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तपस्या : भाग 3

‘‘अब बहू भी एम.ए. की पढ़ाई कर रही है. चाहती है, नौकरी कर ले.’’

‘‘नौकरी,’’ पहली बार कुछ चुभा शिखर के मन में. इतने रुपए हर महीने  भेजता हूं, क्या काफी नहीं होते?

तभी उस की मां बोलीं, ‘‘अच्छा है. मन तो लगेगा उस का.’’

वह सुन कर चुप रह गया था. पहली बार उसे ध्यान आया, इतनी बातों के बीच इस बार मां ने एक बार भी नहीं कहा कि तू बहू को अपने साथ ले जा. वैसे तो हर चिट्ठी में उन की यही रट रहती थी. शायद अब अभ्यस्त हो गई हैं  या जान गई हैं कि वह नहीं ले जाना चाहेगा. हाथमुंह धो कर वह अपने किसी दोस्त से मिलने के लिए घर से निकला  पर मन ही नहीं हुआ जाने का.

शैली ने शोभा को अपने जेवर दे  दिए, एक यही बात उस  के मन में गूंज रही थी. वह तो शैली और उस के पिता  दोनों को ही बेहद स्वार्थी समझता रहा था जो सिर्फ अपना मतलब हल करना जानते हों. जब से शैली के पिता ने उस के बौस से कह कर उस पर शादी के लिए दबाव डलवाया था तभी से उस का मन इस परिवार के लिए नफरत से भर गया था और उस ने सोच लिया था कि मौका पड़ने पर वह भी इन लोगों से बदला ले कर रहेगा. उस की तो अभी 2-4 साल शादी करने की इच्छा नहीं थी, पर इन लोगों ने चतुराई से उस के भोलेभाले पिता को फांस लिया. यही सोचता था वह अब तक.

फिर शैली का हर समय चुप रहना उसे खल जाता. कभी अपनेआप पत्र भी तो नहीं लिखा था उस ने. ठीक है, दिखाती रहो अपना घमंड. लौट आया तो  मां ने उस का खाना परोस दिया था. पास ही बैठी बड़े चाव से खिलाती रही थीं. शैली रसोई में ही थी. उसे लग रहा था कि  शैली जानबूझ कर ही उस  के सामने आने से कतरा रही है.

खाना खा कर उस ने कोई पत्रिका उठा ली थी. मां और शैली ने भी खाना खा लिया था. फिर मां को दवाई  दे कर शैली मां  के कमरे से जुड़े अपने छोटे से कमरे में चली गई और कमरे की बत्ती जला दी थी.

देर तक नींद नहीं आई थी शिखर को. 2-3 बार बीच में पानी पीने के बहाने  वह उठा भी था. फिर याद आया था पानी का जग  तो शैली  कमरे में ही  रख गई थी. कई बार इच्छा हुई थी चुपचाप उठ कर शैली को  आवाज देने की. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आज  पहली बार उसे क्या हो रहा है. मन ही मन वह अपने परिवार के बारे में सोचता रहा था. वह सगा बेटा हो कर भी घरपरिवार का इतना ध्यान नहीं रख पा रहा था. फिर शैली तो दूसरे घर की है. इसे क्या जरूरत है सब के लिए मरनेखपने की, जबकि उस का पति ही उस की खोजखबर नहीं ले रहा हो? पूरी रात वह सो नहीं सका था.

दूसरा दिन मां को डाक्टर के यहां दिखाने के लिए ले जाने, सारे परीक्षण फिर से करवाने में बीता था.

सारी दौड़धूप में शाम तक काफी थक चुका था वह. शैली अकेली कैसे कर पाती होगी? दिनभर वह भी तो मां के साथ ही उन्हें सहारा दे कर चलती रही थी. फिर थकान के  बावजूद रात को मां से पूछ कर उस की पसंद के कई व्यंजन  खाने  में बना लिए थे.

‘‘मां, तुम लोग भी साथ ही खा लो न,’’ शैली की तरफ देखते हुए उस ने कहा था.

‘‘नहीं, बेटे, तू पहले गरमगरम खा ले,’’ मां का स्वर लाड़ में भीगा हुआ था.

कमरे में आज अखबार पढ़ते हुए शिखर का मन जैसे उधर ही उलझा रहा था. मां ने शायद खाना खा लिया था, ‘‘बहू, मैं तो थक गईर् हूं्. दवाई दे कर बत्ती बुझा दे,’’ उन की आवाज आ रही थी. उधर शैली रसोईघर में सब सामान समेट रही थी.

‘‘एक प्याला कौफी मिल सकेगी क्या?’’ रसोई के दरवाजे पर खड़े हो कर उस ने कहा था.

शैली ने नजर उठा कर देखा भर था. क्या था उन नजरों में, शिखर जैसे सामना ही नहीं कर पा रहा था.

शैली कौफी का कप मेज पर रख कर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि शिखर की आवाज सुनाई दी, ‘‘आओ, बैठो.’’

उस के कदम ठिठक से गए थे. दूर की कुरसी की तरफ बैठने को उस के कदम बढ़े ही थे कि शिखर ने धीरे से हाथ खींच कर उसे अपने पास पलंग पर बिठा लिया था.

लज्जा से सिमटी वह कुछ बोल भी नहीं पाई थी.

‘‘मां की तबीयत अब तो काफी ठीक जान पड़ रही है,’’ दो क्षण रुक कर शिखर ने बात शुरू करने का प्रयास किया था.

‘‘हां, 2 दिन से घर में खूब चलफिर रही हैं,’’ शैली ने जवाब में कहा था. फिर जैसे उसे कुछ याद हो आया था और वह बोली थी, ‘‘आप शोभा जीजी से भी मिलने जाएंगे न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘मांजी को भी साथ ले जाइएगा. थोड़ा परिवर्तन हो जाएगा तो उन का मन बदल जाएगा. वैसे….घर से जा भी कहां पाती हैं.’’

शिखर चुपचाप शैली की तरफ देखता भर रहा था.

‘‘मां को ही क्यों, मैं तुम्हें भी साथ ले चलूंगा, सदा के लिए अपने साथ.’’

धीरे से शैली को उस ने अपने पास खींच लिया था. उस के कंधों से लगी शैली का मन जैसे उन सुमधुर क्षणों में सदा के लिए डूब जाना चाह रहा था.

अपने अपने रास्ते : भाग 3

वहां का माहौल बहुत रोमानी हो चला था. विवेक ने अपना गिलास खत्म किया और उठ खड़ा हुआ. सिर नवाता हुआ मिस रोज की तरफ देखता हुआ बोला, ‘‘लैट अस हैव ए राउंड.’’

मिस रोज मुसकराई. उस ने अपना गिलास खत्म किया और उठ कर अपना बायां हाथ विवेक के हाथ में  थमा दिया. उस की पीठ पर अपनी बांह फिसला विवेक उसे डांसिंग फ्लोर की तरफ ले गया. दोनों साथसाथ थिरकने लगे.

सविता ईर्ष्यालु नहीं थी. उस ने कभी ईर्ष्या नहीं की. मुकाबला नहीं किया था. मगर आज जाने क्यों ईर्ष्या से भर उठी थी. हालांकि वह जानती थी. आयात- निर्यात के धंधे में विदेशी ग्राहकों को ऐंटरटेन करना व्यवसाय सुलभ था, कोई अनोखी बात न थी.

मगर आज वह एक खास मकसद से विवेक के पास आई थी. इस खास अवसर पर उस का किसी अन्य के साथ जाना, चाहे वह ग्राहक ही क्यों न हो, उसे सहन नहीं हो रहा था.

पहला राउंड खत्म हुआ. विवेक बतरा चहकता हुआ मिस रोज को बांहों में पिरोए वापस आया. मिस रोज ने कुरसी पर बैठते हुए कहा, ‘‘सविताजी, आप के साथी बतरा बहुत मंझे हुए डांसर हैं, मेरी तो कमर टूट रही है.’’

‘‘मिस रोज, यह डांसर के साथसाथ और भी बहुत कुछ हैं,’’ सविता ने हंसते हुए कहा.

‘‘बहुत कुछ का क्या मतलब है?’’

‘‘यह मिस्टर बतरा धीरेधीरे समझा देंगे.’’

डांस का दूसरा दौर शुरू हुआ. विवेक उठ खड़ा हुआ. उस ने अपना हाथ मिस रोज की तरफ बढ़ाया, ‘‘कम अलांग मिस रोज लैट अस हैव अ न्यू राउंड.’’

‘‘आई एम सौरी, मिस्टर बतरा. मैं थक रही हूं. आप अपनी पार्टनर को ले जाएं,’’ मिस रोजी ने अर्थपूर्ण नजरों से सविता की तरफ देखते हुए कहा.

इस पर विवेक बतरा ने अपना हाथ सविता की तरफ बढ़ा दिया. सविता निर्विकार ढंग से उठी. विवेक बतरा ने अपनी एक बांह उस की कमर में पिरोई और उसे अपने साथ सहारा दे कर डांसिंग फ्लोर पर ले गया.

सविता पहले भी विवेक के साथ डांसिंग फ्लोर पर आई थी. मगर आज उस को विवेक के बाहुपाश में वैसी शिद्दत, वैसा जोश, उमंग और शोखी नहीं महसूस हुई जिन्हें वह हर डांस में महसूस करती थी. दोनों को लग रहा था मानो वे प्रोफेशनल डांसर हों, जो औपचारिक तौर पर डांस कर रहे थे.

विवेक बतरा मुड़मुड़ कर मिस रोज की तरफ देख रहा था. स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है. वह न सौत सह सकती है न मुकाबला या तुलना. विवेक बतरा अनजाने में यह सब कर उसे उत्पीडि़त कर रहा था.

आज से पहले सविता ने कभी विवेक बतरा के व्यवहार की समीक्षा न की थी. उस ने अपने दफ्तर और व्यापार में उस  की खामखा की दखलंदाजी और अनावश्यक रौब जमाने की प्रवृत्ति को यह सोच कर सह लिया था कि वह उस से शादी करने वाली था. मगर आज मात्र 1 घंटे में उस की सोच बदल गई थी.

उस के पूर्व पति ने अपनी हीन भावनावश उस को हमेशा सताया था. बेवजह शक किया था. विवेक बतरा उस के पूर्व पति की तुलना में प्रभावशाली व्यक्तित्व का था. वह भी कल को शादी के बाद उसे सता सकता है. एक बार पति का दर्जा पाने पर या पार्टनर बन जाने पर कंपनी का सारा नियंत्रण अपने हाथ में ले सकता है.

आज मात्र एक नई उम्र की हसीना के रूबरू होने पर उस का ऐसा व्यवहार था, कल न जाने क्या होगा?

विवेक बतरा को भी मिस रोज, जो आयु में सविता से काफी छोटी थी, ताजे और खिले गुलाब जैसी लगी थी. उस की तुलना में सविता एक पके फल जैसी थी, जिस में मिठास पूरी थी, मगर यह मिठास ज्यादा होने पर उबा देती थी. इस मिठास में जीभ को ताजगी भरने वाली खास मिठास न थी जो पेड़ से तोड़े गए ताजे फल में होती थी.

डांस का दूसरा दौर समाप्त हुआ. कई महीने से जो फैसला न हो पाया था, मात्र 45 मिनट के डांसिंग सेशन में हो गया था.

नई मोमबत्तियां लग गईं. खाना काफी लजीज था. मिस रोज ने खाने की तारीफ के साथ आगे फिर मिलने की बात कहते हुई विदा ली. विवेक बतरा उसे छोड़ने बाहर तक गया. सविता निर्विकार भाव से सब देख रही थी.

मिस रोज को छोड़ कर विवेक वापस आया तो बोला, ‘‘सविता डार्लिंग, आज आप को अपना फैसला सुनाना था?’’

‘‘क्या जरूरत है?’’ लापरवाही से सविता ने कहा.

‘‘आप ने आज ही तो कहा था,’’ विवेक बतरा जैसे याद दिला रहा था.

‘‘हम दोनों में जो है वह शादी के बिना भी चल सकता है.’’

‘‘मगर शादी फिर शादी होती है.’’

‘‘देखिए, मिस्टर बतरा, जब तक फासला होता है तभी तक हर चीज आकर्षक नजर आती है. पहाड़ हम से दूर हैं, हमें सुंदर लगते हैं मगर जब हम उन पर जाते हैं तब हमें पत्थर नजर आते हैं. आज मैं थोड़ी जवान हूं, कल को प्रौढ़, वृद्धा हो जाऊंगी मगर आप तब भी जवान होंगे. तब आप को संतुष्टि के लिए नई कली का रस ही सुहाएगा, इसलिए अच्छा है आप अभी से नई कली ढूंढ़ लें. मैं आप की व्यापार में सहयोगी ही ठीक हूं.’’

विवेक बतरा भौचक्क था. उसे ऐसे रोमानी माहौल में ऐसे विपरीत फैसले की उम्मीद न थी. वेटर को 500 रुपए का नोट टिप के लिए थमा, सविता सधे कदमों से वापस चली गई. ‘रिंग सेरेमनी’ की अंगूठी बंद की बंद ही रह गई थी.

डांस फ्लोर पर डांस का नया दौर आरंभ हो रहा था.

मेरी पत्नी 7 महीने से मायके में है, बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं एक साधारण परिवार का युवक हूं, लेकिन मेरी पत्नी अमीर घर की एकलौती लाड़ली बेटी है जो अपने मांबाप को बहुत प्यार करती है. वह उन्हीं के साथ रहना चाहती है. पिछले 7 महीने से वह मायके में ही रह रही है और कहती है कि मैं भी वहीं तबादला करवा लूं. मैं ने अपने ट्रांसफर की अर्जी भी दे दी है. पर इन सब बातों से मैं बहुत ज्यादा परेशान हूं. वैसे मैं जब भी ससुराल जाता हूं तो वहां से अपमानित हो कर ही लौटता हूं लेकिन मैं पत्नी को भी बहुत ज्यादा प्यार करता हूं और उसे छोड़ नहीं सकता. कुछ समझ नहीं आ रहा?

जवाब

यदि पत्नी का मायका अमीर है तो स्वाभाविक है कि वह ज्यादा से ज्यादा उन्हीं सुखसुविधाओं में रहना चाहेगी. यह तो आप को विवाह के समय सोचना चाहिए था. अब आप को  संतुलन बना कर चलना होगा. आप चाहे अपना तबादला पत्नी के मायके के शहर में करवा लें, पर काम से बिलकुल भी जी न चुराएं और हर संभव अपना आर्थिक स्तर सुधारने की कोशिश करें.

नौकरी में आप को सफलता मिली तो पत्नी भी आप की इज्जत करने लगेगी. पत्नी को प्यार के साथसाथ पैसा भी चाहिए जो आप मेहनत कर के कमा सकते हैं. साथ ही, पत्नी को यह एहसास भी करवाएं कि लड़की की इज्जत ससुराल में रह कर होती है, न कि मायके में रह कर.

सांझ की सखियां : भाग 3

भवानी वैसे भी कालेज की प्राचार्या रह चुकी थीं. पति के न रहने पर जीवन में बहुत उतारचढाव  देख चुकी थी. सो एक दिन निशा की मां से बोली, “उषाजी, क्यों न हम अपनेअपने काम की पारी बांध लें. एक दिन यदि आप नाश्ता बनाएंगी तो अगले दिन मैं. आप सुबह का खाना बनाएंगीbतो शाम का मैं.

“इस तरह हम अपनीअपनी  पसंद का खाना बना सकते हैं. हमारे ही तो बच्चे हैं तीनों, उन्हें भी उत्तर और दक्षिण भारतीय दोनों तरह का खाना और साथ ही मां के हाथ का स्वाद भी मिलेगा.”

निशा की मां उषा भी बात को समझते हुए बोलीं, “हांजी, आप ठीक ही कहती हैं, इस से घर की  व्यवस्था सुचारु रूप से चलेगी. जब आप पकाएंगी, मैं समझूंगी आज मैं चेन्नई में हूं और जब मैं पकाऊंगी आप को दालबाटीचूरमा खिलाते हुए बातोंबातों में पूरा राजस्थान दर्शन का टूर करवा दूंगी.”

दोनों के ठहाकों से घर का डायनिंग एरिया गूंज उठा.

ऋत्विक पास ही बैठा उन दोनों के साथ पत्ता सब्जी साफ करते हुए ये सब सुन रहा था. वह चहक कर बोला और मैं कभी साउथ इंडियन ज्वाइंट के शेफ के हाथ का खाना खाऊंगा और कभी राजस्थानी चोखीढाणी के मजे लूंगा. एक बार जब नानी के यहां गया था, तो पापा मुझे जयपुर घुमाने ले गए थे, तब मैं चोखीढाणी गया था, बहुत मजा आया था.

करीब एक वर्ष बीत गया था. सेकंड वेब अपने जोरों पर थी, निशा के पिता की बरसी करीब आ रही थी.

निशा की मां ने जब यह बात भवानी को बताई, तो भवानी बोली, “अब बदलते समय के साथ हमें भी तो बदलना होगा न बहनजी, इस समय सब से बड़ा धर्म  है मानवता का धर्म. यों करिए, अपनी ही सोसायटी के स्टाफ को दालचावल के पैकेट वितरित करवा दीजिए. इस समय रिश्तेदारों को जमा करना तो उचित नहीं और संभव भी नहीं.”

“जी, आप ठीक कहती हैं बहनजी, ये कोरोना न जाने कितने अंधविश्वासों और पाखंडों से मुक्ति दिला कर जाएगा. उन का अंतिम संस्कार भी तो रीतिरिवाजों के अनुसार कहां हुआ? क्या करती, समय ही ऐसा आया है.”

“जी, आप ठीक कहती हैं,  देखिए न, इस बार जनवरी में जब पोंगल आया था, तो मैं ने दक्षिण भारतीय रीति से मनाया और आप ने खिचड़ी का दान किया.”

“और हां, दादी आप ने होली का मीठा केसरिया चावल भी तो खाया नानी के हाथ का बना हुआ,” ऋत्विक ने दादी को याद दिलाया.

“हां ऋत्विक, तुम्हारी नानी ने बहुत अच्चा बनाया वह केसरिया भाथ.”

“अच्चा नहीं दादी, अच्छा और भाथ नहीं भात,” ऋत्विक ने दादी को सही उच्चारण बताया, तो भवानी हंस पड़ी.

“चलो, बरसी का तो आप ने बता दिया कि कैसे करनी है? अब ये बताइए कि इस के बाद आप का कौन सा त्योहार आ रहा है?”

“ये आप काआप का क्या है? अब जो है हमारा है. बच्चे भी तो हम दोनों के ही हैं न, देखा नहीं, जब से हम दोनों में सामंजस्य बैठा है, निशा और बाला कितने खुश नजर आते हैं. हम दोनों सारे त्योहार दोनों की रीतियों के अनुसार मनाएंगे.”

“अच्छा है न मां, इस से ऋत्विक भी हमारे उत्तर व दक्षिण भारतीय दोनों त्योहारों के आनंद लेगा,”  बाला ने फ्रिज से पानी की बोतल निकालते हुए कहा.

“हां, और मैं भी बहुत खुश हूं. दादी उपमा खिलाती हैं, नानी पोहा. दादी सांभरराइस देती हैं, तो नानी छोलाचावल. दादी सादमतैयर खिलाती हैं और नानी दहीरोटी चूरचूर के. मुझे तो बहुत सारी वैरायटी का खाना मिलता है अब. पहले मम्मी ने कुक रखी हुई थी. वह एकदम बकवास खाना पकाती थी. कभीकभी मम्मी उसे डांटती थीं, तो उस दिन ठीक से बनाती, फिर वही कच्चापक्का.”

“ऋत्विक मेरी शिकायत कर रहे हो दादीनानी से,”  निशा ने आवाज लगाई.

“शिकायत नहीं बात बता रहा हूं. कैसा खाना मिलता था पहले यक्क.”

“अब तो तुम्हें वह खाना यक्क ही लगेगा, दादीनानी किचन जो चालू रहता है हर वक्त और तुम्हें ताजा और स्वादिष्ठ खाना भी तो मिलता है.”

“हेल्दी भी और टेस्टी भी,” दादी ने कहा.

“हां, मल्टीक्युजीन” नानी ने बात जोड़ी.

सभी खिलखिला कर हंस पड़े. घर में पिछले एक वर्ष से कोरोना की दहशत थी, वह न जाने कहां गायब हो गई थी. निशा की मां भी अपने पति की मृत्यु के उपरांत अब एकाकी महसूस नहीं कर रही थीं.

भवानी ने बाला से कहा, “अब मदुरै का घर रख कर क्या करना है, उचित समय देख कर किसी अच्छी कीमत देने वाले ग्राहक को वह घर बेच दो. मेरा तो यहां मन लग गया है और उषाजी सखी के रूप में मिल गई हैं.”

“और हां, अब पापामम्मी आप को मेरी फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है. मुझे तो दादीनानी फ्रेंड्स मिल गई हैं. आज रात को मैं इन को मोनोपोली गेम सिखाऊंगा.”

“और छुट्टी के दिन एक समय का खाना मैं बनाऊँगी,” निशा ने कहा.

“दादीनानी आप दोनों अपनी मनपसंद फिल्म देखना टीवी पर,” बाला ने निशा की बात में अपनी मंशा भी जोड़ दी.

दोनों सखियां अपनी सांझ के दिन हंसीठहाकों के साथ बिता रही थीं.

कद्रदान : भाग 3

‘‘ठीक है दीदी, आप चलिए सब इंतजाम आप के मुताबिक हो जाएगा,’’ कह कर दीप्ति एक आज्ञाकारी भाभी की तरह चुपचाप दीदी के पीछेपीछे चल दी मानो घर उस का नहीं, प्रभा दीदी का हो.

प्रभा दीदी को नहानेधोने, तैयार होने और फिर जलपान करने में तकरीबन 2 घंटे लग गए. इन सब कामों के बीच में वह एक नजर मकान की दीवारों पर भी डाल लेती थी. कभी खिड़कियों पर लगे परदों को एक अजीब सी निगाहों से देखती थी तो कभी फर्श को देखते समय हलकी सी भवें चढ़ा लेती थी.

इस से पहले कि समीर और दीप्ति उन से मकान देखने के लिए कहते वे खुद ही उठ कर चल दीं और घूमघूम कर उन के नवनिर्मित आशियाने का अवलोकन करने लगीं.

‘‘समीर, तू ने फर्श पर यह टाइल्स लगा कर अच्छा काम नहीं किया. यहां इटालियन मार्बल लगवाना चाहिए था.’’

‘‘दीदी, आजकल सब टाइल्स ही लगवाते हैं. आर्किटैक्ट ने टाइल्स लगवाने को ही कहा था.’’

‘‘अरे, ये आर्किटैक्ट भी मुंह देख कर ही टीका निकालते हैं. तू ने ही उस के आगे अपने बजट का रोना रोया होगा. बेचारे ने सस्ते में निबटा दिया और क्या करता? मकान की मट्ठ ही मार दी टाइल्स लगवा कर और यह देख, बाथरूम में नल भी पुराने फैशन के लगवाए हैं. आजकल ऐसे नल कौन लगवाता है और यह बेसिन? काउंटर क्यों नहीं बनवाए? शौवर भी छोटा है,’’ कहतेकहते दीदी रसोई की ओर बढ़ गईं.

‘‘बाप रे, नीले रंग की टाइल्स… भला किचन में भी कोई नीले रंग की टाइल्स लगवाता है? सफेद या क्रीम ही ठीक रहती हैं और मु?ो तो यह लोकल ब्रैंड लग रहा है. देखना, कुछ ही दिनों में इन की चमक खत्म हो जाएगी,’’ बोलतेबोलते दीदी की नजर अचानक पंखों पर पड़ी पर उन्हें देख कर वे कुछ न बोलीं.

आगेआगे दीदी पीछेपीछे समीर और दीप्ति एक अपराधी की तरह चल रहे थे मानो उन्होंने ऐसा घटिया मकान बनवा कर कोई बड़ा अपराध किया हो. कल तक जो प्रेमा और उस के पति के मुंह से की गई प्रशंसा सुनसुन कर फूले नहीं समा रहे थे, आज प्रभा दीदी की बातें सुनसुन कर वे शर्म से पानीपानी हो रहे थे. उन के मन में हीनभावना घर करती जा रही थी.

उन्हें ऐसा लग रहा था कि दीदी की पारखी नजरें मकान में लगी हर वस्तु को भेद रही हैं और न जाने वे किस चीज में क्या नुक्स निकाल दें. सो, उन के कान प्रतिक्षण ऐसी किसी अप्रिय बात के लिए कमर कस कर बैठे थे. खैर, ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डरना? उन्होंने स्वयं ही बड़े चाव से प्रभा दीदी को यहां आने का न्योता दिया था जबकि वे अच्छी तरह जानते थे कि उन के यहां आने पर ऐसा ही होने वाला है.

अब समीर और दीप्ति को मकान दिखाने में अधिक रुचि नहीं थी. सो, दीप्ति बोली, ‘‘दीदी, आप के लिए नाश्ता लगवा दिया है. नाश्ता कर लीजिए. मकान तो आप ने करीबकरीब सारा ही देख लिया है.’’

‘‘बस, इतना सा ही मकान बनवाया है? मकान है कि खिलौना? 2 कदम चले ही नहीं, कि खत्म हो गया. अरे भई, जब हम आएंगे, हमें कहां ठहराओगे? मु?ो तो नहीं लगता इस छोटे से घर में कोई हमारे ठहराने के लिए भी कमरा है.’’

‘‘दीदी, आप आइए तो सही. सारा घर आप का ही है,’’ समीर ने हंस कर बात टालते हुए कहा और हाथ पकड़ कर प्रभा दीदी को नाश्ता कराने ले गया.

‘‘सुबह की सारी तैयारियां हो गईं क्या? सामान और रिश्तेदारों को दिए जाने वाले उपहार यथास्थान रख देना ताकि समय पर भागदौड़ न मचे,’’ समीर ने रात को सोते समय दीप्ति को हिदायत दी.

‘‘सब तैयारी तो मैं ने पहले ही कर ली थी. सारा सामान अलगअलग कार्टनों में बंद कर के उन के ऊपर लेबल लगा दिए हैं ताकि कोई भी पकड़ा सके. इसी तरह रिश्तेदारों को दिए जाने वाले उपहार और कपड़े भी अलगअलग पैकेट्स में डाल कर ऊपर उन के नाम लिख दिए हैं. बस, पकड़ाने भर बाकी हैं. हां, पर एक फेरबदल करना जरूरी हो गया है.’’

‘‘अरे भाई, अब क्या फेरबदल बाकी रह गया? जो जैसा है ठीक है. क्या फर्क पड़ता है किसी के पास लाल साड़ी चली गई या पीली? रेशमी चली गई या सूती? तुम औरतों को न जाने क्यों इन्हीं सब बातों का ध्यान रहता है,’’ समीर बड़बड़ाया और बोला, ‘‘भई, मैं तो थक गया हूं. मैं तो सोऊंगा. तुम जानो, तुम्हारा काम.’’

समीर सो गया पर दीप्ति की आंखों में से नींद कोसों दूर थी. वह स्टोररूम में गई और वहां से 2 पैकेट उठा लाई. एक पैकेट पर प्रभा दीदी लिखा हुआ था और दूसरे पर प्रेमा दीदी. प्रभा देवी वाले पैकेट में महंगी साडि़यां तथा एक तोले की सोने की अंगूठी और एक सोने की चेन थी जबकि प्रेमा दीदी के पैकेट में उस के मुकाबले में हलकी साडि़यां थीं और केवल सोने की अंगूठी थी वह भी हलके वजन की.

दीप्ति ने पैन उठाया और जिस पैकेट पर प्रभा दीदी लिखा हुआ था उसे काट कर प्रेमा दीदी कर दिया क्योंकि आज उसे अच्छी तरह एहसास हो गया था कि प्रभा दीदी का जीवनस्तर उन से काफी ऊंचा है और वह अपनी तरफ से उन को चाहे कितनी भी अच्छी साड़ी या गहने दे उन को वह हलके ही लगेंगे तथा वे उन में नुक्स निकालेंगी ही. यह भी हो सकता है कि वह स्वयं इन चीजों का उपयोग न करें और इन्हें अपने नौकरचाकरों में बांट दें.

तो फिर उन्हें यह सब देने से क्या फायदा? यदि वह यही सब चीजें प्रेमा दीदी को देगी तो वे निश्चित रूप से उन की कद्र करेंगी और उन्हें खुशीखुशी स्वीकार भी करेंगी और यह सब दे कर हम एक तरह से उन्हें कुछ आर्थिक सहयोग भी दे पाएंगे जिस की उन्हें नितांत आवश्यकता है. बड़ों ने ठीक ही कहा है कि दान और उपहार देने के लिए भी सही पात्र का चुनाव करना चाहिए तभी उन का महत्त्व होता है. प्रभा दीदी को शगुन के तौर पर कुछ नगद राशि देनी ही ठीक रहेगी. यह सोच कर दीप्ति ने यह अप्रत्याशित निर्णय लिया जोकि वह कितने वर्षों तक नहीं ले पाई थी और सदा ही प्रभा दीदी की संपन्नता के वशीभूत हो कर उन का ही सम्मान तथा प्रेमा दीदी की उपेक्षा करती

आई थी.

उस ने मोबाइल उठा कर अगले दिन आने वाले पंडितों को भी बहाना बना कर मना कर दिया. जो पैसा भोज और दानदक्षिणा में जाना था वह प्रेमा दीदी के लिए कमरे में उसी समय एसी वाले को बोल कर लगवा दिया.

यह सब कर के दीप्ति उस कमरे की ओर गई जहां प्रेमा दीदी और उन का परिवार ठहरा हुआ था. वे सब अभी सोने की तैयारी कर ही रहे थे कि दीप्ति ने कहा, ‘‘दीदी, आप सामने वाले कमरे में सो जाइए. उस कमरे में एसी है. आज गरमी बहुत है. इस भयंकर गरमी में आप तथा बच्चे बिना एसी के परेशान हो जाएंगे.’’

‘‘अरे नहींनहीं, हम यहीं सो जाएंगे. हमें कौन सी एसी की आदत है.’’

‘‘तो क्या हुआ, आदत नहीं है तो हो जाएगी. समय बदलते क्या देर लगती है? और फिर जब यहां सुविधा है तो कम से कम 2 दिन तो उस का आनंद लीजिए,’’ कह कर दीप्ति मुसकरा दी और बच्चों का हाथ पकड़ कर एसी वाले कमरे की ओर ले गई.

कुछ ही देर में प्रेमा और उन का परिवार बड़े सुकून से एसी वाले कमरे में गहरी नींद सो गया पर प्रभा दीदी अपने कमरे में चक्कर काट रही थीं. उन्हें नींद नहीं आ रही थी क्योंकि उन की नजरों में उन के कमरे के पलंग के गद्दे आरामदायक नहीं थे और वहीं, कमरे में एक अमीरी का मच्छर भी था जो उन्हें निरंतर परेशान कर उन की नींद में खलल डाल रहा था.

इन कारणों से भी हो सकता है सिरदर्द, दिखें ये 10 लक्षण तो न करें नजरअंदाज

आम सा लगने वाला सिरदर्द किसी गंभीर समस्या की दस्तक हो सकता है. कैमिस्ट से ली दवाइयों पर टिके रहने पर आप अपनी जान खतरे में डाल सकते हैं. जानें कि कब सिरदर्द को हलके में न ले कर डाक्टर से मिलना जरूरी है.

अकसर सिरदर्द होने पर हम कौंबिफ्लेम, डिस्प्रिन जैसी दर्दनिवारक गोलियां खा लेते हैं इस बात पर गौर किए बगैर कि सिरदर्द केवल एक लक्षण है. सिरदर्द के कई कारण हो सकते हैं. साधारण चिंता से ले कर ब्रेन ट्यूमर जैसे जानलेवा रोग का लक्षण सिरदर्द हो सकता है. हम आप को डरा नहीं रहे हैं, लेकिन जब सिरदर्द लगातार बना रहे, या कुछ समयांतरालों पर होता हो और दर्दनिवारक गोली खाने के बाद भी आराम न आए, तो डाक्टर से संपर्क करना जरूरी है.

इंग्लैंड के गेट्सहेड में 21 साल की जेसिका केन को अचानक सिरदर्द हुआ. वह पेनकिलर खा कर सोई और उस की मौत हो गई. दरअसल, जेसिका को मेनिंगोकौकल मेनिनजाइटिस और सेप्टिकैमिया नाम की बीमारी हो गई थी जिस ने उस की जान ले ली. इस के लक्षण के तौर पर उभरे सिरदर्द को न समझते हुए उस ने दर्दनिवारक गोली खा ली और सोचा कि थोड़ी देर में ठीक हो जाएगा. लेकिन उस को ऐसा इंफैक्शन हो गया था जिस में बैक्टीरिया खून में प्रवेश करता है और बड़ी तेजी से फैलने लगता है. यह बैक्टीरिया खून में टौक्सिन्स रिलीज करने लगता है जो जानलेवा साबित हो गया.

दिल्ली के अनुज रमाकांत को बचपन से सिरदर्द की शिकायत रहती थी. मातापिता ने पहले सोचा कि स्कूल न जाने का बहाना बनाता है, उसे डांटडपट कर स्कूल भेज दिया जाता था. लेकिन वहां भी वह टीचर से सिरदर्द की शिकायत करता था. टीचर की सलाह पर मातापिता ने उसे आंखों के डाक्टर को दिखाया. अनुज को चश्मा लग गया, मगर फिर भी सिरदर्द से मुक्ति नहीं मिली. 2 वर्षों बाद पता चला कि उसे ब्रेन ट्यूमर है.

दरअसल, हम में से ज्यादातर लोग सिरदर्द, बहती नाक, छींक आना, हलका बुखार जैसी तकलीफों को बहुत हलके में लेते हैं और इन के इलाज के बारे में नहीं सोचते. इन तकलीफों को मौसमी बीमारी समझ कर उन का घरेलू उपाय कर लेते हैं या पेनकिलर खा कर काम में लग जाते हैं, जबकि ये लक्षण किसी गंभीर स्वास्थ्य समस्या के कारण भी हो सकते हैं. अगर इन पर समय रहते ध्यान न दिया जाए तो ये जिंदगी के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं. सिरदर्द भी ऐसा ही लक्षण है जिसे हलके में नहीं लेना चाहिए.

सौ से भी अधिक कारण हैं जिन से सिरदर्द पैदा होता है. सभी कारणों का उल्लेख यहां संभव नहीं है, मुख्य कारणों की चर्चा करते हैं.

सिरदर्द के सामान्य कारण

1. मसल्स में खिंचाव : आमतौर पर सिर की मसल्स में खिंचाव के कारण सिरदर्द होता है.

2. फिजिकल स्ट्रैस : लंबे वक्त तक शारीरिक मेहनत और डैस्क या कंप्यूटर के सामने बैठ कर घंटों काम करने से भी सिरदर्द होता है.

3. इमोशनल स्ट्रैस : किसी बात को ले कर मूड खराब होने या देर तक सोचते रहने से भी सिरदर्द हो सकता है. प्रेम में विफलता, धोखा, तनाव सिरदर्द का कारण बनते हैं.

4. जेनेटिक वजहें : सिरदर्द के लिए जेनेटिक कारण भी 20 फीसदी तक जिम्मेदार होते हैं. अगर आप के खानदान में किसी को माइग्रेन की समस्या है तो आप को भी यह तकलीफ हो सकती है, जिस के कारण तेज सिरदर्द होता है.

5. नींद पूरी न होना : नींद पूरी न होने से पूरा नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है और दिमाग की मसल्स में खिंचाव होता है, जिस से सिरदर्द होता है.

6. गैस की अधिकता : वक्त पर खाना न खाने से कई बार शरीर में ग्लूकोस की कमी हो जाती है या उलटासीधा भोजन करने से पेट में गैस बन जाती है, जिस से सिरदर्द हो सकता है.

7. स्मोकिंग और अल्कोहल : अल्कोहल के अधिक सेवन से भी सिरदर्द होता है. स्मोकिंग और अल्कोहल के सेवन से खून की नलियां और ब्लड सर्कुलेशन प्रभावित होता है, जिस से दिमाग तक खून ठीक से नहीं पहुंचता है और तेज सिरदर्द हो जाता है. अल्कोहल कम लें. साथ ही, डीहाइड्रेशन से बचने के लिए ड्रिंक करने के बाद खूब सारा पानी पीना चाहिए.

8. बीमारी : शरीर के दूसरे अंगों में बीमारियां जैसे कि आंख, कान, नाक और गले की दिक्कत से भी सिरदर्द होता है.

9. एन्वायरमैंटल फैक्टर : यह फैक्टर भी तेज सिरदर्द के लिए जिम्मेदार होता है, जैसे गाड़ी के इंजन से निकलने वाली कार्बनमोनोऔक्साइड सिरदर्द की वजह बन सकती है.

10. अन्य बीमारियां : लू लगना, हिस्टीरिया, मिरगी, तंत्रिका शूल, रजोधर्म, रजोनिवृत्ति, सिर की चोट तथा माइग्रेन सिरदर्द के कारण होते हैं. आंख तथा पुतली की मांसपेशियों के अत्यधिक तनाव से भी दर्द उत्पन्न होता है.

ध्यान देने की बातें

सिरदर्द खतरनाक हो सकते हैं. अगर कभी आप को निम्न सिरदर्द हों, तो तुरंत किसी अच्छे डाक्टर को दिखाइए :

1.  यदि सिरदर्द इतना तेज हो जैसा पहले कभी भी न हुआ हो.

2. पहली बार सिरदर्द हो और बहुत तीव्र हो.

3. यदि सिरदर्द के पहले उलटियां हुई हों.

4. सिरदर्द के साथ बेहोशी सी महसूस हो, शरीर का संतुलन बिगड़ रहा हो, जीभ लटपटाए, आवाज लड़खड़ाए, आंखों के आगे बारबार अंधेरा छाए.

5. यदि सिर का दर्द झुकने, खांसने, वजन उठाने से बढ़ता हो.

6.  यदि सिरदर्द ऐसा हो जो आप की नींद में व्यवधान डाले.

7. यदि रातभर ठीक से सोएं लेकिन उठते ही तेज सिरदर्द होता हो.

8. यदि आप की उम्र 55 वर्ष से ऊपर हो और सिरदर्द इस उम्र में आ कर पहली बार हुआ हो.

9. यदि सिरदर्द के साथ कनपटी की नसों को छूने या दबाने पर उन नसों में भी दर्द होता हो. आमतौर पर कनपटी दबाने से सिरदर्द कम होता है.

10. यदि सिरदर्द कुछ दिनों या सप्ताह से ही है लेकिन रोजरोज बढ़ता ही जा रहा हो.     

सिरदर्द के गंभीर कारण

1. ब्लड क्लौट : ब्रेन में अगर किसी तरह का ब्लड क्लौट बन जाए तो उस वजह से भी सिरदर्द होने लगता है. अगर आप को कभीकभार बहुत गंभीर सिरदर्द होने लगता है और दर्द बरदाश्त के बाहर हो जाए तो आप को अपने डाक्टर से संपर्क करना चाहिए. अगर समय रहते इलाज न हो तो यह ब्लड क्लौट स्ट्रोक में परिवर्तित हो सकता है जो जानलेवा भी साबित हो सकता है.

2. औप्टिक न्यूराइटिस : अगर आंखों के पीछे वाले सिर के हिस्से में दर्द हो रहा तो यह औप्टिक न्यूराइटिस का लक्षण हो सकता है. इस में ब्रेन से आंखों तक जानकारी पहुंचाने वाली नसों को नुकसान पहुंचता है जिस की वजह से देखने में दिक्कत होती है और कई बार रोशनी जा भी सकती है.

3. माइग्रेन या ट्यूमर : लंबे समय तक सिरदर्द की समस्या है तो विशेषज्ञ की सलाह जरूर लें. यह माइग्रेन, ट्यूमर या नर्वस सिस्टम से जुड़ी कोई दूसरी बीमारी भी हो सकती है. कभीकभी ज्यादा दिनों तक सिरदर्द से संवेदनशील अंगों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है, जिस से इन की कार्यक्षमता भी प्रभावित हो जाती है. सिरदर्द को ले कर भ्रम की स्थिति में कतई न रहें.

अतीत का साया : भाग 3

उन के मुख से अविनाश का नाम सुनते ही मृदुला को जैसी बिजली का  झटका लग गया था परंतु उस के बारे में और अधिक जानने की इच्छा तीव्र हो गई थी. मृदुला ने अविनाश की फैमिली के बारे में पूछ लिया. कविता की मां ने बताया कि प्रोफैसर अविनाश के साथ एक बड़ा हादसा हो गया. उन के मांबाप ने उन की शादी उन की बिना मरजी के एक कम पढ़ी लड़की से कर दी थी, जिसे अमेरिका बुलाना उतना ही असंभव था जितना उन का भारत जाना.

सो, उन्होंने उस की कमी एक अमेरिकी लड़की से शादी कर के पूरी कर ली थी, पर उसे अविनाश रास नहीं आए और वह उन्हें छोड़ कर किसी और हिंदुस्तानी के साथ चली गई. तब तो उन की हालत धोबी के कुत्ते जैसी हो गई थी. यह तो हमारे जैसे कुछ भारतीय लोगों ने उन्हें सहारा दिया था जो वे संभल पाए और आज इतने ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक हैं. पर फिर उन्होंने न शादी की और न ही भारत जाने का नाम लिया.

कहते हैं, ‘अब मेरा भारत में है ही कौन?’ उन्होंने तो अब अरुण जैसे भारतीय विद्यार्थियों को ही अपना सबकुछ मान लिया है.

इस से अधिक सुनने की क्षमता मृदुला में न थी. जैसेतैसे समय काट कर वह अरुण के साथ वापस आई तो उस का मन अमेरिका से उचट गया था. वह शीघ्र ही भारत वापस जाना चाहती थी. अरुण के बहुत अनुग्रह पर भी वह अब वहां नहीं रहना चाह रही थी. फिर शादी पर आने का वादा कर के वह जैसेतैसे जान छुड़ा कर आज वापस आई थी.

आज पहली बार उसे अपने अकेलेपन का एहसास हो रहा था और सोच रही थी कि क्या वह अब कभी अतीत को भुला कर भविष्य की कल्पनाएं कर पाएगी? शायद कदापि नहीं. अब उसे अतीत के इसी साए के साथ ही जीना पड़ेगा.

उधर अविनाश के यूरोप से लौटने पर अरुण से मुलाकात हुई तो उस ने बातोंबातों में अपनी मां के अमेरिका आने की सूचना ही नहीं बल्कि अपना, कविता व मां का फोटो, जो उस के पर्स में था, उन्हें दिखाया. वर्षों बाद भी मृदुला का चेहरा पहचानने में उन्हें देर न लगी. फिर भी ‘शायद वह नहीं है’ यह सोच कर अविनाश को उस की मां के बारे में सबकुछ जान लेने की इच्छा अतिप्रबल हो गई.

किसी के अंदरूनी मामले में रुचि न होने के स्वभाव के विपरीत अविनाश अपनी अतीत की वेदना को न छिपा सका और उस ने प्रश्नों की  झड़ी लगा दी. अरुण कहता रहा, ‘‘सर, अगर आप मेरी मां से मिलते तो आप को पता लगता कि वे कितनी महान हैं. मैं आज जो कुछ भी हूं, उन्हीं की बदौलत हूं.’’

जैसेजैसे अरुण अपनी व मां के पन्ने पलट रहा था, अविनाश आत्मग्लानि में डूबता चला जा रहा था. सुनतेसुनते उस की आंखों से अश्रुधारा बह निकली.

अरुण कुछ सम झ नहीं पाया तो पूछ बैठा, ‘‘सर, आप क्यों रो रहे हैं?’’

‘‘तुम्हारी मम्मी की कहानी ही कुछ ऐसी है कि अनायास आंसू निकल पड़े,’’ अविनाश ने संभलते हुए कहा.

बात वहीं समाप्त हो गई, पर अविनाश बहुत बेचैन हो उठा. वह जानता था कि बिना मृदुला से मिले उसे चैन नहीं मिलेगा. उस ने अरुण को बुला कर भारत जाने का निश्चय कर लिया, कहा, ‘‘मु झे भारत जाना है. तुम अपनी मम्मी का पता भी दे देना, हो सके तो मैं उन से भी मिलूंगा.’’

फिर सबकुछ इतनी जल्दी हुआ कि अविनाश यह अनुमान ही नहीं कर पाया कि वह कैसे और कब मृदुला के पास पहुंच गया.

मृदुला अविनाश से परिचय पा

कर स्तब्ध रह गई और उस के मुंह

से अनायास ही निकल पड़ा, ‘‘आप

और यहां?’’

अविनाश से कुछ कहते न बना और वह उसे गले लगा कर रोने लगा. वह कहता जा रहा था, ‘‘मृदु, मैं तुम से अब क्षमा मांगने लायक भी नहीं हूं, पर प्रायश्चित्त करना चाहता हूं, इसीलिए यहां आया हूं. तुम जैसी पत्नी के साथ इतना अन्याय, जिसे कोई भी माफ नहीं करेगा, लेकिन फिर भी मैं इस आशा से आया हूं कि तुम मु झे क्षमा कर दोगी.’’

मृदुला उस के सीने से लिपट कर जैसे क्षणमात्र को सबकुछ भूल गई थी, वह कहती जा रही थी, ‘‘मैं ने अरुण के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है और आप ने अपना. मु झे उस ने सबकुछ बता दिया है कि आप ने शुरू में उस की पढ़ाई और रहने इत्यादि में कितनी सहायता की, वरना क्या वह वहां टिक सकता था? आखिर हमारा अपनी संतान के प्रति कर्तव्य ही तो सर्वोपरि है, जिसे हम दोनों ने बखूबी निभाया, चाहे जाने या अनजाने में, आप खुद को गुनहगार न सम झें.’’

अविनाश सोच भी नहीं पा रहा था कि क्या कोई स्त्री मृदुला जैसी हो सकती है. वह कहे जा रहा था, ‘‘मैं प्रायश्चित्त करूंगा, अगर तुम चाहोगी तो तुम्हें अपनी पत्नी स्वीकार कर उसी समाज के समक्ष ले जाऊंगा जहां मैं ने तुम्हारी अनुपस्थिति तुम्हारा तिरस्कार किया था. आशा है मृदु, तुम मु झे प्रायश्चित्त करने का मौका दोगी.’’

मृदुला खुद सोच भी नहीं पा रही थी कि वह क्या कहे, पर उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अतीत का साया पीछे छूटता जा रहा है और लग रहा है कि अगर सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहा जाता.

कोई उचित रास्ता : भाग 3

शोक के साथसाथ बदहवास था सुकेश का परिवार. सत्य क्या होगा मैं समझ सकता हूं. बुरा हो मेरी मां का, मेरी बहन का जिन्हें झूठ बोलने से जरा भी डर नहीं लगता. मरने वाले की मिट्टी का इस से बड़ा अपमान, इस से बड़ा मजाक क्या होगा जिस की आत्महत्या का रंग उस की निर्दोष बहन के चेहरे पर कालिख बन कर पुत गया.

ऐसा क्या किया सुकेश ने? आत्महत्या क्यों की? मारना ही था तो रज्जी को मार डालता. सुकेश का दाहसंस्कार हुआ और उसी चिता में मेरा, मेरी मां और बहन के साथ जन्मजात रिश्ता भी जल कर राख हो गया. अच्छा नहीं किया रज्जी ने. अपना घर तो जलाया, अपनी ननद का भविष्य भी पाताल में धकेल दिया. श्मशान भूमि में खड़ा मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि कहां जाऊं? मेरा घर कहां है? क्या वह मेरा घर है जहां मेरी विधवा मां, विधवा बहन रहती है जिन के साथ हर किसी की सहानुभूति है या कहीं और जहां मैं अकेला रह कर चैन से जीना चाहता हूं?

सच्चा भय था मेरे पिता की आंख में जब उन की मृत्यु हुई थी. सच है, मैं इन दोनों के साथ नहीं जी सकता. नहीं रह पाऊंगा अब मैं इन दोनों के साथ. किसी के हंसतेखेलते परिवार से उन का जवान बेटा छीन कर उस के परिवार का तमाशा बना दिया, कौन सजा देगा इन दोनों को? किसी भी परिवार के अंदर की कहानी भला कानून कैसे जान सकता है जो इन्हें कोई सजा मिले. सजा तो मिलनी चाहिए इन्हें, किसी का सहारा छीना है न इन्होंने, अब इन का भी सहारा छिन जाए तो पता चले आग का लगना, घर का जलना किसे कहते हैं.

सुकेश की पीड़ा मेरी पीड़ा बन कर मेरा भीतरबाहर सब जला रही है. मैं उस से आंखें कैसे मिलाऊं? क्या होगा उस की बहन का, क्या होगा उस के मांबाप का?

औफिस के काम के बहाने मैं कितने ही दिन अपने घर नहीं गया. अपने अभिन्न मित्र के घर पर रहने लगा जो मेरी सारी की सारी समस्या समझता था. कुछ दिन बीत गए. मेरे घर हो कर आया था वह.

‘‘सुकेश के मातापिता का गुजारा तो उन की पैंशन से हो जाएगा लेकिन तुम्हारी मां का क्या होगा? अब तो रज्जी भी वापस आ गई है. सुकेश के घर वालों ने उसे वापस नहीं लिया. शहरभर में उन की बेटी की बदनामी हो रही है और तुम सचाई से मुंह छिपाए मेरे घर पर रह रहे हो?’’

‘‘सचाई क्या है, यह सारा शहर जानता है. सचाई तो वही है जो रज्जी ने सब को दिखाई है. मेरी मां जो कह रही हैं, दुनिया तो उसी को सच कह रही है. मैं किस सचाई से मुंह छिपाए बैठा हूं, क्या तुम नहीं जानते हो? सुकेश की बहन बदनाम हो गई मेरे परिवार की वजह से. मैं तो इस सचाई से नजरें नहीं मिला रहा. वह सीधीसादी सी मासूम लड़की सिर्फ इस दोष की सजा भोग रही है कि रज्जी उस की भाभी है. क्या कुसूर है उस का? सिर्फ यही कि वह सुकेश की बहन है.’’

‘‘एक बार दोनों परिवारों से मिलो तो, सोम. दोनों की सुनो तो सही.’’

‘‘अपने परिवार की तो कब से सुन रहा हूं. बचपन से मैं ने भी वही भोगा है जो सुकेश और उस का परिवार भोग रहा है. अपनी मां और अपनी बहन की नसनस जानता हूं मैं. सुकेश ने इतना बड़ा कदम क्यों उठा लिया, वह उस के परिवार से ज्यादा कौन जानता है? मेरी तो वे सूरत भी देखना नहीं चाहेंगे. तुम सुकेश के मित्र बन कर वहां जाओ, पता तो चले क्या हुआ. मेरा एक और काम कर दो, मेरे भाई.’’

मान गया वह. औफिस के बाद वह सुकेश के घर से होता आया. मेरी तरह वह भी बेहद बेचैन था. बोला, ‘‘रज्जी को तो राजनीति में होना चाहिए था, कहां आप लोगों ने उस की शादी कर दी.’’

सांस रोक कर मैं ने उस की बात सुनी. वह आगे बोला, ‘‘कुछ दिन से सब ठीक चल रहा था. बड़े प्यार से रज्जी ने सब के मन में जगह बना ली थी. सीधासादा परिवार उस की सारी आदतें भुला कर उस पर पूर्ण विश्वास करने लगा था. सुकेश की बहन का सारा गहना उस ने अपने लौकर में रखवा लिया था. सुकेश की मां ने भी अपनी सारी जमापूंजी बहू को यानी रज्जी को दे दी ताकि वह ठीक से संभाल सके.

‘‘कुछ दिन पहले उन्हें किसी शादी में जाना था. ननद, भाभी लौकर से गहने निकालने गईं. वापसी पर ननद किसी काम से अपने कालेज चली गई. कुछ विद्यार्थी एक्स्ट्रा क्लास के लिए आने वाले थे. लगभग 3 घंटे बाद जब वह घर आई तो हैरान रह गई, क्योंकि रज्जी ने घर वालों को बताया कि गहने उस के पास हैं ही नहीं. घर में बवाल उठा. सारा का सारा इलजाम उस की ननद पर कि वही सारे के सारे गहने समेट कर किसी के साथ भाग जाने वाली है. तनाव इतना बढ़ गया कि सुकेश ने कुछ खा लिया.’’

‘‘कालेज में प्राध्यापिका है वह. पढ़ीलिखी सुलझी हुई लड़की. उसे भला भागने की क्या जरूरत थी. भागना तो रज्जी को था सब समेट कर. कुछ ऐसा होगा, इस का अंदेशा था मुझे लेकिन सुकेश आत्महत्या कर लेगा, यह नहीं सोचा था. सुकेश रज्जी की वजह से डिप्रैशन में रहने लगा था कुछ समय से. सच पूछो तो इंसान डिप्रैशन में जाता ही तब है जब उस के अपने उस के साथ धोखा करते हैं या उसे समझने की कोशिश नहीं करते. बाहर वालों की गालियां भी खा कर इंसान इतना विचलित नहीं होता जितना अपनों की बोलियां उसे परेशान करती हैं. परिवार में एक स्वस्थ माहौल की जगह लागलपेट और हेराफेरी चले तो इंसान डिप्रैशन में ही तो जाएगा. ऐसा इंसान आखिर करेगा भी तो क्या?’’

‘‘अब क्या करेगा तू, सोम?’’

समझ नहीं पा रहा हूं, क्या करूं? पर इतना सच है कि मैं रज्जी और मां के साथ नहीं रह पाऊंगा. मेरा जीवन एक दोराहे पर आ कर रुक गया है. दोराहा भी नहीं कह सकता. एक चौराहा समझो. मां और रज्जी के साथ रहना भी नहीं चाहता, सुकेश का परिवार मेरी सूरत से भी नफरत करेगा, आत्महत्या को कायरता समझता हूं और चौथा रास्ता है घर से दूर का तबादला ले कर इन दोनों को ही पीठ दिखा दूं. क्या करूं? पीठ ही दिखाना ठीक रहेगा. लड़ नहीं सकता.

कुछ रिश्ते इस तरह के होते हैं जिन से लड़ा नहीं जा सकता, जिन से न हारा जाता है न ही जीतने में खुशी या संताप होता है. इन से दूर चला जाऊं तो क्या पता इन्हें सुकेश के मांबाप की पीड़ा का जरा सा एहसास हो. क्या करूं, मैं समझ नहीं पा रहा, कोई भी रास्ता साफसाफ नजर नहीं आता. क्या आप बताएंगे मुझे कोई उचित रास्ता?

यह कैसी विडंबना : भाग 3

सरला ने जम्मू से चावल मंगवाए थे. वापस आने पर सामान आदि खोला. सोचा, सरला को फोन करती हूं, आ कर अपना सामान ले जाए. तभी 2 लोगों की चीखपुकार शुरू हो गई. गंदीगंदी गालियां और जोरजोर से रोना- पीटना.

मैं घबरा कर बाहर आई. शर्मा आंटी रोतीपीटती मेरे गेट के पास खड़ी थीं. लपक कर बाहर चली आई मैं.

‘‘क्या हो गया आंटी, आप ठीक तो हैं न?’’

‘‘अभीअभी यह आदमी 205 नंबर से हो कर आया है. अरे, अपनी उम्र का तो खयाल करता.’’

अंकल चुपचाप अपने दरवाजे पर खड़े थे. क्याक्या शब्द आंटी कह गईं, मैं यहां लिख नहीं सकती. अपने पति को तो वे नंगा कर रही थीं और नजरें मेरी झुकी जा रही थीं. पता नहीं कहां से इतनी हिम्मत चली आई मुझ में जो दोनों को उन के घर के अंदर धकेल कर मैं ने उन का गेट बंद कर दिया. मन इतना भारी हो गया कि रोना आ गया. क्या कर रहे हैं ये दोनों. शरम भी नहीं आती इन्हें. जब जवानी में पति को मर्यादा का पाठ नहीं पढ़ा पाईं तो इस उम्र में उसी शौक पर चीखपुकार क्यों?

सच तो यही है कि अनैतिकता सदा ही अनैतिक है. मर्यादा भंग होने को कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता. पतिपत्नी के रिश्ते में पवित्रता, शालीनता और ईमानदारी का होना अति आवश्यक है. शर्मा आंटी की खूबसूरती यदि जवानी में सब को लुभाती थी तब क्या शर्मा अंकल को अच्छा लगता होगा. हो सकता है पत्नी को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल भी किया हो.

जवानी में जोजो रंग पतिपत्नी घोलते रहे उन की चर्चा तो आंटी मुझ से कर ही चुकी थीं और बुढ़ापे में उसी टूटी पवित्रता की किरचें पलपल मनप्राण लहूलुहान न करती रहें ऐसा तो मुमकिन है ही नहीं. अनैतिकता का बीज जब बोया जाता तब कोई नहीं देखता, लेकिन जब उस का फल खाना पड़ता है तब बेहद पीड़ा होती है, क्योंकि बुढ़ापे में शरीर इतना बलवान नहीं होता जो पूरा का पूरा फल एकसाथ डकार सके.

सरला से बात हुई तो वह बोली, ‘‘मैं ने कहा था न कि इन से दूर रह. अब अपना मन भी दुखी कर लिया न.’’

उस घटना के बाद हफ्ता बीत गया. सुबह 5 बजे ही दोनों शुरू हो जाते. शालीनता और तमीज ताक पर रख कर हर रोज एक ही जहर उगलते. परेशान हो जाती मैं. आखिर कब यह घड़ा खाली होगा.

संयोग से वहीं पास ही में हमें एक अच्छा घर मिल गया. चूंकि पति का रिटायरमैंट पास था, इसलिए उसे खरीद लिया हम ने और उसी को सजानेसंवारने में व्यस्त हो गए. नया साल शुरू होने वाला था. मन में तीव्र इच्छा थी कि नए साल की पहली सुबह हम अपने ही घर में हों. महीना भर था हमारे पास, थोड़ीबहुत मरम्मत, रंगाईपुताई, कुछ लकड़ी का काम बस, इसी में व्यस्त हो गए हम दोनों. कुछ दिन को बच्चे भी आ कर मदद कर गए.

एक शाम जरा सी थकावट थी इसलिए मैं जा नहीं पाई थी. घर पर ही थी. सरला चली आई थी मेरा हालचाल पूछने. हम दोनों चाय पी रही थीं तभी द्वार पर दस्तक हुई. शर्मा अंकल थे सामने. कमीज की एक बांह लटकी हुई थी. चेहरे पर जगहजगह सूजन थी.

‘‘यह क्या हुआ आप को, अंकल?’’

‘‘एक्सीडेंट हो गया था बेटा.’’

‘‘कब और कैसे हो गया?’’

पता चला 2 दिन पहले स्कूटर बस से टकरा गया था. हर पल का क्लेश कुछ तो करता है न. तरस आ गया था हमें.

‘‘बाजू टूट गई है क्या?’’

‘‘टूटी नहीं है…कंधा उतर गया है. 3 हफ्ते तक छाती से बांध कर रखना पड़ेगा. बेटा, मुझे तुम से कुछ काम है. जरा मदद करोगी?’’

‘‘हांहां, अंकल, बताइए न.’’

‘‘बेटा, मैं बड़ा परेशान हूं. तनिक अपनी आंटी को समझाओ न. मैं कहां जाऊं…मेरा तो जीना हराम कर रखा है इस ने. तुम जरा मेरी उम्र देखो और इस का शक देखो. तुम दोनों मेरी बेटी जैसी हो. जरा सोचो, जो सब यह कहती है क्या मैं कर सकता हूं. कहती है मैं मकान नंबर 205 में जाता हूं. जरा इसे साथ ले जाओ और ढूंढ़ो वह घर जहां मैं जाता हूं.’’

80 साल के शर्मा अंकल रोने लगे थे.

‘‘वहम की बीमारी है इसे. किसी से भी बात करूं मैं तो मेरा नाम उसी के साथ जोड़ देती है. हर रिश्ता ताक पर रख छोड़ा है इस ने.’’

‘‘आप ने आंटी का इलाज नहीं कराया?’’

‘‘अरे, हजार बार कराया. डाक्टर को ही पागल बता कर भेज दिया इस ने. मेरी जान भी इतनी सख्त है कि निकलती ही नहीं. एक्सीडैंट में मेरे स्कूटर के परखच्चे उड़ गए और मुझे देखो, मैं बच गया…मैं मरता भी तो नहीं. हर सुबह उठ कर मौत की दुआएं मांगता हूं…कब वह दिन आएगा जब मैं मरूंगा.’’

सरला और मैं चुपचाप उन्हें रोते देखती रहीं. सच क्या होगा या क्या हो सकता है हम कैसे अंदाजा लगातीं. जीवन का कटु सत्य हमारे सामने था. अगर शर्माजी जवानी में चरित्रहीन थे तो उस का प्रतिकार क्या इस तरह नहीं होना चाहिए? और सब से बड़ी बात हम भी कौन हैं निर्णय लेने वाले. हजार कमी हैं हमारे अंदर. हम तो केवल मानव बन कर ही किसी दूसरे मानव की पीड़ा सुन सकती थीं. अपनी लगाई आग में सिर्फ खुदी को जलना पड़ता है, यही एक शाश्वत सचाई है.

रोधो कर चले गए अंकल. यह सच है, दुखी इनसान सदा दुख ही फैलाता है. शर्माजी की तकलीफ हमारी तकलीफ नहीं थी फिर भी हम तकलीफ में आ गई थीं. मूड खराब हो गया था सरला का.

‘‘इसीलिए मैं चाहती हूं इन दोनों से दूर रहूं,’’ सरला बोली, ‘‘अपनी मनहूसियत ये आसपास हर जगह फैलाते हैं. बच्चे हैं क्या ये दोनों? इन के बच्चे भी इसीलिए दूर रहते हैं. पिछले साल अंकल अमेरिका गए थे तो आंटी कहती थीं कि 205 नंबर वाली भी साथ चली गई है. ये खुद जैसे दूध की धुली हैं न. इन की तकलीफ भी यही है अब.

‘‘खो गई जवानी और फीकी पड़ गई खूबसूरती का दर्द इन से अब सहा नहीं जा रहा, जवानी की खूबसूरती ही इन्हें जीने नहीं देती. वह नशा आज भी आंटी को तड़पाता रहता है. बूढ़ी हो गई हैं पर अभी भी ये दिनरात अपनी खूबसूरती की तारीफ सुनना चाहती हैं. अंकल वह सब नहीं करते इसलिए नाराज हो उन की बदनामी करती हैं.

‘‘यह भी तो एक बीमारी है न कि कोई औरत दिनरात अपने ही गुणों का बखान सुनना चाहे और गुण भी वह जिस में अपना कोई भी योगदान न हो. रूप क्या खुद पैदा किया जा सकता है…जिस गुण को घटानेबढ़ाने में अपनी कोई जोर- जबरदस्ती ही न चलती हो उस पर कैसा अभिमान और कैसी अकड़…’’

बड़बड़ाती रही सरला देर तक. 2 दिन ही बीते होंगे कि सुबहसुबह आंटी चली आईं. शिष्टाचार कैसे भूल जाती मैं. सम्मान सहित बैठाया. पति आफिस जा चुके थे. उस दिन मजदूर भी छुट्टी पर थे.

‘‘कहो, कैसी हो. घर का कितना काम शेष रह गया है?’’

‘‘आंटी, बस थोड़ा ही बचा है.’’

‘‘आज भी कोई पार्टी दे रहे हो क्या? दीवाली की रात तो तुम्हारे घर पूरी रात ताशबाजी चलती रही थी. अच्छी मौजमस्ती कर लेते हो तुम लोग भी. मैं ने पूछा तो तुम ने कह दिया था, तुम्हें तो ताश ही खेलना नहीं आता जबकि पूरी रात गाडि़यां खड़ी रही थीं. सुनो, कल तुम्हारे घर 2 आदमी कौन आए थे?’’

‘‘कल, कल तो पूरा दिन मैं नए घर में व्यस्त थी.’’

‘‘नहींनहीं, मैं ने खुद तुम्हें उन से बातें करते देखा था.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हैं आप, मिसेज शर्मा?…और दीवाली पर भी हम यहां नहीं थे.’’

‘‘तुम्हारे घर में रोशनी तो थी.’’

‘‘हम घर में जीरो वाट का बल्ब जला कर गए थे कि त्योहार पर घर में अंधेरा न हो और ऐसा भी लगे कि घर पर कोई है.’’

‘‘नहीं, झूठ क्यों बोल रही हो?’’

‘‘मैं झूठ बोल रही हूं. क्यों बोल रही हूं मैं झूठ? मुझे क्या जरूरत है जो मैं झूठ बोल रही हूं,’’ स्तब्ध रह गई मैं.

‘‘तुम्हारे घर के मजे हैं. एक गेट मेरे घर के सामने दूसरा पिछवाड़े. इधर ताला लगा कर सब से कहो कि हम घर पर नहीं थे. उधर पिछले गेट से चाहे जिसे अंदर बुला लो. क्या पता चलता है किसी को.’’

हैरान रह गई मैं. सच में आंटी पागल हैं क्या? समझ में आ गया मुझे और पागल से मैं क्या सर फोड़ती. शर्माजी कुछ नहीं कर पाए तो मैं क्या कर लेती, सच कहा था सरला ने, कहानियां बना लेती हैं आंटी और कहानियां भी वे जिन में उन की अपनी नीयत झलकती है, अपना सारा शक झलकता है. अपना ही अवचेतन मन और अपने ही चरित्र की छाया उन्हें सभी में नजर आती है, शायद वे स्वयं ही चरित्रहीन होंगी जिस की झलक अपने पति में भी देखती होंगी. कौन जाने सच क्या है.

उसी पल निर्णय ले लिया मैं ने कि अब इन से कोई शिष्टाचार नहीं निभाऊंगी. अत: बोली, ‘‘मिसेज शर्मा, आज मुझे घर के लिए कुछ सामान लेने बाजार जाना है. किसी और दिन साथसाथ बैठेंगे हम?’’

मेरा टालना शायद वे समझ गईं इसलिए हंसने लगीं, ‘‘आजकल शर्माजी से दोस्ती कर ली है न तुम ने और सरला ने. बता रहे थे मुझे…कह रहे थे, तुम दोनों भी मुझे ही पागल कहती हो. बुलाऊं उन्हें अंदर ही बैठे हैं. आमनासामना करा दूं.’’

कहीं यह पागल औरत अब हम दोनों का नाम ही अंकल के साथ न जोड़ दे. यह सोच कर चुप रही मैं और फिर हाथ पकड़ कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. अच्छा नहीं लगा था मुझे अपना यह व्यवहार पर मैं क्या करती. मुझे भी तो सांस लेनी थी. एक पागल का मान मैं कब तक करती.

वह दिन और आज का दिन, जब तक हम उस घर में रहे और उस के बाद जब अपने घर में चले आए, हम ने उस परिवार से नाता ही तोड़ दिया. अकसर आंटी गेट खटखटाती रही थीं जब तक हम उन के पड़ोस में रहे.

आज पता चला कि अंकल चल बसे. पता नहीं क्यों बड़ी खुशी हुई मुझे. गलत कौन था कौन सही उस का मैं क्या कहूं. एक वयोवृद्ध दंपती अपनी जवानी में क्याक्या गुल खिलाता रहा उस की चिंता भी मैं क्यों करूं. बस, शर्मा अंकल इस कष्ट भरे जीवन से छुटकारा पा गए यही आज का सब से बड़ा सच है. आंखें भर आई हैं मेरी. मौत जीवन की सब से बड़ी और कड़वी सचाई है. समझ नहीं पा रही हूं कि शर्मा अंकल की मौत पर अफसोस मनाऊं या चैन की सांस लूं.

पहला विदोही : भाग 3

‘‘तुम मु  झे ही पढ़ाने लगे हो. स्मरण रखो, तुम इस गुरुकुल में विद्या अध्ययन के लिए आए हो, गुरु को पढ़ाने नहीं,’’ वसिष्ठ खीज कर बोले.

‘‘स्मरण है, गुरुदेव.’’

‘‘तो फिर अब से तुम उस युवती से नहीं मिलोगे और यहां रहते न तो कोई और घोषणा करोगे और न ही किसी को कोई वचन दोगे.’’

‘‘तो क्या अपना वचन मिथ्या हो जाने दूं. यह संसार मु  झ पर थूकेगा नहीं?’’

‘‘तुम आखिर चाहते क्या हो? क्या तुम्हें मनमानी करने दूं? क्या तुम मु  झे सामाजिक व्यवस्था का पाठ पढ़ाना चाहते हो?’’ वसिष्ठ ने   झल्ला कर पूछा.

‘‘मैं आप के पास पढ़ने आया हूं, गुरुदेव,’’ पृषघ्र करबद्ध हो कर बोला, ‘‘मैं एक ऐसे समाज की रचना करना चाहता हूं जिस में चारों वर्णों के लोग एक ही ‘मनुष्य वर्ण’ के नाम से जाने जाएं. न कोई ऊंचा हो न कोई नीचा. कोई वर्ण भेद न हो…सर्वत्र समभाव हो. इस में आप मेरे मार्गदर्शक बनें.’’

सुन कर वृद्ध ऋषि सकते में आ गए. उन्होंने सम  झ लिया कि बहस से इस युवक को परास्त नहीं किया जा सकेगा. यह दृढ़निश्चयी है. इस का कुछ करना होगा. सोचते हुए उन्होंने आग्नेय नेत्रों से पृषघ्र को देखा और बगैर उत्तर दिए वहां से चल दिए.

आकाश में बादलों की भयंकर गर्जना के साथ वर्षा वेगवती हो रही थी. ऋषि वसिष्ठ ने उसी दिन से पृषघ्र को गोशाला का कार्य सौंप दिया था. भारी वर्षा के कारण 3 दिन से पशुओं के लिए घास की व्यवस्था नहीं हुई थी. गोवंश भूखा ही था. स्वयं पृषघ्र का आश्रम से बाहर जाना प्रतिबंधित था. उस ने सुना था कि आश्रम में 2-3 दिन से सूखी लकड़ी न होने से पाकशाला भी ठंडी ही है. उसे भी अन्न का दाना नहीं मिला था.

संध्या होतेहोते गहन अंधकार छा गया. गोशाला में जगहजगह पानी टपक रहा था. बड़ी कठिनाई से थोड़ा स्थान खोज कर वह बैठ सका. भूखी गायों का रंभाना उसे भारी पीड़ा दे रहा था. संतोष था तो केवल यही कि वह स्वयं भी निराहार था. उस की इच्छा हुई कि गोशाला की छत तोड़ कर उसी की घास पशुओं को खिला दे, परंतु यह संभव नहीं था.

बैठेबैठे ही पृषघ्र को नींद के   झोंके आने लगे थे. वह कब सो गया, स्वयं भी न जान सका. अर्द्धरात्रि में गोवंश के रंभाने की आवाज से उस की नींद खुली. गहन अंधकार था. पानी अभी भी बरस रहा था. एकाएक वह कुछ सम  झ न पाया. अंधकार में दृष्टि फाड़ कर देखने का प्रयास किया, तभी एक गर्जना से वह चौंक पड़ा.

गोशाला में सिंह घुस आया था. वह तुरंत अपनी तलवार तान कर खड़ा हो गया और सावधानी से गायों की ओर बढ़ा. 2-3 गाएं सींगों की सहायता से सिंह से जान बचाने को प्रयासरत थीं. पृषघ्र ने निकट पहुंच कर बिजली की फुरती से सिंह पर भरपूर वार किया. वनराज पृषघ्र से भी फुरतीला निकला और एक गाय की गरदन कट गई. सिंह तेजी से निकल कर भाग गया.

पृषघ्र हतप्रभ रह गया. मस्तिष्क शून्य हो गया और आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. बड़ी कठिनाई से वह अपने स्थान पर लौटा और कटे शव की भांति गिर गया. प्रात:काल उस ने देखा, गाय की गरदन के साथ सिंह का कान भी कट कर गिर गया था.

दिन चढ़े तक जब वह बाहर न आया तो सहपाठियों ने गोशाला के द्वार से उसे पुकारा. कोई उत्तर न पा कर, भीतर आ कर जो हाल देखा तो सभी आश्चर्य- चकित रह गए.

‘‘गुरुदेव, पृषघ्र ने गोहत्या कर दी है,’’ एक शिष्य ने दौड़ कर ऋषि वसिष्ठ को सूचना दी.

‘‘यह तुम क्या कह रहे हो, वत्स? ऐसा कैसे हो सकता है?’’ वे अपने आसन से उठ खड़े हुए.

‘‘स्वयं चल कर देख लीजिए, गुरुदेव,’’ कई स्वर एकसाथ उभरे.

ऋषि वसिष्ठ तेज कदमों से गोशाला में पहुंचे. पृषघ्र द्वार पर सिर   झुकाए बैठा था. सामने ही मृत गाय कटी पड़ी थी. ऋषि ने क्रोध से हुंकार भरी, ‘‘यह जघन्य अपराध किसलिए किया तुम ने…क्या केवल इसलिए कि बाहर न जा सकने के कारण तुम उस शूद्री से भेंट न कर सके? एक शूद्र कन्या के लिए इतना जघन्य अपराध?’’ ऊंचे स्वर और क्रोधावेग से वसिष्ठ का बूढ़ा शरीर कांपने लगा था.

‘‘नहीं, गुरुदेव, दरअसल, पिछली रात्रि गोशाला में सिंह घुस आया था. उसी को मारने के लिए तलवार का प्रयोग किया था, परंतु वह बच गया और…उस का कटा हुआ कान वहीं पड़ा है, देख लीजिए.’’

‘‘चुप रहो, वीरवर पृषघ्र का वार गलत पड़े, मैं नहीं मान सकता. तुम ने जानबू  झ कर गोहत्या की है, ताकि तुम्हें गोशाला के कार्य से मुक्ति मिले और तुम बाहर जा कर उस शूद्री से प्रेमालाप कर सको, तुम रक्षक से भक्षक बन गए हो,’’ वसिष्ठ चीखे.

‘‘नहीं गुरुदेव, यह गलत है, मैं…’’

‘‘मु  झे गलत कहता है, तू ने गोहत्या का महापाप किया है…वह भी एक शूद्री के लिए. मैं तु  झे श्राप देता हूं, तू इस नीच कर्म के कारण अब क्षत्रिय नहीं रहेगा. जा, शूद्र हो जा,’’ इतना कह कर वे तेज कदमों से लौट गए.

शूद्रता का दंड मिलने से पृषघ्र का उसी क्षण आश्रम से निष्कासन हो गया. वह बहुत रोया, गिड़गिड़ाया और सत्य के प्रमाण में सिंह का कान दिखाया, पर वसिष्ठ ने न कुछ देखा, न सुना.

शाप क्या है?

उस काल में शिक्षा को ब्राह्मणों ने केवल अपने पास केंद्रित कर रखा था. शिक्षा का प्रसार सीमित वर्ग तक था और आदिवासी तथा निम्नवर्ग को ज्ञान के प्रकाश से कतई वंचित रखा गया था. शिक्षित वर्ग होने से ब्राह्मणों का वर्चस्व राजकाज में अधिक रहा और अर्द्धशिक्षित होने से शासक वर्ग ब्राह्मणों पर आश्रित था. अर्थात वसिष्ठ के शाप ने पृषघ्र को उस समय के सभ्य समाज से, सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर दिया था. ब्राह्मणों की इस एकाधिकारिक व्यवस्था को सामाजिक और राजनीतिक स्वीकृति प्राप्त थी.

समाज से बहिष्कृत हो कर पृषघ्र की सम  झ में न आया कि वह क्या करे. उस के अपने लोगों ने मुंह मोड़ कर उसे निकाल दिया था. जिस निम्नवर्ग में उसे शामिल होने का दंड मिला था, वह भी ब्राह्मणों के बनाए दंडविधान, सामाजिक असुरक्षा और राजभय के चलते उसे स्वीकार करने में असमर्थ था. पृषघ्र जानता था कि शूद्र वर्ग भी उसे अपने में सम्मिलित नहीं करेगा और साहस किया भी तो उस का दंड कईकई लोगों को भुगतना होगा.

वह वनों में भटकता रहा. कईकई दिनों तक मानव दर्शन भी न होता था. अंतत: उस ने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का व्रत धारण किया. सारी आसक्तियां छोड़ दीं, गुणमाला मस्तिष्क से विलोप हो गई. इंद्रियों को वश में कर वह जड़, अंधे, बहरे के समान हो कर तथाकथित ईश्वर को खोजता रहा, पर वह न मिला.

अंतत: वह पुन: गुणमाला के पास लौटा, ‘‘गुर्णवी, मैं लौट आया हूं,’’ अधीर स्वर में उस ने कुटिया के द्वार पर खड़े हो कर आवाज दी.

पर कोई उत्तर न मिला. पृषघ्र ने भीतर जा कर देखा, कोई नहीं था. कुटिया की हालत बता रही थी कि वहां काफी समय से कोई नहीं रहा. कुछ सोच कर उस ने कुटिया को आग लगा दी और स्वयं भी उसी में समा गया.

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