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अटूट बंधन : भाग 3

त्रिशा ने रुकरुक कर बोलना शुरू किया, ‘‘देखो, 3 वर्ष में हम एकदूसरे को पूरी तरह जानने लगे हैं. मेरा तो कोई काम तुम्हारे बगैर नहीं होता. सच तो यह है, इस शहर में आ कर मैं तो अपनी जिम्मेदारियां ही भुला बैठी हूं. मैं ने तो अभी सोचा भी नहीं कि यहां से जाने के बाद मैं कैसे मैनेज करूंगी. पर प्रकाश, आजाद को मैं ने अपने जीवनसाथी के रूप में देखा है. उन के सिवा मैं किसी और के बारे में सोच भी कैसे…’’

प्रकाश बीच में ही बोल उठा, ‘‘मैं सब जानता हूं, लेकिन जिंदगी इतनी आसान भी नहीं होती, जितना तुम लोग सोच रहे हो. मुझे तुम्हारी फिक्र सताती है. पैसे खर्च कर के ही क्या सबकुछ मिल सकता है? इन सब बातों से अलग, सच तो यह भी है कि मेरे दिल में तुम्हारे लिए चाहत कब पैदा हो गई, मुझे पता ही नहीं चला. मैं तुम्हें ऐसे अकेले नहीं छोड़ सकता. प्लीज, मेरी बात समझने की कोशिश करो, त्रिशा.’’

अगले कुछ पल रुक कर त्रिशा ने कहा, ‘‘मैं अच्छी तरह जानती हूं, तुम मेरी कितनी फिक्र करते हो लेकिन जो प्रस्ताव तुम्हारा है, उस के बारे में सोचने का मेरे लिए सवाल ही पैदा नहीं होता. मैं ने हमेशा यही चाहा था कि मैं जिस कमी के साथ जी रही हूं, जीवनसाथी भी वैसा ही चुनूंगी ताकि हम एकदूसरे की ताकत बन कर कदमकदम पर हौसलाअफजाई कर सकें और आत्मनिर्भर हो कर जी सकें. फिर, आजाद तो मेरे जीवन में एक अलग ही खुशी ले कर आए हैं.

मैं यकीन के साथ कह सकती हूं, उन की खूबियां और जीवन के प्रति उन का पौजिटिव रुख ही हमारे घर को खुशियों से भर देगा. जानती हूं, जीवन के हर मोड़ पर चुनौतियां होंगी, लेकिन हम दोनों का एकदूसरे के प्रति विश्वास, सम्मान और प्यार ही हमें उन चुनौतियों से उबरने की ताकत देगा. रही बात तुम्हारी, तो मैं अपने इतने अच्छे दोस्त को कभी खोना नहीं चाहती. मेरे लिए, प्लीज, मेरे लिए मुझे मेरा सब से अच्छा दोस्त वापस दे दो. अगले महीने मेरी इंगेजमैंट है. अगर तुम इसी तरह परेशान रहोगे तो क्या मुझे तकलीफ नहीं होगी?’’ इतने दिनों का सैलाब अब प्रकाश की आंखों से बह चला.

त्रिशा की जिद और कोशिशों के चलते प्रकाश धीरेधीरे नौर्मल होने लगा. त्रिशा की इंगेजमैंट हुई और फिर शादी के दिन भी करीब आ गए. त्रिशा ने आधी से ज्यादा शौपिंग प्रकाश और शालिनी के साथ ही कर ली थी.

एक शाम त्रिशा के पास प्रकाश के मम्मीपापा का फोन आया. लंबी बातचीत के बाद प्रकाश के पापा ने त्रिशा से कहा, ‘‘बेटा, प्रकाश को शादी के लिए तुम ही तैयार कर सकती हो. हो सके तो उसे समझाओ, इतनी देर करना भी अच्छी बात नहीं. हमारी तो बात ही टाल देता है.’’

त्रिशा हंस पड़ी, ‘‘बस, इतनी सी बात है, अंकल. आप बिलकुल चिंता मत कीजिए. मैं उसे राजी कर लूंगी.’’

यों तो त्रिशा ने पहले भी उस से शादी का जिक्र छेड़ा था, पर हर बार वह उस की बात अनसुनी कर देता था. एक दिन प्रकाश ने त्रिशा से पूछा, ‘‘अच्छा बताओ, तुम्हें शादी पर क्या गिफ्ट दूं?’’

त्रिशा का उत्तर था, ‘‘तुम मुझे जो चाहे गिफ्ट दे देना, पर तुम्हारी शादी के लिए तुम्हारी हां मेरे लिए सब से कीमती गिफ्ट होगा.’’

प्रकाश उस दिन खामोश रहा. त्रिशा की शादी की तैयारियों में प्रकाश ने खुद को इतना उलझा लिया कि उसे अपनी सुध ही नहीं रही. हफ्तेभर पहले छुट्टी ले कर प्रकाश भी त्रिशा के साथ दिल्ली चला आया. यहां आ कर शादी की लगभग सभी जिम्मेदारियां प्रकाश ने संभाल लीं. मेहंदी, हलदी, कोर्ट मैरिज और फिर ग्रैंड रिसैप्शन पार्टी.

यह तय था कि शादी के बाद आजाद भी कुछ दिनों के लिए बेंगलुरु घूम आएंगे. त्रिशा की कंपनी का औफिस लखनऊ में नहीं था, इसलिए बेंगलुरु आ कर त्रिशा ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया. उस ने सोच रखा था कि लखनऊ जा कर कुछ दिन घरगृहस्थी ठीकठाक कर के थोड़ा उस शहर के बारे में समझने के बाद वहीं किसी दूसरी नौकरी की तलाश करेगी.

‘‘भई, हम जानते हैं, आप बहुत थक गए हैं, पर हमें बेंगलुरु तो आप ही घुमाएंगे,’’ आजाद ने प्रकाश से कहा तो प्रकाश बोला, ‘‘सोच लीजिए, बदले में आप को हमें लखनऊ की सैर करवानी पड़ेगी.’’

‘‘कब आ रहे हैं आप?’’

‘‘बहुत जल्द, अपनी शादी के बाद.’’

‘‘अच्छा, तो जनाब ने शादी का फैसला कर लिया और हमें खबर तक नहीं हुई. सुन रही हो त्रिशा.’’

त्रिशा को भी यह सुन कर तसल्ली हुई, ‘‘फैसला तो नहीं किया पर…’’ प्रकाश बोलतेबोलते रुक गया और फिर उस ने बात बदल दी. बेंगलुरु में वह हफ्ता तो जैसे चुटकियों में कट गया.

प्रकाश ने त्रिशा और आजाद को गाड़ी में बैठा कर उन का सारा सामान व्यवस्थित करवा दिया. गाड़ी यहीं से बन कर चलती थी, इसलिए लेट होने का तो सवाल ही नहीं था. जैसे ही गाड़ी प्लेटफौर्म छोड़ने लगी, सभी का मन भारी हो गया. प्रकाश शायद बिना कुछ बोले ही चला गया था. त्रिशा की आंखें भी नम हो आईं.

तभी अचानक सामने बैठे पैसेंजर ने आजाद का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘आप का छोटा बैग मैं इस साइड टेबल पर रख देता हूं. मैं भी लखनऊ जा रहा हूं. आप के सामने की लोअर बर्थ मेरी ही है. कोई भी जरूरत हो तो आप लोग बेझिझक मुझे आवाज दे दीजिएगा. मेरा नाम प्रकाश है.’’ अनजाने ही त्रिशा के होंठों पर मुसकान छा गई.

अगली सुबह घर पहुंचने के कुछ ही देर बाद उन्हें एक कूरियर मिला. यह त्रिशा के नाम का कूरियर था. ‘‘हैप्पी बर्थडे त्रिशा. तुम्हारा सब से कीमती तोहफा भेज रहा हूं,’’ प्रकाश ने लिखा था. उस में त्रिशा के लिए खूबसूरत सी ब्रेल घड़ी थी और एक शादी का कार्ड.

त्रिशा उछल पड़ी, ‘‘वाह, इतना बड़ा सरप्राइज. इतनी जल्दी कैसे होगा सब? महीनेभर बाद की ही तो तारीख है.’’

शादी से 2 दिन पहले आजाद और त्रिशा भोपाल पहुंचे तो प्रकाश ने रचना से उन का परिचय करवाया. ‘‘इतने कम समय में प्रकाश को तो कुछ बताने की फुरसत ही नहीं मिली. अब तुम ही कुछ बताओ न रचना अपने बारे में?’’ त्रिशा ने उत्सुकतावश पूछा.

‘‘बस, अभी आई. पहले जरा मुंह तो मीठा कीजिए, फिर बैठ कर ढेर सारी बातें करते हैं,’’ कहते हुए रचना उठी तो दाहिनी तरफ के सोफे पर बैठे आजाद से टकरातेटकराते बची. अचानक लगने वाले धक्के से आजाद के हाथ से मोबाइल छूट कर फर्श पर गिर पड़ा.

‘‘अरे, आराम से,’’ कहते हुए प्रकाश आजाद का मोबाइल उठाने के लिए झुका. अपनी गलती पर अफसोस जताते हुए अनायास ही रचना के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘ओह, माफी चाहती हूं, डाक्टर साहब. दरअसल, मैं देख नहीं सकती.’’

कैक्टस के फूल : भाग 3

बिना कुछ बोले ममता ने ताला खोला, कपिल की गोद से बच्ची को ले कर उसे मूक विदाई दी. सौरभ जब भीतर आ गया तो दरवाजा बंद कर के ममता उन के सम्मुख तन कर खड़ी हो गई. पल भर उस की आंखों में आंखें डाल कर उस के क्रोध को तोला फिर तीखेपन से कहा, ‘‘क्या हो गया है तुम्हें, सब के सामने इस प्रकार बोलते हुए तुम्हें जरा भी झिझक नहीं लगी?’’

‘‘और तुम जो परपुरुष के साथ हीही, ठींठीं करती फिरती हो, घूमने जाती हो, उस में कुछ भी झिझक नहीं?’’

‘‘कपिल के लिए ऐसा कहते तुम्हें लज्जा नहीं आती? सहशिक्षा के स्कूल में पढ़ाती हूं, वहां स्त्रियों से अधिक पुरुष सहकर्मी हैं, उन्हें अछूत मानने से नहीं चलता. मुझे बच्चों की यूनिफार्म लेनी थी. कपिल भी साथ चले गए तो कौन सी आफत आ गई?’’

‘‘कपिल ही क्यों? दूसरा कोई क्यों नहीं?’’

‘‘कुछ तो शर्म करो, अपनी पत्नी पर लांछन लगाने से पहले सोचनासमझना चाहिए. मुझ से कम से कम 8 वर्ष छोटे हैं. अपने परिवार से पहली बार अलग हो कर यहां आए हैं, मीनीचीनी को बहुत मानते हैं. इसी से कभीकभी आ जाते हैं, इस में बुरा क्या है?’’

सौरभ को लगा कि वह पुन: पत्नी के सम्मुख हतप्रभ होता जा रहा है. उस ने अंतिम अस्त्र फेंका, ‘‘मेरे समझने न समझने से क्या होगा, दुनिया स्त्रीपुरुष की मित्रता का अर्थ बस एक ही लेती है.’’

‘‘दुनिया के न समझने से मुझे कुछ अंतर नहीं पड़ता, बस, तुम्हें समझना चाहिए.’’

सौरभ बुझ गया था. रात भर करवटें बदलता रहा. बगल में सोई ममता दहकती ज्वाला के समान उसे जला रही थी.

तीसरे दिन स्कूल में दोपहर की छुट्टी में ममता ने मीनीचीनी के साथ परांठे का पहला कौर तोड़ा ही था कि चपरासी ने आ कर कहा, ‘‘प्रिंसिपल साहब ने आप को अभी बुलाया है, बहुत जरूरी काम है.’’

हाथ का कौर चीनी के मुंह में दे कर, वह उठ खड़ी हुई. पिछले कुछ दिनों से वह उलझन में थी, विचारों के सूत्र टूटे और पुराने ऊन के टुकड़ों के समान बदरंग हो गए थे. सबकुछ ठीक चल रहा था. उस दिन सौरभ और कपिल का सामना न होता तो सब ठीक ही रहता. सौरभ को वह दोष नहीं दे पाती. उस की प्रतिक्रिया पुरुषोचित थी.

सौरभ इंजीनियर के अच्छे पद पर है, पैसा और रुतबा पूरा है फिर उस का नौकरी करना कोई माने नहीं रखता किंतु वह क्या करे? अपनी निजता को कैसे तज दे?

जब से होश संभाला, पढ़ना और पढ़ाना जीवन के अविभाज्य अंग बने हुए हैं. अब सब छोड़ कर घर की सीमाओं में आबद्ध रह कर क्या वह संतुष्ट और प्रसन्न रह सकेगी?

कपिल…हां, रूपसी होने के कारण पुरुषों की चाह भरी निगाहों का प्रशंसनीय, उस ने अपना अधिकार समझ कर गौरव के साथ स्वीकारा है. कपिल भी उसी माला की एक कड़ी है. हां, अधिक है तो उस की एकाग्र भक्ति.

वह जानती है कि केवल उस के सान्निध्य के लिए वह बच्चियों के कितने उपद्रव झेल लेता है. अपने प्रति उस के सीमातीत लगाव से कहीं ममता का अहम परितृप्त हो जाता है, इस से अधिक तो कुछ भी नहीं. खिन्न अंतस पर औपचारिक मुसकान ओढ़ कर उस ने प्रिंसिपल के कक्ष में प्रवेश किया.

‘‘ममताजी,’’ पिं्रसिपल का स्वर चिंतायुक्त था, ‘‘अभी बिहारशरीफ से ट्रंककाल आया है, आप के पति अस्पताल में भर्ती हैं.’’

ममता के पैरों तले धरती खिसक गई. किंकर्तव्यविमूढ़ सी उस ने कुरसी को थाम लिया. उसी अर्द्धचेतनावस्था में कपिल के फुसफुसाते हुए शब्द स्वयं उस के कानों में पड़ रहे थे, ‘‘ममताजी, मैं टैक्सी ले कर आता हूं.’’

एक अंतहीन यात्रा की कामना. क्योंकि यात्रा के अंत पर अदृष्ट की क्रूर मुसकान को झेल न सकने की असमर्थता, कपिल की निरंतर सांत्वना तेल से चिकनी धरती पर स्थिर न रहने वाले जल कणों के समान निष्फल हो रही थी. ममता के समूचे अस्तित्व को जैसे लकवा मार गया था.

अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में पीले, निस्तेज सौरभ को सफेद पट्टियों से रहित देख कर पल भर को उसे ढाढ़स मिला, दोबारा देखने पर नाक में नली लगी देख उसे मूर्च्छना सी आ गई, वह वहीं धरती पर बैठ गई.

‘‘ममताजी, धैर्य रखिए, इंजीनियर साहब खतरे से बाहर हैं,’’ ममता की हालत देख कर कपिल व्याकुल हो कर उसे धैर्य बंधाने में अपनी शक्ति लगाए दे रहा था. ममता का सारा शरीर थरथर कांप रहा था, काफी देर बाद अपने को संभाल पाई वह. नहीं दुर्घटना तो नहीं हुई है, जिस की कल्पना कर के वह अधमरी हो गई थी, फिर इन्हें क्या हो गया है? अभी 3 दिन पहले तक तो अच्छेभले थे.

बड़े डाक्टर को एक तरफ पा कर उस ने पूछा, ‘‘इन्हें क्या हुआ है, डाक्टर साहब?’’

‘‘आप इन की पत्नी हैं न. इन्होंने पिछली रात नींद की गोलियां खा ली थीं.’’

डाक्टर का स्वर आरोप भरा था, ‘‘सुखी सद्गृहस्थ आत्महत्या क्यों करेगा?’’ ममता को पुन: चक्कर आ गया, उसे लगा समूचा विश्व उस पर हत्या का आरोप लगा रहा है. यहां तक कि उस की अंतरात्मा भी उसे ही अभियुक्त समझ रही है. उस की सारी दृढ़ता चूरचूर हो कर बिखर गई थी.

कालरात्रि के समान वह रात बीती, भोर की प्रथम किरण के साथ सौरभ ने आंखें खोलीं. ममता और उस के पास खड़े कपिल को देख कर उस ने पुन: आंखें मूंद लीं. कपिल के शब्द बहुत दूर से आते लग रहे थे, ‘‘ममताजी, चाय पी लीजिए, कल से आप ने कुछ खाया नहीं है. इस तरह अपने को क्यों कष्ट दे रही हैं, सब ठीक हो जाएगा.’’

क्षीण देह की भीषण पीड़ा मन को संवेदनशीलता के सामान्य धरातल से ऊंचा उठा देती है, नितांत आत्मीय भी अपरिचितों की भीड़ में ऐसे मिल जाते हैं कि रागद्वेष निस्सार लगते हैं. सत्य की अनुभूति है केवल एक विराट शून्य में तैरती हुई देह और भावनाएं, बाहरी दुनिया के कोलाहल से परे स्थितप्रज्ञ की स्थिति आंखें खुलतीं तो ममता के सूखे मुख पर पल भर को चमक आ जाती.

लगभग एक सप्ताह के उपरांत सौरभ पूरी तरह चैतन्य हुआ. जीवन के अंत को इतने समीप से देख लेने के बाद अपना आवेग, अपनी प्रतिक्रिया सभी कुछ निरर्थक लग रहे थे. मृत्यु के मुख से लौट आने की लज्जा ने उस की वाणी को संकुचित कर दिया था.

अस्पताल से घर आने के बाद ममता से कुछ कहने के लिए पहली बार साहस बटोरा, ‘‘तुम अब पटना चली जाओ, काफी छुट्टी ले चुकी हो.’’

‘‘मैं अब कहीं नहीं जाऊंगी, कपिल से मैं ने इस्तीफा भिजवा दिया है.’’

‘‘इस्तीफा वापस भी लिया जा सकता है, इतने दिनों की तुम्हारी स्थायी नौकरी है…उसे छोड़ना बेवकूफी है,’’ बिना विचलित हुए ठंडेपन से सौरभ ने कहा.

ममता को लगा सौरभ उस के पुराने वाक्य को दोहरा रहा है.

‘‘उन सब बातों को भूल नहीं सकोगे. तुम्हें मेरे ऊपर भरोसा नहीं था तभी तो…और अब मुझे तुम्हारे ऊपर भरोसा नहीं रहा, मैं तुम्हें पल भर को भी अपनी आंखों से ओझल नहीं होने दूंगी…’’

रूपगर्विता के दर्प के हिमखंड वेदना की आंच से पिघल कर आंखों में छलक आए थे और उन जल कणों से सिंचित हो कर सौरभ के अंतस में उगे कैक्टस में फूल खिलने लगे थे.

सफर कुछ थम सा गया: भाग 3

‘‘तुम पढ़ीलिखी समझदार हो. पति चला गया, यह कड़वा सच है. पर क्या तुम में इतनी योग्यता नहीं है कि अपनी व बच्चे की जिंदगी संभाल सको? अभी पैसा तुम्हारा है, कल भी तुम्हारे पास रहेगा, यह भरोसा मत रखना. पैसा है तो कुछ काम भी शुरू कर सकती हो. काम करो, जिंदगी नए सिरे से शुरू करो.’’

जया ने सोचा, ‘दुख जीवन भर का है. उस से हार मान लेना कायरता है. सूरज ने हमेशा अपने फैसले खुद करने का मंत्र मुझे दिया. मुझे उदय की जिंदगी बनानी है. आज के बाद अपने फैसले मैं खुद करूंगी.’

4 साल बीत गए. जया खुश है. उस दिन उस ने हिम्मत से काम लिया. जया का नया आत्मविश्वासी रूप देख सासससुर दोनों हैरान थे. उन की मिन्नत, समझाना, उग्र रूप दिखाना सब बेकार गया. जया ने दोटूक फैसला सुना दिया कि वह यहीं रहेगी. सासससुर खूब भलाबुरा कह वहां से चले गए.

जया ने वहीं आर्मी स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया. इस से उसे घर भी नहीं छोड़ना पड़ा. जड़ों से उखड़ना न पड़े तो जीना आसान हो जाता है. अपने ही घर में रहते, अपने परिचित दोस्तों के साथ पढ़तेखेलते उदय पुराने चंचल रूप में लौट आया.

मेजर शांतनु देशपांडे ने उसे सूरज की कमी महसूस नहीं होने दी. स्कूल का

होमवर्क, तैरना सिखाना, क्रिकेट के दांवपेच, शांतनु ने सब संभाला. उदय खिलने लगा. उदय को खुश देख जया के होंठों की हंसी भी लौटने लगी.

शाम का समय था. उदय खेलने चला गया था. जया बैठी जिंदगी के उतारचढ़ाव के बारे में सोच रही थी. जिंदगी में कब, कहां, क्या हो जाए, उसे क्या पहले जाना जा सकता है? मैं सूरज के बगैर जी पाऊंगी, सोच भी नहीं सकती थी. लेकिन जी तो रही हूं. छोटे उदय को मैं ने चलना सिखाया था. अब लगता है उस ने मुझे चलना सिखाया. देशपांडे ने सच कहा था जीवन को नष्ट करने का अधिकार मानव को नहीं है. इसे संभाल कर रखने में ही समझदारी है.

शुरू के दिनों को याद कर के जया आज भी सिहर उठी. वैधव्य का बोझ, कुछ करने का मन ही नहीं होता था. पर काम तो सभी करने थे. घर चलाना, उदय का स्कूल, स्कूल में पेरैंट टीचर मीटिंग, घर की छोटीबड़ी जिम्मेदारियां, कभी उदय बीमार तो कभी कोई और परेशानी. आई और शांतनु का सहारा न होता तो बहुत मुश्किल होती.

शांतनु का नाम याद आते ही मन में सवाल उठा, ‘पता नहीं उन्होंने अब तक शादी क्यों नहीं की? हो सकता है प्रेम में चोट खाई हो. आई से पूछूंगी.’

जया उठ कर अपने कमरे में चली आई पर उस का सोचना बंद नहीं हुआ. ‘मैं शांतनु पर कितनी निर्भर हो गई हूं, अनायास ही, बिना सोचेसमझे. वे भी आगे बढ़ सब संभाल लेते हैं. पिछले कुछ समय से उन के व्यवहार में हलकी सी मुलायमियत महसूस करने लगी हूं. ऐसा लगता है जैसे कोई मेरे जख्मों पर मरहम लगा रहा है. उदय का तो कोई काम अंकल के बिना पूरा नहीं होता. क्यों कर रहे हैं वे इतना सब?’

शाम को जया बगीचे में पानी दे रही थी. उदय साथसाथ सूखे पत्ते, सूखी घास निकालता जाता. अचानक वह जया की ओर देखने लगा.

‘‘ऐसे क्या देख रहा है? मेरे सिर पर क्या सींग उग आए हैं?’’

उदय उत्तेजित सा उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘मम्मी, मुझे पापा चाहिए.’’

जया स्तब्ध रह गई.

उस के कुछ कहने से पहले ही उदय कह उठा, ‘‘अब मैं शांतनु अंकल को अंकल नहीं पापा कहूंगा,’’ और फिर वह घर के भीतर चला गया.

उस रात जया सो नहीं पाई. उदय के मन में आम बच्चों की तरह पापा की कमी कितनी खटक रही है, क्या वह जानती नहीं. जब सूरज को खोया था उदय छोटा था, तो भी जो छवि उस के नन्हे से दिल पर अंकित थी, वह प्यार करने, हर बात का ध्यान रखने वाले पुरुष की थी. उस की बढ़ती उम्र की हर जरूरत का ध्यान शांतनु रख रहे थे. उन की भी वैसी ही छवि उदय के मन में घर करती जा रही थी.

आई और शांतनु भी यही चाहते हैं.

इशारों में अपनी बात कई बार कह चुके हैं. वही कोई फैसला करने से बचती रही है.

क्या करूं? नई जिंदगी शुरू करना गलत तो नहीं. शांतनु एक अच्छे व सुलझे इंसान हैं.

उदय को बेहद चाहते हैं. आई और शांतनु दोनों मेरा अतीत जानते हैं. शादी के बाद जब यहां आई थी, तब से जानते हैं. अभी दोनों परिवार बिखरे, अधूरेअधूरे से हैं. मिल जाएं तो पूर्ण हो जाएंगे.

वसंतपंचमी के दिन आई ने जया व उदय को खाने पर बुलाया. उदय जल्दी मचा कर शाम को ही जया को ले वहां पहुंच गया. जया ने सोचा, जल्दी पहुंच मैं आई का हाथ बंटा दूंगी.

आई सब काम पहले से ही निबटा चुकी थीं. दोनों महिलाएं बाहर बरामदे में आ बैठीं. सामने लौन में उदय व शांतनु बैडमिंटन खेल रहे थे. खेल खत्म हुआ तो उदय भागता

बरामदे में चला आया और आते ही बोला,

‘‘मैं अंकल को पापा कह सकता हूं? बोलो

न मम्मी, प्लीज?’’

जया शर्म से पानीपानी. उठ कर एकदम घर के भीतर चली आई. पीछेपीछे आई भी आ गईं. जया को अपने कमरे में ला बैठाया.

‘‘बिटिया, जो बात हम मां बेटा न कह सके, उदय ने कह दी. शांतनु तुम्हें बहुत

चाहता है. तुम्हारे सामने सारी जिंदगी पड़ी है. उदय को भी पिता की जरूरत है और मुझे भी तो बहू चाहिए,’’ आई ने जया के दोनों हाथ पकड़ लिए, ‘‘मना मत करना.’’

जया के सामने नया संसार बांहें पसारे खड़ा था. उस ने लजा कर सिर झुका लिया.

आई को जवाब मिल गया. उन्होंने अलमारी खोल सुनहरी साड़ी निकाल जया

को ओढ़ा दी और डब्बे में से कंगन निकाल पहना दिए.

जया मोम की गुडि़या सी बैठी थी.

उसी समय उदय अंदर आया. वहां का नजारा देख वह चकित रह गया.

आई ने कहा, ‘‘कौन, उदय है न? जा तो बेटा, अपने पापा को बुला ला.’’

‘‘पापा,’’ खुशी से चिल्लाता उदय बाहर भागा.

जया की आंखें लाज से उठ नहीं रही थीं. आई ने शांतनु से कहा, ‘‘मैं ने अपने

लिए बहू ढूंढ़ ली है. ले, बहू को अंगूठी पहना दे.’’

शांतनु पलक झपकते सब समझ गया. यही तो वह चाह रहा था.

मां से अंगूठी ले उस ने जया की कांपती उंगली में पहना दी.

‘‘पापा, अब आप मेरे पापा हैं. मैं आप को पापा कहूंगा,’’ कहता उदय लपक कर शांतनु के सीने से जा लगा.

क्या आप का बिल चुका सकती हूं : भाग 3

‘‘बातें तो बहुत बड़ीबड़ी कर रहे हो…तुम्हारी उम्र क्या है?’’

‘‘दुनिया से दफा हो जाने तक की तो नहीं जानता, पर अगली 1 जून को 30 का हो रहा हूं.’’

मैं चौंकी, ‘‘तुम तो मुझ से बड़े निकले… लगते तो छोटे हो.’’

‘‘हां, अकसर इसी धोखे में बच्चा ही बना रह जाता हूं बड़ों में…’’

‘‘जैसा दिखते हो वैसा स्वभाव भी है तुम्हारा…इसे चलनेफलने दो.’’

‘‘ऐसा मैं भी सोचता रहा, पर…’’

‘‘पर क्या?’’ मैं बीच में बोल पड़ी, ‘‘यही न कि अगर मेरे जैसी कोई तुम्हें पसंद आए तो तुम ज्यादा बचाव न कर उस पर हक जमा सको.’’

‘‘नहीं…ऐसा तो नहीं, क्योंकि मैं स्वयं नहीं चाहता अपने पर किसी का ऐसा अधिकार…फिर जो भीतरबाहर से सुंदर और बहुत हट कर होते हैं, उन का मेरे जैसे घुमक्कड़ व्यक्ति के लिए सुलभ रहना संभव नहीं है.’’

‘‘अगर तुम्हें पता चले कि राशा कुछ महीने की मेहमान है तो?’’

‘‘मुझे ऐसा मजाक पसंद नहीं.’’

‘‘लेकिन मौत ऐसे मजाक पसंद करती है.’’

‘‘क्या राशा को कुछ हुआ है?’’

‘‘किस को कब क्या नहीं हो सकता? मैं इतना जानती हूं कि अगर अभी राशा को यह पता चल जाए कि तुम मेरे साथ हो तो वह हमें अपने पास बुला लेगी या खुद यहां चली आएगी.’’

‘‘मिलन को बुनती ज्यादातर बातें सच तो होती हैं पर झूठ हो जाने के लिए ही. सच तभी बनता है जब किसी आकस्मिक घटना पर सहसा हम कुछ करने को बेचैन हो उठते हैं. जैसे कि हमारा उस रोज का मिलना और अचानक आज मिलना…आप जिंदगी को वाक्यसूत्रों में नहीं पिरो सकतीं.’’

‘‘ओह…मैं भूल ही गई थी…मुझे जल्दी होटल पहुंचना है…’’ कह कर मैं काउंटर पर बिल देने के लिए जाने लगी तो वह मुझे रोक कर बोला, ‘‘आज का दिन मेरा है. प्लीज, यह बिल भी मुझे चुकाने दीजिए न.’’

‘‘किसी पर अधिकार जताने के मौके हमारे हाथ कितनी खूबसूरती से लग जाते हैं,’’ मेरे मुंह से निकला और हम दोनों हंस पड़े.

वह काउंटर पर जा कर लौटा तो मैं ने उस की तरफ हाथ बढ़ा कर कहा, ‘‘चलती हूं…कभी सहसा संयोग बना तो फिर मिलेंगे…बहुत अच्छे हो तुम…अच्छे यानी जैसे भी हो…’’

उस ने मेरे बढ़े हुए हाथ को देखा… मुसकरा कर हाथ जोड़े और बोला, ‘‘हाथ नहीं मिलाऊंगा.’’

उस ने मेरे लौटते हुए हाथ को अपने हाथ में सहेज लिया और मेरे साथ चल पड़ा. हम आगे तक निकल गए.

‘‘क्या करती हैं आप?’’ बहुत देर बाद मेरा हाथ छोड़ कर उस ने पूछा.

‘‘गलती से साइकिएट्रिस्ट हूं. मनोविद या मनोचिकित्सक कहलाना बहुत आसान है. इस दुनिया में जीने के लिए फलसफे और मन के विज्ञान नहीं, अनाम प्रेम चाहिए…या मजबूरी में कोई मौलिक जुगाड़.’’

वह मेरे होटल तक आया और चुपचाप खड़ा हो गया.

मैं सहसा हंस पड़ी.

वह भी हंसा.

‘‘अब क्या करें?’’ मेरे मुंह से निकला.

‘‘अलविदा और क्या?’’ उस ने हाथ बढ़ाया.

‘‘मैं मन में उस लड़की की तसवीर बनाने की कोशिश करूंगी, जिसे उस रोज मुझे देख कर तुम ने याद किया था…’’ मैं ने उस का हाथ बहुत आहिस्ता से छोड़ते हुए कहा.

‘‘कोई जरूरत नहीं…तिल भर का भी फर्क नहीं है. आप के पास आईना नहीं है क्या?’’ कह कर वह चला गया.

मैं देर तक ठगी सी खड़ी रह गई.

5 साल बीते होंगे अस्पताल की तीसरी मंजिल पर अपने दफ्तर में बैठी थी. दूसरे एक विभाग की इंचार्ज डा. सविता मेरे साथ थी. तभी उस की एक सहयोगी आ कर बोली, ‘‘डाक्टर…आप की वह 14 नंबर की मरीज…उसे आज डिस्चार्ज करना है, मगर उस के बिल अभी तक जमा नहीं हुए…आपरेशन के बाद से अब तक 25 हजार की पेमेंट बकाया है.’’

‘‘ओह, इतनी नहीं होनी चाहिए. 30 हजार रुपए तो जमा कर चुके हैं बेचारे. बड़ा नाम सुन कर आए थे इस अस्पताल का…और ये लोग मजबूर मरीजों को लूट रहे हैं. उस का पति क्या कहता है?’’

‘‘कह रहा है कि उस ने अपनी जानपहचान वालों को फोन किए हैं…शायद कुछ उपाय हो जाएगा.’’

‘‘अभी कहां है?’’

‘‘बीवी के लिए फल लेने बाजार गया है…कुछ देर पहले उस से गजल सुन रहा था…’’

‘‘गजल?’’ मैं ने हैरत से पूछा.

‘‘हां…’’ डा. सविता बोली, ‘‘वह लड़की बंद आंखों में लेटेलेटे बहुत प्यारी गजलें गुनगुनाती रहती है. शायद अपने पति की लाचारी को व्यक्त करती है… और क्या तो गजब की किताबें पढ़ती है. चलो, देखते हैं…उस की फाइनल रिपोर्ट भी डा. प्रिया से साइन करानी है…’’

उन दोनों के साथ मैं भी नीचे आ गई. फिर हम सामने की बड़ी इमारत की ओर बढ़ीं और वहां एक अधबने कमरे में पहुंचीं.

देखा, एक युवती बेहद कमजोर हालत में बेड पर पड़ी छत की ओर देख रही है. कमजोरी में भी वह सुंदर लग रही थी. हमें देख कर वह किसी तरह उठ कर बैठने की कोशिश करने लगी.

‘‘लेटी रहो,’’ मैं ने उस के सिरहाने बैठते हुए कहा और पास रखी ‘बुक औफ द हिडन लाइफ’ को हाथ में ले कर पलटने लगी. जीवन और मौत के रिश्ते को अटूट बताने वाली अनोखी किताब.

मैं उस से बतियाने लगी. थकी हुई सांसों के बीच उस ने बताया कि साल भर पहले एक हादसे में उस के घर के सब लोग मारे गए थे और उस के बचपन के एक साथी ने उस से शादी कर ली… ‘‘तभी पता चला कि मेरे अंदर तो भयंकर रोग पल रहा है…अगर मुझे पता होता तो मैं कभी उस से शादी न करती…बेचारा तब से जाने कहांकहां दौड़भाग कर के मेरा इलाज करा रहा है…साल होने को आया…’’

‘‘अब तुम रोग मुक्त हो,’’ मैं ने उस के सिर पर हाथ रखा, ‘‘सब ठीक हो जाएगा.’’

उस ने कातरता से मुझे देखा और आंखें बंद कर लीं. इसी में उस की आंखों में से कुछ बूंदें बाहर निकल आईं और कुछ शब्द भी… ‘‘हां, होता तो सब ठीक ही होगा…पर मुझे अपना जिंदा रहना ठीक नहीं लगता…हालांकि दिमागी तौर पर बिलकुल तंदुरुस्त हूं…जीना भी चाहती हूं…’’

डा. सविता उस की जांच कर के जा चुकी थीं. उसे स्पर्श की एक और तसल्ली दे कर मैं भी उठी. अभी कुछ ही कदम आगे निकली थी कि मेरे कानों में एक गुनगुनाहट पहुंची. देखा, वह आंखें बंद कर के गा रही है :

‘धुआं बना के फिजा में उड़ा दिया मुझ को,

मैं जल रहा था, किसी ने बुझा दिया मुझ को…

खड़ा हूं आज भी रोटी के चार हर्फ लिए,

सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझ को…’

मैं खड़ी रही. उस की गुनगुनाहट धीमी होती चली गई और फिर उसे नींद आ गई. मुझे वे दिन याद आए जब मां के न रहने पर मैं बहुत अकेली पड़ गई थी और नींद में उतरने के लिए इसी तरह अपने दर्द को लोरी बना लेती थी.

रिसेप्शन पर पहुंची. वहां से अस्पताल के प्रबंध निदेशक को फोन कर के बिल के पेमेंट का जिम्मा लिया और लौट आई.

देखा, उस के सिरहाने बैठा एक युवक सेब काट कर प्लेट में रख रहा है. पुरानी पैंटशर्ट के भीतर एक दुबली काया. सिर पर उलझे हुए बाल. युवती शायद सो रही थी.

मैं धीमे कदमों से उस के निकट पहुंची.

वह युवक कह रहा था, ‘‘अब दोबारा मत कहना कि तुम से शादी कर के मैं बरबाद हो गया. नाउ यू आर ओ.के. …मेरे लिए तुम्हारा ठीक होना ही महत्त्वपूर्ण है…पैसों का इंतजाम नहीं हुआ…बट आई एम ट्राइंग माई बेस्ट…’’ उस की आवाज में पस्ती भी थी और उम्मीद भी.

मैं ने देखा, आंखें बंद किए पड़ी वह युवती उस की बात पर धीरेधीरे सिर हिला रही थी. अचानक मेरा हाथ उस युवक की ओर बढ़ा और उस के कंधे पर चला गया. इसी के साथ मेरे मुंह से निकला :

‘‘कैन आइ पे फौर यू?…आप का बिल चुका सकती हूं मैं?’’

वह चौंक कर पलटा और खड़ा हो गया, ‘‘आप?’’

अब मैं ने उस का चेहरा देखा… ‘‘ओह…शेषांत…तुम?’’

एक तूफान उमड़ा और उस ने हमें अपने में ले लिया.

मेरे कंधे से लगा वह सिसकता रहा और मेरे हाथ उस के सिर और पीठ पर कांपते रहे. मेरी आंखें सामने उस लड़की की आंखों से झरते आनंद को देखती रहीं. पता नहीं, कब से चट्टान हो चुकी मेरी आंखों में से कुछ बाहर आने को मचलने लगा.

‘‘राशा…ये हैं…जोया…’’ शेषांत ने मेरे कंधे से हट कर चश्मा उतारते हुए उस से कहा तो मैं चौंकी, ‘‘राशा?’’

वह लड़की अपनी खुशी को समेटती हुई बोली, ‘‘मेरा नाम राशि है…इन्होंने आप लोगों के बारे में बताया था तो मैं ने जिद की थी कि मुझे राशा ही कहा करें.’’

मैं चुप रही…सोचती रही…‘राशा तो अब नहीं है…पर तुम दोनों ने उसे सहेज लिया…बहुत अच्छे हो तुम दोनों.’

हम तीनों अपनीअपनी आंखें पोंछ रहे थे कि सामने से एक नर्स आई. उस ने हंस कर मेरे हाथ में बिलों के भुगतान की रसीद और राशि के डिस्चार्ज की मंजूरी थमाई और चली गई.

मेरी राशा तो खो गई थी पर उस बिल की रसीद के साथ एक और राशा मिल गई. लगा कि जिंदगी अब इतनी वीरान, अकेली न रहेगी. राशा, शेषांत और मैं…एक पूरा परिवार…

संकट की घड़ी : डॉक्टरों की परेशानियां कौन समझेगा ?

उस ने घड़ी देखी. 7 बजने को थे. मतलब, वह पूरे 12 घंटों से यहां लगा हुआ था. परिस्थिति ही कुछ ऐसी बन गई थी कि उसे कुछ सोचनेसमझने का अवसर ही नहीं मिला था.

जब से वह यहां इस अस्पताल में है, मरीज और उस के परिजनों से घिरा शोरगुल सुनता रहा है. किसी को बेड नहीं मिल रहा, तो किसी को दवा नहीं मिल रही. औक्सीजन का अलग अकाल है. बात तो सही है. जिस के परिजन यहां हैं या जिस मरीज को जो तकलीफ होगी, यहां नहीं बोलेगा, तो कहां बोलेगा. मगर वह भी किस को देखे, किस को न देखे. यहां किसी को अनदेखा भी तो नहीं किया जा सकता. बस किसी तरह अपनी झल्लाहट को दबा सभी को आश्वासन देना होता है. किसी को यह समझने की फुरसत नहीं कि यहां पीपीई किट पहने किस नरक से गुजरना होता है. इसे पहने पंखे के नीचे खड़े रहो, तो पता ही नहीं चलता कि पंखा चल भी रहा है या नहीं. और यहां सभी को अपनीअपनी ही पड़ी है.

ठीक है कि सरकारी अस्पताल है और यहां मुसीबत में हारीबीमारी के वक्त ही लोग आते हैं. मगर इस कोरोना के चक्कर में तो जैसे मरीजों की बाढ़ आई है. और यहां न फिजिकल इंफ्रास्ट्रक्चर है और न ह्यूमन रिसोर्सेज हैं. सप्लाई चेन औफ मेडिसिन का कहना ही क्या! किसी को कहो कि मरीज के लिए दवा बाहर से खरीदनी होगी या औक्सीजन का इंतजाम करना होगा, तो वह पहली नजर में ऐसे देखता है, मानो उसी ने अस्पताल से दवाएं या औक्सीजन गायब करवा दिया हो या वही उस की ब्लैक मार्केटिंग करवा रहा हो.

ऐसी खबरें अखबारों और सोशल मीडिया में तैर भी रही हैं. मगर फिर भी ऐसे में एक डाक्टर करे तो क्या. उस का काम मरीजों का इलाज करना है, न कि ब्लैक मार्केटियरों को पकड़ना या सुव्यवस्था कायम करना है. आखिर किस समाज में अच्छेबुरे लोग नहीं होते. फिर भी दवाएंऔक्सीजन आदि की व्यवस्था करा भी दें, तो ऐसे देखेंगे, मानो उसी पर अहसान कर रहा हो.

सैकंड शिफ्ट में आई नर्स मीना के साथ वह वार्ड का एक चक्कर लगा वापस लौटा. थोड़ी देर बाद उस ने उस से पूछा, “डाक्टर भानु आए कि नहीं?” “सर, उन्होंने फोन किया था कि थोड़ी देर में बस पहुंचने ही वाले हैं.”

“देखो, मैं अभी निकल रहा हूं. 10 घंटे से यहां लगा हुआ हूं. अगर और रुका, तो मैं कहीं बेहोश ना हो जाऊं, ऐसा मुझे लग रहा है.”

“ठीक है सर, मैं आप की हालत देख रही हूं. आप घर जाइए.” उस ने सावधानी से पहले पीपीई किट्स को और उस के बाद अपने गाउन और दस्ताने को खोला. इन्हें खोलते हुए उसे ऐसा लगा जैसे वह किसी दूसरी दुनिया से बाहर निकला हो. इस के बाद उस ने स्वयं को सैनिटाइज करना शुरू किया. वहां से बाहर निकल कर अपनी कार के पास आया. वहां थोड़ी भीड़ कम थी. फिर भी उस ने मास्क हटा जोर से सांस खींच फेफड़ों में हवा भरी.

विगत समय के डाक्टर यही तो गलती करते थे कि अपने कमरे में जा कर गाउन, दस्ताने के साथ मास्क को भी हटा लेते थे. जबकि वहां के वातावरण में वायरस तो होता ही था, जो उन्हें अपनी चपेट में ले लेता था.

कार को सावधानी के साथ चलाते हुए वह मुख्य मार्ग पर आया. हालांकि शाम 7 बजे से लौकडाउन है. फिर भी कुछ दुकानें खुली हैं और लोग चहलकदमी करते नजर आ रहे हैं. ‘कब समझेंगे ये लोग कि वे किस खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं ’ वह बुदबुदाया, ‘भयावह हो रहे हालात, प्रशासन की चेतावनी और सख्ती के बावजूद परिस्थितियों को समझ नहीं रहे हैं ये लोग.’

अपने घर के पास पहुंच कर उस ने चैन की सांस ली. उस ने हार्न बजा कर ही अपने आने की सूचना दी.  घर का दरवाजा खुला था और ढाई वर्ष का बेटा नीरज बरामदे में ही खेल रहा था. “पापा आ गए मम्मी,” कहते हुए वह दौड़ कर गेट तक आ गया था. मीरा घर से बाहर निकली और गेट को पूरी तरह से खोल दिया था. उस ने सावधानी से कार को घर के सामने पार्क किया. तब तक नीरज कार के चारों ओर चक्कर लगाता रहा. उस के कार के उतरते ही वह उस से चिपट पड़ा, तो उस ने उसे जोर से ढकेला और चिल्लाने लगा, “मीरा, तुम्हें अक्ल नहीं है, जो बच्चे को इस तरह खुले में छोड़ दिया.

“मैं अस्पताल से आ रहा हूं और यह मुझ से चिपक रहा है. दिनभर घर में टैलीविजन पर सीरियल देखती रहती हो. तुम्हें क्या पता कि वहां क्या चल रहा है. हमेशा जान जोखिम में डाल कर काम करना होता है वहां. संभालो नीरज को. और बाथरूम में गीजर औन किया है कि नहीं. कि मुझे ही वहां जा कर उसे औन करना होगा.”

“कहां का गुस्सा कहां उतारते हो,” धक्का खा कर गिरे बेटे को उठाते हुए मीरा बोली, “यह बच्चा क्या समझेगा कि बाहर क्या चल रहा है. प्ले स्कूल भी बंद है. घर में बंदबंद बच्चा आखिर करे क्या?” बाथरूम में जा कर उस ने अपने सारे कपड़े उतार कर एक टब में छोड़ दिए. फिर इस गरमी में भी पानी के गरम फव्वारे से साबुन लगा स्नान करने लगा.

नहाधो कर जब वह बाहर आया, तो उसे कुछ चैन मिला. एक कोने में उस की नजर पड़ी तो देखा कि नीरज अभी तक सुबक रहा था. वह उस की उपेक्षा कर अपने कमरे में चला तो गया, मगर उसे ग्लानि सी महसूस हो रही थी. बच्चे को उसे इस तरह ढकेलना नहीं चाहिए था.

मगर, क्या उस ने गलत किया. अस्पताल के परिसर में दिनभर कार खड़ी थी. वह खुद कोरोना पेशेंटों से जूझ कर आया था. कितनी भी सावधानी रख लो, इस वायरस का क्या ठिकाना कि कहां छुप कर चिपका बैठा हो. वह तो उस ने उसी के भले के लिए उसे किनारे किया था. नहींनहीं, किनारे नहीं किया था, बल्कि उसे ढकेल दिया था.

जो भी हो, उस ने उस के भले के लिए ही तो ऐसा किया था. अस्पताल से आने के बाद उस का दिमाग कहां सही रहता है. कोई बात नहीं, वह उसे मना लेगा. बच्चा है, मान जाएगा.  इसी प्रकार के तर्कवितर्क उस के दिमाग में चलते रहे .वह ड्राइंगरूम में आया. मीरा उस के लिए ड्राइंगरूम में चायनाश्ता रख गई.

12 साला बेटी मीनू उसे आ कर बस देख कर चली गई. और वह वहां अकेला ही बैठा रहा. फिर वह उठा और नीरज को गोद में उठा लाया.  पहले तो वह रोयामचला और उस की गिरफ्त से भाग छूटने की कोशिश करने लगा. अंततः वह उस की बांहों में मुंह छुपा कर रोने लगा. मीरा उसे चुपचाप देखती रही. उस का मुंह सूजा हुआ था. रोज की तो यही हालत है. वह क्या करे, कहां जाए. उस की इसी तुनकमिजाजी की वजह से उस ने अपनी स्कूल की लगीलगाई नौकरी छोड़ दी थी. और इन्हें लगता है कि मैं घर में बैठी मटरगश्ती करती हूं.

उस ने मीरा को आवाज दी, तो वह आ कर दूसरे कोने में बैठ गई.“तुम मुझे समझने की कोशिश करो,” उसी ने चुप्पी तोड़ी, “बाहर का वातावरण इतना जहरीला है, तो अस्पताल का कैसा होगा, इस पर विचार करो. वहां से कब बुलावा आ जाए, कौन जानता है.” “दूसरे लोग भी नौकरी करते हैं, बिजनेस करते हैं,” मीरा बोली, “मगर, वे अपने बच्चों को नहीं मारते… और न ही घर में उलटीसीधी बातें करते हैं.”

“अब मुझे माफ भी कर दो बाबा,” वह बोला, “अभी अस्पताल की क्या स्थिति है, तुम क्या जानो. रोज लोगों को अपने सामने दवा या औक्सीजन की कमी में मरते देखता हूं. मैं भी इनसान हूं. उन रोतेबिलखते, छटपटाते परिजनों को देख मेरी क्या हालत होती है, इसे समझने का प्रयास करो. और ऐसे में जब तुम लोगों का ध्यान आता है, तो घबरा जाता हूं.”

“मैं ने कब कहा कि आप परेशान नहीं हैं. तभी तो इस घर को संभाले यहां पड़ी रहती हूं. फिर भी आप को खुद पर नियंत्रण रखना चाहिए. ऐसा क्या कि नन्हे बच्चे पर गुस्सा उतारने लगे.” मीरा वहां से उठी और एक बड़ा सा चौकलेट ला कर उसे छिपा कर देती हुई बोली, “ये लीजिए और नीरज को यह कहते हुए दीजिए कि आप खास उस के लिए ही लाए हैं. बच्चा है, खुश हो जाएगा.”

मीरा की तरकीब काम कर गई थी. उस के हाथ से चौकलेट ले कर नीरज बहल गया था. पहले उस ने चौकलेट के टुकड़े किए. एकएक टुकड़ा पापामम्मी के मुंह में डाला. फिर एक टुकड़ा बहन को देने चला गया.  फिर पापा के पास आ कर उस की बालसुलभ बातें शुरू हो गईं. वह उसे ‘हांहूं’ में जवाब देता रहा. उस ने घड़ी देखी, 9 बज रहे थे. और उस पर थकान और नींद हावी हो रही थी. अचानक नीरज ने उसे हिलाया और कहने लगा, “अरे, आप तो सो रहे हैं. मम्मीमम्मी, पापा सो रहे हैं.”

मीरा किचन से निकल कर उस के पास आई और बोली, “आप बुरी तरह थके हैं शायद. इसीलिए आप को नींद आ रही है. मैं खाना निकालती हूं. आप खाना खा कर सो जाइए.” डाइनिंग टेबल तक वह किसी प्रकार गया. मीरा ने खाना निकाल दिया था. किसी प्रकार उस ने खाना खत्म किया और वापस कमरे में आ कर अपने बेड पर पड़ रहा. नीरज उस के पीछेपीछे आ गया था. उसे मीरा यह कहते हुए अपने साथ ले गई कि पापा काफी थके हैं. उन्हें सोने दो.

सचमुच थकान तो थी ही, मगर अब चारों तरफ शांति है, तो उसे नींद क्यों नहीं आ रही. वह उसी अस्पताल में क्यों घूम रहा है, जहां हाहाकार मचा है. कोई दवा मांग रहा है, तो किसी को औक्सीजन की कमी हो रही है. बाहर किसी जरूरतमंद मरीज के लिए उस के परिवार वाले एक अदद बेड के लिए गुहार लगा रहे हैं, घिघिया रहे हैं. और वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो विवश सा खड़ा है.

दृश्य बदलता है, तो बाहर कोई सरकार को, तो कोई व्यवस्था को कोस रहा है. कैसेकैसे बोल हैं इन के, ‘ये लालची डाक्टर, इन का कभी भला नहीं होगा… इस अस्पताल के बेड के लिए भी पैसा मांगते हैं… सारी दवाएं बाजार में बेच कर कहते हैं कि बाजार से खरीद लाओ… और औक्सीजन सिलिंडर के लिए भी बाजार में दौड़ो… क्या करेंगे, इतना पैसा कमा कर? मरने के बाद ऊपर ले जाएंगे क्या? इन के बच्चे कैसे अच्छे होंगे, जब ये कुकर्म कर रहे हैं?’

“नीरज… नीरज, मीनू कहां हो… कहां हो तुम,” वह चिल्लाया, तो मीरा भागीभागी आई, “क्या हुआ जी…? क्यों घबराए हुए हो…? कोई बुरा सपना देखा क्या…?”वह बुरी तरह पसीने से भीगा थरथर कांप रहा था. मीनू और नीरज भयभीत नजरों से उसे देख रहे थे. वह नीरज को गोद में भींच कर रोने लगा था. बेटी मीनू का हाथ उस के हाथ में था. मीरा उसे सांत्वना दे रही थी, “चिंता मत कीजिए. यह संकट की घड़ी भी टल जाएगी. सब ठीक हो जाएगा.”

उस रात अचानक : अब गुंजन क्या सोच रही थी ?

एक महिला की मदद से गुंजन अपहरणकर्ताओं के चंगुल से सकुशल घर वापस आ गई और प्रशांत के सीने से लग गई. वहीं बिना फिरौती पहुंचाए गुंजन का आ जाना प्रशांत को अस्वाभाविक लग रहा था. आखिर उस के मन में क्या चल रहा था?

भाग-1

रोज की तरह आज भी दोनों पतिपत्नी प्रशांत और गुंजन रात का खाना खाने के बाद टहलने के लिए घर से निकल पड़े थे.

प्रशांत एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में इंजीनियर के पद पर कार्यरत है और गुंजन एक ट्रैवल एंड टूर कंपनी में काम करती है. दोनों अच्छाखासा वेतन पाते हैं. सुखसुविधा के हर साजोसामान से घर भरा पड़ा है. दफ्तर दोनों ही अपनीअपनी कार से आतेजाते हैं.

शरीर का थोड़ाबहुत व्यायाम हो जाए और पतिपत्नी को परस्पर एकदूसरे से बातचीत का अवसर मिल जाए, इस उद्देश्य से दोनों रोज ही घर से लंबी सैर के लिए निकलते हैं.

प्रशांत को पान खाने का भी शौक था. शहर की चर्चित पान की दुकान, आपस में बातचीत करते कब करीब आ जाती, उन्हें पता ही नहीं चलता था. पति के साथ गुंजन भी गुलकंद वाला मीठा पान खाने की आदी हो गई थी.

दोनों के विवाह को साढ़े 3 साल हो चुके हैं. प्रशांत के मातापिता घर में नन्हे बच्चे की किलकारियां सुनने को बेचैन हैं किंतु वे दोनों अपने ही कैरियर में व्यस्त, ऊंचाइयों को छूने की महत्त्वाकांक्षा मन में पाले हुए हैं.

प्रशांत पिछले कुछ अरसे से गुंजन को अपनी नौकरी बदलने के लिए जबतब कह देता, ‘‘अब हमें अपने परिवार की योजना बनानी चाहिए…तुम यह भागदौड़ वाली नौकरी छोड़ दो. इस में काफी समय खर्च करना पड़ता है. कहीं किसी अच्छे स्कूल में पढ़ाने की नौकरी का प्रयास करो. यू नो, टीचिंग लाइन में माहौल भी अच्छा…सभ्य मिलता है और छुट्टियां भी काफी मिल जाती हैं.’’

प्रशांत की इस सलाह का आशय गुंजन भलीभांति जानती है.

‘‘यह भी अच्छी नौकरी है…और फिर मेरी रुचि का काम भी है. दूसरी नौकरी क्या आसानी से मिल जाएगी? लगीलगाई बढि़या नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी की तलाश के लिए भागदौड़ करना क्या सही होगा?’’ गुंजन के सवाल पर पुन: प्रशांत ने आपत्ति जाहिर करते हुए कहा, ‘‘लेकिन गुंजन, सारा दिन पुरुष ग्राहकों के साथ डील करना…’’

प्रशांत के मन की बात भांप कर गुंजन बीच में ही बात काटती हुई बोली, ‘‘अच्छा ठीक है. इस बारे में सोचूंगी.’’

इनसान की प्रकृति भी विचित्र होती है. जीवनसाथी के रूप में उसे एक पढ़ीलिखी आधुनिका पत्नी की भी कामना होती है और साथ ही वह नौकरीपेशा, अच्छा वेतन पाने वाली पत्नी की भी उम्मीद करता है और वह यह भी चाहता है कि उस की पत्नी घरपरिवार का पूरा खयाल रखे, घर के हर सदस्य की जरूरत पर तुरंत हाजिर हो.

किंतु इनसान के भीतर की परंपरा- वादी सोच औरत को अपने कार्यक्षेत्र में पुरुष सहकर्मियों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करने को भी सहजता से पचा नहीं पाती.

प्रशांत की ठेठ पुरुषवादी मान- सिकता गुंजन के व्यावसायिक संबंधों को ले कर जबतब सचेत हो जाती.

जब कभी गुंजन कार्य की अधिकता के चलते घर देर से वापस आती तो प्रशांत के दिल व दिमाग पर संदेह का कीड़ा कुलबुलाने लगता.

गुंजन के समक्ष उस की वाणी तो मौन रहती किंतु आंखों और चेहरे के अप्रिय भाव कई सवाल पूछते प्रतीत होते थे.

गुंजन के नाम कोई भी पत्र आता तो प्रशांत पहले पढ़ता. उस के फोन काल्स के बारे में जानने को उत्सुक रहता. आफिस के मामलों में गुंजन से कैफियत मांगता रहता.

ऐसे मौकों पर गुंजन तिलमिला कर रह जाया करती थी. वह सोचती थी कि आज के दौर में व्यक्ति को खुले दिमाग का अवश्य होना चाहिए. पर प्रत्यक्ष वह प्रशांत के हर प्रश्न का सटीक उत्तर दे कर उन की जिज्ञासाएं शांत कर देती थी और अपनी मधुर खिलखिलाहट से वातावरण को हलकाफुलका बना देती थी.

‘‘प्रशांत, तुम इतने पजेसिव हो… शक्की हो…’’ उस के घुंघराले बालों में प्यार से उंगलियां फेरती वह कह उठती थी.

‘‘डियर, सभी मर्द ऐसे ही होते हैं,’’ प्रशांत उसे बांहों में भींच कह उठता था. तब गुंजन का तनमन खिल उठता था.

दोनों टहलते बातें करते जा रहे थे. तभी प्रशांत का मोबाइल बज उठा और वह फोन पर बात करता चला जा रहा था.

पति के पीछेपीछे चलती गुंजन पति के साथ कदम मिला कर चल नहीं पा रही थी क्योंकि जल्दबाजी में आज वह पुरानी चप्पल पहन आई थी. दौड़ कर पति के साथ कदम मिलाने के प्रयास में ठोकर खा कर गिरने को ही थी कि उस की चप्पल टूट गई थी.

प्रशांत अभी भी कान पर मोबाइल लगाए अपनी ही धुन में आगे निकल चुका था.

गुंजन ने पति को पुकारना चाहा किंतु पलक झपकते ही उस की आंखों के सामने काला अंधकार छा गया था. गुंजन के चेहरे को किसी ने कपड़े से कस कर ढांप दिया था और जबरदस्ती खींच कर कार में बिठा कार दौड़ा दी थी.

गुंजन ने हाथपैर मारने का बहुतेरा प्रयास किया किंतु सब व्यर्थ, उस के हाथपैरों को भी बांध दिया गया था.

लाचार और भयभीत गुंजन का दम घुटने लगा था. बेबस छटपटाहट से वह कुछ ही देर में सुधबुध खो बैठी थी.

उधर प्रशांत स्तब्ध खड़ा गुंजन को यहांवहां देख रहा था. परेशान हो कर दौड़ता हुआ घर वापस आया पर वहां भी गुंजन को न पा कर उस के हाथों के तोते उड़ गए थे. वह अनजानी आशंका से भयभीत हो पुन: उसी रास्ते पर दौड़ कर आया और राह चलते लोगों, आसपास की दुकानों पर पूछताछ करने लगा. किंतु कोई लाभ न हुआ.

घर वापस आ कर परिचितों, रिश्तेदारों तथा मित्रों से फोन पर पूछताछ करने के बाद भी उसे निराशा ही हाथ लगी.

सारी रात आंखों ही आंखों में कट गई. पौ फटते ही अचानक फोन की घंटी बज उठी. प्रशांत ने लपक कर फोन का रिसीवर कान से लगाया और परेशान हो उठा.

गुंजन के अपहरण की जानकारी देते हुए अपहरणकर्ताओं ने फिरौती के रूप में एक बड़ी रकम की मांग की थी. साथ ही सख्त शब्दों में धमकी दी गई थी कि अपहरण की भनक या जानकारी पुलिस को नहीं लगनी चाहिए वरना पत्नी से हाथ धोना पड़ेगा.

पूरा घर सहम गया था. चुपचाप पुलिस को सूचना देते ही पुलिस तुरंत सक्रियता से छानबीन में जुट गई थी.

अपहरणकर्ता गुंजन को ले तुरंत शहर से सटे एक गांव में आए थे जहां एक छुटभैये गुंडा नेता की आलीशान कोठी निर्माणाधीन थी. उस कोठी के ही एक खास कोने में गुंजन को ला कर रख दिया गया था.

उस निर्माणाधीन कोठी की हिफाजत और देखभाल के लिए नेता का एक खास कृपापात्र, जो दूर के रिश्ते में नेता का साला लगता था, रात में सोने के लिए आता था. कभीकभार उस के साथ पत्नी और बच्चे भी आ जाते थे.

गुंजन को वहीं छिपा कर अपहरणकर्ता खुद निडरता से फिरौती की रकम के लिए फोन करने के बाद उस के मिलने की प्रतीक्षा में थे. कोठी के मालिक का उन लोगों पर वरदहस्त था. अपहरणकर्ता इसलिए भी निश्ंिचत थे कि बंधी हुई बेबस चिडि़या आखिर यहां से कैसे कहीं भाग जाएगी? इसी सोच के चलते वे गुंजन की तरफ से लापरवाह थे.

प्रशांत दुखी- परेशान मन से पत्नी की सकुशल वापसी की प्रतीक्षा कर रहा था.

रात बीतने का एक प्रहर अभी शेष था, तभी गुंजन ने घर के मुख्यद्वार की घंटी बजा दी. प्रशांत ने दरवाजा खोला, बदहवास गुंजन को एकाएक सामने खड़ा देख वह दंग रह गया था. आश्चर्य मिश्रित हर्ष से उस का चेहरा खिल गया था.

गुंजन की रुलाई फूट पड़ी थी. डरीसहमी गुंजन पति के चौड़े सीने से लग रोतीबिसूरती बोली, ‘‘प्रशांत, उन अपहरणकर्ताओं ने मेरे खूबसूरत कंगन और कानों के कीमती ‘टौप्स’ निकाल लिए.’’

प्रशांत ने पत्नी की आंखों में झांका, ‘‘सिर्फ कंगन और कानों के झुमके ही गए?’’

‘‘वह तो अच्छा हुआ उस दिन मैं ने अपना मंगलसूत्र गले से उतार कर सोनार को बनने के लिए दे दिया था क्योंकि उस की लडि़यों के मोती निकल गए थे,’’ गुंजन अपनी ही रौ में बोल रही थी, ‘‘गले में पहना होता तो वे निर्दयी उसे भी उतार लेते,’’ गुंजन ने सरलता से पति को देखते व्यथित मन से कहा.

किंतु प्रशांत की आंखों में उभरे विचित्र भावों को देख वह चौंक गई थी. सासससुर की आंखों में भी प्रश्नों की जिज्ञासाएं थीं.

केस खुदबखुद सुलझ गया था. पुलिस ने भी राहत की सांस ली.

गुंजन ने अपनी स्वयं घर वापसी की घटना घर के सदस्यों को कह सुनाई थी.

‘‘रात को उस खंडहरनुमा कोठी में एक महिला ने मुझे वहां बंधा हुआ देखा. पहले तो वह हैरान हुई फिर उस ने शायद किसी से फोन पर बात की और कुछ ही देर बाद मुझे बंधन से मुक्त कर तुरंत वहां से भगा दिया. उस ने ही मुझे पैसे भी दिए ताकि मैं घर वापस जा सकूं…मेरी आपबीती सुन कर उस महिला ने मुझे बताया था कि कोठी के मालिक उस के रिश्तेदार हैं…उस ने मुझे हिदायत दी कि मैं इस घटना का जिक्र किसी से न करूं…उस महिला ने वहां से भागने में मेरी मदद करते हुए कहा था, ‘तुम यहां बंधी रही हो, इस बात का जिक्र कहीं न करना…चुनावों का वक्त है…कोठी के मालिक की साख पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए… चुनावों का माहौल न होता तो तुम यहां से जा नहीं सकती थीं. इस वक्त चुनाव की चिंता है, उन्हें बस…’’’

गुंजन की सकुशल वापसी से सासससुर खुश थे…

‘‘बेटा, पुलिस की मदद से बहू के गहने तो उन लुटेरों से वापस ले लो…’’

गुंजन की सास को बहू के गहनों की चिंता सता रही थी किंतु गुंजन को गहनों से अधिक अपनी घरवापसी प्रिय लग रही थी.

गुंजन तो उम्मीद ही छोड़ चुकी थी उस अंधेरे नरक से वापसी की. उन बदमाशों की कैद में क्याक्या अनर्गल विचार…कैसीकैसी आशंकाएं उठती थीं उस के मन में. याद कर वह सिहर उठी थी.

भयंकर अट्टहास के साथ गुंजन ने उन बदमाशों के गंदे इरादे भी सुने थे, ‘‘यार, अब की बड़ा हाथ मारा है. कमाई तो अच्छी होगी ही…फिर इतनी खूबसूरत, जवान, ऐसा गदराया जिस्म है कि बस… खूब मजा आएगा,’’ यह कह कर उन्होंने गुंजन के जिस्म पर हाथ फेरा तो वह कसमसा उठी थी. हाथपैर बंधे थे, आंखें भी ढंकी थीं.

अपने समीप उन बदमाशों की पगध्वनि सुन कर गुंजन सहम गई थी और अपने सर्वनाश की कल्पना कर उस ने आंखें जोर से भींच लीं.

‘‘अरे, मजे फिर ले लेना. इस काम के लिए तुम्हें रोकूंगा भी नहीं, लेकिन इस के घर वाले ने पुलिस को इत्तला कर दी है इसलिए आज की रात तो पहले हमें अपनी जान बचानी है. कल जैसा जी में आए करना,’’ तीनों की सम्मिलित हंसी गूंज गई थी.

और उसी रात गुंजन उस अजनबी औरत के कारण घर वापस आ सकी थी.

गुंजन सहीसलामत अपने घर वापस आने पर खुश थी लेकिन घर का माहौल जैसे उसे कुछ बदलाबदला लग रहा था.

प्रशांत का बदला व्यवहार उसे बेचैन कर रहा था. वह गुंजन से कुछ खिंचाखिंचा रहने लगा. गुंजन का बिना फिरौती दिए खुद ही घर वापस आ जाना उसे अस्वाभाविक लग रहा था. ‘सिर्फ जेवर ले कर ही अपहरणकर्ता खुश हो गए…क्या गुंजन उन के पास सहीसलामत रही होगी?’

प्रशांत के प्यार की गरमाहट समाप्त होती जा रही थी. दिनप्रतिदिन प्रशांत की उदासीनता और उपेक्षा से गुंजन दुखी और निराश रहने लगी थी.

इसी बीच दफ्तर के काम के दौरान उसे जबरदस्त चक्कर आ गया था. सिर घूम गया था. ‘शायद खानेपीने की लापरवाही से ऐसा हो,’ यह सोच कर वह कैंटीन की ओर बढ़ गई. किंतु जैसे ही कौर उठा कर मुंह में डाला तो उबकाई का उसे एहसास हुआ और वह उलटी के लिए टायलेट की ओर भागी. इस के बाद तो गुंजन निढाल सी हो गई और आफिस से छुट्टी ले डाक्टर के पास चली गई.

गुंजन का शक सही निकला. लेडी डाक्टर ने उसे गर्भवती होने की खुशखबरी सुनाई. गुंजन का तनमन खिल उठा. वह प्रशांत को यह खुशखबरी सुनाने को आतुर थी.

‘अब प्रशांत का व्यवहार भी उस के साथ अच्छा हो जाएगा, यह जान कर कि वह पिता बनने वाला है, खुश होगा,’ गुंजन मन ही मन विचार करती घर पहुंच गई थी.  -क्रमश:

अंतिम भाग   पूर्व कथा     सुखसुविधा के हर साजोसामान के साथ प्रशांत और गुंजन खुशहाल जिंदगी जी रहे थे. इच्छा थी तो उन्हें एक संतान की. अचानक एक रात घर से बाहर टहलने के दौरान गुंजन का अपहरण हो जाता है. अपहरणकर्ता फिरौती में भारी रकम की मांग करते हैं. उधर, एक दिन अनजान महिला बंधी गुंजन की रस्सी खोल उसे अपहरणकर्ताओं के चंगुल से छुटकारा दिला देती है. रात बीतने का एक प्रहर अभी शेष है कि घंटी टनटनाती है. परेशान प्रशांत डरडर कर दरवाजा खोलता है, गुंजन को देख आश्चर्यमिश्रित हर्ष से उस का चेहरा खिल जाता है और डरीसहमी गुंजन पति के चौड़े सीने से लग रोतीबिसूरती बोलती है, ‘‘प्रशांत, अपहरणकर्ताओं ने मेरे खूबसूरत कंगन और कानों के कीमती टौप्स निकाल लिए…’’  गुंजन की सकुशल वापसी से सासससुर खुश थे. सास को बहू के गहनों की चिंता सता रही थी जबकि गुंजन को गहनों से अधिक अपनी घरवापसी प्रिय लग रही थी. वहीं, प्रशांत का बदलाबदला व्यवहार उसे बेचैन कर रहा था. वह गुंजन से कुछ खिंचाखिंचा रह रहा था. अपहरणकर्ताओं को फिरौती पहुंचाए बिना ही गुंजन का घर वापस आ जाना उसे अस्वाभाविक लग रहा था. ‘सिर्फ जेवर ले कर ही अपहरणकर्ता खुश हो गए…क्या गुंजन उन के पास सहीसलामत रही होगी?’ गुंजन के प्रति प्रशांत के प्यार की गरमाहट समाप्त होती जा रही थी. प्रशांत द्वारा उपेक्षित गुंजन दुखी और निराश रहने लगती है. इसी बीच, एक दिन आफिस में काम के दौरान गुंजन को उबकाई का एहसास हुआ और वह उलटी के लिए टायलेट की ओर भागी. अस्वस्थ महसूस करने पर वह आफिस से छुट्टी ले कर सीधे डाक्टर के पास गई. लेडी डाक्टर ने उसे गर्भवती होने की खुशखबरी दी. खुशी से दीवानी गुंजन यह खुशखबरी प्रशांत को सुनाने को आतुर हो जाती है. ‘अब प्रशांत का व्यवहार अच्छा हो जाएगा. यह जान कर कि वह पिता बनने वाला है, खुश होगा,’ मन ही मन ऐसा सोचती गुंजन घर पहुंचती है…अब आगे…    गतांक से आगे…

गुंजन की आशा के विपरीत प्रशांत पिता बनने की बात जान कर स्तब्ध रह गया. उस के विचित्र हावभाव उस के भीतर छिपी बेचैनी को बयान कर रहे थे.

‘‘तुम तो कहती थीं कि उन बदमाशों ने तुम्हारे साथ कोई बदतमीजी नहीं की… तो फिर…’’ कह कर उस ने गुंजन का हाथ जोर से   झटक दिया था और फिर अंटशंट बकना शुरू कर दिया था.

प्रशांत ने गुंजन से और अधिक दूरी बना ली थी. वह पति के समीप जाने को होती तो प्रशांत गुंजन पर कठोर नजर फेंक कर उस के समीप से हट जाता. और एक दिन प्रशांत के मन में छिपी बेचैनी उस के अधरों तक आ ही गई जब उस ने कड़े लहजे में कहा,  ‘उन डकैतों का बच्चा यहां इस घर में नहीं पलेगा.’

गुंजन यह सुन कर अवाक् रह गई थी. पत्नी से दूरी बनाता प्रशांत इन दिनों किसी अन्य स्त्री के समीप जा रहा था. गुंजन दिल पर पत्थर रख चुपचाप बरदाश्त कर रही थी.

प्रशांत के मन में चल रही उथलपुथल का वाणी से खुलासा आज हो गया था. वह गुंजन के साथ संबंध

रूदन : नताशा क्यों परेशान थी ?

नतालिया इग्नातोवा या संक्षेप में नताशा मास्को विश्वविद्यालय में हिंदी की रीडर थी. उस के पति वहीं भारत विद्या विभाग के अध्यक्ष थे. पतिपत्नी दोनों मिलनसार, मेहनती और खुशमिजाज थे.

नताशा से अकसर फोन पर मेरी बात हो जाती थी. कभीकभी हमारी मुलाकात भी होती थी. वह हमेशा हिंदी की कोई न कोई दूभर समस्या मेरे पास ले कर आती जो विदेशी होने के कारण उसे पहाड़ जैसी लगती और मेरी मातृभाषा होने के कारण मुझे स्वाभाविक सी बात लगती. जैसे एक दिन उस ने पूछा कि रेलवे स्टेशन पर मैं उस से मिला या उस को मिला, क्या ठीक है और क्यों? आप बताइए जरा.

उस ने मुझे अपने संस्थान में 2-3 बार अतिथि प्रवक्ता के रूप में भी बुलाया था. मैं गया, उस के विद्यार्थियों से बात की. उसे अच्छा लगा और मुझे भी. मैं भी दूतावास के हिंदी से संबंधित कार्यक्रमों में उसे बुला लेता था.

नताशा मुझे दूतावास की दावतों में भी मिल जाती थी. जब भी दूतावास हिंदी से संबंधित कोई कार्यक्रम रखता, तो समय होने पर वह जरूर आती. कार्यक्रम के बाद जलपान की भी व्यवस्था रहती, जिस में वह भारतीय पकवानों का भरपूर आनंद लेती.

2-3 बार भारत हो आई नताशा को हिंदी से भी ज्यादा पंजाबी का ज्ञान था और वह बहुत फर्राटे से पंजाबी बोलती थी. दरअसल, शुरू में वह पंजाबी की ही प्रवक्ता थी, लेकिन बाद में जब विश्व- विद्यालय ने पंजाबी का पाठ्यक्रम बंद कर दिया तो वह हिंदी में चली आई.

रूस में अध्ययन व्यवस्था की यह एक खास विशेषता है कि व्यक्ति को कम से कम 2 कामों में प्रशिक्षण दिया जाता है. यदि एक काम में असफल हो गए तो दूसरा सही. इसलिए वहां आप को ऐसे डाक्टर मिल जाएंगे जो लेखापाल के कार्य में भी निपुण हैं.

हम दोनों की मित्रता हो गई थी. वह फोन पर घंटों बातें करती रहती. एक दिन फोन आया, तो वह बहुत उदास थी. बोली, ‘‘हमें अपना घर खाली करना होगा.’’

‘‘क्यों?’’ मैं ने पूछा, ‘‘क्या बेच दिया?’’

‘‘नहीं, किसी ने खरीद लिया,’’ उस ने बताया.

‘‘क्या मतलब? क्या दोनों ही अलगअलग बातें हैं?’’ मैं ने अपने मन की शंका जाहिर की.

‘‘हां,’’ उस ने हंस कर कहा, ‘‘वरना भाषा 2 अलगअलग अभि- व्यक्तियां क्यों रखती?’’

‘‘पहेलियां मत बुझाओ. वस्तुस्थिति को साफसाफ बताओ,’’ मैं ने नताशा से कहा था.

‘‘पहले यह बताइए कि पहेलियां कैसे बुझाई जाती हैं?’’ उस ने प्रश्न जड़ दिया, ‘‘मुझे आज तक समझ नहीं आया कि पहेलियां क्या जलती हैं जो बुझाई जाती हैं.’’

‘‘यहां बुझाने का मतलब मिटाना, खत्म करना नहीं है बल्कि हल करना, सुलझाना है,’’ मैं ने जल्दी से उस की शंका का समाधान किया और जिज्ञासा जाहिर की, ‘‘अब आप बताइए कि मकान का क्या चक्कर है?’’

‘‘यह बड़े दुख का विषय है,’’ उस ने दुखी स्वर में कहा, ‘‘मैं ने तो आप को पहले ही बताया था कि मेरा मकान बहुत अच्छे इलाके में है और यहां मकानों के दाम बहुत ज्यादा हैं.’’

‘‘जी हां, मुझे याद है,’’ मैं ने कहा, ‘‘वही तो पूछ रहा हूं कि क्या अच्छे दाम ले कर बेच दिया.’’

‘‘नहीं, असल में एक आदमी ने मेरे मकान के बहुत कम दाम भिजवाए हैं और कहा है कि आप का मकान मैं ने खरीद लिया है,’’ उस ने रहस्य का परदाफाश किया.

‘‘अरे, क्या कोई जबरदस्ती है,’’ मैं ने उत्तेजित होते हुए कहा, ‘‘आप कह दीजिए कि मुझे मकान नहीं बेचना है.’’

‘‘बेचने का प्रश्न कहां है,’’ नताशा बुझे हुए स्वर में बोली, ‘‘यहां तो मकान जबरन खरीदा गया है.’’

‘‘लेकिन आप मकान खाली ही मत कीजिए,’’ मैं ने राह सुझाई.

‘‘आप तो दूतावास में हैं, इसलिए आप को यहां के माफिया से वास्ता नहीं पड़ता,’’ उस ने दर्द भरे स्वर में बताया, ‘‘हम आनाकानी करेंगे तो वे गुंडे भिजवा देंगे, मुझे या मेरे पति को तंग करेंगे. हमारा आनाजाना मुहाल कर देंगे, हमें पीट भी सकते हैं. मतलब यह कि या तो हम अपनी छीछालेदर करवा कर मकान छोड़ें या दिल पर पत्थर रख कर शांति से चले जाएं.’’

‘‘और अगर आप पुलिस में रिपोर्ट कर दें तो,’’ मुझे भय लगने लगा था, ‘‘क्या पुलिस मदद के लिए नहीं आएगी?’’

‘‘मकान का दाम पुलिस वाला ही ले कर आया था,’’ उस ने राज खोला, ‘‘बहुत मुश्किल है, प्रकाशजी, माफिया ने यहां पूरी जड़ें जमा रखी हैं. यह सरकार माफिया के लोगों की ही तो है. मास्को का जो मेयर है, वह भी तो माफिया डौन है. आप क्या समझते हैं कि रूस तरक्की क्यों नहीं करता? सरकार के पास पैसे पहुंचते ही नहीं. जनता और सरकार के बीच माफिया का समानांतर शासन चल रहा है. ऐसे में देश तरक्की करे, तो कैसे करे.’’

‘‘यह न केवल दुख का विषय है बल्कि बहुत डरावना भी है,’’ मुझे झुरझुरी सी हो आई.

‘‘देखिए, हम कितने बहादुर हैं जो इस वातावरण में भी जी रहे हैं,’’ नताशा ने फीकी सी हंसी हंसते हुए कहा था.

मैं 1997 में जब मास्को पहुंचा था, तो एक डालर के बदले करीब 500 रूबल मिलते थे. साल भर बाद अचानक उन की मुद्रा तेजी से गिरने लगी. 7, 8, 11, 22 हजार तक यह 4-5 दिनों में पहुंच गई थी. देश भर में हायतौबा मच गई. दुकानों पर लोगों के हुजूम उमड़ पड़े, क्योंकि दामों में मुद्रा हृस के मुताबिक बढ़ोतरी नहीं हो पाई थी. सारे स्टोर खाली हो गए और आम रूसी का क्या हाल हुआ, वह तब पता चला जब नताशा से मुलाकात हुई.

नताशा ने मुझे बताया था कि अपने मकान से मिली राशि और अपनी जमापूंजी से वह एक मकान खरीद लेगी जो बहुत अच्छी जगह तो नहीं होगा पर सिर छिपाने के लिए जगह तो हो ही जाएगी.

‘‘क्यों नया मकान खरीदा?’’ उस के दोबारा मिलने पर मैं ने पूछा.

मेरा सवाल सुन कर नताशा विद्रूप हंसी हंसने लगी. फिर अचानक रुक कर बोली, ‘‘जानते हैं यह मेरी जो हंसी है वह असल में मेरा रोना है. आप के सामने रो नहीं सकती, इसलिए हंस रही हूं. वरना जी तो चाहता है कि जोरजोर से बुक्का फाड़ कर रोऊं,’’ वह रुकी और ठंडी आह भर कर फिर बोली, ‘‘और रोए भी कोई कितना. अब तो आंसू भी सूख चुके हैं.’’

मैं समझ गया कि मामला कुछ रूबल की घटती कीमत से ही जुड़ा होगा. मकानों के दाम बढ़ गए होंगे और नताशा के पैसे कम पड़ गए होंगे. मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं था, चुप रहा.

‘‘आप जानते हैं, राज्य का क्या मतलब होता है? हमें बताया जाता है कि राज्य लोगों की मदद के लिए है, समाज में व्यवस्था के लिए है, समाज के कल्याण के लिए है. यह हमारा, हमारे लिए, हमारे द्वारा बनाया गया राज्य है. लेकिन अगर आप ने इतिहास पढ़ा हो तो आप को पता चलेगा कि राज्य व्यवस्था का निर्माण दरअसल, लोगों के शोषण और उन पर शासन के लिए हुआ था? इसलिए हम जो यह खुशीखुशी वोट देने चल देते हैं, उस का मतलब सिर्फ इतना भर है कि हम अपनी इच्छा से अपना शोषण चुन रहे हैं.’’

नताशा बोलती रही, मैं ने उसे बोलने दिया क्योंकि मेरे टोकने का कोई औचित्य नहीं था और मुझे लगा कि बोल लेने से संभवत: उस का दुख कम होगा.

‘‘आप शायद नहीं जानते कि कल तक हमारे पास 80 हजार रूबल थे, जो हम ने अतिरिक्त काम कर के पेट काटकाट कर, पैदल चल कर, खुद सामान ढो कर और इसी तरह कष्ट उठा कर जमा किए थे. सोचा था कि एक कार खरीदेंगे पर जब उन हरामजादों ने हमारा मकान छीन लिया, तो सोचा कि चलो अभी मकान ही खरीदा जाए,’’ नताशा बातचीत के दौरान निस्संकोच गालियां देती थी जो उस के मुंह से अच्छी भी लगती थीं और उस के दुख की गहराई को भी जाहिर करती थीं, ‘‘पर हमें 2 दिन की देर हो गई और अब पता चला कि देर नहीं हुई, बल्कि देर की गई. हम तो सब पैसा तैयार कर चुके थे. लेकिन मकानमालिक को वह सब पता था, जो हमारे लिए आश्चर्य बन कर आया, इसलिए उस ने पैसा नहीं लिया.’’

नताशा ने रुक कर लंबी सांस ली और आगे कहा, ‘‘आप जानते हैं, यह मुद्रा हृस कब हुआ? यह अचानक नहीं हुआ, उन कुत्तों ने अपने सब रूबल डालर में बदल लिए या संपत्ति खरीद ली और फिर करवा दिया मुद्रा हृस. भुगतें लोग. रोएं अपनी किस्मत को,’’ इतना कह कर वह सचमुच रोने को हो आई, फिर अचानक हंसने लगी. बोली, ‘‘जाने क्यों, मैं, आप को यह सब सुना कर दुखी कर रही हूं,’’ उस ने फिर कहा, ‘‘शायद सहकर्मी होने का फायदा उठा रही हूं. जानते हैं न कि जिन रूबलों से मकान लिया जा सकता था वे अब एक महीने के किराए के लिए भी काफी नहीं हैं.’’

उस ने फीकी हंसी हंस कर फिर कहा, ‘‘और व्यवस्था पूरी थी. बैंक बंद कर दिए गए. लोग बैंकों के सामने लंबी कतारों में घंटों खड़े रहे. किसी को थोड़े रूबल दे दिए गए और फिर बैंकों को दिवालिया घोषित कर दिया गया. लोग सड़कों पर ही बाल नोचते, कपड़े फाड़ते देखे गए. लेकिन किसी का नुकसान ही तो दूसरे का फायदा होगा. यह दुनिया का नियम है.’’

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पिताजी : भाग 2

उस समय मेरा मन किया कि फिल्मी हीरोइनों की तरह फौरन मम्मी के गले लग जाऊं, पर ऐसा कर नहीं सकी. शायद कहीं पिताजी का स्वभाव जो कहीं न कहीं मेरे भीतर भी था, वही मेरे आड़े आ गया.

मैं पिताजी के कमरे से फौरन मम्मी के पास आ गई. क्या एक बार पिताजी चल कर मम्मी का हाल पूछने नहीं जा सकते थे? फिर सोचा अच्छा है, न ही जाएं. जा कर भी क्या करेंगे? बोलेंगे, तू भी वीना लेटने के बहाने ढूंढ़ती है. जरा सा सिरदर्द है, अभी ठीक हो जाएगा. और फिर मस्त हो कर किताबें पढ़ने लगेंगे जबकि वे भी जानते हैं कि मम्मी को नखरे दिखाने की जरा भी आदत नहीं है. जब तक शरीर जवाब न दे जाए वे बिस्तर पर नहीं लेटतीं. कभी मैं सोचती, काश, मेरी मम्मी पिताजी की इस किताब की जगह होतीं. मैं विनीता दीदी को पिताजी की बात बताने जा रही थी, तभी देखा कि वे काढ़ा छान रही हैं. विनीता दीदी ने शायद पहले ही पिताजी की बात सुन ली थी. वे तुलसी का काढ़ा ले कर मम्मी को देने चली गईं.

दोपहर हो गई, फिर शाम और फिर रात, पर मम्मी का बुखार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. रात को डाक्टर बुलाना पड़ा. उस ने बुखार उतारने का इंजेक्शन लगा दिया और अस्पताल ले जाने के लिए कह कर चला गया.

अस्पताल का नाम सुनते ही मेरे तो हाथपांव ही फूल गए. मैं ने लोगों के घरों में तो देखासुना था कि फलां आदमी बीमार हो गया कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा. पूरा घर उथलपुथल हो गया. मुझे समझ में नहीं आता था कि एक आदमी के अस्पताल जाने से घर उथलपुथल कैसे हो जाता है?

सुबहसुबह ही पंकज और मोहन भैया मम्मी को अस्पताल ले गए. मैं अनजाने डर से अधमरी ही हो गई. विनीता दीदी मुझे ढाढ़स बंधाती रहीं कि कुछ नहीं होगा, तू घबरा मत. मम्मी जल्दी ही चैकअप करवा कर लौट आएंगी. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. चैकअप तो हुआ पर मम्मी को डाक्टर ने अस्पताल में ही दाखिल कर लिया. घर आ कर दोनों भाइयों ने पिताजी को बताया तो भी पिताजी को न तो कोई खास हैरानगी हुई और न ही उन के चेहरे पर कोई परेशानी उभरी. मैं पिताजी के पत्थर दिल को देखती रह गई. मुझ से न तो खाना खाया जा रहा था न ही किसी काम में मन लग रहा था.

विनीता दीदी ने डाक्टर के कहे अनुसार मम्मी के लिए पतली सी खिचड़ी बनाई, चाय बनाई, भैया के लिए खाना बनाया और पैक कर के मोहन भैया को वापस अस्पताल भेज दिया. पिताजी घर पर ही बैठे रहे. विनीता दीदी ने पूरे घर के लिए खाना बनाया और खिलाया. मैं घर के काम में उन का हाथ बंटाती रही.

कालेज जाने का मन नहीं किया. एक बार पिताजी से डर भी लगा कि जरूर डांटेंगे कि कालेज क्यों नहीं गई. छोटी बहन पूर्वी तो स्कूल चली गई थी. पिताजी की नजर मुझ पर पड़ी, उन के बिना बोले ही मैं ने दीदी को कहा, ‘‘आज मेरा मन कालेज जाने का नहीं है. आप मुझे कुछ मत कहना,’’ कहते ही मैं दूसरे कमरे में चली गई. दीदी ने मुझे हैरानगी से देखा पर पिताजी की तरफ नजर पड़ते ही वे समझ गईं कि मैं क्यों ऐसा बोल रही हूं. पिताजी भी कुछ नहीं बोले.

स्कूल से लौट कर पूर्वी को मम्मी के अस्पताल दाखिल होने का पता चला तो वह रोने लगी. मेरा भी मन कर रहा था कि उस के साथ रोने लगूं, पर यह सोच कर आंसू पी गई कि पिताजी डांटेंगे कि क्या तुम सब पागल हो गए हो जो रो रहे हो. बीमार ही तो हुई है, एकदो दिन में ठीक हो जाएगी.

मम्मी कभी इतनी बीमार तो पड़ी ही नहीं थीं कि उन्हें अस्पताल जाना पड़ता. पिताजी अपने कमरे में किताब पढ़तेपढ़ते दोपहर को सो गए, फिर शाम को पार्क में सैर करने निकल गए. पंकज भैया की प्राइवेट नौकरी थी इसलिए आफिस में खबर करनी थी. मोहन भैया की सरकारी नौकरी थी. सो उन्होंने फोन कर के आफिस में बता दिया था.

विनीता दीदी भी आफिस नहीं गईं. उन्होंने भी फोन कर दिया था. पिताजी ने तो भैया के कहने से कब से काम करना छोड़ दिया था. विनीता दीदी मुझे रात की रसोई का काम समझ कर मम्मी के पास अस्पताल चली गईं.

अब घर पर मैं, पिताजी और पूर्वी थे. पंकज भैया भी आफिस से सीधे अस्पताल चले गए. बड़े भैया जगदीश और भाभी तो अलग ही थे. वे हम लोगों से कम ही वास्ता रखते थे, ऐसे में उन्हें कोई काम कहा ही नहीं जा सकता था. पापा बोलते थे कि जगदीश जोरू का गुलाम हो गया है, वह किसी काम का नहीं अब.

दीदी कभीकभी पिताजी को सुना दिया करती थीं कि अगर पति अपनी पत्नी का हर कहना मानता है तो इस में हर्ज ही क्या है? इस पर पिताजी कहते, ‘ऐसा आदमी कमजोर होता है. मैं उसे मर्द नहीं मानता.’ वैसे भी बड़े भैया के बदले हुए स्वार्थभाव को देख कर उन का होना न होना एक बराबर ही था.

मैं ने खाना बनाया, पूर्वी मेरी सहायता करती रही. पिताजी पार्क से आ कर चुपचाप कमरे में बैठे किताब पढ़ते रहे. कुछ नहीं बोले. शाम की चाय के साथ क्या खाएंगे, इस के जवाब में उन्होंने कोई मांग नहीं की.

भैया के आते ही पिताजी बिना कुछ बोले भैया के सामने बैठ गए. भैया ने बताया कि डाक्टर ने चैकअप किया है उस की परसों रिपोर्ट आएगी, तभी पता चल पाएगा कि असल बीमारी क्या है. यानी कि कम से कम 2 दिन तो और मम्मी को अस्पताल में रहना ही होगा. मेरी हवाइयां उड़ने लगीं. पंकज मेरी सूरत भांप गया, बोला, ‘‘तू क्यों घबरा रही है. वहां मम्मी को अच्छी तरह रखा हुआ है. डाक्टर जानपहचान की मिल गई थीं. उन्होंने एक नर्स को खासतौर पर मम्मी की तबीयत देखने के लिए हिदायत दे दी है. अलग से कमरा भी दिलवा दिया है.’’

मैं ने पिताजी के चेहरे पर आश्वासन की लकीरें देखीं पर फिर तुरंत गायब होते भी देखीं. एक-दो दिन बीते. पता चला मम्मी को ‘यूरिन इन्फेक्शन’ हो गया है. डाक्टर ने कहा कि पूरा उपचार करना होगा, एक सप्ताह तो लगेगा ही. पूरे घर का रुटीन ही गड़बड़ा गया. कौन अस्पताल भाग रहा है, कौन मम्मी के पास बैठ रहा है, कौन रात को मम्मी के पास रहेगा, कौन घर संभालेगा. कुछ सम?ा में नहीं आ रहा था. जिस को जो काम दिख जाता वह कर लेता था.

तपस्या : भाग 2

पिताजी कहा करते थे कि धीरेधीरे सब का मन जीत लेगी वह. सब सहज हो जाएगा. पर जिस का मन जीतना था वह तो दूसरे ही दिन चला गया था. एक हफ्ते बाद ही फिर दिल्ली से अमेरिका भी.

पहुंच कर पत्र भी आया था तो घर वालों के नाम. उस का कहीं कोई जिक्र नहीं था. रोती आंखों से वह देर तक घंटों पता नहीं क्याक्या सोचती रहती थी. घर में बूढ़े सासससुर थे. बड़ी शादीशुदा ननद शोभा अपने बच्चों के साथ शादी पर आई थी और अभी वहीं थी. सभी उस का ध्यान रखते थे. वे अकसर उसे घूमने भेज देते, कहते, ‘फिल्म देख आओ, बहू, किसी के साथ,’ पर पति से अपनेआप को अपमानित महसूस करती वह कहां कभी संतुष्ट हो पाती थी.

शोभा जीजी को भी अपनी ससुराल लौटना था. घर में फिर वह, मांजी और बाबूजी ही रह गए थे. महीने भर के अंदर ही उस के ससुर को दूसरा दिल का दौरा पड़ा था. सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया. बड़ी कठिनाई से हफ्ते भर की छुट्टी ले कर शिखर भी अमेरिका से लौटा था, भागादौड़ी में ही दिन बीते थे. घर नातेरिश्तेदारों से भरा था और इस बार भी बिना उस से कुछ बोले ही वह लौट गया था.

‘मां, तुम अकेली हो, तुम्हें बहू की जरूरत है,’ यह जरूर कहा था उस ने.

शैली जब सोचने लगती है तो उसे लगता है जैसे किसी सिनेमा की रील की तरह ही सबकुछ घटित हो गया था उस के साथ. हर क्षण, हर पल वह जिस के बारे में सोचती रहती है उसे तो शायद कभी अवकाश ही नहीं था अपनी पत्नी के बारे में सोचने का या शायद उस ने उसे पत्नी रूप में स्वीकारा ही नहीं.

इधर सास का उस से स्नेह बढ़ता जा रहा था. वह उसे बेटी की तरह दुलराने लगी थीं. हर छोटीमोटी जरूरत के लिए वह उस पर आश्रित होती जा रही थीं. पति की मृत्यु तो उन्हें और बूढ़ा कर गई थी, गठिया का दर्द अब फिर बढ़ गया था. कईर् बार शैली की इच्छा होती, वापस पिता के पास लौट जाए. आगे पढ़ कर नौकरी करे. आखिर कब तक दबीघुटी जिंदगी जिएगी वह? पर सास की ममता ही उस का रास्ता रोक लेती थी.

‘‘बहूरानी, क्या लौट आई हो? मेरी दवाई मिली, बेटी? जोड़ों का दर्द फिर बढ़ गया है.’’

मां का स्वर सुन कर तंद्रा सी टूटी शैली की. शायद वह जाग गई थीं और उसे आवाज दे रही थीं.

‘‘अभी आती हूं, मांजी. आप के लिए चाय भी बना कर लाती हूं,’’ हाथमुंह धो कर सहज होने का प्रयास करने लगी थी शैली.

चाय ले कर कमरे में आई ही थी कि बाहर फाटक पर रिकशे से उतरती शोभा जीजी को देखते ही वह चौंक गई.

‘‘जीजी, आप इस तरह बिना खबर दिए. सब खैरियत तो है न? अकेले ही कैसे आईं?’’

बरामदे में ही शोभा ने उसे गले से लिपटा लिया था. अपनी आंखों को वह बारबार रूमाल से पोंछती जा रही थी.

‘‘अंदर तो चल.’’

और कमरे में आते ही उस की रुलाई फूट पड़ी थी. शोभा ने बताया कि अचानक ही जीजाजी की आंखों की रोशनी चली गई है, उन्हें अस्पताल में दाखिल करा कर वह सीधी आ रही है. डाक्टर ने कहा है कि फौरन आपरेशन होगा. कम से कम 10 हजार रुपए लगेंगे और अगर अभी आपरेशन नहीं हुआ तो आंख की रोशनी को बचाया न जा सकेगा.

‘‘अब मैं क्या करूं? कहां से इंतजाम करूं रुपयों का? तू ही शिखर को खबर कर दे, शैली. मेरे तो जेवर भी मकान के मुकदमे में गिरवी  पड़े  हुए हैं,’’ शोभा की रुलाई नहीं थम रही थी.

जीजाजी की आंखों की रोशनी… उन के नन्हे बच्चे…सब का भविष्य एकसाथ ही शैली के  आगे घूम गया था.

‘‘आप ऐसा करिए, जीजी, अभी तो ये मेरे जेवर हैं, इन्हें ले जाइए. इन्हें खबर भी करूंगी तो इतनी जल्दी  कहां पहुंच पाएंगे रुपए?’’

और शैली ने अलमारी से निकाल कर अपनी चूडि़यां और जंजीर  आगे रख दी थीं.

‘‘नहीं, शैली, नहीं…’’ शोभा स्तंभित थी.

फिर कहनेसुनने के बाद ही वह जेवर लेने के लिए तैयार हो पाई थी. मां की रुलाई फूट पड़ी थी.

‘‘बहू, तू तो हीरा है.’’

‘‘पता नहीं शिखर कब इस हीरे का मोल समझ पाएगा,’’ शोभा की आंखों में फिर खुशी के आंसू छलक पड़े थे.

पर शैली को अनोखा संतोष  मिला था. उस के मन ने कहा, उस का नहीं तो किसी और का परिवार तो बनासंवरा रहे. जेवरों का शौक तो उसे वैसे ही नहीं था. और अब जेवर पहने भी तो किस की खातिर? मन की उसांस को उस ने दबा  दिया था.

8 दिन के बाद खबर मिली थी, आपरेशन सफल रहा. शिखर को भी अब सूचना मिल गई थी, और वह आ रहा था. पर इस बार शैली ने अपनी सारी उत्कंठा को दबा लिया था. अब वह किसी तरह का उत्साह  प्रदर्शित नहीं कर  पा रही थी. सिर्फ तटस्थ भाव से रहना चाहती थी वह.

‘‘मां, कैसी हो? सुना है, बहुत बीमार रही हो तुम. यह क्या हालत बना रखी है? जीजाजी को क्या हुआ था अचानक?’’ शिखर ने पहुंचते ही मां से प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘मेरी  तो तबीयत तू देख ही रहा है, बेटे. बीच में तो और भी बिगड़ गई थी. बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी. बेचारी बहू ने ही सब संभाला. तेरे जीजाजी  की तो आंखों की रोशनी ही चली गई थी. उसी समय आपरेशन नहीं होता तो पता नहीं क्या होता. आपरेशन के लिए पैसों का भी सवाल था, लेकिन उसी समय बहू ने अपने जेवर दे कर तेरे जीजाजी  की आंखों की रोशनी वापस ला दी.’’

‘‘जेवर दे दिए…’’ शिखर हतप्रभ था.

‘‘हां, क्या करती शोभा? कह रही थी कि तुझे खबर कर के रुपए मंगवाए तो आतेआते भी तो समय लग जाएगा.’’

मां बहुत कुछ कहती जा रही थीं पर शिखर के सामने सबकुछ गड्डमड्ड हो गया था. शैली चुपचाप आ कर नाश्ता रख गई थी. वह नजर उठा कर  सिर ढके शैली को देखता रहा था.

‘‘मांजी, खाना क्या बनेगा?’’ शैली ने धीरे से मां से पूछा था.

‘‘तू चल. मैं भी अभी आती हूं रसोई में,’’ बेटे के आगमन से ही मां उत्साहित हो उठी थीं. देर तक उस का हालचाल पूछती रही थीं. अपने  दुखदर्द  सुनाती रही थीं.

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