बहुत दिनों से नीमा से बात नहीं हो पा रही थी. जब भी फोन मिलाने की सोचती कोई न कोई काम आ जाता. नीमा मेरी छोटी बहन है और मेरी बहुत प्रिय है.
‘‘मौसी की चिंता न करो मां. वे अच्छीभली होंगी तभी उन का फोन नहीं आया. कोई दुखतकलीफ होती तो रोनाधोना कर ही लेतीं.’’
मानव ने हंस कर बात उड़ा दी तो मुझे जरा रुक कर उस का चेहरा देखना पड़ा. आजकल के बच्चे बड़े समझदार और जागरूक हो गए हैं, यह मैं समझती हूं और यह सत्य मुझे खुशी भी देता है. हमारा बचपन इतना चुस्त कहां था, जो किसी रिश्तेदार को 1-2 मुलाकातों में ही जांचपरख जाते. हम तो आसानी से बुद्धू बन जाते थे और फिर संयुक्त परिवारों में बच्चों का संपर्क ज्यादातर बच्चों के साथ ही रहता था. बड़े सदस्य आपस में क्या मनमुटाव या क्या मेलमिलाप कर के कैसेकैसे गृहस्थी की गाड़ी खींच रहे हैं, हमें पता ही नहीं होता था. आजकल 4 सदस्यों के परिवार में किस के माथे पर कितने बल आए और किस ने किसे कितनी बार आंखें तरेर कर देखा बच्चों को सब समझ में आता है.
‘‘मैं ने कल मौसी को मौल में देखा था. शायद बैंक में जल्दी छुट्टी हो गई होगी. खूब सारी शौपिंग कर के लदीफंदी घूम रही थीं. उन की 2 सहयोगी भी साथ थीं.’’
‘‘तुम से बात हुई क्या?’’
‘‘नहीं. मैं तीसरे माले पर था और मौसी दूसरे माले पर.’’
‘‘कोई और भी तो हो सकती है? तुम ने ऊपर से नीचे कैसे देख लिया?’’
‘‘अरे, अंधा हूं क्या मैं जो ऊपर से नीचे दिखाई न दे? अच्छीखासी हंसतेबतियाते जा रही थीं… और आप जब भी फोन करती हैं रोनाधोना शुरू कर देती हैं कि मर गए, बरबाद हो गए. जो समय सुखी होगा उसे आप से कभी नहीं बांटती और जब जरा सी भी तकलीफ होगी तो उसे रोरो कर आप से कहेंगी. मौसी जैसे इनसान की क्या चिंता करनी… छोड़ो उन की चिंता. उन का फोन नहीं आया तो इस का मतलब है कि वे राजीखुशी ही होंगी.’’
मैं ने अपने बेटे को जरा सा झिड़क दिया और फिर बात टाल दी. मगर सच कहूं तो उस का कहना गलत भी नहीं था. सच ही समझा है उस ने अपनी मौसी को. अपनी जरा सी भी परेशानी पर हायतोबा मचा कर रोनाधोना उसे खूब सुहाता है. लेकिन बड़ी से बड़ी खुशी पचा जाना उस ने पता नहीं कहां से सीख लिया. कहती खुशी जाहिर नहीं करनी चाहिए नजर लग जाती है. किस की नजर लग जाती है? क्या हमारी? हम जो उस के शुभचिंतक हैं, हम जिन्हें अपनी परेशानी सुनासुना कर वह अपना मन हलका करती है, क्या हमारी नजर लगेगी उसे? अंधविश्वासी कहीं की. अभी पिछले हफ्ते ही तो बता रही थी कि मार्च महीने की वजह से हाथ बड़ा तंग है. कुछ रुपए चाहिए. मेरे पास कुछ जमाराशि है, जिसे मैं ने किसी आड़े वक्त के लिए सब से छिपा कर रखा है. उस में से कुछ रुपए उसे देने का मन बना भी लिया था. मैं जानती हूं रुपए शायद ही वापस आएं. यदि आएंगे भी तो किस्तों में और वे भी नीमा को जब सुविधा होगी तब. छोटी बहन है मेरी. मातापिता ने मरने से पहले समझाया था कि छोटी बहन को बेटी समझना. मुझ से 10 साल छोटी है. मैं उस की मां नहीं हूं, फिर भी कभीकभी मां बन कर उस की गलती पर परदा डाल देती हूं, जिस पर मेरे पति भी हंस पड़ते हैं और मेरा बेटा भी.
‘‘तुम बहुत भोली हो शुभा. अपनी बहन से प्यार करो, मगर उसे इतना स्वार्थी मत बनाओ कि उस का ही चरित्र उस के लिए मुश्किल हो जाए. मातापिता को भी अपनी संतान के चरित्रनिर्माण में सख्ती से काम लेना पड़ता है तो क्या वे उस के दुश्मन हो जाते हैं, जो तुम उस की गलती पर उसे राह नहीं दिखातीं?’’
‘‘मैं क्या राह दिखाऊं? पढ़ीलिखी है और बैंक में काम करती है. छोटी बच्ची नहीं है वह जो मैं उसे समझाऊं. सब का अपनाअपना स्वभाव होता है.’’
‘‘सब का अपनाअपना स्वभाव होता है तो फिर रहने दो न उसे उस के स्वभाव के साथ. गलती करती है तो उसे उस की जिम्मेदारी भी लेने दो. तुम तो उसे शह देती हो. यह मुझे बुरा लगता है.’’
मैं मानती हूं कि उमेश का खीजना सही है, मगर क्या करूं? मन का एक कोना बहन के लिए ममत्व से उबर ही नहीं पाता. मैं उसे बच्ची नहीं मानती. फिर भी बच्ची ही समझ कर उस की गलती ढकती रहती हूं. सोचा था क्व10-20 हजार उसे दे दूंगी. कह रही थी कि मार्च महीने में सारी की सारी तनख्वाह इनकम टैक्स में चली गई. घर का खर्च कैसे चलेगा? क्या वह इस सत्य से अवगत नहीं थी कि मार्च महीने में इनकम टैक्स कटता है? उस के लिए तैयारी क्या लोग पहले से नहीं करते हैं? पशुपक्षी भी अपनी जरूरत के लिए जुगाड़ करते हैं. तो क्या बरसात के मौसम के लिए छाते का इंतजाम नीमा के पड़ोसी या मित्र करेंगे? सिर मेरा है तो उस की सुरक्षा का प्रबंध भी मुझे ही करना चाहिए न. मैं हैरान हूं कि उस के पास तो घर खर्च के लिए भी पैसे नहीं थे और मानव ने बताया मौसी मौल में खरीदारी कर रही थीं. सामान से लदीफंदी घूम रही थीं तो शौपिंग के लिए पैसे कहां से आए?
सच कहते हैं उमेश कि कहीं मैं ही तो उसे नहीं बिगाड़ रही. उस के कान मरोड़ उसे उस की गलती का एहसास तो कराना ही चाहिए न. कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं, जिन के बिना गुजारा नहीं चलता. लेकिन वही हमें तकलीफ भी देते हैं. गले में स्थापित नासूर ऐसा ही तो होता है, जिसे काट कर फेंका नहीं जा सकता. उसी के साथ जीने की हमें आदत डालनी पड़ती है. निभातेनिभाते बस हम ही निभाते चलते जाते हैं और लेने वाले का मुंह सिरसा के मुंह जैसा खुलता ही जाता है.
40 की होने को आई नीमा. कब अपनी गलत आदतें छोड़ेगी? शायद कभी नहीं. मगर उस की वजह से अकसर मेरी अपनी गृहस्थी में कई बार अव्यवस्था आ जाती है. अकसर किसी के पैर पसारने की वजह से अगर मेरी भी चादर छोटी पड़ जाए तो कुसूर मेरा ही है. मैं ने अपनी चादर में उसे पैर पसारने ही क्यों दिए? मातापिता ही हैं जो औलाद के कान मरोड़ कर सही रास्ते पर लाने का दुस्साहस कर सकते हैं. वैसे तो एक उम्र के बाद सब की बुद्धि इतनी परिपक्व हो ही जाती है कि चाहे तो पिता का कहा भी न माने तो पिता कुछ नहीं कर सकता. मगर बच्चे के कान तक हाथ ले जाने का अधिकार उसे अवश्य होता है.
मैं ने शाम को कुछ सोचा और फिर नीमा के घर का रुख कर लिया. फोन कर के बताया नहीं कि मैं आ रही हूं. मानव कोचिंग क्लास जाता हुआ मुझे स्कूटर पर छोड़ता गया. नीमा तब स्तब्ध रह गई जब उस ने अपने फ्लैट का द्वार खोला.
‘‘दीदी, आप?’’
नीमा ने आगेपीछे ऐसे देखा जैसे उम्मीद से भी परे कुछ देख लिया.
‘‘दीदी आप? आप ने फोन भी नहीं किया?’’
‘‘बस सोचा तुझे हैरान कर दूं. अंदर तो आने दे… दरवाजे पर ही खड़ा कर दिया.’’
उसे एक तरफ हटा कर मैं अंदर चली आई. सामने उस का कोई सहयोगी था. मेज पर खानेपीने का सामान सजा था. होटल से मंगाया गया था. जिन डब्बों में आया था उन्हीं में खाया भी जा रहा था. पुरानी आदत है नीमा की, कभी प्लेट में सजा कर सलीके से मेज पर नहीं रखती. समोसेपकौड़े तो लिफाफे में ही पेश कर देती है. पेट में ही जाना है. क्यों बरतन जूठे किए जाएं? मुझे देख वह पुरुष सहसा असहज हो गया. सोचता होगा कैसी बदतमीज है नीमा की बहन एकाएक सिर पर चढ़ आई.
‘‘अपना घर है मेरा… फोन कर के आने की क्या तुक थी भला? बस बैठबैठे मन हुआ तो चली आई. क्यों तुम कहीं जाने वाली थी क्या?’’
मैं ने दोनों का चेहरा पढ़ा. पढ़ लिया मैं ने कुछ अनचाहा घट गया है उन के साथ.
‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए सोचा देख आऊं.’’
‘‘हां, विजय भी हालचाल पूछने ही आए हैं. ये मेरे सहयोगी हैं.’’
मेरे ही प्रश्न ने नीमा को राह दिखा दी. मैं ने तबीयत का पूछा तो उस ने झट से हालचाल पूछने के लिए आए सहयोगी की स्थिति साफ कर दी वरना झट से उसे कोई बहाना नहीं सूझ रहा था. मेरी बहन है नीमा. भला उसी के रंगढंग मैं नहीं पहचानूंगी? बचपन से उस की 1-1 हरकत मैं उस का चेहरा पढ़ कर ही भांप जाती हूं. 10 साल छोटी बहन मेरी बहुत लाडली है. 10 साल तक मेरे मातापिता मात्र एक ही संतान के साथ संतुष्ट थे. मैं ही अकेलेपन की वजह से बीमार रहने लगी थी. मौसी और बूआ सब की 2-2 संतानें थीं और मेरे घर में मैं अकेली. बड़ों में बैठती तो वे मुझे उठा देते कि चलो अंदर जा कर खेलो. क्या खेलो? किस के साथ खेलो? बेजान खिलौने और बेजान किताबें… किसी जानदार की दरकार होने लगी थी मुझे. मैं चिड़ीचिड़ी रहती थी, जिस का इलाज था भाई या बहन.
भाई या बहन आने वाला हुआ तो मातापिता ने मुझे समझाना शुरू कर दिया कि सारी जिम्मेदारी सिर्फ मेरी ही होगी. अपना सुखदुख भूल मैं नीमा के ही सुख में खो गई. 10 साल की उम्र से ही मुझ पर इतनी जिम्मेदारी आ गई कि अपनी हर इच्छा मुझे व्यर्थ लगती. ‘‘तुम उस की मां नहीं हो शुभा… जो उस के मातापिता थे वही तुम्हारे भी थे,’’ उमेश अकसर समझाते हैं मुझे.
अवचेतन में गहरी बैठा दी गई थी मातापिता द्वारा यह भावना कि नीमा उसी के लिए संसार में लाई गई है. मुझे याद है अगर हम सब खाना खा रहे होते और नीमा कपड़े गंदे कर देती तो रोटी छोड़ कर उस के कपड़े मां नहीं मैं बदलती थी. जबकि आज सोचती हूं क्या वह मेरा काम था? क्या यह मातापिता का फर्ज नहीं था? क्या बहन ला कर देना मेरे मातापिता का मुझ पर एहसान था? इतना ज्यादा कर्ज जिसे 40 साल से मैं उतारतेउतारते थक गई हूं और कर्ज है कि खत्म ही नहीं होता है.
‘‘आओ दीदी बैठो न,’’ अनमनी सी बोली नीमा.
मेरी नजर सोफे पर पड़े लिफाफों पर पड़ी. जहां से खरीदे गए थे उन पर उसी मौल का पता था जिस के बारे में मानव ने मुझे बताया था. कुछ खुले परिधान बिखरे पड़े थे आसपास. शायद नीमा उन्हें पहनपहन कर देख रही थी या फिर दिखा रही थी.
छटी इंद्री ने मुझे एक संकेत सा दिया… यह पुरुष नीमा की जिंदगी में क्या स्थान रखता है? क्या इसी को नीमा नए कपड़े पहनपहन कर दिखा रही थी.
‘‘क्या बुखार था तुम्हें? आजकल मौसम बदल रहा है… वायरल हो गया होगा,’’ कह मैं ने कपड़ों को धकेल कर एक तरफ किया.
उसी पल वह पुरुष उठ पड़ा, ‘‘अच्छा, मैं चलता हूं.’’
‘‘अरे बैठिए न… आप अपना खानापीना तो पूरा कीजिए. बैठो नीमा,’’ मेरा स्वर थोड़ा बदल गया होगा, जिस पर दोनों ने मुझे बड़ी गौर से देखा.
उस पुरुष ने कुछ नहीं कहा और फिर चला गया. नीमा भी अनमनी सी लगी मुझे.
‘‘बीमार थी तो यह फास्ट फूड क्यों खा रही हो तुम?’’ डब्बों में पड़े नूडल्स और मंचूरियन पर मेरी नजर पड़ी. उन डब्बों में 1 ही चम्मच रखा था. जाहिर है, दोनों 1 ही चम्मच से खा रहे थे.
‘‘कुछ काम था तुम से इसलिए फोन पर बात नहीं की… मुझे कुछ रुपए चाहिए थे… मानव की कोचिंग क्लास के लिए… तुम्हारी तरफ मेरे कुल मिला कर 40 हजार रुपए बनते हैं. तुम तो जानती हो मार्च का महीना है.’’ नीमा ने मुझे विचित्र सी नजरों से देखा जैसे मुझे पहली बार देख रही हो… चूंकि मैं ने कभी रुपए वापस नहीं मांगे थे, इसलिए उस ने भी कभी वापस करना जरूरी नहीं समझा. मैं बड़ी गौर से नीमा का चेहरा पढ़ रही थी. मैं उस की शाम बरबाद कर चुकी थी और संभवतया नैतिक पतन का सत्य भी मेरी समझ में आ गया था. अफसोस हो रहा है मुझे. एक ही मातापिता की संतान हैं हम दोनों बहनें और चरित्र इतना अलगअलग… एक ही घर की हवा और एक ही बरतन से खाया गया खाना खून में इतना अलगअलग प्रभाव कैसे छोड़ गया.
‘‘मेरे पास पैसे कहां…?’’ नीमा ने जरा सी जबान खोली.
‘‘क्यों? अकेली जान हो तुम. पति और बेटा अलग शहर में रहते हैं… उस पर तुम एक पैसा भी खर्च नहीं करती… कहां जाते हैं सारे पैसे?’’
नीमा अवाक थी. सदा उसी की पक्षधर उस की बहन आज कैसी जबान बोलने लगी. बोलना तो मैं सदा ही चाहती थी, मगर एक आवरण था झीना सा खुशफहमी का कि शायद वक्त रहते नीमा का दिमाग ठीक हो जाए. उस का परिवार और मेरा परिवार तो सदा ही उस के आचरण से नाराज था बस एक मैं ही उस के लिए डूबते को तिनके का सहारा जैसी थी और आज वह सहारा भी मैं ने छीन लिया.
‘‘पाईपाई कर जमा किए हैं मैं ने पैसे… मानव के दाखिले में कितना खर्चा होने वाला है, जानती हो न? मेरी मदद न करो, लेकिन मेरे रुपए लौटा दो. बस उन से मेरा काम हो जाएगा,’’ कह कर मैं उठ गई. काटो तो खून नहीं रहा नीमा में. मेरा व्यवहार भी कभी ऐसा होगा, उस ने सपने में भी नहीं सोचा होगा. उस की हसीन होती शाम का अंजाम ऐसा होगा, यह भी उस की कल्पना से परे था. कुछ उत्तर होता तो देती न. चुपचाप बैठ गई. उस के लिए मैं एक विशालकाय स्तंभ थी जिस की ओट में छिप वह अपने पति के सारे आक्षेप झुठला देती थी.
‘‘देखो न दीदी अजय कुछ समझते ही नहीं हैं…’’
अजय निरीह से रह जाते थे. नीमा की उचितअनुचित मांगों पर. नारी सम्मान की रक्षा पर बोलना तो आजकल फैशन बनता जा रहा है. लेकिन सोचती हूं जहां पुरुष नारी की वजह से पिस रहा है उस पर कोई कानून कोई सभा कब होगी? अपने मोह पर कभी जीत क्यों नहीं पाई मैं. कम से कम गलत को गलत कहना तो मेरा फर्ज था न, उस से परहेज क्यों रखा मैं ने? अफसोस हो रहा था मुझे. दम घुटने लगा मेरा नीमा के घर में… ऐसा लग रहा था कोई नकारात्मक किरण मेरे वजूद को भेद रही है. मातापिता की निशानी अपनी बहन के वजूद से मुझे ऐसी अनुभूति पहले कभी नहीं हुई. सच कहूं तो ऐसा लगता रहा मांपिताजी के रूप में नीमा ही है मेरी सब कुछ और शायद यही अनुभूति मेरा सब से बड़ा दोष रही. कब तक अपना दोष मैं न स्वीकारूं? नीमा की भलाई के लिए ही उस से हाथ खींचना चाहिए मुझे… तभी वह कुछ सही कर पाएगी…
‘‘दीदी बैठो न.’’
‘‘नहीं नीमा… मुझे देर हो रही है… बस इतना ही काम था,’’ कह नीमा का बढ़ा हाथ झटक मैं बाहर चली आई. गले तक आवेग था. रिकशे वाले को मुश्किल से अपना रास्ता समझा पाई. आंसू पोंछ मैं ने मुड़ कर देखा. पीछे कोई नहीं था, जो मुझे रोकता. मुझे खुशी भी हुई जो नीमा पीछे नहीं आई. बैठी सोच रही होगी कि यह दीदी ने कैसी मांग कर दी… पहले के दिए न लौटा पाए न सही कम से कम और तो नहीं मांगेगी न… एक भारी बोझ जैसे उतर गया कंधों पर से… मन और तन दोनों हलके हो गए. खुल कर सांस ली मैं ने कि शायद अब नीमा का कायापलट हो जाए.
गनी ने अपने दोस्तों तथा दफ्तर के सहकर्मियों के लिए ईद की खुशी में खाने की दावत का विशेष आयोजन किया था. उस दिन कनीजा बी बहुत खुश थीं. घर में चहलपहल देख कर उन्हें ऐसा लग रहा था मानो दुनिया की सारी खुशियां उन्हीं के घर में सिमट आई हों.
गनी की ससुराल पास ही के शहर में थी. ईद के दूसरे दिन वह ससुराल वालों के विशेष आग्रह पर अपनी बीवी और बेटे के साथ स्कूटर पर बैठ कर ईद की खुशियां मनाने ससुराल की ओर चल पड़ा था. गनी तेजी से रास्ता तय करता हुआ बढ़ा जा रहा था कि एक ट्रक वाले ने गाय को बचाने की कोशिश में स्टीयरिंग पर अपना संतुलन खो दिया. परिणामस्वरूप उस ने गनी के?स्कूटर को चपेट में ले लिया. पतिपत्नी दोनों गंभीर रूप से घायल हो गए और डाक्टरों के अथक प्रयास के बावजूद बचाए न जा सके.
लेकिन उस जबरदस्त दुर्घटना में नन्हे नदीम का बाल भी बांका नहीं हुआ था. वह टक्कर लगते ही मां की गोद से उछल कर सीधा सड़क के किनारे की घनी घास पर जा गिरा था और इस तरह साफ बच गया था. वक्त के थपेड़ों ने कनीजा बी को अंदर ही अंदर तोड़ दिया था. मुश्किल यह थी कि वह अपनी व्यथा किसी से कह नहीं पातीं. उन्हें मालूम था कि लोगों की झूठी हमदर्दी से दिल का बोझ हलका होने वाला नहीं.
उन्हें लगता कि उन की शादी महज एक छलावा थी. गृहस्थ जीवन का कोई भी तो सुख नहीं मिला था उन्हें. शायद वह दुख झेलने के लिए ही इस दुनिया में आई थीं. रशीद तो उन का पति था, लेकिन हलीमा बी तो उन की अपनी नहीं थी. वह तो एक धोखेबाज सौतन थी, जिस ने छलकपट से उन्हें रशीद के गले मढ़ दिया था.
गनी कौन उन का अपना खून था. फिर भी उन्होंने उसे अपने सगे बेटे की तरह पालापोसा, बड़ा किया, पढ़ाया- लिखाया, किसी काबिल बनाया. कनीजा बी गनी के बेटे का भी भार उठा ही रही थीं. नदीम का दर्द उन का दर्द था. नदीम की खुशी उन की खुशी थी. वह नदीम की खातिर क्या कुछ नहीं कर रही थीं. कनीजा बी नदीम को डांटतीमारती थीं तो उस के भले के लिए, ताकि वह अपने बाप की तरह एक काबिल इनसान बन जाए.
‘लेकिन ये दुनिया वाले जले पर नमक छिड़कते हैं और मासूम नदीम के दिलोदिमाग में यह बात ठूंसठूंस कर भरते हैं कि मैं उस की सगी दादी नहीं हूं. मैं ने तो नदीम को कभी गैर नहीं समझा. नहीं, नहीं, मैं दुनिया वालों की खातिर नदीम का भविष्य कभी दांव पर नहीं लगाऊंगी.’ कनीजा बी ने यादों के आंसू पोंछते हुए सोचा, ‘दुनिया वाले मुझे सौतेली दादी समझते हैं तो समझें. आखिर, मैं उस की सौतेली दादी ही तो हूं, लेकिन मैं नदीम को काबिल इनसान बना कर ही दम लूंगी. जब नदीम समझदार हो जाएगा तो वह जरूर मेरी नेकदिली को समझने लगेगा. ‘गनी को भी लोगों ने मेरे खिलाफ कम नहीं भड़काया था, लेकिन गनी को मेरे व्यवहार से जरा भी शंका नहीं हुई थी कि मैं उस की बुराई पर अमादा हूं.
अब नदीम का रोना भी बंद हो चुका था. उस का गुस्सा भी ठंडा पड़ गया था. उस ने चोर नजरों से दादी की ओर देखा. दादी की लाललाल आंखों और आंखों में भरे हुए आंसू देख कर उस से चुप न रहा गया. वह बोल उठा, ‘‘दादीजान, पड़ोस वाली चचीजान अच्छी नहीं हैं. वह झूठ बोलती हैं. आप मेरी सौतेली नहीं, सगी दादीजान हैं. नहीं तो आप मेरे लिए यों आंसू न बहातीं. ‘‘दादीजान, मैं जानता हूं कि आप को जोरों की भूख लगी है, अच्छा, पहले आप खाना तो खा लीजिए. मैं भी आप का साथ देता हूं.’’
नदीम की भोली बातों से कनीजा बी मुसकरा दीं और बोलीं, ‘‘बड़ा शरीफ बन रहा है रे तू. ऐसे क्यों नहीं कहता. भूख मुझे नहीं, तुझे लगी है.’’
‘‘अच्छा बाबा, भूख मुझे ही लगी है. अब जरा जल्दी करो न.’’ ‘‘ठीक है, लेकिन पहले तुझे यह वादा करना होगा कि फिर कभी तू अपने मुंह से अपने अम्मीअब्बू के पास जाने की बात नहीं करेगा.’’
‘‘लो, कान पकड़े. मैं वादा करता हूं कि अम्मीअब्बू के पास जाने की बात कभी नहीं करूंगा. अब तो खुश हो न?’’ कनीजा बी के दिल में बह रही प्यार की सरिता में बाढ़ सी आ गई. उन्होंने नदीम को खींच कर झट अपने सीने से लगा लिया.
अब वह महसूस कर रही थीं, ‘दुनिया वाले मेरा दर्द समझें न समझें, लेकिन नदीम मेरा दर्द समझने लगा है.’
कहते हैं किसी की किस्मत में अगर आगे बढ़ना लिखा हो तो वह बढ़ ही जाता है, कुछ ऐसा ही हुआ है शहनाज गिल के साथ भी . एक छोटे से गांव की रहने वाली शहनाज गिल ने हमेशा से सपने बड़े देखे थें,
इन दिनों सबकी दिल की धड़कन बन चुकी शहनाज गिल पंजाबी म्यूजिक से अपने कैरियर की शुरुआत की थी, शहनाज गिल का आज पूरा देश फैन बन चुका है. वह अपने चुलबुले अंदाज से लेकर अपनी खूबसूरती तक से लोगों के दिलों पर राज करती हैं.
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आज शहनाज गिल अपना जन्मदिन मना रही हैं, तो आइए जानते हैं कि शहनाज ने कैसे किया था अपने सफर कि शुरुआत. छोटी उम्र से ही वह एक्टिंग कि दुनिया में कदम रख दी थीं, जिसके बाद उन्हें पंजाबी म्यूजिक में काम करने का मौका मिलने लगा था. म्यूजिक एलबम में काम करने के बाद से शहनाज को लोग पंजाब की कैटरीना कहकर बुलाने लगे थें.
शहनाज ने पंजाब के लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया है, उसके बाद शहनाज को बिग बॉस 13 में काम करने का मौका मिला था, जहां शहनाज को सिद्धार्थ शुक्ला जैसा प्यारा दोस्त मिला था, शहनाज अपने दोस्त के साथ काफी खुश थी, उसे हमसफर भी बनाना चाहती थी, लेकिन एक झटकें में उसकी पूरी जिंदगी बदल गई.
बिग बॉस 16 अपने आखिरी पड़ाव पर है और वह जल्द ही अपना विनर घोषित करने वाला है, लेकिन हर दिन नए-नए टॉस्क को लेकर कंटेस्टेंट के बीच जमकर लड़ाई होती नजर आ रही है. वहीं इस हफ्ते सलमान खान के बदले फराह खान शो को होस्ट करती नजर आई.
फराह टीना औऱ प्रियंका की जमकर क्लास लगाती नजर क्योंकि उन्होंने शालीन भनोट का खूब मजाक बनाया था. वहीं जब फराह टीना की फटकार लगानी शुरू कर दी तो टीना बीच में बोलना शुरू कर दी जिससे नाराज होकर फराह वापस चली जाती हैं.
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फराह कहती हैं कि आप लोगों को टीना से सिखना चाहिए कि कैसे किसी को यूज करो और फिर टीशू पेपर की तरह फेंक दें. टीना का दांत टूटना इतना सीरियस हो गया कि इनको घर से बाहर जाना है और शालीन वहां पर नाइटमेयर की तरह तड़प रहा है.
आगे फराह कहती हैं कि जो प्रियंका सच्चाई कर रही है वह अब बबल क्यों बन रही है. अब तो प्रियंका में भी एटिट्यूड देखने को मिल रहा है, जिसमें टीना बीच में बोलना बंद नहीं करती हैं जिसके बाद से फराह कहती हैं कि बीच में बोलना ठीक नहीं है टीना ऐसे में वह शो को छोड़कर चली जाती हैं.
फराह आखिरी में कहती है कि तुम सुन रही हो या मैं जाऊं. इतना एटीट्यूड अच्छा नहीं है, जिसके बाद से वह चली जाती है.
गंभीर बीमारी से मानसिक तनाव या स्ट्रैस का पैदा होना स्वाभाविक है. यह तनाव मनुष्य के स्वास्थ्य पर हमेशा नकारात्मक प्रभाव डालता है और गंभीर बीमारियां तनाव के कारण और ज्यादा गंभीर हो जाती हैं. यही नहीं, तनाव के कारण मौजूदा बीमारी के साथ दूसरी बीमारियां भी पैदा हो जाती हैं.
लंबी और गंभीर बीमारियां निश्चित तौर पर मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं. कैंसर, कोरोनरी हार्ट डिजीज, डायबिटीज, मिर्गी, मल्टीपल स्क्लेरोसिस, स्ट्रोक, अल्जाइमर रोग, एड्स, पार्किंसन डिजीज, सिस्टेमिक ल्यूपस एरिथेमेटोसस, रूमेटाइड आर्थ्राइटिस आदि ऐसी बीमारियां हैं जो एक बार हो जाएं तो आजीवन साथ बनी रहती हैं.
पूरे जीवन इन का इलाज चलता है और पीडि़त व्यक्ति को दवाओं, टैस्ट के अतिरिक्त अन्य कई मैडिकल ट्रीटमैंट्स से गुजरना पड़ता है. जो बेहद कष्टकारी होता है. इन बीमारियों के चलते मानसिक तनाव के साथसाथ बड़ी आर्थिक दिक्कतें भी पैदा हो जाती हैं. लंबी और गंभीर बीमारी अकेले नहीं आती, बल्कि अपने साथ और बीमारियों को ले कर आती है जिन में सब से पहला है अवसाद यानी डिप्रैशन.
सुशील 30 साल का तंदुरुस्त हंसताखेलता नौजवान बीते 2 सालों में जैसे 50 साल का बुजुर्ग नजर आने लगा है. वजह है कैंसर. सुशील को मुंह और गले का कैंसर है. 2 साल में उस की
3 बार सर्जरी हो चुकी है. मुंह और गले का अधिकांश कैंसरग्रस्त हिस्सा काट कर हटाया जा चुका है. 3 सिटिंग्स कीमोथेरैपी हो चुकी है. कैंसर का पता चलने के बाद से ही सुशील मानसिक रूप से परेशान रहने लगा. हर वक्त चिंता और तनाव में घिर गया. उस का इलाज कैसे होगा, कितना पैसा लग जाएगा, हर औपरेशन से पहले सोचता कि पता नहीं बचूंगा या नहीं, मेरे बाद मेरे बीवीबच्चों को कौन संभालेगा, बूढ़े मांबाप को कौन देखेगा.
3 सर्जरियों और कीमोथेरैपी के बाद सुशील का शरीर जर्जर हो गया है. सिर के बाल कीमो की वजह से उड़ गए जो अब वापस तो आए हैं मगर बहुत कम संख्या में. चेहरे और गरदन के हिस्से से मांस निकाल दिए जाने के कारण शरीर एक ओर को ?ाक गया है. मुंह में एक तरफ का जबड़ा हटा दिया गया है, इस वजह से अब वह कोई सख्त चीज नहीं खा पाता है. जबान की स्वाद ग्रंथियां कीमोथेरैपी की वजह से खत्म हो गई हैं, इसलिए उसे अब खाने के स्वाद का भी पता नहीं चलता है. इन सभी कारणों से उस का खानापीना कम हो गया है. सिर्फ लिक्विड या सैमी लिक्विड खाने से शरीर को पूरा पोषण नहीं मिल पाता है. जिस के चलते एक हृष्टपुष्ट व्यक्ति से जर्जर काया में परिवर्तित हो चुके सुशील को हर वक्त तनाव घेरे रहता है. वह सोचता रहता है कि पता नहीं कितनी जिंदगी बची है.
इस चिंता ने सुशील को अवसादग्रस्त कर दिया है. तनाव का असर उस के लिवर और किडनी पर भी पड़ा है. वह कैंसर ट्रीटमैंट के साथ लिवर और किडनी से संबंधित दवाएं भी खा रहा है. उस के चेहरे से हंसी गायब हो चुकी है. शायद ही किसी ने उसे मुसकराते हुए देखा हो. उसे हर समय पैसों की चिंता लगी रहती है. बीमारी की हालत में उस के फैक्ट्री वालों ने उस की कुछ मदद की. मालिक ने उसे काम से नहीं निकाला पर अब वह मुश्किल से तीनचार घंटे ही काम कर पाता है.
कमजोरी की वजह से वह मशीन पर ज्यादा देर बैठ नहीं पाता. उस की पत्नी उस से ज्यादा परेशान रहती है. ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं है तो किसी दफ्तर में काम नहीं कर सकती. उस ने कुछ घरों का खाना बनाने का काम ले लिया है जिस से बहुत कम आमदनी होती है. सुशील की दवा पर काफी पैसा खर्च हो जाता है. ऐसे में 2 बच्चों और बूढ़े मातापिता का पेट भरना दोनों के लिए मुश्किल होता जा रहा है. रिश्तेदारों से जो कर्ज लिया है, परिवार उस का सूद भी नहीं चुका पाता है. तनाव और असमंजस की जिंदगी ने सुशील को ही नहीं, बल्कि उस की पत्नी को भी मानसिक रोगी बना दिया है.
देविका चौधरी 65 वर्षीया हैं. उन को बीते 20 सालों से मधुमेह है. जवानी के दिनों में देविका बहुत ऊर्जावान महिला थीं. मगर मधुमेह ने उन के शरीर को जकड़ा तो उन की सारी ऊर्जा खत्म हो गई. मधुमेह अकेला नहीं आया, बल्कि अपने साथ हाई ब्लडप्रैशर भी लाया. पहले वे बीपी और शुगर की दवाएं लेती रहीं मगर अब मधुमेह को कंट्रोल करने के लिए डाक्टर ने रैगुलर इंसुलिन के इंजैक्शन लेने की सलाह दी है.
मधुमेह के प्रभाव से उन का लिवर भी क्षतिग्रस्त हो गया है. देविका चौधरी का सिर्फ 25 फीसदी लिवर ही काम करता है. लिहाजा, खाना ठीक से नहीं पचता और एसिडिटी व जलन की शिकायत पूरे समय बनी रहती है. साथ ही, आर्थ्राइटिस की शिकायत हो गई है. घुटनों में दर्द रहता है.
शरीर की नसों में तनाव के कारण चलनेफिरने में तकलीफ होती है. आज देविका चौधरी खाने से ज्यादा दवाएं खाती हैं. इतनी दवाइयां देख कर उन्हें घबराहट होती है. अपनी हालत पर कभीकभी वे फूटफूट कर रोने लगती हैं. यह उन के डिप्रैशन को जाहिर करता है. किसी लंबी बीमारी के साथ रहना शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से चुनौतीपूर्ण होता है, इसलिए पुरानी बीमारियों और डिप्रैशन का एकसाथ होना आश्चर्यजनक नहीं है.
बीमारी से तंग आ कर खुदकुशी की सोच
11 जुलाई, 2022 को सोनभद्र की दलित बस्ती में 45 वर्षीय मुकेश भारती ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली. मुकेश टीबी का मरीज था और लंबे समय से दवाएं खा रहा था. टीबी की बीमारी के चलते वह अपने परिवार के सदस्यों से दूरी रखता था. अलग कमरे में रहता था और उस के बरतनखाना सब अलग था. परिवार वालों को यह आभास तक नहीं हुआ कि इस अकेलेपन, बीमारी और दवाओं के मकड़जाल में मुकेश कब इतना डिप्रैशन में चला गया कि उस ने खुदकुशी करने का फैसला कर लिया.
10 फरवरी, 2022 की घटना है जब आजमगढ़ में पवई थाना क्षेत्र के सुमहाडीह गांव का रहने वाला 35 वर्षीय रमेश कुमार शर्मा ने अपनी लंबी बीमारी के चलते जहर खा कर आत्महत्या कर ली. रमेश के पौकेट से पुलिस ने सुसाइड नोट बरामद किया. उस में युवक ने लिखा है, ‘‘मैं कई बीमारियों से ग्रसित रहने के कारण तंग आ कर जहर खा कर आत्महत्या कर रहा हूं. इस में परिजनों का कोई दोष नहीं है. मैं अपनी पत्नी रानी और बेटे अंशुमन से बहुत प्यार करता हूं. आत्महत्या करते हुए मुझे बहुत दुख हो रहा है.’’
4 साल पहले मधेपुरा के शाह मोहम्मद तनवीर अहमद ने भी सिर में गोली मार कर खुद को खत्म कर लिया. अपने सुसाइड नोट में उस ने एसपी को लिखा, ‘‘मैं शाह मोहम्मद तनवीर अहमद, मधेपुरा की अजहर कालोनी, वार्ड नंबर 12 का निवासी हूं. मेरा कैंसर का औपरेशन 2005 में हुआ था. उस के बाद मैं हमेशा बीमार रहता हूं. औपरेशन के कारण मु?ो बहुत सारी और भी बीमारियां हो गई हैं. थायराइड, शुगर, कोलैस्ट्रौल इत्यादि. दिनभर दवा खाता रहता हूं. दवा खातेखाते थक चुका हूं. अब मु?ो और जीने की इच्छा नहीं है. दिनभर बेचैनी और दिल घबराता रहता है. मेरे पास आत्महत्या के सिवा कोई रास्ता नहीं है. मेरी मौत का दूसरा कोई जिम्मेदार नहीं होगा.’’
ये घटनाएं बताती हैं कि जीवनपर्यंत चलने वाली बीमारियां व्यक्ति को कितनी मानसिक वेदना और तनाव से भर देती हैं. खानेपीने की स्वतंत्रता छिन जाने से, दवाओं के मकड़जाल में फंस कर आदमी इतना अवसादग्रस्त हो जाता है कि उस की जीने तक की इच्छा खत्म हो जाती है.
बीमारी के चलते उत्पन्न मानसिक तनाव या स्ट्रैस हर किसी के लिए अलग होता है. एक व्यक्ति को जिस वजह से तनाव होता है, जरूरी नहीं कि दूसरे को भी वैसा ही तनाव हो. लेकिन तनाव मनुष्य के स्वास्थ्य पर हमेशा नकारात्मक प्रभाव डालता है और गंभीर बीमारियां तनाव के कारण और ज्यादा गंभीर हो जाती हैं. यही नहीं, तनाव के कारण एक बीमारी के साथ अन्य दूसरी बीमारियां भी पैदा हो जाती हैं.
दीर्घकालिक बीमारी से पीडि़त ज्यादातर लोग डिप्रैशन से पीडि़त होते हैं. मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं बीमारी को बढ़ा कर जान को खतरे में डाल सकती हैं. एक अध्ययन में पाया गया है कि जो लोग एक क्रौनिक शारीरिक बीमारी और मानसिक बीमारी दोनों से पीडि़त होते हैं उन में पिछली या अन्य बीमारी से पीडि़त लोगों की तुलना में दोनों बीमारियों के अधिक गंभीर लक्षण होते हैं. पुरानी बीमारी के साथ रहना शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से चुनौतीपूर्ण होता है, इसलिए पुरानी बीमारियों और डिप्रैशन के बीच अन्य गंभीर बीमारियों का होना यानी कोमोरबिडिटी की शुरुआत हो जाना आश्चर्यजनक नहीं है.
कोमोरबिडिटी
एक या अधिक बीमारियों का एकसाथ होना कोमोरबिडिटी कहलाता है. भारत सरकार ने 20 बीमारियों को कोमोरबिडिटी की लिस्ट में रखा है. कोमोरबिडिटी से मतलब है कि एक ऐसा व्यक्ति जो एक ही समय पर एक से अधिक गंभीर बीमारी का शिकार हो. अगर किसी व्यक्ति को डायबिटीज और हाइपरटैंशन जैसी 2 गंभीर बीमारियां एक ही समय पर हैं तो उसे कोमोरबिडिटी माना जाएगा.
कोमोरबिडिटी में सिर्फ गंभीर बीमारियों को ही गिना जाता है. इस में ब्लडप्रैशर, डायबिटीज, कैंसर, अस्थमा, फेफड़ों की बीमारी, हार्ट संबंधी रोग और पेट के गंभीर रोग हो सकते हैं. जो लोग कोमोरबिडिटी के शिकार होते हैं उन की इम्युनिटी कमजोर होती है जिस के चलते वे जल्दी वायरस या मौसमी बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं. इसलिए ऐसे लोगों को अपनी सेहत का खास खयाल रखना पड़ता है और नियमित समय पर टैस्ट और चैकअप के लिए डाक्टर्स के पास जाना पड़ता है. जाहिर है इस में पैसा भी खूब खर्च होता है.
क्रौनिक या लाइफलिमिटिंग यानी लाइलाज बीमारी के लक्षण होने के बाद परेशान होना सामान्य है. ऐसे में जिंदगी की नई सीमाएं तय होने लगती हैं. खानेपीने पर प्रतिबंध शुरू हो जाता है. इच्छित चीजों से दूर होना पड़ता है. शारीरिक रूप से क्या काम करें, क्या न करें इस का निर्धारण करना पड़ता है जो निश्चित रूप से मानसिक तकलीफ देता है और आप अपने इलाज या भविष्य के बारे में सोच कर घबराहट महसूस कर सकते हैं.
वर्तमान में, अमेरिका में 10 में से 6 लोग किसी दीर्घकालिक या क्रौनिक बीमारी से पीडि़त हैं और नैशनल इंस्टिट्यूट औफ मैंटल हैल्थ के अनुसार जो लोग इन बीमारियों से पीडि़त हैं उन के लिए मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है.
क्या करें
यदि आप की मानसिक सेहत आप की बीमारी की वजह से प्रभावित हो रही है तो मदद लेना महत्त्वपूर्ण हो जाता है. अपने मानसिक स्वास्थ्य का इलाज करने से आप के दैनिक जीवन में सुधार हो सकता है और आप को शारीरिक बीमारी का सामना करने में मदद मिल सकती है.
डरें नहीं
जब आप को पता चले कि आप किसी ऐसी बीमारी के शिकार हो गए हैं जो अब जीवनपर्यंत साथ चलेगी तो इस से डरें नहीं, बल्कि इसे एक चुनौती की तरह लें. यह एक कटु सत्य है कि जीवन एक न एक दिन समाप्त होना ही है तो जितने दिन भी जीवन है उसे पूरी गर्मजोशी से जिएं. आप की बीमारी के लिए डाक्टर आप को दवा देंगे, हो सकता है आप की बीमारी ठीक हो जाए, न ठीक हो सके तो दवाओं से वह नियंत्रण में रहेगी. लेकिन अगर आप डर गए और आप ने तनाव को बढ़ने दिया तो एक बीमारी के साथ कई अन्य बीमारियां आप को जकड़ लेंगी. इस से आप को दी जाने वाली दवाओं और इंजैक्शन की संख्या में बढ़ोतरी हो जाएगी. साथ ही खानेपीने की कई चीजों पर प्रतिबंध लग जाएगा.
जीवन में परिवर्तन लाएं
बीमारी का पता लगने से पहले जिस तरह की दिनचर्या चल रही थी, उसे थोड़ा बदल दें. सुबह की शुरुआत फ्रैश हवा में टहलने से करें. लंबी सांसें फेफड़ों में
भरें और छोड़ें, इस से पूरे शरीर की कोशिकाओं में औक्सीजन पहुंचेगी. अच्छे विचारों को ग्रहण करें. कौमेडी फिल्में देखें. हिंसा, तनाव और रोनेधोने वाली पारिवारिक फिल्मों से किनारा कर लें. उन दोस्तों से मिलें जो खुशदिल हों और आप को भी खुश रखते हों.
उन लोगों से दूर हो जाएं जो सिर्फ नकारात्मक बातें करते हैं या आप की बीमारी पर अफसोस जाहिर करते रहते हैं या अपनी बीमारियों या अभावों का रोना रोते रहते हों. घर वालों के साथ हर वक्त अपनी बीमारी की चर्चा न करें. अपनी बीमारी का न खुद तनाव लें और न घर वालों को दें. स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही छोड़ कर डाक्टर की सलाह के अनुसार समय से दवा और खाना खाएं. अगर नशीली चीजों का सेवन करते हों तो वह तुरंत त्याग दें. कौफी या चाय भी कम से कम पिएं.
हैल्दी खाएं
फास्ट फूड, जैसे बर्गर, पिज्जा आदि से खुद को दूर करें. बाजार के बने पकवान, जैसे मिठाइयां, नमकीन, छोलेभठूरे का भी त्याग करें. कोल्ड ड्रिंक और शराब के सेवन से भी दूर रहें. बीमारी के बावजूद अगर आप स्वस्थ और ऊर्जावान रहना चाहते हैं तो घर पर बना सादा खाना ही सर्वोत्तम है. हरी सब्जियां, सलाद, दाल, दूध आदि का सेवन करें. हलका सुपाच्य भोजन ही शरीर को तंदुरुस्त रखता है. चटोरी जबान के बहकावे में आ कर अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ न करें.
ऐक्सरसाइज करें
गंभीर बीमारी के इलाज के साथसाथ हलकी ऐक्सरसाइज और सुबहशाम का टहलना आप को महसूस ही नहीं होने देगा कि आप बीमार हैं. आप का शरीर जितना ऐक्टिव रहेगा, बीमारी का महसूस होना उतना ही कम होगा. इस से दवाओं की मात्रा भी कम की जा सकती है. लेकिन अगर बीमारी से डर कर आप ने बिस्तर पकड़ लिया तो आप का शरीर कई गंभीर बीमारियों का घर बन जाएगा और दवाओं की मात्रा बढ़ती चली जाएगी.
डाक्टर से परामर्श लें
शुगर, हार्ट डिजीज, बीपी आदि के मरीज समयसमय पर डाक्टर से अपना चैकअप जरूर करवाते रहें. समय पर सभी टैस्ट करवाएं. सही खानपान, ऐक्सरसाइज, आशावादिता, नियमित दवा के सेवन से कई बार डाक्टर दवाओं की मात्रा काफी कम कर देते हैं. सूर्यभान सिंह को जब हार्ट अटैक पड़ा था तब डाक्टर ने बंद धमनी को खोलने के लिए एक स्टंट डाला था. एक अन्य धमनिका को उन्होंने दवाओं द्वारा खोला.
शुरू के एक साल तक सूर्यभान सिंह ने काफी दवाइयां खाईं मगर स्वस्थ खानपान और सकारात्मक जीवनचर्या के चलते उन की दवाओं की मात्रा अब आधी से भी कम हो गई है. इसी तरह शुगर के जो मरीज अपनी दिनचर्या को ठीक रखते हैं, देखा गया है कि उन के इंसुलिन लेने की मात्रा में डाक्टर कमी कर देते हैं या जो लोग दवा ले रहे हैं उस की मात्रा भी कम कर दी जाती है.
घूमने जाएं
गंभीर बीमारी हो जाने का यह मतलब नहीं है कि आप घर में बंद हो जाएं और बीमारी का मातम मनाते रहें. खुश रहें और परिवार के साथ हर पल को एंजौय करें. छुट्टियों में बीवीबच्चों के साथ घूमने जाएं, दोस्तों के साथ पिकनिक मनाएं, हिल स्टेशन की सैर करें, शौपिंग करें, लौंग ड्राइव पर जाएं, फिल्म देखें, पार्टी करें. ये सब चीजें जीवन में उत्साह का संचार करती हैं.
अपने पसंदीदा काम करें
घरपरिवार, बच्चों की देखभाल और भागदौड़भरी जिंदगी में कई बार हमारे पसंदीदा काम या हौबीज बहुत पीछे छूट जाते हैं. उन्हें फिर से शुरू करें. आप उन में जो खुशी पाएंगे वह आप की बीमारी को कंट्रोल करने में बहुत मददगार होगी.
लखनऊ के रहने वाले 55 वर्षीय संजय गुप्ता को जब फेफड़ों की बीमारी हुई तो वे बड़े हताश हो गए. जरा सा चलने पर या काम करने पर उन की सांस धौंकनी की तरह चलने लगती थी. लिहाजा उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली और घर में बंद हो गए. घर के लोग भी उन की उदासी देख कर उदास रहने लगे.
एक दिन उन की बचपन की एक सहेली उन का हालचाल लेने आई तो उस ने गोदाम में रखा उन का हारमोनियम निकलवाया. ?ाड़पोंछ कर उन के सामने रख दिया और बोली, ‘‘लगाओ सुर.’’
संजय उदास स्वर में बोले, ‘‘फेफड़े की बीमारी है, अब क्या सुर लगेगा.’’
मगर सहेली के इसरार करने पर उन्होंने अपने पसंदीदा गाने की कुछ पंक्तियां सुनाईं. सहेली ने भी गाने में साथ दिया. एक वक्त था जब संजय अपने कालेज में एक अच्छे सिंगर के रूप में जाने जाते थे. फिर समय के साथ गाना छूट गया. उस दिन सहेली द्वारा पुरानी यादें ताजा हुईं. संजय को भी बहुत अच्छा लगा. उन की पत्नी के चेहरे पर भी काफी समय बाद मुसकान आई.
रिश्तेदारों से मिलेंजुलें
गंभीर बीमारी होने का यह मतलब नहीं है कि आप दुनिया से कट जाएं. ऐसा करने पर आप बिलकुल अकेले हो जाएंगे और हर वक्त अपनी बीमारी व परेशानी के बारे में ही सोचते रहेंगे. इस से सिर्फ तनाव बढ़ेगा जो अन्य बीमारियों को न्योता देगा. सही खानपान, वर्जिश और दवा के साथसाथ अपनी मानसिक सेहत के लिए दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलतेजुलते रहें. हंसीठट्ठा करें. उन के दुखसुख में भागीदार बनें.
अकेले न रहें
गंभीर बीमारी से पीडि़त कभी भी अकेले न रहें. इस के लिए बीमार व्यक्ति के परिवार वालों को भी ध्यान रखना होगा. बीमार को अकेला छोड़ने का मतलब है उस को बीमारी की तरफ और तेजी से धक्का देना. इसलिए सब साथ में रहें और अपने मन की बात शेयर करें.
सकारात्मक रहें
मृत्यु पर किसी का वश नहीं है. वह आज भी आ सकती है और सालों बाद भी. इसलिए बीमार होने पर भी यह कतई न सोचें कि बस, अब तो मौत का इंतजार ही बाकी रह गया है. जितना भी जीवन आप के पास है उसे पूरी सकारात्मकता से जिएं. पौजिटिव रहने से आप बीमारी को मात भी दे सकते हैं या उस के बढ़ने की दर को कम कर सकते हैं. ऐसे कितने ही कैंसर पेशेंट हैं जिन्होंने सही खानपान, वर्जिश और सकारात्मक जीवनशैली से कैंसर जैसी बीमारी को भी मात दे दी और आज वे बिलकुल स्वस्थ जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
पार्क में शाम को तेज गति से चक्कर लगाते हुए प्रिया बड़बड़ा रही थी, ‘मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि नेहा ऐसा काम कर गुजरेगी. कोई बच्ची नहीं है, 30 साल की होने को आई है. शादी के लिए कितने रिश्ते सुझाए पर उसे एक भी पसंद नहीं आया. क्या इसी दिन के लिए उस ने इतने अच्छेअच्छे रिश्ते रिजैक्ट किए?’
आज उस ने अपनी ननद को किसी से फोन पर बात करते हुए सुन लिया था, ‘‘और किस तरह यकीन दिलाऊं तुम्हें कि मैं तुम से कितना प्यार करती हूं. पिछले 1 साल में तुम्हारे लिए हर हद से गुजर चुकी हूं. और एक तुम हो कि न जाने कब अपनी पत्नी को छोड़ोगे. कभीकभी तो मुझे शक होता है कि कहीं तुम मुझे बेवकूफ तो नहीं बना रहे. तुम्हारा उसे छोड़ने का इरादा है भी?’’ नेहा की बातें सुन कर दीवार की ओट में खड़ी प्रिया के पांव तले जमीन खिसक गई थी. पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा, शादी के लिए योग्य लड़की किसी शादीशुदा मर्द से उलझी हो तो उस का क्या भविष्य है भला. आज प्रिया की समझ में आ रहा था कि क्यों नेहा अकसर इतनी परेशान रहती थी – उदास, चिड़चिड़ी, सब से नाराज सी. सारा परिवार यह समझता था कि बढ़ती उम्र के साथ शादी के लिए योग्य वरपरिवार न मिलने के कारण नेहा ऐसी होती जा रही थी. लेकिन आज पता चला कि मामला कुछ और है.
विवाहित प्रेमी क्यों?
आप की उम्र प्रेम करने को सटीक. आप के जीवन में अभी तक कोई नहीं आया. ऐसे में आप किसी ऐसे वातावरण में फंस गई हैं जहां आप का मन नहीं लग रहा और तभी एक सुंदर, बांका, सजीला नौजवान वहां आता है. जाहिर है आप का मन उस नौजवान की ओर लपकेगा. पहले दोस्ती, फिर फोन, फिर वाट्सऐप, फिर फेसबुक पर गपशप. फिर धीरे से आप का वह मन जो पहली ही नजर में उस का दीवाना हो गया था, उस की प्यारी बातों, सभ्य व्यवहार की गिरफ्त में कैद हो जाता है. और इस सब के बाद आप को पता चलता है कि वह तो शादीशुदा है. यह बात भी वह स्वयं बताता है अपनी बुरी शादी, खराब पत्नी की कहानियों के साथ. इन सब से वह नजात चाहता है और आप उस के जीवन में बहार के एक ताजा झांके के रूप में आए हो, जिसे वह किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता. बस, उसे कुछ समय चाहिए.
न्यूयौर्क अस्पताल की मनोचिकित्सक, डा. गेल साल्त्ज का मत है कि मर्दों के लिए अफेयर चलाने के कारण हैं – पत्नी के अलावा अन्य महिला से सैक्स, ज्यादा सैक्स, अलग तरीके से सैक्स, पत्नी से दूर भागने के लिए, अपनी जवानी वापस जगाने के लिए या फिर गलत शादी से बाहर निकलने हेतु. वहीं, औरतें भावनात्मक जुड़ाव, देखभाल व सुरक्षा की भावना तथा संपर्क तलाशती हैं. मनोवैज्ञानिक अर्चना त्यागी कहती हैं कि किसी भी भटकन के पीछे कुछ मुख्य कारण होते हैं. मसलन, या तो वह आदतन है या भावनात्मक रूप से कोई एक या दोनों, एकदूसरे की ओर आकर्षित हुए हैं-ऐसा आकर्षण लंबे समय तक रहता है, कभीकभी ताउम्र. ऐसा आकर्षण समय बीतने के बाद अपनेआप फीका पड़ जाएगा जिस से या तो दोनों अलग रास्तों पर चले जाएंगे या फिर कोई एक पीडि़त अवसाद में घिर जाएगा.
विवाहित प्रेमी क्यों नहीं?
यदि विवाहित प्रेमी वाकई प्यार करता है और इस रिश्ते को आगे बढ़ाना चाहता है तो उसे किसी बहाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी किंतु जो विवाहित प्रेमी कोई न कोई बहाना बना कर बात टालता रहता हो, ऐसे आदमी से अफेयर चलाने में नुकसान है.उस की चिकनीचुपड़ी बातों में आ कर यह न सोचें कि आप उस का भला कर रही हैं, बल्कि अपना नुकसान कर रही हैं.
साथ का वादा : प्रख्यात मनोवैज्ञानिक और लौस एंजिलिस की यूनिवर्सिटी औफ कैलिफोर्निया के प्रोफैसर डा. मार्क गूलस्टन कहते हैं कि आप उस का कितना खयाल रखती हैं या आप उस की पत्नी से कितनी अच्छी हैं, ये सभी बातें आप की अच्छाई दर्शाती हैं. इन बातों से यह निष्कर्ष न निकालें कि वह आप के प्रति कितना प्रतिबद्ध है. केवल बातों से कुछ नहीं होता. यदि वह सच में आप को चाहता है तो वह अपनी पत्नी को छोड़ कर आप के साथ कानूनन विवाह करेगा.
छिपाना कठिन और दुखद भी : यह दुख वही समझ सकता है जिसे प्यारभरे रिश्ते में होते हुए भी अपनी खुशी, अपना साथ सब की आंखों से छिपाना पड़ता है. न खुल कर घूम सकते हैं, न एकदूसरे के साथ की फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट कर सकते हैं. इस का सीधा असर आप के आत्मसम्मान पर पड़ता है.
उस के अक्स का आईना : जिस रिश्ते को वह पसंद नहीं करता उसे खत्म करने के बजाय, वह आप के साथ अफेयर चला रहा है. इस से पता चलता है कि भविष्य में जबजब उस पर कोई मुसीबत आ पड़ेगी तो वह उस से मुकाबला करने के बजाय आंख चुराएगा.
उस के दोनों हाथों में लड्डू : समाज में घूमते समय उस की एक पत्नी है, और रहीसही कसर पूरी करने के लिए आप. हो गए न उस के दोनों हाथों में लड्डू, जबकि आप के पास कुछ भी नहीं.
बेवफा से प्यार : आज नहीं तो कल आप के अपने जेहन में यह बात आएगी कि जो अपनी धर्मपत्नी का सगा नहीं हो सका वह आप का कितना साथ निभाएगा? जो इंसान अपनी पत्नी से झूठ बोल कर आप से रिश्ता कायम किए हुए है उस पर विश्वास डोलना स्वाभाविक है.
आप भी बराबर की दोषी : मानें या न मानें पर उस के इस झूठ में, इस फरेब में आप भी बराबर की जिम्मेदार हैं. उस की पत्नी या बच्चे उस की गृहस्थी टूटने का दोषी आप को अधिक मानेंगे. और यह भी हो सकता है कि कभी पकड़े जाने पर वे सारा दोष आप के माथे पर मढ़ दें.
समय नहीं ठहरता : उसे यह तौरतरीका जंचता है तो जाहिर है उसे कोई जल्दी नहीं होगी. ऐसा न हो कि जब तक आप यह बात समझें कि इस रिश्ते का कोई भविष्य नहीं, तब तक आप के जीवन के अनमोल वर्ष आप के हाथ से फिसल जाएं.
परिवार का रोल
ऐसी बातें एक लड़की न तो पिता से बांट सकती है और न ही भाई से. मां उम्र में बड़ी और विचारों में पिछली पीढ़ी की होती है. बहन ब्याह कर दूजे घर की हो जाती है. इसलिए भाभी ऐसे मामलों में सही अर्थ में सहायक हो सकती हैं. देहरादून के एक विश्वविद्यालय में कार्यरत दिशा, वहीं के एक अध्यापक, जोकि एक बेटे का पिता था, से संबंध बना बैठी. दोनों की कुछ गलतियों के कारण यह बात सारे कैंपस में फैल गई. दिशा को संभाला उस की भाभी ने, उन्होंने हर कदम पर उस की सहायता की. यहां तक कि भावावेश में हुई गलती के परिणामवश जब दिशा गर्भवती हो गई तो गुपचुप तरीके से भाभी ने साथ जा कर उस का गर्भपात करवाया. ऐसी स्थिति में दिशा ने उस अध्यापक का रवैया भी देखपरख लिया. उसे अपनी गलती का एहसास हुआ. भाभी ने घर में किसी को भी इस बारे में हवा नहीं लगने दी. विश्वविद्यालय में दिशा की सहेलियों से मिल कर भाभी ने उन्हें भी दिशा का साथ देने की प्रार्थना की. भाभी की सूझबूझ ने दिशा को गलत राह पर भटकने से बचा लिया और उसे अवसाद का शिकार भी नहीं होने दिया.
लेकिन हर परिवार में ऐसी भाभी हो जो समय पर हाथ थाम आगे बढ़ चले, यह जरूरी नहीं. भाभियों के भी कई प्रकार होते हैं. इंसानों की अलगअलग फितरत की तरह भाभियां भी भिन्नभिन्न तरीके से ऐसी स्थिति में प्रतिक्रिया कर सकती हैं.
भाभी नंबर 1 : दिशा की भाभी की तरह, यह वह भाभी है जो आवश्यकता पड़ने पर साथ निभाएगी, राज को राज रखेगी, यहां तक कि अपने पति को भी नहीं बताएगी. ऐसी भाभी अपनी ननद को अपनी बहन की तरह मान कर, उस की इज्जत और खुशी, दोनों बचाएगी.
भाभी नंबर 2 : बड़ा इतराती थी न आप मम्मीजी, कि आप की बेटी कितनी सुशील है, संस्कारी है, कमाती है…हुंह, देख ले इस की करतूत. नाक कटवा के रख दी सारे समाज में. अब मैं क्या मुंह ले कर जाऊंगी बाहर – अपने मायके, अपनी सहेलियों में. अब तो इस की सूरत देखना भी मुश्किल हो रहा है मेरे लिए, एक रूप ऐसा भी हो सकता है भाभी का.
भाभी नंबर 3 : जो गलती हुई सो हुई, अब एक परिवार की तरह बंधे रहते हुए आगे की सुध लो – एक विचार यह भी हो सकता है. हो सकता है कि दोनों सच्चा प्यार करते हों और उम्रभर साथ रहना चाहते हों. अपने पति को बात की गहराई समझाते हुए, बढ़ती उम्र में कुंआरी ननद की मनोस्थिति, उस की इच्छा जानना और फिर उस इच्छा में उस का साथ देना.
भाभी मां समान
भाभी को ‘मां समान’ कहा जाता है – मां जैसी समझदारी और मां के आंचल सी ओट. पर मां जैसी जरूरत से ज्यादा भावनात्मकता नहीं. भावनात्मक संबल दिखाते हुए एक भाभी पूरे परिवार को संभाल सकती है. आखिर वह परिवार की बहू है जिसे परिवार को पिछली पीढ़ी से विरासत में ले कर स्वयं संभालना है और अगली पीढ़ी को सौंपना है. बस, समझदारी चाहिए तो इतनी कि सब से पहले वह यह निश्चित करे कि ननद के इस रिश्ते में कितनी सचाई है तथा दोनों पक्षों की इच्छा क्या है. वयस्कों को पूर्ण आजादी है अपनी मरजी करने की लेकिन किसी के साथ कोई धोखा नहीं होना चाहिए वरना स्थिति दुखद बन जाती है.
अफेयर के दौरान यह मानना कि इस के परिणाम देखे जाएंगे, एक लापरवाह सोच है. ऐसा नहीं हो सकता कि अफेयर और अपनी जिंदगी को 2 अलगअलग पालों में रखा जा सके. यदि दिल टूटेगा तो दुनिया भी टूटेगी, ढहेगी, खालीपन में भर जाएगी. इसीलिए स्पष्टता आवश्यक है. कहीं ऊहापोह में ही जिंदगी का महत्त्वपूर्ण समय न निकल जाए. क्योंकि नतीजों से तो हर हाल में स्वयं को ही निबटना होगा.
‘‘मां, यह मेरा फैसला है और मैं इसे हरगिज नहीं बदलूंगा,’’ निखिल बोला.
अब तो निखिल की मां आशी को रोज ताने मारतीं. निखिल का भी जीना हराम कर दिया था. निखिल ने मां को समझाने की बहुत कोशिश की कि वह आशी को ताने न दें. वह गर्भवती है, इस बात का ध्यान रखें.
आशी तो अपने मातापिता के घर भी नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि वे भी तो यही चाहते थे कि बस आशी को एक बेटा हो जाए.
निखिल मां को समझाता, ‘‘मां, ये सब समाज के लोगों के बनाए नियम हैं कि बेटा वंश बढ़ाता है, बेटियां नहीं. इन के चलते ही लोग बेटियों की कोख में ही हत्या कर देते हैं. मां यह घोर अपराध है… तुम्हारी और दीदी की बातों में आ कर मैं यह अपराध करने जा रहा था, किंतु अब ऐसा नहीं होगा.’’
निखिल की बातें सुन कर एक बार को तो उस की मां को झटका सा लगा, पर पोते की चाह मन से निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी.
अगले दिन जब निखिल दफ्तर गया तो उस की मां आशी को कोसने लगीं, ‘‘मेरा बेटा कल तक मेरी सारी बातें मानता था… अब तुम ने न जाने क्या पट्टी पढ़ा दी कि मेरी सुनता ही नहीं.’’
अब घर में ये कलह बढ़ती ही जा रही थी. आज आशी और निखिल दोनों ही मां से परेशान हो कर मेरे घर आए. मैं ने जब उन की सारी बातें सुन लीं तो कहा, ‘‘एक समस्या सुलझती नहीं की दूसरी आ जाती है. पर समाधान तो हर समस्या का होता है.’’
अब मां का क्या करें? रोज घर में क्लेश होगा तो आशी के होने वाले बच्चे पर भी तो उस का बुरा प्रभाव पड़ेगा,’’ निखिल बोला.
मैं ने उन के जाने के बाद अपनी मां से आशी व निखिल की मजबूरी बताते हुए कहा, ‘‘मां, क्या आप आशी की डिलिवरी नहीं करवा सकतीं? बच्चा होने तक आशी तुम्हारे पास रह ले तो ठीक रहेगा.’’
मां कहने लगीं, ‘‘बेटी, इस से तो नेक कोई काम हो ही नहीं सकता. यह तो सब से बड़ा मानवता का काम है. मेरे लिए तो जैसे तुम वैसे ही आशी, पर क्या उस के पति मानेंगे?’’
‘‘पूछती हूं मां,’’ कह मैं ने फोन काट दिया.
अब मैं ने निखिल के सामने सारी स्थिति रख दी कि वह आशी को मेरी मां के घर छोड़ दे.
मेरी बात सुन कर निखिल को हिचकिचाहट हुई.
तब मैं ने कहा, ‘‘निखिल आप भी तो मेरे पति जब यहां नहीं होते हैं तो हर संभव मदद करते हैं. क्या मुझे मेरा फर्ज निभाने का मौका नहीं देंगे?’’
मेरी बात सुन कर निखिल मुसकरा दिया, बोला, ‘‘जैसा आप ठीक समझें.’’
‘‘और आशी जब तुम स्वस्थ हो जाओ तो तुम भी मेरी कोई मदद कर देना,’’ मैं ने कहा. यदि हम एकदूसरे के सुखदुख में काम न आएं तो सहेली का रिश्ता कैसा?
मेरी बात सुन आशी ने भी मुसकरा कर हामी भर दी. फिर क्या था. निखिल आशी की जरूरत का सारा सामान पैक कर आशी को मेरी मां के पास छोड़ आ गया.
वक्त बीता. 9 माह पूरे हुए. आशी ने एक सुंदर बेटी को जन्म दिया, जिस की शक्ल हूबहू आशी की सास व पति से मिलती थी.
उस के पति निखिल ने जब अपनी बेटी को देखा तो फूला न समाया. वह आशी को अपने घर चलने को कहने लगा, लेकिन मेरी मां ने कहा कि बेटी थोड़ी बड़ी हो जाए तब ले जाना ताकि आशी स्वयं भी अपने स्वास्थ्य का ध्यान रख सके.
इधर आशी की मां निखिल से रोज पूछतीं, ‘‘निखिल बेटा, आशी को क्या हुआ बेटा या बेटी?’’
‘‘मां, बेटी हुई है पर जाने दो मां तुम्हें तो पोता चाहिए था न.’’
मां जब पूछतीं कि किस जैसी है बेटी तेरे जैसी या आशी जैसी. तो वह कहता कि मां क्या फर्क पड़ता है, है तो लड़की ही न.
अब आशी की सास से रहा नहीं जा
रहा था. अत: एक दिन बोलीं, ‘‘आशी को कब लाएगा?’’
‘‘मां अभी बच्ची छोटी है. थोड़ी बड़ी हो जाने दो फिर लाऊंगा. यहां 3 बच्चों को अकेली कैसे पालेगी?’’
यह सुन आशी की सास कहने लगीं, ‘‘और कितना सताएगा निखिल… क्या तेरी बच्ची पर हमारा कोई हक नहीं? माना कि मैं पोता चाहती थी पर यह बच्ची भी तो हमारी ही है. हम इसे फेंक तो न देंगे? अब तू मुझे आशी और मेरी पोती से कब मिलवाएगा यह बता?’’
निखिल ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘अगले संडे को मां.’’
अगले रविवार ही निखिल अपनी मां को मेरी मां के घर ले गया. निखिल की मां आशी की बच्ची को देखने को बहुत उत्सुक थीं. उसे देखते ही लगीं शक्ल मिलाने. बोलीं, ‘‘अरे, इस की नाक तो बिलकुल आशी जैसी है और चेहरा निखिल तुम्हारे जैसा… रंग तो देखो कितना निखरा हुआ है,’’ वे अपनी पोती की नाजुक उंगलियों को छू कर देख रही थीं और उस के चेहरे को निहारे जा रही थीं.
तभी आशी ने कहा, ‘‘मां, अभी तो यह सोई है, जागेगी तब देखिएगा आंखें बिलकुल आप के जैसी हैं नीलीनीली… आप की पोती बिलकुल आप पर गई है मां.’’
यह सुन आशी की सास खुश हो उठीं और फिर मेरी मां को धन्यवाद देते हुए बोलीं, ‘‘आप ने बहुत नेक काम किया है बहनजी, जो आशी की इतनी संभाल की… मैं किन शब्दों में आप का शुक्रिया अदा करूं… अब आप इजाजत दें तो मैं आशी को अपने साथ ले जाऊं.’’
‘‘आप ही की बेटी है बेशक ले जाएं… बस इस का सामान समेट देती हूं.’’
‘‘अरे, आप परेशान न हों. सामान तो निखिल समेट लेगा और अगले रविवार को वह आशी को ले जाएगा. अभी जल्दबाजी न करें. तब तक मैं आशी के स्वागत की तैयारियां भी कर लेती हूं.’’
अगले रविवार को निखिल आशी व उस की बेटी को ले कर अपने घर आ गया. उस की मां ने घर को ऐसे सजाया था मानो दीवाली हो. आशी का कमरा खूब सारे खिलौनों से सजा था. आशी की सास उस की बेटी के लिए ढेर सारे कपड़े लाई थीं.
जब आशी घर पहुंची तो निखिल की मां दरवाजे पर खड़ी थीं. उन्होंने झट से अपनी पोती को गोद में ले कर कहा, ‘‘आशी, मुझे माफ कर दो. मैं अज्ञान थी या यों कहो कि पोते की चाह में अंधी हो गई थी और सोचनेसमझने की क्षमता खत्म हो गई थी. लेकिन बहू तुम बहुत समझदार हो. तुम ने मेरी आंखें खोल दीं… मुझे व हमारे पूरे घर को एक घोर अपराध करने से बचा लिया. अब सारा घर खुशियों से भर गया है. फिर वे अपनी बेटी व अन्य रिश्तेदारों को समझाने लगीं कि कन्या भू्रण हत्या अपराध है… उन्हें भी बेटेबेटी में फर्क नहीं करना चाहिए. बेटियां भी वंश बढ़ा सकती हैं, जमीनजायदाद संभाल सकती हैं. जरूरत है तो सिर्फ हमें अपना नजरिया बदलने की.’’
सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में काफी ज्यादा हिट ड्रामा देखने को मिल रहा है, इस सीरियल में प्रणाली राठौर और हर्षद चोपड़ा की एक्टिंग दर्शकों का दिल जीत लिया है, दोनों सीरियल में अक्षरा औऱ अभिमन्यु के किरदार में नजर आ रहे हैं.
बीते एपिसोड ममें आपने देखा था कि अक्षरा औऱ अभिमन्यु एक शादी समारोह में मिलते हैं और दोनों अंजान कि तरह रहते हैं तो वहीं दूसरी तरफ अभिनव सबका ध्यान भटकाने में लगा हुआ है,आगे दिखाया जाएगा कि अक्षरा को पैनिक अटैक की बीमारी है और इसका इलाज अभिमन्यु के पास होता है.
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अपकमिंग एपिसोड में दिखाया जाएगा कि अक्षरा को पैनिक अटैक आता है और वह अक्षरा को गाना गाने के लिए कहता है लेकिन वह नहीं मानती है और वह पानी लेने के लिए जाती है, तब तक वहां पर अबीर पहुंच जाता है और वह अपनी मां को एक धुन सुनाता है, जिससे अक्षरा कि हालत सुधरती है, यह देख अभिमन्यु भी थोड़ा शांत हो जाता है.
इस सीरियल में अभिनव अपने दिल की बात काफी समय से अक्षरा को बताने कि कोशिश करता है, और आने वाले एपिसोड में वह सफल हो जाएगा, इस कहानी में आगे देखने को मिलेगा कि शादी समारोह में सभी अक्षरा औऱ अभिनव से उसकी लव स्टोरी के बारे में पूछेंगे.