Download App

केलिकुंचिका : भाग 1

दीनानाथजी बालकनी में बैठे चाय पी रहे थे. वे 5वीं मंजिल के अपने अपार्टमैंट में रोज शाम को इसी समय चाय पीते और नीचे बच्चों को खेलते देखा करते थे. उन की पत्नी भी अकसर उन के साथ बैठ कर चाय पिया करती थीं. पर अभी वे किचन में महरी से कुछ काम करा रही थीं. तभी बगल में स्टूल पर रखा उन का मोबाइल फोन बजा. उन्होंने देखा कि उन की बड़ी बेटी अमोलिका का फोन था. दीनानाथ बोले, ‘‘हां बेटा, बोलो, क्या हाल है?’’

अमोलिका बोली, ‘‘ठीक हूं पापा. आप कैसे हैं? मम्मी से बात करनी है.’’

‘‘मैं ठीक हूं बेटा. एक मिनट होल्ड करना, मम्मी को बुलाता हूं,’’ कह कर उन्होंने पत्नी को बुलाया.

उन की पत्नी बोलीं, ‘‘अमोल बेटा, कैसी तबीयत है तेरी? अभी तो डिलीवरी में एक महीना बाकी है न?’’

‘‘वह तो है, पर डाक्टर ने कहा है कि कुछ कौंप्लिकेशन है, बैडरैस्ट करना है. तुम तो जानती हो जतिन ने लवमैरिज की है मुझ से अपने मातापिता की मरजी के खिलाफ. ससुराल से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिलने वाली है. तुम 2-3 महीने के लिए यहां आ जातीं, तो बड़ा सहारा मिलता.’’

‘‘मैं समझ सकती हूं बेटा, पर तेरे पापा दिल के मरीज हैं. एक हार्टअटैक झेल चुके हैं. ऐसे में उन्हें अकेला छोड़ना ठीक नहीं होगा.’’

‘‘तो तुम दुर्गा को भेज सकती हो न? उस के फाइनल एग्जाम्स भी हो चुके हैं.’’

‘‘ठीक है. मैं उस से पूछ कर तुम्हें फोन करती हूं. अभी वह घर पर नहीं है.’’

दुर्गा अमोलिका की छोटी बहन थी. वह संस्कृत में एमए कर रही थी. अमोलिका की शादी एक माइनिंग इंजीनियर जतिन से हुई थी. उस की पोस्टिंग झारखंड और ओडिशा के बौर्डर पर मेघाताबुरू में एक लोहे की खदान में थी. वह खदान जंगल और पहाड़ों के बीच में थी, हालांकि वहां सारी सुविधाएं थीं. बड़ा सा बंगला, नौकरचाकर, जीप आदि. कंपनी का एक अस्पताल भी था जहां सभी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध थीं. फिर भी अमोलिका को बैडरैस्ट के चलते कोई अपना, जो चौबीसों घंटे उस के साथ रहे, चाहिए था. अमोलिका के मातापिता ने छोटी बेटी दुर्गा से इस बारे में बात की. दुर्गा बोली कि ऐसे में दीदी का अकेले रहना ठीक नहीं है. वह अमोलिका के यहां जाने को तैयार हो गई. उस के जीजा जतिन खुद आ कर उसे मेघाताबुरू ले गए.

दुर्गा के वहां पहुंचने के 2 हफ्ते बाद ही अमोलिका को पेट दर्द हुआ. उसे अस्पताल ले जाया गया. डाक्टर ने उसे भरती होने की सलाह दी और कहा कि किसी भी समय डिलीवरी हो सकती है. अमोलिका ने भरती होने के तीसरे दिन एक बेटे को जन्म दिया. पर बेटे को जौंडिस हो गया था, डाक्टर ने बच्चे को एक सप्ताह तक अस्पताल में रखने की सलाह दी. जतिन और दुर्गा प्रतिदिन विजिटिंग आवर्स में अस्पताल आते और खानेपीने का सामान दे जाते थे. एक दिन जतिन ने जीप को कुछ जरूरी सामान, दवा आदि लेने के लिए शहर भेज दिया था. दुर्गा मोटरसाइकिल पर ही उस के साथ अस्पताल आई थी. उस दिन मौसम खराब था. अस्पताल से लौटते समय बारिश होने लगी. दोनों बुरी तरह भीग गए थे. दुर्गा मोटरसाइकिल से उतर कर गेट का ताला खोल रही थी. उस के गीले कपड़े उस के बदन से चिपके हुए थे जिस के चलते उस के अंगों की रेखाएं स्पष्ट झलक रही थीं. जतिन के मन में तरंगें उठने लगी थीं.

ताला खुलने पर दोनों अंदर गए. बिजली गुल थी. दुर्गा सीधे बाथरूम में गीले कपड़े बदलने चली गई. इस बात से अनजान जतिन तौलिया लेने के लिए बाथरूम में गया. वह रैक पर से तौलिया उठाना चाहता था. दुर्गा साड़ी खोल कर पेटीकोट व ब्लाउज में थी. उस ने नहाने की सोच कर हैंडशावर हाथ में ले रखा था. उस ने दरवाजा थोड़ा खुला छोड़ दिया था ताकि कुछ रोशनी अंदर आ सके. अचानक किसी की उपस्थिति महसूस होने पर उस ने पूछा, ‘‘अरे आप, जीजू, अभी क्यों आए? निकलिए, मैं बंद कर लेती हूं.’’ इतना कह कर उस ने खेलखेल में हैंडशावर से जतिन को गीला कर दिया. जतिन बोलता रहा, ‘‘यह क्या कर रही हो? मुझे पता नहीं था कि तुम अंदर हो़’’

‘‘मुझे भी पता नहीं, अंधेरे में पानी किधर जा रहा है,’’ और वह हंसने लगी. ‘‘रुको, मैं बताता हूं पानी किधर छोड़ा है तुम ने. यह रहा मैं और यह रही तुम,’’ इतना बोल कर जतिन ने उसे बांहों में भर लिया. दुर्गा को भी लगा कि उस का गीला बदन तप रहा है.

‘‘क्या कर रहे हैं आप? छोडि़ए मुझे.’’

 

‘‘अभी कहां कुछ किया है मैं ने?’’

दुर्गा को अपने भुजबंधन में लिए हुए ही एक चुंबन उस के होंठों पर जड़ दिया जतिन ने. इस के बाद तपिश खत्म होने पर ही अलग हुए वे दोनों. दुर्गा बोली, ‘‘जो भी हुआ, वह हरगिज नहीं होना चाहिए था. क्षणिक आवेश में आ कर हम दोनों ने अपनी सीमाएं तोड़ डालीं. जरा सोचिए, दीदी को जब कभी यह बात मालूम होगी तो उस पर क्या गुजरेगी.’’

जतिन बोला, ‘‘अब जाने दो, जो हुआ सो हुआ. उसे बदला तो नहीं जा सकता. ठीक तो मैं भी नहीं समझता हूं, पर बेहतर होगा अमोलिका को इस बारे में कुछ भी पता न चले.’’

इस घटना के एक सप्ताह बाद अमोलिका भी अस्पताल से घर आई. उस का बेटा बंटी ठीक हो गया था. घर में सभी खुश थे. दुर्गा भी मौसी बन कर प्रसन्न थी. वह अपनी दीदी और भतीजे की देखभाल अच्छी तरह कर रही थी. जतिन ने शानदार पार्टी दी थी. अमोलिका के मातापिता भी आए थे. एक सप्ताह रह कर वे लौट गए. लगभग 2 महीने तक सबकुछ सामान्य रहा. दुर्गा की तबीयत ठीक नहीं रह रही थी. अमोलिका ने जतिन से कहा, ‘‘इसे थोड़ा डाक्टर को दिखा लाओ.’’

दुर्गा को अपने अंदर कुछ बदलाव महसूस होने लगा था. पीरियड मिस होने से वह अंदर से डरी हुई थी. जतिन दुर्गा को ले कर अस्पताल गया. वहां लेडी डाक्टर ने चैक कर कहा कि घबराने की कोई बात नहीं है, सबकुछ नौर्मल है. दुर्गा मां बनने वाली है. जतिन और दुर्गा एकदूसरे को आश्चर्य से देख रहे थे. पर डाक्टर के सामने बनावटी मुसकराहट दिखाते रहे ताकि डाक्टर को सबकुछ नौर्मल लगे.

अपनी अपनी नजर : भाग 1

अभी थोड़ी देर पहले मेरी बेटी सुरभि जो बात मुझे सुना कर गई वह मैं कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी. वह तो कह कर जा चुकी थी, लेकिन उस के शब्दों की मार मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी, ‘‘सारी गलती आप की है मम्मी, आप ही इन बातों की जिम्मेदार हैं,’’ और उस की आखिरी कही बातें तो मुझे अंदर तक तोड़ गई थीं, ‘‘आप लाइफ में बैलेंस नहीं रख सकीं, मम्मी.’’

सालों पहले का दृश्य मेरी आंखों के सामने किसी फिल्म के दृश्य की तरह घूम गया. मेरे पापा डा. सुमित बंसल के अस्पताल की गिनती शहर के बड़े अस्पतालों में होती थी. वह आर्थिक और सामाजिक स्तर पर जितने सफल थे, उन का वैवाहिक जीवन मुझे उतना ही असफल लगता था. सुनंदा के नाम से मैं डा. सुमित की इकलौती बेटी थी. बचपन से मातापिता के बीच लड़ाई- झगड़ा देखते रहने के बावजूद मैं कभी यह नहीं समझ पाई कि उन दोनों में गलत कौन था. मम्मी को पापा से एक ही शिकायत थी कि वह घर को समय नहीं देते और उन की यह शिकायत बिलकुल सही थी. तब मेरी समझ में यह नहीं आता था कि आखिर पापा इतने व्यस्त क्यों रहते हैं? आखिर सारी दुनिया के पुरुष काम करते हैं पर वे तो इतने व्यस्त नहीं रहते. पापा के पास किसी फंक्शन पार्टी में जाने का समय नहीं होता था. वह हम दोनों मांबेटी को साथ जाने के लिए कहते लेकिन मम्मी उन के साथ जाने पर अड़ जातीं और जाने का कार्यक्रम कैंसिल हो जाता. मम्मी के आंसू बहने शुरू हो जाते तो पापा चिढ़ कर वहां से उठ जाते. एकदूसरे की बातें सुनना और समझना तो दूर उन दोनों को अपनी बात कहने का ढंग भी नहीं था.

दोनों की जिद में मैं दोनों की तरफ से पिस जाती थी. धीरेधीरे मैं मम्मीपापा से दूर होती जा रही थी. पापा के पास मेरे लिए समय नहीं था मगर मैं मम्मी से भी दूर होती जा रही थी जबकि ऐसी स्थितियों मेें बेटी आमतौर पर मां की दोस्त बन जाती है. मैं ने भी थोड़ीबहुत कोशिश की थी मम्मी को समझाने की, ‘मम्मी, सब जानते हैं कि पापा बहुत व्यस्त हैं लेकिन अगर वह नहीं जा सकते तो इस का यह मतलब नहीं है कि हम भी कहीं न जाएं.’

मम्मी भड़क जातीं, ‘हां, हां, पूरा देश तुम्हारे पापा के कंधों पर ही तो खड़ा है. आखिर सारी दुनिया के पुरुष काम करते हैं, कोई तेरे पापा अकेले तो हैं नहीं. बात इतनी सी है कि उन की नजर में मेरा कोई महत्त्व नहीं है. वैसे भी घर में मेहमान की तरह आते हैं.’ मैं समझ नहीं पा रही थी कि मम्मी हर बात को नेगेटिव तरह से क्यों देखती हैं. पापा के व्यवसाय को देखते हुए उन की मजबूरियों को क्यों नहीं समझतीं. मैं मम्मी के पास बैठी उन्हीं के खिलाफ सोचती रहती. ऐसा नहीं था कि मैं पापा को सही समझती थी. मुझे खुद यही लगता था कि पापा को घर में कोई रुचि नहीं और न ही उन्हें मेरे और मम्मी के होने या न होने से कोई फर्क पड़ता है लेकिन समय के साथसाथ मुझे ऐसा लगने लगा था कि पापा के उस ठंडे व्यवहार का कारण मम्मी का अपना ही व्यवहार है.

जीवन रुटीन पर चल रहा था. मेरा बी.काम. पूरा होने वाला था. उन्हीं दिनों देश के कई भागों में आए भूकंप ने पूरे देश को थर्रा दिया था. टेलीविजन पर लोगों से रक्तदान की अपील की जा रही थी. पापा के अस्पताल में रक्तदान का काम चल रहा था. मैं भी अचानक पहुंच गई. पापा मुझे देख कर हैरान रह गए. बस, इतना ही बोले, ‘तुम यहां कैसे?’ मेरे कुछ कहने से पहले ही वहां जूनियर डाक्टरों का एक गु्रप आया और पापा उन से बातें करने में व्यस्त हो गए और मैं कोने में खड़ी थी. मैं ने पलट कर देखा तो पाया कि पापा लोगों की भीड़ में झुंझलाए हुए खड़े थे. मैं सोचने लगी कि एक तो पापा पर इतना काम का बोझ है ऊपर से काम करने के बजाय लोग उन का समय खराब कर रहे हैं. ऐसे में पापा का दिमागी तनाव आसमान से बातें करने लगता होगा.

मैं बेखयाली में पापा की तरफ बढ़ी तो उन की नजर भी मुझ पर पड़ी और उन्होंने किसी को आवाज दे कर कहा, ‘अरे, समीर, यह मेरी बेटी सुनंदा है और सुनंदा, यह डाक्टर समीर हैं,’ इस छोटे से परिचय के साथ उन्होंने मुझे रक्तदान के लिए डा. समीर के साथ भेज दिया.

प्यार का तीन पहिया : भाग 1

‘‘जी मैडम, कहिए कहां चलना है?’’

‘‘कनाट प्लेस. कितने रुपए लोगे?’’

‘‘हम मीटर से चलते हैं मैडम. हम उन आटो वालों में से नहीं हैं जिन की नजरें सवारियों की जेबों पर होती हैं. जितने वाजिब होंगे, बस उतने ही लेंगे.’’

मैं आटो में बैठ गई. आटो वाला अपनी बकबक जारी रखे हुए था, ‘‘मैडम, दुनिया देखी है हम ने. बचपन का समय बहुत गरीबी में कटा है, पर कभी किसी सवारी से 1 रुपया भी ज्यादा नहीं लिया. आज देखो, हमारे पास अपना घर है, अपना आटो है.’’

‘‘आटो अपना है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘बिलकुल मैडम, किस्तों पर लिया था. साल भर में सारी किस्तें चुका दीं. अब जल्द ही टैक्सी लेने वाला हूं.’’

‘‘इतने रुपए कहां से आए तुम्हारे पास?’’

‘‘ईमानदारी की कमाई के हैं, मैडमजी. दरअसल, हम सिर्फ आटो ही नहीं चलाते विदेशी सैलानियों को भारत दर्शन भी कराते हैं. यह देखो, हर वक्त हमारे आटो में दिल्ली के 3-4 मैप तो रखे ही होते हैं. विदेशी सैलानी एक बार हमारे आटो में बैठते हैं, तो शाम से पहले नहीं छोड़ते. मैं सारी दिल्ली दिखा कर ही रुखसत करता हूं उन्हें. इस से मन तो खुश होता ही है, अच्छीखासी कमाई भी हो जाती है. कुछ तो 10-20 डौलर अतिरिक्त भी दे जाते हैं. लो मैडम, आ गई आप की मंजिल. पूरे 42 रुपए, 65 पैसे बनते हैं.’’

‘‘50  रुपए का नोट है मेरे पास. बाकी लौटा दो,’’ मैं ने कहा.

‘‘मैडम चेंज नहीं है हमारे पास? आप देखो अपने पर्स में.’’

‘‘नहीं है मेरे पास. बाकी 500-500 के नोट ही हैं.’’

‘‘तो फिर छोड़ो न मैडमजी, बाद में कभी बैठ जाना. तब हिसाब कर लेंगे और वैसे भी इतना तो चलता ही है,’’ वह बोला.

‘‘ऐसे कैसे चलता है? पैसे वापस करो.’’

‘‘क्या मैडम, 5-6 रुपयों के लिए इतनी चिकचिक? 5-6 रुपए छोड़ने पर कौन सा आप गरीब हो जाओगी?’’

‘‘बात रुपयों की नहीं, नीयत की है.’’

‘‘क्या बात करती हो मैडम? कोई और आटो वाला होता तो 60-70 रुपए से कम में बैठाता ही नहीं.’’

‘‘हद करते हो,’’ कह कर मैं गुस्से में आटो से उतर गई और वह खीखी कर हंसता रहा.

औफिस आ कर भी काफी देर तक मेरा मूड अजीब सा रहा. क्या करूं? औफिस आते वक्त हड़बड़ी में आटो लेना ही पड़ता है पर इस तरह का कोई अनुभव हो जाए तो सारा दिन ही खराब हो जाता है.

शाम को जब मैं औफिस से निकली तो काफी थक चुकी थी. तबीयत भी ठीक नहीं थी. चलने का बिलकुल मन नहीं कर रहा था. मैट्रो स्टेशन औफिस से दूर है, इसलिए आटो ही देखने लगी. पास ही एक खाली आटो वाला दिखा. मैं ने जल्दी से उसे हाथ दिया. पर यह क्या, सामने वही आटो वाला था, जिस ने सुबह मेरा दिमाग खराब किया था.

मजबूरी थी, इसलिए मैं ने उसे चलने को कहा तो वह रूखे अंदाज में बोला, ‘‘मुझे नहीं जाना मैडम. आप दूसरा आटो देख लो.’’

मेरा मन किया कि उस का सिर फोड़ दूं. पर किसी तरह खुद पर कंट्रोल कर मैट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ चली.

तभी उस की तेज, भद्दी आवाज सुनाई दी, ‘‘ओ वसुधाजी, अरे ओ वसुधाजी, आओ बैठो, मैं आप को छोड़ दूं.’’

मेरा मन गुस्से से जल उठा कि मैं ने कहा तो साफ इनकार कर गया और अब किसी लड़की को आवाजें लगा रहा है. फिर मैं ने पलट कर देखा तो पाया कि वह आटो ले कर जिस लड़की की तरफ बढ़ रहा है, वह वसुधा थी, जो एक पैर से अपाहिज थी और धीरेधीरे मैट्रो की तरफ बढ़ रही थी. वसुधा और मेरा परिचय मैट्रो में ही हुआ था. वह आटो वाले को इनकार करते हुए मेरे साथ मैट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ चली.

लगभग साल भर में हम कई बार मिले थे. वह बहुत बतियाती थी और घरबाहर की बहुत बातें हम लोग शेयर कर चुके थे. अपाहिज होने के बावजूद उस में गजब का आत्मविश्वास था. वह जौब करती थी और दिल्ली में अपनी बूआ के साथ अकेली रहती थी. सीपी में उस का औफिस और घर करोलबाग में था, जहां मैं भी रहती थी. सफर में ही हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी.

अगले दिन हम दोनों औफिस से एक ही वक्त पर निकले. वह आटो वाला लपक कर आगे बढ़ा और हमारे करीब आटो रोकते हुए बोला, ‘‘वसुधाजी, बैठिए न… छोड़ दूंगा आप को.’’

वसुधा ने नकारात्मक मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘नहीं. तुम जाओ, मैं चली जाऊंगी.’’

आटो वाला अड़ा रहा, ‘‘आप ऐसा क्यों कह रही हैं? मैं इतना बुरा इंसान नहीं. बैठ जाओ, घर तक सलामत पहुंचा दूंगा.’’

वसुधा ने प्रश्नवाचक नजरों से मेरी तरफ देखा. मैं समझ नहीं सकी कि आखिर माजरा क्या है? फिर बोली, ‘‘चलो बैठ जाते हैं प्रीति. वैसे भी देर हो रही है.’’

मैं ने इनकार किया, ‘‘तू बैठ, मैं किसी और में चली जाऊंगी.’’

‘‘तो फिर मैं तेरे साथ ही चलती हूं,’’ और वह मेरे साथ हो ली.

तभी आटो वाला मुझ से बड़ी नम्रता से बोला, ‘‘बहनजी, प्लीज आप भी बैठ जाओ, वसुधाजी तभी बैठेंगी. किराया भी जितना मन करे दे देना. न भी दोगी तो भी चलेगा,’’ और फिर मेरी तरफ मुसकरा कर देखा.

उस की मुसकान मुझे व्यंग्यात्मक नहीं, सहज सरल लगी अत: मैं आटो में बैठ गई. रास्ते भर तीनों खामोश रहे. मैं सोच रही थी, आज इस की बकबक कहां गई. उस ने सीधे वसुधा के घर के आगे आटो रोका.

सिसकता इश्क़ : भाग 1

जब से रशिका की मुलाकात हनीफ से हुई है उस के दिल में एक अजीब सी हलचल मची हुई है. हनीफ की शख्सियत रशिका के अंदर क‌ई सवाल खड़े कर रही है. औफिस में लोगों के बीच होती कानाफूसी रशिका को और अधिक विचलित कर देती है. कोई कहता है कि अरे, इन के तो खून में ही बेवफाई होती है, तो कोई कहता, इन लोगों को तो दूसरों की भावनाओं संग खेलने और फिर उसे पूरी तरह से तबाह कर छोड़ देने की बचपन से तालीम दी जाती है. जिहाद…जिहाद…जिहाद कहकह कर इन्हें जिहादी बना दिया जाता है.

रशिका के कानों पर जब भी ये बातें पड़तीं, वह तिलमिला उठती. लेकिन कहती किसी से कुछ नहीं. उसे अभी इस औफिस में जौइन किए हुए केवल एक ही महीना हुआ था. लेकिन इस एक ही महीने में उस ने इतनी दफे हनीफ के बारे में गलत सुन लिया था कि उस के लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो गया था कि वह जो सुन रही है उस पर यकीन करे या फिर जो देख रही है उस पर.

बचपन से रशिका यह सुनती आई है कि जो दिखता है वह हमेशा सच नहीं होता है. इस के अलावा उसे अपने परिवार द्वारा यह सबक भी कंठस्थ करा दिया गया है कि हनीफ जैसों को क़ौम के लोगों से दूर ही रहना चाहिए क्योंकि ये किसी के भी सगे नहीं होते. इसलिए तो उस ने अपनी सब से अच्छी व प्यारी सखी गजाला की दोस्ती पर दाग लगा दिया था. आज भी उस के स्मृतिपटल पर अंकित है वह वाकेआ जो उस के दिल में दास्तां ए दर्द बन कर दफन है और जिसे वह अब तक कभी भुला नहीं पाई. आज भी उसे ऐसा लगता है जैसे उस के अपने ही दकियानूसी सोच और परिवार वालों के दबाव की वजह से उस ने अपनी अभिन्न सहेली और शुभचिंतक गजाला को खो दिया है.

इस एक महीने में बमुश्किल रशिका का हनीफ से केवल 2 दफे ही आमनासामना हुआ था. लेकिन दोनों ही बार जब भी उस की मुलाकात हनीफ से हुई, उस के कुशल व्यवहार ने रशिका को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि औफिस के लोग जो हनीफ के पीठपीछे कहते हैं उस में कोई सचाई है भी या नहीं. जब वह पहली बार इंदौर से यहां हैदराबाद आई तो औफिस गेट पर उस की पहली मुलाकात हनीफ से ही हुई थी और हनीफ ने इतनी शालीनतापूर्वक रशिका को एचआर डिपार्टमैंट का रास्ता बताया था कि एक पल के लिए रशिका की निगाह हनीफ पर थम गई थी.

दूसरी बार जब रशिका को औफिस एकोमोडेशन के लिए औनलाइन फार्म भरना था और जिस के लिए उसे अपनी ही औफिस बिल्डिंग के तीसरे फ्लोर पर एडमिनिस्ट्रेटिव औफिस जाना पड़ा, वहां उस का हनीफ से मिलना हुआ और एक बार फिर हनीफ से मिल कर उसे हनीफ सज्जन, सभ्य और दूसरों की मदद करने वाला व्यक्ति ही लगा.

औफिस जौइन करने के बाद से ही रशिका के कानों में पड़ती हनीफ के विरुद्ध क‌ई गलत बातें सुनने की वजह से रशिका ने उस दिन हनीफ को देख कर भी अनदेखा कर दिया था लेकिन हनीफ ने सामने से आ कर उस का फौर्म भरने से ले कर उसे सबमिट करने तक में उस की मदद की. रशिका का दिल इन एकदो मुलाकातों में ही हनीफ का होने लगा था. लेकिन रशिका दुविधा में थी कि वह कैसे उस इंसान से प्यार कर सकती है जो उस की जाति तो दूर, उस के धर्म का भी नहीं है और जो अपनी पहली पत्नी को तलाक दे चुका है. वह भी उस पत्नी को जिस से उस ने प्रेमविवाह किया था और उन का एक बेटा भी है.

रशिका खुद को समझाने लगी और उस ने हनीफ से एक दूरी बना ली ताकि कभी गलती से भी उस का हाल ए दिल हनीफ के समाने उस की नज़रों से बयां न हो जाए. इस बीच कंपनी की ओर से एक ग्रुप प्रोजैक्ट में रशिका, हनीफ और उन के साथ औफिस के 3 और स्टाफ को 15 दिनों के लिए बैंगलुरु जाने का और्डर हुआ.

अम्मा : भाग 1

आफिस से फोन कर अजय ने नीरा को बताया कि मैं  आनंदधाम जा रहा हूं, तो उस के मन में विचारों की बाढ़ सी आ गई. आनंदधाम यानी वृद्धाश्रम. शहर के एक कोने में स्थित है यह आश्रम. यहां ऐसे बेसहारा, लाचार वृद्धों को शरण मिलती है जिन की देखभाल करने वाला अपना इस संसार में कोई नहीं होता. रोजमर्रा की सारी सुविधाएं यहां प्रदान तो की जाती हैं पर बदले में मोटी रकम भी वसूली जाती है.

बिना किसी पूर्व सूचना के क्यों जा रहा है अजय आनंदधाम? जरूर कोई गंभीर बात होगी.

यह सोच कर नीरा कार में बैठी और अजय के दफ्तर पहुंच गई. उस ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, सब खैरियत तो है?’’

‘‘नीरा, अम्मां, पिछले 1 साल से आनंदधाम में रह रही हैं. आश्रम से महंतजी का फोन आया था. गुसलखाने में फिसल कर गिर पड़ी हैं.’’

अजय की आवाज के भारीपन से ही नीरा ने अंदाजा लगा लिया था कि अम्मां के अलगाव से मन में दबीढकी भावनाएं इस पल जीवंत हो उठी हैं.

‘‘हम चलते हैं, अजय. सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘अच्छा होगा मां को यदि किसी विशेषज्ञ को दिखाएं.’’

‘‘ठीक है, रुपए बैंक से निकलवा कर चलते हैं. पता नहीं कब कितने की जरूरत पड़ जाए,’’ सांत्वना के स्वर में नीरा ने कहा तो अजय को तसल्ली हुई.

‘‘मैं तो इस घटना को सुनने के बाद इतना परेशान हो गया था कि रुपयों का मुझे खयाल ही नहीं आया. प्राइवेट अस्पताल में रुपए की तो जरूरत पड़ेगी ही.’’

कुछ ही समय में नीरा रुपए ले कर आ गई. कार स्टार्ट करते ही पत्नी की बगल में बैठे अजय की यादों में 1 साल पहले का वह दृश्य सजीव हो उठा जब तिर्यक कुटिल दृष्टि से नीरा ने अम्मां को इतना अपमानित किया था कि वह चुपचाप अपना सामान बांध कर घर से चली गई थीं.

जातेजाते भी अम्मां की तीक्ष्ण दृष्टि नीरा पर टिक गई थी.

‘अजय, मेरी जिंदगी बची ही कितनी  है? मेरे लिए तू अपनी गृहस्थी में दरार मत डाल,’ अम्मां की गंभीर आवाज और अभिजात दर्पमंडित व्यक्तित्व की छाप वह आज तक अपने मानसपटल से कहां मिटा पाया था.

‘जाना तो अम्मां सभी को है… और रही दरार की बात, तो वह तो कब की पड़ चुकी है. अब कहीं वह दरार खाई में न बदल जाए. यह सोच लीजिए,’ अम्मां के सधे हुए आग्रह को तिरस्कार की पैनी धार से काटती हुई नीरा बोली. वह तो इसी इंतजार में बैठी थी कि कब अम्मां घर छोडे़ं और उसे संपूर्ण सफलता हासिल हो.

कहीं अजय की भावुकता अम्मां के पैरों में पुत्र प्रेम की बेडि़यां डाल कर उन्हें रोक न ले, इस बात का डर था नीरा को इसलिए भी वह और अधिक तल्ख हो गई थी.

अगले ही दिन अजय ने फोन पर कुटिल हंसी की खनक में डूबी और बुलंद आवाज की गहराई में उभरते दंभ की झलक के साथ नीरा को किसी से बात करते सुना:

‘जिंदगी भर अब पास न फटकने देने का इंतजाम कर लिया है. कुशलक्षेम पूछना तो दूर, अजय श्राद्ध तक नहीं करेगा अम्मां का.’

उस दिन पत्नी के शब्दों ने अजय को झकझोर कर रख दिया था. समझ ही नहीं पाया कि यह क्या हो गया. पर जब आंखों से परदा हटा तो उस ने निर्णय लिया कि किसी भी हाल में अम्मां को जाने नहीं देगा. रोया, गिड़गिड़ाया, हाथ जोडे़, पैर छुए, पर अम्मां रुकी नहीं थीं. दयनीय बनना उन की फितरत में नहीं था. स्वाभिमानी शुरू से ही थीं.

अम्मां के जाने के बाद उन के तकिए के नीचे से एक लिफाफा मिला था. लिखा था, ‘इनसान क्यों अपनेआप को परिवार की माला में पिरोता है? इसीलिए न कि परिवार का हर संबंधी एकदूसरे के लिए सुखदुख का साथी बने. लेकिन जब वक्त और रिश्तों के खिंचाव से परिवार की डोर टूटने लगे तो अकेले मोती की तरह इधरउधर डोलने या अपने इर्दगिर्द बने सन्नाटे में दुबक जाने के बजाय वहां से हट जाना बेहतर होता है.

‘हमेशा के लिए नहीं, कुछ समय के लिए ही जा रही हूं पर यह समय, कुछ दिन, कुछ महीने या फिर कुछ सालों का भी हो सकता है. दिल से दिल के तार जुड़े होते हैं और ये तार जब झंकृत होते हैं तो पता चल जाता है कि हमें किसी ने याद किया है. जिस पल हमें ऐसा महसूस होगा, हम जरूर मिलेंगे, अम्मां.’

तेज बारिश हो रही थी. गाड़ी से बाहर देखने की कोशिश में अजय ने अपना चेहरा खिड़की के शीशे से सटा दिया. बाहर खिड़की के कांच पर गिर रही एकएक बूंद धीरेधीरे एकसाथ मिल कर पूरे कांच को ढक देती थी. जरा सा कांच पोंछने पर अजय को हर बार एक चेहरा दिखाई देता था. ढेर सारा वात्सल्य समेटे, झुर्रियों भरा वह चेहरा, जिस ने उसे प्यार दिया, 9 माह अपनी कोख में रखा, अपने रक्तमांस से सींचा, आंचल की छांव दी. उस का स्वास्थ्य, उस की पढ़ाई, उस की खुशी, अम्मां की पूरी दुनिया ही अजय के इर्दगिर्द सिमटी थी.

जिन प्रतिकूल परिस्थितियों में नीरा और अजय विवाह सूत्र में बंधे थे उन हालात में नीरा को परिवार का अंश बनने के लिए अम्मां को न जाने कितना संघर्ष करना पड़ा था.

लाखों रुपए के दहेज का प्रस्ताव ले कर, कई संपन्न परिवारों से अजय के लिए रिश्ते आए थे, पर अम्मां ने बेटे की पसंद को ही सर्वोपरि माना. अम्मां यही दोहराती रहीं कि गरीब घर की लड़की अधिक संवेदनशील होगी. घर का वातावरण सुखमय बनाएगी, अच्छी पत्नी और सुघड़ बहू साबित होगी.

पासपड़ोस के अनुभवों, किस्से- कहानियों को सुन कर अजय ने यही निष्कर्ष निकाला था कि बहू के आते ही घर का वातावरण बदल जाता है. अजय का मन किसी अज्ञात आशंका से घिरा है, अम्मां यह समझ गई थीं. बड़ी ही समझदारी से उन्होंने अजय को समझाया था :

‘बेटा, लोग हमेशा बहुओं को ही दोषी ठहराते हैं, पर मेरी समझ में ऐसा होता नहीं है. घर में जब भी कोई नया सामान आता है तो पुराने सामान को हटना ही पड़ता है. नया पत्ता तभी शाख पर लगता है जब पुराना उखड़ता है. जब भी किसी पौधे को एक जगह से उखाड़ कर दूसरी जगह आरोपित किया जाता है तो वह तभी पुष्पित, पल्लवित होता है जब उसे पर्याप्त मात्रा में खादपानी मिलता है. सामंजस्य, समझौता, समर्पण, दोनों ही पक्षों की तरफ से होना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता, तो परिवार बिखरता है.’

अजय आश्वस्त हो गया. अम्मां ने नीरा को प्यार और अपनत्व से और नीरा ने उन्हें सम्मान और कर्तव्यनिष्ठा से अपना लिया. बहू में उन की आत्मा बसती थी. उसे सजतेसंवरते देख अम्मां मुग्धभाव से हिलोरें लेतीं. नीरा की कमियों को कोई गिनवाता तो चट से मोर्चा संभाल लेतीं.

‘मेरी अपर्णा को ही क्या आता था. पर धीरेधीरे जिम्मेदारियों के बोझ तले, सबकुछ सीखती चली गई.’

1 वर्ष बीततेबीतते अजय जुड़वां बेटों का बाप बन गया. अम्मां के चेहरे पर भारी संतोष की आभा झलक उठी. इसी दिन के लिए ही तो वह जैसे जी रही थीं. अस्पताल के कौरीडोर में नर्सों, डाक्टरों से बातचीत करतीं अम्मां को देख कर कौन कह सकता था कि वह घर से बाहर कभी निकली ही नहीं.

लवकुश नाम रखा उन्होंने अपने पोतों का. 40 दिन तक उन्होंने नीरा को बिस्तर से उठने नहीं दिया. अपर्णा को भी बुलवा भेजा. ननदभौजाई गप्पें मारतीं, अम्मां चौका संभालतीं.

‘अब तो महीना होने को आया. मेरी सास तो 21 दिन बाद ही घर की बागडोर मुझे संभालने को कह कर खुद आराम करती हैं,’ अम्मां की भागदौड़ से परेशान अपर्णा ने कहा तो अम्मां ने बुरा सा मुंह बनाया.

‘तेरी ससुराल में होता होगा. थोड़ा-बहुत काम करने से शरीर में जंग नहीं लगता.’

‘थोड़ाबहुत?’ अपर्णा ने आश्चर्य मिश्रित स्वर में पूछा था.

‘संयुक्त परिवार की यही  तो परिभाषा है. जरूरत पड़ने पर एकदूसरे के काम आओ. कच्चा शरीर है. कहीं कुछ ऊंचनीच हो गई तो जिंदगी भर का रोना.’

सवा महीना बीत गया. अपर्णा अपनी ससुराल लौट रही थी. अम्मांबाबूजी हमेशा भरपूर नेग देते थे. और इस बार तो लवकुश भी आ गए थे. अपर्णा ने मनुहार की. ‘2 दिन बाद तो मैं चली जाऊंगी. अम्मां, एक बार बाजार तो मेरे साथ चलो.’

‘ऐसा कर, अजय दफ्तर के लिए निकले तो दोनों ननदभावज उस के साथ ही निकल जाओ. जो जी चाहे, खरीद लो. पेमेंट बाबूजी कर देंगे.’

‘आप के साथ जाने का मन है, अम्मां. एक दिन भाभी संभाल लेंगी,’ अपर्णा ने मचल कर कहा तो अम्मां की आंखें नम हो आई थीं.

‘फिर कभी सही. तेरे जाने की तैयारी भी तो करनी है.’

अपर्णा समझ गई थी कि बेटी के रिक्त स्थान ने अपनी जगह शून्य तो बनाया हुआ है, पर बाबूजी और अम्मां, बहू के नाज की डोलियां भी बड़े लाड़ से उठा रहे हैं.

बाबूजी की मृत्यु के बाद बहुत कुछ बदल गया. उन 13 दिनों में ही अम्मां बेहद थकीथकी सी रहने लगी थीं. नीरा और अजय अम्मां का बेहद ध्यान रख रहे थे पर आनेजाने वाले लंबी सांस भर कर, अम्मां को चेतावनी जरूर दे जाते थे.

‘पति के जाने के बाद पत्नी का सबकुछ छिन जाता है. अधिकार, आधिपत्य सबकुछ,’ दूसरी, पहली के सुर में सुर मिला कर सर्द आह भरती.

जितने मुंह उतनी बातें. ऐसी नकारात्मक सोच से कहीं उन के हंसतेखेलते परिवार का वातावरण दूषित न हो जाए, अम्मां ने 4 दिनों में ही बाबूजी का उठाला कर दिया.

लोगों ने आलोचना में कहा, ‘बड़ी माडर्न हो गई है लीलावती,’ पर अम्मां तो अम्मां ठहरीं. अपने परिवार की खुशियों के लिए रूढि़यों और परंपराओं का त्याग, सहर्ष ही करती चली गईं.

लोगों की आवाजाही बंद हुई तो दिनचर्या पुराने ढर्रे पर लौट आई. अम्मां हर समय इसी  कोशिश में रहतीं कि घर का वातावरण दूषित न हो. उसी तरह बच्चों के साथ हंसतीखेलतीं, घर का कामकाज भी करतीं लेकिन 9 बजे के बाद वह जग नहीं पाती थीं और कमरे का दरवाजा भेड़ कर सो जातीं. अजय अच्छी तरह समझता था कि 12 बजे तक जागने वाली अम्मां 9 बजे कभी सो ही नहीं सकतीं. आखिर उन्हीं की गोद में तो वह पलाबढ़ा था.

एक रात 12 बजे, दरवाजे की दरार में से पतली प्रकाश की किरण बाहर निकलती दिखाई दी तो अजय उन के कमरे में चला गया. अम्मां लैंप के मद्धिम प्रकाश में स्वामी विवेकानंद की कोई पुस्तक पढ़ती जा रही थीं और रोती भी जा रही थीं. अजय ने धीरे से उन के हाथ से पुस्तक ली और बंद कर के पास ही स्टूल पर रख कर उन की बगल में बैठ गया. अम्मां उठ कर पलंग पर बैठ गईं और बोलीं, ‘तू सोया नहीं?’

‘आप नहीं सोईं तो मैं कैसे सो जाऊं? इस तरह से तो आप कोई बीमारी पाल लेंगी,’ अजय ने चिंतित स्वर में कहा.

‘अच्छा है, मेरे जीने का अब मकसद ही क्या रह गया है. तेरे बाबूजी ने मुझे सबकुछ दे दिया. धन, ऐश्वर्य, मानसम्मान. जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है मुझे. दोनों बच्चों की शादी हो गई. अपनीअपनी गृहस्थी में रमे हुए हो तुम दोनों. नातीपोतों का मुंह देख लिया. तेरे बाबूजी के बिना अब एकएक दिन भारी लग रहा है.’

अजय ने पहली बार अम्मां को कमजोर पड़ते देखा था, ‘और सुबहशाम मैं आप का चेहरा न देखूं तो मुझे चैन पड़ता है क्या? कभी सोचा है अम्मां कि मैं कैसे रह पाऊंगा तुम्हारे बिना?’

अम्मां ने बेटे के थरथराते होंठों पर हाथ रख दिया. बेटे की आंखों से टपका एकएक आंसू का कतरा उन्होंने अपने आंचल में समेट लिया था.

उस दिन के बाद से अजय अम्मां को एक पल के लिए भी अकेला नहीं छोड़ता था. मां को अकेलापन महसूस न हो, इसलिए लवकुश अम्मां के पास ही सोने लगे. वैसे भी उन्होंने ही उन्हें पाला था. अब वह बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ने और लेने भी जाने लगीं. घर लौट कर उन का होमवर्क भी अम्मां ही करवा देती थीं. अजय हर काम अम्मां से पूछ कर या बता कर करता. यहां तक कि सुबहशाम सब्जी कौन सी बनेगी यह भी अम्मां से ही पूछा जाता. शाम को अपर्णा भी पति के साथ आ जाती थी.

इस तरह घर का माहौल तो बदल गया पर नीरा को अपना अधिकार छिनता सा लगने लगा. पति का अम्मां के प्रति जरूरत से ज्यादा जुड़ाव उसे पसंद नहीं आया. उठतेबैठते अजय को उलाहना देती, ‘ऐसी भी क्या मातृभक्ति कि उठतेबैठते, सोतेजागते मां की आराधना ही करते रहो.’

‘नीरा, कुछ ही समय की बात है. समय स्वयं मरहम का काम करता है. धीरेधीरे अम्मां भी सहज होती चली जाएंगी. बाबूजी और अम्मां का साथ दियाबाती का साथ था. जरा सोचो, कैसे जीती होंगी वह बाबूजी की मृत्यु के बाद.’

‘अजी, पिताजी तो मेरे भी गुजरे थे. 2-4 दिन रह कर सामाजिकता निभाई और अपने घर के हो कर रह गए. यहां तो 6 माह से गमी का माहौल चल रहा है. ऊपर से अपर्णा दीदी अलग धमक पड़ती हैं.’

एकाधिकार : भाग 1

मोहिनी को लगने लगा था, उस के घर की छत पर टंगा यह आसमान का टुकड़ा केवल उसी की धरोहर है. बचपन से ले कर आज तक वह उस के साथ अपना सुखदुख बांटती आई है. गुडि़यों से खेलना बंद कर जब वह कालेज की किताबों तक पहुंची तो यह आसमान का टुकड़ा उस के साथसाथ चलता रहा. फिर जब चाचाचाची ने उस का हाथ किसी अजनबी के हाथ में थमा कर उसे विदा कर दिया, तब भी यह आसमान का नन्हा टुकड़ा चोरीचोरी उस के साथ चला आया. तब मोहिनी को लगा कि वह ससुराल अकेली नहीं आई, कोई है उस के साथ. उस भरेपूरे परिवार में पति के प्यार की संपूर्ण अधिकारिणी होने पर भी उस के हृदय का कोई कोना इन सारे सामाजिक बंधनों से परे नितांत खाली था और उसे वह अपनी कल्पना के रंगों से इच्छानुसार सजाती रहती थी.

मोहिनी के मातापिता बचपन में ही चल बसे थे. मां की तो उसे याद भी न थी. हां, पिता की कोई धुंधली सी आकृति उस के अवचेतन मन पर कभीकभी उभरती थी. किसी जमाने के पुराने रईसों का उन का परिवार था, जिस में बड़े चाचा के बच्चों के साथ पलती, बढ़ती मोहिनी को यों तो कोई अभाव न था किंतु जब कभी कोई रिश्तेदार उसे ‘बेचारी’ कह कर प्यार करने का उपक्रम करता तो वह छिटक कर दूर जा खड़ी होती और सोचती, ‘वह ‘बेचारी’ क्यों है? बिंदु व मीनू को तो कोई बेचारी नहीं कहता.’ एक दिन उस ने बड़े चाचा के सम्मुख आखिर अपना प्रश्न रख दिया, ‘पिताजी, मैं बेचारी क्यों हूं?’ इस अचानक किए गए भोले प्रश्न पर श्यामलाल अपनी छोटी सी मासूम भतीजी का मुंह ताकते रह गए. उन्होंने उसे पास खींच कर अपने से चिपटा लिया. अपने छोटे भाई की याद में उन की आंखें भर आई थीं, जिस से वे बेहद प्यार करते थे. उस की एकमात्र बेटी को उस की अमानत मान कर भरसक लाड़प्यार से पाल रहे थे.

यों तो चाची भी स्नेहमयी महिला थीं, किंतु जब वे अपनी दोनों बेटियों को अगलबगल लिटा कर अपने साथ सुलातीं तो दूर खड़ी मोहिनी उदास आंखों से उन का मुंह देखती, उस पर आतेजाते रिश्तेदार मोहिनी के मुंह पर ही कह जाते, ‘अभी तो इस का बोझा भी उतारना होगा, बिन मांबाप की बेटी ब्याहना आसान है क्या?’ और टुकुरटुकुर ताकती वह उन रिश्तेदारों के पास भी न फटकती. अपनी किताबें समेट कर मोहिनी छत पर जा बैठती. नन्हीमुन्नी प्यारीप्यारी कविताएं लिखती, चित्र बनाती, जिन में बादलों के पीछे छिपे उस के बाबूजी और मां उसे प्यार से देख रहे होते. इस तरह अपनी कल्पनाओं के जाल में उलझी, सिमटी मोहिनी बड़ी होती रही. वह अधिक सुंदर तो न थी किंतु उस के भोलेपन का आकर्षण अनायास ही लोगों को अपनी ओर खींच लेता था. बड़ीबड़ी आंखों में मानो सागर लहराता था. फिर एक दिन श्यामलाल के पुराने मित्र लाला हरदयाल ने अपने छोटे भाई के लिए मोहिनी को मांग ही लिया. यों तो शहर में लाला हरदयाल की गिनती भी पुराने रईसों में होती थी, किंतु अब वह सब शानोशौकत समाप्त हो चुकी थी.

उन का काफी बड़ा परिवार था. 5 छोटे भाई थे, जिन में से 2 अभी पढ़ ही रहे थे. मां थीं, अपनी पत्नी और 3 बच्चे थे. पिता का निधन हुए काफी समय हो चुका था और नरेंद्र के साथ मिल कर वे इस सारे परिवार के खर्चे का इंतजाम करते थे. नरेंद्र सभी भाइयों में सब से सीधा और आज्ञाकारी था. लाला हरदयाल उस के लिए किसी ऐसी लड़की को घर में लाना चाहते थे जो उन के परिवार के इस संगठन को बिखरने न दे. हरदयाल की पत्नी और मां में बनती न थी. काफी समय से वे किसी ऐसी सुलझी हुई, पढ़ीलिखी लड़की की तलाश में थे जो उन के घर के इस दमघोंटू वातावरण को बदल सके. श्यामलाल के यहां आतेजाते वे मोहिनी को अपने छोटे भाई नरेंद्र के लिए पसंद कर बैठे. श्यामलाल ने नरेंद्र को बचपन से देखा था, बेहद सीधा लड़का था, या यों कहिए कि कुछ हद तक दब्बू भी था. किंतु उस की नौकरी अच्छी थी. मोहिनी को उस घर में कोई कष्ट न होगा, यह श्यामलाल जानते थे. सो, पत्नी से पूछ उन्होंने विवाह के लिए हां कर दी. मोहिनी से पूछने की या उसे नरेंद्र से मिलवाने की आवश्यकता नहीं समझी गई, क्योंकि उस परिवार में ऐसी परंपरा ही न थी. बिंदु और मीनू के विवाह में भी उन की सहमति नहीं ली गई थी. मोहिनी और नरेंद्र का विवाह अत्यंत सीधेसादे ढंग से संपन्न हो गया. घर के दरवाजे पर बरात पहुंचते ही शोर मच गया, ‘‘बहू आ गई…बहू आ गई.’’

सपनों की बगिया : भाग 1

एकएक कर के सभी चले गए.मेहमानों के शोरगुल से भरा घर सूना सा लगने लगा. दिनेश के पिता औफिस जाने लगे. रतना और महेश कालेज जाने के लिए किताबें समेटे सुबह घर से निकलने लगे. दिनेश की भी छुट्टियां समाप्त हो गईं. वह भी उठते ही  झटपट नहाधो कर व खाना खा कर औफिस रवाना होने लगा. सुजाता ने भी औफिस फिर जौइन कर लिया पर सारे दिन उसे दिनेश की याद आती रही. जब घड़ी देखती तो उसे लगता, उस की घड़ी चलना भूल गई है. दिन था कि किसी तरह काटे नहीं कटता था. सारा ध्यान शाम के 7 बजने पर अटका रहता, जब उस का दिनेश से मिलना हो.

सुजाता और दिनेश का प्रेमविवाह था. सुजाता के पिता साधारण परिवार के थे पर ऊंची जाति थी. वे श्रेष्ठ ब्राह्मणों में से गिने जाते थे. दिनेश के परिवार के लोग कुर्मी थे पर दिनेश के पिता ने पढ़लिख कर एक निजी दफ्तर में नौकरी कर ली थी और सुजाता और दिनेश दोनों एक अस्पताल में पैरामैडिकल जौब करने लगे थे, जिस में ठीकठाक वेतन था. दोनों की शिफ्टें अलगअलग थीं.

पर धीरेधीरे उसे लगने लगा, जैसे उस के जीवन माधुर्य में कुछ कमी होने लगी है. शादी से पहले दोनों अपनी नौकरियों के बाद घंटों साथ रहते थे. अब अकेले में मिलने का सवाल ही नहीं था. रातें अलार्म घड़ी की कटु ध्वनि से टकरा कर बिखरने लगी हैं. दोनों अस्पतालों से लौट कर दोचार मिनट ही साथ व्यतीत कर पाते कि शीघ्र ही दिनेश के मित्रों की एक टोली उसे घेर लेती और उस की शामें मित्रों के हिस्से चली जाती हैं. ऐसा 10 वर्षों से हो रहा था और शादी के बाद अचानक दोस्ताना छोड़ना दिनेश के लिए मुश्किल हो चला था. प्रतीक्षा करती सुजाता का मन व्याकुलता से भर उठता कि पहले वे दोनों घंटों साथ रहते, अब बस बिस्तर पर थके से साथ होते.

वह मित्रों के साथ इतना समय बिताने पर दिनेश से रुष्ट भी होती परंतु उस के मित्र थे कि किसी तरह पीछा ही नहीं छोड़ते थे. अगर वे उसे घर से बाहर निकाल पाने में सफल न होते तो वे वहीं धरना दे कर बैठ जाते. ड्राइंगरूम में चायकौफी के दौर चलते रहते और सुजाता अपने कमरे में अकेली बैठी कुढ़ती रहती.

इतना ही क्यों, विवाह की सजावट और धूमधाम से भरे घर का एकाएक जैसे सारा नक्शा ही बदल गया था. घर में सफाई और व्यवस्था का अभाव एक तरह से स्वाभाविक ही था.

सुजाता ऐसे घर से आई थी, जहां साफसफाई स्वाभाविक तौर पर की जाती थी. दिनेश का परिवार साफसफाई के प्रति काफी उदासीन रहता था. साफ हो गया तो ठीक, वरना जैसा है पड़ा रहने दो.

खानेपीने और हंसीचुहल के बीच किसी को अवकाश ही कहां था कि इस ओर ध्यान दे परंतु सब के चले जाने के बाद भी व्यवस्था में कोई विशेष अंतर नहीं पड़ा था. सब मेहमान अपनीअपनी चीजें बटोर कर चले गए थे. घर की चीजें जिसतिस दशा में थीं. जहांतहां कपड़ों के अंबार, बेतरतीब बिखरे संदूक और फर्नीचर, जमीन पर पड़ा कूड़ा, कोनों में पत्तलों और दोनों के ढेर, मिलने आने वालों को नाश्तापानी करा कर कूड़ा कहीं भी फेंक दिया जाता. जूठन और हरदम भनभन करने वाली मक्खियों के कारण घर की दशा अनाथ की सी लग रही थी. किसी को इस से कुछ परेशानी नहीं थी. सुजाता ने शादी से पहले इस बारे में सोचा था ही नहीं.

स्टोर में खाली टोकरों और बासी मिठाई पर मक्खियां मंडराती रहतीं जिस में घुसते ही सुजाता का दिल मिचलाने लगता. उस का मन होता, वह  झाड़ू ले कर जुट जाए और सारे घर को एक सिरे से दूसरे सिरे तक साफसुथरा कर के सजासंवार दे पर  झाड़ू पर हाथ रखते ही सास दौड़ी आती, ‘‘अरे सुजाता, यह क्या कर रही हो? अभी तो हाथों की मेहंदी नहीं छूटी और तू  झाड़ू को हाथ लगा रही है. क्या तेरे यह करने के दिन हैं? तुम हंसोखेलो. तु झे क्या करने की जरूरत है? इतने सारे करने वाले हैं. देख, अब कुछ न करना. कोई देखता तो क्या कहेगा? कितनी बदनामी होगी? लोग कहेंगे, बहू आई नहीं कि सास ने हाथ में  झाड़ू पकड़ा दी. चल, अपने कमरे में बैठ, कुछ कहानीवहानी पढ़ ले.’’

दिनेश की मां को यह एहसास था कि ब्राह्मण की बेटी कैसे उन के घर में सफाई कर दे.

उन्होंने एक बूढ़ी नौकरानी रखी हुई थी, जो इधरउधर सरका कर, उलटीसीधी  झाड़ू लगा कर काम खत्म कर देती. सुजाता के कुछ कहने पर वह उसे ऐसे देखती जैसे कह रही हो, ‘तू ऊंची जात की कल की छोकरी, हमें सिखाने चली है और सुजाता का सारा उत्साह भंग हो जाता. उसे रहरह कर अपने घर का स्मरण हो आता और दिल भारी हो जाता. उसे लगता, उस के मातापिता ने अनेक कष्ट सह कर भी जो ट्रेनिंग उसे दी थी, वह उस का अंश मात्र भी घर में प्रयोग नहीं कर पा रही है. मातापिता ने दोनों बहनों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दी थी. कालेज से डिगरी लेने के साथसाथ उस ने हर खेल में भाग लिया था, तैराकी भी सीखी थी. इस के साथ ही साथ घर का हर काम सीखा था. उस के पिता का वेतन अच्छा था पर बहुत अच्छा भी नहीं मगर उस के कितने ही रिश्तेदार ऊंचे ओहदों पर थे.

बिना दहेज लिए उसे बड़े मानमनुहार से इस घर की बहू बना कर लाया गया था कि ऊंचे घर की बेटी आ रही है, उन के दिन फिर अपनेआप फिर जाएंगे. सादगी और मितव्ययिता से चलने वाले सुजाता के मातापिता के घर में गंदगी या अव्यवस्था का नाम भी नहीं था. उन का छोटा सा घर सुखसंतोष से महकते फूलों की तरह भरा रहता था. सुखी परिवार के लिए धन ही तो सब से आवश्यक वस्तु नहीं. घर की स्वच्छता तथा सुचारु संचालन क्या कभी धन से खरीदा जा सकता है? विरासत में मिले बहुत से गुण कहीं न कहीं दिखते ही हैं. सुजाता के पिता को जाति का एहसास था और वे खुद वर्णव्यवस्था के खिलाफ थे और इसीलिए उन्होंने बड़ी खुशी से दिनेश का शादी का प्रस्ताव मान लिया था.

दिनेश की मां दिनभर चूल्हेचक्की में फंसी रहती. दिनभर घर के लोगों को वक्तबेवक्त खानानाश्ता देने के अतिरिक्त उसे किसी बात से सरोकार नहीं था. सुजाता कभी रसोईघर में घुसती तो वे मीठी  िझड़की देतीं, ‘‘तुम बाहर चलो सुजाता रसोई से रंग काला पड़ जाएगा.’’ सुजाता किस मुंह से कहे कि उस के घर में भी खाना मां ही बनाती हैं.

हरदम फिल्मी पत्रिकाओं, फिल्मी कहानियों और फिल्मी तारिकाओं में डूबे रहने वाले महेश व फैशन की दीवानी रतना को वह देखती तो देखती ही रह जाती. फिल्मी बातों, फिल्मी कहानियों और गीतों में महेश को जितनी रुचि थी, इस की शतांश भी कालेज की पढ़ाई में न थी.

रतना नईनई फिल्में देखदेख कर नए

से नए फैशन के कपड़े बनवाने में

मग्न रहती. महेश और रतना कालेज जाने के लिए घर से निकलते पर शायद ही कालेज जाते, कभी किसी के घर, कभी किसी चौराहे पर चाय वाले के पास और कभी कैंटीन में बैठ कर ही शाम को घर वापस आ जाते.

और गुड्डू…? वह बस्ता ले कर निकलता तो गली के मोड़ पर ही गुल्लीडंडा खेलने बैठ जाता. घर के लोगों में से कोई देख लेता तो कान खींच कर चिचचियाते हुए स्कूल पहुंचा देता, वरना उस का दिन इन्हीं खेलों में निकल जाता, सालदो साल फेल हो कर अगली क्लास में पहुंचना स्वाभाविक बात हो चुकी थी. नतीजा निकलने पर थोड़ी पिटाई करने के बाद सब कर्तव्य की पूर्ति कर देते और उसे फिर से उस के हाल पर छोड़ दिया जाता. दिनेश इन सब से अलग था और इसीलिए वह अच्छा कमा रहा था व साफसुथरा था.

हर व्यक्ति के पास कुछ काम था और वह उस में मस्त था, दूसरा क्या कर रहा है, इस से किसी को सरोकार नहीं था.

कभीकभी सुजाता को लगता, वह अकेली रह गई है, बिलकुल अकेली. सब से स्नेह और आदर पाने पर भी यह भावना कैसे उस के मन में प्रवेश कर गई है, यह वह किसी तरह सम झ नहीं पाती और उस के दिल के तार कसने लगते.

विवाह से पहले उस ने अपने जीवन की रूपरेखा कुछ दूसरी ही तरह की बनाई थी. दिनेश सा प्रेमी पति और स्नेही आदर देने वाला ससुराल पा कर उस की बहुतकुछ इच्छा पूरी हो गई थी, परंतु फिर भी बहुत दरारें थीं, जो उसे पूरा होने से रोक रही थीं. उसे डर लग रहा था कि कहीं ये दरारें बढ़ कर उस की सुखशांति को न भंग कर दें. वह जानती थी कि ब्राह्मण और कुर्मी के विवाह पर न जाने कितनों ने कानाफूसी की होगी.

हीरो : भाग 1

आशी बुआ को कविता की समस्या समझने में सिर्फ 1 दिन लगा. सभी संबंधित व्यक्तियों से बात कर के उन्हें अच्छाखासा अंदाजा हो गया कि कविता क्यों नाराज हो कर पिछले डेढ़ महीने से ससुराल छोड़ मायके में रह रही थी. अपने भैयाभाभी की शादी की 30वीं सालगिरह पर बधाई देने आशाी अपने छोटे बेटे राहुल के साथ कानपुर से दिल्ली आई थी. इस गश्त में सभी करीबी और खास रिश्तेदार थे. उन्होंने इस मौके का फायदा उठाया और समस्या की जड़ खोज निकाली.

‘‘कविता घर से अलग रहना चाहती है, पर राजेश वैसा करने को तैयार नहीं. घर का 2 कमरे का अपना मकान होते हुए किराए में बेकार एक कमरे में ₹ 3-4 हजार फूंकने की क्या जरूरत है?’’ कविता के ससुर दीगरवालजी की नाराजगी को आशी ने साफ महसूस किया था.

‘‘मेरे सीधेसादे बेटे को बहुत ज्यादा तेज लङकी मिल गई, बहनजी,’’ कविता की सास उर्मिला ने दुखी स्वर में उन्हें बताया, “कविता को घूमनेफिरने, बाहर खाने, खरीदारी करने, फिल्म देखने में बहुत दिलचस्पी है. बस, घरगृहस्थी की जिम्मेवारियों का जिक्र करा नहीं कि उस का मुंह सूज जाता है. अब मायके में जम कर मेरे बेटे पर जबरदस्ती दबाव बना रही है. मेरी बात का बुरा मत मानना बहनजी, आप के भैयाभाभी ने अपनी छोटी बेटी में चमकदमक व नखरे तो खूब पैदा करवा दिए पर समझदारी ज्यादा नहीं दी.’’

‘‘जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा,’’ आशी चौधरी ने उन दोनों को ऐसी तसल्ली बारबार दी, पर उन की आंखों में बेटेबहू के अलगाव को ले कर संशय के भाव बने ही रहे. जब पैसे कम हों तो बचत की कीमत कविता समझ ही नहीं रही थी.

आशी बुआ ने अपने भाई आनंद से इस विषय में चर्चा छेड़ी, तो वे फौरन गुस्से से भङक उठे,”मेरी बेटी ससुराल में जा कर पिस रही है, बस. उस की दोनों ननदें काम में रत्तीभर हाथ नहीं बंटातीं. उस के सुखदुख की राजेश को ही फिक्र नहीं। मैं यह घर उस के नाम कर दूंगा, बहन. वह सारी सारी जिंदगी यहां रह लेगी, पर कायदेकानून और रीतरिवाज के नाम पर अत्याचार झेलने सुसराल जबरदस्ती नहीं भेजी जाएगी.’’

अपने भाई का गुस्से से लाल हो रहा चेहरा देख कर आशी बुआ ने उन्हें समझानेबुझाने की कोशिश नहीं की थी. अपनी भाभी कमलेश से अकेले में बातें करते हुए उन की आंखों में आंसू भर आए थे,”जीजी, अभी कविता की शादी को सालभर भी पूरा नहीं हुआ है और वह नाराज हो कर पति से दूर यहां रह रही है. दोनों में से कोई भी झुकने को समझदारी की बात सुनने को तैयार नहीं होता. अपने घर में उन का संबंध टूटने तक की बात सुनती हूं तो मन कांप उठता है. आप ही कोई रास्ता ढूंढ़ो जीजी, नहीं तो मेरी बेटी का घर अच्छी तरह बसने से पहले ही उजड़ जाएगा,’’ कमलेश का बिलख कर रोना आशी बुआ का मन बहुत भारी कर गया था.

कविता की बड़ी बहन सुनंदा ने चिढ़े से लहजे में आशी बुआ को अपनी राय बताई, ‘‘कविता और राजेश छोटे बच्चे नहीं हैं जो अपना भलाबुरा न पहचान सकें. जो इंसान किसी से हिरस कर के जिएगा, वह सदा दुखतकलीफ में रहेगा ही.’’

‘‘कौन किस से हिरस करता है?’’ बुआ ने यह सवाल कई तरह से पूछा, पर सुनंदा ने अपनी बात का और ज्यादा खुलासा नहीं किया. सुनंदा के पति मनोज से उन्हें एक महत्त्वपूर्ण सूत्र की जानकार मिली.

‘‘बुआजी, यह राजेश बस देखने में ही सीधा है,’’ मनोज ने कुछ कुरेदने पर गुस्से से कांपती आवाज में उन्हें बताया, ‘‘उस ने हमारी कविता के साथ मारपीट की. अरे, अगर आप के भाई को मैं यह बात बता दूं, तो वे अपने अत्याचारी दामाद को गोली ही मार देंगे. आप जानती हैं कि हमारे घरों में किस तरह बातबात में भालेफरसे चल जाते हैं.

‘‘बुआजी, आप तो जानती ही हैं कि कविता मुझ से कुछ नहीं छिपाती है. यह बात किसी और को क्यों नहीं मालूम है?’’

‘‘मैं ने ही कविता को मना कर रखा है.’’

‘‘और वह ससुराल कब लौटेगी?’’

‘‘तब तक नहीं जब तक राजेश उसे सही इज्जत और खुशियां देने को तैयार नहीं हो जाता. बुआजी, अगर इस इंसान की गलत हरकतों पर पहली बार के बाद ही अंकुश नहीं लगाया, तो हमारी कविता की उस घर में जिंदगी नर्क से बदतर हो जाएगी,’’ बाहर गली में लेजा कर आशी ने राजेश के दिल की बात पूरी गंभीरता से सुनी थी.

‘‘बुआजी, कविता की निगाहों में अपने जीजा के लिए जो एक सुपर हीरो की छवि है, वही हमारे बीच जबरदस्त मनमुटाव का कारण है,’’ अपने मन की बात कहते हुए राजेश गुस्से में नजर आने के साथसाथ बहुत परेशान भी दिख रहा था.

‘‘मेरी समझ में तुम्हारी बात नहीं आई है,’’ आशी बुआ उलझन का शिकार बन गईं.

‘‘हमारी रोकना के दिन से ले कर आज तक मेरे कान पक गए हैं, कविता के मुंह से उस के जीजा का गुणगाण सुनते हुए. हर समय को मेरी तुलना अपने जीजा से कर के मेरा खून फूंकती रहती है.’’

‘‘बेटा, वह मनोज की इकलौती और लाडली साली है. क्या बातें चुभती हैं तुम्हें कविता की?’’

‘‘बुआजी, मैं मानता हूं कि मनोज भाईसाहब मुझ से ज्यादा कमाऊ और रौबीले इंसान हैं, पर मैं उन की कार्बन कौपी बन कर नहीं जीना चाहता हूं.’’

‘‘क्या कविता चाहती है कि तुम उन की कार्बन कौफी बनो?’’

‘‘बिलकुल. वह अपने मातापिता से अलग हुए हैं, तो मैं भी वैसा ही करूं….वह हर हफ्ते बाहर का खाना खाते हैं, तो हमें भी उसी तरह पैसे फूंकने चाहिए…मैं भी महंगे कपड़े पहनने लगूं… टूटीफूटी इंग्लिश बोला करूं….मैं बता नहीं सकता कि आप की भतीजी ने इस तरह की बातें कर के मेरी इज्जत को कितनी ठेस पहुंचाई है,’’ राजेश का दुख उस की आवाज में साफ झलका.

‘‘राजेश, उस की बातों में नासमझी की झलक है, पर तुम तो समझदार हो. तुम दोनों का अलगअलग रहना तो बिलकुल ठीक बात नहीं है. मैं ने उस से साफ कह दिया है कि जब उस के दिमाग से जीजा की बड़प्पन का नशा उतर जाए, तभी वह मेरे पास लौटने की बात सोचे. उसे समझाना या डांटडपट कर सीधे रास्ते पर रखना अब बस में नहीं रहा है, बुआ.’’

राजेश की नाराजगी देख कर आशी बुआ की आंखों में पश्चाताप के भाव और ज्यादा गहरे हो उठे थे. घर से निकल कर सङक पर बुआ ने आखिरी में कविता के मन का हाल जानने की कोशिश की।

“शादीशुदा जिंदगी की मौजमस्ती को ले कर मेरे सारे अरमान, सारी सोझ टूट कर बिखर चुकी है बुआ,’’ कविता ने उदास लहजे में कहा, ‘‘मेरी ससुराल का हर जना मेरी जिम्मेवारियों की…मेरे सुधरने और बदलने की बात करता है. किसी को मेरे सुखदुख या मेरी खुशियों की फिक्र नहीं है.’’

‘‘क्या राजेश तुम्हें प्यार नहीं करता है?’’

‘‘मुंह से हमेशा प्यार करने का भरोसा दिलाते हैं, पर मेरे मन की बात समझते नहीं.’’

‘‘क्या तुम्हारे मनोज जीजा को ले कर भी तुम दोनों के बीच में अनबन चलती है?’’

‘‘जीजाजी के नाम से ही उन्हें चिढ़ होती है, बुआ.’’

‘‘मेरे खयाल से राजेश मनोज से नहीं, बल्कि हर वक्त तुम्हारे मुंह से मनोज की वाहवाही सुन कर चिढ़ता है.’’

‘‘बुआ, जीजाजी मेरे सब से करीबी रिश्तेदार हैं. जब वे हैं ही बहुत अच्छे तो मैं उन की बात क्यों न करूं? जिस रिश्ते में कुछ भी गंदा और खराब नहीं है, उस पर राजेश शक करें, तो क्या यह मेरी गलती है?’’ गुस्से के कारण कविता की आवाज में कंपन होने लगी.

‘‘राजेश, तुम दोनों के रिश्ते पर शक करता है?’’ बुआ ठिठक कर रुक गईं. कविता ने कोई जवाब नहीं दिया, पर उस की आंखों से आंसू बह चले. अचानक बुआ को कुछ याद आया और उन्होंने झटके से अगला सवाल पूछ लिया, ‘‘क्या इसी शक के कारण राजेश ने तुम पर हाथ उठाना शुरू किया है?’’

‘‘क्या राजेश ने आप को सब बता दिया है?’’ कविता हैरानी से भर उठी.

“उस ने कुछ नहीं कहा है. यह तो मेरा अंदाजा है. क्या मेरा अंदाजा ठीक है, कविता?’’

‘‘बुआ, राजेश ने पहली और आखिरी बार मुझ पर हाथ उठा लिया, सो उठा लिया. मैं अगली सुबह ही मायके आ गई और तभी ससुराल लौटूंगी जब राजेश की अक्ल ठिकाने आ जाएगी,’’ पलभर में आंसुओं की जगह कविता की आंखों में गुस्से की लाली नजर आने लगी.

‘‘बेटी, यों मर्द से अलग हो कर रहना अच्छा…’’

‘‘बुआ, मैं सब संभाल लूंगी,’’ कविता ने उन्हें हाथ हवा में उठा कर टोक दिया, ‘‘आप राजेश के द्वारा जीजाजी और मुझ पर शक करने की बात किसी से भी न करना प्लीज. मैं ने किसी को भी कुछ नहीं कहा है. यह बात आम हो गई तो मारे शर्म के मैं जमीन में गड़ जाऊंगी.’’

‘‘मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगी. चल अब अंदर चलें,’’ बुआ ने कविता को कुछ समझाने की कोशिश नहीं की, तो वह राहत के भाव आंखों में समेटे घर की तरफ मुंङ गई.

उस रात आशी बुआ देर रात तक सो नहीं पाईं. वे सिर्फ 4 दिनों के लिए भाई के घर आई थीं. वापस लौटने से पहले वे कविता की प्रौब्लम को जड़ से दूर करना चाहती थीं. इसलिए वे देर रात तक सोचविचार में डूबी रहीं.

प्रेम का दायरा : भाग 1

वे नए शहर में आए हैं. निशा खुश दिख रही है. कारण एक आवासीय सोसायटी में उन्हें एक छोटा सा फ्लैट भी जल्दी मिल गया था. निशा और पीर मोहम्मद पहले दिल्ली में रहते थे, जहां पीर एक छोटे से कारखाने में पार्टटाइम अकाउंटैंट की नौकरी में था. इसी तरह वह 1-2 और दुकानों में अकाउंट्स का काम देखता था. लेकिन कोरोनाकाल में वह काफी परेशानियों से गुजरा था. पीर मोहम्मद ने भी उस दौरान व्हाट्सऐप ग्रुप बना कर कुछ जरूरतमंदों की सहायता की थी. लोगों को राशन दिलाने में भी लगा रहा, लेकिन कोरोना का दूसरा वर्ष अप्रैल माह और भी भयावह था.

वजीर ए आजम के भाषण से मुल्क में इतनी आत्मनिर्भरता फैल चुकी थी, जहां प्रत्येक व्यक्ति अपनी रक्षा स्वयं करता दिखा, जहां अपनी जान की रक्षा स्वयं के कंधों पर थी. लोगों की मौतों का सिलसिला थम नहीं रहा था. कोरोना रोकथाम का पहले साल का लौकडाउन कम भयावह न था. सड़कों पर लोग अपने परिवार के साथ मीलों पैदल चल रह रहे थे. सांसद, विधायक, पार्षद सब नदारद दिखे थे. तब पीर मोहम्मद ने अपने मित्र पैगंबर अली से कहा था,”भाई साहब, बस स्टैंड, बिजली के खंभों, चौराहों पर जो आएदिन बड़ेबड़े फ्लैक्स लगा कर लोगों को ईद, बकरीद, दीवाली, होली, रक्षाबंधन, क्रिसमस, बुधपूर्णिमा, डा.अंबेडकर जयंती की मुबारकबाद देते थे आखिर अब वे सभी कहां चले गए? मंदिर और मसजिद के नाम पर चंदा लेने वाले नहीं दिखते, जो सुबहसुबह गलियों में मंदिर निर्माण के लिए चंदा इक्कठा करते घूमते थे? ऐसे जुझारू नेता और स्वयंसेवक सामाजिक कार्यकर्ता आखिर कहां हैं इस वक्त?”

तब पैगंबर अली ने कहा था, “भाई, लगता है, सब कोरोना वायरस से निबट गए.”

मुल्क में औक्सीजन, बैड, दवाइयों के कारण लोग मर रहे थे, जिस से श्मशान और कब्रिस्तान में लंबीलंबी लाइनें लग रही थीं. हालात यह था कि श्मशान में अधजली बौडी पड़ी रहती थीं क्योंकि लोगों के पास साधन न थे, न थीं लकड़ियां. ऐसी स्थितियां लोगों को विचलित कर देती थीं. बहुतेरे मृत शरीर गंगा नदी के रेत में दफन दिख रहे थे जिन्हें जानवर खा रहे थे. बहुत भयानक मंजर. ऐसी खबरें देख कर निशा बहुत दुखी होती थी. घबराहट होता था उस के मन में.
पीर मोहम्मद जब भी फोन उठाते कोई न कोई अप्रिय घटना उसे व्हाट्सऐप से मिल ही जाती थी. अब तो उसे अपना फोन उठाने में भी डर लगने लगा था.

अप्रैल में ही पीर मोहम्मद के बहुत करीब फादर जौय का इंतकाल हो गया था. पीर मोहम्मद को उन से एक लगाव सा था. जब पीर मोहम्मद दिल्ली में था तो फादर जौय ने उस के बच्चे के स्कूल ऐडमिशन में उस की मदद की थी. फादर जौय की कोरोना से मौत की खबर सुन कर पीर मोहम्मद बहुत रोया था.

अप्रैल तक पूरे मुल्क में करोना से 2 लाख से ज्यादा लोग मर चुके थे. मई 2022 में ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कहा कि भारत में कोरोना से 47 लाख लोगों की मौत हुई है.

पीर मोहम्मद निशा से कहता, “समाज कितना असंवेदनशील हो गया है, तभी तो हम इन मौतों को रुपए की गिनती से देख रहे हैं. ₹2 लाख कम हो सकते हैं, लेकिन 2 लाख लोगों का मर जाना बहुत भयावह है. इन दोनों में बहुत अंतर है. कोरोना बहुत बड़ी त्रासदी बना. इस से लड़ने में हमारा सिस्टम पूरी तरह नाकाम दिख रहा है. क्या इस सिस्टम की जवाबदेही नहीं है? इस सरकार की जवाबदेही नहीं है?

जब सरकार पूरे मुल्क में लौकडाउन लगा सकती है, तो संसाधनों की उपलब्धता क्यों नहीं कर सकती? कोरोना ने दिखाया है कि हमारी सरकार और हम लोगों की नैतिकता बिलकुल समाप्त हो चुकी है. एक सांसद जिन को 1 महीने में लगभग ₹2 लाख से अधिक वेतन मिलता है, तो आखिर किसलिए? दूसरी तरफ सत्ता आंदोलनकारियों को जेलों में ठूंस चुकी थी. सरकार तानाशाही तरीके से कोरोनाकाल में ही 3 नए कृषि कानून को ले आई थी. कोरोनाकाल में ही किसान आंदोलन में सक्रिय हो गए, क्योंकि यह उन के लिए जीने और मरने की बात थी.

भारतीय समाज से लोककल्याणकारी व्यवस्था का लगभग अंत होता सा दिखा. यह तो नवउदारवाद है जहां सरकारी नीति में पूंजीपतियों जैसी सोच हावी हो जाना. जहां सरकार कहे कि हम ने मुफ्त में कोरोना के टीके लगाए हैं.

निशा और पीर मोहम्मद के लिए यह शहर तो नया था. आसपास के घरों की कुछ महिलाओं से निशा की हायहैलो तो हो ही चुकी है जबकि समाज में एक सोशल डिस्टैंस नामक तत्त्व स्थापित हो चुका था. वैसे सामाजिक दूरियां तो पहले भी थीं पर उन में कुछ कानूनी अंकुश था. लेकिन अब तो स्वस्थ्यतौर पर लोग एकदूसरे से दूरी रख सकते हैं. यहां पीर मोहम्मद को कुछ बेहतर नौकरी मिल गई थी. बेचारे ने बड़ी मेहनत की थी, लेकिन उम्र तेजी से भागता है. उस ने तो सरकारी नौकरी प्राप्त करने की बहुत दिनों तक आशा की थी. इस नए शहर में उन्होंने अपने बेटे बबलू का ऐडमिशन वहीं के एक कौन्वेंट स्कूल में करा दिया था.

निशा यहां खुश इसलिए भी थी क्योंकि लगभग 8 वर्षों बाद उसे अपना एक फ्लैट मिला था जिसे वह अपना तो कह ही सकती थी. वैसे, वह किराए पर भी खुश थी, लेकिन अपने स्वयं के फ्लैट की बात ही अलग होती है. निशा किराए के घर को भी चमका कर रखती थी. पहले वाली मकानमालकिन कहती कि अरे, पीर मोहम्मद, तेरी बींदणी बहुत अच्छी है. साफसफाई पर ज्यादा ध्यान देती है. निशा पीर मोहम्मद के प्रति एक समर्पित और शिक्षित गृहिणी थी. शादी के 9 वर्ष होने वाले थे, लेकिन निशा के चेहरे की त्वचा आज भी 24 की ही लगती थी. अब तो उस का बेटा बबलू भी 7 वर्ष का हो चुका है.

चूंकि अब वे नए शहर में आए हैं, पीर मोहम्मद की नौकरी पहले से कुछ बेहतर जरूर थी. निशा को पार्क और पेड़पौधे बड़े प्रिय लगते. वह अकसर सोचती थी कि अपना घर होने पर बागवानी करेगी. लेकिन उस ने अपने नए फ्लैट को काफी अच्छे से सजा दिया था. अब नियमित तो नहीं, लेकिन एक रोज छोड़ कर सोसायटी से कुछ दूर एक बहुत बड़े सिटी पार्क में बबलू को ले कर जाती. बबलू खुश होता. उस को दौड़नेकूदने का एक बड़ा सा स्पेस मिल जाता था. निशा के साथ कभीकभी सोसायटी की कुछ महिलाएं भी साथ जाती थीं. लेकिन उन में एक सामाजिक दूरी रहती थी. एक तो कोरोना और दूसरा धार्मिक और जातीयता का क्योंकि एक महिला ने निशा से उस के धर्म के बारे में पूछा था, तब निशा ने कहा था हम मुसलमान हैं.

एक दूसरी मुसलिम महिला ने उस से उस की धार्मिक जाति भी पूछी, तब निशा ने उसे बताया था कि हम ‘शाह’ हैं, तब उस ने उसे कमतर दृष्टि से देखा था. निशा सोचती है कि हिंदू वर्ग में मुसलमानों के नाम से भेदभाव है. लेकिन मुसलिम समुदाय में भी क्या जाति को ले कर भेद नहीं है? निशा सोचती है कि क्या पसमांदा मुसलमान दोहरी मार के शिकार नहीं हैं?

उस दिन से सोसाइटी में और भी सोशल डिस्टैंस बढ़ गया था. वैसे, कोई न कोई महिला पार्क में घूमते जाते वक्त दिख ही जाती. कुछ का साथ न सही, दूसरी तरफ कोरोनाकाल में पार्क में भीड़ भी कम ही दिखती थी.

एक रोज निशा बबलू को ले कर पार्क गई थी. बबलू अन्य बच्चों के साथ लुकाछिपी खेलने लगा. कुछ बच्चों की मांएं आवश्यक काम होने की वजह से घर चली गईं. लेकिन बबलू घर चलने को तैयार नहीं था. वह कहता, “मम्मी, खेलो न…”

निशा ने कहा, “ठीक है, छिप जाओ.” इस तरह वह खेलने लगी.

जब निशा की दोबारा बारी आई और वह बबलू को खोजने लगी, तो पता नहीं कहां जा कर छिप गया, मिल ही नहीं रहा था.

बबलू कहां हो…बबलू…बबलू… लेकिन कहीं से कोई आवाज ही नहीं आई. शाम ढलने लगी थी. निशा ने देखा कि बगल में एक पार्क और है, जो कुछ छोटा है और जिस में बंदर, शेर, हिरन, भालू की आकृति भी बनी हुई थी. निशा सोचने लगी कि क्या पता उस के अंदर तो नहीं चला गया है. निशा ने उस छोटे पार्क में जा कर आवाज लगाई “बबलू… बबलू…” लेकिन कुछ पता नहीं.

अब उसे बहुत घबराहट होने लगी थी. सोचने लगी कि पीर मोहम्मद को फोन करूं या न करूं. पीर मोहम्मद तो काफी गुस्सा होंगे और वह रोने लगी क्योंकि पार्क भी खाली हो रहा था. वैसे ही उस में कम लोग थे. पार्क में सन्नाटा पसर रहा था जहां कुछ देर पहले कुछ शोरगुल और बच्चों की किलकारियां वातावरण में गूंज रही थीं, वहीं शाम ढलने को थी. लाइटें कुछ कुछ दूरी पर थीं. एक बड़ी ऊंची लाइट भी थी पर पार्क में सन्नाटा पसर गया था.

निशा ने सब जानवरों की आकृतियों के पास जा कर देखा, लेकिन बबलू नहीं मिला. अब वह रोने लगी. तभी पीछे से किसी आदमी ने आवाज दी कि क्या हुआ मैडम? निशा ने उसे बताया कि मैं अपने बेटे बबलू को खोज रही हूं, जो उस बड़े पार्क में खेल रहा था, मिल ही नहीं रहा है.

कठघरे में प्यार : भाग 1

“प्यार की व्याख्या हमारा समाज शुरू से ही गलत ढंग से करता आया है. प्यार में विवाह की परिणति नहीं हुई या एकदूसरे के मिलने में बाधाएं आईं या कोई और वजह रही हो, प्यार करने वालों का मिलन नहीं हो पाया तो अपनी जान दे दी. जहर खा कर मर जाने या दरिया में डूब कर मर जाने या मजनूं बन दीवाना हो जाना कोई प्यार नहीं है. प्रेमी या प्रेमिका ने प्यार में धोखा दे दिया तो जान दे दी या उस की याद में घुलघुल कर जिंदगी बिता दी. मैं इसीलिए रोमियो-जूलियट, शीरीं-फरहाद, लैला-मजनूं, हीर-रांझा के प्यार को प्यार नहीं मानता हूं. उन की गाथाओं को प्रेमकथा नाम दे पढ़ा और पढ़ाया जाता है. फेमस क्लासिक के रूप में वे बरसों से हमारे घरों, पुस्तकालयों और दुकानों में अपनी जगह बनाए हुए हैं. और तुम युवा लोग तो खासतौर पर उन्हें खूब पढ़ना पसंद करते हो और मुझे भी मजबूरी में उन्हें पढ़ाना पढ़ता है क्योंकि वे तुम्हारे कोर्स का हिस्सा हैं.” प्रो. विवेक शास्त्री बोल रहे थे और उन के स्टूडैंट्स मंत्रमुग्ध हो उन्हें सुन रहे थे. उन की आवाज में एक जादू था और शब्दों का प्रस्तुतीकरण इतना सुंदर होता था कि घंटों उन्हें सुना जा सकता था और पलभर के लिए भी बोरियत महसूस नहीं होती थी.

इंग्लिश लिटरेचर के प्रो. विवेक शास्त्री स्टूडैंट्स के चहेते प्रोफैसर थे. कालेज खत्म होने के बाद शाम को कुछ स्टूडैंट्स उन के घर आ कर जमा हो जाते थे. इंग्लिश लिटरेचर पढ़ाने के साथसाथ प्रो. शास्त्री नाटक लिखते थे और खुद उस का मंचन करते थे. अकसर नाटकों की रिहर्सल उन के घर पर ही हुआ करती थी. इस समय भी नाटक की रिहर्सल करने के लिए स्टूडैंट्स का जमावाड़ा उन के घर में लगा हुआ था. पर अचानक बात रोमियो-जूलियट पर आ कर अटक गई थी. कालेज में वे आजकल शेक्सपियर के नाटक रोमियो-जूलियट को ही पढ़ा रहे थे.

40-42 साल के प्रो. विवेक शास्त्री हमेशा सफेद कुरतापाजामा पहनते थे, एकदम कलफदार. आंखों पर काले फ्रेम का मोटा चश्मा, कंधे पर झूलता जूट का बैग और पैरों में कोल्हापुरी चप्पल…एकदम सादा पहनावा…इंग्लिश लिटरेचर के प्रोफैसर के बजाय वे हिंदी के किसी साहित्यकार की तरह लगते थे. लेकिन वे अपनी ही दुनिया में मस्त रहने वाले और पौजिटिव सोच के साथ चलने वालों में से थे. प्रो. शास्त्री दुनिया की बातों से परे और अपनी आइडियोलौजी को शिद्दत से फौलो करने वालों में से थे.

उन के हुलिए और सादगी पर अकसर उन की पत्नी रीतिका उन्हें छेड़ा करती थी, ‘इंग्लिश लिटरेचर पढ़ाने वाला तो कोई मौडर्न और स्टाइलिश व्यक्ति होना चाहिए. तुम तो झोलाटाइप महादेवी वर्मा और जयशंकर प्रसाद की कविताओं को पढ़ाने वाले बोर से दिखने वाले प्रोफैसर लगते हो. निराला की ‘मैं पत्थर तोड़ती’ कविता अगर तुम पढ़ाओ तो वह तुम्हारी पर्सनैलिटी के साथ ज्यादा सूट करेगी. कहां तुम शेक्सपियर, जौन मिल्टन, जौर्ज इलियट पढ़ा रहे हो…’

प्रो. शास्त्री तब ठहाका लगाते, अपने कुरते की बांह की सिलवटें ठीक करते हुए रीतिका के गालों को सहलाने के साथ महादेवी वर्मा की कविता का अंश सुना देते, ‘तारक-लोचन से सींच सींच नभ करता रज को विरज आज, बरसाता पथ में हरसिंगार केशर से चर्चित सुमन-लाज;

कंटकित रसालों पर उठता है पागल पिक मुझ को पुकार! लहराती आती मधु बयार !!

‘तुम हो न मेरी महादेवी…घर में एक ही इंसान कवि हो, वही ठीक है, वरना ‘मैं नीर भरी दुख बदली…’ का कोरस चलता रहता हमारा.’

रीतिका के गाल तब आरक्त हो जाते. वह कविता लिखने का शौक रखती थी और प्रो. शास्त्री उसे अपनी प्रेरणा मानते थे. रीतिका ने एमए हिंदी औनर्स में किया था, पर प्रो.शास्त्री के बहुत कहने पर भी वह कभी नौकरी करने को तैयार नहीं हुई. घर के काम करना और तरहतरह की डिशेज बनाना उस का शौक था. खुशमिजाज, सांवले रंग वाली रीतिका बहुत ही नफासत से साड़ी पहनती थी. कौटन की साड़ी, गोल चेहरे वाले माथे पर लाल गोल बड़ी सी बिदी, कानों में लटकते झुमके और हाथों में दोदो सोने की चूड़ियां…हमेशा सलीके से रहती थी वह.

प्रो. शास्त्री के स्टूडैंट्स अपनी रीतिका दीदी को रोल मौडल की तरह देखते थे. उस के हाथ के बने व्यंजन खाने के लिए वे कभीकभी यों भी उन के घर चले आते थे. फूलों से झरती मुसकान के साथ वह बिना झुंझलाए हमेशा उन का स्वागत करती और उन की फरमाइशें पूरी करती. उन का अपना कोई बच्चा नहीं था, इसलिए इन स्टूडैंट्स को अपने बच्चे मानते.

स्टूडैंट्स उन दोनों को परफैक्ट कपल कहा करते थे और दोनों थे भी परफैक्ट कपल…मेड फौर इच अदर.

“सर, अगर रोमियो-जूलियट का प्यार, प्यार नहीं था या आप उसे प्रेम नहीं मानते तो वे अमरप्रेम के दायरे में कैसे आते हैं? लोग उन की मिसाल क्यों देते हैं? क्यों हमें उन्हें पढ़ना पढ़ता है? लंबे समय से प्यार करने वाले उन्हें अपना आइडियल मान प्यार में नाकाम हो जाने पर जान दे रहे हैं,” वैभव ने पूछा. लंबे कद का वैभव अत्यधिक सैंसिटिव व गंभीर प्रकृति का लड़का था. पढ़ना उस का ध्येय था और वह एक बेहतरीन अभिनेता बनना चाहता था. उस के अभिनय का लोहा प्रो. शास्त्री भी मानते थे, इसलिए उन के द्वारा मंचित हर नाटक में उस की अहम भूमिका होती थी. खादी का कुरता और जींस उस की स्टाइल स्टेटमैंट थी. एक कान में बाली भी पहनता था. मिडिल क्लास फैमिली का था और हर चीज को बहुत सीरियसली लेता था, खासकर प्रोफैसर की बातों के तो मर्म तक पहुंचना चाहता था. इसलिए कोई और सवाल करे न करे, वह जरूर करता था.

उस के सवाल का जवाब देते हुए प्रो. शास्त्री बोले, “प्यार का मतलब होता है अपने जीवन की सारी समस्याओं, सारी परेशानियों और दुख में एकदूसरे का साथ देना, एकदूसरे की गलतियों को माफ करना, उसे सपोर्ट करना और सहयोग देना. कभी कोई भूल हो जाए तो उसे नजरअंदाज कर देना. आखिर जीवन उसी के साथ तो काटना है.” प्रो. शास्त्री ने भावपूर्ण नजरों से रीतिका की ओर देखा तो उस के गाल आरक्त हो गए. होंठों से झरती मुसकान का उजास उस के चेहरे पर फैल गया.

“प्यार को हमेशा जताते रहना, प्यार के कसीदे पढ़ते रहना या जान दे देना…यह प्यार नहीं, बल्कि बाहरी प्रक्रियाएं हैं. आंतरिक अनुभूति शब्दों से व्यक्त नहीं होती, वह भावों से प्रकट होती है; साथी के प्रति विश्वास से प्रकट होती है. प्यार नहीं मिला या बेवफा निकला या उस से कोई गलती हो गई तो उस पर जान दे दी या उस की जान ले ली…तो प्यार बचा कहां…” पलभर के लिए चुप हो कर उन्होंने सब की ओर एक दृष्टि डाली, फिर वैभव के कंधे को थपथपाते हुए पूछा, “समझ में आया कुछ तुम लोगों को?”

“कुछ आया कुछ नहीं आया,” अंजुम ने अपना सिर खुजलाते हुए बहुत ही मासूमियत से कहा तो उस की शक्ल देख सब को हंसी आ गई.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें