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बहन की घरेलू दिक्कतें मन बेचैन करती हैं, क्या करूं?

सवाल

मेरी बहन की शादी हुए 18 साल हो गए हैं. उस के पति का व्यवहार उस के प्रति शुरू से रूखा रहा है. ऊपर से दिखाता है कि वह उस की परवा करता है लेकिन असलियत में उसे मूर्ख बनाता है. सारा रुपयापैसा अपने कंट्रोल में रखता है. उसे बस इतना खर्चा देता है जिस से घर का राशनपानी आ सके जबकि अच्छाखासा कमाता है.

भाई होने के नाते मैं बहन का पूरा साथ देता हूं. उस की पूरी जिम्मेदारी तक उठाने को तैयार हूं अगर वह अपने पति से तलाक लेती है. लेकिन पता नहीं क्यों वह बारबार पति के झूठे प्यार के दिखावे में आ जाती है और तलाक लेने का विचार छोड़ देती है.

बहन के बच्चे भी उस से बदसुलूकी करने लगे हैं. उस की इज्जत करनी छोड़ दी है. इस बार वह अपने पति और बच्चों के व्यवहार से परेशान हो हमारे यहां आई तो मैं ने और मम्मी ने बहुत कहा कि अब तो उस से तलाक ले ले. मैं ने वकीलों तक से बात कर ली लेकिन इस बार फिर अपने पति की मीठीमीठी बातों में आ कर वापस उस के साथ लौट गई. पति को तो एक नौकरानी चाहिए और जब वह नहीं होती तो उसे और बच्चों को मुश्किल हो जाती है.

मैंने बहन से इस बार कह दिया था कि अगर अब की बार वह वापस गई तो मैं आगे से उस के लिए कुछ नहीं करूंगा. मैं थक गया हूं. अब जब से वह वापस गई हैन उस ने मुझे फोन किया न मैंने उसे. मेरे भी बच्चे हैं. मां है. नौकरी करूं या इन सब झमेलों में पड़ा रहूं. आप ही बताए क्या करूं?

जवाब

आप क्या कर सकते हैं. जितना कर सकते हैंआप ने वह सब किया. फैसला तो आप की बहन को लेना है. जब तक वह अपने लिए स्टैंड नहीं लेगीकुछ नहीं हो सकता. वह अपने पति के व्यवहार को अच्छी तरह समझाती है लेकिन सालों से उस के गलत बिहेवियर को सहती आ रही है. कुछ हिम्मत उठाने की सोचती भी है तो पति उस वक्त प्यार की दो बातें बोल कर उस के कदम वापस खींच लेता है. आप की बहन ने शादी के 18 साल बिता दिए हैं.

ऐसा लगता है उसे ऐसा जीवन जीने की आदत हो गई है या फिर सोचती है कि इतना जीवन तो निकल गयाआगे भी निकल जाएगा.

देखिएअब आप कुछ मत कीजिए. बहन को खुद अपनेआप फैसला लेने दीजिए. आप परेशान होना छोड़ दें. अपने घरपरिवार पर ध्यान दें.

धर्म : अमोघ दास के बहाने इस्कौन की पब्लिसिटी

धार्मिक फिल्म ‘आदिपुरुष’ से जुड़े विवाद का फसाना, बस, इतना है कि इसे कुछ धार्मिक लोगों ने बनाया. कुछ धार्मिक लोगों ने ही सड़कों पर आ कर इस पर बवाल मचाया. फिर कुछ धार्मिक लोग विवाद ?को अदालत तक ले गए. इस के बाद मामला आयागया हो गया. लेकिन इस ड्रामे से एक लचर फिल्म कुछ दिनों के लिए सही हिट हो गई.

इस खेल में निर्माता सहित फिल्म से जुड़े सभी लोगों ने तबीयत से चांदी काटी और बेवकूफ बनी हमेशा की तरह वह आम जनता जिस की धार्मिक भावनाएं बातबात पर भड़क जाया करती हैं. कुछ और हुआ, न हुआ हो लेकिन इस मामले से यह जरूर साबित हो गया कि धर्म से जुड़े लोग ही धर्म का ज्यादा मजाक बनाते हैं और उस से पैसा भी बनाते हैं. दुनिया के इस सब से बड़े धंधे में हाथ हर कोई धो रहा है.

‘आदिपुरुष’ के जिस डायलौग पर बवाल मचा था वह मनोज मुंतशिर का नहीं था बल्कि इस्कौन के युवा संत अमोघ लीला दास का था जिसे उन्होंने कभी अपने प्रवचनों में कहा था. यह डायलौग कुछ यों था, ‘घी किस का रावण का, कपड़ा किस का रावण का, आग किस की रावण की, जली किस की रावण की’.

भक्तों को यह अमर्यादित लगा या लगाया गया तो उन्होंने जगहजगह हल्ला मचाया लेकिन अमोघ लीला का नाम कहीं बीच में नहीं आया और सारी शोहरत व क्रैडिट इसे न लिखने वाले मनोज बटोर ले गए जिन के बारे में अंदाजा भर लगाया जा सकता है कि वे ‘आदिपुरुष’ की यूनिट के साथ किसी अज्ञात स्थान पर मीटिंग करते किसी नए धार्मिक विवाद से पैसा कमाने की स्क्रिप्ट पर काम कर रहे होंगे.

मनोज मुंतशिर की उपलब्धि यही रही कि उन की कीमत बढ़ गई और उन्हें कई और लोग जानने लगे, ठीक वैसे ही जैसे ताजा बेवजह के विवाद के बाद अमोघ लीला दास को जानने लगे हैं. अमोघ को जानने वाले लोग एक अलग वर्ग के हैं जो अभिजात्य हैं और धनाढ्य भी. इस तबके के लोगों के लिए धर्म के माने भी अलग लगभग विलासी हैं. इन का भगवान महंगे और भव्य मंदिरों में रहता है जिन में टैंट तले भंडारा नहीं होता बल्कि अक्षयपात्र होता है (अक्षयपात्र, पौराणिक साहित्य में वर्णित एक बरतन जिस में कितना भी निकाले जाओ, खाना कभी खत्म नहीं होता).

मंगल आरती के बाद होने वाले इस्कौन मंदिरों के अक्षयपात्रों में तर देसी घी और ड्राई फ्रूट से बने सैकड़ों व्यंजन होते हैं. इस वर्ग के लोग अगर खुले मैदानों के भंडारों में घटिया तेल से बनी पूरी, सब्जी, खीर और रायता खा लें तो उन्हें एमीबियोसिस या गैस्ट्रोएन्ट्राइटिस होना तय है.

अमोघ लीला इस्कौन से ताल्लुक रखते हैं जिसे इंग्लिश में इंटरनैशनल सोसाइटी फौर कृष्णा  कौंशेसियस्नैस और हिंदी में अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ कहते हैं. नाम से ही स्पष्ट है कि यह संस्था कृष्ण को आराध्य मानते उन के भक्ति सिद्धांतों और दर्शन का प्रचारप्रसार करती है. यही उस का कारोबार, मकसद और मिशन है.

दुनियाभर में इस के 400 से भी ज्यादा मंदिर हैं जिन में से एकाध ही सौ करोड़ रुपए से कम का होगा. साल 1964 में किन्ही आचार्य भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने न्यूयौर्क में इस की स्थापना की थी जिस का मुख्यालय अब पश्चिम बंगाल के मायापुर में है. यह नगर कोलकाता से 123 किलोमीटर दूर है. धार्मिक जगत में इसे वैष्णव धार्मिक परंपरा का वैदिक नगर कहा जाता है. अलावा इस के, यह कृष्ण परंपरा के एक और नामी संत चैतन्य महाप्रभु का जन्मस्थान भी है. गौडीय या गोदिया वैष्णव भक्तों के गढ़ इस मायानगरी में अरबोंखरबों के छोटे कम बड़े मंदिर ज्यादा हैं.

‘मैं तो अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग आते गए और कारवां बढ़ता गया’ की तर्ज पर देखते ही देखते महज 59 साल में इस्कौन दुनिया का सब से बड़ा धार्मिक संप्रदाय बन गया, जिस के सदस्य विदेशों में गेरुए कपड़े पहने ‘हरे रामा हरे कृष्णा…’ की धुन पर उन्मादियों की तरह नाचतेगाते नजर आते हैं.

इन गोरी चमड़ी वालों को देख हमारे देश के मिडिल क्लासी हिंदू, जिन्हें इस्कौन की ई भी नहीं मालूम, बड़े फख्र से कहते नजर आते हैं कि देखी सनातन की महिमा, अंगरेज भी बाइबिल छोड़ हाथ में श्रीमद्भागवदगीता लिए झूम रहे हैं. अब ये ईसामसीह को नहीं, बल्कि कृष्ण को मानते और पूजते हैं. हालांकि यह नाचना, गाना और झूमना ठीक वैसा ही है जैसा देवानंद कृत फिल्म ‘हरे कृष्णा हरे रामा’ में जीनत अमान और उस की मंडली में था, बस, कमी हाथ में चिलम भर की रहती है.

कौन हैं अमोघ लीला दास

अमोघ लीला दास, जिन्हें कोईकोई इस्कौनी प्रभु भी कहने लगे हैं, उन लाखों युवाओं में से एक हैं जो इस्कौन से कम उम्र यानी नौजवानी में ही जुड़ गए थे. लखनऊ के खासे खातेपीते सिख परिवार में जन्मे अमोघ का सांसारिक नाम आशीष अरोड़ा है. कम उम्र से ही उन का रु?ान धर्म और आध्यात्म की तरफ हो गया.

साल 2004 में सौफ्टवेयर इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद उन्होंने अमेरिका की एक कंपनी में नौकरी कर ली लेकिन 2010 में छोड़ भी दी. वजह थी इस्कौन, जिस से जुड़ कर उन्होंने संन्यास और ब्रह्मचर्य धारण कर लिया. यह कोई नई या हैरानी की बात नहीं थी क्योंकि लाखों पलायनवादी युवा जब संघर्ष क्षमता खोने लगते हैं तो वे वही करते हैं जो आशीष अरोड़ा नाम के युवक ने किया.

महत्त्वाकांक्षी अमोघ लीला दास उर्फ आशीष अरोड़ा को जल्द ही दिल्ली के द्वारका स्थित इस्कौन मंदिर का उपाध्यक्ष बना दिया गया. इस्कौन के युवा संन्यासियों की जिंदगी आसान नहीं होती. उन्हें कई बंदिशों में रहना पड़ता है. मसलन, वे तामसी करार दे दिया गया खाना नहीं खा सकते. यानी मांस, मांसाहार और शराब तो दूर की बात है प्याज, लहसुन और चायकौफी भी नहीं पी सकते. अनैतिक आचरण की भी उन के लिए मनाही है और अनिवार्य यह है कि वे रोज कम से कम एक घंटा हिंदू शास्त्रों का पठन करें जिस से उन के दिलोदिमाग में छाया आध्यात्म का सुरूर बना रहे. इस से भी ज्यादा जरूरी और अहम काम यह है कि संन्यासी इस्कौन का साहित्य बेचें जिस से दूसरों के दिलोदिमाग में यह सुरूर ठूंसा जा सके.

इस्कौन मंदिरों में ही रहने वाले इन संन्यासियों की दिनचर्या जैन मुनियों सरीखी होती है जिन का खानापीना और पहनना तक बड़े गुरुओं के हुक्म के मुताबिक निर्धारित होता है, जिस के चलते इन की व्यक्तिगत इच्छाओं के कोई माने नहीं रह जाते. ये दिनरात कृष्ण भक्ति के प्रचार के अलावा भगवान और मोक्ष के बारे में ही सोचते रहते हैं. इस्कौन से जुड़े संपन्न परिवारों के युवा हर कहीं गीता बेचते नजर आ जाते हैं. ये कभी गरीब बस्तियों में नहीं जाते. यह बेचना भिक्षावृति का परिष्कृत रूप है क्योंकि कथित रूप से इन की रोजीरोटी यही होती है.

भोपाल के पटेलनगर स्थित एक युवा इस्कौनी संन्यासी की मानें तो जिस दिन गीता नहीं बिकती उस दिन उसे भूखा भी सोना पड़ता है. खिचड़ी भी नसीब नहीं होती. अमोघ ने ऐसा क्या कह दिया जिस पर ‘आदिपुरुष’ सरीखा विवाद हुआ. इस से पहले एक नजर उन युवाओं के पेरैंट्स की परेशानी पर डालना जरूरी है जिन की संतानें इस्कौन के झांसे में आ कर जिंदगी के सुख गिरवी रख चुकी हैं.

निशाने पर ये युवा 

यहां बदला हुआ नाम देने का भी कोई मतलब नहीं. भोपाल के पौश इलाके शाहपुरा के एक संपन्न प्रतिष्ठित दंपती पिछले एक साल से ढंग से खा, पी और सो नहीं पा रहे हैं क्योंकि उन का इकलौता बेटा इस्कौन का संन्यासी बनने की जिद लिए हुए है. वह हर कभी इस्कौन मंदिर चला जाता है और घर आ कर बहकीबहकी सी बातें करने लगता है.

20 वर्षीय यह युवा इंजीनियरिंग का छात्र है और पढ़ाईलिखाई में काफी होशियार है. कालेज कैंपस में ही वह इस्कौनियों के संपर्क में आया और उन से इतना प्रभावित हुआ कि मोक्ष, पुनर्जन्म, कर्म, संन्यास और मुक्तिभक्ति वगैरह की तथाकथित भारीभारी बातें करने लगा. दिनरात गीता और दूसरे धर्मग्रंथों में डूबे इस युवा में अपनी उम्र के लड़कों जैसा कोई शौक अब नहीं रह गया है.

पेरैंट्स को असल झटका तब लगा जब उन्हें यह पता चला कि साहबजादे एक परिचित को बिट्टन मार्केट स्थित पैट्रोल पंप पर इस्कौनियों के साथ गीता बेचते दिखे थे और आजकल वैशालीनगर स्थित एक होस्टल भी जाते हैं, जहां इस्कौन से जुड़े कोई 25 छात्र रहते हैं. इन पेरैंट्स की मानसिक अवस्था शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती जिन्हें कभी धर्मकर्म से परहेज नहीं रहा लेकिन अब घर का चिराग ही जरूरत से ज्यादा करने लगा है तो उन के हाथपांव फूले हुए हैं. हालत जांघ के पास हुई दादखाज जैसी हो गई है जिसे सार्वजनिक तौर पर खुजाया भी नहीं जा सकता.

लड़का काउंसलिंग के लिए किसी डाक्टर के पास जाने को तैयार नहीं. उलटे वह कहता यह है कि साईकेट्रिस्ट की जरूरत मुझे नहीं, आप लोगों को है. मैं तो प्रभु मार्ग पर चल पड़ा हूं. आप लोगों को ज्यादा परेशानी हो तो कल ही इस्कौन मंदिर में जा कर रहने लगता हूं. इस से मेरा आप का सांसारिक रिश्ता खत्म नहीं हो जाएगा.

विवेकानंद पर बेवजह का विवाद

यही कभी आशीष अरोरा ने किया था जो इन दिनों अपने एक विवादित बयान के कारण सुर्खियों में है. नई उम्र के लड़कों को तुलसी माला और भगवद्गीता के ज्ञान से परिचित कराने वाले अमोघ दास ने एक प्रवचन में जो कहा उस का सार इतना भर है कि स्वामी विवेकानंद और उन के गुरु रामकृष्ण परमहंस मछली खाते थे. उन में करुणा कैसे हो सकती है? विवेकानंद तो सिगरेट भी पीते थे. अपनी बात को जितना हो सकता था उस ने विस्तार दिया लेकिन खुद भी शायद ही समझ पाया होगा कि उस की मंशा आखिर थी क्या.

भारतीय दर्शन में कईयों की करुणा का हवाला अकसर दिया जाता है. इन में बुद्ध और महावीर की करुणा प्रमुख हैं. बाकी पौराणिक नायकों में तो करुणा पाई ही नहीं जाती थी. वे तो जिंदगीभर युद्ध और हिंसा में लगे रहे. राम और कृष्ण इस के अपवाद नहीं. अगर अमोघ गुरुनानक देव की करुणा की बात कर रहा था जिस की संभावना उस के सिख होने के चलते ज्यादा है तो भी वह विवेकानंद पर फिट नहीं बैठती.

विवेकानंद के मछली खाने न खाने से देश की मौजूदा समस्याओं का कोई ताल्लुक नहीं है, न तो इस से महंगाई काबू होने वाली, न भ्रष्टाचार कम होने वाला और न ही बेरोजगारी थमने वाली है. साधुसंत किसी भी धर्म या संप्रदाय के हों, अकसर ऐसी ही बेतुकी बातें करते रहते हैं. इन बातों के जरिए भी वे अपने भक्तों को दिशानिर्देश देते रहते हैं कि उन्हें क्या खानापीना और पहनना है.

बात चूंकि विवेकानंद की थी, इसलिए भक्तों को बुरी लगी. सो, उन्होंने अमोघ दास को ट्रोल करना शुरू कर दिया. धनाढ्य बुद्धिजीवी वर्ग भी गंभीर हो उठा मानो कोई प्रलय आ गई हो और उस में अपनी भूमिका तय कर पाने में वे खुद को असमर्थ पा रहे हों. इन में से कुछेक को ही एहसास होगा कि दरअसल 1893 के शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में विवेकानंद ने सनातन या हिंदू धर्म के जो बीज बोए थे उन की फसल आज तक इस्कौन काट रहा है.

4 जुलाई से उठा यह विवाद कोई एक हफ्ते बाद थमा जब इस्कौन ने अमोघ लीला दास को एक महीने के लिए बैन कर दिया. उन्हें मायापुर मुख्यालय से लिखित हुक्म दिया गया कि आप एक महीने सार्वजनिक जीवन से दूर रहते हुए मथुरा के गोवर्धन पर्वत में विचरण करेंगे. अब तक अपने भक्तग्राहकों में इस विवेकानंद मछली कांड का जम कर पोस्टमार्टम हो चुका था और ‘आदिपुरुष’ की तरह इस्कौन का नाम भी नए लोगों की जबां पर चढ़ चुका था कि इस से जुड़ कर सशुल्क मोक्ष हासिल किया जा सकता है.

यानी किसी मिलीभगत की साजिश से इनकार नहीं किया जा सकता. मोक्ष की ग्राहकी और धर्म का धंधा बढ़ाने का यह टोटका काफी पुराना है और हर वर्ग में लोकप्रिय है. गरीब ?ाग्गीबस्तियों में मोक्ष नहीं बिकता. वहां नीबू, हड्डी और सिंदूर के टोटके चलते हैं. मिडिल क्लास हमेशा की तरह नीम करोली बाबा के अलावा बागेश्वर बाबा, प्रदीप मिश्रा और देवकीनंदन ठाकुर जैसे ब्रैंडेड बाबाओं की ग्रिप में है जो इन दिनों दोनों हाथों से दक्षिणा बटोरते हिंदू राष्ट्र के निर्माण की मुहिम में लगे हैं. इस्कौन भी राम और कृष्ण के नाम पर बनी हजारों संस्थाओं में से एक है और उस की मंजिल भी हिंदू राष्ट्र ही है. बस, राह और तरीका अलग है.

धन ही धर्म है

अगर आप की जेब में 35,500 रुपए हों तो आप इस्कौन से जुड़ सकते हैं. यह पैसे वालों का शोरूम है. यहां जब कोई आशीष अरोड़ा अमोघ लीला दास बनने की ख्वाहिश लिए आता है तो उस का बैंक बैलेंस भी इस्कौन का हो जाता है. उस के शरीर पर एक कपड़ा डाल उसे उकसाया जाता है कि और युवाओं को संन्यास के लिए प्रेरित करो जो सांसारिक भोगविलास में उल?ो कीड़ेमकोड़ों की तरह बिलबिला रहे हैं. प्रभु तुम्हारे जरिए ही उन का उद्धार करना चाह रहे हैं. तुम्हारे पूर्वजन्म के पुण्य कर्म अब फलीभूत हो रहे हैं और यह जन्म तुम्हारा अंतिम जन्म साबित हो सकता है. इस के बाद तुम्हें जन्म नहीं लेना पड़ेगा. तुम ईश्वर में विलीन हो जाओगे.

इस ब्रेनवाश के शिकार युवा संन्यासी सेल्समैनों की तरह गीता सीने से लगाए कालेज कैंपसों, मौल्स और चौराहों पर निकल पड़ते हैं. वे पूरे देश में दिखते हैं, मनाली के माल रोड पर भी मिल जाते हैं, बेंगलुरु के फीनिक्स मौल में भी उन्हें देखा जा सकता है.

रात को अपने मंदिर में आ कर खिचड़ी खाने के बाद ये एकदूसरे को बड़े उत्साह से बताते हैं कि उन्होंने आज कितनी किताबें बेचीं और कितनों को संन्यास व मोक्ष के लिए प्रेरित किया. मथुरा में अमोघ लीला दास गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाने की कोशिश या प्रैक्टिस नहीं कर रहे होंगे बल्कि यह चिंतनमनन कर रहे होंगे कि और कैसेकैसे पैसे वाले शिक्षित अपरिपक्व बुद्धि वाले संभ्रांत परिवारों के युवाओं को इस्कौन से जोड़ा जा सकता है जिस से वे भव सागर पार हो जाएं.

न्यू इं.डि.या. की शुरुआत: भाजपा में असमंजस

पहले पटना, फिर बेंगलुरु में भाजपा के खिलाफ 26 राजनीतिक दलों के जुटान के बाद विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने की कवायद पटना से शुरू हुई. तीसरे चरण की बैठक मुंबई में होगी.

इस गठबंधन को इं.डि.या. नाम देना राष्ट्रवाद पर भाजपा के एकाधिकार को चुनौती देने की सोचीसम?ा रणनीति है. इस में राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा का मूल संदेश भी शामिल है, जो देश के सभी समुदायों, जातियों और अलगअलग संस्कृतियों के बीच भाईचारा मजबूत कर के भारत की धर्मनिरपेक्षता व अखंडता को बचाए रखने की कोशिशों पर आधारित है.

बीते कुछ सालों में भाजपा ‘नेशन फर्स्ट’ का तमगा पहन कर खुद को सब से बड़ा ‘राष्ट्रवादी’ घोषित करने में लगी है जबकि उस का ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ देश के संवैधानिक सिद्धांतों के बिलकुल विपरीत है और कोरा सनातनी धर्मी वाद है. 1947 में जब देश आजाद हुआ तब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस का राष्ट्रवाद से दूरदूर तक कोई लेनादेना नहीं था. देश की आजादी की लड़ाई में आरएसएस की कोई भूमिका कभी नहीं रही, मगर इतने सालों बाद जब उस की बनाई राजनीतिक पार्टी को सत्ता की चाशनी चाटने का अवसर मिला तो अब उन का अपनी तरह का ‘राष्ट्रवाद’ फूटफूट कर बह रहा है.

पिछले 2 दशकों से आरएसएस और भाजपा की बहुसंख्यकवादी नीतियां ‘राष्ट्रवाद राष्ट्रवाद’ का नारा लगा कर हिंदू आबादी को अपनी ओर खींचे रखने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की तकनीक अपनाए हुए है. सनातनी पूजापाठी और अंधविश्वासी हिंदू राष्ट्र बनाने की ऐसी धुन लगी है कि देशभर में हिंसा, आगजनी, नफरती भाषणों का बाजार गरम है. ताजा मामला मणिपुर में औरतों की नंगी परेड का है, जिसे दुनिया ने देखा और शर्म से आंखें भर आईं.

उल्लेखनीय है कि जिस दौरान यह अमानवीय और देश को दुनिया के सामने शर्मसार करने वाली घटना मणिपुर में घटित हुई उस वक्त देश के गृहमंत्री अमित शाह के दौरे मणिपुर में बारबार लग रहे थे.

2 महीने से एक राज्य सुलग रहा है, आदिवासी समाज पर हिंसा हो रही है, हत्याएं की जा रही हैं, महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हो रहे हैं, उन की नंगी परेड कराई जा रही है, उन के वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर पोस्ट किए जा रहे हैं, मगर देश के गृहमंत्री उस को काबू करने में नाकाम हैं.

इस से ज्यादा इस देश के लिए शर्म की बात कोई और हो ही नहीं सकती. प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं, दुनिया अपनी समस्याएं सुल?ाने के लिए आज भारत की ओर देख रही है. लेकिन, क्या वे बताएंगे कि भारत की महिलाएं अपनी इज्जत बचाने के लिए किस की ओर देखें?

2 दशकों से भाजपा देश में हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई, दलित, आदिवासियों के दिलों में एकदूसरे के प्रति नफरत की खाईयां खोदने में लगी हैं और वास्तव में जो दल धर्मनिरपेक्ष व्यवहार करते हैं उन्हें राष्ट्रवाद के फ्रेमवर्क से ही बाहर खदेड़ दिया गया है. जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो’ यात्रा शुरू की और देशभर में घूम कर हर धर्म, जाति, संप्रदाय को साथ आने का आह्वान किया, प्रेम से जीने का मंत्र दिया और भाजपा के भेदभावपूर्ण बहुसंख्यवाद और हिंसक राष्ट्रवाद का चेहरा उजागर किया तब जिस तरह इस यात्रा से लोगों का जुड़ाव हुआ, वह यह सम?ाने के लिए काफी है कि इस देश में कोई भी आम आदमी हिंसा नहीं चाहता. वह अपने पड़ोसी के साथ प्रेम और विश्वास से रहना चाहता है. फिर चाहे वह पड़ोसी किसी भी धर्म, जाति, संप्रदाय से ताल्लुक रखता हो.

राहुल गांधी के विचार और भावनाओं, जिन में देश की जनता की भावनाएं भी समाहित हैं उन को मजबूती देने के लिए भाजपाविरोधी विपक्षी गठबंधन ने अपने एलाएंस का नाम ‘इंडिया’ रखा है. इस गठबंधन का पूरा नाम इंडियन नैशनल डैवलपमैंटल इनक्लूसिव अलायंस है.

हालांकि इस नाम को कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि इस सांकेतिक महत्त्व वाले नाम को भाजपा सहजता से नहीं लेगी. मगर इस नाम के साथ गठबंधन के दल देश की जनता को यह संदेश देने में तो कामयाब हो ही गए हैं कि उन की लड़ाई सत्ता हथियाने की नहीं, बल्कि इंडिया को बचाने की है.

‘इंडिया’ से दहला भाजपा का दिल

यह पहली बार नहीं है कि अनेक राजनीतिक दलों ने एक मंच पर आ कर सत्ता में बैठी पार्टी को ललकारा है. आज वह वक्त भी याद करने की जरूरत है जब इस से पहले भी कई बार देश ने विपक्षी एकजुटता देखी और सरकारें बदलती देखीं.

याद करें जब 1977 में पहली बार विपक्षी नेता साथ आए तो सत्ता उलट गई और गठबंधन की सरकार ने सत्ता की बागडोर संभाली. देश में इमरजैंसी के बाद पहली बार 1977 में विपक्षी नेता एकसाथ आए थे. तब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली गैरकांग्रेसी सरकार का गठन हुआ था.

इस के बाद 1989 में जनता पार्टी ने अलगअलग दलों के समर्थन से वीपी सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई थी. फिर एनडीए ने 1996 में भाजपा ने अटल बिहारी बाजपेयी को चेहरा घोषित कर चुनाव लड़ा और भाजपा सब से बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. 2004 के चुनाव में कांग्रेस ने छोटेछोटे दलों के साथ मिल कर बिना प्रधानमंत्री चेहरे के चुनाव लड़ा और जीता था, तब यूपीए में कांग्रेस के नेता के रूप में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे. 2009 में फिर मुकाबला एनडीए बनाम यूपीए में हुआ. यह वह समय था जब राजनीतिक पार्टियां पूरी तरह 2 खेमों, यूपीए और एनडीए में बंट गई थीं. उस चुनाव में भी यूपीए की जीत हुई.

विपक्षी पार्टियों ने मिल कर ‘इंडिया’ नाम से जो गठबंधन बनाया है उस की टैगलाइन है- ‘जीतेगा भारत.’ उधर 38 पार्टियों वाली एनडीए ने दिल्ली में 2024 की रणनीति पर मंथन शुरू कर दिया है. अगला लोकसभा चुनाव एनडीए बनाम इंडिया होगा. एनडीए पर मंथन इसलिए जरूरी हो गया है क्योंकि इस बार 2019 को दोहरा पाना एनडीए के लिए आसान नहीं होगा. भारतीय राजनीति में ऐसा पहली बार होगा जब इतनी सारी पार्टियों से मिल कर बने 2 गठबंधन आपस में भिड़ेंगे.

नरेंद्र मोदी की अगुआई में एनडीए को पिछले 2 लोकसभा चुनावों में भारी जीत मिली. उस सिलसिले को बरकरार रखने और जीत की हैट्रिक बनाने की चुनौती अब मोदी और शाह के सामने है. 2019 में विपक्ष उस तरह से एकजुट नहीं था, जिस की तैयारी इस बार चल रही है. उस के साथ ही जिस तरह से 2019 में भाजपा मजबूत दिख रही थी, वैसी मजबूत स्थिति में वह इस बार नहीं है.

हाल ही में कर्नाटक विधानसभा चुनावों में और पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनावों में करारी शिकस्त पा कर उस के हौसले डगमगाए हुए हैं. इस बार भाजपा की राह उतनी आसान नहीं है जितनी 2014 और 2019 में थी. तब उस के पास बहुत बड़ा मुद्दा था राममंदिर का, जिस ने जनता के दिलों को छुआ था. मगर अब वह मनोरथ पूरा हो गया है. राममंदिर बन कर तैयार होने की कगार पर है. लिहाजा, वह मुद्दा अब पुराना हो गया. ध्रुवीकरण की आस और सिटिजंस (एनआरसी) और यूनिफौर्म (सिविल कोड) पर भी भाजपा को मुंह की खानी पड़ रही है.

शाहीन बाग का प्रकरण लोग भूले नहीं हैं. कृषि कानूनों को जबरन लागू करने की जिद, किसानों को डेढ़ साल तक सड़कों पर बैठने के लिए मजबूर करना, उन की हत्याएं करना, ये जुल्मोसितम लोग कैसे भूल जाएंगे.

एनआरसी का हल्ला मचा कर मुसलमानों को भयभीत करने की कोशिश और अब समान अचार संहिता लागू करने का शोर मचा कर पर्सनल लौ से छेड़छाड़ जनता को रास नहीं आया है. न मुसलमानों को, न ईसाईयों को, न सिखों को और न आदिवासी जातियों/ जनजातियों को. यूनिफौर्म सिविल कोड अगर असल में कौंट्रेक्ट एक्ट या ट्रांसफर औफ प्रौपर्टी एक्ट की तरह यूनिफौर्म हुआ तो पंडों को सब से ज्यादा नाराजगी होगी.

यही वजह है कि मोदी सरकार को एनआरसी और यूसीसी दोनों ही मुद्दों पर अपनी खाल में वापस दुबकना पड़ रहा है. मणिपुर को बहुल बनाने की हिंदू की चाह में हत्या, बलात्कार, आगजनी और औरतों को नंगा कर के घुमाने का जो घिनौना खेल खेला गया है उस ने मोदी सरकार को बैकफुट पर ला कर खड़ा कर दिया है. ऐसे में विपक्षी पार्टियों के गठबंधन ‘इंडिया’ से मोदी सरकार सहमी हुई है.

कर्नाटक में पराजय से बौखलाहट

भाजपा के शीर्ष नेता कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए करीब एक साल से वहां हिंदूमुसलिमकरण की कोशिशों में जुटे थे. मुसलिम समुदाय पर वाक्य बाणों के हमले किए गए. हलाला, हिजाब से ले कर अजान तक के मुद्दे उछाले गए. ऐन चुनाव के समय बजरंगबली की भी एंट्री हो गई.

कांग्रेस ने जब बजरंग दल के उत्पात को देख कर उसे बैन करने का वादा किया तो भाजपा ने बजरंग दल को सीधे बजरंग बली से जोड़ दिया और पूरा मुद्दा भगवान के अपमान का बना दिया. कुल जमा यह कि चुनाव से पहले भाजपा ने कर्नाटक में जम कर हिंदुत्व कार्ड खेला लेकिन उस का दांव काम नहीं आया. सनातनी हिंदू धार्मिक ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशें बेकार साबित हुईं और भाजपा कर्नाटक में औंधे मुंह गिरी.

कर्नाटक में भाजपा न तो अपने कोर वोटबैंक लिंगायत समुदाय को अपने साथ जोड़े रख पाई और न ही दलित, आदिवासी, ओबीसी और वोक्कालिंगा समुदाय का ही दिल जीत सकी. भाजपा को अपने कोर वोटबैंक पर जबरदस्त भरोसा था लेकिन कर्नाटक में भाजपा का कोर वोटबैंक (लिंगायत) टूट गया. कित्तूर कर्नाटक (मुंबई-कर्नाटक), जहां लिंगायत अच्छी तादाद में हैं, वहां भी भाजपा को कड़ा ?ाटका मिला और उसे कई सीटें गंवानी पड़ीं. जबकि कांग्रेस मुसलिमों से ले कर दलित और ओबीसी तक को मजबूती से जोड़े रखने के साथसाथ लिंगायत समुदाय के वोटबैंक को भी साधने में सफल रही.

दरअसल भाजपा और आरएसएस देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की एकसूत्री योजना के तहत अपने सनातनी प्रचार को बढ़ा रहे हैं. धार्मिक कर्मकांड, ब्राह्मणों को शीर्ष पद, अंधविश्वास को बढ़ावा, रूढि़वादिता आदि  से भारतीय समाज को अब छुटकारा मिल जाना चाहिए. भाजपा उसे इन्हीं जंजीरों में जकड़ कर रखना चाहती है. मगर इस का जवाब कर्नाटक में 18 फीसदी लिंगायत समुदाय ने उसे बखूबी दे दिया है. लिंगायत समुदाय, जो मंदिर नहीं जाता, पूजा नहीं करता, जिस का मानना है कि मानव शरीर ही मंदिर है, ने भाजपा को चुनाव में पटखनी दे कर साफ कर दिया कि राज्य में भ्रष्टाचार का खात्मा, युवाओं को रोजगार और गरीबी कम करने वाले मुद्दे पर ही वे किसी पार्टी को वोट करेंगे. धर्म, जाति, संप्रदाय जैसे लोगों के बीच खाई पैदा करने वाले मुद्दों पर कोई उन का वोट नहीं पा सकता.

भ्रष्टाचार – भाजपा के कोढ़ में खाज

भ्रष्टाचार के मामले में कर्नाटक में भाजपा नेताओं का गिरफ्तार होना सब से ज्यादा शर्मनाक रहा, जिस के चलते कर्नाटक में चुनाव के वक्त भाजपा को खूब खरीखोटी सुननी पड़ी.

दरअसल बेलगावी में एक ठेकेदार ने भाजपा के मंत्री एस ईश्वरप्पा पर यह आरोप लगा कर आत्महत्या कर ली थी कि मंत्री द्वारा उस से 40 फीसदी कमीशन मांगा जा रहा है. इस के बाद कौन्ट्रैक्टर एसोसिएशन ने राज्य सरकार के मंत्रियों के खिलाफ मोरचा खोल दिया. नतीजा यह हुआ कि ईश्वरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा और सरकार की छीछालेदर हुई.

चुनावप्रचार के वक्त राहुल गांधी ने भ्रष्ट राजनेताओं के मुद्दे को खूब भुनाया. राहुल ने कहा, ‘राज्य में घोटाले हर जगह हैं. भाजपा विधायक का बेटा

8 करोड़ रुपए के साथ पकड़ा जाता है तो वहीं दूसरा भाजपा नेता कहता है कि 2,500 करोड़ रुपए में तो यहां मुख्यमंत्री की कुरसी खरीदी जा सकती है. कर्नाटक में जो भ्रष्टाचार हुआ, वह 6 साल के बच्चे तक को पता है. यहां पिछले 3 साल से भाजपा की सरकार है तो पीएम मोदी को भी कर्नाटक में भ्रष्टाचार के बारे में पता होगा.’

कर्नाटक में कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ जो ‘40 फीसदी पे-सीएम करप्शन’ का अभियान चलाया था वह धीरेधीरे बड़ा मुद्दा बन गया. यहां तक कि करप्शन के मुद्दे पर ही एस ईश्वरप्पा को मंत्रीपद से इस्तीफा देना पड़ा और भाजपा के एक अन्य विधायक को जेल जाना पड़ा. यह मुद्दा भाजपा के लिए पूरे चुनावभर गले की फांस बना रहा और पार्टी इस की काट नहीं खोज सकी.

महंगाई और बेरोजगारी ने भाजपा को आईना दिखाया

कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले जो भी सर्वेक्षण टीवी चैनलों ने किए उस में बेरोजगारी का मुद्दा सब से ऊपर था. वहां युवा बेरोजगारी से परेशान था, मगर भाजपा ने कभी इस मुद्दे को छुआ ही नहीं. जबकि कांग्रेस ने अपने चुनावप्रचार के दौरान बेरोजगारी और महंगाई को ही अपने अहम मुद्दों में शामिल किया.

कांग्रेस ने चुनावप्रचार के दौरान जनमानस से जुड़े 5 वादे किए. उस ने पुरानी पैंशन बहाल करने, 200 यूनिट तक बिजली फ्री देने, 10 किलो अनाज मुफ्त देने, बेरोजगारी भत्ता देने और परिवार चलाने वाली महिला मुखिया को आर्थिक मदद की बात कही. जनमानस से जुड़े इन मुद्दों की वजह से ही कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस के सिर जीत का सेहरा बांधा. जैसा अरविंद केजरीवाल के साथ दिल्ली और पंजाब में हुआ.

पश्चिम बंगाल में दीदी ने नहीं गलने दी भाजपा की दाल

पिछले दिनों पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनाव में दीदी की पार्टी ने प्रचंड जीत हासिल की है. भाजपा हलकान है कि साम, दाम, दंड, भेद के सारे हथकंडे अपना कर भी वह दीदी के सामने एक बार फिर बौनी साबित हुई. पंचायत चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की जीत कोई पहला मौका नहीं है.

2011 में बंगाल में शुरू हुआ ममता बनर्जी का विजयरथ लगातार पूरी लरजगरज के साथ आगे बढ़ रहा है. चाहे लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव या अब पंचायत चुनाव, ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने सभी में बाजी मारी है. बंगाल पंचायत चुनाव में भाजपा ही नहीं, बल्कि किसी भी विपक्षी पार्टी को एकतिहाई सीट भी हासिल नहीं हुई. ऐसा मालूम पड़ता है जैसे बंगाल में दीदी अजेय हैं. तृणमूल कांग्रेस की जीत से भाजपा हलकान है. दीदी ने उस के अरमानों पर फिर बिजली गिरा दी है.

तृणमूल कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में जहां 48 प्रतिशत वोट शेयर हासिल हुआ था, वह अब की पंचायत चुनाव में बढ़ कर 51.14 प्रतिशत हो गया. यानी बूथ स्तर पर जनजन से जुड़ कर तृणमूल कांग्रेस वहां बहुत मजबूत स्थिति में है. पंचायत चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के वोट शेयरों में भारी गिरावट के साथ ही वाम और कांग्रेस के अप्रत्याशित उभार ने 2024 के लोकसभा चुनाव में राज्य में भाजपा के 35 सीट हासिल करने के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं.

इस चुनाव में भाजपा को 22.88 प्रतिशत वोट शेयर मिला है, जो 2021 विधानसभा चुनाव में मिले 38 प्रतिशत वोट शेयर से कम है. वहीं वाम-कांग्रेस-इंडियन सैक्युलर फ्रंट गठबंधन की बात करें तो पिछले चुनाव में जहां उस का 10 प्रतिशत वोट शेयर था, वह इस बार बढ़ कर 20.80 प्रतिशत हो गया है, यानी दोगुना, यह 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बनेगा.

गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव में कई जगह हिंसक वारदातें और हत्याएं हुईं. किस के इशारे पर हुईं, किस ने करवाईं इस की जांचें चल रही हैं. हालांकि भाजपा चुनाव के दौरान हिंसा और खूनखराबे का पूरा ठीकरा तृणमूल कांग्रेस के सिर पर फोड़ते हुए इसे अपने वोट शेयर में गिरावट की वजह बताने में लगी है मगर पार्टी के ही कुछ जिम्मेदार स्थानीय नेता जानते हैं कि भाजपा के कृत्य और उस की नीतियां पश्चिम बंगाल की जनता को रास नहीं आ रही हैं.

भाजपा वहां जनता के मन को नहीं भांप पा रही है. वहीं खुद प्रदेश भाजपा में आंतरिक संगठनात्मक चुनौतियां भी हैं, जो राज्य में भाजपा के पैर नहीं जमने दे रहीं, फिर ममता बनर्जी का रसूख और बंगाल के लोगों के दिलों में उन की पैठ 2024 में भाजपा को बंगाल में मजबूती दे दे, ऐसा मुश्किल ही लगता है. बावजूद इस के, देश के गृहमंत्री अमित शाह बारबार राज्य से 35 लोकसभा सीटें जीतने की ताल ठोंक रहे हैं.

राज्य भाजपा की अंदरूनी कलह का खुलासा तो खुद भाजपा के राष्ट्रीय सचिव अनुपम हाजरा ने किया है. हाजरा ने कहा, ‘आप यह कह कर खारिज नहीं कर सकते कि संगठन में सबकुछ ठीक है. वोट शेयर में गिरावट के लिए केवल हिंसा को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. संगठनात्मक खामियों को पहचानने और उन्हें दूर करने की जरूरत है. राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से 35 सीटें जीतने का लक्ष्य संगठन की मौजूदा स्थिति को देखते हुए कठिन ही लगता है.’

हालांकि हाजरा यह भी कहते हैं कि, ‘राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है और जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावप्रचार के लिए मैदान में उतरते हैं तो विपक्ष में उन के तेवरों से मेल खाता कोई दूरदूर तक नजर नहीं आता है.’ मगर ऐसा कहते वक्त अपनी बात के खोखलेपन का एहसास भी उन्हें बखूबी है.

पश्चिम बंगाल में बूथ स्तर पर भाजपा की पकड़ कितनी मजबूत है, यह पंचायत चुनाव के परिणाम से ही स्पष्ट हो जाता है. उत्तरी बंगाल और आदिवासी बहुल जंगलमहल जिलों के अपने पूर्व गढ़ों में भी भाजपा का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा है.

दरअसल भाजपा उग्र स्वभाव की पार्टी है तोड़नेफोड़ने में उस का विश्वास है. जबकि बंगाली मानुष ‘रसोगुल्ला’ सा मीठा और कोमल होता है. वह मिलजुल कर प्रेम और शांति से रहने में विश्वास करता है. भाजपा की छवि से वह कतई मेल नहीं बिठा पा रहा है. भाजपा बंगाल में लोगों को भड़का कर, ध्रुवीकरण कर के अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहती है.

ध्रुवीकरण उन जगहों पर तो आसानी से हो सकता है जहां 2 धर्मों के खानपान, रहनसहन, पहनावे, विचार में फर्क हो, जैसे उत्तर भारत में हिंदू और मुसलमानों में फर्क साफ नजर आता है, मगर बंगाल में क्या हिंदू, क्या मुसलमान सभी तो बांग्ला बोलते हैं. माछभात दोनों का खास भोजन है. पहनावा भी लगभग समान है. तो जब भोजन व बोली एक तो भाजपा बांटने की लाख कोशिश कर ले, बंगाली मानुष बंट नहीं सकता.

दीदी का जलवा

राजनीतिक हलकों में काफी समय तक ममता बनर्जी को बखेड़ा खड़ा करने वाली अपरिपक्व नेता के तौर पर देखा जाता रहा. उन के बारे में ऐसी राय बनी रही कि उन्हें बड़े परिपक्व नेताओं के बीच नहीं बुलाया जाना चाहिए. पता नहीं कब, कहां, क्या बवाल मचा दें. मगर आज दीदी की चर्चा राष्ट्रस्तर पर है. उन के बगैर विपक्षी एकता या विपक्षी गठबंधन की बात करना ही बेमानी है.

2024 लोकसभा चुनाव के मद्देनजर 18 जुलाई को बेंगलुरु में विपक्षी जमावड़े में ममता बनर्जी और सोनिया गांधी की उपस्थिति ने ‘विपक्षी एकता मंच’ में जो जान फूंकी, उस के बाद से ही भाजपा रक्षात्मक मोड में आ गई है. दीदी ने तो यह कह कर चुटकी ले ली कि, ‘भाजपा एक गिलास नहीं पलट सकती, मेरी सरकार क्या पलटेगी?’

बेंगलुरु में विपक्षी एकता मंच पर ममता बनर्जी और सोनिया गांधी को इतना ऐक्टिव देख कर एनडीए ने पुनर्निर्माण की कवायद शुरू कर दी है. उस के सहयोगियों की तलाश तेज हो गई है. छोटेछोटे क्षेत्रीय दलों को जोड़ने की कोशिश में तमाम शीर्ष नेता शीर्षासन कर रहे हैं. दरअसल कर्नाटक में अपनी दुर्गति और उस के बाद बंगाल पंचायत चुनाव में अपनी छीछालेदर होने के बाद भाजपा बुरी तरह घबरा उठी है.

मां, माटी, मानुष से जुड़ी ममता

ममता ने 2011 में बंगाल के लोगों का दिल एक नारे से जीत लिया था- मां, माटी और मानुष. इस नारे के 3 शब्दों- मां यानी मातृशक्ति, माटी यानी बंगाल की भूमि और मानुष यानी बंगाल के लोग, इन 3 को ममता ने अपने दिल के करीब बता कर बंगाल का दिल जीत लिया था. ममता बनर्जी हमेशा बंगाल के लोगों के हितों पर बात करती हैं. इसी का परिणाम है कि लोग उन्हें हर चुनाव में विजयी बनाते हैं.

ममता हमेशा जमीन से जुड़ी नेता रही हैं. अपने लोगों के लिए वे एक खुली किताब की तरह हैं. सफेद सूती साड़ी, पैर में रबड़ की चप्पल, कंधे पर पर्स की जगह सूती कपड़े का ?ाला टांगे ममता को अपनी मां के घर से पैदल निकलते जिस ने भी देखा वह उसी पल उन के व्यक्तित्व का कायल हो गया.

ममता हमेशा बंगाल के लोगों के बीच रहीं. राजनीति में आने के बाद भी वे बेहद साधारण से उस घर में रहती रहीं जिस की छत टिन की है और जिस के बगल से एक खुली नहर बहती है, जहां मच्छरों का बसेरा है. उन का सब से ज्यादा जुड़ाव अपनी मां गायत्री देवी से था जो अब इस दुनिया में नहीं हैं.

ममता जब भी अपने कालीघाट स्थित उस घर से काम के लिए निकलती थीं तो उन की मां उन्हें बाहर तक छोड़ने के लिए आया करतीं थीं. ममता अपनी गरदन घुमातीं और तब तक अपनी मां को देखा करतीं जब तक कि वे उन की आंखों से ओ?ाल नहीं हो जातीं. मां के घर के भीतर चले जाने के बाद ही वे कार में बैठती थीं. बंगाल के लोगों के लिए यह नजारा आम था. मां के प्रति ममता का वह प्रेम जनता के दिलों में उन के लिए एक स्थायी जगह बना चुका है.

ममता ने बंगाल की जनता के लिए अपने शासनकाल में अनगिनत कल्याणकारी योजनाएं चलाईं. इस का फायदा आम लोगों तक पहुंचा, जिस के चलते बंगाल के लोगों का भरोसा ममता बनर्जी पर कायम हुआ.

ममता ने अपने राज्य में कभी हिंदूमुसलिम में भेद नहीं किया. बंगाल का मुसलमान ममता पर आंख मूंद कर भरोसा करता है. उसे पता है कि ममता हैं तो वह सुरक्षित है. कोई भी चुनाव हो, ममता के लिए मुसलमानों का एकतरफा वोट पड़ता है. ममता ने समयसमय पर मुसलमानों के हित में कई फैसले लिए हैं.

ममता का जुझारू तेवर

बंगाल के लोगों को ममता बनर्जी का जु?ारू तेवर पसंद आता है. ममता आम लोगों के हितों के लिए जुझारू तरीके से लड़ती हैं. इस के चलते लोग ममता को चाहते हैं और उन्हें ही चुनते हैं.

भाजपा को घेरने और टोकने का कोई मौका ममता छोड़ती नहीं हैं. हाल ही में कोलकाता की एक जनसभा में उन्होंने केंद्र सरकार के रवैए को उजागर करते हुए कहा, ‘सुनने में आ रहा है कि अब हमें साल 2024 तक फंड नहीं मिलेगा. ऐसा हुआ तो जरूरत पड़ने पर मैं आंचल फैला कर बंगाल की माताओं के सामने भीख मांग लूंगी, लेकिन भीख मांगने दिल्ली (केंद्र सरकार के पास) कभी नहीं जाऊंगी.’

यह पहला मौका नहीं था जब ममता ने केंद्र पर बंगाल सरकार को फंड न देने का आरोप लगाया. 29 और 30 मार्च को उन्होंने राज्य की योजनाओं के लिए केंद्र की ओर से फंड न देने का आरोप लगा कर कोलकाता में 2 दिनों तक धरना भी दिया था. तब धरने पर बैठीं ममता ने कहा था कि 100 दिन काम योजना और अन्य योजनाओं के लिए केंद्र सरकार राशि जारी नहीं कर रही है. केंद्रीय बजट में भी हमें मनरेगा और आवास योजना के लिए एक रुपया नहीं दिया गया है.

एक सर्वे रिपोर्ट से उड़ी भाजपा की नींद

‘2024 के चुनाव में भाजपा को हराया जा सकता है’, चुनावों पर करीब से नजर रखने वाली संस्था सीएसडीएस की इस सर्वे रिपोर्ट से भाजपा की नींद उड़ी हुई है. यह रिपोर्ट मार्च में आई थी और तमाम दलों के वोटबैंक आकलन के साथ सीएसडीएस ने 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने का फार्मूला दिया था. सीएसडीएस का दावा है कि अगर इस फार्मूले पर काम किया जाए तो अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को आसानी से सत्ता से बाहर किया जा सकता है.

दरअसल सीएसडीएस ने 2024 चुनावों को ले कर जो सर्वे किया, उस के मुताबिक, अगर भाजपा को छोड़ कर सारा विपक्ष साथ मिल कर चुनाव लड़े तो आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को दोबारा सत्ता में आने से आसानी से रोका जा सकता है. सर्वे करने वाली संस्था का कहना है कि ऐसा होने पर विपक्ष को आसानी से बहुमत मिल जाएगा.

सीएसडीएस के इस दावे के पीछे पिछले चुनावों में तमाम दलों को मिली सीटें और वोट प्रतिशत है. अपनी रिपोर्ट में सीएसडीएस ने दावा किया है कि अगर सभी पार्टियां भाजपा के खिलाफ मिल कर चुनाव लड़ती हैं तो भाजपा 235-240 सीटों पर सिमट सकती है. 2019 में भाजपा को मिली सीटों में सहयोगी दलों का भी बड़ा हाथ था.

आंकड़े बताते हैं कि अगर आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को पिछले चुनाव के मुकाबले एक फीसदी वोट भी कम मिलते हैं तो भाजपा 225-230 सीटों पर सिमट जाएगी, जबकि विपक्ष 310-325 सीटों तक पहुंच जाएगा और अगर भाजपा 2024 के चुनाव में पिछले चुनाव के मुकाबले 2 प्रतिशत वोट कम पाती है तो उस की सीटों की संख्या 210-215 तक आ जाएगी.

इस रिपोर्ट के आने के बाद यह देखना है कि क्या विपक्ष सचमुच में भाजपा की विभाजनकारी राजनीति को रोकने के लिए पूरी मजबूती से साथ एकजुट हो जाएगा या फिर महज मोदी और भाजपा के खिलाफ बातें कर के अपने वोटबैंक को बचाने की कवायद में ही जुटा रहेगा.

Raksha Bandhan : भैया – कीर्ति निशा का अनोखा रिश्ता

कीर्ति ने निशा का चेहरा उतरा हुआ देखा और सम झ गई कि अब फिर निशा कुछ दिनों तक यों ही गुमसुम रहने वाली है. ऐसा अकसर होता है.

कीर्ति और निशा दोनों का मैडिकल कालेज में दाखिला एक ही दिन हुआ था और संयोग से होस्टल में भी दोनों को एक ही कमरा मिला. धीरेधीरे दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई.

कीर्ति बरेली से आई थी और निशा गोरखपुर से. कीर्ति के पिता बैंक में अधिकारी थे और निशा के पिता महाविद्यालय में प्राचार्य.

गंभीर स्वभाव की कीर्ति को निशा का हंसमुख और सब की मदद करने वाला स्वभाव बहुत अच्छा लगा था. लेकिन कीर्ति को निशा की एक ही बात सम झ में नहीं आती थी कि कभीकभी वह एकदम ही उदास हो जाती और 2-3 दिन तक किसी से ज्यादा बात नहीं करती थी.

आज रक्षाबंधन की छुट्टी थी. कुछ लड़कियां घर गई थीं और बाकी होस्टल में ही थीं क्योंकि टर्मिनल परीक्षाएं सिर पर थीं. कीर्ति ने निश्चय किया कि आज वह निशा से जरूर पूछेगी. होस्टल में घर की याद तो सभी को आती है पर इतनी उदासी…

नाश्ता करने के बाद कीर्ति ने निशा से कहा, ‘‘चल यार, बड़ी बोरियत हो रही है घर की याद भी बहुत आ रही है. वहां तो सब त्योहार मना रहे होंगे और यहां हमें पता नहीं कि उन्हें हमारी राखी भी मिली होगी या नहीं.’’

निशा ने भी प्रतिवाद नहीं किया. दोनों औटो से पार्क पहुंचीं. वहां का माहौल बहुत खुशनुमा था. कई परिवार त्योहार मनाने के बाद शायद पिकनिक मनाने वहां पहुंचे थे. दोनों एक कोने में नीम के पेड़ के नीचे पड़ी खाली बैंच पर बैठ गईं. निशा चुपचाप खेलते हुए बच्चों को देख रही थी. कीर्ति ने पूछा, ‘‘निशा, अब हम और तुम अच्छे दोस्त बन गए हैं. मु झे अपनी बहन जैसी ही सम झो. मैं ने कई बार नोट किया कि तुम कभीकभी बहुत ज्यादा उदास हो जाती हो. आखिर बात क्या है?’’

निशा बोली, ‘‘कुछ खास बात नहीं. बस, घर की याद आ रही थी. आज हलके बादलों ने काली घटाओं का रूप ले लिया था और जब भी ऐसा माहौल बनता है तो मु झ पर बहुत उदासी छा जाती है.’’

‘‘इस के पीछे ऐसी क्या बात है?’’ कीर्ति ने पूछा.

‘‘बस, मेरे घर की कहानी बहुत ही अनोखी और उदास है,’’ निशा कहने लगी, ‘‘सुनोगी तुम?’’

कीर्ति बोली, ‘‘तुम सुनाओगी तो जरूरी सुनूंगी.’’

‘‘हम 4 बहनें हैं. हमारा कोई भाई नहीं था. बड़ी दीदी रेखा स्कूल में टीचर हैं. दूसरी सुमेधा, जो एलआईसी में काम कर रही हैं. तीसरी मैं और सब से छोटी बल्ली. मां और पापा को बेटे की बहुत इच्छा थी इसीलिए हम एक के बाद एक 4 बहनें हो गईं. मां व पापा को बेटे की चाहत के अलावा दादी को पोते को खिलाने की इच्छा हरदम सताती रहती थी.

‘‘रक्षाबंधन आने वाला होता. उस के कई दिन पहले से घर में एक अजीब सी उदासी पसर जाती थी. अपने मामा, चाचा और बूआ के बेटों को हम बहनें पहले ही राखियां भेज देती थीं. मां ऐसे में बहुत असहाय हो जातीं, जो हम से देखा नहीं जाता था पर दादी की कुढ़न उन के व्यंग्यबाणों से बाहर निकलती. पापा तो स्कूल से आ कर ट्यूशन के बच्चों से घिरे रहते. पढ़ाईलिखाई के इसी माहौल में हम लोग पढ़ने में अच्छे निकले.

‘‘एक बार राखी के दिन हमेशा की तरह सुबह पापा ने दरवाजा खोला और एकाएक उन के मुंह से चीख निकल गई. मम्मी किचन छोड़ कर बाहर की ओर दौड़ीं और वहां का नजारा देख कर वे भी हैरान रह गईं. दरवाजे के पास एक छोटा सा बच्चा लेटा हुआ हाथपैर मार रहा था.

‘‘‘अरे, यह कहां से आया?’ पापा बोले, ‘शायद कोई रख गया है,’ मम्मी अभी भी हैरान थीं.

‘‘इतनी देर में दादी और हम सब भी वहां पहुंच गए. थोड़ी ही देर में यह बात जंगल में आग की तरह पूरे महल्ले में फैल गई कि गुप्ताजी के दरवाजे पर कोई बच्चा रख गया है. बारिश के बावजूद बहुत से लोग इकट्ठा हो गए.

‘‘‘इसे अनाथाश्रम में दे दो,’ भीड़ से आवाज आई. ‘अरे, थोड़ी देर इंतजार करना चाहिए, शायद कोई इसे लेने आ जाए,’ नीरा आंटी बोलीं.

‘‘किसी ने कहा, ‘पुलिस में रिपोर्ट करानी चाहिए.’

‘‘धीरेधीरे सब लोग जाने लगे. त्योहार भी मनाना था.

‘‘‘वैसे आप की मरजी प्रो. साहब, पर मेरी राय में दोपहर तक इंतजार के बाद आप को इसे बालवाड़ी अनाथ आश्रम को सौंप देना चाहिए,’ कालोनी के सैके्रटरी ने कहा.

‘‘‘तुम चलो भी…उन के यहां का मामला है, वे चाहे जो भी करें,’ सैक्रेटरी की बीवी ने उन्हें कोहनी मारी.

‘‘‘कुछ भी हो मिसेज गुप्ता…रक्षाबंधन के दिन बेटा घर आया है…कुछ भी करने से पहले सोच लेना,’ जातेजाते भीड़ में से कोई बोला.

‘‘इस हैरानीपरेशानी में दोपहर हो गई. खाना भी नहीं बना. बारिश थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. लगता था जैसे किसी मजबूर के आंसू ही आसमान से बरस रहे हों. जाने किस मजबूरी में अपने कलेजे के टुकड़े को उस ने अपने से दूर किया होगा.

‘‘इधर लोग गए और उधर दादी और उन की ममता दोनों ही जैसे सोते से जागीं. उन्होंने उस नन्ही सी जान को गोद में ले कर पुचकारना और खिलाना शुरू कर दिया. उसे गरम पानी से नहलाया और जाने कहां से ढूंढ़ कर उसे हमारे पुराने धुले रखे कपड़े पहनाए. कटोरी में दूध ले कर उसे चम्मच से पिलाने लगीं.

‘‘पापा ने नहाधो कर जब बूआ की राखी हम लोगों से बंधवाई तब दादी बोलीं, ‘अब इस छोटे से भैया राजा को भी तुम लोग राखी बांध दो. रक्षाबंधन के दिन आया है. मैं तो कहती हूं तुम लोग इसे अपने पास ही रख लो.’

‘‘मम्मी को तो जैसे विश्वास ही नहीं हुआ कि कहां छुआछूत को मानने वाली उन की रूढि़वादी सास और कहां न जाने किस जात का बच्चा है फिर भी उसे ऐसे सीने से चिपकाए थीं कि मानो उन का सगा पोता हो. मम्मीपापा पसोपेश में थे पर दादी की इस बात पर कुछ नहीं बोले.

‘‘दोपहर बाद भी लोग आते रहे, जाते रहे और तरहतरह की नसीहतें देते रहे पर दादी इन सब बातों से बेखबर उस की नैपी बदलने और उसे दूध पिलाने की कोशिश में लगी रहीं.

‘‘अगली सुबह सब चिंतित थे कि क्या होगा पर मम्मी के चेहरे पर दृढ़ निश्चय था.

‘‘‘मैं अनाथ आश्रम में जा कर बात करता हूं,’ पापा  के यह कहते ही मम्मी बोल उठीं, ‘नहीं, नन्हा यहीं रहेगा,’ पापा ने भी प्रतिवाद नहीं किया और दादी तो खुश थीं ही.

‘‘बस, उसी दिन से भैया हमारे घर और जिंदगी में आ गया. मैं भैया के प्रति शुरू से ही बहुत तटस्थ थी, जबकि दोनों बड़ी बहनें थोड़ी नाखुश थीं. उन की बात भी कुछ हद तक सही थी. उन का कहना था कि मांपापा के अच्छे व्यवहार और इस घर की अच्छी साख का किसी ने फायदा उठाया है और वह यह भी जानता है कि इस घर को एक बेटे की तीव्र चाह थी.

‘‘खैर, उस गोलमटोल और सुंदरसी जान ने धीरेधीरे सब को अपना बना लिया.

‘‘मां और दादी जतन से उसे पालने लगीं. वह बड़ा तो हो रहा था पर साल भर का हो जाने पर भी जब उस ने चलना तो दूर, बैठना और गर्दन उठाना भी नहीं सीखा तब सब को चिंता

हुई. फिर उसे बच्चों के डाक्टर को दिखाया गया.

‘‘डाक्टर ने कई टैस्ट कराए और तब पता चला कि उसे सेरेब्रल पाल्सी, यानी एक ऐसी बीमारी है जिस में दिमाग का शरीर पर कंट्रोल नहीं होता है.

‘‘उस दिन जैसे फिर एक बार हमारे घर पर बिजली गिरी. मां, पापा, दादी के साथ हम सभी बहनों के चेहरे भी उतर गए. पापा के अभिन्न मित्र ने फिर सम झाया कि उसे किसी अनाथ आश्रम को सौंप दें पर अब यह असंभव था क्योंकि पापा को थोड़ा समाज के उपहास का डर था और मां, दादी को उस से बहुत अधिक मोह.

‘‘वैसे भी यह कहां ठीक होता कि अच्छा है तो अपना और खराब है तो गैर. इसलिए भैया घर में ही है, अब करीब 6 साल का हो गया है पर लेटा ही रहता है. मां को उस का सब काम बिस्तर पर ही करना पड़ता है. दादी तो अब रही नहीं, कुछ समय पहले ही उन का देहांत हुआ.

‘‘मां कभीकभी बहुत उदास हो जाती हैं. कहां तो भैया के आने से उन्हें आशा बंधी थी कि शायद बुढ़ापे में बेटा सेवा करेगा पर अब तो जब तक जीवन है, उन्हें ही भैया की सेवा करनी है.’’

निशा फफकफफक कर रो पड़ी. कीर्ति की आंखें भी नम थीं. थोड़ी देर खामोशी रही फिर कीर्ति ने उसे ढाढ़स बंधाया.

‘‘इसलिए मैं डाक्टर बन कर ऐसे बच्चों के लिए कुछ करना चाहती हूं, पर सच कहूं तो भैया का आगमन हमारे घर न हुआ होता तो आज मेरे मांबाप ज्यादा सुखी होते. जीवन की संध्या समाज सेवा में बिताते पर बेटे के मोह ने उन से वह सुख भी छीन लिया.’’

कीर्ति चुपचाप उस की बातें सुनती रही फिर उदास कदमों से दोनों होस्टल की ओर चल पड़ीं.

ऐसे नहीं चलता काम

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काम की आदत : क्या चंदन अपने बेटे को पैसे भेज सका?

दोपहर के खाने के बाद चंदन की तबियत सुस्त होने लगी, बदन टूटने लगा और दर्द भी करने लगा. उसे अहसास हो गया कि बुखार है. काम बंद कर वह कुरसी पर आराम करने लगा. सहपाठियों ने घर जाने की सलाह दी. चंदन ने पैरासिटामोल की एक गोली ली और थोड़ी देर आराम किया. दवा से तबियत में थोड़ा फर्क महसूस हुआ तो वह औफिस से घर के लिए निकल आया.

घर पहुंचने से पहले चंदन ने डाक्टर को फोन किया. डाक्टर अपने क्लिनिक पर थे. वह डाक्टर से क्लिनिक पर मिले.

डाक्टर चंदन से उम्र में छोटे थे और चंदन को अंकल कह कर पुकारते थे. डाक्टर ने पूछा, “अंकल, कैसी तबियत है?”

चंदन ने अपनी तबियत के बारे में बताया. डाक्टर ने निरीक्षण किया. देखने के बाद डाक्टर ने कहा, “अंकल, बुखार तो अभी भी 100 डिगरी है और ब्लड प्रेशर भी अधिक है. ब्लड प्रेशर की दवाई नियम से रोज लेते हो न अंकल?”

चंदन डाक्टर से बोले, “ब्लड प्रेशर की दवा तो हर रोज नियम से लेता हूं.”

डाक्टर ने कहा, “मैं दवा लिख रहा हूं. तीन दिन तक लो, फिर मुझे दिखाना. अगर बुखार तेज हो या उतरे नहीं, तो टैस्ट करवा लेना. मैं लिख देता हूं. आप आराम पूरा करो. औफिस से 2-3 दिन की छुट्टी लो, तब तबियत जल्दी ठीक होगी.”

चंदन ने पूछा, “कोई घबराने की बात तो नहीं है?”

डाक्टर ने कहा, “अभी तो मौसम का बुखार लग रहा है. दवा लो और आराम करो. आंटी कैसी है?”

चंदन ने कहा, “ठीक है.”

चंदन ने कैमिस्ट से दवा ली और घर पहुंचा. चांदनी घर पर नहीं थी. फोन किया. चांदनी सोसाइटी के मंदिर में थी. एक बच्चे के हाथ घर की चाबी भेज दी.

बच्चे ने कहा कि अंकल चाबी आंटी ने भेजी है. मंदिर में कीर्तन हो रहा है. आंटी एक घंटे बाद आएगी.

चंदन ने घर का दरवाजा खोला और दवा लेने के पश्चात आराम करने के लिए बिस्तर पर लेट गया और कुछ पल बाद नींद आ गई.
लगभग डेढ़ घंटे बाद चांदनी घर लौटी. चंदन को देख कर वह बोली, “आज जल्दी आ गए?”

चंदन ने कहा, “हां, बुखार हो गया औफिस में, इसलिए जल्दी आ गया.”

चांदनी बोली, “चलो, डाक्टर के पास चल कर दवा ले लो.”

चंदन ने कहा, “मैं सीधे डाक्टर के पास ही गया था. दवा ले ली.”

चांदनी पूछ बैठी, “क्या कहा डाक्टर ने?”

चंदन ने कहा, “दवा से बुखार न उतरे, तब टैस्ट करवाने को कहा है.”

चांदनी ने कहा, “खिचड़ी बना देती हूं. थोड़ा हलका खाने के बाद जल्दी सो जाओ.”

चंदन सो जाता है. रात के तकरीबन डेढ़ बजे चंदन की नींद खुलती है. पसीने से तरबतर चंदन कंबल को उतार कर एक ओर करता है. बुखार उतर गया था. कमजोरी के कारण कुछ देर करवटें बदल कर फिर से नींद आ गई. चांदनी सो रही थी. चंदन ने उसे उठाया नहीं.

सुबह चांदनी अपनी दिनचर्या के मुताबिक साढ़े 5 बजे उठ गई. चंदन सो रहा था. तकरीबन साढ़े 8 बजे वह उठा.

चांदनी ने पूछा, “तबियत कैसी है?”

चंदन ने कहा, “कमजोरी बहुत लग रही है.”

चांदनी बोली, “आज और कल दो दिन की औफिस से छुट्टी ले लो. फिर शनिवार, रविवार की छुट्टी है ही. पूरे 4 दिन आराम करो.”

चंदन ने कहा, “छुट्टी की ईमेल सब से पहले भेजता हूं.”

चंदन ने मोबाइल से 2 दिन की छुट्टी के लिए ईमेल लिखी और औफिस भेज दी और आराम करने लगा.

चांदनी बोली, “स्नान कर लो. बदन खुल जाएगा. पसीने से भीगे कपड़े भी बदल लो.”

थोड़ी देर बाद चंदन नहा कर के कपड़े बदल लेता है. नाश्ते में दलिया खाया और समाचारपत्र पढ़ने लगा.

चंदन ने मुश्किल से साढ़े 10 बजे तक आराम किया होगा, फिर उस के बाद औफिस से एक के बाद एक फोन आने लगे और चंदन फोन पर ही व्यस्त हो गया. चन्दन ने अपना लैपटौप भी खोला और काम करने लगा.

चांदनी यह देख कर झुंझला गई और थर्मामीटर चंदन के मुंह में डाल दिया. 2 मिनट बाद भी जब चांदनी ने थर्मामीटर नहीं निकाला, तब चंदन ने खुद ही मुंह से निकाल कर तापमान देखा.

चंदन ने थर्मामीटर देखते हुए कहा, “बुखार नहीं है.”

चांदनी बोली, “पिछले 2 घंटे से देख रही हूं. डाक्टर साहब ने आराम करने को कहा है… और आप यह आराम कर रहे हैं. घर में पूरा दफ्तर खोल लिया है. जब आराम नहीं करना, तब छुट्टी क्यों ली, दफ्तर चले जाओ. टिफिन पैक कर देती हूं.”

चंदन ने मुसकराते हुए कहा, “नाराज क्यों हो गई?”

चांदनी बोली, “मेरी नाराजगी से कोई फर्क पड़े तब कहूं कि नाराज हूं.”

चंदन बोला, “तुम्हें तो मालूम है कि प्राइवेट नौकरी में आदमी का तेल निकाल लेते हैं. काम करना पड़ता है.”

चांदनी बोली, “मगर, तुम इनसान हो, तबियत ठीक नहीं, कम से कम एक दिन तो बख्श दो. कोई सुपरमैन तो हो नहीं कि बिना रुके हर पल सृष्टि चलानी है.”

चंदन ने कहा, “कोई नहीं समझता, खासकर जिन के पल्ले दाने जरूरत से अधिक होते हैं. हम नौकर ठहरे, मालिक की निगाह में हमारी औकात कुछ नहीं है. 2-2 साल तक तनख्वाह बढ़ाते नहीं. जवान लड़केलड़कियां इसीलिए हर साल या 2 साल में नौकरी बदल लेते हैं. उन पर घर के दायित्व नहीं होते. अब उम्र 57 साल हो गई है. इस उम्र में नौकरियां भी आसानी से नहीं मिलती. आजकल युवाओं पर विशेष ध्यान है. 40 साल के ऊपर वाले मेरी श्रेणी में आ गए हैं, तभी तो काम किए जा रहे हैं.”

चंदन के तर्क सुन कर चांदनी चुप हो गई.

दोपहर में भी चंदन को आराम नहीं मिला. थोड़ीथोड़ी देर में फोन बजता रहता. चांदनी कुढ़ कर दूसरे कमरे में आराम करने लगी. चंदन पूरा दिन औफिस के काम घर पर करता रहा. बीच में वह थोड़ी सी झपकी ले लेता था. शाम के 6 बजे चंदन को काम से फुरसत मिली.

चंदन और चांदनी अकेले दिल्ली में रह रहे हैं. बेटा प्रीत बैंगलुरू में और बेटी शालिनी पुणे में रह रहे हैं. दोनों आईटी कंपनी में हैं और विवाहित हैं. चंदन प्राइवेट कंपनी में कार्यरत है. 19 साल की उम्र में बीकौम की डिगरी लेने के तुरंत बाद चंदन ने नौकरी करनी शुरू की. घर की माली हालत कमजोर थी. कालेज के समय अपनी पढाई का खर्च ट्यूशन की कमाई से पूरा किया और घर में भी आर्थिक सहयोग दिया. नौकरी के साथ एमकौम और फिर एमबीए किया. 4-5 कंपनियां बदली और धीरेधीरे उन्नति की सीढ़ियां चढ़ते आज चंदन एक शीर्ष पद पर है.

38 सालों के अनुभव के साथ चंदन का सम्मान कंपनी में सहपाठियों के साथ मैनेजमेंट भी करती है. विनम्र स्वभाव के चंदन विपरीत परिस्थितियों में भी हंसते हुए काम करते रहते थे. अपने लिए कुछ भी चाह नहीं रखी. पहले अपने मातापिता और फिर बच्चों के लिए पूरा जीवन समर्पित कर दिया. अपने लिए शायद ही कुछ मांगा हो चंदन ने, इसीलिए चांदनी के रूप में जीवनसाथी मिला, जिस ने चंदन का पूरा खयाल रखा.

बीमारी में पूरा दिन चंदन औफिस का काम करता रहा. शाम के 6 बजे नींद आ गई. चांदनी ने चंदन को आराम करने दिया. साढ़े 8 बजे चंदन उठा.

चांदनी बोली, “हाय सुपरमैन कैसे हो?”

सुन कर चंदन मुसकरा दिया, कहा कुछ नहीं. आराम करने से और दवाई से तबियत में सुधार हुआ.

चंदन बोला, “कुछ बेहतर महसूस हो रहा है.”

चांदनी बोली, “खाना खा लो, फिर रात की दवा खा कर सो जाना. आज तुम ने बीमारी में भी दोगुना काम किया है. अब जवानी का जोश मत दिखाओ. उम्र के मुताबिक काम करना चाहिए.”

चंदन ने मुसकरा कर सिर हिला दिया. खाना खाने के बाद चंदन को नींद नहीं आ रही थी. अभी तो वह सो कर उठा था. चांदनी और चंदन दोनों टीवी सीरियल देखने लगे. साढ़े 9 बजे बेटे प्रीत का फोन आया. पिता और बेटे की फोन पर चांदनी बात सुनती रही.

चांदनी बोली, “क्या हुआ…? प्रीत रुपए क्यों मांग रहा था?”

चंदन ने कहा, “वह कह रहा था कि खर्च अधिक हो गया. मकान बदला, उस का किराया और सिक्योरिटी में खर्च हो गया. कार लोन की किस्त भी देनी है.”

चांदनी बोली, “अच्छी तनख्वाह है, मियांबीवी दोनों कमाते हैं. आखिर खर्च कहां करते हैं? मुझे तो समझ नहीं आता. इतना कमाने के बाद भी बाप से मांगते शर्म नहीं आती. फोन मिलाया और रुपए मांग लिया. तुम ने मना क्यों नहीं किया?”

चंदन ने कहा, “कह रहा था कि उधार दे दो. 2-3 महीने में लौटा देगा.”

चांदनी बोली, “मैं जैसे समझती नहीं हूं. उधार मांग कर रुपए लिए किस ने वापस करने और बाप ने बेटे से क्या मांगने?”

चंदन ने उदारता दिखाते हुए कहा, “दे देगा.”

चांदनी बोली, “खर्च सीमित रखें. हम ने भी तो 2 कमरों में गुजारा किया है. मातापिता, हम और दो बच्चे. जितनी चादर थी, पैर कभी बाहर नहीं निकाले. अभी तो कोई उन पर बोझ नहीं है, कोई जिम्मेदारी नहीं है, तब यह हाल है. छोटे मकान में रह लें, छोटी कार ले लें. अपना रुतबा दिखाना है. झूठी शान के साथ जीना है. घर में खाना बनाना नहीं, हर रोज होटल में खाना है. महंगे कपड़े, क्या बताऊं और.”

चंदन ने कहा, “मैं समझ सकता हूं.”

चांदनी बोली, “3 साल में दोनों बच्चों की शादी की. सारी जमापूंजी खर्च हो गई. घर में सफेदी करवानी है, दीवारों से पपड़ी उतर रही है. हर महीने उसे टालते जा रहे हैं. उन को सब आराम चाहिए. क्या हमें कुछ नहीं चाहिए?

चंदन ने कहा, “चाहिए तो, लेकिन हमारा बचपन थोड़े अभाव में बीता. हम ने सब कुछ स्वयं बनाया. बच्चों को हम ने सबकुछ दिया, इसीलिए उन्हें अभाव में रहने की आदत नहीं है.”

चांदनी बोली, “आप हमेशा तो उन की मदद कर नहीं सकते. 3 साल बाद आप रिटायर हो जाओगे, तब हम अपना गुजारा कैसे करेंगे. कुछ सोचा है? बच्चों के जो हालात हैं, उन से मुझे एक रुपए की भी उम्मीद नहीं है. उन्हें आप की तनख्वाह पता है. और यह भी मालूम है कि आप अधिक खर्च करते नहीं, इसीलिए मांग रख दी. उन को इतनी समझ तो आनी चाहिए.”

चंदन ने फिर कहा, “उधार मांग रहा है, वापस कर देगा.”

चांदनी बोली, “वापस कर देगा. वापस करने के कुछ दिन बाद फिर मांग लेगा. यह सिलसिला चलता रहेगा. मैं बच्चों की मानसिकता समझ रही हूं.”

चंदन ने कहा, “हमारा सबकुछ बच्चों का ही तो है.”

चांदनी बोली, “मानती हूं कि है, परंतु अपने लिए कुछ रखो नहीं तो…?”

चंदन ने मुसकराते हुए कहा, “दिल छोटा न कर. आज पहली बार ऐसा क्यों सोच रही हो?”

चांदनी बोली, “इसलिए कि उम्र बढ़ती जा रही है और अब अधिक बोझ उठाने की हिम्मत नहीं है.”

चंदन बात को समझता है, परंतु उस की आदत. उस ने लैपटौप खोला और इंटरनेट बैंकिंग से रुपए बेटे के खाते में भेज दिए.

Raksha Bandhan : घर पर ऐसे बनाएं काजू कतली

आमतौर पर मिठाई के बाजार में उस मिठाई को सब से ज्यादा पसंद किया जाता है, जो ज्यादा दिनों तक चल सके यानी जल्दी खराब न हो. चीनी और काजू से तैयार होने वाली काजूकतली ऐसी ही एक मिठाई है. मिठाई के बाजार में आज इसे बेहद पसंद किया जा रहा है. जिन लोगों को मेवों की मिठाई पसंद आती है, पर वे ज्यादा घी पसंद नहीं करते, उन के लिए काजूकतली या काजूबरफी सब से बढि़या होती है.

काजूकतली उत्तर भारत की सब से खास मिठाई है. इसे चांदी के वर्क में लगा कर खाने वालों को दिया जाता है. सूखी मिठाई के रूप में काजूकतली सब से अच्छी होती है. कम वजन होने के कारण यह ज्यादा संख्या में मिल जाती है. इसे बिना किसी खास देखभाल या पैकिंग के कहीं भी ले जाया जा सकता है.

बढ़ता जा रहा इस्तेमाल

असम की रहने वाली मधु राज गुप्ता कहती हैं, ‘खोयाबरफी को खाने में डर लगता है, क्योंकि त्योहार के समय हर तरफ मिलावट वाली बातें होती रहती हैं. काजूकतली को बनाने के लिए किसी भी ऐसी चीज का इस्तेमाल नहीं किया जाता, जिस में कुछ मिलावट की जा सकती हो. काजू और चीनी से बनी काजूकतली खोए की बरफी के मुकाबले सेहत के लिए बेहतर होती है. इसीलिए लोग इसे खूब खाते हैं. यह खोयाबरफी के मुकाबले महंगी होने के बाद भी ज्यादा पसंद की जा रही है.’

बाजार में काजूकतली की कीमत 5 सौ रुपए प्रति किलोग्राम से शुरू हो कर 7 सौ रुपए प्रति किलोग्राम तक होती है. इस के बाद भी यह सब से ज्यादा बिकती है. काजू से कई तरह की मिठाइयां तैयार की जाती हैं. काजू वैसे भी बहुत स्वादिष्ठ होता है. चीनी के साथ मिल कर यह और ज्यादा स्वादिष्ठ हो जाता है. त्योहारों के अलावा शादी में दी जाने वाली मिठाइयों में भी इस की खपत खूब होने लगी है.

बहुत सारे लोगों के लिए काजूकतली कारोबार करने का जरीया भी बन सकती है. काजूकतली को तैयार करना वैसे तो सरल काम होता है, पर काजू की क्वालिटी सही होनी चाहिए. घटिया काजू इस के स्वाद को खराब कर सकता है, इसलिए काजू बहुत ही देखभाल कर खरीदने चाहिए और चीनी की चाशनी भी अच्छी होनी चाहिए.

कैसे बनाएं काजूकतली

  • काजूकतली बनाने के लिए 200 ग्राम काजू, 100 ग्राम चीनी, पानी और थोड़ा सा घी लें.
  • सब से पहले काजू को साफ कर के ठीक से सुखा लें.
  • फिर इसे पीस कर काजूपाउडर बना लें.
  • एक कढ़ाई में जरूरत के मुताबिक पानी गरम करें.
  • पानी उबलने लगे तो उस में चीनी डाल दें. धीमी आंच पर चीनी को पकने दें.
  • बीचबीच में चलाते रहें, जिस से चीनी कढ़ाई में लगने न पाए. जब 3 तार की चाशनी बन जाए, तो कढ़ाई को आंच से नीचे उतार लें.
  • अब इस में काजूपाउडर मिलाएं. फिर कढ़ाई को धीमी आंच पर चढ़ाएं और काजूपाउडर को चाशनी में अच्छी तरह मिलाएं. इस के बाद कढ़ाई आंच से उतार लें.
  • अब काजूकतली जमाने के लिए एक ट्रे लें. ट्रे की तली में घी की कुछ बूदें डाल कर अच्छी तरह से फैला दें.
  • फिर चौथाई इंच मोटाई में काजूकतली का तैयार पेस्ट ट्रे में डालें.
  • बेलन का सहारा ले कर इसे चिकना करें. करीब 20 मिनट के बाद पेस्ट जम जाएगा. तब मनचाहे आकार में इसे काटें.
  • सजाने के लिए चांदी के वर्क का सहारा लें.

काजूकतली की सब से खास बात यह होती है कि यह खोए की बरफी के मुकाबले ज्यादा दिनों तक चल जाती है. यह 3 से 4 हफ्ते तक खराब नहीं होती है. इसे कहीं भी लाना या ले जाना आसान होता है. सूखी और स्वादिष्ठ होने के कारण लोग इसे काफी पसंद करते हैं.

Raksha Bandhan : जिम्मेदारी बहन की सुरक्षा की

‘‘गुडि़या, अब तुम बड़ी हो गई हो. अब तुम्हारी सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी मेरी है. तुम मेरी प्यारी बहन हो. तुम्हें कोई तकलीफ होगी तो मुझे दर्द होगा,’’ सुशांत ने अपनी बहन नेहा को समझाते हुए कहा.

‘‘भाई मैं अब बड़ी हो गई हूं. अपना खयाल रख सकती हूं. आप परेशान न हों, आप भी तो मेरे से केवल 2 साल ही बडे़ हैं,’’ नेहा ने अपना तर्क दिया.

‘‘बहन, मैं जानता हूं कि तुम बड़ी हो चुकी हो. अपना खयाल रख सकती हो. फिर भी मैं हमेशा तुम्हारी रक्षा का वचन देता हूं. 2 साल ही सही पर हूं तो तुम से बड़ा न,’’ सुशांत ने बात को समझाने का प्रयास किया.

‘‘हां, मान गई भाई, तुम जीते और मैं हारी. अब चौकलेट मुझे दो और मुझे इस का स्वाद लेने दो,’’ भाई के तर्क के आगे हार मानते हुए नेहा ने कहा.

इस तरह की जिम्मेदारी भरी नोकझोंक हर घर में भाईबहन के बीच होती ही रहती है. यह नोकझोंक आज की नहीं है. हर पीढ़ी के बीच होती रही है. नई पीढ़ी की बहन को लगता है कि वह बहुत बड़ी, समझदार और जिम्मेदार हो गई है और उसे भाई की मदद की जरूरत नहीं रह गई है. इस के विपरीत भाई को यह लगता है कि उस की बहन अभी मासूम, छोटी सी गुडि़या है, जिसे समाज में अच्छेबुरे का पता नहीं है. ऐसे में वह परेशान हो सकती है.

कई बार बड़ी होती बहन को लगता है कि सुरक्षा के नाम पर भाई या परिवार के दूसरे लोग उस की आजादी में बाधक हैं. असल में यही वह सोच है जो बहन को समझनी चाहिए. भाई या परिवार का कोई सदस्य उस की आजादी में बाधक नहीं होता. वह यह जरूर चाहता है कि लड़की के दामन पर कोई दाग न लगे, जो जीवन भर उसे परेशान करता रहे.

भावनात्मक सुरक्षा भी जरूरी

जब हम बहन की सुरक्षा की बात करते हैं तो केवल शारीरिक सुरक्षा ही मुद्दा नहीं होता बल्कि बहन की शारीरिक सुरक्षा के साथ ही साथ उस की भावनात्मक सुरक्षा भी जरूरी होती है. बड़ी होती बहन के दोस्तों में केवल लड़कियां ही नहीं होतीं लड़के भी होते हैं. इन दोस्तों में कई मासूमियत का लाभ उठाने के प्रयास में रहते हैं. बहन को लगता है कि सुरक्षा के नाम पर उस की आजादी को रोका जा रहा है. ऐसे में कई बार वह ऐसी बातों को छिपा जाती है, जो उस की सुरक्षा के लिए जरूरी होती हैं. ऐसे में जरूरी हो जाता है कि बहन के साथ भाई भावनात्मक रूप से जुड़ा रहे. भाई और बहन के बीच उम्र का अंतर काफी कम होता है. इसलिए बहन और भाई की सोच एकजैसी होती है. कई बार बहन अपने मातापिता को कई बातें नहीं बताती पर अपने भाई को बता देती है.

मनोविज्ञानी डाक्टर मधु पाठक कहती हैं, ‘‘यहां पर भाई की जिम्मेदारी बढ़ जाती है. वह बहन के साथ इमोशनली ऐसे व्यवहार रखे जिस से बहन हर बात उस को बताती रहे. ज्यादातर परेशानियां वहीं से शुरू होती हैं जब बच्चे अपनी बातें छिपाना शुरू करते हैं. यह केवल बहनें ही नहीं भाई भी करते हैं. जब भाई अपनी बातें बहन को बताएगा तो बहन भी उसे अपनी बातें बताने में संकोच नहीं करेगी. जरूरत इस बात की है कि बहन और भाई के बीच रिश्ता दोस्ताना भी बना रहे. अगर भाई पेरैंट्स की तरह बहन से व्यवहार करेगा तो वह बात को छिपा सकती है. दोस्त की तरह भाई संबंध रखेगा तो परेशानी नहीं आएगी. भाई को शारीरिक सुरक्षा के साथ बहन को भावनात्मक सुरक्षा भी देनी चाहिए.’’

सोच बदलने की जरूरत

लड़की और लड़के के बीच समाज एक तरह का फर्क करता है, जिस की वजह से कुछ बातें भाई के लिए उतनी बुरी नहीं समझी जातीं जितनी बहन के लिए समझी जाती हैं. इस बात को समझने के लिए देखें तो भाई की गर्लफ्रैंड को ले कर उतना हंगामा नहीं होता जितना बहन के बौयफ्रैंड को ले कर होता है.

आज जब महिला अधिकारों की बात हो रही है तो बहन भी अपने लिए भाई जैसे अधिकार चाहती है. समाज भाई की गलतियों को उस तरह से नहीं लेता जिस तरह से बहन की गलतियों को लेता है. यह समाज की एक तरह की पुरुषवादी मानसिकता है. यही वजह है कि केवल भाई ही नहीं पेरैंट्स भी बेटी को ले कर बेटे से अधिक सचेत रहते हैं. इस बात से ही लड़कियों का मतभेद होता है. वे इस सोच में भाईबहन के सामाजिक अधिकार के अंतर को ले कर विद्रोही हो जाती हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता विनीता ग्रेवाल कहती हैं, ‘‘लड़कियों के भोलेपन का लाभ उठाने वाला पुरुषवर्ग ही होता है. इस में कई बार करीबी रिश्तेदार तक शामिल होते हैं. जरूरत इस बात की है कि लड़कियों को भी यह समझाया जाए कि वे सही और गलत के फर्क को समझ सकें. हमारे समाज में सैक्स की चर्चा पूरी तरह से बेमानी मानी जाती है ़ऐसे में सैक्स को ले कर लड़कियां जागरूक नहीं होतीं, यह बात उन के लिए मुसीबत का सबब बनती है. सैक्स संबंधों को ले कर ज्यादातर लड़कियां इमोशनली ठगी जाती हैं, जिस का प्रभाव केवल उन के  जीवन पर ही नहीं पड़ता बल्कि परिवार पर भी पड़ता है. समाज सीधे सवाल करता है कि लड़की की सुरक्षा का परिवार वालों ने खयाल नहीं रखा. इस वजह से पेरैंट्स और भाई कुछ ज्यादा ही परेशान रहते हैं. अपनी आजादी के साथ लड़कियों को इस तर्क को सामने रख कर सोचना चाहिए, जिस से विद्रोह जैसे हालात से बचा जा सकता है.’’

खुद बनें मजबूत

समय बदल रहा है. आज लड़की को लड़के जैसे अधिकार हासिल हैं. वह भी पढ़ाई, कोचिंग, शौपिंग के लिए खुद ही जाना चाहती है. कई घरों में लड़कियों के भाई नहीं हैं, केवल पेरैंट्स ही हैं. ऐसे में हर जगह बहन की सुरक्षा में भाई नहीं मौजूद रह सकता. तब लड़कियों को खुद ही मजबूत बनना पडे़गा. केवल मानसिक  रूप से ही नहीं शारीरिक रूप से भी उसे मजबूत रहना है. यही नहीं कानून ने जो अधिकार उसे दिए हैं वे भी उसे पता होने चाहिए, जिस से पुलिस और प्रशासन से अपने लिए मदद हासिल कर सके. आज सैल्फ डिफैंस के तमाम कार्यक्रम चल रहे हैं, जिन से लड़कियां अपना बचाव कर सकें. ऐसे में जरूरी है कि लड़कियां शारीरिक मेहनत करें और खुद को मजबूत बनाएं. इस के बाद वे जरूरत पड़ने पर अपना बचाव करने में सक्षम हो सकेंगी, जिस पेरैंट्स और भाई को इस बात का यकीन होता है कि लड़की अपनी सुरक्षा खुद कर सकती है तो वह चिंतामुक्त होता है.

रैड बिग्रेड संस्था लड़कियों को आत्मरक्षा के तमाम गुण सिखाती है. संस्था की संचालक ऊषा विश्वकर्मा कहती हैं, ‘‘केवल भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में इस बात की जरूरत महसूस की जा रही है कि लड़कियों को सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग लेनी चाहिए. इस से कमजोर बौडी वाली लड़कियां भी मजबूत से मजबूत विरोधी को मात दे कर अपना बचाव कर सकती हैं. स्कूल, पेरैंट्स, सरकार और समाज को सहयोग कर के सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग को बढ़ावा देना चाहिए, जिस से लड़की मजबूत ही नहीं होगी, उस के अंदर का डर भी खत्म हो जाएगा.’’

ऊषा को सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग देने के लिए कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है. वे अपने स्तर से कई तरह की वर्कशौप कर के सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग दे रही हैं.

बढ़ाएं आपसी समझदारी

बहन की सुरक्षा भाई की जिम्मेदारी होती है. ऐसे में जरूरी है कि भाईबहन के बीच आपसी समझदारी बढे़. जब दोनों के बीच आपसी समझदारी होगी तो उसे किसी भी तरह की परेशानी का अनुभव नहीं होगा. वह यह नहीं सोचेगी कि सुरक्षा के नाम पर उस की आजादी को प्रभावित किया जा रहा है. जब उस को समझाया जाएगा कि यह सुरक्षा क्यों जरूरी है, तो वह किसी बात को छिपाएगी नहीं. जब भाईबहन एकदूसरे से कुछ छिपाएंगे नहीं तो आपस में समझदारी बढ़ेगी, जिस से खुद ही सुरक्षा का एहसास होगा. सुरक्षा का यह एहसास खुद में आत्मविश्वास पैदा करेगा. आज के दौर में समाज और हालात बहुत बदल चुके हैं. ऐसे में बच्चों के बीच आपसी समझदारी जरूरी है.

अंश वैलफेयर की अध्यक्षा श्रद्धा सक्सेना कहती हैं, ‘‘बदलते दौर में भाई और बहन दोनों को समान अवसर मिले हैं. ऐेसे में जरूरी है कि वे आपसी समझदारी दिखाएं. केवल बहन पर ही नहीं अगर भाई पर भी कोई उंगली उठती है तो बहन को भी उतनी ही तकलीफ होती है. टीनएज में होने वाले क्रश का प्रभाव केवल बहन पर ही नहीं पड़ता भाई का जीवन और कैरियर भी उस से प्रभावित होता है. ऐसे में जब भाईबहन समझदारी भरा व्यवहार करते हैं आपस में बातें शेयर करते हैं तो मुसीबतों से बचे रहते हैं, कई घरपरिवार में बहन बड़ी होती है, ऐसे में वह भाई को पूरी सुरक्षा देती है. भाई केवल बहन को ही नहीं बहन भी भाई को खुश और सुरक्षित देखना चाहती है.’’

एक नन्ही परी : भाग 3

वह हलदी के दाग को हथेलियों से साफ करने की कोशिश करने लगी. पर हलदी के दाग और भी फैलने लगे. अतुल ने उस की दोनों कलाइयां पकड़ लीं और बोल पड़ा, ‘यह हलदी का रंग जाने वाला नहीं है. ऐसे तो यह और फैल जाएगा. आप रहने दीजिए.’ विनी झेंपती हुई हाथ धोने चली गई.

बड़ी धूमधाम से काजल की शादी हो गई. काजल की विदाई होते ही विनी को अम्मा के साथ दिल्ली जाना पड़ा. कुछ दिनों से अम्मा की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी. डाक्टरों ने जल्दी से जल्दी दिल्ली ले जा कर हार्ट चैकअप का सुझाव दिया था. काजल की शादी के ठीक बाद दिल्ली जाने का प्लान बना था. काजल की विदाई वाली शाम का टिकट मिल पाया था.

एक शाम अचानक शरण काका ने आ कर खबर दी. विनी को देखने लड़के वाले अभी कुछ देर में आना चाहते हैं. घर में जैसे उत्साह की लहर दौड़ गई. पर विनी बड़ी परेशान थी. न जाने किस के गले बांध दिया जाएगा? उस के भविष्य के सारे अरमान धरे के धरे रह जाएंगे. अम्मा उस से तैयार होने को कह कर रसोई में चली गईं. तभी मालूम हुआ कि लड़का और उस के परिवार वाले आ गए हैं. बाबूजी, काका और काकी उन सब के साथ ड्राइंगरूम में बातें कर रहे थे.

अम्मा ने उसे तैयार न होते देख कर, आईने के सामने बैठा कर उस के बाल सांवरे. अपनी अलमारी से झुमके निकाल कर दिए. विनी झुंझलाई बैठी रही. अम्मा ने जबरदस्ती उस के हाथों में झुमके पकड़ा दिए. गुस्से में विनी ने झुमके पटक दिए.

एक झुमका फिसलता हुआ ड्राइंगरूम के दरवाजे तक चला गया. ड्राइंगरूम उस के कमरे से लगा हुआ था.

परेशान अम्मा उसे वैसे ही अपने साथ ले कर बाहर आ गईं. विनी अम्मा के साथ नजरें नीची किए हुए ड्राइंगरूम में जा पहुंची. वह सोच में डूबी थी कि कैसे इस शादी को टाला जाए. काकी ने उसे एक सोफे पर बैठा दिया. तभी बगल से किसी ने धीरे से कहा, ‘मैं ने कहा था न, हलदी का रंग जाने वाला नहीं है.’ सामने अतुल बैठा था.

अतुल और उस के मातापिता के  जाने के बाद काका ने उसे बुलाया. बड़े बेमन से कुछ सोचती हुई वह काका के साथ चलने लगी. गेट से बाहर निकलते ही काका ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘विनी, मैं तेरी उदासी समझ रहा हूं. बिटिया, अतुल बहुत समझदार लड़का है. मैं ने अतुल को तेरे सपने के बारे में बता दिया है. तू किसी तरह की चिंता मत कर. मुझ पर भरोसा कर, बेटी.’

काका ने ठीक कहा था. वह आज जहां पहुंची है वह सिर्फ अतुल के सहयोग से ही संभव हो पाया था. अतुल आज भी अकसर मजाक में कहते हैं, ‘मैं तो पहली भेंट में ही जज साहिबा की योग्यता पहचान गया था.’ उस की शादी में शरण काका ने सचमुच मामा होने का दायित्व पूरी ईमानदारी से निभाया था. पर वह उन्हें मामा नहीं, काका ही बुलाती थी.

कोर्ट का कोलाहल विनीता को अतीत से बाहर खींच लाया. पर वे अभी भी सोच रही थीं, इसे कहां देखा है. दोनों पक्षों के वकीलों की बहस समाप्त हो चुकी थी. राम नरेश के गुनाह साबित हो चुके थे. वह एक भयानक कातिल था. उस ने इकरारे जुर्म भी कर लिया था. उस ने बड़ी बेरहमी से हत्या की थी. एक सोचीसमझी साजिश के तहत उस ने अपने दामाद की हत्या कर शव का चेहरा बुरी तरह कुचल दिया था और शरीर के टुकड़ेटुकड़े कर जंगल में फेंक दिए थे. वकील ने बताया कि राम नरेश का आपराधिक इतिहास है. वह एक कू्रर कातिल है. पहले भी वह कत्ल का दोषी पाया गया था पर सुबूतों के अभाव में छूट गया था. इसलिए इस बार उसे कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए. वकील ने पुराने केस की फाइल उन की ओर बढ़ाई. फाइल खोलते ही उन की नजरों के सामने सबकुछ साफ हो गया. सारी बातें चलचित्र की तरह आंखों के सामने घूमने लगीं.

लगभग 22 वर्ष पहले राम नरेश को कोर्ट लाया गया था. उस ने अपनी दूधमुंही बेटी की हत्या कर दी थी. तब विनीता वकील हुआ करती थीं. ‘कन्या भ्रूण हत्या’ और ‘बालिका हत्या’ जैसे मामले उन्हें आक्रोश से भर देते थे. मातापिता और समाज द्वारा बेटेबेटियों में किए जा रहे भेदभाव उन्हें असह्य लगते थे. तब विनीता ने राम नरेश के जुर्म को साबित करने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा दिया था. उस गांव में अकसर बेटियों को जन्म लेते ही मार डाला जाता था. इसलिए किसी ने राम नरेश के खिलाफ गवाही नहीं दी. लंबे समय तक केस चलने के बाद भी जुर्म साबित नहीं हुआ. इसलिए कोर्ट ने राम नरेश को बरी कर दिया था. आज वही मुजरिम दूसरे खून के आरोप में लाया गया था. विनीता ने मन ही मन सोचा, ‘काश, तभी इसे सजा मिली होती. इतना सीधासरल दिखने वाला व्यक्ति 2-2 कत्ल कर सकता है? इस बार वे उसे कड़ी सजा देंगी.’

जज साहिबा ने राम नरेश से पूछा, ‘‘क्या तुम्हें अपनी सफाई में कुछ कहना है?’’ राम नरेश के चेहरे पर व्यंग्यभरी मुसकान खेलने लगी. कुछ पल चुप रहने के बाद उस ने कहा, ‘‘हां हुजूर, मुझे आप से बहुत कुछ कहना है. मैं आप लोगों जैसा पढ़ालिखा और समझदार तो नहीं हूं, पता नहीं आप लोग मेरी बात समझेंगे या नहीं. आप मुझे यह बताइए कि अगर कोई मेरी परी बिटिया को जला कर मार डाले और कानून से भी अपने को बचा ले. तब क्या उसे मार डालना अपराध है?

‘‘मेरी बेटी को उस के पति ने दहेज के लिए जला दिया था. मरने से पहले मेरी बेटी ने आखिरी बयान दिया था कि कैसे मेरी फूल जैसी सुंदर बेटी को उस के पति ने जला दिया. पर वह शातिर पुलिस और कानून से बच निकला. इसलिए उसे मैं ने अपने हाथों से सजा दी. मेरे जैसा कमजोर पिता और कर ही क्या सकता है? मुझे अपने किए गुनाह पर कोई अफसोस नहीं है.’’

उस का चेहरा मासूम लग रहा था. उस की बूढ़ी आंखों में आंसू चमक रहे थे. लेकिन चेहरे पर संतोष झलक रहा था. वह जज साहिबा की ओर मुखातिब हुआ,  ‘‘हुजूर, आज से 22 वर्ष पहले जब मैं ने अपनी बड़ी बेटी को जन्म लेते ही मार डाला था, तब आप मुझे सजा दिलवाना चाहती थीं. आप ने तब मुझे बहुत भलाबुरा कहा था. आप ने कहा था, ‘बेटियां अनमोल होती हैं. मार कर आप ने जघन्य अपराध किया है.’

‘‘आप की बातों ने मेरी रातों की नींद और दिन का चैन खत्म कर दिया था. इसलिए जब मेरी दूसरी बेटी का जन्म हुआ तब मुझे लगा कि प्रकृति ने मुझे भूल सुधारने का मौका दिया है. मैं ने प्रायश्चित करना चाहा. उस का नाम मैं ने ‘परी’ रखा. बड़े जतन और लाड़ से मैं ने उसे पाला. अपनी हैसियत के अनुसार उसे पढ़ाया और लिखाया. वह मेरी जान थी.

‘‘मैं ने निश्चय किया कि उसे दुनिया की हर खुशी दूंगा. मैं हर दिन मन ही मन आप को आशीष देता कि आप ने मुझे ‘पुत्रीसुख’ से वंचित होने से बचा लिया. मेरी परी बड़ी प्यारी, सुंदर, होनहार और समझदार थी. मैं ने उस की शादी बड़े अरमानों से की. अपनी सारी जमापूंजी लगा दी. मित्रों और रिश्तेदारों से उधार लिया. किसी तरह की कमी नहीं की. पर दुनिया ने उस के साथ वही किया जो मैं ने 22 साल पहले अपनी बड़ी बेटी के साथ किया था. उसे मार डाला. तब सिर्फ मैं दोषी क्यों हूं? मुझे खुशी है कि मेरी बड़ी बेटी को इस कू्रर दुनिया के दुखों और भेदभाव को सहना नहीं पड़ा. छोटी बेटी को समाज ने हर वह दुख दिया जो एक कमजोर पिता की पुत्री को झेलना पड़ता है. ऐसे में सजा किसे मिलनी चाहिए? मुझे या इस समाज को?

‘‘अब आप बताइए कि बेटियों को पालपोस कर बड़ा करने से क्या फायदा है? पलपल तिलतिल कर मरने से अच्छा नहीं है कि वे जन्म लेते ही इस दुनिया को छोड़ दें. कम से कम वे जिंदगी की तमाम तकलीफों को झेलने से तो बच जाएंगी. मेरे जैसे कमजोर पिता की बेटियों का भविष्य ऐसा ही होता है. उन्हें जिंदगी के हर कदम पर दुखदर्द झेलने पड़ते हैं. काश, मैं ने अपनी छोटी बेटी को भी जन्म लेते ही मार दिया होता.

‘‘आप मुझे बताइए, क्या कहीं ऐसी दुनिया है जहां जन्म लेने वाली ये नन्ही परियां बिना भेदभाव के सुखद जीवन जी सकें? आप मुझे दोषी मानती हैं पर मैं इस समाज को दोषी मानता हूं. क्या कोई अपने बच्चे को इसलिए पालता है कि उसे यह नतीजा देखने को मिले या समाज हमें कमजोर होने की सजा दे रहा है? क्या सही क्या गलत, आप मुझे बताइए?’’

विनीता अवाक् थीं. मूक नजरों से राम नरेश के लाचार, कमजोर चेहरे को देख रही थीं. उन के पास जवाब नहीं था. आज एक नया नजरिया उन के सामने था. उन्होंने उस की फांसी की सजा को माफ करने की दया याचिका प्रैसिडैंट को भिजवा दी.

अगले दिन अखबार में विनीता के इस्तीफे की खबर छपी थी. उन्होंने वक्तव्य दिया था, ‘इस असमान सामाजिक व्यवस्था को सुधारने की जरूरत है. यह समाज लड़कियों को समान अधिकार नहीं देता है. जिस से न्याय, अन्याय बन जाता है, क्योंकि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं. गलत सामाजिक व्यवस्था न्याय को गुमराह करती है और लोगों का न्यायपालिका से भरोसा खत्म करती है. मैं इस गलत सामाजिक व्यवस्था के विरोध में न्यायाधीश पद से इस्तीफा देती हूं,’ उन्होंने अपने वक्तव्य में यह भी जोड़ा कि वे अब एक समाजसेवी संस्था के माध्यम से आमजन को कानूनी सलाह देंगी और साथ ही, गलत कानून को बदलवाएंगी भी.

तुम्हारे हिस्से में : भाग 3

‘‘सचमुच, यह तो मैं ने सोचा ही नहीं. यू आर रियली जीनियस, जेन,’’ हर्ष संजना के तर्क पर मुग्ध हो उठा, ‘‘पर लेनी तो प्योर सिल्क ही है यार.’’

‘‘प्योर सिल्क?’’ संजना चौंक पड़ी, ‘‘प्योर सिल्क के माने जानते भी हो?’’

‘‘पिछली बार वहां गया था तो दीवाली पर प्योर सिल्क देने का वादा कर के आया था,’’ हर्ष अपराधबोध से भर गया.

‘‘उफ, तुम भी न…’’ संजना बड़बड़ाई, ‘‘इस तरह के उलटेसीधे वादे करने से पहले थोड़ा तो सोचना चाहिए था न.’’

‘‘अब कुछ नहीं हो सकता, जेन. वादा कर आया हूं न. नहीं दी तो मम्मी क्या सोचेंगी?’’

‘‘ठीक है. कोई उपाय करते हैं,’’ संजना सोच में पड़ गई.

बाइक अलीपुर की ओर दौड़ने लगी. पीछे बैठी संजना ने बायां हाथ आगे ले जा कर हर्ष की कमर को लपेट लिया. संजना की सांसों की मखमली खुशबू हर्ष को सनसनी से भर दे रही थी.

रासबिहारी मैट्रो स्टेशन के पास एक ठीकठाक शोरूम के आगे बाइक रुकी. दोनों भीतर चले आए. उन के हाथों में भारीभरकम भड़कीले पैकेट्स देख कर काउंटर के पीछे बैठे मुखर्जी बाबू मन ही मन चौंके. ऐसे हाईफाई ग्राहक का उन के साधारण से शोरूम में क्या काम?

‘‘वैलकम मैडम, क्या सेवा करें?’’ हड़बड़ा कर खड़े हो गए मुखर्जी बाबू.

‘‘प्योर सिल्क की एक साड़ी लेनी है हमें. कुछ बढि़या डिजाइनें दिखाइए.’’

मुखर्जी बाबू ने सहायक को संकेत दिया. देखते ही देखते काउंटर पर दसियों साडि़यां आ गिरीं. मुखर्जी बाबू उत्साहपूर्वक एकएक साड़ी खोल कर डिजाइन व रंगों की प्रशंसा करने लगे. संजना ने साड़ी पर चिपके प्राइस टैग पर नजर डाली, 3 से 4 हजार की थीं साडि़यां. उस ने हर्ष की ओर देखा.

‘‘तनिक कम रेंज की दिखाइए दादा,’’ संजना धीमे से बोली.

‘‘मैडम, इस से कम प्राइस में अच्छी क्वालिटी की प्योर सिल्क नहीं आएगी. सिंथेटिक दिखा दें?’’ मुखर्जी बाबू सोच रहे थे, ‘इतना मालदार आसामी प्राइस देख कर हड़क क्यों रहा है?’

‘‘प्योर सिल्क ही लेनी है,’’ संजना रुखाई से बोली. फिर तमतमाई आंखों से हर्ष की ओर देखा. दोनों अंगरेजी में बातें करने लगे.

‘‘तुम्हारी मम्मी का दिमाग सनक गया है. माना 40-45 की ही हैं अभी, पर हमारे समाज में विधवा स्त्री को ज्यादा कीमती और फैशनेबल साड़ी पहनना वर्जित है. यह बात उन्हें सोचनी चाहिए. मुंह उठाया और प्योर सिल्क मांग लिया, हुंह. प्योर सिल्क का दाम भी पता है? प्योर सिल्क पहनने का चाव चढ़ा है.’’

‘‘आय एम सौरी, जेन. वायदा कर चुका हूं न. अब कोई उपाय नहीं,’’

हर्ष ने भूल स्वीकारते हुए अफसोस जाहिर किया.

उसे अच्छी तरह याद है. उस दिन दोस्तों के संग घूमफिर कर घर लौटा तो रात के 10 बज रहे थे. मम्मी बिना खाए उस का इंतजार कर रही थीं. दोनों ने साथ भोजन किया. फिर वह मम्मी की गोद में सिर रख कर लेट गया. नीचे मम्मी की गोद की अलौकिक ऊष्मा. ऊपर चेहरे पर उस के ममता भरे हाथों का शीतल स्पर्श. न जाने कैसा सम्मोहन घुला था इन में कि झपकी आ गई. काफी दिनों के बाद एक सुकून भरी नींद. 3 घंटे बाद अचानक नींद टूटी तो देखा, मम्मी ज्यों की त्यों बैठी बालों में उंगलियां फिरा रही हैं.

उन्हीं क्षणों के दौरान उस के मुंह से निकल गया, ‘इस बार दीवाली पर अच्छी सी प्योर सिल्क की साड़ी दूंगा तुम्हें.’ यह सुन कर मम्मी सिर्फ मुसकरा भर दी थीं.

हर्ष और जेन के बीच बातचीत भले ही अंगरेजी में हो रही थी और मुखर्जी बाबू को अंगरेजी की समझ कम थी, फिर भी उन्हें ताड़ते देर नहीं लगी.

‘‘मैडम,’’ मुखर्जी बाबू ने सिर खुजलाते हुए अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा, ‘‘यदि बुरा न मानें तो क्या हम पूछ सकते हैं कि साड़ी किस के लिए ले रही हैं?’’

इस के पहले कि इस अटपटे प्रश्न पर दोनों हत्थे से उखड़ जाते, मुखर्जी बाबू ने झट से स्पष्टीकरण भी पेश कर दिया, ‘‘न, न, मैडम, अन्यथा न लें, सिर्फ इसलिए पूछा कि हम उस के अनुकूल दूसरा किफायती औप्शन बता सकें.’’

संजना ने हिचकिचाते हुए मन की गांठ खोल दी, ‘‘साहब की विडो (विधवा) मदर के लिए.’’

पलक झपकते मुखर्जी बाबू के जेहन में पूरा माजरा बेपरदा हो गया. मैडम ने साहब की मां को ‘मम्मी’ नहीं कहा, ‘सासूमां’ भी नहीं कहा, बल्कि ‘साहब की विडो मदर’ कहा और साहब कार्टून की तरह खड़ा दुम हिलाता ‘खीखी’ करता रहा.

‘‘आप का काम हो गया,’’ उन्होंने सहायक को कुछ अबूझ से संकेत दिए. थोड़ी देर में ही काउंटर पर प्योर सिल्क का नया बंडल दस्ती बम की तरह आ गिरा. एक से एक खूबसूरत प्रिंट. एक से एक लुभावने कलर.

‘‘वैसे तो ये साडि़यां भी 4 हजार से ऊपर की ही हैं मैडम, पर हम इन्हें सिर्फ 800 रुपए में सेल कर रहे हैं. लोडिंगअनलोडिंग के समय हुक लग जाने से या चूहे के काट देने से माल में छोटामोटा छेद हो जाता है. हमारा ट्रैंड कारीगर प्लास्टिक सर्जरी कर के उस नुक्स को इस माफिक ठीक करता है कि साड़ी एकदम नई हो जाती है. सरसरी नजर से देखने पर नुक्स बिलकुल भी पता नहीं चलेगा.’’

‘‘यानी कि रफू की हुई,’’ संजना हकला उठी.

‘‘रफू नहीं मैडम, प्लास्टिक सर्जरी बोलिए. रफू तो देहाती शब्द है. आप खुद देखिए न.’’

सचमुच, बिलकुल नई और बेदाग साडि़यां. जहांतहां छोटेछोटे डिजाइनर तारे नजर आ रहे थे जो साड़ी की खूबसूरती को बढ़ा ही रहे थे. सरसरी तौर पर कोई भी नुक्स नहीं दिख रहा था साडि़यों में, दोनों की बाछें खिल उठीं. आंखों में ‘यूरेकायूरेका’ के भाव उभर आए, मन तनावमुक्त हो गया जैसे जेन का.

आननफानन ढेर में से एक साड़ी चुनी गई और पैक हो कर आ गई. यह नया पैकेट मौल के पैकेटों के बीच ऐसा लग रहा था जैसे प्राइवेट स्कूल के बच्चों के बीच किसी सरकारी स्कूल का बच्चा आ घुसा हो.

‘‘मैं ने कहा था न, सही मौका आते ही क्रैडिट कार्ड की खरोंचों पर रफू लगा दूंगी. देख लो, तुम्हारा वादा भी पूरा हो गया और चिराग पर पूरे 3 हजार का रफू भी लग गया.’’

‘‘यू आर जीनियस, जेन,’’ हर्ष की प्रशंसा सुन कर संजना खिलखिलाई तो बालों की कई महीन लटें पहले की ही तरह आंखों के सामने से होती हुई होंठों तक चली आईं. बाइक की ओर बढ़ते हुए दोनों के चेहरे खिले हुए थे.

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