सुप्रीम कोर्ट ने लंबी बहस के बाद बड़े प्रवचननुमा वाक्यों से अपने निर्णय को सजाते हुए आखिर वही कह दिया जो देश की कट्टरपंथी सरकार चाहती है कि भारत में समलैंगिक विवाह संभव नहीं है और इस बारे में कदम संसद को ही उठाना पड़ेगा. केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपाई सरकार विवाह को संस्कार मानती है.

समलैंगिक जोड़े जानते हैं कि इस तरह का फैसला कभी भी संसद या विधानसभाओं में नहीं हो सकता क्योंकि वहां तो वे बैठे हैं जो समलैंगिक तो क्या, किसी भी तरह के विवाह की उम्र से गुजर चुके हैं और जो धर्म की दी गई व्याख्या से बाहर नहीं जा सकते.

हर धर्म ने प्राकृतिक सैक्स को अपने दायरे में ले लिया है. मानव सुबह से शाम तक बहुत सारी प्राकृतिक क्रियाएं करता है पर सैक्स संबंध ऐसा है जिस में दुनिया के हर धर्म ने अपनी टांग घुसा दी और उस के नियम बना कर जनता पर थोप दिए. राजा और शासकों ने इसे सहज स्वीकार कर लिया क्योंकि इस का युद्ध में बहुत फायदा होता है.

सैक्स को धर्म और शासन से जोड़ कर ही औरतों को सदियों से गुलाम बनाया जा सका है. शादी के बिना सैक्स करना औरतों के लिए अपराध जैसा घोषित कर दिया गया. बिना शादी के पैदा हुए बच्चे अवैध, बास्टर्ड, हरामी बन गए, औरतें बदचलन, रंडियां. लेकिन उन के साथ जिन पुरुषों ने संबंध बनाए, वे तो इस चर्चा में आते ही नहीं.

भारत की सुप्रीम कोर्ट जब समलैंगिक विवाहों के बारे में तर्क सुन रही थी तो उस के दिमाग में यही धारणा बैठी थी कि सदियों से धर्म ने जो विवाह की परंपरा बनाई है और जिसे शासकों ने लागू किया है, उसे ज्यादा डिस्टर्ब किया तो धर्म और शासकों के पत्तों के घर कहीं ढह न जाएं. एक आम व्यक्ति के अधिकारों को कुचलते हुए 5 जजों की पीठ ने कह डाला कि विवाह का अधिकार तो मौलिक अधिकार भी नहीं है और संसद जो चाहे कानून बना सकती है और स्त्रीस्त्री, पुरुषपुरुष विवाह को अगर कानूनी संरक्षण चाहिए तो उसे तराजूनुमा अदालत का नहीं, तिकोने त्रिशूलनुमा संसद का दरवाजा खटखटाना होगा.

जैसे राममंदिर के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने किया था, शब्दजाल में तो बड़ी बातें कही गईं पर जब आखिरी लाइन लिखनी थी तो याचिकाकर्ता को सरकार के हाथों सौंप दिया.

समलैंगिक विवाहों की अनुमति देने से अदालतों का कुछ ज्यादा जाता नहीं. यह पागलपन थोड़े से लोगों का फितूर है. जो चाहते हैं कि वे एक छत के नीचे रहते हैं, एक रजाई में सोते हैं तो उन को उन लोगों से अलग नहीं समझ जाए जो विधि समान विवाह कर के कहीं काम कर रहे हैं. उस बराबरी के हक से समाज का कुछ बिगड़ता नहीं. सरकार को कुछ हानि न होती. संसद की कानून बनाने की शक्ति कम न होती.

हां, धर्म को हानि होती. उसे एक और दरार अपने महल में दिखने लगती. लोग संस्कारविहीन विवाह करें पर जिन में संतान न हो, यह भला कैसे संभव है. हर विवाह पर हमेशा धर्म टैक्स लेता रहा है. कुछ जगह राजा भी लेता था जब वर वधू को पहली रात अपने बिस्तर में सोने को मजबूर करता था और उस पर धर्म की मोहर थी.

समलैंगिक विवाह जोड़ों को संयुक्त संपत्ति रखने, एक के मरने के बाद विरासत के सवालों को हल करने, बच्चे गोद लेने, अपनेअपने घरों से आई संपत्ति के निबटान, वैवाहिक जोड़ों को गिफ्ट देने के कानून आदि का निबटान कर सकते थे. सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है कि समलैंगिक साथ रह सकते हैं पर उन अलगअलग लकडि़यों की तरह जो नदियों या समुद्र में साथसाथ बह रही हैं पर वे मिल कर नाव नहीं बन सकतीं जिस में सवार हो कर जीवन सुखी, सफल व स्थिर हो सके. यह हमारी सुप्रीम कोर्ट का एक और सरकारी निर्णय है, बस.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...