बैठे नहीं देखा. छुट्टी वाले दिन भी विमलाजी के पति अपने काम में व्यस्त रहते थे. पैसे की बहुतायत होने के कारण उन का इकलौता बेटा मनीष बुरी आदतों का शिकार हो गया था. इस कारण विमलाजी बहुत परेशान रहती थीं. अकसर उन की अपने बेटे पर चिल्लाने की जोरजोर से आवाजें सब के घर तक आती थीं. उन को इस बात की तनिक भी परवा नहीं थी कि सुनने वालों की क्या प्रतिक्रिया होगी. विमलाजी पढ़ीलिखी नहीं थीं. पति से तिरस्कृत होने के कारण, अपने रखरखाव के प्रति बहुत लापरवाह थीं. यों भी कह सकते हैं कि विमलाजी की इस लापरवाही के कारण ही उन के पति उन से दूरदूर रहते थे. कभी मैं उन के घर के सामने से निकलती तो अकेलेपन के कारण ही वे अकसर गेट पर ही खड़ी दिख जातीं. वे अकसर मुझे बड़े आग्रह से अपने घर के अंदर बुलातीं, लेकिन बैठातीं आंगन में ही थीं. वहीं बैठे हुए घर के अंदर का दृश्य देखने लायक होता था. ऐसा लगता था जैसे अभी चोर आ कर गए हों. उन की ओर दृष्टि जाती तो चेहरा ऐसा लगता जैसे सुबह से धोया तक नहीं है, कपड़े मैचेकुचैले होते, बाल बिखरे होते, लगता जैसे घर के काम में उन का बिलकुल रुझान नहीं है और अपनेआप से भी उन्हें दुश्मनी जैसी है.

समझ नहीं आता था कि कोई गतिविधि न होने के कारण वे सारा दिन काटती कैसे थीं. उन की इस प्रवृत्ति के कारण कोई उन के घर नहीं जाना चाहता था, लेकिन कभीकभी उन के अकेलेपन पर तरस आ जाता था और मैं उन के घर चली जाती थी. पूरी कालोनी में उन के रवैये के चर्चे होते थे कि इतना पैसा होने पर भी उन्होंने अपना यह हाल क्यों बना रखा है. अपनी व्यक्तिगत बातें वे किसी से साझा नहीं करती थीं, इसलिए सब को वे बड़ी रहस्यमय लगती थीं. किसी से तवज्जुह न मिलने के कारण दिशाहीन हो कर अपनेआप में उलझी रहती थीं. उन्हें यह समझ नहीं थी कि जवान होते हुए बेटे के साथ दोस्ताना व्यवहार रखना कितना आवश्यक था. उन के पति को तो बेटे से अपने व्यवसाय में पूरा सहयोग मिल रहा था, पर वह काम के सिलसिले में बाहर जा कर क्या करता था, उन्हें कोई मतलब नहीं था, लेकिन विमला से उस के देर रात घर आने पर उस के क्रियाकलाप देख कर कुछ भी छिपा नहीं था. उन्हें कुछ समझ नहीं आया तो बाबा की शरण ली. वे भविष्य तो बताते ही थे, साथ में उपाय भी बताते थे और विमलाजी उन उपायों को अपने बेटे के लिए अपनाती भी थीं.

धीरेधीरे बाबा के वर्चस्व का उन पर इतना प्रभाव पड़ा कि वे अकसर उन का प्रवचन सुनने उन के पास चली जाती थीं. इस क्रियाकलाप से उन के पति और बेटा अनभिज्ञ थे. यह बात बहुत समय बाद, जब उस का भयंकर दुष्परिणाम, उन की मृत्यु के रूप में सामने आया तब सब को पता लगा. पड़ोसियों को रातदिन अपने आंगन में दिखाई देने वाली विमलाजी का आंगन सूना देख कर मन बहुत व्यथित होता था. काश वे पढ़ीलिखी होतीं और अंधविश्वास में पड़ कर बाबाओं के पास चक्कर लगाने के स्थान पर अच्छी पुस्तकें पढ़तीं, अच्छे लोगों के संपर्क में रह कर अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ़तीं. कहते हैं, अपना दुख बांटने से वह आधा रह जाता है. उन की नासमझी के कारण, उन की स्वयं की तो दर्दनाक मृत्यु हुई ही, साथ में परिवार की जड़ें भी हिल गईं. इस सब के लिए उन के पति भी कम दोषी नहीं थे, जिन को यह समझ नहीं थी कि पत्नी को भौतिक सुख के साथ भावनात्मक संबल भी चाहिए होता है. विमलाजी की त्रासदी शायद कुछ लोगों की आंखें खोल सके.

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