पुरुष यानी एक बलिष्ठ, मजबूत, आक्रामक, दबंग, गुस्सैल प्रकृति का व्यक्ति, जिसे देखते ही कमजोर सिहर जाए. भारतीय मानक पर पुरुष की परिभाषा सदियों से यही रही है. ऐसे व्यक्ति को पुरुष के तौर पर देखा जाता रहा जो घर में अपनी औरत को काबू में रखे. बच्चे उस की आज्ञा की अवहेलना करने की हिम्मत न कर पाएं. जिस की राय परिवार में सर्वोपरि हो. किसी में उस की बात काटने की हिम्मत न हो और वह सब पर हावी रहे.

एक पीढ़ी पहले तक शाम को जब पिताजी के औफिस से लौटने का वक्त होता था तो घर के सारे बच्चे खेलकूद छोड़ कर, खिलौने छिपा कर, साफसुथरे बन कर पढ़ाई की टेबल पर आ बैठते थे. किताबकौपी सामने खुल जाती. हिलहिल कर आवाज के साथ पहाड़े रटे जाते थे ताकि घर की चौखट पर पहुंचते ही पिताजी के कान में पड़ जाए. ऐसी गंभीर मुद्रा बनाई जाती कि जैसे सारे दिन से बस पढ़ ही रहे हों. पिताजी घर में प्रवेश करते, एक नजर पढ़ाई में जुटे बच्चों पर डालते, अहंकार से सीना चौड़ा हो जाता, मूंछों पर ताव बढ़ जाता और बच्चों के दिल को तसल्ली हो जाती कि अब पिताजी का मूड ठीक रहेगा. बच्चों को ही नहीं, बल्कि बच्चों की मां को भी राहत मिलती. वह पेशानी पर छलक आए पसीने को पोंछ जल्दीजल्दी चायनाश्ते के इंतजाम में जुटती कि कहीं उस में देर हो गई तो बनाबनाया माहौल गालीगलौच की भेंट चढ़ जाएगा.

घर का स्वामी जो पैसा कमा कर लाता है और जो घर को चलाता है उस को ले कर सब के अंदर एक डर सा बना रहता. पितारूपी इंसान कहीं नाराज न हो जाए, इस डर से कोई खुल कर हंसखेल नहीं सकता था. अपने मन की बात नहीं कह सकता था, कोई इच्छा प्रकट नहीं कर सकता था, घर के किसी मामले में अपनी राय नहीं रख सकता था. मां भी किसी चीज की जरूरत होने पर दबीसहमी जबान में पिताजी को बताती थी. अधिकतर इच्छाएं तो उस के होंठों पर आने से पहले ही दम तोड़ देती थीं. पिताजी की हिटलरशाही के आगे पूरा घर सहमा रहता था. जो पिताजी ने कह दिया, वह बस पत्थर की लकीर हो गई. पिताजी ने कह दिया कि लड़के को डाक्टर बनाना है तो फिर भले लड़के का पूरा इंट्रैस्ट संगीत में क्यों न हो, उसे डाक्टरी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी में पूरी जान लगानी पड़ती थी.

पिताजी ने कह दिया कि शर्माजी के बेटे से रज्जो की शादी तय कर दी है तो भले रज्जो अपने पड़ोसी आमिर के प्रेम में पूरी की पूरी डूब चुकी हो, उसे उस प्रेमसागर से निकल कर शर्माजी की बहू बनना ही होता था. मगर क्या आप ने गौर किया है कि बीते 2 दशकों में बहुत बड़ा परिवर्तन हमारे घरसमाज में आ चुका है. ‘पापा आजकल आप पढ़ाई को ले कर कुछ पूछते ही नहीं हो,’ ‘हां, क्योंकि अब तुम बदल गई हो, खुद से पढ़ने लगी हो, दूसरों को कौंसैप्ट सम झाने लगी हो, अब तुम्हारा पापा न तुम्हारा पार्टनर बन गया है.’ विज्ञापन की इन लाइनों में आप को ‘पुरुष की परिभाषा’ में आ चुका परिवर्तन साफ दिखाई देगा. आर्मी में सेवारत अधिकारी मां वीडियो कौल में चिंतित दिखती है क्योंकि उस के बेटे को सर्दीखांसी है. घर में नन्हे बेटे के साथ मौजूद उस का पति कैसे सिचुएशन को हैंडल कर पाएगा? मगर पति नन्हे बेटे के सीने पर विक्स की मालिश कर उस को आराम से सुला देता है और वीडियो कौल कर अधिकारी पत्नी को दिखाता है कि बेटा कैसे आराम की नींद सो रहा है.

देख कर पत्नी चैन की सांस लेती है. इस विज्ञापन में भी पुरुष की बदलती भूमिका साफ है. आज ऐसे कितने ही विज्ञापन हमारे चारों तरफ हैं जिन में पुरुष कपड़े धोते, घर साफ करते, पत्नी को कौफी बना कर सर्व करते नजर आ रहे हैं. क्या ऐसे विज्ञापन 2 दशकों पहले कहीं दिखते थे? तो क्या भारतीय पुरुष बदल रहा है? क्या पुरुषों के पुरुषार्थ में कमी आ रही है? क्या अपने पूर्वजों के मुकाबले उस में पौरुष हार्मोन का स्तर घटने लगा है? क्या वह स्त्रीयोचित गुणों को धारण कर रहा है? क्या उस के अंदर वात्सल्य का दरिया बह निकला है? क्या उस के दिल में ममता हिलोरें ले रही है? आइए इन सवालों के जवाब तलाशते हैं. सचिन की पत्नी नेहा का 2019 में देहांत हो गया. उन के पास 10 साल का बेटा है. घर में बूढ़े मातापिता हैं. पहले सचिन घर के कामों में रुचि नहीं रखते थे.

वे सुबह 9 बजे औफिस निकल जाते और शाम 6 बजे घर लौट कर बढि़या चायनाश्ता कर के टीवी इत्यादि देखने या महल्ले के दोस्तों के साथ गपशप में तल्लीन रहते थे. उन का एक काम था, पैसा कमा कर बीवी के हाथ में रखना. बाकी किसी बात से कोई मतलब न था. बेटे ने भी कभी उन से बहुत लाड़प्यार नहीं पाया था. वह पूरे वक्त मां से ही लिपटा रहता या फिर दादादादी उस से लाड़ लड़ाते और उस की ख्वाहिशें पूरी किया करते थे. लेकिन नेहा के अचानक चले जाने से बेटे की और मांबाप की पूरी जिम्मेदारी सचिन पर आ गई. मां हार्टपेशेंट थी. नेहा ही उन की दवादारु का खयाल रखती थी.

हर महीने चैकअप के लिए ले कर जाती थी. बेटे के स्कूल की पढ़ाई, पेरैंटटीचर मीटिंग, ट्यूशन, उस के सामान की खरीदारी सब नेहा अकेले करती थी. अब ये सारी जिम्मेदारियां सचिन पर पड़ीं तो उन में बड़ा भावनात्मक बदलाव आया. उन का व्यवहार भी पूरी तरह बदल गया. सुबह जल्दी उठ कर सब के लिए नाश्ता बनाना, बेटे का लंचबौक्स तैयार करना, बेटे को नहलानाधुलाना, स्कूल के लिए तैयार करना, स्कूल छोड़ने जाना, दोपहर में लेने जाना, शाम को होमवर्क करवाना, उस की एकएक जरूरत के लिए बारबार बाजार दौड़े जाना, बीमार पड़ने पर डाक्टर के, क्लीनिक के चक्कर काटना आदि, यानी सचिन पापा के साथसाथ मां का रोल भी निभाने लगे. बीते 2 सालों में सचिन अपने बेटे के बहुत नजदीक आ गए हैं. इन 2 सालों में शायद ही कभी उन्होंने उस को किसी बात के लिए डांटा हो. कोरोनाकाल में वर्क फ्रौम होम करते हुए सचिन पूरी तरह एक ममतामयी मां के किरदार में ढल चुके हैं.

2 वर्ष पहले और 2 वर्ष बाद वाले सचिन में जमीनआसमान का फर्क आ चुका है. बेटे के साथ वे वात्सल्य की दरिया में गोते लगाते हैं. मातापिता की देखभाल करते हैं. उन की दवाइयां व दवा का समय सचिन को याद रहता है. मगर इस का मतलब यह कतई नहीं है कि उन के पुरुषार्थ में कोई कमी आ गई है. घर के बाहर और औफिस के कर्मचारियों के साथ उन का व्यवहार पहले की तरह ही है. बल्कि, कुछ ज्यादा सम झदारीभरा हो गया है. वे अब दूसरों की परेशानियों को आसानी से सम झने लगे हैं. दरअसल, बढ़ी हुई जिम्मेदारियों ने उन की भावनाओं को जगाने का काम किया है. जिन भावनाओं को पुरुष अकसर नजरअंदाज कर देते हैं, उन के करीब नहीं जाना चाहते, सचिन के मन की वही कोमल भावनाएं अब जागृत अवस्था में हैं. गौरव के पिता पुलिस अधिकारी थे. आईजी की पोस्ट पर बड़ा रोब था.

दबंग दिखते थे, बाहर भी और घर में भी. पत्नी गृहिणी थी और पति से दबती थी. कभी हिम्मत नहीं हुई कि उन की किसी आज्ञा के आगे चूं भी कर दे. गौरव और सौरभ दोनों भाइयों पर बचपन से ही दबाव था कि उन्हें सरकारी अधिकारी ही बनना है. 12वीं के बाद से ही दोनों ने सिविल सर्विसेज की परीक्षा की तैयारी में रातदिन एक कर दिए. दोनों ने परीक्षा निकाल भी ली और आज अच्छी पोस्ट पर तैनात हैं. दोनों के दोदो बच्चे हैं. दोनों अलगअलग शहरों में कार्यरत हैं और दोनों की पत्नियां भी नौकरीपेशा हैं. दोनों अच्छा कमा रहे हैं. रोब वाली नौकरी है. मगर दोनों का व्यक्तित्व अपने पिता के व्यक्तित्व से बहुत अलग है. औफिस में काम के लिए अपने मातहतों पर पिले रहने वाले सौरभ से जब इस विषय पर बात करते हुए मैं ने पूछा कि क्या घर में भी ऐसे ही रोब में रहते हैं, तो मेरे इस सवाल पर दिल्ली में असिस्टैंट कमिश्नर, सेल्स टैक्स के पद पर तैनात सौरभ हंस कर बोले, ‘‘अरे नहीं, औफिस और घर में बहुत अंतर है. वहां मैं अलग किरदार में होता हूं. खाना बनाता हूं. किचन के सिंक में रखे गंदे बरतन मांज देता हूं.

कभी उन की (पत्नी की) अलमारी खोल कर सारे कपड़े ठीक से लगा देता हूं. छुट्टी वाले दिन बच्चों की बुकशेल्फ भी साफ कर देता हूं. किताबों पर नए कवर चढ़ा कर सजा देता हूं. मु झे उन के लिए ये सब करना अच्छा लगता है. अगर आप सचमुच अपने बीवीबच्चों से प्यार करते हैं तो इन कामों के जरिए अपने प्यार को बेहतर तरीके से जता सकते हैं.’’ सौरभ कहते हैं, ‘‘रूपाली (उन की पत्नी) एनजीओ चलाती है. काम के सिलसिले में कई बार बाहर भी जाना पड़ता है. कई बार वह घर देर से आती है. तो हम में से जो भी पहले घर पहुंचता है, रात का खाना बनाने की जिम्मेदारी वह लेता है. बच्चों का होमवर्क भी वही करवाता है. हमारे बच्चों से अगर आप पूछें कि मम्मीपापा में कौन ज्यादा अच्छा है, तो उन का जवाब होगा कि दोनों. लेकिन अगर आप मु झ से मेरे बचपन में यह सवाल पूछतीं तो मैं कहता कि मम्मी ज्यादा अच्छी हैं, बल्कि कहता कि, बस मम्मी ही अच्छी हैं, क्योंकि वही हमारे पास ज्यादा थीं. ‘‘पापा अनुशासन, भय और सम्मान का मिलाजुला व्यक्तित्व थे जिन से दूरी बना कर रखने में ही भलाई नजर आती थी. मम्मी हमारे सारे काम करती थीं. वही ज्यादा प्यार करती थीं. कई बार हमारे लिए वे पापा से डांट भी खाती थीं.

तो आज अगर बीवियां नौकरी करने के लिए घर से निकली हैं तो उस से पतियों को यह फायदा हुआ है कि उन के बच्चों से उन की निकटता और प्रेम बढ़ा है. वे बापबेटे से ज्यादा एकदूसरे के दोस्त हैं. मु झे पता है मेरे बच्चों को कब क्या चाहिए, मगर मेरे पिता को कभी नहीं पता चलता था कि हमें कब क्या चाहिए. वे, बस, यह जानते थे कि उन को क्या चाहिए. हमारी जरूरतें सिर्फ मां ही सम झती थीं.’’ औरतों की आर्थिक आजादी से पुरुषों की हिटलरशाही में गिरावट आई है. औरतोंबच्चों पर पति का रोब सिर्फ इस वजह से था कि वह कमाता है, उन्हें रोटी देता है.

उस की कमाई से ही घर चलता है. बच्चे पढ़ते हैं. घरभर की दवादारू होती है. बीते दोतीन दशकों में आदमी का सारा रोब और हिटलरशाही तब चली गई जब बढ़ती महंगाई के कारण एक आदमी की तनख्वाह से एक मध्यवर्गीय घर चलना मुश्किल हो गया. तब लड़के अपने लिए नौकरीपेशा दुलहन ढूंढ़ने लगे. अब कहींकहीं तो हालत यह है कि पत्नियां पति से ज्यादा कमा रही हैं, तो कहींकहीं सिर्फ पत्नियां ही कमा रही हैं और पति घर संभाल रहे हैं. ऐसे में वे बच्चों के ज्यादा निकट हैं. बच्चों से उन का भावनात्मक लगाव भी ज्यादा है. वे दिनभर उन के साथ रहते हैं तो उन की जरूरतें भी सम झते हैं. पुरुषों के एकछत्र प्रभाव वाले क्षेत्रों में महिलाओं की धमाकेदार एंट्री से घरसमाज का माहौल बदला है.

इस आर्थिक बदलाव को कई पुरुषों ने स्वीकार कर के स्वयं को बदल लिया है और जो नहीं बदल रहे हैं वे बच्चों की निगाह में विलेन बनते जा रहे हैं. एक ऐसा पिता जिसे बच्चों से प्रेम नहीं है और जो बहुत खड़ूस है, उन के मित्रों के पिताओं से अलग. पुरुषों के भावनात्मक बदलाव की वजह एक यह भी है कि उन में अपने पूर्वजों के मुकाबले टैस्टोस्टेरोन (पुरुष और पौरुष हार्मोन) का स्तर घटा है और संतानप्रेम के लिए जिम्मेदार औक्सिटोसिन हार्मोन (वात्सल्य हार्मोन) का स्तर बढ़ा है. विकासक्रम के चलते हालांकि अब भी संतान अपने दबंग पिता को पसंद करती है जिस का समाज में रुतबा, सम्मान और शान हो लेकिन उन्हें घर के हिटलर अब पसंद नहीं हैं. वे पिता में अब मां के कुछ गुण देखना चाहते हैं.

एक प्रेम करने वाला मजबूत पिता. किसी चाइल्ड क्लीनिक पर नजर दौड़ाइए, आप पाएंगे कि अधिकतर बच्चे पिता की गोद में चढ़े रहते हैं या पिता की उंगली पकड़ कर उन से सटे रहते हैं. पहले के पिता अपने बच्चों से एक दूरी बना कर रखते थे, उन्हें प्रेम से गोद में उठा कर नहीं लाते थे, उन की समस्याओं को सुनाते हुए भावुक नहीं होते थे और न ही उन की समस्याओं को सुनाते हुए रोने लगते थे लेकिन अब यह बदल गया है. वर्तमान पीढ़ी के मर्दों में हिटलरशाही काफी हद तक खत्म हो चुकी है. शाम को पतिपत्नी में से जो घर पहले पहुंचे, घर टाइडी करना, चायनाश्ता बनाना उस की जिम्मेदारी हो गई है. कोरोनाकाल में वर्क फ्रौम होम करते हुए मर्दों का ममतामयी रूप भी जाग पड़ा है. घर में सारा दिन बच्चों के करीब रहते उन के अंदर स्नेह और केयर कुछ ज्यादा नजर आने लगा है. अब पिता पहले से ज्यादा अपना प्रेम प्रदर्शित करने लगे हैं.

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