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अदला-बदली : जीवन को मधुर बनाने की कला अलका कैसे सीख गई?

मेरे पति राजीव के अच्छे स्वभाव की परिचित और रिश्तेदार सभी खूब तारीफ करते हैं. उन सब का कहना है कि राजीव बड़ी से बड़ी समस्या के सामने भी उलझन, चिढ़, गुस्से और परेशानी का शिकार नहीं बनते. उन की समझदारी और सहनशीलता के सब कायल हैं.

राजीव के स्वभाव की यह खूबी मेरा तो बहुत खून जलाती है. मैं अपनी विवाहित जिंदगी के 8 साल के अनुभवों के आधार पर उन्हें संवेदनशील, समझदार और परिपक्व कतई नहीं मानती.

शादी के 3 दिन बाद का एक किस्सा  है. हनीमून मनाने के लिए हम टैक्सी से स्टेशन पहुंचे. हमारे 2 सूटकेस कुली ने उठाए और 5 मिनट में प्लेटफार्म तक पहुंचा कर जब मजदूरी के पूरे 100 रुपए मांगे तो नईनवेली दुलहन होने के बावजूद मैं उस कुली से भिड़ गई.

मेरे शहंशाह पति ने कुछ मिनट तो हमें झगड़ने दिया फिर बड़ी दरियादिली से 100 का नोट उसे पकड़ाते हुए मुझे समझाया, ‘‘यार, अलका, केवल 100 रुपए के लिए अपना मूड खराब न करो. पैसों को हाथ के मैल जितना महत्त्व दोगी तो सुखी रहोगी. ’’

‘‘किसी चालाक आदमी के हाथों लुटने में क्या समझदारी है?’’ मैं ने चिढ़ कर पूछा था.

‘‘उसे चालाक न समझ कर गरीबी से मजबूर एक इनसान समझोगी तो तुम्हारे मन का गुस्सा फौरन उड़नछू हो जाएगा.’’

गाड़ी आ जाने के कारण मैं उस चर्चा को आगे नहीं बढ़ा पाई थी, पर गाड़ी में बैठने के बाद मैं ने उन्हें उस भिखारी का किस्सा जरूर सुना दिया जो कभी बहुत अमीर होता था.

एक स्मार्ट, स्वस्थ भिखारी से प्रभावित हो कर किसी सेठानी ने उसे अच्छा भोजन कराया, नए कपडे़ दिए और अंत में 100 का नोट पकड़ाते हुए बोली, ‘‘तुम शक्लसूरत और व्यवहार से तो अच्छे खानदान के लगते हो, फिर यह भीख मांगने की नौबत कैसे आ गई?’’

‘‘मेमसाहब, जैसे आप ने मुझ पर बिना बात इतना खर्चा किया है, वैसी ही मूर्खता वर्षों तक कर के मैं अमीर से भिखारी बन गया हूं.’’

भिखारी ने उस सेठानी का मजाक सा उड़ाया और 100 का नोट ले कर चलता बना था.

इस किस्से को सुना कर मैं ने उन पर व्यंग्य किया था, पर उन्हें समझाने का मेरा प्रयास पूरी तरह से बेकार गया.

‘‘मेरे पास उड़ाने के लिए दौलत है ही कहां?’’ राजीव बोले, ‘‘मैं तो कहता हूं कि तुम भी पैसों का मोह छोड़ो और जिंदगी का रस पीने की कला सीखो.’’

उसी दिन मुझे एहसास हो गया था कि इस इनसान के साथ जिंदगी गुजारना कभीकभी जी का जंजाल जरूर बना करेगा.

मेरा वह डर सही निकला. कितनी भी बड़ी बात हो जाए, कैसा भी नुकसान हो जाए, उन्हें चिंता और परेशानी छूते तक नहीं. आज की तेजतर्रार दुनिया में लोग उन्हें भोला और सरल इनसान बताते हैं पर मैं उन्हें अव्यावहारिक और असफल इनसान मानती हूं.

‘‘अरे, दुनिया की चालाकियों को समझो. अपने और बच्चों के भविष्य की फिक्र करना शुरू करो. आप की अक्ल काम नहीं करती तो मेरी सलाह पर चलने लगो. अगर यों ही ढीलेढाले इनसान बन कर जीते रहे तो इज्जत, दौलत, शोहरत जैसी बातें हमारे लिए सपना बन कर रह जाएंगी,’’ ऐसी सलाह दे कर मैं हजारों बार अपना गला बैठा चुकी हूं पर राजीव के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती.

बेटा मोहित अब 7 साल का हो गया है और बेटी नेहा 4 साल की होने वाली है अपने ढीलेढाले पिता की छत्रछाया में ये दोनों भी बिगड़ने लगे हैं. मैं रातदिन चिल्लाती हूं पर मेरी बात न बच्चों के पापा सुनते हैं, न ही बच्चे.

राजीव की शह के कारण घर के खाने को देख कर दोनों बच्चे नाकभौं चढ़ाते हैं क्योंकि उन की चिप्स, चाकलेट और चाऊमीन जैसी बेकार चीजों को खाने की इच्छा पूरी करने के लिए उन के पापा सदा तैयार जो रहते हैं.

‘‘यार, कुछ नहीं होगा उन की सेहत को. दुनिया भर के बच्चे ऐसी ही चीजें खा कर खुश होते हैं. बच्चे मनमसोस कर जिएं, यह ठीक नहीं होगा उन के विकास के लिए,’’ उन की ऐसी दलीलें मेरे तनबदन में आग लगा देती हैं.

‘‘इन चीजों में विटामिन, मिनरल नहीं होते. बच्चे इन्हें खा कर बीमार पड़ जाएंगे. जिंदगी भर कमजोर रहेंगे.’’

‘‘देखो, जीवन देना और उसे चलाना प्रकृति की जिम्मेदारी है. तुम नाहक चिंता मत करो,’’ उन की इस तरह की दलीलें सुन कर मैं खुद पर झुंझला पड़ती.

राजीव को जिंदगी में ऊंचा उठ कर कुछ बनने, कुछ कर दिखाने की चाह बिलकुल नहीं है. अपनी प्राइवेट कंपनी में प्रमोशन के लिए वह जरा भी हाथपैर नहीं मारते.

‘‘बौस को खाने पर बुलाओ, उसे दीवाली पर महंगा उपहार दो, उस की चमचागीरी करो,’’ मेरे यों समझाने का इन पर कोई असर नहीं होता.

समझाने के एक्सपर्ट मेरे पतिदेव उलटा मुझे समझाने लगते हैं, ‘‘मन का संतोष और घर में हंसीखुशी का प्यार भरा माहौल सब से बड़ी पूंजी है. जो मेरे हिस्से में है, वह मुझ से कोई छीन नहीं सकता और लालच मैं करता नहीं.’’

‘‘लेकिन इनसान को तरक्की करने के लिए हाथपैर तो मारते रहना चाहिए.’’

‘‘अरे, इनसान के हाथपैर मारने से कहीं कुछ हासिल होता है. मेरा मानना है कि वक्त से पहले और पुरुषार्थ से ज्यादा कभी किसी को कुछ नहीं मिलता.’’

उन की इस तरह की दलीलों के आगे मेरी एक नहीं चलती. उन की ऐसी सोच के कारण मुझे नहीं लगता कि अपने घर में सुखसुविधा की सारी चीजें देखने का मेरा सपना कभी पूरा होगा जबकि घरगृहस्थी की जिम्मेदारियों को मैं बड़ी गंभीरता से लेती हूं. हर चीज अपनी जगह रखी हो, साफसफाई पूरी हो, कपडे़ सब साफ और प्रेस किए हों, सब लोग साफसुथरे व स्मार्ट नजर आएं जैसी बातों का मुझे बहुत खयाल रहता है. मैं घर आए मेहमान को नुक्स निकालने या हंसने का कोई मौका नहीं देना चाहती हूं.

अपनी लापरवाही व गलत आदतों के कारण बच्चे व राजीव मुझ से काफी डांट खाते हैं. राजीव की गलत प्रतिक्रिया के कारण मेरा बच्चों को कस कर रखना कमजोर पड़ता जा रहा है.

‘‘यार, क्यों रातदिन साफसफाई का रोना रोती हमारे पीछे पड़ी रहती हो? अरे, घर ‘रिलैक्स’ करने की जगह है. दूसरों की आंखों में सम्मान पाने के चक्कर में हमारा बैंड मत बजाओ, प्लीज.’’

बड़ीबड़ी लच्छेदार बातें कर के राजीव दुनिया वालों से कितनी भी वाहवाही लूट लें, पर मैं उन की डायलागबाजी से बेहद तंग आ चुकी हूं.

‘‘अलका, तुम तेरामेरा बहुत करती हो, जरा सोचो कि हम इस दुनिया में क्या लाए थे और क्या ले जाएंगे? मैं तो कहता हूं कि लोगों से प्यार का संबंध नुकसान उठा कर भी बनाओ. अपने अहं को छोड़ कर जीवनधारा में हंसीखुशी बहना सीखो,’’ राजीव के मुंह से ऐसे संवाद सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं, पर व्यावहारिक जिंदगी में इन के सहारे चलना नामुमकिन है.

बहुत तंग और दुखी हो कर कभीकभी मैं सोचती हूं कि भाड़ में जाएं ये तीनों और इन की गलत आदतें. मैं भी अपना खून जलाना बंद कर लापरवाही से जिऊंगी, लेकिन मैं अपनी आदत से मजबूर हूं. देख कर मरी मक्खी निगलना मुझ से कभी नहीं हो सकता. मैं शोर मचातेमचाते एक दिन मर जाऊंगी पर मेरे साहब आखिरी दिन तक मुझे समझाते रहेंगे, पर बदलेंगे रत्ती भर नहीं.

जीवन के अपने सिखाने के ढंग हैं. घटनाएं घटती हैं, परिस्थितियां बदलती हैं और इनसान की आंखों पर पडे़ परदे उठ जाते हैं. हमारी समझ से विकास का शायद यही मुख्य तरीका है.

कुछ दिन पहले मोहित को बुखार हुआ तो उसे दवा दिलाई, पर फायदा नहीं हुआ. अगले दिन उसे उलटियां होने लगीं तो हम उसे चाइल्ड स्पेशलिस्ट के पास ले गए.

‘‘इसे मैनिन्जाइटिस यानी दिमागी बुखार हुआ है. फौरन अच्छे अस्पताल में भरती कराना बेहद जरूरी है,’’ डाक्टर की चेतावनी सुन कर हम दोनों एकदम से घबरा उठे थे.

एक बडे़ अस्पताल के आई.सी.यू. में मोहित को भरती करा दिया. फौरन इलाज शुरू हो जाने के बावजूद उस की हालत बिगड़ती गई. उस पर गहरी बेहोशी छा गई और बुखार भी तेज हो गया.

‘‘आप के बेटे की जान को खतरा है. अभी हम कुछ नहीं कह सकते कि क्या होगा,’’ डाक्टर के इन शब्दों को सुन कर राजीव एकदम से टूट गए.

मैं ने अपने पति को पहली बार सुबकियां ले कर रोते देखा. चेहरा बुरी तरह मुरझा गया और आत्मविश्वास पूरी तरह खो गया.

‘‘मोहित को कुछ नहीं होना चाहिए अलका. उसे किसी भी तरह से बचा लो,’’ यही बात दोहराते हुए वह बारबार आंसू बहाने लगते.

मेरे लिए उन का हौसला बनाए रखना बहुत कठिन हो गया. मोहित की हालत में जब 48 घंटे बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ तो राजीव बातबेबात पर अस्पताल के कर्मचारियों, नर्सों व डाक्टरों से झगड़ने लगे.

‘‘हमारे बेटे की ठीक से देखभाल नहीं कर रहे हैं ये सब,’’ राजीव का पारा थोड़ीथोड़ी देर बाद चढ़ जाता, ‘‘सब बेफिक्री से चाय पीते, गप्पें मारते यों बैठे हैं मानो मेले में आएं हों. एकाध पिटेगा मेरे हाथ से, तो ही इन्हें अक्ल आएगी.’’

राजीव के गुस्से को नियंत्रण में रखने के लिए मुझे उन्हें बारबार समझाना पड़ता.

जब वह उदासी, निराशा और दुख के कुएं में डूबने लगते तो भी उन का मनोबल ऊंचा रखने के लिए मैं उन्हें लेक्चर देती. मैं भी बहुत परेशान व चिंतित थी पर उन के सामने मुझे हिम्मत दिखानी पड़ती.

एक रात अस्पताल की बेंच पर बैठे हुए मुझे अचानक एहसास हुआ कि मोहित की बीमारी में हम दोनों ने भूमिकाएं अदलबदल दी थीं. वह शोर मचाने वाले परेशान इनसान हो गए थे और मैं उन्हें समझाने व लेक्चर देने वाली टीचर बन गई थी.

मैं ये समझ कर बहुत हैरान हुई कि उन दिनों मैं बिलकुल राजीव के सुर में सुर मिला रही थी. मेरा सारा जोर इस बात पर होता कि किसी भी तरह से राजीव का गुस्सा, तनाव, चिढ़, निराशा या उदासी छंट जाए. ’’

4 दिन बाद जा कर मोहित की हालत में कुछ सुधार लगा और वह धीरेधीरे हमें व चीजों को पहचानने लगा था. बुखार भी धीरेधीरे कम हो रहा था.

मोहित के ठीक होने के साथ ही राजीव में उन के पुराने व्यक्तित्व की झलक उभरने लगी.

एक शाम जानबूझ कर मैं ने गुस्सा भरी आवाज में उन से कहा, ‘‘मोहित, ठीक तो हो रहा है पर मैं इस अस्पताल के डाक्टरों व दूसरे स्टाफ से खुश नहीं हूं. ये लोग लापरवाह हैं, बस, लंबाचौड़ा बिल बनाने में माहिर हैं.’’

‘‘यार, अलका, बेकार में गुस्सा मत हो. यह तो देखो कि इन पर काम का कितना जोर है. रही बात खर्चे की तो तुम फिक्र क्यों करती हो? पैसे को हाथ का मैल…’’

उन्हें पुराने सुर में बोलता देख मैं मुसकराए बिना नहीं रह सकी. मेरी प्रतिक्रिया गुस्से और चिढ़ से भरी नहीं है, यह नोट कर के मेरे मन का एक हिस्सा बड़ी सुखद हैरानी महसूस कर रहा था.

मोहित 15 दिन अस्पताल में रह कर घर लौटा तो हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं रहा. जल्दी ही सबकुछ पहले जैसा हो जाने वाला था पर मैं एक माने में बिलकुल बदल चुकी थी. कुछ महत्त्वपूर्ण बातें, जिन्हें मैं बिलकुल नहीं समझती थी, अब मेरी समझ का हिस्सा बन चुकी थीं.

मोहित की बीमारी के शुरुआती दिनों में राजीव ने मेरी और मैं ने राजीव की भूमिका बखूबी निभाई थी. मेरी समझ में आया कि जब जीवनसाथी आदतन शिकायत, नाराजगी, गुस्से जैसे नकारात्मक भावों का शिकार बना रहता हो तो दूसरा प्रतिक्रिया स्वरूप समझाने व लेक्चर देने लगता है.

घरगृहस्थी में संतुलन बनाए रखने के लिए ऐसा होना जरूरी भी है. दोनों एक सुर में बोलें तो यह संतुलन बिगड़ता है.

मोहित की बीमारी के कारण मैं भी बहुत परेशान थी. राजीव को संभालने के चक्कर में मैं उन्हें समझाती थी. और वैसा करते हुए मेरा आंतरिक तनाव, बेचैनी व दुख घटता था. इस तथ्य की खोज व समझ मेरे लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण साबित हुई.

आजकल मैं सचमुच बदल गई हूं और बहुत रिलेक्स व खुश हो कर घर की जिम्मेदारियां निभा रही हूं. राजीव व अपनी भूमिकाओं की अदलाबदली करने में मुझे महारत हासिल होती जा रही है और यह काम मैं बड़े हल्केफुल्के अंदाज में मन ही मन मुसकराते हुए करती हूं.

हर कोई अपने स्वभाव के अनुसार अपनेअपने ढंग से जीना चाहता है. अपने को बदलना ही बहुत कठिन है पर असंभव नहीं लेकिन दूसरे को बदलने की इच्छा से घर का माहौल बिगड़ता है और बदलाव आता भी नहीं अपने इस अनुभव के आधार पर इन बातों को मैं ने मन में बिठा लिया है और अब शोर मचा कर राजीव का लेक्चर सुनने के बजाय मैं प्यार भरे मीठे व्यवहार के बल पर नेहा, मोहित और उन से काम लेने की कला सीख गई हूं.

मां की बनारसी साड़ी : भाग 1

आज फिर अलमारी खोलते ही पूर्णिमा की नजर जब बनारसी साड़ी पर पड़ी तो वह उदास हो उठी. साड़ी को हाथ में उठा कर उसे सहलाते हुए वह सोचने लगी कि आज भी इस की सुंदरता में कोई फर्क नहीं पड़ा है और इस का रंग तो आज भी वैसे ही चटक है जैसे सालों पहले था.

याद है उसे, अपने बहू भातरिसैप्शन पर जब उस ने यह साड़ी पहनी थी तब जाने कितनों की नजरें इस बनारसी साड़ी पर अटक गई थीं. अटकें भी क्यों न, यह बनारसी साड़ी थी ही इतनी खूबसूरत. केवल खास शुभ अवसरों पर ही पूर्णिमा इस बनारसी साड़ी को पहनती और फिर तुरंत उसे ड्रायवाश करवा कर अलमारी में रख दिया करती थी. अपनी शादी की सालगिरह पर भी जब वह इस बनारसी साड़ी को पहनती, तो रजत, उस के पति, उसे अपलक देखते रह जाते थे, जैसे वह आज भी कोई नईनवेली दुलहन हो. लाल-हरे रंग की इस बनारसी साड़ी में पूर्णिमा का गोरा रंग और दमक उठता था.

मम्मा, पापा कब से आप को आवाज दे रहे हैं,” पीछे से जब अलीमा बोली तो पूर्णिमा ने वह बनारसी साड़ी झट से अलमारी के एक कोने में लगभग ठूंस दी और कुछ यों ही ढूंढ़ने का नाटक करने लगी. आप अलमारी में कुछ ढूंढ़ रही हो, मम्मा?” अलीमा ने पूछा तो पूर्णिमा बोली कि नहीं तो, कुछ भी तो नहीं. लेकिन उसे लगा कि पूर्णिमा हाथ में कुछ पकड़े अपने आप में बुदबुदा रही थी और जैसे ही उस की आवाज सुनाई पड़ी, झट से उस ने वह चीज अलमारी में रख दी. लेकिन पता नहीं वह झूठ क्यों बोल रही है कि अलमारी में कुछ ढूंढ़ रही थी पर मिल नहीं रहा है. आप बताओ, मैं ढूंढ़ देती हूं न,” अलीमा बोली तो अलमारी बंद कर पूर्णिमा कहने लगी कि नहींनहीं, कुछ खास जरूरी नहीं था. तुम रहने दो. ठीक है मम्मा, लेकिन वो पापा आप को बुला रहे हैं, जल्दी आ जाओ.

हांहां, मैं आती हूं, तुम जाओ,” बोल कर पूर्णिमा ने फिर एक बार अलमारी खोल कर उस चीज को देखा और भरे मन से अलमारी बंद कर दी. बोलो, कुछ कहना चाह रहे थे तुम?” सोफे पर रजत के बगल में बैठती हुई पूर्णिमा बोली, तो रजत कहने लगा कि उन की शादी की 25वीं सालगिरह पर अमेरिका से पल्लवी दीदी अपने पति के साथ आ रही हैं. तो सोच रहा हूं कि ऊपर का कमरा ठीकठाक करवा कर पूरे घर को पेंट करवा दिया जाए. थोड़ा अच्छा लगेगा.

अरे, तो मुझ से क्यों पूछ रहे हो. जो करना है, करो न,” जरा झुंझलाती हुई पूर्णिमा बोली, “ऐसे लगता है कि हर काम तुम मुझ से पूछ कर ही करते हो.अलीमा ने महसूस किया कि जब से वह अपने कमरे से बाहर आई है, थोड़ा बेचैन नजर आ रही है. कारण क्या है, नहीं पता उसे, पर जानना चाहती थी.

अरे, पूछ इसलिए रहा हूं कि तुम कहो तो…आधी बात बोल कर रजत चुप हो गए. फिर बोले, “अच्छा, आलोक को वौक पर से आ जाने दो, फिर बात करते हैं. यह लो, आलोक भी आ ही गया. मैं कह रहा था कि ऊपर का कमरा ठीकठाक करवा कर पूरे घर में पेंट करवा दिया जाए, तो कैसा रहेगा? दीपावली भी आ रही है. हां, थोड़ा खर्चा तो आएगा लेकिन घर की लाइफ बढ़ जाएगी. बोलो, तुम क्या कहते हो?” बेटे आलोक की तरफ मुखातिब हो कर रजत बोले, तो वह कहने लगा कि यह तो बहुत ही अच्छा आइडिया है.

तो फिर ठीक है, मैं बात कर लेता हूं,” पूर्णिमा की तरफ देखते हुए रजत बोले और फिर उठ कर औफिस जाने के लिए तैयार होने लगे.

पूर्णिमा ने उन की बातों पर हां-नकुछ भी नहीं कहा और वह भी उठ कर किचन में चली आई. किचन में भले ही वह अलीमा का हाथ बंटा रही थी पर उस का दिल-दिमाग अब भी उसी साड़ी पर अटक हुआ था कि काश, काश वैसा न हुआ होता तो कितना अच्छा होता. पूर्णिमा को गुमसुम, उदास देख कर अलीमा ने कई बार हिम्मत जुटाई पूछने की कि क्या बात है? क्यों वह इतनी चुपचुप है. लेकिन पूछ न पाई.

खैर, खापी कर आलोक और रजत दोनों औफिस के लिए निकल गए और कुछ देर बाद अलीमा भी यह कह कर अपने औफिस के लिए निकल गई कि आज वह जल्दी घर आ जाएगी. कहीं न कहीं उसे पूर्णिमा की उदासी बेचैन कर रही थी. समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उन्हें हुआ क्या है? भले ही रजत और आलोक ने मार्क न किया हो पर अलीमा इंसान का चेहरा अच्छे से पढ़ना जानती है. अपनी सोच में डूबी अलीमा औफिस तो पहुंच गई लेकिन इधर सब के औफिस जाने के बाद पूर्णिमा अपने कमरे में आ कर सिसकसिसक कर रोने लगी.

दरअसल, आज ही के दिन पूर्णिमा की मां का देहांत हुआ था और यह बनारसी साड़ी उस की मां की आखिरी निशानी थी उस के पास. वह इस दुख से मरी जा रही है कि अपनी मां की आखिरी निशानी भी वह संभाल कर रख नहीं पाई ठीक से. उस ने तो मना किया था पर रजत ने ही जिद कर के उसे दीपावली पर वह बनारसीर साड़ी पहनने को मजबूर कर दिया था कि वह इस साड़ी में बहुत ही सुंदर लगती है.

रजत का मन रखने के लिए जब वह उस साड़ी को पहन कर छत पर दीपावली मनाने गई, तो जलता हुआ एक फूलचकरी उस के आंचल में लग गई और देखते ही देखते उस का आंचल जलने लगा. वह तो रजत ने देख लिया वरना उस साड़ी के साथ पूर्णिमा भी जल कर खाक हो जाती उस दिन.

दोष तो इस में किसी का भी नहीं था. एक होनी थी जो हो गई. लेकिन पूर्णिमा आज भी उस बात के लिए रजत को ही दोषी मानती है कि उस की ही जिद के कारण उस की मां की आखिरी निशानी आग में जल गई. पहन तो नहीं सकती अब वह उस साड़ी को, पर उस की मां की आखिरी निशानी है, इसलिए संभाल कर अलमारी में रख दिया. लेकिन जब कभी भी उस की नजर उस साड़ी पर पड़ती है तो दिल में मां की याद हुक मारने लगती है.

पूर्णिमा की मां ने अपनी एकलौती बेटी की शादी को ले कर हजारों सपने देख रखे थे. बचपन से ही वह उस के लिए गहने-कपड़े जोड़जोड़ कर रखती आई थी. रजत से जब उस की शादी तय हुई तो कितना रोई थी वह यह सोच कर की नाजों से पली गुड़िया बेटी अब पराई हो जाएगी. फिर कैसे जिएगी वह उस के बिना. लेकिन फिर उस ने खुद को ही समझाया था कि बेटियां पराई थोड़े ही होती हैं, बल्कि शादी के बाद तो वे और अपने मांबाप के करीब आ जाती हैं और फिर कौन सा उस की ससुराल बहुत दूर है. जब मन होगा, चले जाएंगे मिलने. बिटिया भी आती ही रहेगी.

राजकुमार लाओगी न : योगिताजी की जिद्द ने क्या से क्या कर डाला

‘‘चेष्टा, पापा के लिए चाय बना देना. हो सके तो सैंडविच भी बना देना? मैं जा रही हूं, मुझे योगा के लिए देर हो रही है,’’ कहती हुई योगिताजी स्कूटी स्टार्ट कर चली गईं. उन्होंने पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा, न उन्होंने चेष्टा के उत्तर की प्रतीक्षा की.

योगिताजी मध्यम- वर्गीय सांवले रंग की महिला हैं. पति योगेश बैंक में क्लर्क हैं, अच्छीखासी तनख्वाह है. उन का एक बेटा है. उस का नाम युग है. घर में किसी चीज की कमी नहीं है.

जैसा कि  सामान्य परिवारों में होता है घर पर योगिताजी का राज था. योगेशजी उन्हीं के इशारों पर नाचने वाले थे. बेटा युग भी बैंक में अधिकारी हो गया था. बेटी चेष्टा एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका बन गई थी.

कालेज के दिनों में ही युग की दोस्ती अपने साथ पढ़ने वाली उत्तरा से हो गई. उत्तरा साधारण परिवार से थी. उस के पिता बैंक में चपरासी थे, इसलिए जीवन स्तर सामान्य था. उत्तरा की मां छोटेछोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने के साथ ही कुछ सिलाई का काम कर के पैसे कमा लेती थीं.

उत्तरा के मातापिता ईमानदार और चरित्रवान थे इसलिए वह भी गुणवती थी. पढ़ने में काफी तेज थी. उत्तरा का व्यक्तित्व आकर्षक था. दुबलीपतली, सांवली उत्तरा सदा हंसती रहती थी. वह गाती भी अच्छा थी. कालेज के सभी सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उद्घोषणा का कार्य वही करती थी. उस की बड़ीबड़ी कजरारी आंखों में गजब का आकर्षण था. उस की हंसी में युग ऐसा बंधा कि उस की मां के तमाम विरोध के आगे उस के पैर नहीं डगमगाए और वह उत्तरा के प्यार में मांबाप को भी छोड़ने को तैयार हो गया.

योगिताजी को मजबूरी में युग को शादी की इजाजत देनी पड़ी. कोर्टमैरिज कर चुके युग और उत्तरा के विवाह को समाज की स्वीकृति दिलाने के लिए योगिताजी ने एक भव्य पार्टी का आयोजन किया. समाज को दिखाने के लिए बेटे की जिद के आगे योगिताजी झुक तो गईं लेकिन दिल में बड़ी गांठ थी कि उत्तरा एक चपरासी की बेटी है.

दहेज में मिलने वाली नोटों की भारी गड्डियां और ट्रक भरे सामान के अरमान मन में ही रह गए. अपनी कुंठा के कारण वे उत्तरा को तरहतरह से सतातीं. उस के मातापिता के बारे में उलटासीधा बोलती रहतीं. उत्तरा के हर काम में मीनमेख निकालना उन का नित्य का काम था.

उत्तरा भी बैंक में नौकरी करती थी. सुबह पापा की चायब्रेड, फिर दोबारा मम्मी की चाय, फिर युग और चेष्टा को नाश्ता देने के बाद वह सब का लंच बना कर अलगअलग पैक करती. मम्मी का खाना डाइनिंग टेबल पर रखने के बाद ही वह घर से बाहर निकलती थी. इस भागदौड़ में उसे अपने मुंह में अन्न का दाना भी डालने को समय न मिलता था.

यद्यपि युग उस से अकसर कहता कि क्यों तुम इतना काम करती हो, लेकिन वह हमेशा हंस कर कहती, ‘‘काम ही कितना है, काम करने से मैं फिट रहती हूं.’’

योगिताजी के अलावा सभी लोग उत्तरा से बहुत खुश थे. योगेशजी तो उत्तरा की तारीफ करते नहीं अघाते. सभी से कहते, ‘‘बहू हो तो उत्तरा जैसी. मेरे बेटे युग ने बहुत अच्छी लड़की चुनी है. हमारे तो भाग्य ही जग गए जो उत्तरा जैसी लड़की हमारे घर आई है.’’

चेष्टा भी अपनी भाभी से घुलमिल गई थी. वह और उत्तरा अकसर खुसरफुसर करती रहती थीं. दोनों एकदूसरे से घंटों बातें करती रहतीं. सुबह उत्तरा को अकेले काम करते देख चेष्टा उस की मदद करने पहुंच जाती. उत्तरा को बहुत अच्छा लगता, ननदभावज दोनों मिल कर सब काम जल्दी निबटा लेतीं. उत्तरा बैंक चली जाती और चेष्टा स्कूल.

योगिताजी बेटी को बहू के साथ हंसहंस कर काम करते देखतीं तो कुढ़ कर रह जातीं…फौरन चेष्टा को आवाज दे कर बुला लेतीं. यही नहीं, बेटी को तरहतरह से भाभी के प्रति भड़कातीं और उलटीसीधी पट्टी पढ़ातीं.

उत्तरा की दृष्टि से कुछ छिपा नहीं था लेकिन वह सोचती थी कि कुछ दिन बाद सब सामान्य हो जाएगा. कभी तो मम्मीजी के मन में मेरे प्रति प्यार का पौधा पनपेगा. वह यथासंभव अच्छी तरह कार्य करने का प्रयास करती, लेकिन योगिताजी को खुश करना बहुत कठिन था. रोज किसी न किसी बात पर उन का नाराज होना आवश्यक था. कभी सब्जी में मसाला तेज तो कभी रोटी कड़ी, कभी दाल में घी ज्यादा तो कभी चाय ठंडी है, दूसरी ला आदि.

युग इन बातों से अनजान नहीं था. वह मां के हर अत्याचार को नित्य देखता रहता था. पर उत्तरा की जिद थी कि मैं मम्मीजी का प्यार पाने में एक न एक दिन अवश्य सफल हो जाऊंगी. और वे उसे अपना लेंगी.

योगिताजी को घर के कामों से कोई मतलब नहीं रह गया था, क्योंकि उत्तरा ने पूरे काम को संभाल लिया था, इसलिए वह कई सभासंगठनों से जुड़ कर समाजसेवा के नाम पर यहांवहां घूमती रहती थीं.

योगिताजी चेष्टा की शादी को ले कर परेशान रहती थीं, लेकिन उन के ख्वाब बहुत ऊंचे थे. कोई भी लड़का उन्हें अपने स्तर का नहीं लगता था. उन्होंने कई जगह शादी के लिए प्रयास किए लेकिन कहीं चेष्टा का सांवला रंग, कहीं दहेज का मामला…बात नहीं बन पाई.

योगिताजी के ऊंचेऊंचे सपने चेष्टा की शादी में आड़े आ रहे थे. धीरेधीरे चेष्टा के मन में कुंठा जन्म लेने लगी. उत्तरा और युग को हंसते देख कर उसे ईर्ष्या होने लगी थी. चेष्टा अकसर झुंझला उठती. उस के मन में भी अपनी शादी की इच्छा उठती थी. उस को भी सजनेसंवरने की इच्छा होती थी. चेष्टा के तैयार होते ही योगिताजी की आंखें टेढ़ी होने लगतीं. कहतीं, ‘‘शादी के बाद सजना. कुंआरी लड़कियों का सजना- धजना ठीक नहीं.’’

चेष्टा यह सुन कर क्रोध से उबल पड़ती लेकिन कुछ बोल न पाती. योगिताजी के कड़े अनुशासन की जंजीरों में जकड़ी रहती. योगिताजी उस के पलपल का हिसाब रखतीं. पूछतीं, ‘‘स्कूल से आने में देर क्यों हुई? कहां गई थी और किस से मिली थी?’’

योगिताजी के  मन में हर क्षण संशय का कांटा चुभता रहता था. उस कुंठा को जाहिर करते हुए वे उत्तरा को अनापशनाप बकने लग जाती थीं. उन की चीख- चिल्लाहट से घर गुलजार रहता. वे हर क्षण उत्तरा पर यही लांछन लगातीं कि यदि तू अपने साथ दहेज लाती तो में वही दहेज दे कर बेटी के लिए अच्छा सा घरवर ढूंढ़ सकती थी.

योगिताजी के 2 चेहरे थे. घर में उन का व्यक्तित्व अलग था लेकिन समाज में वह अत्यंत मृदुभाषी थीं. सब के सुखदुख में खड़ी होती थीं. यदि कोई बेटीबहू के बारे में पूछता था तो बिलकुल चुप हो जाती थीं. इसलिए उन की पारिवारिक स्थिति के बारे में कोई नहीं जानता था. योगिताजी के बारे में समाज में लोगों की अलगअलग धारणा थी. कोई उन्हें सहृदय तो कोई घाघ कहता.

एक दिन योगिताजी शाम को अपने चिरपरिचित अंदाज में उत्तरा पर नाराज हो रही थीं, उसे चपरासी की बेटी कह कर अपमानित कर रही थीं तभी युग क्रोधित हो उठा, ‘‘चलो उत्तरा, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रह सकता.’’

घर में कोहराम मच गया. चेष्टा रोए जा रही थी. योगेशजी बेटे को समझाने का प्रयास कर रहे थे. परंतु युग रोजरोज की चिकचिक से तंग हो चुका था. उस ने किसी की न सुनी. दोचार कपड़े अटैची में डाले और उत्तरा का हाथ पकड़ कर घर से निकल गया.

योगिताजी के तो हाथों के तोते उड़ गए. वे स्तब्ध रह गईं…कुछ कहनेसुनने को बचा ही नहीं था. युग उत्तरा को ले कर जा चुका था. योगेशजी पत्नी की ओर देख कर बोले, ‘‘अच्छा हुआ, उन्हें इस नरक से छुटकारा तो मिला.’’

योगिताजी अनर्गल प्रलाप करती रहीं. सब रोतेधोते सो गए.

सुबह हुई. योगेशजी ने खुद चाय बनाई, बेटी और पत्नी को देने के बाद घर से निकल गए. चेष्टा ने जैसेतैसे अपना लंच बाक्स बंद किया और दौड़तीभागती स्कूल पहुंची.

घर में सन्नाटा पसर गया था. आपस में सभी एकदूसरे से मुंह चुराते. चेष्टा सुबहशाम रसोई में लगी रहती. घर के कामों का मोर्चा उस ने संभाल लिया था, इसलिए योगिताजी की दिनचर्या में कोई खास असर नहीं पड़ा था. वे वैसे भी सामाजिक कार्यों में ज्यादा व्यस्त रहती थीं. घर की परवा ही उन्हें कहां थी.

योगेशजी से जब भी योगिताजी की बातचीत होती चेष्टा की शादी के बारे में बहस हो जाती. उन का मापदंड था कि मेरी एक ही बेटी है, इसलिए दामाद इंजीनियर, डाक्टर या सी.ए. हो. उस का बड़ा सा घर हो. लड़का राजकुमार सा सुंदर हो, परिवार छोटा हो आदि, पर तमाम शर्तें पूरी होती नहीं दिखती थीं.

चेष्टा की उम्र 30 से ऊपर हो चुकी थी. उस का सांवला रंग अब काला पड़ता जा रहा था. तनाव के कारण चेहरे पर अजीब सा रूखापन झलकने लगा था. चिड़चिड़ेपन के कारण उम्र भी ज्यादा दिखने लगी थी.

उत्तरा के जाने के बाद चेष्टा गुमसुम हो गई थी. घर में उस से कोई बात करने वाला नहीं था. कभीकभी टेलीविजन देखती थी लेकिन मन ही मन मां के प्रति क्रोध की आग में झुलसती रहती थी. तभी उस को चैतन्य मिला जिस की स्कूल के पास ही एक किताबकापी की दुकान थी. आतेजाते चेष्टा और उस की आंखें चार होती थीं. चेष्टा के कदम अनायास ही वहां थम से जाते. कभी वहां वह मोबाइल रिचार्ज करवाती तो कभी पेन खरीदती. उस की और चैतन्य की दोस्ती बढ़ने लगी. आंखोंआंखों में प्यार पनपने लगा. वह मन ही मन चैतन्य के लिए सपने बुनने लगी थी. दोनों चुपकेचुपके मिलने लगे. कभीकभी शाम भी साथ ही गुजारते. चेष्टा चैतन्य के प्यार में खो गई. यद्यपि चैतन्य भी चेष्टा को प्यार करता था परंतु उस में इतनी हिम्मत न थी कि वह अपने प्यार का इजहार कर सके.

चेष्टा मां से कुछ बताती इस के पहले ही योगिताजी को चेष्टा और चैतन्य के बीच प्यार होने का समाचार नमकमिर्च के साथ मिल गया. योगिताजी तिलमिला उठीं. अपनी बहू उत्तरा के कारण पहले ही उन की बहुत हेठी हो चुकी थी, अब बेटी भी एक छोटे दुकानदार के साथ प्यार की पींगें बढ़ा रही है. यह सुनते ही वे अपना आपा खो बैठीं और चेष्टा पर लातघूंसों की बौछार कर दी.

क्रोध से तड़प कर चेष्टा बोली, ‘‘आप कुछ भी करो, मैं तो चैतन्य से मिलूंगी और जो मेरा मन होगा वही करूंगी.’’

योगिताजी ने मामला बिगड़ता देख कूटनीति से काम लिया. वे बेटी से प्यार से बोलीं, ‘‘मैं तो तेरे लिए राजकुमार ढूंढ़ रही थी. ठीक है, तुझे वह पसंद है तो मैं उस से मिलूंगी.’’

चेष्टा मां के बदले रुख से पहले तो हैरान हुई फिर मन ही मन अपनी जीत पर खुश हो गई. चेष्टा योगिताजी के छल को नहीं समझ पाई.

अगले दिन योगिताजी चैतन्य के पास गईं और उस को धमकी दी, ‘‘यदि तुम ने मेरी बेटी चेष्टा की ओर दोबारा देखा तो तुम्हारी व तुम्हारे परिवार की जो दशा होगी, उस के बारे में तुम कभी सोच भी नहीं सकते.’’

इस धमकी से सीधासादा चैतन्य डर गया. वह चेष्टा से नजरें चुराने लगा. चेष्टा के बारबार पूछने पर भी उस ने कुछ नहीं बताया बल्कि यह बोला कि तुम्हारी जैसी लड़कियों का क्या ठिकाना, आज मुझ में रुचि है कल किसी और में होगी.

चेष्टा समझ नहीं पाई कि आखिर चैतन्य को क्या हो गया. वह क्यों बदल गया है. चैतन्य ने तो सीधा उस के चरित्र पर ही लांछन लगाया है. वह टूट गई. घंटों रोती रही. अकेलेपन के कारण विक्षिप्त सी रहने लगी. इस मानसिक आघात से वह उबर नहीं पा रही थी. मन ही मन अकेले प्रलाप करती रहती थी. चैतन्य से सामना न हो, इस कारण स्कूल जाना भी बंद कर दिया.

योगिताजी बेटी की दशा देख कर चिंतित हुईं. उस को समझाती हुई बोलीं कि मैं अपनी बेटी के लिए राजकुमार लाऊंगी. फिर उसे डाक्टर के पास ले गईं. डाक्टर बोला, ‘‘आप की लड़की डिप्रेशन की मरीज है,’’ डाक्टर ने कुछ दवाएं दीं और कहा, ‘‘मैडमजी, इस का खास ध्यान रखें. अकेला न छोड़ें. हो सके तो विवाह कर दें.’’

थोड़े दिनों तक तो योगिताजी बेटी के खानेपीने का ध्यान रखती रहीं. चेष्टा जैसे ही थोड़ी ठीक हुई योगिताजी अपनी दुनिया में मस्त हो गईं. जीवन से निराश चेष्टा मन ही मन घुटती रही. एक दिन उस पर डिप्रेशन का दौरा पड़ा, उस ने अपने कमरे का सब सामान तोड़ डाला. योगिताजी ने कमरे की दशा देखी तो आव देखा न ताव, चेष्टा को पकड़ कर थप्पड़ जड़ती हुई बोलीं, ‘‘क्या हुआ…चैतन्य ने मना किया है तो क्या हुआ, मैं तुम्हारे लिए राजकुमार जैसा वर लाऊंगी.’’

यह सुनते ही चेष्टा समझ गई कि यह सब इन्हीं का कियाधरा है. कुंठा, तनाव, क्रोध और प्रतिशोध में जलती हुई चेष्टा में जाने कहां की ताकत आ गई. योगिताजी को तो अनुमान ही न था कि ऐसा भी कुछ हो सकता है. चेष्टा ने योगिताजी की गरदन पकड़ ली और उसे दबाती हुई बोली, ‘‘अच्छा…आप ने ही चैतन्य को भड़काया है…’’

उसे खुद नहीं पता था कि वह क्या कर रही है. उस के क्रोध ने अनहोनी कर दी. योगिताजी की आंखें आकाश में टंग गईं. चेष्टा विक्षिप्त हो कर चिल्लाती जा रही थी, ‘‘मेरे लिए राजकुमार लाओगी न…’’

हिंडोला : भाग 1

ढाई इंच मोटी परत चढ़ आई थी, पैंतीसवर्षीय अनुभा के बदन पर. अगर परत सिर्फ चर्बी की होती तो और बात होती, उस के पूरे व्यक्तित्व पर तो जैसे सन्नाटे की भी एक परत चढ़ चुकी थी. खामोशी के बुरके को ओढ़े वह एक यंत्रचालित मशीनीमानव की तरह सुबह उठती, उस के हाथ लगाने से पहले ही जैसे पानी का टैप खुल जाता, गैस पर चढ़ा चाय का पानी, चाय के बड़े मग में परस कर उस के सामने आ जाता. कार में चाबी लगाने से पहले ही कार स्टार्ट हो जाती और रास्ते के पेड़ व पत्थर उसे देख कर घड़ी मिलाते चलते, औफिस की टेबल उसे देखते ही काम में व्यस्त हो जाती, कंप्यूटर और कागज तबीयत बदलने लगते.

आज वह मल्टीनैशनल कंपनी में सीनियर पोस्ट पर काबिज थी. सधे हुए कदम, कंधे तक कटे सीधे बाल, सीधे कट के कपड़े उस के आत्मविश्वास और उस की सफलता के संकेत थे.

कादंबरी रैना, जो उस की सेके्रटरी थी, की ‘गुडमार्निंग’ पर अनुभा ने सिर उठाया. कादंबरी कह रही थी, ‘‘अनु, आज आप को अपने औफिस के नए अधिकारी से मिलना है.’’

‘‘हां, याद है मुझे. उन का नाम…’’ थोड़ा रुक कर याद कर के उस ने कहा, ‘‘जीजीशा, यह क्या नाम है?’’

कादंबरी ने हंसी का तड़का लगा कर अनुभा को पूरा नाम परोसा, ‘‘गिरिजा गौरी शंकर.’’

किंतु अनुभा को यह हंसने का मामला नहीं लगा.

‘‘ठीक है, वह आ जाए तो 2 कौफी भेज देना.’’

बाहर निकल कर कादंबरी ने रोमा से कहा, ‘‘लगता है, एक और रोबोट आने वाली है.’’

‘‘हां, नाम से तो ऐसा ही लगता है,’’ दोनों ने मस्ती में कहा.

जीजीशा तो निकली बिलकुल उलटी.  जैसा सीरियस नाम उस का, उस के उलट था उस का व्यक्तित्व. क्या फिगर थी, क्या चाल, फिल्मी हीरोइन अधिक और एक अत्यंत सीनियर पोस्ट की हैड कम लग रही थी. उस के आते ही सारे पुरुषकर्मी मुंहबाए लार टपकाने लगे, सारी स्त्रियां, चाहें वे बड़ी उम्र की थीं या कम की, अपनेअपने कपड़े, चेहरे व बाल संवारने लगीं.

लगभग 35 मिनट के बाद जीजीशा जब अनुभा के कमरे से लौटी तो उस के कदम कुछ असंयमित से थे. वह कादंबरी के सामने की कुरसी पर धम से बैठ गई.

‘‘लीजिए, पानी पीजिए. उन से मिल कर अकसर लोगों के गले सूख जाते हैं,’’ मिस रैना ने अनुभा के औफिस की तरफ इशारा किया. अनुभा तो थी ही ऐसी, कड़क चाय सी कड़वी, किंतु गर्म नहीं. कड़वाहट उस के शब्दों में नहीं, उस के चारों ओर से छू कर आती थी.

जीजीशा अनुभा की हमउम्र थी, परंतु औफिस में उसे रिपोर्ट तो अनुभा को ही करना था. औफिस में सब एकदूसरे का नाम लेते थे, सिर्फ नवीन खन्ना को बौस कहते थे.

ऐसा नहीं था कि गला सिर्फ जीजीशा का सूखा हो, उस से मिल कर अनुभा की जीवनरूपी मशीन का एकएक पुर्जा चरचरा कर टूट गया था. जीजीशा ने उसे नहीं पहचाना, किंतु अनुभा उसे देखते ही पहचान गई थी. जीजीशा, उर्फ गिरिजा गौरी शंकर या मिट्ठू?

पलभर में कोई बात ठहर कर सदा के लिए स्थायी क्यों बन जाती है? अनुभा के स्मृतिपटल पर परतदरपरत यह सब क्या खुलता जा रहा था? कभी उसे अपना बचपन झाड़ी के पीछे छुप्पनछुपाई खेलता दिखता तो कभी घुटने के ऊपर छोटी होती फ्रौक को घुटने तक खींचने की चेष्टा में बढ़ा अपना हाथ.

एक दिन फ्रौक के नीचे सलवार पहन कर जब वह बाहर निकली थी उस की फैशनेबल दीदी यामिनी, जो कालेज में पढ़ती थीं, उसे देख कर हंसते हुए उस के गाल पर चिकोटी काट कर बोलीं, ‘अनु, यह क्या ऊटपटांग पहन रखा है? सलवारसूट पहनने का मन है तो मम्मी से कह कर सिलवा ले, पर तू तो अभी कुल 14 बरस की है, क्या करेगी अभी से बड़ी अम्मा बन कर?’

इठलाती हुई यामिनी दीदी किताबें हवा में उछाल कर चलती बनीं.

अनुभा कभी भी दीदी की तरह नए डिजाइन के कपड़े नहीं पहन पाई. उस में ऐसा क्या था जो तितलियों के झुंड में परकटी सी अलगथलग घूमा करती थी. घर में भी आज्ञाकारी पुत्री कह कर उस के चंचल भाईबहन उस पर व्यंग्य कसते थे.

‘मां की दुलारी’, ‘पापा की लाड़ली’, ‘टीचर्स पैट’ आदि शब्दों के बाण उस पर ऐसे छोड़े जाते थे मानो वे गुण न हो कर गाली हों. अनुभा के भीतर, खूब भीतर एक और अनुभा थी, जो सपने बुनती थी, जो चंचल थी, जो पंख लगा कर आकाश में ऊंची उड़ान भरा करती थी. उस के अपने छोटेछोटे बादल के टुकड़े थे, रेशम की डोर थी और तीज बिना तीज वह पींग बढ़ाती खूब झूला झूलती थी, जो खूब शृंगार करती थी, इतना कि स्वयं शृंगार की प्रतिमान रति भी लजा जाए. पर जिस गहरे अंधेरे कोने में वह अनुभा छिपी थी उसे कोई नहीं जान पाया कभी.

एक दिन जब उस के साथ कालेज आनेजाने वाली सहेली कालेज नहीं आई थी, वह अकेली ही माल रोड की चौड़ी छाती पर, जिस के दोनों ओर गुलमोहर के सुर्ख लाल पेड़ छतरी ताने खड़े थे, साइकिल चलाती घर की तरफ आ रही थी. रेशमी बादलों के बीच छनछन कर आ रही धूप की नरमनरम किरणों में ऐसी उलझी कि ध्यान ही नहीं रहा कि कब उस की साइकिल के सामने एक स्कूटर और स्कूटर पर विराजमान एक नौजवान उसे एकटक देख रहा था.

‘लगता है आप आसमान को सड़क समझ रही हैं. यदि मैं अपना पूरा बे्रक न लगा देता तो मैडम, आप उस गड्ढे में होतीं और दोष मिलता मुझे. माना कि छावनी की सड़कें सूनी होती हैं, पर कभीकभी हम जैसे लोग भी इन सड़कों पर आतेजाते हैं और आतेजाते में टकरा जाएं और वह भी किस्मत से किसी परी से…’

अनुभा इस कदर सहम गई, लजा गई और पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि गुलमोहर का लाल रंग उस के चेहरे को रंग गया. अटपटे ढंग से ‘सौरी’ बोल कर तेजतेज साइकिल भगाती चल पड़ी वहां से.

स्कूटर वाला तो निकला उस के भाई सुमित का दोस्त, जो कुछ दिन पहले ही एअरफोर्स में औफिसर बन कर लौटा था. बड़ा ही स्मार्ट, वाक्चतुर. ड्राइंगरूम में उसे बैठा देख वह चौंक पड़ी, वह बच कर चुपके से अपने कमरे की ओर लपकी तभी उस के भाई ने उसे आवाज दी, अपने मित्र से परिचय कराया, ‘आलोक, मिलो मेरी छोटी बहन अनुभा से.’

‘हैलो,’ कह कर वह बरबस मुसकरा पड़ी.

‘सुमित, अपनी बहन से कहो कि सड़क ऊपर नहीं, नीचे है.’

और वह भाग गई, उस के कानों में उन दोनों की बातचीत थोड़ीथोड़ी सुनाई पड़ रही थी, समझ गई कि माल रोड की चर्चा चल रही थी. अपने को बातों का केंद्र बनता देख वह कुमुदिनी सी सिमट गई थी. रात होने को आई, पर उस रात वह कुमुदिनी बंद होने के बदले पंखड़ी दर पंखड़ी खिली जा रही थी.

उन के घर जब भी आलोक आता, उस के आसपास मीठी सी बयार छोड़ जाता. पगली सी अनुभा आलोक की झलक सभी चीजों में देखने लगी थी, सिनेमा के हीरो से ले कर घर में रखी कलाकृतियों तक में उसे आलोक ही आलोक नजर आता था. अनुभा अचानक भक्तिन बनने लगी, व्रतउपवास का सिलसिला शुरू कर दिया. मां ने समझाया, ‘पढ़ाई की मेहनत के साथ व्रतउपवास कैसे निभा पाएगी?’

‘मम्मी, मेरा मन करता है,’ उस ने उत्तर दिया था.

‘अरे, तो कोई बुरा काम कर रही है क्या? अच्छे संस्कार हैं,’ दादी ने मम्मी से कहा.

अनुभा के मन में सिर्फ अब आलोक को पाने की चाहत थी. कालेज जाने से पहले वह मन ही मन सोचती कि बस किसी तरह आलोक मिल जाए.

‘बिटिया, कहीं पिछले जन्म में संन्यासिनी तो नहीं थी? पता नहीं इस का मन संसार में लगेगा कि नहीं?’ मम्मी को चिंता सताती.

‘कुछ नहीं होगा. अपनी यामिनी तो दोनों की कसर पूरी कर देती है. चिंता तो उस की है. न पढ़ने में ध्यान, न घर के कामकाज में. जब देखो तब फैशन, डांस और हंगामा,’ उस के पिता ने मां से कहा था.

‘हां जी, ठीक कहते हो, अब यामिनी की शादी कर दो. फिर मेरी अनुभा के लिए एक अच्छा सा वर ढूंढ़ देना.’

और अनुभा के भीतर वाली अनुभा ‘धत्’ बोल कर हंस पड़ी.

फैसला हमारा है : भाग 1

औफिस से घर लौटी प्रिया ने 50 हजार रुपए अपनी मां के हाथ में पकड़ाते कहा, ‘‘इस में 30 हजार रुपए सुमित की कंप्यूटर टेबल और नई जींस के लिए हैं.’’

‘‘कार की किस्त कैसे देगी इस बार?’’ मां ने चिंतित लहजे में पूछा. यह कार उन लोगों ने कोविड से पहले ली थी, पर कोविड में पिता की मौत के बाद वह भारी हो गई है.

‘‘उस का इंतजाम मैं ने कर लिया है. अब तुम जल्दी से मु झे कुछ हलकाफुलका खिला कर एक कप चाय पिला दो. फिर मु झे कहीं निकलना है.’’

‘‘कहां के लिए? इन दिनों कहीं भी जाना ठीक है क्या?’’

‘‘सुबह बताया तो था. एक कौन्फ्रैंस है, 2 दिन वहां रहना भी है. रविवार की शाम तक लौट आऊंगी.’’

‘‘मल्होत्रा साहब भी जा रहे हैं न?’’

‘‘पीए अपने बौस के साथ ही जाती है मां,’’ प्रिया अकड़ कर उठी और अपनी खुशी दिखाते हुए बाथरूम में घुस गई.

प्रिया की मां की आंखों में पैसे को ले कर चमक थी. जहां पैसेपैसे को मुहताज हो, वहां कहीं से भी कैसे भी पैसे आएं, अच्छा लगता है.

वह घंटेभरे बाद घर से निकली तो एक छोटी सी अटैची उस के हाथ में थी.

उसे विदा करते समय उस की मां का मूड खिला हुआ था. उन की खामोश खुशी साफ दर्शा रही थी कि वे उसे पैसे कमाने की मालकिन मान चुकी थीं.

प्रिया उन के मनोभावों को भली प्रकार सम झ रही थी. अपनी 25 साल की बेटी का 45 साल के आदमी से गहरी दोस्ती का संबंध वैसे भी किसी भी मां के मन की सुखशांति नष्ट कर सकता था, एक मां को समाज के लोगों का डर लगता था. बेटी बदनाम हो गई तो न मां सुरक्षित रह पाएगी, न बेटी.

मल्होत्रा साहब के पीए का पद प्रिया ने तकरीबन 2 साल पहले संभाला था. उन के आकर्षक व्यक्तित्व ने पहली मुलाकात में ही प्रिया के मन को जीत लिया था.

अपनी सहयोगी ऊषा से शुरू में मिली चेतावनी याद कर के प्रिया कार चलातेचलाते मुसकरा उठी.

‘यह मल्होत्रा किसी शैतान जादूगर से कम नहीं है, प्रिया,’ ऊषा ने कैंटीन में उस का हाथ थाम कर बड़े अपनेपन से उसे सम झाया था, ‘अपने चक्कर में फंसा कर यह पहले भी कई लड़कियों को इस्तेमाल कर मौज ले चुका है. तु झे इस के जाल में नहीं फंसना है. सम झी? उसे लगता है कि हम जैसी जाति की लड़कियों को जब चाहे पैसे दे कर खरीदा जा सकता है.’

ऐसी चेतावानियां उसे औफिस के लगभग हर व्यक्ति ने दी थीं जो उन की जाति या उस जैसी जाति का था. उन की बातों के प्रभाव में आ कर प्रिया मल्होत्रा साहब के साथ कई दिनों तक खिंचा सा व्यवहार करती रही थी, पर आखिरकार उसे अपना वह बनावटी रूप छोड़ना पड़ा था.

मल्होत्रा साहब बहुत सम झदार, हर छोटेबड़े को पूरा सम्मान देने वाले एक अच्छे इंसान हैं. मु झे उन से कोई खतरा महसूस नहीं होता है. मु झे उन के खिलाफ भड़काना बंद करो आप, ऊषा मैडम, प्रिया के मुंह से कुछ ही हफ्तों बाद इन वाक्यों को सुन कर ऊषा ने नाराज हो कर उस के साथ बोलचाल लगभग बंद कर दी थी.

नौकरी शुरू करने के 2 महीने बाद ऊषा ही ठीक साबित हुई और प्रिया का मल्होत्रा साहब के साथ अफेयर शुरू हो गया था.

उस दिन प्रिया का जन्मदिन था. मल्होत्रा साहब ने उसे एक बेहद खूबसूरत ड्रैस उपहार में दी. दोनों ने महंगे होटल में डिनर किया. वहां से बाहर आ कर दोनों कार में बैठे और मल्होत्रा साहब ने उस की तरफ अचानक  झुक कर जब उस के होंठों पर प्यारभरा चुंबन अंकित किया तो प्रिया आंखें मूंद कर उस स्पर्श सुख से मदहोश सी हो गई थी.

उस दिन के ठीक 10 दिनों बाद प्रिया ने रविवार का पूरा दिन मल्होत्रा साहब के साथ उन की कोठी पर गुजारा था. उसे भरपूर यौन सुख दे कर मल्होत्रा साहब ने स्वयं को एक बेहद कुशल प्रेमी सिद्ध कर दिया था.

बाद में मल्होत्रा साहब ने उस के बालों को प्यार से हिलाते हुए इस संबंध को ले कर अपनी स्थिति साफ शब्दों में बयान कर दी थी, ‘प्रिया, मेरी बेटी 17 साल की है और होस्टल में रह कर मसूरी में पढ़ रही है. अपनी पत्नी से मैं कई वर्षों से अलग रह रहा हूं. मैं ने तलाक लेने का मुकदमा चला रखा है, लेकिन वह आसानी से मु झे नहीं मिलेगा. शायद 3-4 साल और लगेंगे तलाक मिलने में, पर मैं जो कहना चाह रहा हूं, उसे अच्छी तरह से तुम आज सम झ लो, प्लीज.’

‘मैं पूरे ध्यान से आप की बात सुन रही हूं,’ प्रिया ने उन की आंखों में प्यार से  झांकते हुए जवाब दिया था.

‘तलाक मिल जाने के बाद भी मैं तुम से कभी शादी नहीं कर सकूंगा. उस तरह के सहारे की तुम मु झ से कभी उम्मीद मत रखना.’

‘फिर किस तरह के सहारे की उम्मीद रखूं?’ प्रिया को अचानक अजीब सी उदासी ने घेर लिया था.

‘अपना नाम देने के अलावा मैं अपना सबकुछ तुम्हारे साथ बांटने को तैयार हूं, डार्लिंग.’

‘सबकुछ?’

‘हां.’

‘क्या यह कोठी मेरे नाम कर दोगे?’

‘तुम्हें चाहिए?’

डर : भाग 1

मैं सुबह की सैर पर था. अचानक मोबाइल की घंटी बजी. इस समय कौन हो सकता है, मैं ने खुद से ही प्रश्न किया. देखा, यह तो अमृतसर से कौल आई है.

‘‘हैलो.’’

‘‘हैलो फूफाजी, प्रणाम, मैं सुरेश बोल रहा हूं?’’

‘‘जीते रहो बेटा. आज कैसे याद किया?’’

‘‘पिछली बार आप आए थे न. आप ने सेना में जाने की प्रेरणा दी थी. कहा था, जिंदगी बन जाएगी. सेना को अपना कैरियर बना लो. तो फूफाजी, मैं ने अपना मन बना लिया है.’’

‘‘वैरी गुड’’

‘‘यूपीएससी ने सेना के लिए इन्वैंट्री कंट्रोल अफसरों की वेकैंसी निकाली है. कौमर्स ग्रैजुएट मांगे हैं, 50 प्रतिशत अंकों वाले भी आवेदन कर सकते हैं.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है.’’

‘‘फूफाजी, पापा तो मान गए हैं पर मम्मी नहीं मानतीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कहती हैं, फौज से डर लगता है. मैं ने उन को समझाया भी कि सिविल में पहले तो कम नंबर वाले अप्लाई ही नहीं कर सकते. अगर किसी के ज्यादा नंबर हैं भी और वह अप्लाई करता भी है तो बड़ीबड़ी डिगरी वाले भी सिलैक्ट नहीं हो पाते. आरक्षण वाले आड़े आते हैं. कम पढ़ेलिखे और अयोग्य होने पर भी सारी सरकारी नौकरियां आरक्षण वाले पा जाते हैं. जो देश की असली क्रीम है, वे विदेशी कंपनियां मोटे पैसों का लालच दे कर कैंपस से ही उठा लेती हैं. बाकियों को आरक्षण मार जाता है.’’

‘‘तुम अपनी मम्मी से मेरी बात करवाओ.’’

थोड़ी देर बाद शकुन लाइन पर आई, ‘‘पैरी पैनाजी.’’

‘‘जीती रहो,’’ वह हमेशा फोन पर मुझे पैरी पैना ही कहती है.

‘‘क्या है शकुन, जाने दो न इसे फौज में.’’

‘‘मुझे डर लगता है.’’

‘‘किस बात से?’’

‘‘लड़ाई में मारे जाने का.’’

‘‘क्या सिविल में लोग नहीं मरते? कीड़ेमकोड़ों की तरह मर जाते हैं. लड़ाई में तो शहीद होते हैं, तिरंगे में लिपट कर आते हैं. उन को मर जाना कह कर अपमानित मत करो, शकुन. फौज में तो मैं भी था. मैं तो अभी तक जिंदा हूं. 35 वर्ष सेना में नौकरी कर के आया हूं. जिस को मरना होता है, वह मरता है. अभी परसों की बात है, हिमाचल में एक स्कूल बस खाई में गिर गई. 35 बच्चों की मौत हो गई. क्या वे फौज में थे? वे तो स्कूल से घर जा रहे थे. मौत कहीं भी किसी को भी आ सकती है. दूसरे, तुम पढ़ीलिखी हो. तुम्हें पता है, पिछली लड़ाई कब हुई थी?’’

‘‘जी, कारगिल की लड़ाई.’’

‘‘वह 1999 में हुई थी. आज 2018 है. तब से अभी तक कोई लड़ाई नहीं हुई है.’’

‘‘जी, पर जम्मूकश्मीर में हर रोज जो जवान शहीद हो रहे हैं, उन का क्या?’’

‘‘बौर्डर पर तो छिटपुट घटनाएं होती  ही रहती हैं. इस डर से कोईर् फौज में ही नहीं जाएगा. यह सोच गलत है. अगर सेना और सुरक्षाबल न हों तो रातोंरात चीन और पाकिस्तान हमारे देश को खा जाएंगे. हम सब जो आराम से चैन की नींद सोते हैं या सो रहे हैं वह सेना और सुरक्षाबलों की वजह से है, वे दिनरात अपनी ड्यूटी पर डटे रहते हैं.’’

मैं थोड़ी देर के लिए रुका. ‘‘दूसरे, सुरेश इन्वैंट्री कंट्रोल अफसर के रूप में जाएगा. इन्वैंट्री का मतलब है, स्टोर यानी ऐसे अधिकारी जो स्टोर को कंट्रोल करेंगे. वह सेना की किसी सप्लाई कोर में जाएगा. ये विभाग सेना के मजबूत अंग होते हैं, जो लड़ने वाले जवानों के लिए हर तरह का सामान उपलब्ध करवाते हैं. लड़ाई में भी ये पीछे रह कर काम करते हैं. और फिर तुम जानती हो, जन्म के साथ ही हमारी मृत्यु तक का रास्ता तय हो जाता है. जीवन उसी के अनुसार चलता है.

उम्र भर का रिश्ता : भाग 1

शहर की भीड़भाड़ से दूर कुछ दिन तन्हा प्रकृति के बीच बिताने के ख्याल से मैं हर साल करीब 15 -20 दिनों के लिए मनाली, नैनीताल जैसे किसी हिल स्टेशन पर जाकर ठहरता हूं. मैं पापा के साथ फैमिली बिजनेस संभालता हूं इसलिए कुछ दिन बिजनेस उन के ऊपर छोड़ कर आसानी से निकल पाता हूं.

इस साल भी मार्च महीने की शुरुआत में ही मैं ने मनाली का रुख किया था  मैं यहां जिस रिसॉर्ट में ठहरा हुआ था उस में 40- 50 से ज्यादा कमरे हैं. मगर केवल 4-5 कमरे ही बुक थे. दरअसल ऑफ सीजन होने की वजह से भीड़ ज्यादा नहीं थी. वैसे भी कोरोना फैलने की वजह से लोग अपनेअपने शहरों की तरफ जाने लगे थे. मैं ने सोचा था कि 1 सप्ताह और ठहर कर निकल जाऊंगा मगर इसी दौरान अचानक लॉक डाउन हो गया. दोतीन फैमिली रात में ही निकल गए और यहां केवल में रह गया.

रिसॉर्ट के मालिक ने मुझे बुला कर कहा कि उसे रिसॉर्ट बंद करना पड़ेगा. पास के गांव से केवल एक लड़की आती रहेगी जो सफाई करने, पौधों को पानी देने, और फोन सुनने का काम करेगी. बाकी सब आप को खुद मैनेज करना होगा.

अब रिसॉर्ट में अकेला मैं ही था. हर तरफ सायं सायं करती आवाज मन को उद्वेलित कर रही थी. मैं बाहर लॉन में आ कर टहलने लगा. सामने एक लड़की दिखी जिस के हाथों में झाड़ू था. गोरा दमकता रंग, बंधे हुए लंबे सुनहरे से बाल, बड़ीबड़ी आंखें और होठों पर मुस्कान लिए वह लड़की लौन की सफाई कर रही थी. साथ ही एक मीठा सा पहाड़ी गीत भी गुनगुना रही थी. मैं उस के करीब पहुंचा. मुझे देखते ही वह ‘गुड मॉर्निंग सर’ कहती हुई सीधी खड़ी हो गई.

“तुम्हें इंग्लिश भी आती है ?”

“जी अधिक नहीं मगर जरूरत भर इंग्लिश आती है मुझे. मैं गेस्ट को वेलकम करने और उन की जरूरत की चीजें पहुंचाने का काम भी करती हूं.”

“क्या नाम है तुम्हारा?” मैं ने पूछा,”

“सपना. मेरा नाम सपना है सर .” उस ने खनकती हुई सी आवाज़ में जवाब दिया.

“नाम तो बहुत अच्छा है.”

“हां जी. मेरी मां ने रखा था.”

“अच्छा सपना का मतलब जानती हो?”

“हां जी. जानती क्यों नहीं?”

“तो बताओ क्या सपना देखती हो तुम? मुझे उस से बातें करना अच्छा लग रहा था.

उस ने आंखे नचाते हुए कहा,” मैं क्या सपना देखूंगी. बस यही देखती हूं कि मुझे एक अच्छा सा साथी मिल जाए.  मेरा ख्याल रखें और मुझ से बहुत प्यार करे. हमारा एक सुंदर सा संसार हो.” उस ने कहा.

“वाह सपना तो बहुत प्यारा देखा है तुम ने. पर यह बताओ कि अच्छा सा साथी से क्या मतलब है तुम्हारा?”

“अच्छा सा यानी जिसे कोई गलत आदत नहीं हो. जो शराब, तंबाकू या जुआ जैसी लतों से दूर रहे. जो दिल का सच्चा हो बस और क्या .” उस ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया.

फिर मेरी तरफ देखती हुई बोली,” वैसे मुझे लगता है आप को भी कोई बुरी लत नहीं.”

“ऐसा कैसे कह सकती हो?” मैं ने उस से पूछा.

“बस आप को देख कर समझ आ गया. भले लोगों के चेहरे पर लिखा होता है.”

“अच्छा तो चेहरा देख कर समझ जाती हो कि आदमी कैसा है.”

“जी मैं झूठ नहीं बोलूंगी. औरतें आदमियों की आंखें पढ़ कर समझ जाती हैं कि वह क्या सोच रहा है. अच्छा सर आप की बीवी तो बहुत खुश रहती होगी न.”

“बीवी …नहीं तो. शादी कहां हुई मेरी?”

“अच्छा आप की शादी नहीं हुई अब तक. तो आप कैसी लड़की ढूंढ रहें हैं?”

उस ने उत्सुकता से पूछा.

“बस एक खूबसूरत लड़की जो दिल से भी सुंदर हो चेहरे से भी. जो मुझे समझ सके.”

“जरूर मिलेगी सर. चलिए अब मैं आप का कमरा भी साफ कर दूं.” वह मेरे कमरे की तरफ़ बढ़ गई.

सपना मेरे आगेआगे चल रही थी. उस की चाल में खुद पर भरोसा और अल्हड़ पन छलक रहा था.

मैं ने ताला खोल दिया और दूर खड़ा हो गया. वह सफाई करती हुई बोली,” मुझे पता है. आप बड़े लोग हो और हम छोटी जाति के. फिर भी आप ने मेरे से इतने अच्छे से बातें कीं. वैसे आप यहां के नहीं हो न. आप का गांव कहां है ?”

“मैं दिल्ली में रहता हूं. वैसे हूं बिहार का ब्राह्मण .”

“अच्छा जी, आप नहा लो. मैं जाती हूं. कोई भी काम हो तो मुझे बता देना. मैं पूरे दिन इधर ही रहूंगी.”

“ठीक है. जरा यह बताओ कि आसपास कुछ खाने को मिलेगा?”

“ज्यादा कुछ तो नहीं सर. थोड़ी दूरी पर एक किराने की दुकान है. वहां कुछ मिल सकता है. ब्रेड, अंडा तो मिल ही जाएगा. मैगी भी होगी और वैसे समोसे भी रखता है. देखिए शायद समोसे भी मिल जाएं.”

“ओके थैंक्स.”

मैं नहाधो कर बाहर निकला. समोसे, ब्रेड अंडे और मैगी के कुछ पैकेटस ले कर आ गया. दूध भी मिल गया था. दोपहर तक का काम चल गया मगर अब कुछ अच्छी चीज खाने का दिल कर रहा था. इस तरह ब्रेड, दूध, अंडा खा कर पूरा दिन बिताना कठिन था.

मैं ने सपना को बुलाया,” सुनो तुम्हें कुछ बनाना आता है?”

दो चेहरे वाले लोग : भाग 1

वैसे, जीजी मेरी सगी बहन तो नहीं, लेकिन अम्मां और आपा ने उन्हें हमेशा अपनी बेटी के समान ही माना. इसलिए जब मेरे पति ने मुंबई की नौकरी छोड़ कर हैदराबाद में काम करने का निश्चय किया, तब आपा ने नागपुर से चिट्ठी में लिखा, ‘अच्छा है, हमारे कुछ पास आओगे तुम लोग. और हां… जीजी के हैदराबाद में होते हुए फिर हमें चिंता कैसी.’

जीजी बड़ी सीधीसादी, मीठे स्वभाव की हैं. दूसरों के बारे में सोचतेसोचते अपने बारे में सबकुछ भूल जाने वाले लोगों में वह सब से आगे गिनी जा सकती हैं. अपने मातापिता, भाईबहन, कोई न होने पर भी केवल निस्वार्थ प्रेम के बल पर उन्होंने सैकड़ों ‘अपने’ जोड़े हैं.

‘लेकिन, तुम्हारे जीजाजी को वह जीत नहीं पाई हैं,’ मुकुंद मेरे पति ने 2-3 बार टिप्पणी की थी.

‘जीजाजी कितना प्यार करते हैं जीजी से,’ मैं ने विरोध करते हुए कहा था, ‘घर उन के नाम पर, गाड़ी उन के लिए, साड़ियां, गहने… सबकुछ…’

मुकुंद ने हर बार मेरी तरफ ऐसे देखा था जैसे कह रहे हों, ‘बच्ची हो, तुम क्या समझोगी.’

हैदराबाद आने के बाद मेरा जीजाजी के घर आनाजाना शुरू हुआ. घरों में फासला था, पर मैं या जीजी समय निकाल कर सप्ताह में एक बार तो मिल ही लेतीं.
अब तक मैं ने जीजी को मायके में ही देखा था. अब ससुराल में जिम्मदारियों के बोझ से दबी, लोगों की अकारण उठती उंगलियों से अपने भावनाशील मन को बचाने की कोशिश करती जीजी मुझे दिखाई दीं, कुछ असुरक्षित सी, कुछ घबराई सी. और मैं केवल उन्हें देख ही सकती थी.

जीजी की बेटी शिवानी कंप्यूटर इंजीनियर थी. वह मैनेजमेंट का कोर्स करने के बाद अब एक प्रतिष्ठित फर्म में अच्छे पद पर काम कर रही थी. जीजाजी उस के लिए योग्य वर की तलाश में थे. मैं ने कुछ अच्छे रिश्ते सुझाए भी, पर जीजाजी ने मुंह बनाते हुए कहा था, ‘क्या तुम भी रश्मि, शिवानी की योग्यता का कोई लड़का बताओ तो जानें…’

‘लेकिन जीजाजी, उमेश बहुत अच्छा लड़का है. होशियार, सुदर्शन, स्वस्थ, अच्छा कमाता है. कोई बुरी आदत नहीं है.’

‘पर, उस पर अपनी 2 छोटी बहनों के विवाह की जिम्मेदारी है. और उस का अपना कोई मकान भी नहीं…’ जीजाजी ने एकएक उंगली मोड़ कर गिनाना चाहा.

‘यह तो दोनों मिल कर आराम से कर सकते हैं. शिवानी भी तो कमाती है,’ मैं ने उन की बातों को काटते हुए कहा.

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रसोई गैस का लौलीपौप : यह पब्लिक है सब जानती है

कहावत है, ‘कितना ही उड़ लो आखिर एक दिन जमीन पर तो आना ही होगा.’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भी यही है।

घरेलू रसोई गैस के दाम को ले कर जिस तरह देशभर में गुस्सा और आक्रोश था और जिस तरह केंद्र सरकार के संरक्षण में इस के दाम धीरेधीरे बढ़ते चले गए और जबजब विपक्ष ने यह मुद्दा उठाया नरेंद्र मोदी ने आंखें और कान बंद कर लिए और मंदमंद मुसकराते रहते। रसोई गैस तो एक उदाहरण है। पेट्रोल, डीजल आदि जो सीधेसीधे आम आदमी से जुड़ी हुई है, के दाम केंद्र सरकार के संरक्षण आवाम को ठेंगा दिखा कर बढ़ते चले गए और देश की जनता आज त्राहित्राहि कर रही है.

सचाई यह है कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री क्या बन गए उन्होने अपने लिए ₹8,400 करोड का विमान खरीद लिया और उसी में दिनप्रतिदिन देशदुनिया में सैर करते दिखाई देते हैं और सिर्फ बड़ीबड़ी बातें कर के देश की जनता को यह संदेश देते हैं कि कोई लफ्फाजी हम से सीखे. देश, देशभक्ति, कांग्रेस, परिवारवाद, गांधी, नेहरू की बातें करकर के लोगों के जेहन में जहर डालने का काम करने से देश विकास के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता.

अचानक क्यों आई जनता की याद

यह जमीनी हकीकत सिद्ध हो गई जब पिछले 29 अगस्त की शाम को अचानक नरेंद्र मोदी सरकार ने बिना किसी के मांगे रसोई गैस के ₹200 दाम अचानक कम कर दिए. मगर सब से बड़ी बात यह है कि उस के बाद टीवी चैनल्स हों या फिर भाजपा के सोशल मीडिया प्लैटफौर्म, समाचारपत्र या फिर रेडियो, हर कहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धन्यवाद देने का प्रायोजित प्रोपेगेंडा अपने सबाब पर देखा गया।

दूरदर्शन के डीडी न्यूज चैनल ने तो हद ही कर दी। हरएक राज्य की महिलाओं से यह बुलवाया गया कि धन्यवाद मोदीजी, रक्षाबंधन के पहले आप ने हमें बहुत बड़ी गिफ्ट दी है। आप को रक्षाबंधन की बधाई।

लगभग यही डीडी न्यूज और प्रसार भारती के रेडियो चैनल्स पर दिखते व गूंजते रहे। इस से यह सिद्ध हो गया कि नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता जाने के भय से किस तरह कांप रही है.

यह उपहार है या भय

लाख टके का सवाल यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार का यह रसोई गैस को ले कर लिया गया फैसला रक्षाबंधन से पूर्व देश को दिया गया एक उपहार है या फिर सत्ता जाने के भय का परिणाम?

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का यह कहना कि यह फैसला रक्षा बंधन के अवसर पर महिलाओं को सरकार की ओर से एक उपहार है, इस से उन्हें बड़ी राहत मिलेगी. ऐसी बातें यह सिद्ध करती हैं कि भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार, दोनों ही महंगाई को ले कर अब बैकफुट पर हैं.

एक तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रवक्ता और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा कि उज्ज्वला योजना के बहुत ग्राहकों को ₹200 प्रति सिलेंडर एलपीजी सब्सिडी दी जा रही है, उस की लागत चालू चित्त वर्ष 2023-24 में ₹7,680 करोड़ बैठेगी. उज्चला लाभार्थी केवल 9.6 करोड़ हैं जबकि 31 करोड़ उपभोक्ता खाना पकाने के लिए रसोई गैस का उपयोग करते हैं. सरकार के दाम कम करने से इन सब को लाभ होगा.

दरअसल, केंद्र सरकार ने जून, 2020 में एलपीजी पर सब्सिडी देना बंद कर दिया था. देशभर में रसोई गैस की कीमत का निर्धारण बाजार आधारित था। रसोई गैस की दरों में कमी किए जाने के बाद विपक्ष ने केंद्र सरकार को घेरा है.

सवालों के घेरे में सरकार

कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खङगे ने पोल खोलते हुए कहा,” जब वोट लगे घटने तो चुनावी तोहफे लगे बंटने.”

उन्होंने कहा,” जनता की गाढ़ी कमाई लूटने वाली सरकार, अब माताओं बहनों से दिखावटी सद्भावना जता रही है.”

उन्होंने सवाल किया,”साढ़े 9 सालों तक ₹400 का एलपीजी सिलेंडर ₹1,100 में बेच कर आम आदमी की जिंदगी तबाह करते रहे, तब कोई ‘स्नेह भेंट की याद क्यों नहीं आई?”

विपक्ष के सब से बड़े नेता के नाते मल्लिकार्जुन खड़गे की यह बात आज चिंतन करने के लिए पर्याप्त है और नरेंद्र मोदी सरकार की असलियत को बयां करती है. दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी का बयान अगर ध्यान से पढ़ा जाए तो वह अपने आप में हास्यास्पद है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा,” गैस की कीमतों में कटौती होने से मेरे परिवार की बहनों की सहूलत बढ़ेगी और उन का जीवन और आसान होगा। मेरी हर बहन खुश रहे, स्वस्थ रहे, सुखी रहे, यही कामना है.”

क्या नरेंद्र मोदी देश की महिलाओं को यह बताएंगे रसोई गैस हो या फिर जीएसटी की मार और ऐसे ही अनेक महंगाई के हथकंडे से कितनेकितने अरबों रुपए बटोर कर केंद्र सरकार ने उन पैसों को दोनों हाथों से उड़ाया है?

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