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अब हम खुश हैं : भाग 2

“सो तो है,” राकेश की मम्मी बोलीं, “मगर, हमारी ऐसी किस्मत कहां…? अभी जो लड़की देखी है, उसे नौकरी वाला लड़का ही जो चाहिए. कई जगह तो हम देख चुके हैं. हम पंडितों के भाग्य में दुख ही तो लिखा है.”

“सुखदुख अपने बनाने से बनता है मां,” उषा तपाक से बोल उठी थी, “अब हमें अपनी सोच से ऊपर उठना होगा. तभी सुख मिलेगा.”

“ये सब कहने की बातें हैं,” राकेश के पापा बोल उठे, “इसे बदलना आसान नहीं. मैं आजकल की इन फिल्मी बातों को पसंद नहीं करता. हमारे बुजुर्गों ने बहुत सोचसमझ कर यह नियम बनाए हैं. और हम उस से अलग जा नहीं सकते.”

नाश्ते की प्लेटें वही सर्व कर रही थी. राकेश का एक दोस्त अनुज उस का मुंहलगा जैसा था और कुछ अधिक ही वाचाल था. वह उस के पीछे किचन तक चला आया और खुद ही गिलास निकाल पानी ले कर पीने लगा था.

राकेश की मम्मी मुंह पर तो कुछ बोली नहीं. मगर, उस के जाते ही वे बड़बड़ाने लगीं, “ये नान्ह जात सब जगह गुड़गोबर एक किए रहते हैं. मुंह पर तो लगाम है नहीं. कुछ भी बोलते चला जाता है.”

यह सुन कर वह एकदम स्तब्ध रह गई थी. अब तक वह धड़ल्ले से किचन से अंदरबाहर होते रहती थी. कहीं उसे भी ऐसा ही कुछ कह दिया गया, तो उस की क्या इज्जत रह जाएगी. उसे अब उन के किचन के अंदर जाने में भी संकोच होने लगा था. मगर उस ने ऐसा कुछ जाहिर होने नहीं दिया.
इस फंक्शन में उसे कुछ देर भी हो गई थी. लेकिन राकेश की मां ने उसे खाना खा कर ही जाने दिया.

और इस के बाद तो यह कुछ क्रम सा ही बन गया था. राकेश की मां को कुछ भी परेशानी होती तो उसे बुला लेती थी. धीरेधीरे वह इस घर में घुलमिल सी गई थी. राकेश के मम्मीपापा उसे पसंद करने लगे थे. यहां तक कि एक बार जब राकेश की शादी के लिए कुछ लोग बात करने आए, तो वह भी उस में शामिल थी.

सारी बातें हो चुकी थीं. मगर ज्यों ही उन्होंने सुना कि लड़का प्रतियोगिता की परीक्षाओं से निराश हो कर अब बिजनैस का रुख कर चुका है और पिता के साथ दुकान पर बैठता है, तो वे असहज हो गए. लड़की के चाचा ने बोल भी दिया, “सौरी सर, हम किसी नौकरीशुदा लड़के की तलाश में हैं. क्योंकि लड़की की भी यही इच्छा है.”

“क्यों बिजनेसमैन में क्या कमी है,” वह राकेश के पापा से पूछ बैठी, “आज के हालात में सभी को पैसा चाहिए. और पैसा तो बिजनैस से ही आता है. नौकरी में तो एक बंधीबंधाई सैलरी मिलती है, जो महीना शुरू होते ही भले पूर्णिमा के चांद की तरह दिखे, महीना खत्म होते ही अमावस्या के चंद्रमा के समान खत्म हो जाती है.”

“नौकरी में ऊपरी आमदनी भी तो दिखती है.”

“कितना खतरा है इस में. कभी पकड़े गए तो जिंदगी नरक बन जाती है. फिर सभी के साथ तो ऐसा नहीं रहता. कैसे लोग हैं यह?”

“अरे रश्मि, लड़कियों को लगता है कि बिजनैस चौबीस घंटे का चक्कर है, जबकि नौकरी में आठ घंटे आराम से औफिस में रहो, बाकी मजे लो,” उषा दीदी बोली, “अब इन्हें कौन समझाए.”

“अब वो बात कहां रही नौकरी में. जब कभी हमारे यहां इंस्पेक्शन होता है, किसी वीआईपी के आने या औडिट के आने से हम समय कहां देखते हैं. हमें भी अपना काम पूरा करना होता है और अतिरिक्त समय देना ही पड़ता है.”

“छुट्टियां भी रहती हैं ना.”

“तो क्या बिजनैस में छुट्टियां नहीं होतीं. बारिशभर छुट्टियां ही समझिए. फिर तीजत्योहारों में व्यस्तता रहती है, तो उसी अनुसार उस के बाद आराम भी तो रहता है. यह भी तो समझना चाहिए,” वह आश्चर्य प्रकट करती हुई बोली, “लोग बिजनैस को इतने गलत नजरिए से क्यों देखते हैं. इस व्यापार के बल पर ही तो आज यह दुनिया खड़ी है. कभी धर्म, सत्ता का संचालक हुआ करता था. फिर उस की जगह ताकत ने ले ली. और आज यह व्यापार ही है, जो विश्व का संचालक बना हुआ है. सभी की उन्नतिप्रगति की यह धुरी व्यापार ही तो है. और उस के प्रति इतनी घृणा.”

“अब क्या कहें, लड़की ही इस बात पर अड़ी है कि बिजनैसमैन से शादी नहीं करनी. यही नहीं, वह यहां तक कह रही थी कि बिजनैसमैन परिवार में ही नहीं जाना. वहां न कोई छुट्टी है, न कोई तीजत्योहार की खुशी होती है.”

राकेश की दीदी उषा बोली, “उन्हें अपनी बेटी की शादी किसी पुरोहिताई करने वाले पंडित से करनी चाहिए. फुरसत ही फुरसत होती है उस के पास. या फिर किसी मंदिर के किसी पुजारी से शादी करते. जब वह ठाकुरजी को लिए घरघर घूमता, तब पता चलता कि गरीबी क्या और भिखमंगापन कैसा होता है.”

“पहले ही प्रतियोगिता परीक्षाओं के नाम पर लाखों डुबा चुका है,” राकेश के भैया भुनभुनाए, “अब इस से बिजनैस भी नहीं होगा.”

“मैं बिजनैस कर के दिखा दूंगा कि मैं फैल्योर नहीं हूं,” राकेश चिल्लाया, “आप ही नहीं, वे सारी लड़कियां भी देख लेंगी कि मैं गलत नहीं हूं.”

“अच्छी बात है,” भैया मुसकराते हुए बोले, “कोशिश करना अच्छी बात है.”

राकेश की मां ने उसे जोरों से डांटा था. फिर वे रश्मि से मुखातिब हो कर बोलीं, “अब तुम ही समझाना इसे.”

“आप के घरेलू मामलों में मैं क्या कर सकती हूं?” वह बोली, “फिर भी मुझे विश्वास है कि वह बिजनैस में सफल होगा. बस, आप लोगों के सहयोग की उसे जरूरत है. मैं उसे बैंक से लोन दिलाने में सहयोग करूंगी.”

जैसेजैसे समय बीतता, राकेश थोड़ा उग्र होता जा रहा है, यह वह महसूस कर रही थी. खासकर उस के मनमस्तिष्क में यह बात घर कर गई थी कि लड़कियों ने उसे नापसंद कर दिया.

“जरा यह भी तो सोचो कि जब लड़कियों को इसी तरह नापसंद किया जाता होगा, तो उन पर क्या बीतती होगी?” एक दिन उस ने उस से कह दिया, तो वह शांत स्वर में बोला, “सही बात है, किसी की भावनाओं पर चोट पहुंचाना ठीक नहीं. मगर इस से किसी का अपराध अक्षम्य तो नहीं हो जाता. और इस का उत्तर तो यही हो सकता है कि मैं बिजनैस में सफल होऊं.”

“तुम चिंता क्यों करते हो? तुम्हें बैंक से 10 लाख का लोन तो सैंक्शन हो ही चुका है. तुम्हारे पापा ने राजधानी कौम्प्लेक्स वाली दुकान दे ही दी है. वह तो तुम्हारा बिजनैस खड़ा करने के लिए प्रयासरत हैं ही.”

“मगर, मैं तुम से एक बात कहना चाहता हूं. आशा है कि तुम मेरी बात को ठुकराओगी नहीं,” वह एकदम से भावुक हो कहता चला गया, “मुझे लगता है कि अब मैं तुम्हारे बिना रह नहीं पाऊंगा. मुझे तुम से प्यार हो गया है. मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. मैं ने मम्मीपापा से बात कर ली है और उन्होंने भी सहमति दे दी है कि तुम सुलझी हुई लड़की हो. मेरी भावनाओं को समझ सकती हो. मेरा विश्वास है कि मेरे इस निवेदन को तुम स्वीकार करोगी.”

यह सुन कर वह एकदम से सन्न रह गई. राकेश बहुत भला लड़का है, इसे तो वह मानती है. मगर उस के घर वाले, खासकर उस के मम्मीपापा के मन में अभी भी अपनी ऊंची जाति का दंभ तो है ही. और जब वह जानेंगे कि वह दलित परिवार की लड़की है, तो क्या उसे स्वीकार कर पाएंगे? उसे तो नहीं लगता कि यह उस के लिए ठीक होगा. आमतौर पर शुरुआत तो ठीक ही होती है. मगर समय के साथ जटिलताएं बढ़ने लगती हैं. पासपड़ोस, नातेरिश्तेदारों के तानोंफिकरों से व्यक्ति का मन फिर जाता है.

भ्रम : भाग 2

सुमित अभी उस से और ढेर सारी बातें करना चाहता था लेकिन वह कभी भी उसे बात करने के लिए ज्यादा समय नहीं देती। आज भी उस ने चारु के प्रति कोई नफरत नहीं दिखाई थी और अपनी बात कह कर चैट खत्म कर दी थी. सुमित और वाणी सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर 6 महीने पहले मिले थे। तब से उन के बीच लगातार चैटिंग हो रही थी. सुमित उस से मिलने को बहुत बेकरार था लेकिन वाणी ऐसा कोई मौका ही नहीं दे रही थी। वह उस के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता था. बस, इतना ही कि वह भी उस की तरह एक कंपनी में अच्छाखासा जौब करती है। उस के पेरैंट्स साथ में नहीं रहते। वह अकेली रह कर अपनी जिंदगी मजे से गुजार रही है.

सुमित ने उसे अपनी फोटो भेज दी थी लेकिन वाणी ने उसे अपना इस प्रकार का कोई परिचयसूत्र नहीं दिया था। बस, चैटिंग के माध्यम से ही वह उस से बात करती और वह भी बहुत सधे हुए तरीके से। सुमित कई बार भावनाओं में बह कर अपने उद्दगार चैटिंग में लिख देता लेकिन वाणी की भाषा हमेशा मर्यादित और संयमित रहती. जब भी सुमित मिलने की बात कहता तो वह टाल जाती. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह उस से मिलना क्यों नहीं चाहती?

अगले दिन सुबह उठा तो सुमित का मन उचाट था। औफिस जाने के नाम से ही उसे परेशानी हो रही थी। वह किसी भी हालत में चारु का चेहरा नहीं देखना चाहता था. वह जानता था कि औफिस पहुंचते ही सब से पहले वही दिखाई देगी. उस का काम ही ऐसा था कि उसे मैनेजर के साथ बैठ कर कंपनी के मसलों पर डिस्कशन करना होता था जिस से पूरे दिन की रणनीति तैयार हो सके। आज भी चारु का बुलावा आते ही वह उस के केबिन में चला गया.

सुमित ने औपचारिक तौर पर उस के साथ गुड मौर्निंग की और फिर अपने काम पर लग गया. वह महसूस कर रहा था कि चारु काम के अलावा व्यक्तिगत तौर पर भी उस में दिलचस्पी ले रही थी.

“आप यहां अकेले रहते हैं?”

“जी, मम्मीपापा दिल्ली रहते हैं. काम के सिलसिले में मैं यहां आ गया।”

“वैसे, मैं भी यहां अकेली ही रहती हूं,” चारु ने कहा तो सुमित ने पलट कर कोई जवाब नहीं दिया.

उसे उस की व्यक्तिगत बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह यह भी नहीं जानना चाहता था कि उस के चेहरे की यह हालत किस ने की थी. यह बात चारु भी महसूस कर रही थी फिर भी वह थोड़ीथोड़ी देर बाद काम की बातों से हट कर उस के बारे में व्यक्तिगत बातें पूछने लगती. सुमित एक मंजे हुए खिलाड़ी की तरह कम से कम शब्दों में उस की बातों का जवाब दे कर चुप हो जाता. वह महसूस कर रहा था कि काम के मामले में चारु बहुत स्मार्ट थी. 2 हफ्ते में ही उस ने कंपनी की कई पौलिसीज बदल कर उसे आगे बढ़ाने में काम करना शुरू कर दिया था. सुभाष सर यह देख कर बहुत खुश थे. उन का अपना व्यक्तिगत अनुभव भी इस बात को महसूस कर रहा था कि अगर चारु उन की कंपनी में टिक गई तो वह उन के लिए बहुत बेहतर साबित होगी. वह सुमित को भी उस से कुछ सीखने को कहते.

दोपहर में लंच करते हुए एक दिन चारु ने सुमित को अपने केबिन में बुला लिया और बोली,”आज मैं तुम्हें अपने हाथ से बना खाना खिलाना चाहती हूं।”

“मैडम, मैं लंच कर चुका हूं.”

“मेरे हाथ से बना खाना चख तो लो. मुझे उम्मीद है तुम्हें निराशा नहीं होगी. मम्मी कहती हैं मैं खाना अच्छा बना लेती हूं.”

न चाहते हुए भी सुमित को उस का साथ देना पड़ा. खाना उस के गले से नीचे नहीं उतर रहा था. मजबूरी थी। किसी तरह से उस ने थोड़ा सा खाना लिया और उस की तारीफ कर वापस चला आया। उस की हालत देख कर चारु को हंसी आ रही थी। वह अकसर सुमित को इसी तरह परेशान करने का मौका ढूंढ़ने में लगी रहती. वह जानती थी कि सुमित उसे पसंद नहीं करता फिर भी वह उस के नजदीक आने की अपनी कोशिश करती रहती थी. चारु के साथ खाना खा कर सुमित का मन अजीब हो गया था. वह कुछ नहीं समझ पा रहा था कि ऐसा क्यों होता है? उस के हाथ एक सुंदर स्त्री की तरह बहुत खूबसूरत थे। केवल चेहरे की कमी की वजह से वह उस के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा था.

शाम को वीणा से चैटिंग करते हुए उस ने लिखा,”अब मेरा इस कंपनी में काम करने का जरा भी मन नहीं करता.”

“ऐसा क्या हो गया?”

“पता नहीं वह क्यों मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ी रहती है। किसी न किसी बहाने अपने पास बुला लेती है.”

“उसे तुम अच्छे लगते हो। तुम बहुत स्मार्ट और हंसमुख हो.”

“उस से क्या होता है? पार्टनर को भी  वैसा ही होना चाहिए. मुझे उस में जरा भी इंटरैस्ट नहीं है फिर भी वह किसी न किसी बहाने मेरे नजदीक आने की कोशिश करती है.”

“औफिस में यह सब लगा ही रहता है. मेरे भी कई पुरुष मित्र हैं जिन से मेरी बहुत अच्छी पटती है. मैं ने उन के चेहरे पर कभी कोई ध्यान नहीं दिया.”

“सब इंसान एकजैसे नहीं होते. तुम्हारे लिए चेहरा महत्त्वपूर्ण न हो लेकिन मेरे लिए है। जो इंसान हर समय सामने दिखाई दे उस का चेहरा खूबसूरत न सही सामान्य तो होना ही चाहिए.”

“जैसा तुम ने बताया ऐसा किसी के साथ शादी के बाद भी हो सकता है. तो क्या उस का पार्टनर उसे छोड़ देगा?”

“जो चीज हुई नहीं उस के बारे में क्या सोचना? जानबूझ कर मक्खी तो नहीं निगली जा सकती। मुझे उस का चेहरा बिलकुल पसंद नहीं है. यह बात वह भी महसूस करती है फिर भी मेरे नजदीक आने का कोई मौका नहीं छोड़ती.”

“औफिस में तुम अपना ध्यान उस के चेहरे के बजाय काम पर दिया करो. देखना, धीरेधीरे तुम्हें वह ठीक लगने लगेगी. चेहरा ही सबकुछ नहीं होता, सुमित.”

“यह सब किताबी बातें हैं. मैं अपनेआप को नहीं समझा पा रहा हूं. क्या करूं?” इस के बाद उन्होंने थोड़ी देर और इधरउधर की चैटिंग की। रोज की तरह वाणी निश्चित समय पर लैपटौप बंद कर अपने काम पर लग गई. उसे समझ नहीं आ रहा था कि सुमित को ऐसे चेहरे से इतनी ऐलर्जी क्यों होती है? कोई जानबूझ कर  अपना चेहरा खराब नहीं करता. परिस्थितियां बिगाड़ देती हैं तो उस में उस का क्या दोष है?”

चारु को औफिस में आए 1 महीने से ऊपर का समय हो गया था। उस के और सुमित के बीच की दूरी बनी हुई थी। सुमित उस से केवल काम की बात करता और उस से आंखें मिला कर कभी बात न करता। चारु ने यह बात अप्रत्यक्ष रूप से उसे बता भी दी थी.

“लगता है, तुम्हें मेरा चेहरा पसंद नहीं आया?”

“ऐसी बात नहीं है, मैडम.”

“बात करते समय आदमी को हमेशा आई कौंन्टैक्ट करना चाहिए। तुम तो बंगले झांकते रहते हो.”

“मुझे औरतों के चेहरे की ओर देखना अच्छा नहीं लगता।”

“औरत का या मेरा चेहरा देखना अच्छा नहीं लगता? मुझे पता है कि मैं बदसूरत हूं लेकिन उसे मैं हटा भी नहीं सकती। जितना मेरे बस में था उतना मैं ने ठीक करने की कोशिश की. इस से आगे डाक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए. मैं क्या करूं, कोई जानबूझ कर अपनी सूरत नहीं बिगाड़ता. हर औरत की इच्छा होती है कि वह सुंदर दिखे।”

“मैडम, अच्छा होगा हम इन बातों से हट कर औफिस की बातों पर अपना ध्यान दें,” सुमित बोला तो चारु मुद्दे की बात पर आ गई.

“आई एम सौरी, सुमित। कभीकभी मैं अपने चेहरे को ले कर कुछ ज्यादा ही भावुक हो जाती हूं और भूल जाती हूं कि यह मेरा घर नहीं औफिस है जहां हमें काम पर ध्यान देना चाहिए,” इतना कह कर वह उसे औफिस से संबंधित कुछ जरूरी बातें समझाने लगी.

थोड़ी देर बाद वह उस के केबिन से निकल कर बाहर आ गया। उसे लगा जैसे वह जेल से बाहर निकल आया हो। उस की मनोदशा वीरेंद्र से भी छिपी नहीं थी.

“क्या बात है सुमित? तुम्हें मैडम से बात करना अच्छा नहीं लगता?”

“क्या करूं… मैं अपनेआप को समझा ही नहीं पाता। लाख कोशिश करता हूं उस के बावजूद भी मेरा ध्यान उस के चेहरे की बदसूरती पर चला जाता है।”

मन आंगन की चंपा : भाग 2

उस ने उम्मीद से ही मेरे पास भेजा है. न दूं तो अपनी ही नजर में गिर जाऊंगी. सुभद्रा थोड़ी पढ़ीलिखी थी. उस ने 2 लाख रुपए के चेक पर हस्ताक्षर कर के निर्मल को पकड़ा दिया. शाम तक वह खुशीखुशी लौट गया.

सबकुछ ठीक चल ही रहा था कि एक वह दिन गुसलखाने से बाहर निकलते समय फिसल गई. जांघ की हड्डी फ्रैक्चर हो गई. गनीमत थी कि गिरने की आवाज निचली मंजिल में किराएदार को सुनाई दे गई. इतवार था, किराएदार की छुट्टी थी. वह तेजी से ऊपरी मंज़िल में गया. दरवाजे खुले थे. उस ने आसपास के लोगों की मदद से सुभद्रा को अस्पताल पहुंचाया. कई दिन अस्पताल में गुजारने के बाद वह लौटी. घर में कैद हो गई थी वह. दर्द इस कदर कि उस का बाहर निकलना तो दूर, वौकर के सहारे घर के भीतर ही चल पाना कठिन होता. अनीता को भी अपना हाल बताया लेकिन कोई नहीं आया. एकदो दिन फोन पर हालचाल पूछे थे, बस.

एक दिन लीला आई दोपहर का खाना लिए. सुभद्रा बिस्तर से उठना चाहती थी लेकिन उस से उठा नहीं गया.

“लेटी रहो, ज्यादा हिलोडुलो मत. खाना ले कर आई हूं” लीला बोली.

“क्यों कष्ट किया. पड़ोसी दे जाते हैं, बहुत ध्यान रखते हैं मेरा.”

“याद है, आज तेरा जन्मदिन है. मीठा भी है, तुझे गुलाबजामुन पसंद हैं न?”

“तुझे कैसे पता?” वह आश्चर्यचकित हो कर बोली.

“तूने ही तो बताया था कि मैं वसंतपंचमी के दिन हुई थी.”

सुभद्रा हंसने लगी, “जन्मदिन किसे याद है और क्या करना है याद कर के.”

“क्यों? अपने लिए कुछ नहीं? लेकिन उस दिन मांबाप के लिए कितना बड़ा दिन रहा होगा!”

“हम्म…” और वह खयालों की दुनिया में चली गई.

लीला कुछ सोचते हुए बोल पड़ी, “सुभद्रा, तेरी ननद नहीं आई तुझे देखने?”

उस ने निराशा से गरदन हिलाई, “फोन किया था उसे. कम से कम अपने पति को ही भेज देती तो थोड़ी मदद मिलती. खैर, जो बीत गया सो बीत गया. इसी बहाने अपनेपराए का भेद मिल गया,” सुभद्रा ने दुखी हो कर लंबी सांस छोड़ी और चुप हो गई.

“छोड़ इन सब बातों को, चल, पहले तुझे खिला देती हूं.”

सुभद्रा तो भीतर ही भीतर विषाद से भर चुकी थी. लीला ने जो कहा, उस के कानों के पास से निकल गया.

“क्यों नहीं किसी जरूरतमंद लड़की को रख लेती अपने पास. उस का भी भला होता और तुझे भी दो रोटियां मिल जातीं. कौन जाने कब किसी तरह की जरूरत आन पड़े.”

“हां, बहुत बार सोचा इस बारे में,” वह भोजन शुरू करते हुए वह बोली, “एक लड़की है मेरे गांव में.”

“तो बुला क्यों नहीं लेती उसे?”

“ठीक ही कह रही है तू.”

“सोच मत, बुला ले जल्दी. कितनी उम्र की होगी?”

“होगी कोई 30-32 की, शादीशुदा. लड़की बहुत भोली व संस्कारी है. एक बेटा भी है 8 साल का. बेचारी का समय देखो, इतने पर भी उस का पति उसे छोड़ कर किसी दूसरी के साथ भाग गया.”

“ओह, बहुत बुरा हुआ उस के साथ. तू कहे तो मैं किसी को गांव भेज दूं?”

“ना रे, वही आ जाती है घर पर. जब से मेरा यह हाल हुआ है, कई बार आ चुकी है. कभी दूध तो कभी सब्जी दे जाती है. खाना भी पका कर खिला जाती है. गरीब है, लेकिन दिल की बहुत अमीर है.”

“तभी तो कहा है कि जिस की नाक है, उस के पास नथ नहीं है और जिस के पास नहीं है उस के पास नथ है.”

तभी एक सांवली सी युवती बच्चे के साथ दरवाजे के पास आ कर खड़ी हो गई.

“देख, जिसे सच्चे दिल से याद करो, वह मिल जाता है. यही है वह जिस की मैं बात कर रही थी. चंपा नाम है इस का,” फिर उस की तरफ देख कर सुभद्रा बोली, “आ बेटी, भीतर आ, बाहर क्यों खड़ी है?”

“बूआ, आज गाय ने दूध तो नहीं दिया लेकिन बथुआ का साग बना कर लाई हूं.”

“कोई बात नहीं. अभी मैं खा कर ही बैठी हूं.”

“शाम के लिए रोटी बना कर रख देती हूं,” अंदर आ कर चंपा ने कहा और फिर बेटे के सिर पर हाथ रख कर बोली, “चंदू, तू बाहर जा कर खेल.”

“अरे रहने दे उसे. इधर आ, तुझ से काम की बात करनी है.”

सुभद्रा ने इशारे से उसे अपने पास बुलाया और अपनी इच्छा उसे कह दी. फिर आशा से उस की ओर देख कर बोली, “अब बता, क्या कहती है?”

“आप मेरी बूआ जैसी है और मां जैसी भी. गांव में मेरा कौन है. चंदू के सहारे दिन काट रही हूं.”

“स्कूल में भरती करवा देंगे यहां, खुश रहेगा वह. उस की चिंता मत कर.”

“आप हैं तो मुझे किस बात की चिंता, बूआ.”

थोड़ी देर बाद लीला उठी, “अब मैं चलती हूं, फिर आऊंगी. तू इस से बातें कर. बहुत समझदार और प्यारी लड़की है.”

चंपा की गांव में इकलौती गाय थी, दूध कम ही देती थी. खेती के नाम पर एक छोटा टुकड़ा सब्जी उगाने के लिए, बस. और कुछ नहीं. रोजीरोटी के लिए दूसरों के खेतों में काम मिल जाता था उसे, यही आय का मुख्य साधन भी था. पेट भरने में उसे स्वर्गनर्क याद आ जाते. जवान थी, इसलिए थक कर भी चेहरे पर शिकन नहीं आती. आज उस की खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. कसबे में रहेगी तो चंदू की पढ़ाई भी हो जाएगी और पेट भी भरेगा. उस ने हां करने में देरी न की.

एक दिन वह जरूरत का सामान लिए बेटे सहित सुभद्रा के पास आ गई. एक बड़ा सा कमरा उसे मिल गया. गांव के मकान में ताला लटका सो लटका, उधर गाय भी विदा कर आई.

कसबा में आ कर उस ने अपनी दिनचर्या बदल दी. सुभद्रा के कपड़े धोना. नहाने की व्यवस्था, बिस्तर लगाना, खानापीना, समय पर दवाई देना और रोज शरीर में तेलमालिश करना. यह काम गांव के जीवन से कहीं आसान था उस के लिए.

यहां असुरक्षा का भाव भी नहीं सालता था उसे. सुभद्रा उस के हाथ में जरूरत पड़ने पर पैसे धर देती. चंपा हिचकती तो कहती, “बेटी, जितना तू कर रही है उतना शायद सगी बेटी भी न करे. किस के लिए रखूं यह सब. बाजार जा कपड़े खरीद ले अपने और चंदू के लिए.”

उस का बेटा कसबे के स्कूल में जाने लगा था. वह यहां आ कर बहुत खुश था. हमउम्र बच्चों के साथ उस का मन रम गया. अब चंपा को उस की फीस व किताबों की चिंता नहीं थी. सुभद्रा छोटीबड़ी सभी बातों का ध्यान रखती. चंपा भी गांव से बेहत्तर जिंदगी जी रही थी यहां.

यही स्थिति सुभद्रा की भी थी. घर में रौनक आ गई. घीरेधीरे चंपा की सेवासुश्रुषा ने उसे उठनेबैठने लायक बना दिया. फिर तो सुभद्रा ने छोटेमोटे काम अपने हाथों  में ले लिए.

कुछ साल हंसीखुशी बीत गए. सुभद्रा को अब जीवन जीने का आधार मिल गया. सुभद्रा लाठी के सहारे फिर से दुकान में जाने लगी. कभी ग्राहक कम होते तो जल्दी ही घर आ जाती. खानेपीने की उसे फिक्र नहीं थी, चंपा चुटकियों में खाना बना कर परोस देती.

सुभद्रा को घर भरापूरा लगने लगा और चंपा को लगता कि वह अपने मायके में आ गई है. बेटे की शिक्षा और जीवनयापन दोनों भलीभांति चल निकले.

समय एक समान कभी नहीं रहता. उस में भी समुद्र की तरह उतारचढ़ाव आते रहते हैं. सुखदुख दोनों अलगअलग हैं.

कभी एक अपने पैर जमा देता है तो कभी दूसरा.

सुभद्रा 70 साल पार कर गई. पहले से भी अशक्त होती जा रही थी, सो, दुकान की तरफ जाना बंद हो गया. इस बीच कुछ हमउम्र सहेलियां भी दुनिया छोड़ गईं. इस से वह बहुत आहत हुई.

सुभद्रा बिस्तर पर बैठेबैठे किताबों के पन्ने पलटती, चंदू के साथ मन लगाती और कभी अपनी सहेलियों से फोन पर बातें कर समय बिताती. कभी मन किया तो स्वभाववश अनीता को भी फोन लगा कर उस की कुशलता पूछ लेती.

उस साल सर्दी का प्रकोप बढ़ गया था. रहरह कर बादल छा जाते थे. कभी बादल मूसलाधार बरस भी जाते. दिसंबर आतेआते सामने की पहाड़ियों पर बर्फ की सफेद चादर चढ़ने लगी थी. इस साल तकरीबन 7-8 वर्षों बाद ऐसी बर्फ़ देखने को मिली. रजाई से बाहर हाथपैर निकालते ही पैर सुन्न पड़ जाते. ऐसी कड़ाकेदार सर्दी में जरा सी लापरवाही बुजुर्गों के लिए बेहद कष्टकारी होटी है. सांस की तकलीफ बढ़ जाती, कफ़ से छातियां जकड़ जाती हैं.

सुभद्रा को भी कफ की शिकायत होने लगी थी. खांसी भी उठती. छाती में दर्द भी महसूस होता. महल्ले में कल ही स्वास के रोगी एक वृद्ध चल बसे थे. सुभद्रा को पता चला तो वह भी अंदर से डर गई.

चंपा भांप गई. वह दैनिक कार्यों से निबट कर सुभद्रा को अधिक समय देने लगी. “बूआ, इतना क्यों सोच रही हो. खानेपीने और दवाई में लापरवाही से ही खतरा बढ़ता है, आप तो ऐसा नहीं करतीं.”

“वह तो ठीक है पर मेरी 3 सहेलियां भी तो चली गईं इस साल,” सुभद्रा चिंतित स्वर में बोली.

“अरे बूआ, तुम भी न, सब का अपनाअपना समय होता है. आप के साथ मैं हूं न, कुछ नहीं होने दूंगी,” सुभद्रा की हथेलियों को सहलाते हुए चंपा ने कहा, “आप पीठ से तकिया लगा लो, मैं खाना परोसती हूं.”

“पहले  बच्चे को जिमा. अपने साथ उस पर भी ध्यान दिया कर.”

“चिंता न करो बूआ, साथसाथ परोसती हूं.”

परपीड़क : भाग 2

‘‘साफसाफ बात करो अभय, गोलमोल बातें न तो मैं करती हूं और न ही मेरे पल्ले पड़ती हैं. मैं ने शुरू में ही सम  झा दिया था तुम दोनों को कि हम साथसाथ तभी खुशी से रह पाएंगे जब हम में हर बात खुली और साफ होगी. बिना वजह चुप हो जाना न मु  झे आता है और न किसी की चुप्पी मेरी सम  झ में आती है.’’

‘‘आप ने मौसी से कहा कि हम दोनों आप की जरा भी परवा नहीं करते. सारा दिन आप घर में कैद रहते हैं. कोई पूछने वाला नहीं आप को. क्या आप हमारे साथ रह कर खुश नहीं हैं?’’

सुन कर अवाक् रह गया मैं. मौसी से कहा, मतलब मीना की उस बहन से कहा जिस का चरित्र आज तक मेरी सम  झ में नहीं आया. वह बहन जो जहां से निकल भर जाती है वहीं कलह के बीज रोपती जाती है. मीना से उस बहन की कभी नहीं बनी. एक ही मां की 2 बेटियां और दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर.

‘‘लता से मैं ने ऐसा कहा?’’ सुन कर मीना हैरान रह गई. हैरान तो मीना को होना ही था.

‘‘अभय बेटा, अभी मेरा दिमाग इतना खराब नहीं हुआ जो अपना दुखड़ा रोने मैं लता के पास जाऊं. जो औरत अपना घर नहीं संभाल पाई वह मेरे घर का फैसला क्या करेगी. सच तो यह है कि मैं तो उस से मिली ही नहीं हूं.’’

‘‘आप ने उन्हें मोबाइल पर फोन किया था?’’

‘‘मु  झे तो मोबाइल इस्तेमाल करना आता ही नहीं. दीपा, तुम्हें तो पहले से ही पता है कि मु  झे मोबाइल पर बात करना ही नहीं आता. कभी तुम्हीं मिलाती हो तो हालचाल तुम्हारे सामने ही पूछती हूं और फिर लता से मेरा इतना प्यार कहां है, जो उस के साथ मैं दिल की बात करूं और ऐसी कोई बात हमारे दिलों में है ही नहीं. हम कोई कैदी हैं क्या. तुम्हारे पापा और मैं जब जहां चाहें घूमने चले जाते हैं. हमें किस की रोकटोक है? तुम्हीं बताओ.’’

दीपा और अभय के चेहरे के भाव इस तरह हो गए मानो उबलते दूध में किसी ने पानी के छींटे मार दिए हों. पतिपत्नी एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

‘‘तुम्हारे पापा की पैंशन ही हमारे लिए काफी है. हम तुम पर आश्रित होते तो भी खुद को कैदी मानते, हमें तो कोई समस्या है ही नहीं तो क्यों हम तुम्हारी शिकायत करते…और अगर करते भी तो लता के आगे जिस की अपनी बहू साल भर में अवसाद की मरीज बन कर अस्पताल पहुंच गई. अपने बेटे का घर उजाड़ने में जिस ने पूरा जोर लगा दिया वही लता मेरे घर में आग नहीं लगाएगी, इस की क्या गारंटी है.

‘‘तुम दोनों पढ़ेलिखे हो, इनसान को पहचानना सीखो. लता की बहू को अगर मैं न संभालती तो बेचारी पागल हो जाती या आत्महत्या ही कर लेती. क्या इस बात को तुम नहीं जानते हो? तुम्हारी मौसी कैसी है, क्या तुम्हें नहीं पता?’’

दीपा टुकरटुकर मेरा चेहरा देखने लगी.

‘‘मम्मी, मौसीजी उस दिन हमें मौल में मिली थीं. मैं ने अपनी और आप की साड़ी उन्हें दिखाई थी. मौसी ने रंग देखा था साड़ी का…रंग का उन्हें पता था तभी उन्होंने फोन पर मु  झे बताया कि आप को क्रीम रंग की साड़ी जरा भी पसंद नहीं आई.

‘‘पापा की कमीज भी उन के सामने ही खरीदी थी न. रंग वे जानती थीं. इसीलिए हमें सुना दिया कि जीजाजी कह रहे थे कि नीला रंग उन्हें पसंद नहीं.

‘‘हम भी यही सोच रहे थे. अगर आप को रंग पसंद नहीं था तो हम बदलवा लेते, इस में मौसी को सुनाने जैसा क्या था? और मोबाइल तो सच में मम्मी को मिलाना ही नहीं आता. हमारा लैंडलाइन भी हफ्ते भर से खराब पड़ा है. आप ने बात की भी तो कैसे?’’

झेंप और शर्म के भाव चले आए अभय के भी चेहरे पर. मीना की आंखें भी भर आईं दीपा की बात पर.

‘‘बेटा, हमें तुम्हारी जरूरत है और तुम दोनों को हमारी. बुढ़ापा और ज्यादा पास आएगा तो जाहिर सी बात है, हमारे हाथपैर जवाब देंगे ही और तब हमारी देखभाल तुम्हारी मौसी नहीं करेगी, तुम्हीं करोगे. अरे, वह मौसी इतनी प्यारी कहां है मु  झे, जो मैं उस से तुम्हारी शिकायत करूं.’’

दीपा की बांह पकड़ी मीना ने और उस का माथा सहला दिया.

‘‘लता पागल है, सम  झते नहीं हो क्या तुम लोग. ऐसा इनसान जिस ने ससुराल, मायका हर जगह रिश्तों में सिर्फ जहर घोला, कभी किसी को किसी के साथ हंसनेबोलने नहीं दिया वह पागल नहीं तो और क्या है? हर रिश्ते को लता ने सिर्फ अपने ही फीते से नापा है. ससुराल में भी राजनीति खेली और मायके में भी. अपने घर में भी जिस ने सिर्फ आग ही लगाई, उसे तुम कितनी अक्ल का मालिक सम  झते हो.

‘‘लता हमारी बहन है, सिर्फ इसलिए हम ने उसे अपने से काटा नहीं, वरना ऐसा तो नहीं कि हम उसे जानते नहीं हैं. उस की बहू, उस का बेटा उसे छोड़ कर चले गए क्योंकि यही दांवपेच वह उन दोनों के साथ खेलती थी. जिस इनसान को परपीड़ा का सुख मुंह लग जाए उसे तुम पागल नहीं तो और क्या सम  झोगे. हर पल बहूबेटे को आपस में लड़ाते रहना लता का शगल था. पैसा खर्च कर के दूसरे के घर आग लगाना उस का पुराना शौक है.’’ मीना सम  झा रही थी दीपा को, ‘‘ऐसा होगा एक दिन, मेरे मन में काफी समय से एक डर सा था. लता की बहू जब अपनी घुटन हम दोनों के साथ बांटने लगी थी तभी मु  झे ऐसी आशंका हो गई थी कि लता हमारे बच्चों पर वार जरूर करेगी. मनुष्य अपना व्यवहार नहीं देखता कि उस ने क्याक्या किया. जो आग इनसान दूसरों के घर में लगाता है वही आग जब अपने घर में लगने लगती है तब मनुष्य उस का दोष औरों पर लगा कर अपनी आत्मग्लानि को कम करने का प्रयास करता है.’’

पिछले हफ्ते हमारी शादी को 30 साल हुए थे और बच्चे हमारे लिए तोहफे लाए थे. मीना के लिए साड़ी और मेरे लिए नीली कमीज और एक महंगा पैन.

‘‘पापा, आप इतना अच्छा लिखते हैं तो आप का पैन भी सुंदर और अच्छा होना चाहिए,’’ यह कहते हुए बहू ने बड़े सम्मान से पार्कर का महंगा पैन मेरी जेब में टांगा था.

मेरी रचनाओं से बड़ी प्रभावित है मेरी बहू, और सच कहूं तो मेरी सच्ची आलोचक और प्रशंसिका भी है दीपा. अभय की सगाई हुई तब तो इस बात का उल्लेख हम ने नहीं किया था लेकिन शादी के बाद जब उसे पता चला कि मैं पिछले 20 साल से लिख रहा हूं तब सहसा खाना खातेखाते उस के हाथ से कौर ही छूट गया था. घटना कुछ इस प्रकार घटी थी :

15-20 दिन ही हुए थे उन की शादी को. वे गोआ से घूम कर आए थे. घर आते ही मेज पर पड़ी सरिता उठा कर दीपा पन्ने पलटने लगी. नाश्ता करतेकरते वह सरिता पढ़ने में व्यस्त थी. हम तब आपस में इतने खुले हुए नहीं थे, ज्यादा जानपहचान भी नहीं थी.

‘पहले आराम से खा लो, दीपा, सरिता कहीं भागी तो नहीं जा रही.’

अभय ने उस के हाथ से किताब छीनने का प्रयास किया था जिस पर एक तीखी प्रतिक्रिया की थी दीपा ने. हमें वह पतिपत्नी की सहज नोक  झोंक नहीं लगी थी.

‘मेरे हाथ से कोई किताब मत छीनना, बहुत बुरा लगता है मुझे.’

क्षण भर को अभय के चेहरे पर शायद   झेंप जाने के भाव उभर आए थे जिस पर उस ने हमारी ओर देखा था. नईनई पत्नी और उस का आदेशात्मक स्वर.

कहीं किसी रोज : भाग 2

जोया एक बिंदास, नास्तिक महिला थी, बैंगलोर में अकेली रहती थी, एक कालेज में फाइन आर्ट्स की प्रोफेसर थी, विवाह किया नहीं था. पेरेंट्स भाई के पास दिल्ली रहते थे, घूमनेफिरने का शौक था, खूब सोलो ट्रैवेलिंग करती, खूब पढ़ती, हमेशा बुक्स साथ रखती, अब लौकडाउन में फंसी  थी तो बुक्स पढ़ने के शौक में समय बीत रहा था. वह बहुत इंटेलीजेंट थी, कई फिलोसोफर्स को पढ़ चुकी थी, कई दिन से देख रही थी कि विमल उसे चोरीचोरी खूब देखता है, उसे मन ही मन हंसी भी आती, विमल देखने में स्मार्ट था, पर उसे एक नजर देखने से ही जोया को अंदाजा हो गया था कि वह धर्म में पोरपोर डूबा इनसान है.

होटल में स्टाफ अब बहुत कम  था, खानेपीने की चीजें सीमित थीं, पर काम चल रहा था. विमल का आज काम में दिल नहीं लगा, आंखों के आगे जोया का जैसे एक साया सा लहराता रह गया.

शाम होते ही लैपटौप बंद कर स्विमिंग पूल की तरफ भागा, जोया अपनी बुक में डूबी थी. विमल उस के पास जा कर खड़ा हो गया, ‘‘गुड ईवनिंग, जोयाजी.”

बुक बंद कर जोया मुसकराई, ‘‘गुड ईवनिंग, आइए, फ्री हैं तो बैठिए.”

विमल तो उस के पास बैठने के लिए ही बेचैन था, जोया बहुत प्यारी लग रही थी, नेवई ब्लू, टीशर्ट में उस का गोरा सुनस
सुंदर चेहरा खिलाखिला लग रहा था. जोया ने छेड़ा, ‘‘देख लिया हो तो कोई बात करें.”

हंस पड़ा विमल, ‘‘आप बहुत स्मार्ट हैं, नजरों को खूब पढ़ती हैं.”

‘‘हां जी, यह तो सच है,” जोया ने दोस्ताना ढंग से कहा, तो दोनों में कुछ बढ़ा, जोया ने कहा, ‘‘आजकल तो यहां जितनी भी सुविधाएं मिल रही हैं, बहुत हैं, मेरी सुबहशाम तो स्विमिंग पूल पर कट रही है और दिन होटल के कमरे में. आप क्या करते रहते हैं?”

‘‘औफिस का काम काफी रहता है, बस यों ही टाइम बीत जाता है.”

जोया ने पूछा, ‘‘और आप की फैमिली में कौनकौन हैं?”

विमल ने बता कर उस से भी पूछा. जोया ने जब बताया कि वह अविवाहित है. विमल हैरानी से उस का मुंह देखता रह गया.

यह देख जोया हंस पड़ी, ‘‘आप बहुत हैरान होते हैं, बातबात पर.‘‘ विमल को अब तक जोया के जौली नेचर का अंदाजा हो गया था. जोया ने फिर कहा, “मैं अपनी लाइफ अपने तरीके से ऐंजौय कर रही हूं, पता नहीं, लोग मेरी लाइफ पर हैरान ही होते रहते हैं, जैसे मैं जीती हूं, मुझे उस पर गर्व है.”

‘‘आप को एक फैमिली की जरूरत महसूस नहीं होती?”

‘‘पेरेंट्स हैं, भाई हैं, बाकी पति, बच्चे जैसी चीजों की कमी कभी नहीं महसूस हुई. मैं तो यहां लौकडाउन में फंसा होना भी ऐंजौय कर रही हूं, आप के पास पैसा हो तो आप को लाइफ ऐसे ही ऐंजौय करनी चाहिए, डेनिस रोडमैन ने तो कह ही दिया, ‘‘इनसान के जीवन में ५० पर्सेंट सैक्स होता है और ५० पर्सेंट पैसा.”

विमल का चेहरा शर्म से लाल हो गया. पहली बार कोई महिला उस के सामने बैठी सैक्स शब्द ऐसे खुलेआम बोल रही थी, जोया ने फिर कहा, ‘‘आप को अजीब लगा न कि कोई महिला कैसे सैक्स शब्द खुलेआम बोल रही है, इस विषय पर तो आप लोगों का कौपीराइट है,‘‘ कह कर जोया बहुत प्यारी हंसी हंसी.

विमल इस हंसी में कहीं खो सा गया, बोला, ‘‘आप सब से बहुत अलग हैं.”

‘‘जी, मैं जानती हूं.”

‘‘आजकल आप क्या पढ़ रही हैं?”

‘‘कार्ल मार्क्स.”

‘‘और क्याक्या शौक हैं आप के?”

‘‘खुश रहने का शौक है मुझे, बाकी सब चीजें इस के साथ अपनेआप जुड़ती चली गईं. आज डिनर साथ करें क्या?”

‘‘आज तो मेरा फास्ट है. मंगलवार है न. मैं जरा धार्मिक किस्म का इनसान हूं.”

जोया मुसकराई, तो विमल ने पूछ लिया, ‘‘आप किस धर्म को मानती हैं?”

‘‘मैं तो धर्म के खिलाफ हूं, क्योंकि इस में मेरे तर्कों का कोई जवाब नहीं. लोगों ने मुझे हमेशा दिमाग से काम लेने की सलाह दी. मैं ने मानी, बस, मैं फिर नास्तिक हो गई, है न ये मजेदार बात. जब लोग मुझ से मेरा धर्म पूछते हैं, मैं कह देती हूं, नॉन डेलूशनल.

‘‘मैं तो यह मानता हूं कि ऊपर वाला हर वस्तु में है और सब से ऊपर भी, भगवान को अपने आसपास ही महसूस करता हूं, इसी अनुभूति से जीवन सफल हो सकता है, भगवान ही हमारी हर मुश्किल का अंत कर सकते हैं.”

‘‘और मैं कार्ल मार्क्स की इस बात को मानती हूं कि लोगों की खुशी के लिए पहली जरूरत धर्म का अंत है और धर्म लोगों का अफीम है.”

‘‘आप विदेशी लेखकों की बुक्स शायद ज्यादा पढ़ चुकी हैं.”

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है, मुझे बीआर अंबेडकर की यह बात बहुत पसंद है, जो उन्होंने कहा है कि मैं ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए.”

‘‘पर, जोयाजी.”

‘‘आप मुझे सिर्फ जोया ही कह सकते हैं, यह जी मुझे अकसर बहुत फिजूल की चीज लगती है.”

विमल थोड़ा हिचकिचाया, पर उसे अपने मुंह से निकलता सिर्फ जोया बहुत प्यारा लगा, वह इस नाम पर ही अब मरमिटा था, इस नाम ने ही उस के अंदर एक हलचल मचा दी थी, उसे लग रहा था कि सामने बैठी, उस से उम्र में बड़ी महिला सारी उम्र बस उस के सामने ऐसे ही बैठी रहे और वह उस की बातें सुनता रहे, उसे देखता रहे, ब्यूटी विद ब्रेन.

‘‘तो आज आप फास्ट में डिनर में क्या खाएंगे?”

‘‘फ्रूट्स और मिल्क,”
जोया मुसकराई, ‘‘मैं ने तो अपनी लाइफ में कभी कोई फास्ट नहीं रखा.”

‘‘मैं सचमुच हैरान हूं, आप किसी भी धर्म को नहीं मानती? अच्छा, ठीक है, चलो, मुझे यह तो बता दो कि आप के पेरेंट्स का सरनेम क्या है?”

जोया बहुत जोर से हंसी, ‘‘आप उन्ही लोगों में से हैं न, जो सामने वाले के धर्म, जाति पूछ कर आगे बात करते हैं, तरस आता है मुझे ऐसे लोगों पर, जिन की दुनिया बस इतनी ही छोटी है जिस में सरनेम ही रह सकता है. खैर, मैं हूं जोया सिद्दीकी.”

विमल का चेहरा उतर गया, मुंह से निकल ही गया, ‘‘ओह्ह्ह.”

जोया ने छेड़ा, ‘‘आया मजा? क्या हुआ? झटका लगा न? अब बात नहीं कर पाएंगे?”

‘‘नहीं, नहीं, ऐसा तो नहीं है.”

दोनों फिर यों ही कुछ देर बात करते रहे, विमल जोया की नौलेज से प्रभाावित था, कमाल की थी जोया, विमल अपने रूम में आ कर भी सिर्फ जोया के बारे में ही सोचता रहा, पूरी रात उस के बारे में करवटें बदल बदल कर गुजारीं, जोया को भी विमल की सादगी बहुत अच्छी लगी थी, वह भी उस के बारे में सोच कर मुसकराती रही, अगली सुबह विमल ने उसे देखते ही बेचैनी से कहा, ‘‘आज तो मैं सो ही नहीं पाया.”

जोया ने बड़े स्टाइल से कहा, ‘‘जानती हूं.”

‘‘अरे, आप को कैसे पता?”

‘‘अकसर लोग मुझ से मिल कर जल्दी सो नहीं पाते.”

विमल थोड़ा फ्लर्ट के मूड में आ गया, ‘‘बहुत जानती हैं आप ऐसे लोगों को?”

‘‘हां, जनाब, बहुत देखे हैं.”

दोनों ने अपनेआप को एकदूसरे के कुछ और करीब महसूस किया, दोनों स्विमिंग पूल के किनारे चहलकदमी करते हुए बातें कर रहे थे, जोया ने कहा, ‘‘आज आप ने नहाधो कर सूर्य को जल नहीं चढ़ाया.”

‘‘हां, आज मन ही नहीं हुआ, मैं ठीक से सोता नहीं तो मेरा सारा काम उलटापुलटा हो जाता है.”

‘‘आप के भगवान मुझ से गुस्सा तो नहीं हो जाएंगे कि मेरी वजह से आप सो नहीं पाए. वैसे, अच्छा ही हुआ एक गिलास पानी वेस्ट होने से बच गया. आप ने कभी सोचा नहीं कि आप के भगवान को सचमुच उस पानी की जरूरत है? मुझे इस के पीछे का लौजिक समझा दीजिए, प्लीज.”

विमल ने हाथ जोड़े, ‘‘मैं समझ चुका हूं कि मैं आप से जीत नहीं सकता, जोया. मैं आप से हार चुका हूं,” उस के इस भोले से व्यवहार पर जोया मुसकरा दी. जोया ने कहा, ‘‘फिर तो बात ही खत्म, हारे हुए इनसान को क्या कहना? आज नाश्ता साथ करें?”

‘‘बिलकुल, फ्रेश हो कर मिलते हैं, इन का रैस्टोेरैंट तो बंद ही है आजकल, औफिस की मीटिंग में एक घंटा है, मेरे रूम में आओगी?”

‘‘हां, मिलते हैं.”

घुटने तक की एक ड्रेस, शोल्डर कट बाल शैंपू किए, हलका सा मेकअप, उस के पास से आती बढ़िया परफ्यूम की खुशबू, तैयार विमल ने जब अपने रूम का दरवाजा खोला, तो जोया को देखता ही रह गया. वह बहुत सुंदर थी, उस के रूप के जादू से बचना विमल को बहुत मुश्किल सा लग रहा था. वह पूरी तरह उस के होशोहवास पर छा चुकी थी, विमल ने उस की पसंद पूछ कर नाश्ता आर्डर किया, वेटर स्टेचू सा चेहरा लिए चला गया, तो जोया हंसी, ‘‘आज तो इन लोगों को भी टाइमपास करने का हमारा टौपिक मिल गया, ये बेचारे भी लौकडाउन में ऐसी बातों के लिए तरस गए होंगे.”

विमल को बहुत जोर से हंसी आई, ‘‘क्याक्या सोच लेती हो आप भी?”

‘‘तुम भी कहोगे मुझे तो अच्छा लगेगा, आप बहुत दूर कर देता है सामने वाले को.”

‘‘पर, आप मुझ से बड़ी हैं शायद.”

‘‘शायद नहीं, बड़ी ही हूं, पर मुझे तुम से तुम ही सुनना अच्छा लगेगा, विमल, जब करीब आ ही रहे हैं तो फौर्मलिटीज क्यों?”

नाश्ता करते हुए जोया की रोचक बातों में डूबा रहा विमल. जोया बता रही थी, ‘‘तुम्हें पता है, जब मैं यूरोप से अपनी आर्ट्स की पढ़ाई खत्म कर के  लौटी, और वहां के न्यूड स्कल्प्चर के बारे में स्टूटेंड्स को  बताती, उन्हें पढ़ाती, उन के चेहरे शर्म से लाल हो जाते. मुझे बड़ा मजा आता, मैं बहुत जगह घूमी, तुम्हें पता है डेनमार्क और स्वीडन में धार्मिक लोग सब से कम हैं और वहां सब से अच्छी शिक्षा है, अपराध न के बराबर हैं. ईमानदार लोग है,” जोया और विमल ने काफी अच्छे मूड में नाश्ता खत्म किया, जोया फिर उठ गई और बोली, ‘‘अब तुम औफिस के काम करो, मैं चलती हूं.”

विमल का मन ही नहीं कर रहा था कि जोया उस के पास से जाए, पर मजबूरी थी, एक मीटिंग थी, बोला, ‘‘तुम क्या करती हो पूरा दिन होटल में जोया?

दुख की छांव में सुख की धूप : भाग 2

“क्या चल रहा है भई, हमें भी कुछ बताया जाए लेकिन उस से पहले गरमगरम समोसे खाते हैं,” प्रीति ने कमरे के अंदर आते हुए कहा.

“तुम कुछ जल्दी नहीं आ गईं? टाइम क्या हो रहा है…” प्रीति को सामने देख मालती हड़बड़ाते हुए बोली.

“मैं जल्दी नहीं आई हूं, आप टाइम भूल गईं. 6:30 बज रहे हैं. चलिए सब ड्राइंगरूम में. बुआ अकेली बैठी हैं. मैं फ्रेश हो कर आती हूं फिर सब के लिए चाय बनाऊंगी,” प्रीति ने कहा.

“आप फ्रेश हो जाओ भाभी, चाय मैं बना देती हूं,” नेहा ने कहा तो प्रीति उस के चेहरे पर आंखें गड़ा कर सवाल करने लगी.

“क्यों भई, आज सूरज कहां से निकला है? पढ़ाई से कट्टी कर ली क्या या फिर पढ़ाकू दूल्हा नहीं चाहिए?” नेहा को छेड़ते हुए प्रीति ने कहा और बाथरूम के अंदर घुस गई.

वक्त के थपेड़ों ने प्रीति को इतना सब्र सिखा दिया था कि वह अपने आंसू किसी के सामने नहीं बहाती थी. आईने के सामने खड़ी प्रीति अपनी आंखों से नमी को धोने लगी. मालती और नेहा की बातें उस के कानों में पड़ चुकी थी. जानती थी कि यदि वह रोई तो मां टूट जाएगी.

‘नहीं रोहन, रोऊंगी नहीं मैं. मां और नेहा का खयाल रखूंगी. बस यही तो मांगा था अपने लिए तुम ने. देखो रोती नहीं हूं मैं,’ खुद में बड़बड़ाती प्रीति शौवर के नीचे खुद को भीगोने लगी.

“भाभी, बाहर नहीं आना क्या? मुझ से बरदाश्त नहीं हो रहा, मुझे समोसा खाने का मन है,” नेहा ने दरवाजे को पीटते हुए कहा.

“आई नेहू, बस 2 मिनट,” नेहा की आवाज सुन खुद को संभालते हुए प्रीति बोली.

5 मिनट बाद लोअर और टीशर्ट पहने प्रीति ड्राइंगरूम में सब के सामने थी.
उसे लोअर और टीशर्ट में देख कर सुरेखा की भवें चढ़ गईं.

“ऐसे कपड़े तुम्हें शोभा नहीं देते बिट्टो,” सुरेखा ने कहा. बुआ की बात सुन प्रीति असहज हो गई,”क्यों बुआ? भाभी कोई बुढ़ी अम्मां नहीं हैं.”

“तू चुप कर. दुनियादारी की बातों में न घुसा कर,” नेहा को डपटते हुए सुरेखा ने कहा.

“पर बुआ दिक्कत क्या है इन कपड़ों में? आरामदेह हैं और पूरे हैं,” नेहा ने बुआ को समझाते हुए कहा.

“नहीं नेहा, बुआजी ठीक कह रही हैं, मुझे ध्यान रखना चाहिए. तुम्हारे समोसे ठंडे हो रहे हैं. तुम समोसे खाओ,” नेहा के मुंह में समोसा डालते हुए प्रीति ने कहा. अपने मन की पीड़ा को दबाए वह माहौल को सहज बनाने की कोशिश करने लगी. उस की आंखें रोहन की तसवीर पर जा टिकीं. प्रीति की निगाहों में उतरी नमी मालती से छिप न सकी. एक बार फिर वह तड़प उठी.

समाज और उस की रिवायतों के आगे एक बार फिर एक मासूम की जिंदगी से खिलखिलाहट छीनी जा रही थी और वह चुपचाप ऐसा होते देख रही थी. रसोई के बहाने प्रीति वहां से उठ गई. अब खुद पर नियंत्रण कमजोर हो रहा था. इस से पहले कि कोई उस के आंसुओं को देखे वह छिप जाना चाहती थी.

4 दिन रही सुरेखा लेकिन इन 4 दिनों में मालती के दिल को बारबार खरोंच देती. ऐसा नहीं था कि सुरेखा को मालती और प्रीति की फिक्र नहीं थी लेकिन वह चली आ रही परंपराओं और समाज के बनाए दकियानूसी रिवाजों में जकड़ी पड़ी थी.

प्रीति की दिनचर्या रोहन से किए वादे के अनुसार चल रही थी. उस के होंठों पर दर्द नहीं आता और न ही किसी के सामने आंखों से पानी गिरता. मालती और नेहा का ध्यान रखने का वादा वह वादा था जो प्रीति ने रोहन को पहली रात दिया था. वैसे भी प्रीति को जीवन में पहली बार मालती के रूप में मां मिली थी जिस ने अनाथ प्रीति को रोहन की खुशी समझ अपना लिया था. मामामामी ने तो शादी के बाद से ही उस की खबर नहीं ली. न ही रोहन की मौत की खबर उन्हें प्रीति के दर्द के करीब लाई. उस की दुनिया नेहा और मालती थे. समय रेंग रहा था या चल रहा था यह तो मालूम नहीं लेकिन एकदूसरे से अपने दर्द को छिपाए मालती और प्रीति खुद को चलता जरूर दिखा रहे थे. बदलाव आया तो था जिसे छिपाने की जद्दोजेहद में प्रीति कभीकभी अतिरिक्त मुसकरा देती. मालती ने महसूस किया कि प्रीति किसी बात को ले कर परेशान है लेकिन बता नहीं रही,’बदलाव तो था तभी अभय आजकल उसे लेने नहीं आ रहा था. पूछने पर उस के शहर से बाहर होने बताया. अभय तो शहर में था. दिखा तो था लालगंज चौराहे पर. प्रीति का झगड़ा तो नहीं हो गया अभय से या फिर अभय भी प्रकाश की तरह….’
मालती अपनी सोच में खड़ी थी कि प्रीति की आवाज से चौंक उठी.

“मां, मैं चलती हूं,” प्रीति ने कहा और दरवाजे की ओर बढ़ गई.

“अभय आ गया क्या?” मालती ने सवाल किया.

“नहीं, जरूरत नहीं है उस की. मैं बस से जाऊंगी,” प्रीति ने कहा.

“अब तक शहर से बाहर है वह?” मालती ने पूछा.

“देर हो रही है मां. मैं चलती हूं,” इतना कह कर वह सीढ़ियों से उतर गई. मालती उसे जाते देखती रह गई. अभय के नाम पर प्रीति के चेहरे पर आई नाराजगी मन में शंका पैदा कर गई. कहीं अभय ने कुछ गलत करने की कोशिश तो नहीं की प्रीति के साथ. पर अभय बेहद शरीफ लड़का था. पर प्रीति का चेहरा उस के डर को बता रहा था. मन की उलझन में उलझती मालती सच को जानना चाहती थी लेकिन कैसे समझ नहीं आ रहा था. मालती के अंदर अब और दुख सहने की क्षमता नहीं थी. न ही प्रीति को दुखी देखने का सब्र.

“मां, कहां खोई हो? कब से पूछ रही हूं कि क्या मेरा पिंक दुपट्टा देखा है? बता दो तो कालेज की ओर प्रस्थान करूं,” नेहा नाटकीयता से बोली.

“ध्यान नहीं नेहा, कुछ और पहन ले न,” मालती ने कहा.

“आप को ध्यान नहीं, यह मैं क्या सुन रही हूं, कंप्यूटर से तेज दिमाग वाली मेरी माता की याददाश्त चली गई,” नेहा मालती को छेड़ते हुए बोली.

“नेहा, परेशान न कर बच्चे. मैं पहले ही परेशान हूं.”

“तो बताओ न मां दिक्कत क्या है? किसी ने कुछ कहा आप से,” नेहा ने मालती के कंधे पर हाथ रख कर कहा.

“नहीं रे, किसी ने कुछ नहीं कहा. मैं प्रीति के लिए परेशान हूं. वह कुछ अनमनी सी दिख रही है कुछ दिनों से. पूछो तो बताती नहीं है. डरती हूं कि कहीं किसी मुश्किल में न फंसी हो,” मालती ने अपने डर को बाहर निकाल दिया.

“मां, तुम भी न कुछ भी सोच लेती हो. काम का प्रैशर है भाभी के ऊपर. हमारी जिम्मेदारी है और कुछ नहीं होगा. डरो नहीं.”

“नहीं नेहा, बात बस इतनी नहीं है. जब से टूर से वापस आई है प्रीति तब से अभय भी उसे लेने नहीं आता. मुझे जानना है क्यों?” मालती ने कहा.

“परेशान न हो मां. शाम को भाभी से बात कर लेना. यों सोचसोच कर अपनी तबीयत न बिगाड़ो और आप कब तक छुट्टियां मनाओगी, बुआ चली गई हैं, आप भी औफिस जाओ न,” नेहा ने कहा.

“मेरी छुट्टियां बची हैं अभी. अगले सोमवार से ही शुरू करूंगी. चल दादीमां न बन, कालेज निकल. देर हो जाएगी तुझे,” मालती ने उसे धकियाते हुए कहा.

•••••••

“मैडम, कोई लड़की आप से मिलना चाहती है,” रघु की आवाज सुन कर प्रीति चौंकी.

“मुझ से? कौन है?” प्रीति ने जिज्ञासा जताई.

“पता नहीं, बोल रही थी कि आप की रिश्तेदार है,” रघु की बात सुन प्रीति की उत्सुकता और बढ़ गई.

“ठीक है भेज दो अंदर,” अपने लैपटौप को एक तरफ रख प्रीति ने कहा.

रघु के जाते ही प्रीति की नजरें दरवाजे पर टिक गईं. सामने नेहा को देख प्रीति चौंक उठी. अनेक प्रश्न दिमाग में उमड़ने लगे.

“नेहा, तुम इस समय यहां? कालेज नहीं गईं…मां तो ठीक है न?” प्रीति एक ही सांस में बोली.

“अरे रिलैक्स भाभी. यहां आई थी फ्रैंड्स के साथ तो सोचा आप से भी मिल लूं. चलो न कहीं बाहर चलते हैं. मस्ती करेंगे,” नेहा प्यार से बोली.

“इस समय औफिस टाइम है मैडमजी,” नेहा बोली.

“क्या भाभी, आप मेरे लिए इतना नहीं कर सकतीं. मुझे देखो मैं कितनी दूर से आई हूं आप के लिए,” रोती शक्ल बना कर नेहा ने कुछ इस तरह कहा कि प्रीति को हंसी आ गई.

“हो गई शुरू नौटंकी, करती हूं कोशिश. तुम यहीं बैठो, 2 मिनट में आती हूं,” इतना कह कर प्रीति केबिन से निकल गई.

नेहा उस के केबिन में चहलकदमी करने लगी. नेहा की नजर सामने से आते अभय पर पड़ी. चेहरे पर उग आई दाढ़ी और आंखों में उदासी कुछ बयां कर रही थी. कौरीडोर से होता हुआ अभय नेहा की आंखों से ओझल हो गया. यानि कि अभय शहर में ही है फिर भाभी को लेने क्यों नहीं आता… मां की शंका सही तो नहीं…” नेहा के दिमाग में उमड़ते सवाल प्रीति की आवाज से गायब हो गए.

“चलो भई, तुम्हारी इच्छा पूरी हो गई. आज हमारा हाफ डे है. बोलो कहां चलना है?” प्रीति ने अपना बैग उठाते हुए कहा.

“किसी रेस्तरां में चलते हैं जहां भीड़भाड़ न हो,” नेहा बोली.

“ओके…चलो चलते हैं,” प्रीति ने कहा.
दोनों औफिस से निकल पड़ीं. कुछ देर में प्रीति और नेहा रेस्तरां के टेबल पर व्यंजन का लुत्फ उठा रही थीं. नेहा ने महसूस किया कि प्रीति कुछ ज्यादा ही मुसकराने की कोशिश कर रही थी. नेहा की आंखों में अभय का चेहरा घूम रहा था.

“अभय तो औफिस आए थे आज. फिर सुबह आप को लेने क्यों नहीं आए?” नेहा के सवाल पर प्रीति खामोश हो गई.

“बताओ न भाभी, क्या हुआ है? आप के चेहरे पर अभय के लिए नाराजगी दिख रही है,” नेहा ने कहा.

” नहीं तो, मैं उस से क्यों नाराज होने लगी?” प्रीति ने कहा.

“तो आप को लेने क्यों नहीं आए?” नेहा ने फिर सवाल किया.

“क्योंकि मैं नहीं चाहती कि वह आए. दुनिया को बातें करने का मौका नहीं दे सकती मैं. और वैसे भी मैं बच्ची नहीं हूं जो किसी के सहारे चलूंगी. अब चलो फटाफट अपना खाना खत्म करो. फिर शौपिंग के लिए चलते हैं.”

“ठीक है भाभी,” नेहा ने चुप रहना ही ठीक समझा लेकिन उस की आंखों के सामने अभय का उदास चेहरा घूम रहा था.

शाम हो चुकी थी. बैग से लदी हुई दोनों घर के दरवाजे पर खड़ी हो गईं. उन के नौक करने से पहले ही दरवाजा खुल गया. सामने मालती खड़ी थी,”कहां से तफरीह कर के आ रही हो दोनों?” मालती ने बनावटी गुस्से में कहा.

“तफरीह नहीं, हम शौपिंग कर के आ रही हैं,” नेहा अंदर घुसते हुए बोली.

“क्या खरीद लाए हो जरा मैं भी देखूं,” मालती ने कहा तो प्रीति ने बैग से सामान बाहर निकलना शुरू कर दिया,”यह आप की साड़ी और यह नेहा के लिए शर्ट्स, शूज और कुछ लौंजरी.”

“अपने लिए क्या लाई हो? मालती ने सामान को देख कर कहा.

“मुझे अभी जरूरत नहीं है मां. बहुत कपड़े पड़े हैं,” कह कर प्रीति उठ गई.

“क्यों जरूरत नहीं है? औफिस जाती हो, मीटिंग्स अटैंड करती हो, लोगों से मिलती हो और सभी पुराने कपड़े घसीटे जा रही हो. मैं सब को उठा कर बरतन बदल लूंगी,” मालती ने गुस्से से कहा.

“मां, आप को कौन कहेगा कि आप मेरी सास हो. कभी तो बहू होने का एहसास कराया करो न. इतनी प्यारी क्यों हो आप?” प्रीति ने इस तरह कहा कि मालती हंस पड़ी और बोली,”चलोचलो, ज्यादा मक्खन नहीं लगाओ. खाना तुम ही बनाओगी. मैं नहीं बनाने वाली.”

“डोंट वरी मां, हम खाना और्डर कर चुके हैं तो आज आप की कुकिंग से छुट्टी,” नेहा इतरा कर बोली.

•••••••••••

मालती के औफिस में गहमागहमी थी. कुछ बदलाव दिखाई दे रहा था. हफ्ते भर की छुट्टी ही तो ली थी उस ने लेकिन इस बदलाव की उम्मीद नहीं थी. मालती की नजर फाइल हाथ में दबाए तेजी से जाते मोहन चपरासी पर पड़ी,”मोहन…मोहन, इधर सुनना जरा.”

“क्या हुआ मैडम, जल्दी बताओ, साहब आने वाले होंगे,” मोहन जल्दी से बोला.

“साहब आने वाले हैं, लेकिन अभी तो 10 बजे हैं, बौस तो कभी 11 बजे से पहले आए हैं क्या जो डर रहे हो,” मालती ने आश्चर्य से कहा.

“आप छुट्टी पर थीं, आप को खबर नहीं की गई. राजीव सर की जगह दूसरे साहब आए हैं. इसी औफिस की दूसरी ब्रांच में कभी क्लर्क हुआ करते थे साहब लेकिन आगे पढ़ लिए और तरक्की कर गए…अच्छा चलता हूं मैं,” इतना कह मोहन तेजी से केबिन की ओर बढ़ गया.

मालती के दिमाग में नए बौस की छवि घूमने लगी. 15 साल पहले तो वह भी उसी ब्रांच में थी. फिर यह कौन है जो क्लर्क से बौस बन चुका है. मन में अनेक सवाल थे लेकिन जवाब नदारद. एक बार सोचा कि गौतम बाबू से पूछा जाए लेकिन हिम्मत नहीं की क्योंकि गौतम बाबू की आदत चिपकने की ज्यादा थी.
सुषमा अब तक नहीं आई थी वरना पता चल जाता. मोहन से नाम भी नहीं पूछा. अभी वह अपने खयालों में थी कि औफिस के अंदर किसी के आने की आहट हुई. वह ध्यान से उसी ओर देखने लगी लेकिन उस की टेबल इस तरह लगी थी कि बौस के केबिन के अंदर जाने वाले की पीठ ही नजर आती. मोहन ने आने वाले को सलाम किया.

‘ओह, अच्छा तो यह है नया बौस. चलो पता चल ही जाएगा कि कौन है,’ खुद से बुदबुदाती मालती अपनी फाइल खोल काम में लग गई. लंच हो गया और शाम की चाय भी लेकिन बौस की ओर से उसे अंदर नहीं बुलाया गया. राजीवजी तो दिन में 4-5 बार चक्कर लगवा ही देते थे लेकिन इस बंदे को शायद जरूरत नहीं पड़ी थी. शाम को औफिस से निकलते हुए मालती ने एक नजर बौस के केबिन पर डाली फिर बाहर निकल गई.

“आज का दिन कैसा रहा मां?” प्रीति ने पूछा.

“अच्छा रहा. लंबी छुट्टी के बाद औफिस जाना सिरदर्द कर देता है. नया बौस आया है हमारा, राजीवजी का ट्रांसफर हो गया,” चाय का सिप लेती हुई मालती बोली.

“मतलब राजीव गया. चलो अच्छा हुआ. अब आप के साथ फ्लर्ट नहीं कर सकेगा,” नेहा ने मालती को छेड़ते हुए कहा.

“अरे हमारी मां की सुंदरता पर नया बौस लट्टू न हो जाए, कहीं वह भी मां के साथ फ्लर्टिंग न शुरू कर दे,” नेहा का साथ देते हुए प्रीति ने भी चुहल की.

“रुको तुम दोनों, अभी करती हूं दिमाग ठीक, शर्म नहीं आती मां से मजाक करती हो…” मालती ने नेहा की ओर तकिया फेंक कर कहा. नेहा वहां से भाग गई तो प्रीति भी उठ कर चल दी.

“तुम रुको प्रीति, बात करनी है तुम से,” मालती ने कहा तो प्रीति के कदम ठिठक गए.

“क्या बात करनी है मां?” शंकित हो प्रीति बोली.

“देखो प्रीति, नेहा की पढ़ाई पूरी हो जाएगी. जल्दी जौब भी जौइन कर लेगी वह. उस की शादी के विषय में भी सोचना होगा,” मालती ने प्रीति को अपने नजदीक बैठा कर कहा.

“तो सोचेंगे न मां, धूमधाम से करेंगे शादी, चिंता क्यों करती हो…” प्रीति बोली.

“चिंता तो है न, बड़ी बेटी की शादी से पहले नेहा की शादी नहीं हो सकती. पहले बड़ी को शादी करनी होगी न,” मालती प्रीति की आंखों में देख कर बोली.

“समझी नहीं मैं. आप किस की बात कर रहे हो? केशव चाचा की बेटी की बात तो नहीं कर रहीं? उन की चिंता के लिए चाचाचाची हैं. आप क्यों चिंता कर रही हो?” प्रीति हैरानी से बोली.

“नहीं, मैं अपनी बड़ी बेटी की बात कर रही हूं,” मालती ने प्रीति के गाल को थपथपा कर कहा.

“कौन?” प्रीति का दिल जोरजोर से धड़कने लगा.

“तुम और कौन…पहले तुम्हारी शादी होगी उस के बाद नेहा की,” मालती ने कहा तो प्रीति की आंखों में नमी की धारा बह चली.

“मां, यह क्या कह रही हो. मैं रोहन की जगह किसी को नहीं दे सकती और न ही आप को छोड़ सकती हूं,” सुबकते हुए प्रीति मालती के गले लग गई.

“तो कौन कह रहा है कि रोहन की जगह किसी और को दे. मैं तो खाली जगह भरने की बात कर रही हूं क्योंकि जानती हूं यह खाली जगह दलदली कीचड़ में बदल जाएगी जो समय के बाद दुर्गंध देती रहेगी,” मालती ने समझाते हुए कहा.

“यह कैसी बात कर रही हो मां, रोहन की यादें मेरे जीवन में सुगंध हैं. मैं इसे मिटने नहीं दूंगी,” इतना कह कर प्रीति अपने कमरे में जा कर दरवाजा बंद कर ली.

‘यह सुगंध एक दिन बास मारने लगेगी लेकिन उस से पहले इसे बदलना होगा मेरी बच्ची, तुझे समझना होगा,’ मालती बुदबुदाई.

औफिस में घुसते ही मालती की नजर बौस के केबिन की ओर उठ गई. उस के कदम खुदबखुद उस तरफ चल पड़े. दरवाजे पर नेमप्लेट लगी थी जिस पर लिखा नाम कुछ धुंधला नजर आया. अपने पर्स से चश्मा निकाल अपनी आंखों पर जमा मालती ने नेमप्लेट की ओर देखा.
लिखे हुए नाम को पढ़ कर दिल में जोर से झटका लगा. प्रकाश, एक बार फिर यह नाम उस के सामने था. उस की टांगों में अजीब सी कंपकंपी होने लगी. खुद को संभालते ही मालती अपने टेबल पर जा कर बैठ गई. उंगलियों से जैसे शक्ति निचुड़ कर बाहर आ गई.

अपने दोनों हथेलियों को जांघों पर रख मालती उस की कंपन को रोकने की कोशिश करने लगी. तभी मोबाइल बजा. हड़बड़ा कर उस ने फोन उठाया,”हैलो आंटी, मैं अभय. मैं आप से मिलना चाहता हूं,” अभय की आवाज उस के कानों से टकरा दिमाग तक चली गई लेकिन मालती की आंखें केबिन की ओर ही देख रही थीं.

“आंटी, मैं एक बार मिल सकता हूं क्या आप से? हैलो…हैलो आंटी…आप को आवाज आ रही है मेरी,” अभय की आवाज की बेचैनी ने मालती को उस की ओर खींचा.

“हां…हां …अभय, क्या कह रहे थे बेटा?” धड़कन पर नियंत्रण रख मालती ने पूछा.

“आंटी, मैं आप से मिलना चाहता हूं. ज्यादा समय नहीं लूंगा…आप कब मिल सकती हो?” अभय की आवाज में छिपी बेचैनी मालती से छिप न सकी.

“आज मिलते हैं 6 बजे, मेरे औफिस के बाहर मिलना,” मालती ने कहा और फोन काट दिया. अपनी हथेलियों से चेहरे पर आए पसीने को पोंछा और कुरसी से सिर टिका कर बैठ गई.

“दीदी…दीदी…तबीयत ठीक है न?” मोहन उस के नजदीक आ कर बोला.

“हां, ठीक है बस सिरदर्द हो रहा है,” मालती ने मुसकरा कर कहा.

“सुबहसुबह सिरदर्द…चाय लाऊं?” मोहन ने पूछा.

“नहीं, ठीक हो जाएगा अपनेआप. तुम जाओ,” इतना कह कर मालती सुषमा की ओर चल पड़ी.

“तुम साहब से मिली हो क्या?” सुषमा से सवाल कर मालती उस की मेज पर थोड़ा झुक गई.

“नहीं यार, पता नहीं कैसा आदमी है. एक भी मीटिंग नहीं रखी अब तक,” सुषमा ने मुंह बनाते हुए कहा.

“नाम कुछ पहचाना सा लग रहा है न,” मालती ने कहा.

“भारत में हर तीसरा आदमी प्रकाश नाम लिए घूम रहा है. 2 तो मेरे परिवार में ही है. वैसे, तुम्हें कौन सा प्रकाश याद आया?” सुषमा हंसती हुई बोली.

“मजाक मत कर सुषमा. मुझे यह कुछ अजीब सा लग रहा है. ऐसे कैसे किसी स्टाफ से नहीं मिला,” मालती ने शंका जाहिर की.

“अरे मिला है भई, बस हमारे डिपार्टमैंट से नहीं मिला,” इतना कह सुषमा अपने काम में मसरूफ हो गई.

“मालती फिर से अपनी मेज पर जा कर बैठ गई. लैपटौप से नजरें हटा एक बार प्रकाश के केबिन की ओर देख ली. दिल जोरजोर से धङक रहा था. सामने का केबिन खाली था. सुबह से दोपहर और दोपहर से शाम के 5 बज चुके थे. बौस एक बार भी औफिस में नजर नहीं आया. मालती की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. धीरेधीरे सब लोग औफिस से निकलने लगे लेकिन मालती अपनी जगह बैठी विचारों में मग्न थी.

“मैडम, चलना नहीं है क्या? साढ़े 5 हो रहे हैं,” गौतम बाबू ने अपनी बत्तीसी दिखा कर कहा.

“बस निकल रही हूं. कुछ काम रह गया था, आप चलिए न,” मालती अपना पीछा छुड़ाते हुए बोली. खुद को व्यस्त दिखाने के लिए फाइलें उलटनेपलटने लगी.

“अच्छा जी, कल मिलते हैं,” गौतम बाबू ने विदा लेते हुए कहा. मालती ने एक मुसकान के साथ हां में सिर हिलाया.

औफिस से निकल कर मालती बाहर आ कर खड़ी हो गई. अभय अभी नहीं आया था. 6 बज चुके थे. मालती ने मोबाइल निकाला और अभय का नंबर डायल कर दिया,
“कहां हो अभय?”

“बस पहुंच गया हूं आंटी, पार्किंग में हूं. 5 मिनट दीजिए बस.”

5 मिनट बाद अभय मालती के सामने था. मालती ने उसे स्नेह से देखा. आज अभय बिलकुल रोहन सा लग रहा था. एक बार तो मालती की आंखों में नमी सी आई लेकिन संभल गई.

“आंटी, सामने कैफे में बैठें?” अभय झिझकते हुए बोला.

“चलो,” बिना सवाल किए मालती सहमति दे औफिस के पास बने कैफे की ओर मुड़ गई. वहां भीड़ थी लेकिन उन्हें एक कोने में टेबल मिल गई.

“कुछ ज्यादा भीड़ है आज,” मालती ने बात शुरू करते हुए कहा.

“आप कौफी के साथ क्या लेंगी, आंटी?” अभय ने वेटर को इशारे से करीब बुला कर मालती से पूछा.

“बस कौफी,” मुसकरा कर वह बोली.
अभय ने कप मालती के सामने किया. मालती उस के चेहरे को देख रही थी. वह कुछ परेशान था. यह तो वह फोन पर ही भांप चुकी थी. वह अभय के बोलने का इंतजार करने लगी. लेकिन अभय आंखें चुराता इधरउधर देख रहा था.

“क्या बात करनी थी, अभय? तुम कुछ परेशान लग रहे हो?” मालती ने आखिर पूछ ही लिया.

“आंटी मैं… प्रीति को ले कर कुछ…लेकिन पहले आप वादा कीजिए कि नाराज नहीं होंगी और मेरी बात शांति से सुनेंगी,” अभय ने कौफी के कप की ओर देख कर कहा.

मालती देख रही थी कि अभय नजरें नहीं मिला रहा था.

“तुम अपनी बात बिना झिझक कहो, मैं सुन रही हूं,” मालती ने उसे तसल्ली देते हुए कहा.

“मैं…मैं… प्रीति से प्यार करता हूं,” अपनी बात कह कर अभय मालती की ओर देखना लगा.

मालती को यही आशंका थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे रिऐक्ट करे. उस की चुप्पी देख अभय के चेहरे पर पसीना छलक आया.

हाशिए पर कायदे : भाग 2

मीनल को आज भी याद है वो 14 फरवरी का दिन, जब वह आर्यन से मिलने गई थी. आर्यन को तो उस के आने का इल्म तक नहीं था. वो तो मीनल को कहीं से पता चला था कि आर्यन रोज शाम को गोमती नगर वाले आयरन मसल्स जिम में जाता है. बस, उसे सरप्राइज करने के लिए वह लाल, सफेद और पीले गुलाबों से सजा हुआ गुच्छा लिए जिम के बाहर उस की बाइक के पास खड़ी हो गई. एक्सरसाइज के बाद जैसे ही आर्यन अपनी बाइक की तरफ आया, मीनल को देखते ही खिल उठा. मीनल ने बिना कुछ कहे गुलाब उस की तरफ बढ़ा दिए. आर्यन ने भी फूल स्वीकार कर के मीनल से बाइक के पीछे बैठने का इशारा किया और दोनों पंछी उड़ चले.

हालांकि दोनों ने ही खुल कर कुछ नहीं कहा, लेकिन दिल की बातों को जबान की आवश्यकता भी कहां होती है. ये आंखों का आंखों से अनुबंध होता है. और आज आर्यन और मीनल भी इस अनुबंध में बंध गए थे.

लंबी ड्राइव के बाद दोनों एक पार्क में बेंच पर जा बैठे. आर्यन पार्क के बाहर खड़े ठेले से स्वीटकार्न चाट का एक कप ले आया, जिस में दो चम्मच रखे थे. दोनों एकदूसरे में खोए चाट का मजा ले ही रहे थे कि उन्होंने खुद को भीड़ से घिरा पाया. देखा तो कुछ गुंडेटाइप के लोग हाथ में लट्ठ लिए खड़े थे.

“क्यों बे…? बहुत प्रेम चढ़ा है क्या माथे पर? नाम क्या है तेरा?” भीड़ की अगुआई कर रहे व्यक्ति ने लट्ठ को जोर से जमीन पर मारते हुए पूछा.

“आप से मतलब…?” आर्यन ने नाराजगी से जवाब दिया.

“मतलब तो अभी समझा देंगे बेटा. नाम बताओ अपना…” कहता हुआ एक चमचा आगे आया. मीनल बहुत डर गई थी. उस ने आर्यन की बांह कस कर पकड़ ली. आर्यन ने थपथपा कर उसे हिम्मत दी. अब भीड़ उन पर हावी होने लगी थी.

“देखिए, हम दोनों दोस्त हैं. आप को कोई हक नहीं बनता हमारे आपसी मामलात में दखल देने का. आप लोग अपनी राह लीजिए, वरना मुझे पुलिस को इत्तला करनी पड़ेगी,” आर्यन ने उन्हें सख्त लहजे में कहा, तो भीड़ बावली होने लगी. एक-दो तो लट्ठ ले कर आर्यन पर हमला करने को ही आतुर हो गए. एक व्यक्ति ने आर्यन की कालर खींच ली. मीनल घबरा कर रोने लगी. आर्यन थोड़ा समझौते के मूड में आया.

“मेरा नाम आर्यन है. मैं शाह आयरन वर्क्स वाले अकरम अली का बेटा हूं. यह मेरी दोस्त मीनल है, जो जगदंबा इंडस्ट्री के मालिक विजय कपूर की बेटी है. देखिए, हम दोनों अच्छे परिवारों से संबंध रखते हैं. आप प्लीज हमें परेशान न करें,” कहते हुए आर्यन ने अपना और मीनल का परिचय दिया, जिसे सुन कर वे लोग भड़क उठे.

“ओ हो… तो लड़की को बरगलाया जा रहा है. पहले प्रेम का नाटक खेला जाएगा, उस के बाद धर्म परिवर्तन करवाया जाएगा. फिर शादी के बाद उस से बहुत से बच्चे पैदा करवाए जाएंगे, ताकि तुम्हारी आबादी बढ़े और तुम लोग बहुल हो कर हम पर राज करो यानी हमारे बच्चों को हथियार बना कर हमारे ही खिलाफ इस्तेमाल करोगे. है ना? यही प्लानिंग है ना तुम लोगों की? मुझे पता था. ये कौम है ही ऐसी,” मुंह से थूक उछालता गिरोह का सरगना फुंफकारा.

मीनल और आर्यन बात के कहां से कहां जाती देख कर परेशान हो गए. वे आसन्न संकट को देख पा रहे थे, इसलिए घबरा भी रहे थे. वो तो अच्छा हुआ कि गश्ती दल की गाड़ी उधर से गुजरी और मीनल दौड़ कर उस के सामने पहुंच गई. मदद मांगी तो पुलिस उस के साथ घटनास्थल की तरफ आने लगी. पुलिस को आते देख गुंडा टुकड़ी वहां से पार हो गई और मीनल व आर्यन ने चैन की सांस ली.

बात यहीं पर समाप्त नहीं हुई थी, बल्कि यहां से तो शुरू हुई थी. मीनल और आर्यन को परेशान करने और पुलिस की मदद करने वाली खबर दूसरे दिन उन की फोटो के साथ स्थानीय अखबार के फ्रंट पेज पर छपी तो बात पूरे शहर में फैल गई. चर्चा होना इसलिए भी स्वाभाविक था, क्योंकि मीनल के पिता लखनऊ की जानीमानी हस्ती थे और सामाजिक से ले कर राजनीतिक हलकों तक उन की तूती बोलती थी.

मीनल और आर्यन दोनों को कड़ी पूछताछ से गुजरना पड़ा. हालांकि वे दोनों एकदूसरे के साथ अपना शेष जीवन बिताना चाहते थे, लेकिन उन्हें कोई जल्दी नहीं थी. फिलहाल वे अपने रिश्ते को थोड़ा वक्त देना चाहते थे, लेकिन जिस तरह अचानक हालात ने पलटी खाई थी, उस के बाद उन के पास इतना समय नहीं था कि वे मसलों के सामान्य होने तक का इंतजार करते. लिहाजा, उन्होंने समाज के सामने स्वीकार कर लिया कि अलगअलग धर्म होने के बावजूद भी वे एक होना चाहते हैं. शादी करना चाहते हैं.

विधर्मी से शादी करने की बात पर बवाल तो होना ही था. विरोध दोनों ही तरफ से था. किसी भी परिवार को अपने खून में मिलावट मंजूर नहीं थी. सिर्फ इतने ही मसले नहीं थे, जो उन दोनों की शादी में रुकावट डाल रहे थे. कुछ मसले ऐसे भी थे, जो अदृश्य होते हुए भी अपनी उपस्थिति बनाए हुए थे. उन में से एक मसला था दोनों संप्रदायों के बीच होने वाले दंगे. देश के किसी भी हिस्से में हिंसा भड़के, उस का असर कमोबेश पूरे देश में जगह नजर आता है. लखनऊ तो वैसे भी बहुत नाजुक मिजाज वाले लोगों का शहर है. यह शहर बहुत अधिक संवेदनशील है, इसलिए दंगों से बहुत जल्दी प्रभावित होता है. लोगों का एकदूसरी कौम पर विश्वास जम भी नहीं पाता कि कहीं किसी और शहर में दंगे हो जाते हैं. ऐसे में विधर्मी जोड़ों को एक होने के लिए उन के पास एकमात्र विकल्प कोर्ट ही होता है. मीनल और आर्यन ने भी समाज की मान्यताओं को धता बताते हुए कोर्ट में शादी करने का निश्चय कर लिया.

बस, इतनी सी है दोनों की प्रेम कहानी. लेकिन प्रेम कहानियां क्या इतनी आसानी से पूरी हो जाती हैं? शायद नहीं. अभी तो दोनों को और भी इम्तिहान देने बाकी थे. कोर्ट में शादी की अर्जी लगाने की सुगबुगाहट के साथ ही शहर में उबाल आना शुरू हो गया. दोनों पक्षों पर सामाजिक और राजनीतिक दबाव बढ़ने लगे. हालात इतने अधिक तनावपूर्ण हो गए कि कानून व्यवस्था बिगड़ने तक की नौबत आ गई. इतना ही नहीं, मीनल और आर्यन पर जान का खतरा भी मंडराने लगा. अब तो बात इतनी अधिक बढ़ चुकी थी कि बच्चों की खुशी के लिए दोनों पक्ष यदि राजी हो भी जाते तो धार्मिक उन्मादी उन्हें एक होने नहीं देते.

सजा : भाग 2

तब तक चपरासी चाय रख कर चला गया था. असगर ने चाय में चीनी डाल कर प्याला तरन्नुम की तरफ बढ़ाया. तरन्नुम जैसे एकएक घूंट के साथ आंसू पी रही थी.

असगर ने एकदो फाइलें खोलीं. कुछ पढ़ा, कुछ देखा और बंद कीं. अब उस ने तरन्नुम की तरफ देखा, ‘‘क्या कार्यक्रम है?’’

‘‘मेरा कार्यक्रम तो फेल हो गया,’’ तरन्नुम लजाती सी बोली, ‘‘मैं ने सोचा था पहुंच कर आप को हैरान कर दूंगी. फिर अपना घर देखूंगी. हमेशा ही मेरे दिमाग में एक धुंधला सा नक्शा था अपने घर का, जहां आप एक खास तरीके से रहते होंगे. उस कमरे की किताबें, तसवीरें सभी कुछ मुझे लगता है मेरी पहचानी सी होंगी लेकिन यहां तो अब आप ही जब अजनबी लग रहे हैं तब वे सब…’’

असगर के चेहरे पर एक रंग आया और गया. फिर वह बोला, ‘‘यही परेशानी है तुम औरतों के साथ. हमेशा शायरी में जीना चाहती हो. शायरी और जिंदगी 2 चीजें हैं. शायरी ठीक वैसी ही है जैसे मुहब्बत की इब्तदा.’’

‘‘और मुहब्बत की मौत शादी,’’ असगर की तरफ गहरी आंखों से देखते हुए तरन्नुम बोली.

‘‘मुझे पता है तुम ने बहुत से इनाम जीते हैं वादविवाद में, लेकिन मैं अपनी हार कबूल करता हूं. मैं बहस नहीं करना चाहता,’’ असगर ने उठते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा सामान कहां है?’’

‘‘बाहर टैक्सी में,’’ तरन्नुम ने बताया.

‘‘टैक्सी खड़ी कर के यहां इतनी देर से बैठी हो?’’

‘‘और क्या करती? पता नहीं था कि आप यहां मिलोगे भी या नहीं. फिर सामान भी भारी था,’’?तरन्नुम ने खुलासा किया.

जाहिर था असगर उस की किसी भी बात से खुश नहीं था.

जब टैक्सी में बैठे तो असगर ने टैक्सी चालक को किसी होटल में चलने को कहा, ‘‘पर मैं तो आप का घर देखना…’’

असगर ने तरन्नुम का हाथ दबाया, ‘‘मेरे दोस्त अपने घर में मुझे मेहमान रखने की इजाजत नहीं देंगे.’’

‘‘पर मैं तो मेहमान नहीं, आप की बीवी हूं,’’ तरन्नुम ने मरियल आवाज में दोहराया.

‘‘उन की पहली शर्त ही कुंआरे को रखने की थी और ऐसी जल्दी भी क्या थी. मैं ने लिखा था कि घर मिलते ही बुला लूंगा,’’ असगर का दबा गुस्सा बाहर आया.

‘‘हमारी शादी को 8 महीने हो गए. तब से अभी तक अगर अपना घर नहीं मिला तो क्या किराए का भी नहीं मिल सकता था,’’ तरन्नुम ने खीज कर पूछा. उसे दिल ही दिल में बहुत बुरा लग रहा था कि शादी के चंद महीने बाद ही वह खास औरताना अंदाज में मियांबीवी वाला झगड़ा कर रही थी.

‘‘ठीक है,’’ असगर ने कहा, ‘‘अब तुम दिल्ली आ ही गई हो तो घरों की खोज भी कर लो. तुम्हें खुद ही पता लग जाएगा कि घर ढूंढ़ना कितना आसान है,’’ होटल में आ कर भी तरन्नुम महसूस कर रही थी कहीं कुछ है जो असगर को सामान्य नहीं होने दे रहा.

अगले दिन असगर जब दफ्तर चला गया तब तरन्नुम ने अपनी सहेली रीता अरोड़ा को फोन किया और अपनी घर न मिलने की मुश्किल बताई. रीता ने कहा कि वह शाम को अपने परिचितों, मित्रों से बातचीत कर के कुछ इंतजाम करेगी.

दूसरे दिन रीता अपनी कार ले कर तरन्नुम को लेने आई. रास्ते से उन्होंने एक दलाल को साथ लिया जो विभिन्न स्थानों में उन्हें मकान दिखाता रहा. शाम होने को आई लेकिन अभी तक जैसा घर तरन्नुम चाहती थी वैसा एक भी नहीं मिला. कहीं घर ठीक नहीं लगा तो कहीं पड़ोस तरीके का नहीं. अगर दोनों ठीक मिल गए तो आसपास का माहौल बेतुका. दलाल को छोड़ते हुए रीता ने घर के बारे में पूरी तरह अपनी इच्छा समझाई.

दलाल ने कहा 2-3 दिन के अंदर ही ऐसे कुछ घर खाली होने वाले हैं तब वह खुद ही उन्हें फोन कर के सही घर दिखाएगा.

असगर तरन्नुम से पहले ही होटल आ गया था. थकी, बदहवास तरन्नुम को देख कर उसे बहुत अफसोस हुआ. फोन पर चाय का आदेश दे कर बोला, ‘‘कहां मारीमारी फिर रही हो? यह काम तुम्हारे बस का नहीं है.’’

‘‘वाह, जब शादी की है तो घर भी बसा कर दिखा देंगे. आप हमारे लिए घर नहीं खोज सके तो क्या. हम ही आप को घर ढूंढ़ कर रहने को बुला लेंगे,’’ तरन्नुम खुशी से छलकती हुई बोली.

‘‘चलो, यही सही,’’ असगर ने कहा, ‘‘चायवाय पी कर नहा कर ताजा हो लो फिर घर पर फोन कर देना. अभी अब्बू परेशान हो रहे होंगे. उस के बाद नाटक देखने चलेंगे. और हां, साड़ी की जगह सूट पहनना. तुम पर बहुत फबता है.’’

असगर की इस बात पर तरन्नुम इठलाई, ‘‘अच्छा मियांजी.’’

रात देर से लौटे, दिन भर की थकान थी, इतना तो तरन्नुम कभी नहीं घूमी थी. पर अब रात को भी उसे नींद नहीं आ रही थी. कल देखे जाने वाले घरों के बारे में वह तरहतरह के सपने संजो रही थी. उस का अपना घर, उस का अपना खोजा घर.

नाश्ते के बाद असगर दफ्तर चला गया. तरन्नुम रीता के इंतजार में तैयार हो कर बैठी उपन्यास पढ़ रही थी. उस का मन सुबह से ही किसी भी चीज में नहीं लग रहा था. होटल भला घर हो सकता है कभी? उसे लग रहा था जैसे वह मुसाफिरखाने में अपने सामान के साथ बैठी अपनी मंजिल का इंतजार कर रही है और गाड़ी घंटों नहीं, हफ्तों की देर से आने का सिर्फ ऐलान ही कर रही है और हर पल उस की बेचैनी बढ़ती ही जा रही है.

अचानक फोन की घंटी से जैसे वह गहरी सोच से जाग उठी. रीता ने होटल की लौबी से फोन किया था. रीता की आवाज खुशी से खनक रही थी. तरन्नुम ने झटपट पर्स उठाया और लौबी में आ गई. रीता ने बाहर आतेआते कहा, ‘‘आज ही सुबह बिन्नी दी का फोन आया था. उन के पड़ोस में कोई मुसलिम परिवार है, उन्हीं की कोठी का ऊपरी हिस्सा खाली हुआ था. उस घर की मालकिन बिन्नी दी की खास सहेली हैं. उन्हीं की गारंटी पर तुम्हें घर देने के लिए तैयार हैं. जितना किराया तुम दे सकोगी उन्हें मंजूर होगा.’’

रीता और तरन्नुम पंचशील पार्क की उस कोठी में गए. तरन्नुम को गेट खोलते ही बहुत अच्छा लगा. घर के बाहर छोटा सा लेकिन बहुत खूबसूरत लौन, इस भरी गरमी में भी हराभरा नजर आ रहा था.

घंटी की आवाज सुनते ही हमउम्र जुड़वां 3 साल के नन्हे बच्चे, एक पमेरियन कुत्ता और नौकर चारों ही दरवाजे पर लपके. जाली के दरवाजे के अंदर से ही नौकर बोला, ‘‘आप कौन, कहां से तशरीफ ला रही हैं?’’

रीता ने कहा, ‘‘जा कर मालकिन से बोलो, बिन्नी दी ने भेजा है.’’

नौकर ने दरवाजा पूरा खोलते हुए कहा, ‘‘आइए, वे तो सुबह से आप का ही इंतजार कर रही हैं.’’

बैठक कक्ष सजाने वाले की नफासत की दाद दे रहा था जैसे हर चीज अपनी सही जगह पर थी. यहां तक कि खरगोश की तरह सफेद कुरतेपाजामे में उछलकूद मचाते बच्चे भी जैसे इस कमरे की सजावट का हिस्सा हों. उन्हें बैठे 5 मिनट ही बीते होंगे कि कमरे का परदा सरका, आने वाली को देख कर रीता झट से उठी, ‘‘हाय निकहत आपा, कितनी प्यारी दिख रही हैं आप इस फालसाई रंग में.’’

निकहत हंस दी, ‘‘आज ज्यादा ही सुंदर दिख रही हूं. गरज की मारी आ गई वरना तो बिन्नी के पास आ कर गुपचुप से चली जाती है, कभी भूले से भी यहां तशरीफ नहीं लाई.’’

‘‘क्यों बिन्नी के साथ ईद पर नहीं आई थी,’’ रीता ने सफाई देते हुए कहा.

‘‘पर अभी तो ईद भी नहीं और नया साल भी नहीं. खैर इनायत है, गरज से ही सही, आई तो,’’ निकहत ने कहा, ‘‘और सुनाओ, कैसा चल रहा है तुम्हारा कामकाज.’’

‘‘वहां से आजकल छुट्टी ले रखी है. इन से मिलिए, ये हैं मेरी सहेली तरन्नुम, रामपुर से आई हैं. इन के शौहर यहां पर हैं. अपना मकान है लेकिन किराएदार खाली नहीं कर रहे हैं. शादी को 8-10 महीने होने को आए लेकिन अब तक मियां का साथ नहीं हो पाया. किराए पर ढंग का घर मिल नहीं रहा और होटल में रहते 5-7 दिन हो गए. बिन्नी दी से बात की तो उन्होंने आप के घर का ऊपरी हिस्सा खाली होने की बात कही. सुनते ही मैं तुरंत इन्हें खींचती आप के पास ले आई.’’

‘‘रामपुर में किस के घर से हैं आप?’’ निकहत ने पूछा.

‘‘वहां बहुत बड़ी जमींदारी है मेरे अब्बू की. क्या आप भी वहीं से हैं?’’ तरन्नुम ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं तो कभी वहां गई नहीं. पिछले साल मेरे शौहर गए थे अपने दोस्त की शादी में. मैं ने सोचा शायद आप उन्हें जानती होंगी.’’

‘‘किस के यहां गए थे? रामपुर में हमारे खानदानी घर ही ज्यादातर हैं.’’

‘‘अब नाम तो मुझे याद नहीं होगा, क्या लेंगी आप…चाय या ठंडा? वैसे अब थोड़ी देर में ही खाना लग रहा है. आप को हमारे साथ आज खाना जरूर खाना होगा. हमारे साहब तो दौरे पर गए हैं. बच्चों के साथ 5-6 दिन से खिचड़ी, दलिया खातेखाते मुंह का स्वाद ही खराब हो गया.

‘‘रीता को तो हैदराबादी बिरयानी पसंद है, साथ में मुर्गमुसल्लम भी. मैं जरा रसोई में खानेपीने का इंतजाम देख लूं. नौकर नया है वरना मुर्गे का भरता ही बना देगा. तब तक आप यह अलबम देखिए. रीता, अपनी पसंद का रेकार्ड लगा लो,’’ कहती हुई निकहत अंदर चली गई.

तरन्नुम ने अलबम खोला और उस की आंखें असगर से मिलतेजुलते एक आदमी पर अटक गईं. अगला पन्ना पलटा. निकहत के साथ असगर जैसा चेहरा. अलगअलग जगह, अलगअलग कपड़े. पर असगर से इतना कोई मिल सकता है वह सोच भी नहीं सकती थी. उस ने रीता को फोटो दिखा कर पूछा, ‘‘ये हजरत कौन हैं?’’

‘‘क्यों, आंखों में चुभ गया है क्या?’’ रीता हंस दी, ‘‘संभल के, यह तो निकहत दीदी के पति हैं. है न व्यक्तित्व जोरदार, मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं. असल में इन के मांबाप जल्दी ही गुजर गए. निकहत अपने मांबाप की इकलौती बेटी थी तिस पर लंबीचौड़ी जमीनजायदाद, बस, समझो लाटरी ही लग गई इन साहब की. नौकरी भी निकहत के अब्बू ने दिलवाई थी.’’

तरन्नुम को अब न गजल सुनाई दे रही थी और न ही कमरे में बच्चों की खिलखिलाती हंसी का शोर, वह एकदम जमी बर्फ सी सर्द हो गई. दिल की धड़कन का एहसास ही बताता था कि सांस चल रही है.

निकहत ने जब खाने के लिए बुलाया तब वह जैसे किसी दूसरी दुनिया से लौट कर आई, ‘‘आप बेकार ही तकल्लुफ में पड़ गईं, हमें भूख नहीं थी,’’ उस ने कहा.

‘‘तो क्या हुआ, आज का खाना हमारी भूख के नाम पर ही खा लीजिए. हमें तो आप की सोहबत में ही भूख लग आई है.’’

रोशनी सा दमकता चेहरा, उजली धूप सी मुसकान, तरन्नुम ठगी सी देखती रही. फिर बोली, ‘‘आप के पति कितने खुशकिस्मत हैं, इतनी सुंदर बीवी, तिस पर इतना बढि़या खाना.’’

‘‘अरे आप तो बेकार ही कसीदे पढ़ रही हैं. अब इतने बरसों के बाद तो बीवी एक आदत बन जाती है, जिस में कुछ समझनेबूझने को बाकी ही नहीं रहता. पढ़ी किताब सी उबाऊ वरना क्या इतनेइतने दिन मर्द दौरे पर रहते हैं? बस, उन की तरफ से घर और बच्चे संभाल रहे हैं यही बहुत है,’’ निकहत ने तश्तरी में खाना परोसते हुए कहा.

‘‘कहां काम करते हैं कुरैशी साहब?’’ तरन्नुम ने पूछा.

‘‘कटलर हैमर में, उन का दफ्तर कनाट प्लेस में है. असगर पहले इतना दौरे पर नहीं रहते थे जितना कि पिछले एक बरस से रह रहे हैं.’’

‘‘असगर,’’ तरन्नुम ने दोहराया.

नामुराद गैजेट्स : अवि ने मम्मा से क्यों मांगा आईपैड ?

स्कूल से आते ही बेटा अवि मेरे गले से लटक गया और बोला, ‘‘माय मौम‘‘ और मुझे किस कर के कमरे में चला गया.

बेटा अवि 15 साल का हो गया था, लेकिन बिलकुल बच्चों की तरह लाड़ करता था. मेरे हाथ से खाना खाता था और खाते ही मेरी गोद में सो जाता था.

मैं उस पर खूब प्यार लुटाती और प्यार से धीरे से सिरहाने पर लिटा देती थी.  ऐसा रोज होता था.

मैं उसे रोजाना समझाती, ‘‘बड़े हो गए हो अब तुम. खुद खाना खाया करो.’’

‘‘कभी नहीं. आई लव माय फैमिली. मम्मा, मैं आप को देखे बिना नहीं रह सकता. हमेशा आप के हाथ से ही खाना खाऊंगा.‘‘

ऐसा कह कर वह जोरजोर से हंसने लगा.

एक दिन स्कूल से आ कर अवि बोला, ‘‘मम्मा, परसों मेरी बर्थडे पर मुझे आईपैड दिला दो. मेरे सब फ्रेंड्स के पास है.‘‘

‘‘बेटा दिला तो दूं, लेकिन तुम्हारी पढ़ाई? पापा नहीं मानेंगे.‘‘

‘‘पढ़ाई की चिंता मत करो मम्मा. वो मैं सब करूंगा और आप हां कर दो बस, पापा को तो मैं मना लूंगा.‘‘

बर्थडे वाले दिन सुबह सिरहाने के पास आईपैड का बौक्स देख कर अवि  खुशी से फूला न समाया और मुझे अपनी बांहों में उठा लिया.

‘‘पापामम्मा, यू बोथ आर अमेजिंग. आई लव यू. अपने सारे फ्रेंड्स को बताऊंगा कि मेरे पास भी अब अपना आईपैड है,‘‘ खुशी से उछलता हुआ अवि स्कूल चला गया.

मैं और मेरे पति रवि हम दोनों उसे खुश देख कर बहुत खुश थे.

स्कूल से आते ही अवि अपना आईपैड ले कर अपने कमरे में चला गया. खाना भी कमरे में ही मंगा लिया. अब ये सिलसिला रोज का ही हो गया था.

धीमेधीमे अपनी पढाई की जरूरत बता कर खरीदे गए या फ्रेंड्स की देखादेखी आईपैड के बाद अब मोबाइल, टैब और लैपटौप जैसे अनेकों गैजेट्स मिल कर ये ही उस की फैमिली हो गए थे.

हम दोनों से अब अवि कम ही बोलता था. मैं उसे बुलाबुला कर रह जाती थी. अब ज्यादा टोकने पर वह चिड़चिड़ा हो जाता था.

अचानक से उस की जिंदगी में हम दोनों की जगह अब उस की गैजेट फैमिली ही इंपोर्टेंट हो गई थी और मेरी ममता तड़प रही थी.

मैं सोच रही थी कि क्या इतनी पावर है इन गैजेट्स में कि बच्चों की जिंदगी में इन के सामने अपने मातापिता या परिवार की कोई अहमियत ही नहीं है. इन नामुराद गैजेट्स ने मुझ से मेरा बेटा छीन लिया.

सुबहसुबह रवि को औफिस भेज कर किचन के काम निबटाने लगी तभी मेरा मोबाइल बजा. मुझे प्राइवेट बैंक से नौकरी के लिए फोन आया था.

शाम को मैं ने रवि व बेटे अवि को बताया कि मैं यह नौकरी करना चाहती हूं, क्योंकि अवि भी अब बड़ा हो गया है और अपने गैजेट्स में ही बिजी रहता है और मैं भी सारा दिन बोर हो जाती हूं.

‘‘अवि, तुम मम्मा के बिना मैनेज कर लोगे, क्योंकि मम्मा को औफिस से आने में रात हो जाया करेगी,’’ रवि ने पूछा.

‘‘पापा, मैं थोड़ी देर आईपैड और मोबाइल फोन पर गेम खेल कर होमवर्क वगैरह कर लिया करूंगा. नो प्रोब्लम पापा.

‘‘हां… हां,  मम्मा आप ज्वाइन कर लो. कोई दिक्कत नहीं,‘‘ अवि ने खुशी से कहा.

‘‘तो ठीक है, मुझे भी कोई दिक्कत नहीं,‘‘ रवि ने कहा.

‘‘अच्छा बेटे, ये लो घर की चाबी और खाना बना कर रख दिया है. स्कूल से आ कर खा लेना,‘‘ अवि को घर की चाबियां दीं और मैं रवि के साथ ही औफिस के लिए निकल पड़ी और अवि चाबी ले स्कूल बस में चढ़ गया.

दोपहर को अवि ने ताला खोला और कमरे में जा कर बिस्तर पर पड़  गया और बिना कुछ खाएपिए ही उसे नींद आ गई.

दरवाजे पर घंटी बजने पर अचानक से नींद खुली और मुझे दरवाजे पर देख और घड़ी देख चिल्ला कर बोला, ‘‘मम्मी, मुझे तो एक जरूरी असाइनमेंट मेल करना था शाम 5 बजे तक. अब तो मुझे बहुत डांट पड़ेगी.’’ मेरी आंख लग गई और रोने लगा. रात के 8 बज रहे थे.

‘‘अच्छा चलो, पहले कपडे बदलो और खाना खा कर होमवर्क करो,’’ मैं ने प्यार से गले लगाते हुए कहा.

रोजाना ही औफिस से घर पहुंचते ही मुझे अवि किसी न किसी बात पर सुबकता हुआ ही मिलता. मैं ने नोटिस किया कि अब अवि मोबाइल और आईपैड पर कम ही टाइम बिता रहा था. एकदम चुपचाप सा हो गया था वह.

6 महीने हो चुके थे मुझे औफिस जाते हुए.
आज शनिवार था और हम तीनों की छुट्टी थी. मैं और रवि सुबह की चाय पी रहे थे, तभी अवि आया और बोला, ‘‘मम्मा, मैं सबकुछ खुद से मैनेज नहीं कर पा रहा. स्कूल से आ कर ताला खोलना, खुद से खाना लेना, कोरियर लेना वगैरह. मैं कुछ भी नहीं कर पाता और ऐसे ही रात के 8 बज जाते हैं. मैं आप को मिस करता हूं मम्मा,’’ कह कर वह मुझ से लिपट कर सुबकने लगा.

‘‘पर, जब मैं औफिस नहीं जाती थी और तुम्हारे साथ थी, तब भी तुम आईपैड, टैब, लैपटौप और मोबाइल में ही बिजी रहते थे. मेरे बुलाने पर भी नहीं आते थे तो अब क्यों तुम मुझे अपने पास चाहते हो बेटे ?‘‘ मैं ने कहा.

‘‘आप मुझ से सब वापस ले लो मम्मा. मुझे मम्मा चाहिए, आईपैड और मोबाइल नहीं. लेकिन, आप औफिस मत जाया करो प्लीज मम्मा. मैं आप के बिना नहीं रह सकता.

“मैं जब स्कूल से आता हूं तो आप घर पर ही मिला करो. मैं खाना भी खुद खाऊंगा. आप को तंग नहीं करूंगा. बस आप मेरे पास रहो प्लीज…प्लीज,‘‘ रोतेरोते वह मुझ से लिपट गया.

मैं ने और रवि ने उसे गले लगा लिया. अवि अपने कमरे में भाग कर गया और आईपैड, टैब, लैपटौप और मोबाइल ला कर रवि को वापस कर दिए.

अवि को गैजेट्स के चंगुल से बचाने के लिए मुझे अपनी नौकरी दांव पर लगानी पड़ी, पर रवि और मेरे लिए ये सौदा कतई महंगा नहीं था.

इंटरव्यू : क्या दामोदर के जानें का दुख सभी को था ?

पिताजी औफिस से आए तो उन के चेहरे पर उदासी छाई हुई थी. यह देख कर उन के बेटे मुकुल ने पूछा, ‘‘पापा, क्या बात है, आज आप बहुत उदास नजर आ रहे हैं ’’\‘‘हां बेटा, दरअसल, हमारे साथ काम करने वाले हमारे पुराने सहयोगी दामोदर की अचानक मृत्यु हो गई है जिस कारण मैं उदास हूं,’’ पापा ने बताया. यह सुन कर मुकुल सोचने लगा, ‘सैकड़ों लोग पापा के साथ काम करते हैं, आखिर दामोदर अंकल में क्या खास बात थी कि उन की मृत्यु से वे इतने उदास हैं.’ कुछ सोच कर मुकुल ने इस का कारण पूछ ही लिया, तो पापा ने बताया, ‘‘बेटे, मुझे दामोदर की मृत्यु का बहुत दुख है क्योंकि इतने अच्छे, योग्य और ईमानदार आदमी आजकल बहुत कम मिलते हैं जिन पर पूरी तरह भरोसा किया जा सके.’’

मुकुल के पिता मुंबई के बहुत बड़े व्यवसायी थे. उन का व्यवसाय देश से ले कर विदेशों तक फैला हुआ था.

‘‘लेकिन पिताजी, आप तो अपने कर्मचारियों को अच्छा वेतन देते हैं. फिर आजकल तो पढ़ेलिखे लोगों को भी नौकरी नहीं मिलती.’’

‘‘ठीक कहते हो बेटा, आजकल बहुत से पढ़ेलिखे बेरोजगार हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि हर पढ़ालिखा व्यक्ति योग्य नहीं होता… और मुझे योग्य व्यक्ति चाहिए. दामोदर की तरह.’’

मुकुल समझ नहीं पा रहा था कि आखिर दामोदर अंकल में खास बात क्या थी और योग्य आदमी के सही माने क्या होते हैं एक दिन मुकुल को पापा ने बताया कि उन्होंने कई लोगों को साक्षात्कार के लिए बुला रखा है. वे उन में से किसी एक को दामोदर की जगह काम पर रखेंगे. मुकुल को जिझासा हुई कि पापा इतने लोगों के बीच से किसी एक को भला कैसे चुनेंगे  अत: उस ने आग्रह कर के पापा के पास चुपचाप एक कुरसी पर बैठे रहने की अनुमति मांग ली.

साक्षात्कार वाले दिन मुकुल ने देखा कि बहुत से लोग पापा के कैबिन के बाहर बैठे हैं. पापा जिस का नाम पढ़ते, उसे अंदर बुलाया जाता. कई लोग कैबिन में आए. सभी के चेहरों पर एक ही तरह की लालसा थी कि किसी तरह नौकरी मिल जाए. मुकुल ने अभी तक सिर्फ सुना और अखबारों में पढ़ा था कि आजकल बड़ीबड़ी डिगरियों वाले लोग भी बेरोजगार हैं. अब वह यह सब स्वयं देखरहा था कि एक पद के लिए कितने ज्यादा लोग आए हैं. उन में से कइयों के पास तो बड़ीबड़ी डिगरियां थीं.

कितने ही लोग कमरे में आए. पापा ने उन से कईर् प्रश्न पूछे और यह कह कर भेज दिया कि चयनित होने पर सूचित कर देंगे. लेकिन मुकुल को अपने पिता के चेहरे पर निश्चिंतता नहीं दिखाई दी. उसे हैरानी थी कि इतने सारे लोगों में उन्हें अभी तक दामोदर अंकल की तरह कोई व्यक्ति नहीं मिल पाया.

मुकुल को ऊब होने लगी. अपने पापा के प्रति खीज भी होने लगी. कमरे में आने के बाद वापस जाते हुए लोगों को देख कर उसे दया भी आ रही थी. एक बार तो उस ने यह सोचा कि बड़ा हो कर पढ़लिख कर शायद वह भी इसी तरह लाइन में लगेगा, जिस तरह आज उस के पापा लोगों का इंटरव्यू ले रहे हैं, वैसे ही उस का इंटरव्यू लिया जाएगा.

तभी पापा ने एक औैर नाम पुकारा. कुछ ही क्षणों में एक साधारण वेशभूषा वाला व्यक्ति अंदर आया. हर बार की तरह पापा ने उस से भी प्रश्न किया, ‘‘आप की योग्यता ’’ अभी तक आए सभी लोगों ने इस प्रश्न के उत्तर में अपनी बड़ीबड़ी डिगरियां तथा अतिरिक्त योग्यताएं बताईर् थीं. परंतु इस व्यक्ति ने कुछ पल सोच कर जवाब दिया, ‘‘जी, मेरे पास केवल 3 योग्यताएं हैं.’’

‘‘यानी ’’ पिताजी ने सवाल किया.

वह व्यक्ति धीरे से बोला, ‘‘जी, मेरी पहली योग्यता है, सोचसमझ कर काम करना, दूसरी योग्यता है, कितना भी समय बीत जाए, भोजन किए बगैर रह सकना और तीसरी योग्यता है, असफलता से निराश हो कर धीरज न खोना.’’

मुकुल ने देखा, उस के पापा के चेहरे पर नई चमक आ गईर् है. वह मुसकरा उठे और उस व्यक्ति से हाथ मिलाते हुए बोले, ‘‘जो कुछ तुम ने कहा है, उसे भूलोगे तो नहीं ’’

‘‘कभी नहीं… सर,’’ वह बोला.

‘‘ठीक है, तुम्हें इस पद पर अपौइंट किया जाता है, कल से काम पर आ जाओ.’’

पापा के चेहरे पर निश्चिंतता के भाव देख कर मुकुल को आश्चर्य हुआ. वह अभी तक नहीं समझ पा रहा था कि इतने पढ़ेलिखे लोगों के बीच पापा ने एक उस आदमी को चुना, जिस ने डिगरियों की कोई बात भी नहीं की थी. उस से पूछा, ‘‘पापा, यह तो बहुत अजीब बात है, इतने पढ़ेलिखोें को आप ने लौटा दिया और…’’

‘‘बेटे, पढ़नेलिखने से अधिक जरूरी है कि इंसान खुद अपने को पहचानता हो, अपने गुणों और अवगुणों को जानता हो और उन को याद रखता हो. संसार में पढ़नालिखना भी जरूरी है, लेकिन उस से अधिक जरूरी है, व्यावहारिक ज्ञान…’’

‘‘यह व्यावहारिक ज्ञान क्या होता है ’’ मुकुल ने एक और प्रश्न कर डाला.

उस के पिता समझाने लगे, ‘‘देखो, ध्यान से सुनना मेरी बात. व्यावहारिक ज्ञान वह कला है, जिस के सहारे व्यक्ति अपने काम में सफल होता है, सुखी रहता है और सब का आदर पाता है.’’

‘‘लेकिन उस आदमी ने तो इस ज्ञान की कोई बात भी नहीं की थी… यह ज्ञान तो स्कूल में पढ़ाया जाता है.’’

‘‘नहीं बेटा, यह ज्ञान अनुभव से आता है. उस आदमी ने अपनी जो 3 योग्यताएं बताई थीं, उस से स्पष्ट था कि उसे भरपूर व्यावहारिक ज्ञान है.’’

‘‘क्या मतलब ’’

‘‘देखो, उस ने पहली बात बताई कि वह सोचसमझ कर काम करता है. इस का अर्थ यह हुआ कि वह किसी काम को उतावलेपन और जल्दबाजी में नहीं करता… और सोचसमझ कर किए गए काम में निश्चित ही सफलता मिलती है.

‘‘दूसरी बात उस ने यह बताई कि वह काफी समय तक भोजन किए बगैर भी रह सकता है. इस का अर्थ यह हुआ कि वह अपना काम पूरी लगन और जिम्मेदारी के साथ करता है. काम के समय यदि उसे भूखा भी रहना पड़े तो वह चिंता नहीं करता. जिस आदमी में ऐसी आदत होती है, वह निश्चय ही ईमानदार और परिश्रमी होता है.

‘‘तीसरी सब से अच्छी बात उस ने यह कही कि वह असफलता से निराश हो कर धीरज नहीं खोता. कई बार लोग जरा सी असफलता और परेशानी से हार मान लेते हैं. ऐसे लोग आगे नहीं बढ़ पाते. धीरज के साथ सफलता की राह देखना और अपने पर विश्वास रखना बहुत अच्छे गुण हैं. सच पूछो तो दामोदर में भी यह सारे गुण थे. इसीलिए मुझे उन की कमी खल रही थी. चलो, भूख लगी है, घर चल कर खाना खाएं. तुम्हारी मां राह देख रही होंगी.’’

रास्तेभर मुकुल सोचता रहा कि उस ने आज बहुत सी चीजें सीखी हैं. वह कोशिश करेगा कि जीवनभर इन बातों को याद रखे और दामोदर अंकल की तरह सफल व्यक्ति बने.

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