विश्वगुरु की उपाधि आजकल मीडिया ने नरेंद्र मोदी पर चिपका दी है. बारीबारी से मिलने वाली जी-20 की अध्यक्षता पिछले साल नरेंद्र मोदी को इंडोनेशिया से जब से मिली थी, सरकार और सरकार व धर्म समर्थक मीडिया भारत के विश्वगुरु होने का ढोल बजा रहा है. हालांकि, 11 सितंबर को यह अध्यक्षता अब ब्राजील के लूला डी सिल्वा के हाथ चली गई.

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले भी देश कट्टरपंथी दशकों से कहते रहे हैं कि भारत तो हमेशा ही विश्वगुरु रहा है क्योंकि वेदों का ज्ञान तो भारत में ही हुआ था और इसी पर सारी दुनिया की सोच टिकी है. इन वेदपुराणों में अपनी प्रशंसा बारबार की गई है. उन के पढऩे वाले उस ‘ज्ञान’ को अद्भुत मानते ‘न भूतो न भविष्यति’ की अवधारणा के शिकार रहे हैं और उन्होंने अपनी वाकपटुता का इस्तेमाल इन ग्रंथों को मानव जाति के रहस्य का मूल मानते हुए खूब ढोल पीटा जिस से विश्व अभिभूत हुआ हो या नहीं, बहुसंख्य भारतीय तो हुए ही.

यह जानते हुए भी कि भारत दुनिया के सब से गरीब देशों में से है, सब से खराब सामाजिक भेदभाव वाला है, सब से ज्यादा अंधविश्वासी है, फिर भी भारतीय विचारक विदेश जा कर भारत के विश्वगुरु होने का ढिंढोरा पीटते रहते थे. चीनी, जापानी इस काम में पीछे रह गए क्योंकि उन्हें अपना ढोल बजाना नहीं आता. इसलामी देशों ने फिजिक्स, कैमिस्ट्री और ज्योग्राफी को बहुतकुछ दिया पर उन्हें ढोल बजाना नहीं, तलवारें चलाना आईं. उन तलवारों वालों से चिढ़े पश्चिमी देशों ने इसलामी स्कौलर्स की अवहेलना की.

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