Download App

दवा में एक्सपायरी डेट की रखें जानकारी

जब भी दवा की दुकान से या डाक्टर के पास से दवा मिलती है, दवा के पैकेट पर साड़ी डिटेल दिखी होती हैं. जैसे शीशी या इंजैक्शन पर दवा के नाम और उसमें क्या और कितना मिला है, दवा कब बनी है और कब तक इसका प्रयोग किया जा सकता है, दवा की कीमत क्या है ? दवा किस बैच नम्बर की दवाओं के साथ बनी है यह लिखा होता है. वैसे तो यह जानकारी बहुत छोटी सी लिखी होती है पर यह बड़े काम की होती है. इसमें सबसे जरूरी जानकारी होती है कि दवा की एक्सपायरी यानि दवा का प्रयोग कब तक किया जा सकता है. दवा खाने से पहले यह देख लेना सबसे जरूरी होता है.

लखनऊ के मशहूर सर्जन डाक्टर जीसी मक्कड कहते हैं, ‘एक्सपायरी डेट देखने के साथ ही साथ यह भी देखे कि दवा को किस तरह से रखना है. खासकर इंजैक्शन को सही तरह और तापमान में नहीं रखा जाएगा तो वह खराब हो सकता है. वह मरीज को लाभ की जगह पर नुकसान पहुंचा सकता है.’

दवा लेने से पहले उसकी एक्सपायरी डेट जरूर चेक कीजिए. कई बार हम दवा को खाने से पहले उसकी एक्सपायरी डेट नहीं देखते. हम वह दवा भी खा लेते हैं जिसकी एक्सपायरी डेट निकल चुकी होती है. कुछ मसलों में यह खतरनाक साबित हो जाता है. कुछ मामलों में हो सकता है कोई नुकसान न हो. कुछ में कम और कुछ दवाओं के मसले में ज्यादा. किस दवा के खाने से कितना नुकसान होगा या नहीं होगा इसका आकलन डाक्टर को होता है. ऐसे में बिना डाक्टर की जानकारी से कोई दवा का प्रयोग न करें.

दवा पर निर्माता कंपनी द्वारा एक्सपायरी डेट दी गई होती है. इसका मतलब यह है कि इस डेट के खत्म होने के बाद निर्माता कंपनी की कोई भी जिम्मेदारी दवा के प्रति नहीं है. यानी कि दवा के प्रभाव की गारंटी अब कंपनी द्वारा नहीं दी जा रही है. हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि दवा की एक्सपायरी डेट खत्म होने के बाद जहर बन गई है. यह अब पहले जैसी प्रभावी नहीं होगी. कई दवाओं के मामलों में एक्सपायरी डेट के बाद प्रयोग करने के बाद दवा का कुप्रभाव भी पड़ सकता है.

क्या करें जब खा लें एक्सपायरी दवाएं

इसी वजह से डाक्टर यह सलाह देता है कि एक्सपायरी डेट की दवाएं नहीं खानी चाहिए क्योंकि इसके कई तरह के नुकसान होने की संभावना होती है. अगर आपने गलती से एक्सपायरी डेट की दवा खा ली है तो तुरंत डाक्टर से सलाह लेनी चाहिए. दवा निर्माता कंपनी द्वारा एक्सपायरी डेट के बाद भी कुछ महीने का मार्जिन रखते हैं जिससे कोई अगर गलती से दवा खा ली तो कम से कम नुकसान हो.

दवा निर्माता किसी भी दवा की बोतल खुलने के बाद उसके प्रभाव की गारंटी नहीं लेते. इसकी वजह यह है कि गर्मी, सूर्य की रोशनी, सीलन और अन्य कई वजहों से भी दवाओं की ताकत कम हो जाती है. इसी वजह से दवा के रैपर पर यह लिखा होता है कि उसका रखरखाव कैसे करें? दवाइयां खरीदते समय कई तरह की खास बातों को ध्यान में रखना पड़ता है. सबसे पहले दवा को खरीदते समय उसकी एक्सपायरी डेट जरूर देख लें.

घर में रखी दवायें भी हो जाती है एक्सपायर

कई बार घर में रखी दवाइयां भी एक्सपायर हो जाती हैं. ऐसे में यह जरूरी होता है कि दवा को खाने से पहले यह देख लें कि दवा एक्सपायर तो नहीं हुई है. एक्सपायर हो चुकी दवाओं का प्रयोग क्यो नहीं करना चाहिए,इसकी वजह यह होती है कि दवा कंपनी से निकलने के बाद से किस तरह से स्टोर की गई थी, उसमें किस तरह के कैमिकल चेंज हुए होंगे. यह पता नहीं चलता है. एक्सपायर दवाओं के सेवन को लेकर बहुत ज्यादा रिसर्च या टेस्टिंग नहीं हुई है.

ठोस दवाएं जैसे टैबलेट और कैप्सूल एक्सपायरी डेट के बाद भी प्रभावशाली होती हैं. जबकि द्रव्य के रूप में होने वाली दवाएं, सीरप, आंख-कान के लिए इस्तेमाल होने वाले ड्राप, इंजैक्शन और फ्रिज में रखने वाली दवाएं एक्सपायरी डेट के बाद अपनी शक्ति खो सकती हैं. इसके बावजूद मैडिकल एक्सपर्ट्स और डाक्टर एक्सपायर हो चुकी दवाओं को इस्तेमाल नहीं करने की सलाह देते हैं क्योंकि ये कई तरह से हमारे लिए खतरनाक हो सकते हैं. वैसे दवा बनाने वाले एक्सपायरी होने के बीच कुछ माह का समय रखते हैं.

जाने कैसे होती है एक्सपायरी की गणना

उदाहरण के लिए कोई दवा जो 2 साल में एक्सपायर होनी है. इस दवा का निर्माण जनवरी 2021 में हुआ है और ये जनवरी 2023 में एक्सपायर होगी. लेकिन कंपनी उस दवा पर करीब 6 महीने का मार्जिन पीरियड रखते हुए उसकी एक्सपायरी डेट जनवरी 2023 के बजाए जून 2022 ही रखेगी. ऐसा इसलिए किया जाता है कि यदि कोई व्यक्ति जानेअनजाने में एक्सपायरी डेट के कुछ दिनों बाद गलती से उस दवा को खा भी लेता है तो इससे कोई ज्यादा नुकसान नहीं होगा.

कई मामलों में एक्सपायर दवाएं खाने के बाद लोगों के सिरदर्द, पेट दर्द और उल्टी जैसी शिकायतें हो जाती हैं. ऐसे में यह जरूरी होता है कि यदि आप गलती से कोई एक्सपायर दवा खा भी लेते हैं तो आपको तुरंत डाक्टर के पास जाना चाहिए. उसकी राय से काम करना चाहिए. दवाओं की एक्सपायरी डेट की जानकारी रखना बड़े काम का होता है. इसे छोटा समझ कर दरकिनार करने का न करें.

जिंदगी बदगुमां नहीं : भाग 2

बूआ की बात सुन वह डर तो गया था पर हां, अगले ही पल उस का निश्चय, ‘कुछ तो करना पड़ेगा’ और दृढ़ हो गया. उसे अपनी इच्छाशक्ति पर कभीकभी हैरानी होती कि क्यों वह इतना खतरा मोल ले रहा है.

‘नहीं, कुछ तो करना होगा, यह सब नहीं चलेगा.’ यह सच था कि उसे अब दर्द सहने की आदत पड़ गई थी, पर और दर्द वह नहीं सहेगा. ‘बस, और नहीं.’

याद है उसे अहमदाबाद की वह रेडलाइट और सरदारजी की लाल गाड़ी. जब भी सरदारजी की लाल गाड़ी रुकती, वह ड्राइविंग सीट पर बैठे सरदारजी के आगे हाथ फैला देता. वे मुसकरा कर रुपयादोरुपया उस की हथेली पर रख देते.

एक रोज सरदारजी ने पूछा, ‘क्या नाम है तुम्हारा?’

‘पम्मी.’

‘पढ़ते हो?’

‘नहीं.’

‘पढ़ना चाहते हो?’

‘साब, हम भिखारियों का पढ़नालिखना कहां?’

‘पढ़ना चाहोगे? तुम्हारी जिंदगी बदल जाएगी. ऐसे तो बेटा, जिंदगी इस रेडलाइट की तरह बुझतीजलती रहेगी.’

उसे लगा, किसी ने थपकी दी है. एक दिन उस ने सरदारजी को वहीं खड़ेखड़े संक्षिप्त में सब बता दिया.

‘अगर छुटकारा पाना है तो कल मुझे यहीं मिलना.’ गाड़ी चली गई. उस का दिल धड़का. बस, यही मौका है. यह सोच वह अगले दिन सरदारजी की गाड़ी में फुर्र हो गया.

‘‘अरे बाबूजी, मलकागंज तो आ गया.

‘‘पर भैरोंगली…आप किसी से पूछ लो.’’ आटो वाले ने अचानक उस के सोचने का क्रम तोड़ा.

वह वर्तमान से जुड़ गया. ‘‘ओह, ठहरो, मैं उस सामने खड़े पुलिस वाले से पूछता हूं.’’

पुलिस वाले ने फौरन पूछा, ‘‘किस के घर में जाना है?’’

‘‘भैरोगली में शिशिर शर्मा के घर.’’

‘‘सीधे चले जाओ, आखिरी घर शिशिर बाबू का ही है.’’

पदम की आंखें चमक उठीं. आखिर, उस ने अपना घर ढूंढ़ ही लिया. अगले पल वह अपने घर के दरवाजे पर था. एकटक घर को देख रहा था या कहें, घर उसे देख रहा था.

सामने बाउंड्रीवाल से सटा नीम का पेड़, घर की छत को छूती मालती की बेल…सब कितने बड़े हो गए हैं. पर सब वही हैं कुछ भी तो नहीं बदला. वह सब तो है किंतु यदि भैया, पापा ने उसे न पहचाना तो…

डोरबैल पर कांपती उंगली रखी तो अंदर से आवाज आई. ‘‘ठहरो, आ रहा हूं.’’

यह आवाज पापा की नहीं है. कोई और ही होगा. दरवाजा खुला. एक अति बूढ़ा व्यक्ति सामने था. ‘‘कौन हो तुम, किस से मिलना है?’’

पहचान गया ये मुन्ना बाबू थे. पापा के बचपन के दोस्त.

‘‘मैं पदम हूं. शिशिर बाबू का बेटा.’’

‘‘शिशिर बाबू का तो एक ही बेटा है राम और वह भी अमेरिका में है. वैसे, शिशिर घर पर नहीं हैं, पत्नी के साथ बाहर गए हैं. थोड़ी देर बाद आएंगे.’’

इतना कह कर उन्होंने भड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया.

कैसी विडंबना थी, अपने ही घर के दरवाजे पर वह अजनबियों की भांति खड़ा है. वह वहीं बरामदे में पड़ी कुरसी पर बैठ गया कि सामने से मम्मीपापा को आते देखा. वह दौड़ कर मां से चिपट गया. ‘‘मम्मी…’’

मम्मी को जैसे उसी का इंतजार था. कहते हैं, मां अपने बच्चे को पहचानने में कभी गलती नहीं करती चाहे बच्चा कितना ही बड़ा क्यों न हो जाए.

मां का स्पर्श बरसों बाद. कितना सुखदायी था वह क्षण.

‘‘अरे, तुम कौन हो?’’ अचानक शिशिर बाबू बोले.

‘‘अरे राम के पापा, ये अपना पदम. हमारा छोटा बेटा,’’ रुंधे गले से शिशिर बाबू की पत्नी रेवा ने कहा.

‘‘ओ, तुम तो ऐसे ही सब को गले लगा लेती हो. जाओ, अंदर जाओ,’’ वे गुस्से में दहाड़े, ‘‘पता नहीं कौन अनजान पदम बन कर हमें बेवकूफ बना रहा है.’’

इसी क्षण घर का दरवाजा खुला. मुन्ना बाबू भी इस दृश्य में शामिल हो गए. ‘‘अभी कुछ देर पहले यही लड़का आया था. मैं ने भी इसे टाल दिया था. कहता था, ‘मैं पदम हूं.’ रेवा भाभी ठीक कह रही हैं, यह शायद पदम ही है.’’ अब मुन्ना बाबू भी उसे पहचान गए थे, ‘‘यह तेरा वही छोटा बेटा है जो गुम हो गया था. 22 साल पहले.’’

‘‘ओह…’’ गला उन का भी रुंध गया था.

रेवा ने बेटे को कस कर गले से लगा लिया. कभी माथा चूमती, कभी तन पर हाथ फेरती. पगली मां की आंखों से खुशी से गंगाजमुना बह रही थी.

शिशिर बाबू भी अपने को रोक न सके. निशब्द मांबाप की ममता से उस की झोली भरती रही.

शिशिर बाबू के कानों में डाक्टर की कही वह बात अभी भी गूंज रही थी. पदम के जन्म पर उस ने कहा था, ‘आप का बेटा शिखंडी है. बचा कर रखना इसे. शिखंडियों का टोला ऐसे बच्चों को चुपचाप अगवा कर लेता है. पतिपत्नी उस की बड़ी सावधानी से देखभाल करते.

पर वही हुआ जिस का डर था. काफी सतर्कता के बाद भी पदम को अगवा कर लिया गया. पुलिसथाना, पेपर में ‘मिसिंग है’ का विज्ञापन छपवाया. इस सब के बावजूद कुछ न हुआ.

हर सुबह रेवा पति से पूछती, ‘कुछ पता लगा?’ वे सिर झुका कर इनकार कर देते.

बेटे को याद कर रेवा अकसर रोती. मुन्ना समझाता, ‘भाभी, मुझे विश्वास है हमारा पदम एक दिन हमें जरूर वापस मिलेगा.’

महीने, साल, दशक बीत गए. मुन्ना को लगता था, शिशिर ने बच्चे को ढूंढ़ने का विशेष प्रयास नहीं किया वरना पता तो जरूर लगता. पदम का मुन्ना से सिर्फ पापा के दोस्त का नाता था. पर मुन्ना इस घर का खास आदमी माना जाता था. वह घर की राईरत्ती जानता था.

रेवा को रोते देख उस का दिल भर आता परंतु शिशिर की पदम के लिए ठंडी सोच उन से छिपी न थी.

एक दिन पत्नी को रोते देख आखिर शिशिर को गुस्सा आ ही गया, ‘छोड़ो, रोनाधोना. अब राम के भविष्य, उस के कैरियर पर ध्यान दो. मैं सब भूल कर राम के लिए सोचने लगा हूं. मेरा सपना है राम को अमेरिका भेजना.’

यह सुन कर मुन्ना से रहा न गया, ‘शिशिर, सच तो कुछ और ही है. वह सुनना चाहते हो? सच यह है कि तू राम को ले कर धृतराष्ट्र बन गया है. राम को ले कर तू इतना महत्त्वाकांक्षी बन गया है कि भाभी के आंसुओं और ममता की परवा भी नहीं है तुझे. लगता है पदम आ जाएगा तो राम के अमेरिका जाने का सपना कहीं खटाई में न पड़ जाए.

‘दूसरा सच यह भी है कि तू एक हिजड़े का बाप कहलाने से बचना चाहता है.

‘पिछले 10 बरसों में कितनी ही बार पता लगा कि फलां जगह लोगों ने पदम को देखा था पर तू चुप बैठ गया. तेरी इस शीत प्रतिक्रिया ने भाभी को बहुत ज्यादा दुखी किया है.

‘अरे, तू क्या जाने मां का दिल कैसा फटता है. लानत है ऐसे पत्थर दिल बाप पर.’

मुन्ना ने जो कहा वह सब सच था. शिशिर उस दिन मुंह छिपा कर चला गया था. डरता था कि कहीं मुन्ना की बात से उस का निश्चय डगमगा न जाए.

लेकिन उस के निश्चय से राम को अमेरिका भेजने का सपना पूरा हो ही गया. यद्यपि उस के जीवन की सारी जमा पूंजी दावं पर लग गई थी, फिर भी वह खुश था.

राम को अमेरिका गए पूरे 5 साल हो गए हैं. इस बीच राम का असली चेहरा सब के सामने आ गया था.

शिशिर ने सोचा था राम उस की गरीबी दूर करेगा, पैसे कमा कर अमेरिका से भेजेगा, बुढ़ापे की लाठी बनेगा. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उलटे, उसे फोन पर बेटे से धमकियां मिलतीं, ‘पापा, इस मकान को बेच दो. मैं तुम्हें नई कालोनी में बढि़या प्लैट खरीद दूंगा. मेरा हिस्सा मुझे दे दो वरना…’

‘नहीं, मैं यहीं ठीक हूं.’

मुन्ना ने समझाया, ‘यह बेवकूफी हरगिज न करना. तेरे सिर पर से छत भी जाएगी और तू सड़क पर आ जाएगा.’

खुशियों की उम्र : भाग 2

“तुम्हारे घर के पास एक जिम है न,” तभी सुनंदा की आंखों में चमक आ गई.

“हां, एक जिम है. तुम तो किसी और जिम में जाती हो,” रमण प्रसाद ने हां में सिर हिलाते हुए सुनंदा से पूछा. रमण प्रसाद सुनंदा की काफीकुछ आदतों से वाकिफ थे जो समय के साथ अब भी न बदली थीं.

“तुम इधर मेरे घर के पास नहीं आ सकते तो मैं उस ओर कभीकभी आ जाया करूंगी. मुझे तो तुम्हारी तरह परिवार और बच्चों का कोई बंधन न है,” सुनंदा ने रमण प्रसाद के पीछे खड़े होते हुए कहा.

रमण प्रसाद ने चाय वाले की तरफ 20 रुपए का नोट बढ़ा दिया और बगीचे के गेट की तरफ चलने लगे.

“अरे नहीं, वहां आसपास की परिचित बहुत सी महिलाएं और पुरुष आते रहते हैं. तुम इस उम्र में अपने पहनावे से वैसे ही मौडर्न लगती हो. ऐसे में किसी ने मुझे वहां तुम्हारे संग देख लिया तो बेवजह प्रश्न खड़े होंगे.”

“प्रसाद, तुम बिलकुल भी न बदले. वैसे के वैसे ही डरपोक हो. अब इस उम्र में कैसा डर.”

“बात डर की न है. बहूबेटा न जाने क्या समझ बैठें. तुम्हें तकलीफ लेने की जरूरत न है. मैं ही कोई न कोई बहाना कर आ जाया करूंगा,” चलतेचलते रमण प्रसाद और सुनंदा एक्टिवा के पास आ कर खड़े हो गए.

“यह बहादुरों वाली बात की न. जब भी आओ, एक कौल कर देना और रात को वीडियोकौल करूंगी,” सुनंदा ने कहा और वहां से जाने लगी. रमण प्रसाद एक्टिवा पर बैठे हुए उसे तब तक देखते रहे जब तक वह सडक़ पार कर पास की ही सोसायटी कंपाउंड के अंदर न चली गई. घर पहुंचते हुए पूरे रास्ते में उन के मन में सुनंदा से जुड़ी पुरानी बातें फिर ताजा होने लगीं. लगभग हर रोज ही सुनंदा से मिलने के बाद पुरानी बातें उन के जेहन से कूदकूद कर बाहर आने का प्रयत्न करने लगती थीं.

कालेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद शहर की ही नामी अकाउंटेंट फर्म में नौकरी पा जाने के बाद जब शादी की बात चली तो रमण प्रसाद ने हिम्मत कर घर में सुनंदा घोष के नाम की घोषणा कर दी. सुनंदा घोष का नाम सुन कर घर में जैसे हडक़ंप सा मच गया. प्रश्न उठा मांसमछली खाने वाली लडक़ी विशुद्ध शाकाहारी परिवार की बहू कैसे बन सकती है. रमण प्रसाद ने सुनंदा के शादी के बाद मांसमछली न खाने की बात पर विश्वास दिलाया तो फिर सुनंदा की लडक़ों वाली हरकत को ले कर उन के प्रेम की राह डगमगाने लगी. लडक़ी का ऐथलीट होना लडक़ों वाली हरकत नहीं होती है, यह समझाते हुए उस वक्त इस क्षेत्र में उभरती पीटी उषा के नाम से रमण प्रसाद की प्रेम की राह परिवार की नजरों में थोड़ी सी आसान हुई लेकिन फिर अलग बिरादरी और पीछे खड़ी कुंआरी छोटी बहनों के विवाह के प्रश्नों का ले कर रमण प्रसाद और सुनंदा के रास्ते अलग हो गए.

रमण प्रसाद की गृहस्थी परिवार की पसंद के आधार पर जम गई लेकिन सुनंदा जीवनपर्यंत शादी न करने का फैसला कर अकेले ही जीने की आदी हो गई. सालों बाद जब एक अजनबी की तरह एक दिन कुश के स्कूल गेट के पास फिर से दोनों की मुलाकात जब अनायस ही हुई तो फिर यह मुलाकात एक सिलसिला बन गया.

अगले दिन कुश के समय पर तैयार न होने से वैन वाला थोड़ी देर इंतजार कर कुछ कहे बिना ही कुश को लिए बिना वहां से चला गया. इस पर बहू को कुश पर गुस्से से बड़बड़ाते हुए देख रमण प्रसाद ने उस का बीचबचाव करते हुए हाथ में एक्टिवा की चाबी ले ली और कुश का हाथ पकड़ कर घर स बाहर निकल गए.

स्कूल गेट के पास वे कुश को ले कर खड़े ही थे कि पीछे से आती आवाज उन के कानों में पड़ी

‘प्रसाद.’ उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा तब तक सुनंदा उन के पास आ कर खड़ी हो गई.

“‘तो यह है कुश. बड़ा ही क्यूट है,” रमण प्रसाद के जवाब का इंतजार किए बिना ही सुनंदा ने अनुमान लगाते हुए कुश के गाल पर हलकी सी चपत लगा दी. कुश सुनंदा को घूरते हुए अपने गाल पर हाथ फेरते हुए साफ करने लगा.

“कुश, ये सुनन्दा आंटी हैं. नमस्ते कहो इन को,” रमण प्रसाद ने कुश से कहा.

“‘गुडमौर्निंग दादी,” सुनंदा को देखते हुए कुश मुसकरा दिया.

“तुम से ज्यादा तो समझदार तुम्हारा पोता है. उम्र का लिहाज करना जानता है,” कहती हुई सुनंदा अपने सफेद बालों पर हाथ फेरते हुए हंस दी. रमण प्रसाद उसे देख मुसकरा दिए.

“अच्छा ये सब बातें छोड़ो. तुम तो अब से इसे स्कूल छोडऩे न आने वाले थे?,” सुनंदा ने गंभीर होते हुए रमण प्रसाद से पूछा.

“ये जनाब जल्दी उठे ही नहीं. वैन तो समय से आधा घंटे पहले आ जाती है. आज देर हुई तो इसलिए बिना इसे लिए ही वैन वाला चला गया. यहां आने पर पता चला कि स्कूल के ट्रस्टी महोदय की माताजी का निधन होने से स्कूल में एक दिन की छुट्टी घोषित कर दी गई है,” रमण प्रसाद ने विस्तार से जवाब दिया.

“ओह, खैर, चलो चल कर चाय पीते हैं.”

“अरे नहीं, कुश साथ है आज,” सुनंदा का प्रस्ताव नकारते हुए रमण प्रसाद ने कहा.

“चौकलेट खाओगे न बेटा?” तभी सुनंदा ने कुश के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए पूछा.

“हां दादी, मुझे चौकलेट बहुत अच्छी लगती है. पर मम्मी खाने ही नहीं देतीं.”

“रमण प्रसाद, कुश चौकलेट खाने को मचल रहा है. चलो भी अब,” कुश का जवाब सुन कर सुनंदा ने रमण प्रसाद का हाथ थामते हुए उसे चलने पर विवश करते हुए कहा. कुश का हाथ थाम कर रमण प्रसाद सुनंदा के साथ बातें करते हुए आगे बढ़ गए.

उस दिन कमरे की सफाई करते हुए बहू ने जब रमण प्रसाद के कमरे में रखी तिजोरी खोली तो उन की पैंटशर्ट और कुरतेपाजामे के बीच उसे एक जींस दिखाई दी. उस ने ही भूल से शेखर का जींस यहां रख दिया होगा, यही सोच कर उसे कपड़ों के बीच से बाहर खींचा. तभी जींस की पैंट के बीच लाल रंग की राउंड नेक वाली एक टीशर्ट गिर गई. उस ने टीशर्ट उठाई तो रमण प्रसाद के नाप की डबल एक्सएल लेटेस्ट फैशन वाली टीशर्ट देख कर वह अंचभित हो गई. उस ने हाथ में थाम रखे जींस खोली तो वह भी रमण प्रसाद के नाप की ही थी. वह अभी कुछ सोच ही रही थी कि सहसा उस की नजर नीचे फर्श पर उस के पैरों के पास पड़े एक कार्ड पर जा कर थम गई. लाल गुलाब के फूल पर ओस की कुछ बूंदों वाली छवि वाला ऐसा रोमांटिक कार्ड देख कर बहू के मन में ससुर के प्रति शंका के कीड़े कुलबुलाने लगे. उस ने कार्ड खोला तो सुंदर सी लिखावट कार्ड की शोभा को और भी बढ़ा रही थी.

‘प्रसाद,

‘तुम्हें मेरा कहलवाने का हक तो तुम काफी वर्षों पहले मुझ से छीन चुके हो, इसलिए तुम्हारे नाम के साथ यह शब्द लिखने से परहेज कर रही हूं. रास्ते अलग हो जाने के बाद हम दोनों की अपनी जिंदगी में सबकुछ सही ही चल रहा था. एक लंबे समय के बाद कुदरत का इस तरह से हम दोनों की एक बार फिर से मुलाकात करवा देना शायद संकेत है जिंदगी के इस पड़ाव में अनुभव किए जाने वाले अकेलेपन को दोस्ती के रूप में साझा कर बांट लेने का.

‘मैं जानती हूं तुम जींस और टीशर्ट पहनने से इस उम्र में परहेज करते हो पर तुम्हें एक बार जींसटीशर्ट पहने देखने की तमन्ना है. आशा है, अपने जन्मदिन के दिन मुझे निराश न करोगे और जब मिलने आओगे तो इसे पहन कर ही आओगे.

‘विश यू हैप्पी बर्थ डे इन एडवांस.’

‘तुम्हारी दोस्त

‘सुनंदा.’

मेरे पति जौब के प्रति सीरियस नहीं हैं, आप ही बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 24 वर्षीय विवाहिता हूं. मेरी शादी पिछले वर्ष हुई है. मुझे शादी के कुछ महीनों बाद पता चला कि मेरे पति जौब के प्रति सीरियस नहीं हैं और उन का व्यवहार भी काफी उग्र है. मेरे पापा ने उन की एक जगह नौकरी लगवाई जिसे वे 1 महीने में ही छोड़ कर आ गए. मेरी ससुराल वाले भी घरखर्च मांगते हैं और जब मेरे पति देने में आनाकानी करते हैं तो वे मुझे ताने मारते हैं और यहां तक कि खाना देने से भी इनकार कर देते हैं. अब तो मैं एकएक पैसे के लिए मुहताज हो गई हूं. मेरी फैमिली वाले ही हमारी मदद कर रहे हैं. आप ही बताएं कि मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब

आप की बातों से स्पष्ट है कि आप के पति घरगृहस्थी को ले कर बिलकुल भी सीरियस नहीं हैं तभी तो वे शादी के बाद भी टिक कर जौब नहीं कर रहे हैं. साथ ही, एक तो नौकरी नहीं, ऊपर से सब का व्यवहार भी उग्र. ये बातें तो इसी ओर इशारा कर रही हैं कि आप भविष्य के लिए अभी से सतर्क हो जाएं और अपने पति को प्यार से समझाएं कि आप के ऐसा करने से आप को कहीं से भी सम्मान नहीं मिलेगा. और साथ ही, हमारा रिश्ता भी ज्यादा नहीं टिक पाएगा. हो सकता है कि आप के ऐसा कहने से उन में कुछ समझ आ जाए. समझाने के बाद भी अगर आप को लगता है कि बात नहीं बनने वाली, तो बड़ों को आगे ला कर कोई ठोस निर्णय लेने को कहें ताकि आप का कल सुरक्षित बन पाए. इस बीच, आप भी कहीं नौकरी ढूंढ़ कर खुद आत्मनिर्भर बनें और अपने हक के लिए लड़ें. वरना ऐसे पति के साथ रहने का मतलब अपनी जिंदगी के साथ खिलवाड़ करने के बराबर ही है.

किस्मत की लकीरें : भाग 2

बचपन से कायरा रामनवमी के दिन उपवास पर रहती थी, लेकिन कपिल नास्तिक था, लेकिन कायरा की जिद की वजह से कपिल उपवास पर रहने के लिए तैयार हो गया. औफिस में तकरीबन 5 बजे कपिल को पेट में दर्द शुरू हुआ. कपिल को लगा कि शायद खाली पेट की वजह से दर्द हो रहा है. बौस को इत्तिला कर कपिल जल्दी घर के लिए निकल गया. कायरा घबरा जाएगी, सोच कर, कपिल ने उसे कुछ नहीं बताया. हालांकि, उस के चेहरे पर दर्द की हलकी तस्वीर साफतौर पर दिखाई दे रही थी.

सुबह 4 बजतेबजते कपिल के पेट में असहनीय दर्द होने लगा, तब उस ने कायरा को उठा कर कहा, “मुझे तुरंत अस्पताल ले चलो. पेट में तेज दर्द है.”

कायरा तुरंत कपिल को एम्स ले कर जाती है. इमर्जेंसी में मौजूद डाक्टर ने कपिल को तुरंत नींद का इंजेक्शन दे दिया, ताकि दर्द से उसे तत्काल आराम मिल सके.

डाक्टर ने कायरा से कहा, “सुबह 9 बजे सोनोग्राफी कर के देखेंगे, दर्द क्यों हो रहा है?”

सोनोग्राफी से पता चला कि गाल ब्लैडर में 4 बड़े और 2 छोटे पत्थर हैं. डाक्टर ने कायरा से कहा, “आप चिंता न करो, आजकल गाल ब्लैडर में पत्थर होना आम बात है. एक छोटे से आपरेशन से सर्जन गाल ब्लैडर निकाल देंगे और दूसरे दिन आप कपिल को घर ले जा सकेंगे.”

डाक्टर के समझाने से कायरा आश्वस्त हो गई और उस ने आपरेशन के लिए हामी भर दी.

कपिल का आपरेशन सफल रहा. तदुपरांत गाल ब्लैडर को बायोप्सी के लिए लैब भेज दिया गया. अगले दिन कपिल घर लौट आया. इस बीच, कायरा ने कपिल के घर और अपने घर फोन किया.

कायरा ने कपिल की बीमारी के बारे में सारी बातें उन्हें बताई, लेकिन उन्होंने उस की बात सुन कर भी अनसुनी कर दी.

कायरा ने कपिल की देखभाल के लिए एक सप्ताह की छुट्टी ले ली. कुछ दिनों तक कपिल को सादा और सुपाच्य भोजन करना था. 2 दिन बाद कपिल चलनेफिरने लगा. शाम का वक्त था, कपिल और कायरा दोनों बालकनी में बैठे हुए थे.

कायरा ने कपिल को बताया कि उस ने घर वालों को फोन कर दिया था, लेकिन उन का दिल नहीं पसीजा.

कायरा ने फिर कहा, “आखिर हम ने कौन सी गलती की है कि हमारे घर वाले अभी तक हम से  नाराज हैं, दो भिन्न जाति वाले क्या एकसाथ जीवनसाथी बन कर नहीं रह सकते हैं?”

कपिल ने कहा, “जाने दो, वक्त के साथ हमारे घर वाले भी बदल जाएंगे, क्यों इतना परेशान हो रही हो? बेकार की बातों पर चर्चा करने से हमें बचना चाहिए, यही हमारे लिए अच्छा रहेगा. आज खिचड़ी खाने का मन कर रहा है, किराने वाले दुकान को फोन कर के आम का अचार और राजस्थानी पापड़ मंगवा  लो.”

कायरा खिचड़ी बनाने की तैयारी करने लगी. वह आलू को कुकर में उबालने के लिए डाल ही रही थी, तभी उस का मोबाइल बजने लगा. अनजान नंबर देख कर कायरा ने बात नहीं की, लेकिन दूसरी बार जब घंटी बजी, तो कायरा ने काल कनेक्ट किया, तो दूसरी तरफ डाक्टर था. डाक्टर ने कहा,“क्या आप तुरंत क्लिनिक आ सकती हैं? कपिल के बारे में कुछ जरूरी बातें करनी हैं.”

कायरा ने डरतेडरते पूछा, “क्या बात है? क्या फोन पर नहीं बता सकते हैं?”

डाक्टर ने कहा, “नहीं, फोन पर नहीं. आप आइए, मैं इंतजार कर रहा हूं.”

कपिल ने पूछा, “किस का फोन था? तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो?”

कायरा ने कहा, “तुम्हारी बीमारी के बारे में बात करना चाहता है डाक्टर, लेकिन फोन पर बात करने के लिए तैयार नहीं है.“

कपिल थोड़ा ठहर कर बोला, “घबराओ नहीं, जाओ मिल कर आओ, मैं बाई को फोन करता हूं कि वह अभी आ कर खिचड़ी बना दे.”

कायरा अस्पताल पहुंची, तो डाक्टर कायरा का ही इंतजार कर रहा था. कायरा जैसे ही कुरसी पर बैठी, डाक्टर ने कहा, “हम लोगों ने कपिल के गाल ब्लैडर को कैंसर की जाँच के लिए लैब भेजा था, जिस का परिणाम पोजिटिव है. कपिल का कैंसर एडवांस स्टेज पर पहुंच गया है, आप को उसे तुरंत टाटा मेमोरियल अस्पताल, मुंबई ले जाना होगा. मैं ने रेफरल लेटर बना दिया है.”

कायरा सोच रही थी, “किस बात की सजा हमें मिल रही है, शादी के सिर्फ 3 ही महीने हुए थे और उसे ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं, क्या घर वालों की बात नहीं मानने की सजा मिल रही है. अस्पताल में होने के कारण वह जोर से रो भी नहीं सकती थी. वह काफी देर तक सबुकती रही. डाक्टर को घर जाना था, लेकिन कायरा की मनस्थिति को देख कर वह उस के सामान्य होने का इंतजार कर रहा था. थोड़ी देर में कायरा सामान्य हो गई. उस ने मन ही मन फैसला कर लिया कि चाहे कितनी भी मुश्किलें राह में आएं, वह कपिल को बचाने के लिए पुरजोर कोशिश करेगी.

कायरा ने अस्पताल से ही राय सर को फोन लगाया और पूरी बात उन्हें बताई. साथ ही, उन से आग्रह किया कि टाटा मेमोरियल अस्पताल, मुंबई से इलाज कराने की अनुमति जल्द से जल्द बैंक से दिलवा दें.

रूपहली चमक : भाग 2

देखतेदेखते 1 वर्ष बीत गया था. एकाएक ऐसा लगा जैसे मुझे किसी ने खाई में गिराना चाहा हो. हड़बड़ा कर मैं ने देखा, सामने सुकु खड़ी थी. वह मुझे हिलाहिला कर पूछ रही थी, ‘‘विशेष, कहां खो गए?’’

एकाएक मैं अतीत से वर्तमान में आ गया.

‘‘विशेष, तुम्हें पिताजी बुला रहे हैं,’’ मैं सुकु के साथ ही उस के पिता के अध्ययन कक्ष में पहुंचा तो वे बोले, ‘‘बेटा विशेष, मैं ने तुम्हारे लिए बरमिंघम शहर में एक नौकरी का प्रबंध किया है, तुम्हें साक्षात्कार हेतु बुलाया गया है.’’

मैं ने हड़बड़ा कर उत्तर दिया, ‘‘पर पिताजी, मैं तो अभी आगे पढ़ना चाहता हूं…’’

वे बात काटते हुए बोले, ‘‘बेटे, यहां के हालात दिनप्रतिदिन खराब होते जा रहे हैं. यहां पर काम मिलना मुश्किल होता जा रहा है. वह तो कहो कि उस फैक्टरी के मालिक मेरे मित्र हैं. अत: तुम्हें बगैर किसी अनुभव के ही काम मिल रहा है. मेरा कहा मानो, तुम बरमिंघम जा कर साक्षात्कार दे ही डालो. रही पढ़ाई की बात, तो बेटे, तुम्हारे सामने अभी पूरा जीवन पड़ा है. पढ़ लेना, जितना चाहो.’’

मुझे उन की बात में तर्क व अनुभव दोनों ही दृष्टिगोचर हुए. अत: मैं उन की बात मानते हुए निश्चित दिन साक्षात्कार हेतु बरमिंघम चला गया.

यह डब्बाबंद खाद्य पदार्थ बनाने वाली एक बड़ी फैक्टरी थी. साक्षात्कार के बाद ही मुझे पता चल गया कि मुझे यहां नौकरी मिल गई है. मैं प्रसन्न मन से लंदन पहुंचा व सब को यह खुशखबरी बता डाली.

सुकु के मातापिता निश्ंिचत हो गए कि दामाद आत्मनिर्भर होने जा रहा है और सुकु इस बात से बड़ी प्रसन्न हुई कि अन्य लड़कियों की भांति वह भी अब अपना अलग घर बनाने व सजाने जा रही है. ससुरजी ने हमारे साथ जा कर किराए के फ्लैट व अन्य आवश्यक वस्तुओं का प्रबंध कर दिया. हम फ्लैट में रहने के लिए भी आ गए. हमें व्यवस्थित होता देख कर मेरे ससुर एक हफ्ते के पश्चात लंदन वापस चले गए.

हम दोनों बड़े ही उत्साहित और खुश थे. सुकु घर को सजाने की नवीन योजनाएं बनाने लगी. पर उन योजनाओं में मां बनने की योजना भी सम्मिलित रही, यह मुझे बाद में पता चला. 9 माह के पश्चात मैं एक फूल सी कोमल व अत्यंत सुंदर बच्ची का पिता बन गया.

सुकु की मां 2 माह पूर्व ही सब संभालने आ गई थीं. इधर मैं ने भी कार चलाना सीखना आरंभ किया हुआ था. आशा थी कि ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त होते ही कोई बढि़या हालत की पुरानी कार खरीद लूंगा. पर बच्ची के आ जाने से खर्चे कुछ ऐसे बढ़े कि मुझे कार खरीदने की बात को फिलहाल कुछ समय तक भूल जाना पड़ा. बच्ची का नाम हम ने अनुप्रिया रखा था.

समय अपनी गति से बीतता जा रहा था. अनुप्रिया के प्रथम जन्मदिन पर मैं ने ढाई हजार पौंड की एक पुरानी कार खरीद ली थी. 2-3 माह बाद ही एक दिन सुकु ने अपने दोबारा गर्भवती होने की सूचना मुझे दी तो मैं अचंभित रह गया. परंतु सुकु ने समझाया, ‘‘देखो, यदि परिवार जल्दी ही पूर्ण हो जाए तो बुराई क्या है? 2 बच्चे हो जाएं तो मैं भी जल्दी मुक्त हो जाऊंगी व नौकरी कर सकूंगी.’’

मैं पुन: अपने कार्यों में व्यस्त हो गया. कहना आवश्यक न होगा कि मुझे घर के सभी कार्यों में सुकु की सहायता अंगरेज पतियों की भांति करनी पड़ती थी. यहां तक तो ठीक था, पर मुझे एक बात बहुत खलती थी और वह थी सुकु की तेज जबान व दबंग स्वभाव. मुझ से दबने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, इस के विपरीत वह मुझ पर पूर्ण रूप से हावी हो जाना चाहती थी. यहां पर मैं समझौता करने को तैयार न था. फलस्वरूप घर में झगड़े होते रहते थे.

इन्हीं झगड़ों के मध्य सुकु ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया. मेरी सास इस बार भी यहीं पर थीं. नाती पा कर वह निहाल हो गई थीं. मैं ने अपने घर के लिए अनुप्रिया के साथ अनन्य की फोटो खींच कर पत्र व फोटो अपने मातापिता को भेज दी थी कि वे भी अपने पोते की खबर से खुश होंगे.

2 बच्चों की वजह से हमारे खर्चे बहुत बढ़ रहे थे. इस देश में जहां आमदनी अच्छी थी, वहां महंगाई भी बहुत अधिक थी. बच्चों का पालनपोषण यहां बहुत महंगा पड़ता है. अत: मैं ने कार पर होने वाले खर्चे को बचाने के लिए अपनी कार 2 हजार पौंड में बेच दी. यह बात सुकु को बहुत बुरी लगी क्योंकि उसे अब खरीदारी करने के लिए टैक्सी और बसों पर निर्भर रहना पड़ता था. कार बिकने के परिणामस्वरूप प्राप्त 2 हजार पौंड को मैं ने बैंक में जमा कर दिया था. मैं फैक्टरी बस से चला जाता था. कार के रखरखाव व पैट्रोल पर होने वाले खर्चे अब बचने लगे थे.

अनुप्रिया ढाई वर्ष की तथा अनन्य 3 माह का हो चला था कि मुझे पता चला कि सुकु नौकरी की तलाश कर रही है. मैं ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा, ‘‘तुम नौकरी करोगी तो बच्चों को कौन संभालेगा?’’

वह चिढ़े हुए स्वर में फुफकारते हुए बोली, ‘‘अच्छा…तो तुम चाहते हो कि इन बच्चों को संभालने के लिए मैं दिनरात घर में ही घुसी रहूं? इन के लिए तुम्हें चिंतित होने की जरूरत नहीं है, किसी अच्छे शिशुसदन में इन का प्रबंध भी हो जाएगा.’’

मैं ने उत्तेजित हो कर पूछा, ‘‘तो क्या तुम दृढ़ निश्चय कर चुकी हो कि नौकरी अवश्य करोगी?’’

तब वह धीरे से बोली, ‘‘हां, विशेष, हमें कार की आवश्यकता है, उस के बिना हमारा काम कैसे चलेगा?’’

तब मैं ने कहा, ‘‘हमारा न कह कर केवल ‘अपना’ काम कहो. बच्चों की देखभाल का उत्तरदायित्व तुम्हें बोझ लग रहा है. कार की आवश्यकता के आगे तुम बच्चों की आवश्यकताओं के महत्त्व को नकार रही हो. यदि ऐसा ही था तो मां बनने का शौक क्यों पाला था?’’

पर मेरी इन बातों को अनसुनी सी करती हुई वह ऊपर सोने के कमरे में चली गई और मैं सोचता रहा, यह कैसी नारी है जो भौतिक साधनों के समक्ष अपने ही बच्चों की उपेक्षा कर रही है.

अनन्य सिर्फ 3 माह का है, उसे मां की आवश्यकता है. यह उसे शिशुसदन के भरोसे छोड़ कर नौकरी करना चाहती है. क्या 2-3 वर्ष और प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी?

अंत में सुकु की अनुपस्थिति में मैं ने उस के पिता को फोन किया व परिस्थितियों से अवगत करा दिया. सुन कर वे बोले, ‘‘विशेष, सुकेशनी तो आरंभ से ही बहुत जिद्दी है, वह सदा से मनमानी करती आई है. यदि उस ने अपने मन में नौकरी करने की ठान ली है तो वह नौकरी कर के ही मानेगी. अत: बजाय घर में झगड़ा कर के घर का वातावरण विषमय बनाओ, अच्छा यह होगा कि अभी से किसी अच्छे शिशुसदन की तलाश जारी कर दो.’’

मैं सुकु के पिता की बहुत इज्जत करता था. अत: उन की बात को मान कर किसी अच्छे शिशुसदन की तलाश में लग गया.

कुछ ही दिनों बाद सुकु को एक स्कूल में नौकरी मिल गई. तब तक मैं शिशुसदन की तलाश भी कर चुका था. मैं और सुकु दोनों बच्चों के साथ वहां पहुंचे. वहां की संचालिका करीब 35 वर्षीय एक अंगरेज स्त्री थी. उस ने कहा कि वह 25 पौंड प्रति सप्ताह लेगी. हम ने उसे अपने बच्चों के बारे में संक्षेप में सबकुछ बताया और यह निश्चित किया कि अगले दिन से साढ़े 8 बजे हम दोनों बच्चों को वहां पहुंचा दिया करेंगे और शाम को वापस ले जाया करेंगे.

रूपदिवानी : भाग 2

औफिस जाते समय सृजन रश्मि को मां के घर छोड़ता गया. बड़े सूटकेस के साथ रश्मि को देख कर छोटी भाभी ने तंज कसा, ‘‘जीजाजी बड़ी खुशी हुई कि इस बार आप भी दीदी के साथ यहां रहेंगे, वरना दीदी के कपड़े तो ब्रीफकेस में ही आ जाते थे. आप दीदी से शादी वाले गठजोड़ अभी तक बांधे हुए हैं,” सुन कर सृजन हंसता हुआ नीचे उतर गया.

कभी रश्मि औफिस में सृजन को फोन कर के आने को कहती, तो सृजन औफिस से लौटते में बस 10-15 मिनट को आ जाता. भूल कर भी रश्मि से घर चलने को नहीं कहता.

एक बार रश्मि ने ही पूछा, ‘‘अम्मांजी भी क्या सोचेंगी? मैं जैसे यहां आ कर जामवंत के पैर सी जम ही गई.’’

सृजन ने रश्मि की दलील को हथेली पर जमी धूल सा उड़ा दिया, ‘‘तुम्हें डाक्टर ने रेस्ट बताया है. वहां गृहस्थी की चकल्लस में सांस लेने तक की फुरसत नहीं मिलती तुम्हें. यहां सब तुम्हारी सेवा में लगे रहते हैं. तुम्हें यहां छोड़ कर मैं बेफिक्र हूं.’’

सृजन के इस अपनेपन से रश्मि भीतर तक भीग गई.

एक दिन रश्मि की सहेली अपाला की छोटी बहन उर्वशी अपनी सहेली सोनल के साथ रश्मि से मिलने आई. दोनों ने खाना वहीं खाया. रश्मि के पड़ोस में उर्वशी की ननद रिक्ति रहती थी. उर्वशी उस से मिलने चली गई. रश्मि सोनल को अम्मां के कमरे में आराम से बातचीत करने के लिए ले गई. वहां सृजन की फोटो देख कर सोनल ठिठकी. कुछ देर बाद उस ने रश्मि से पूछा, ‘‘ये महाशय कौन हैं दीदी? मैं इन्हें पिछले 3 सालों से जानती हूं. नई तितलियों पर मंडराने वाले भ्रमर हैं जनाब.’’

सुन कर रश्मि जड़ हो गई. उस के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. रश्मि उस से सृृजन का असली परिचय छुपा गई. संभल कर बोली, ‘‘अम्मां के लाड़ले भांजे हैं. अम्मां इन पर बेटों से भी ज्यादा ममता लुटाती हैं. पर तुम ये सब क्यों पूछ रही हो? कहीं धोखा तो नहीं हुआ तुम्हें? अम्मा के तो श्रवण कुमार हैं ये.’’

सोनल बेपरवाही से उत्तरायी होंगे घर के भ्रवण कुमार. पर बाहर तो पूरे रोमियो बने रहते हैं. मुझे कोई धोखा नहीं हुआ है. मेरी फ्रैंड अनुजा इन के प्रेमजाल में बुरी तरह से फंसी हुई है. हर समय इन के नाम की माला जपती रहती है. कुछ महीने पहले अचानक अनुजा के कालेज पहुंच गए. बताया कि वापस पोस्टिंग यहीं करा ली है. अनुजा ने इन महोदय के कंधे से लग कर रोरो कर अपना बुरा हाल कर लिया. तब से रोज सुबहशाम उस से मिलते हैं. मैं ने अन्य तितलियों को भी इन की चपेट में आते देख कर अनुजा को सावधान किया. पर अनुजा पर इन का रंग गहरा चढ़ चुका है और वह मेरे देखने को मेरा दृष्टिभ्रम मानती है. यह महाशय हैं ही ऐसे मोहक विष्णुरूप कि इन के मकडज़ाल में कोई भी फंस जाता है. नाम भी तो मोहन कुमार है.’’

सोनल का एकएक शब्द रश्मि को बिच्छू के डंक सा काटता गया. उस ने होंठ काट लिए, ‘‘सोनल तू ने झूठ नहीं कहा. अम्मां भी तो इन की रूप की मोहिनी में ही तो फंस गई थीं. वे इन के बारे में और कुछ जानना ही नहीं चाहती थीं. पर अम्मां को तो इन की हर रट लग गई थी. पिताजी और बड़े भैया ने कितना समझाया था उन को. फिर अम्मां की जिद और मेरी बढ़ती उम्र के कारण पिताजी और बड़े भैया को घुटने टेकने पड़ गए थे. अब पीएं अम्मां धोधो कर इन का रूप. सृजन ने अपना नाम तक बदल लिया.’’

उर्वशी के आते ही दोनों की बातचीत पर विराम लग गया. काफी देर हो चुकी थी, अत: उर्वशी और सोनल ने जाना चाहा. रश्मि ने और अधिक जानने की गरज से सोनल से कहा, “उर्वशी तो अब गृहस्थिन बन गई है. सोनल तू अभी इन झंझटों से दूर है. परसों सनडे में आना. मेरी बोरियत कुछ तो कम हो.’’

सोनल भी रश्मि से और अधिक बात करना चाहती थी. अत: वह इतवार की सुबह 10 बजे ही अनुजा को ले कर रश्मि के घर आ गई. रश्मि ने जानबूझ कर दोनों को अम्मां के कमरे में बैठाया. अनुजा की दृष्टि सृजन की फोटो से हटती ही नहीं थी. गहरी सांस ले कर सोनल बोली, ‘‘पता नहीं, क्यों अनुजा इन के पीछे पागल है? ये किसी एक के हो कर रह नहीं सकते.’’

रश्मि बोली, ‘‘अम्मां के भांजे का खयाल छोड़ दे अनुजा. यह अपनी पत्नी को बेहद चाहता है.’’

पत्नी के नाम पर दोनों चौंक कर खड़ी हो गईं, और ‘‘बाजार से जरूरी सामान खरीदना है,’’ का बहाना बना कर चली गईं.

शाम को रश्मि ने सास को फोन किया, ‘‘अम्मांजी, आप तो मुझे भूल ही गई हैं. कब बुला रही हैं?’’

सास रुक्मिणी जैसे आसमान से गिरीं, ‘‘मैं तो रोज ही सृजन से तुम्हें ले आने को कहती हूं, पर वह कहता है कि तुम जी भर के रहना चाहती हो. क्या जी भर गया तुम्हारा?’’

शाम को ससुर आ कर रश्मि को ले गए. सृजन रात को तकरीबन 10 बजे आया. रश्मि को देख कर वह चौंक गया.

दिनप्रतिदिन सृजन का रवैया रश्मि के प्रति उपेक्षापूर्ण होता जा रहा था. एक दिन रश्मि ने सास से कहा, ‘‘मां, ये घर में सब से छोटे हैं. आप में से कोई इन से क्यों नहीं पूछता कि इतनी रात गए तक कहां रहते हो?’’

रुक्मिणी गहरी सांस ले कर उतराई, ‘‘रश्मि से सृजन का सौभाग्य है कि उसे तुम जैसी सहनशील पत्नी मिली. वह एक खूंटे से बंधने वाला कभी न था. तुम्हारी हां सुन कर हमें तसल्ली हुई कि उस ने भी तुम्हारे लिए हां कर दी, पर वह अनुमान हमें भी न था कि वह अपने पुराने ढर्रे पर लौट आएगा. अब पानी सिर से ऊपर आता जा रहा है,’’ कह कर वह चिंतित सी होती चली गईं.

रश्मि का स्वास्थ्य दिनप्रतिदिन गिरता जा रहा था. मांपिताजी के पूछने पर रश्मि सृजन की उपेक्षा छुपा जाती. भैयाभाभी की चिंता रश्मि हंस कर टाल जाती. पर अंदर ही अंदर रश्मि को चिंता का घुन खाए जा रहा था.

एक दिन छोटी भाभी धरा घबराई सी रश्मि से मिलने आई. धरा हिम्मत बटोर कर बोली, ‘‘रश्मि कान से सुना झूठा हो सकता है, पर आंखों से देखा कैसा झुठला दूं? मेरा दिल सच में ही बैठा जा रहा है.’’

धरा रश्मि को भाभी कम सहेली अधिक लगती थी. धरा भी मन के प्रत्येक बोझ को रश्मि से कह कर हलका कर लेती थी. रश्मि भी शादी से पूर्व शकुंतला की ढीली अंगूठी सी शादी की फिसलती उम्र की वेदना धरा को बता देती थी. परंतु सृजन की निष्ठुरता को रश्मि फिर भी धरा के सामने मुंह पर नहीं ला पाई थी.

धरा की बात सुन कर रश्मि का हृदय अनजानी आशंका से धड़क उठा. उस ने छोटी भाभी की ओर प्रश्नवाची दृष्टि उठाई और कहा, ‘‘भाभी कहो, कुछ मत छुपाओ.’’

इधरउधर देख कर धरा बोली, ‘‘रश्मि कोई और कहता तो कभी न मानती. पर मेरी आंखों ने धोखा नहीं खाया है. कल मैं ने सृजन को एक लड़की के साथ पिक्चर हाल में देखा. वह लड़की सृजन से बिलकुल सट कर बैठी थी. बस मेरी पिक्चर उन दोनों की गतिविधियां बन गईं. वह  दोनों बारबार सटसट जाते थे. आपस में बातबात पर खिलखिलाते थे. पिक्चर तो एक बहाना था. वहां तो उन की अपनी ही पिक्चर चल रही थी.’’

रश्मि ने धरा को रोकते हुए अधीरता से कहा, ‘‘भाभी आगे कुछ मत कहो. सुदर्शन रूपकारी सृजन के रूप पर अम्मां ऐसी मोहित हो गईं कि वे उस के कलंक को नहीं देख सकीं और ना ही आप में से कोई जान पाया कि वह केवल कंचन की काया वाला मन से कांच का टुकड़ा निकला.

“सृजन जैसा रूपवान लड़का हाथ से न निकल जाए के डर से अम्मां ने पापाभैया को उस के बारे में कहीं कोई पूछताछ भी नहीं करने दी. सृजन के रूप का जादू अम्मां के सिर पर चढ़ कर बोल रहा था.’’

पुनर्मिलन : भाग 2

‘‘रहीम, तुम्हें गाना तो गाना पड़ेगा आज…’’ शकीना की मां ने बोला. रहीम को तो वैसे भी गाने का बहुत शौक था, इसलिए शुरू हो गया,

‘‘चांद को क्या मालूम उसे देखे कोई चकोर… वो बेचारा…’’ मेरी नजरें सुनीता के चेहरे पर ही टिकी थीं. सुनीता अपने नजरें झुकाए चपचाप बैठी थी. हालांकि वह चोरीचोरीे रहीम को देख भी लेती. कई बार दोनों की नजरें आपस में टकरा चुकी थीं. शकीना मेरे भावों को समझ गई थी.

‘‘अब सुनीता गाना गाएगी…’’ शकीना ने उस का हाथ पकड़ा और उसे माइक के सामने ला खड़ा किया. सुनीता को इस की बिलकुल उम्मीद नहीं थी. उस के चेहरे पर लाज के भाव थे.

‘‘मेरा जीवन… कोरा कागज कोरा ही रह गया…’’

किसी को भी इतने सुरीले

गाने की उम्मीद नहीं थी. रहीम भी अवाक सा रह गया.

‘‘अच्छा हुआ शकीना, मेरा गाना पहले हो गया, वरना मैं तो बेसुरा साबित हो जाता…’’

सुनीता कनखियों से रहीम को ही देख रही थी.

‘‘वैसे आप तो मुझ से अच्छा गा लेते हैं…’’ उस की बातों में औपचारिकता नहीं थी.

‘‘चलो, आप को पसंद आया तो मैं धन्य हो गया…’’ रहीम ने नजर भर सुनीता को देखा.

खाना खाते समय हम साथ ही बैठे और सुनीता ने कुछ बात भी की.

सुनीता से संबंध अब बेहतर हो गए थे. वह बगैर झिझके बात कर लेती. हम लोग खाली पीरियड में कालेज ग्रांउड पर बैठे बातें करते रहते. यह दोस्ती बहुत जल्द ही प्यार में बदल गई.

‘‘रहीम, क्या वाकई हम एकदूजे के लिए ही बने हैं…” रहीम का सिर सुनीता की गोद में था और सुनीता उस के बालों को सहला रही थी

‘‘हम मिले तो इस के लिए ही हैं सुनीता…’’ उस के हाथों को जोर से दबाते हुए कहा.

‘‘मुझे छोड़ तो नहीं दोगे…’’ उस की आंखों में आंसू बह निकले थे.

‘‘पागल हो क्या… तुम को लगता है कि यह संभव है…’’

‘‘नहीं… मैं ऐसा होने नहीं दूूंगी… मैं तुम से कभी दूर रह ही नहीं सकती…’’

वह रोने लगी थी जोरजोर से.

हमारा प्रेम लोगों की नजरों में चढ़ चुका था. शकीना तो खुश थी, पर दूसरे साथियों को खटक रहा था. परीक्षा के बाद कालेज की छुट्टियां हो गई थीं. इन्हीं छुट्टियों में सुनीता की शादी भी हो गई. उस ने जो पत्र डाक से डाला था, वह रहीम को उस की शादी के बाद मिला. उस के सामने अंधेरा छा गया.

सुनीता के पिताजी को हम दोनों के रिश्तों के बारे में पता चल गया था और वे किसी भी हालत में इस रिश्ते को अपनाने के लिए तैयार नहीं थे.

‘‘यह संभव नहीं है… हमारा धर्म अलग है और रहीम का अलग,’’ कड़क स्वर में बोल दिया था सुनीता के पिताजी ने.

‘‘पर पापा, धर्म से क्या होता है… जरूरी तो यह है कि हम प्यार करते हैं… मैं ऐसे व्यक्ति के साथ ही तो खुश रह सकती हूं न, जिसे मैं अच्छी तरह जानती हो और जिस पर मुझे भरोसा हो.’’

वैसे तो सुनीता कभी अपने पिता से ऐसे बात नहीं करती थी, पर यहां तो उस के भविष्य का सवाल था तो उस ने पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी बात रख दी, ‘‘वह कुछ भी हो… मैं ऐसा नहीं कर सकता… मुझे समाज के साथ रहना है, तुम्हारा क्या है, तुम तो शादी कर के चली जाओगी… मुझे तो यहां जीवनभर रहना है… नहीं…’’

‘‘पर पापा, मेरे भविष्य का फैसला मुझे ही लेने दो…”

‘‘नहीं… तुम्हारे भविष्य का फैसला मैं लूंगा… इस के बाद जो तुम्हारी मरजी वैसा कर लेना…’’

सुनीता की एक बात नहीं सुनी गई और उस की शादी करा दी गई. रहीम एक ही सांस में पत्र पढ़ता चला गया. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. उस ने दिल से सुनीता को प्यार किया था और भविष्य के सपने भी बुने थे. वे सारे सपने एक पत्र ने बिखेर दिए थे.

सुनीता से उस की मुलाकात फिर कभी नहीं हो पाई थी. वर्षों बाद आज उसे बाजार में सुनीता दिखाई दी थी और वह उसे पहचानने की कोशिश कर रहा था. उसे तो यकीन हो गया था कि यह सुनीता ही है, पर बीच बाजार में उस से कैसे बात करूं…?

सुनीता बिलकुल उस के पास से हो कर गुजरी.

‘‘सुनीता…’’ यह सुन कर वह रुक गई. उस ने भौंचक हो कर रहीम की ओर देखा. वह रहीम को बिलकुल भी नहीं पहचान पाई थी.

‘‘हां, बताइए…’’

‘‘मैं रहीम…’’ वह हिचक रहा था अपना परिचय देने में.

‘‘रहीम… ओह… अरे, तुम तो बिलकुल बदल गए हो,’’ उस की आवाज में अपनत्व था.

सुनीता के चेहरे पर पहचाने जाने के भाव उभर आए थे.

‘‘अब तो तुम भी सयाने दिखाई देने लगे हो,’’ सुनीता की चिरपरिचत मुसकान होंठों पर फैल गई थी. उस ने एक बार फिर भरी नजरों से रहीम की ओर देखा. रहीम कुछ लजा सा गया.

‘‘साइड में हो जाओ अम्मां…’’ कहते हुए जिस साइकिल वाले ने आवाज लगाई थी, उस ने एक धक्का सुनीता को मार ही दिया था. रहीम हड़बड़ा गया, सुनीता गिरती इस के पहले उस ने सुनीता को अपनी बांहों में थाम लिया.

‘‘चलो, वहां चाय दुकान पर बैठते हैं,’’ रहीम को अभी भी लोगों की नजरें चुभती हुई दिखाई दे रहीं थीं.

‘‘नहीं, आज नहीं… आज करवाचौथ है… मेरा व्रत है…’’

‘‘फिर…’’ रहीम के चेहरे पर उदासी के भाव आ गए.

‘‘देखो रहीम, मुझे भी तुम से ढेर सारी बातें करनी हैं… पर देखो न, आज मेरे पास समय नहीं है,’’ उदासी भरी आवाज थी उस की भी.

‘‘आप अपना मोबाइल नंबर दे सकती हैं क्या…?’’ उसे संकोच हो रहा था.

‘‘ओह, हां… अब तो हम मोबाइल वाले युग में आ गए हैं. काश, हमारे जमाने में भी मोबाइल होता…’’ उस की उदासी गहरी हो गई. सुनीता ने अपना मोबाइल नंबर दे दिया.

‘‘फोन मैं ही लगांऊगी… पर, कब लगाऊं….?”

‘‘अमूमन, दोपहर में खाली रहता हूं…’’

“पर, कल नहीं परसों फोन करूंगी. ओके… रहीम आज बहुत अच्छा रहा कि तुम से मुलाकात हो गई…” कह कर सुनीता चली गई. रहीम बहुत देर तक उसे देखता रहा.

रहीम घर आ कर अपने कमरे में लेट गया था. वह केवल सुनीता के बारे में ही सोच रहा था. उस ने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उस की मुलाकात सुनीता से हो पाएगी.

मां की बनारसी साड़ी : भाग 2

विदाई के समय उस की मां की बनारसी साड़ी पूर्णिमा के हाथों में पकड़ाते हुए बाबूजी बोले थे कि यह उस की मां की आखिरी निशानी है जिसे वह उन का आशीर्वाद सम?ा कर रख ले. जबजब वह उस साड़ी को पहनेगी, लगेगा उस की मां उस के साथसाथ है. अपनी मां की बनारसी साड़ी सीने से लगाते हुए पूर्णिमा सिसक पड़ी थी.

यह बनारसी साड़ी पूर्णिमा के लिए सब से अजीज थी, क्योंकि इस साड़ी में उस की मां की यादें जो बसी थीं. जब भी वह इस साड़ी को पहनती, उस में से उसे अपनी मां की खुशबू आती थी. आज भी याद है उसे, जब भी उस की मां इस बनारसी साड़ी को पहनती थी, पूर्णिमा ?ांक?ांक कर उसे देखती और कहती, ‘मां, ई तो साड़ी बहुत सुंदर है. हम भी पहनें जरा.’ उस पर उस की मां हंसती हुई कहती कि अभी वह बच्ची है. नहीं संभलेगी उस से इतनी भारी साड़ी. लेकिन जब वह बड़ी हो जाएगी न, तब इस साड़ी को पहन सकती है.

इस बनारसी साड़ी में पूर्णिमा की मां बहुत सुंदर दिखती थी. वह पूर्णिमा को बताया करती थी कि यह बनारसी साड़ी उन की शादी के लिए खास काशी से मंगवाई गई थी. उस बनारसी साड़ी की सब से खास बात यह थी कि उस में सोनेचांदी के बारीक तार से तारकशी की गई थी. उन की शादी के सारे गहने भी बनारस से गढ़वाए गए थे. पूर्णिमा का नानी घर बिहार के भागलपुर जिला में पड़ता था. वहां उस के नाना बहुत बड़े जमींदार थे पहले. लेकिन अब न तो जमींदार रहे और न ही जमींदारी. उन के निकम्मे, नालायक, नकारा बेटों ने पिता की सारी जमीनजायदाद बेचबाच कर शराब-जुए में उड़ा डाला. वह कहते हैं न, ‘पूत सपूत तो क्यों धन संचय- पूत कपूत तो क्यों धन संचय.’ व्यर्थ ही उन्होंने तीनतेरह कर के इतना धन कमाया, सब बेकार ही गया न.

पूर्णिमा की मां अपनी बनारसी साड़ी को सिंदूर व चूड़ी की तरह ही सुहाग का प्रतीक मानती थी. वह अपनी साड़ी को बड़े ही यत्न से संभाल कर रखती थी. खास मौके पर ही वे इस साड़ी को पहना करती थीं और फिर तह कर के अच्छे से अलमारी में रख दिया करती थीं. पूर्णिमा को यह साड़ी सौंपते हुए उस के बाबूजी ने कहा था कि यह बनारसी साड़ी उस की मां के दिल के बहुत करीब थी, इसीलिए वह इसे अच्छे से संभाल कर रखे. लेकिन अफसोस कि पूर्णिमा अपने बाबूजी की उम्मीदों पर खरी न उतर पाई.

औफिस से आ कर देखा तो पूर्णिमा अब भी अपने कमरे में लेटी हुई थी. ‘‘मम्मा, ठीक हो आप?’’ पूर्णिमा के पास बैठते हुए अलीमा ने पूछा तो वह बोली कि हां, ठीक है.

‘‘मम्मा, सुबह से देख रही हूं, आप उदास लग रही हो. प्लीज, कोई बात है तो मुझ से शेयर कर सकती हो, आप,’’ पूर्णिमा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए अलीमा बोली, ‘‘आलोक ने कुछ कहा आप से? तो फिर पापा से झगड़ा हुआ क्या? अगर नहीं तो फिर क्या बात है, बताओ न मुझे.’’

पूर्णिमा क्या बताती उसे. क्या समझ पाएगी वह उस की भावनाओं को. नहीं, ऐसी बात नहीं है कि वह उसे नहीं सम?ाती. लेकिन आज की जेनरेशन को इमोशन जैसी बातें फुजूल ही लगती हैं. जब उस के खुद के बच्चे ही मां की बातों को ‘इमोशन फूल, फालतू, बकवास कह कर हंसी में उड़ा देते हैं तो अलीमा से क्या उम्मीद लगाए वह.

देखा नहीं क्या, कैसे पूर्णिमा की जेठानी की बहू ने अपनी सास के दिए गले के नेकलैस को आउट औफ डेट बता कर उसे तुड़वा कर नया बनवा लिया था और बेचारी सास मुंह ताकती रह गई थी. कुछ बोल ही नहीं पाई वो. जबकि वह खानदानी नेकलैस था.

‘‘मम्मा, मैं आप के लिए अदरक वाली कड़क चाय बना लाती हूं, फिर हम साथ बैठ कर पिएंगे, ओके,’’ अलीमा ने इतने प्यार से कहा कि न चाहते हुए भी पूर्णिमा मुसकरा उठी. अलीमा समझ गई कि पूर्णिमा उसे कुछ बताना नहीं चाहती, इसलिए उस ने फिर उस से कोई सवाल नहीं किया. लेकिन मन में बात तो उमड़घुमड़ कर ही रही थी.

अलीमा है तो पूर्णिमा की बहू, लेकिन दोनों के बीच मांबेटी जैसा प्यार था. दोनों में सहेलियों जैसा हंसीमजाक भी चलता तो कभी गलती करने पर पूर्णिमा उसे डांट भी दिया करती थी. घर में जब उकताहट होने लगती तो दोनों सासबहू चाटपकौड़ी खाने के बहाने घर से निकल पड़तीं और ढेर सारी शौपिंग कर घर लौटतीं. कभी किसी रोज उन का खाना पकाने का मन न होता तो दोनों आपसी सहमति से बाहर से ही कुछ और्डर कर के मंगवा लेतीं और फिर खूब मजे से नैटफ्लिक्स पर अपनी मनपसंद फिल्म लगा कर देखतीं.

अजब ही कहानी है इन सासबहू की. अलीमा को वह सिर्फ एक साल से जानती है लेकिन लगता है उस से उस का वर्षों का रिश्ता है. अपने एकलौते ‘आईआईटी’ इंजीनियर बेटे के मुंह से जब पूर्णिमा और रजत ने यह सुना था कि वह अपने ही औफिस में काम करने वाली अलीमा नाम की एक क्रिश्चियन लड़की से प्यार करता है और उसी से शादी करना चाहता है तो दोनों शौक्ड रह गए थे. रजत तो एकदम से आगबबूला हो उठा था और अपना आपा खोते हुए बोला था कि इस घर में कभी कोई क्रिश्चियन लड़की हमारी बहू बन कर नहीं आ सकती और अगर आलोक उन की बातों से इत्तफाक नहीं रखता तो वह इस घर को छोड़ कर जा सकता है. आलोक ने भी तैश में आ कर बोल दिया कि ठीक है वह इस घर से निकल जाएगा पर अलीमा को कभी अपनी जिंदगी से नहीं निकाल सकता वो.

बापबेटे के बीच रोज के खींचातानी में पूर्णिमा पिस रही थी. घर का माहौल बिगड़ रहा था सो अलग और यह सब हो रहा था उस अलीमा की वजह से. उस ने ही बापबेटे के बीच इतनी बड़ी खाई पैदा की थी कि वे एकदूसरे का मुंह तक देखना पसंद नहीं करते थे. उन के बीच बात की शुरुआत ?ागड़े से शुरू हो कर ?ागड़े पर ही खत्म होती थी. इधर पूर्णिमा न तो अपने बेटे को सम?ा पा रही थी और न ही पति को. किसी एक का साथ देती तो दूसरे की नजरों में बुरी बन जाती वो. अजीब ही स्थिति हो गई थी उस की इस घर में.

वैसे, अगर आलोक अपनी जगह सही था तो रजत भी कहां गलत थे. कोई भी बाप यह कैसे सहन कर सकता है कि उस का बेटा जातबिरादरी से बाहर जा कर शादी करे वह भी एक ऐसी लड़की से जिस के मांबाप का तलाक हो चुका है. आखिर रहना तो उन्हें इसी समाज में है न? और कल को उन्हें अपनी बेटी, मीठी की भी तो शादी करनी है न. कौन करेगा फिर उस से शादी जब पता चलेगा कि पूर्णिमा और रजत ने एक क्रिश्चियन बहू उतारी है तो? लेकिन यह बात आलोक सम?ा ही नहीं पा रहा था.

सो, अब पूर्णिमा ने फैसला किया कि वह अलीमा से मिल कर उसे सम?ाएगी कि वह उस के बेटे की जिंदगी से खुद ही निकल जाए. इस के लिए वह उसे मुंहमांगी कीमत देने को भी तैयार थी. लेकिन अलीमा से मिल कर पूर्णिमा के सारे फैसले धरे के धरे रह गए. इतनी मासूम बच्ची थी वह कि उसे देखते ही पूर्णिमा को उस से प्यार हो आया और जब ?ाक कर उस ने पूर्णिमा के पांव छुए और मां कह कर उस के गले लग गई तो पूर्णिमा का रोमरोम सिहर उठा. उसे लगा जैसे मीठी उस के गले लग रही हो. ‘कुछ तो बात है इस लड़की में, ऐसे ही नहीं आलोक इस की खातिर सबकुछ छोड़ने को तैयार हो गया’ अपने मन में ही सोच पूर्णिमा ने मन ही मन फैसला कर लिया कि यही लड़की उस के घर की बहू बनेगी.

घर आ कर पूर्णिमा ने रजत को विस्तार से सबकुछ बताया और कहा कि वह जरा ठंडे दिमाग से सोचे. और जिंदगी आलोक को गुजारनी है अलीमा के साथ तो फैसला भी उसी का होना चाहिए? आज जमाना बहुत आगे बढ़ चुका है. अगर हम मांबाप अपने बच्चों को अपनी सोच के दायरे में बांधने की कोशिश करेंगे तो हो सकता है एक दिन बच्चे वह दायरा तोड़ कर बाहर निकल जाएं और फिर कभी वापस ही न आएं. ‘‘इसलिए कह रही हूं कि तुम एक बार अलीमा से मिल कर तो देखो. देखना कैसे तुम्हारा भी दिल पिघल जाएगा उस से मिल कर,’’ पूर्णिमा के बहुत सम?ाने पर रजत उस से मिलने के लिए राजी तो हो गया पर मन से नहीं.

लेकिन वह जब अलीमा से मिला तो लगा, शायद वह खुद भी आलोक के लिए इतनी अच्छी लड़की नहीं ढूंढ़ पाता कभी. रजत ने खुले दिल से आलोक और अलीमा की शादी की रजामंदी ही नहीं दी, बल्कि पूरे धूमधाम से पूरे समाज के सामने अपने बेटे का विवाह भी किया और ग्रैंड पार्टी रखी शहर के बड़े होटल में, जहां जातबिरादरी के लोग भी मौजूद थे. सामने से तो नहीं पर वे पीठपीछे कहने से बाज नहीं आए कि क्या अपनी जातबिरादरी में लड़कियां कम पड़ गई थीं जो ये लोग क्रिश्चियन बहू उठा लाए अपने बेटे के लिए.

लेकिन वह कहते हैं न, ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना’ उन्हें रत्तीभर भी इस बात से फर्क नहीं पड़ा कि लोग पीठपीछे उन के बारे में क्या बातें कर रहे हैं. फर्क तो इस बात से पड़ा कि आलोक और अलीमा एकदूसरे के साथ कितने खुश दिख रहे थे.

जानबूझ कर अलीमा पूर्णिमा को बाहर घुमाने ले गई थी ताकि उस का मूड थोड़ा ठीक हो. लेकिन कोई खास फायदा नहीं हुआ. पूर्णिमा की चुप्पी जब अलीमा के बरदाश्त के बाहर हो गई तब उस ने आलोक से बात की. लेकिन वह कहने लगा कि उसे क्या पता कि पूर्णिमा क्यों उदास है. हुआ होगा रजत से किसी बात पर झगड़ा. मीठी बेंगलुरु में मैडिकल की पढ़ाई कर रही है तो पूछने पर उस ने भी फोन पर वही बात दोहराई कि शायद रजत से पूर्णिमा का झगड़ा हुआ होगा, इसलिए उस का मूड औफ होगा. रजत से पूछा तो बोला, ‘‘नहीं तो. लेकिन लग रहा है पूर्णिमा लड़ने के मूड में है. इसलिए उसे बच कर रहना होगा.’’

रजत की बात पर अलीमा को हंसी आ गई. ‘‘पापा, सच में बताइए न, मम्मा उदास क्यों हैं? कल मैं ने मम्मा को उन की अलमारी से कुछ निकालते देखा था पर मुझे देख कर उसे अलमारी में छिपा दिया. क्या चीज हो सकती है, आप को पता है?’’ उस पर रजत कहने लगा कि हां, पता है उसे.

‘‘क्या, बताइए न, प्लीज पापा.’’

रजत बताने लगा कि उस के पास उस की मां की एक आखिरी निशानी, बनारसी साड़ी थी जो दीवाली के पटाखों से जल गई थी. उस ने सोचा था, उस बनारसी साड़ी को वह अपनी 25वीं शादी की सालगिरह पर पहनेगी. लेकिन अब तो पहन ही नहीं सकती न. और इसलिए भी दुखी है वह कि कल ही के दिन उस की मां का देहांत हुआ था.

‘ओह, तो इसलिए मम्मा कल रो रही थीं.’ अपने मन में सोच अलीमा सोचने लगी कि ऐसा क्या करे जिस से पूर्णिमा की खुशी वापस आ जाए. लेकिन क्या, मीठी को फोन लगा कर पूछा तो वह कहने लगी कि उस के पास कोई आइडिया नहीं है. लेकिन वह साड़ी मां को बहुत अजीज थी. याद है उसे कालेज की फ्रैशर पार्टी में जब उस ने वह साड़ी पहनने के लिए मांगी थी तब पूर्णिमा ने यह कह कर उस साड़ी को देने से मना कर दिया था कि एकदम अल्हड़ हो तुम. फाड़ दोगी. इसलिए कोई दूसरी साड़ी पहन लो. अब सम?ा गई अलीमा कि बात क्या है और वह साड़ी पूर्णिमा को अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी है.

तिकोनी डायरी : भाग 2

मैं मन मार कर रह जाता हूं. गुस्से को चाय की आखिरी घूंट के साथ पी कर थूक देता हूं. कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं, जिन पर मनुष्य का वश नहीं रहता. लेकिन मैं कभी कभी महसूस करता हूं कि निहारिका को नागेश के आधिकारिक बरताव पर कोई खेद या गुस्सा नहीं आता था.

निहारिका कभी भी इस बात की शिकायत नहीं करती थी कि उन की ज्यादतियों की वजह से वह परेशान या क्षुब्ध थी. वह सदैव प्रसन्नचित्त रहती थी. कभीकभी बस नागेश के सिगरेट पीने पर विरोध प्रकट करती थी. उस ने बताया था कि उस के कहने पर ही नागेश ने तब अपने कमरे में सिगरेट पीनी बंद कर दी, जब वह उन के कमरे में काम कर रही होती थी.

मुझे अच्छा नहीं लगता है कि घड़ीघड़ी भर बाद नागेश मेरे कमरे में आएं और बारबार बुला कर निहारिका को ले जाएं. इस से मेरे काम में कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था पर मैं चाहता था कि निहारिका जब तक आफिस में रहे मेरी नजरों के सामने रहे.

निहारिका की डायरी

मैं अजीब कशमकश में हूं…कई दिनों से मैं दुविधा के बीच हिचकोले खा रही हूं. समझ में नहीं आता…मैं क्या करूं? कौन सा रास्ता अपनाऊं? मैं 2 पुरुषों के प्यार के बीच फंस गई हूं. इस में कहीं न कहीं गलती मेरी है. मैं बहुत जल्दी पुरुषों के साथ घुलमिल जाती हूं. अपनी अंतरंग बातों और भावनाओं का आदानप्रदान कर लेती हूं. उसी का परिणाम मुझे भुगतना पड़ रहा है. हर चलताफिरता व्यक्ति मेरे पीछे पड़ जाता है. वह समझता है कि मैं एक ऐसी चिडि़या हूं जो आसानी से उन के प्रेमजाल में फंस जाऊंगी.

इस दफ्तर में आए हुए मुझे 1 महीना ही हुआ और 2 व्यक्ति मेरे प्रेम में गिरफ्तार हो चुके हैं. एक अपने शासकीय अधिकार से मुझे प्रभावित करने में लगा है. वह हर मुमकिन कोशिश करता है कि मैं उस के प्रभुत्व में आ जाऊं. दूसरा सौम्य और शिष्ट है. वह गुणी और विद्वान है. कवि और लेखक है. उस की बातों में विलक्षणता और विद्वत्ता का समावेश होता है. वह मुझे प्रभावित करने के लिए ऐसी बातें नहीं करता है.

पहला जहां अपने कर्मों का गुणगान करता रहता है. बड़ीबड़ी बातें करता है और यह जताने का प्रयत्न करता है कि वह बहुत बड़ा अधिकारी है. उस के अंतर्गत काम करने वालों का भविष्य उस के हाथ में है. वह जिसे चाहे बना सकता है और जिसे चाहे पल में बिगाड़ दे. अपने अधिकारों से वह सम्मान पाने की लालसा करता है. वहीं दूसरी ओर अनुराग अपने व्यक्तित्व से मुझे प्रभावित कर चुका है.

नागेश से मुझे भय लगता है, अत: उस की किसी बात का मैं विरोध नहीं कर पाती. मुझे पता है कि मेरी किसी बात से अगर वह नाखुश हुआ तो मुझे नौकरी से निकालने में उसे एक पल न लगेगा. ऐसा उस ने संकेत भी दिया है. वह गंदे चुटकुले सुनाता और खुद ही उन पर जोरजोर से हंसता है. अपने भूतकाल की सत्यअसत्य कहानियां ऐसे सुनाता है जैसे उस ने अपने जीवन में बहुत महान कार्य किए हैं और उस के कार्यों में अच्छे संदेश निहित हैं.

मेरे मन में उस के प्रति कोई लगाव या चाहत नहीं है. वह स्वयं मेरे पीछे पागल है. मेरे मन में उस के प्रति कोई कोमल भाव नहीं है. वह कहीं से मुझे अपना नहीं लगता. मेरी हंसी और खुलेपन से उसे गलतफहमी हो गई है. तभी तो एक दिन बोला, ‘‘तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. शायद मैं तुम्हें चाहने लगा हूं. क्या तुम मुझ से दोस्ती करोगी?’’

मेरे घर की आर्थिक दशा अच्छी नहीं है. घर में 3 बहनों में मैं सब से बड़ी हूं. घर के पास ही गली में पिताजी की किराने की दुकान है. बहुत ज्यादा कमाई नहीं होती है. बी.ए. करने के बाद इस दफ्तर में पहली अस्थायी नौकरी लगी है. अस्थायी ही सही, परंतु आर्थिक दृष्टि से मेरे परिवार को कुछ संबल मिल रहा है. अभी तो पहली तनख्वाह भी नहीं मिली थी. ऐसे में काम छोड़ना मुझे गवारा नहीं था.

मन को कड़ा कर के सोचा कि नागेश कोई जबरदस्ती तो कर नहीं सकता. मैं उस से बच कर रहूंगी. ऊपरी तौर पर दोस्ती स्वीकार कर लूंगी, तो कुछ बुरा नहीं है. अत: मैं ने हां कह दिया. उस ने तुरंत मेरा दायां हाथ लपक लिया और दोस्ती के नाम पर सहलाने लगा. उस ने जब जोर से मेरी हथेली दबाई तो मैं ने उफ कर के खींच लिया. वह हा…हा…कर के हंस पड़ा, जैसे पौराणिक कथाओं का कोई दैत्य हंस रहा हो.

‘‘बहुत कोमल हाथ है,’’ वह मस्त होता हुआ बोला तो मैं सिहर कर रह गई.

दूसरी तरफ अनुराग है…शांत और शिष्ट. हम साथ काम करते हैं परंतु आज तक उस ने कभी मेरा हाथ तक छूने की कोशिश नहीं की. वह केवल प्यारीप्यारी बातें करता है. दिल ही दिल में मैं उसे प्यार करने लगी हूं. कुछ ऐसे ही भाव उस के भी मन में है. हम दोनों ने अभी तक इन्हें शब्दों का रूप नहीं दिया है. उस की आवश्यकता भी नहीं है. जब दो दिल खामोशी से एकदूसरे के मन की बात कह देते हैं तो मुंह खोलने की क्या जरूरत.

हमारे प्यार के बीच में नागेश रूपी महिषासुर न जाने कहां से आ गया. मुझे उसे झेलना ही है, जब तक इस दफ्तर में नौकरी करनी है. उस की हर ज्यादती मैं अनुराग से बता भी नहीं सकती. उस के दिल को चोट पहुंचेगी.

नागेश के कमरे से वापस आने पर मैं हमेशा अनुराग के सामने हंसती- मुसकराती रहती थी, जिस से उस को कोई शक न हो. यह तो मेरा दिल ही जानता था कि नागेश कितनी गंदीगंदी बातें मुझ से करता था.

अनुराग मुझ से पूछता भी था कि नागेश क्या बातें करता है? क्या काम करवाता है? परंतु मैं उसे इधरउधर की बातें बता कर संतुष्ट कर देती. वह फिर ज्यादा नहीं पूछता. मुझे लगता, अनुराग मेरी बातों से संतुष्ट तो नहीं है, पर वह किसी बात को तूल देने का आदी भी नहीं था.

अब धीरेधीरे मैं समझने लगी हूं कि 2 पुरुषों को संभाल पाना किसी नारी के लिए संभव नहीं है.

नागेश को मेरी भावनाओं या भलाई से कुछ लेनादेना नहीं. वह केवल अपना स्वार्थ देखता है. अपनी मानसिक संतुष्टि के लिए मुझे अपने सामने बिठा कर रखता है. मुझे उस की नीयत पर शक है. हठात एक दिन बोला, ‘‘मेरे घर चलोगी? पास में ही है. बहुत अच्छा सजा रखा है. कोई औरत भी इतना अच्छा घर नहीं सजा सकती. तुम देखोगी तो दंग रह जाओगी.’’ मैं वाकई दंग रह गई. उस का मुंह ताकती रही…क्या कह रहा है? उस की आंखों में वासना के लाल डोरे तैर रहे थे. मैं अंदर तक कांप गई. उस की बात का जवाब नहीं दिया.

‘‘बोलो, चलोगी न? मैं अकेला रहता हूं. कोई डरने वाली बात नहीं है,’’ वह अधिकारपूर्ण बोला.

मैं ने टालने के लिए कह दिया, ‘‘सर, कभी मौका आया तो चलूंगी.’’

वह एक मूर्ख दैत्य की तरह हंस पड़ा.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें