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परिंदा : भाग 2

अभिन्न ने मुझे यों देखा जैसे पहली बार देख रहा हो. प्रश्न तो बहुत सरल था मगर मैं जिस सहजता से पूछ बैठी थी वह असहज थी. मुझे यह भी आभास नहीं हुआ कि यह ‘कहां’ मेरे मन में कहां से आ गया. मेरी रहीसही नींद भी गायब हो गई.

कितने पलों तक कौन शांत रहा पता नहीं. मैं तो बिलकुल किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई थी.

‘‘10 बज गए हैं,’’ ऐसा नहीं था कि घड़ी देखनी मुझे नहीं आती हो मगर कुछ कहना था इसलिए उस ने कह दिया होगा.

‘‘ह…हां…’’ मेरी शहीद हिम्मत को जैसे संजीवनी मिल गई, ‘‘आप चाहें तो इधर रुक सकते हैं, बस, एक दिन की बात तो है.’’

मैं ने जोड़तोड़ कर के अपनी बात पूरी तो कर दी मगर अभिन्न दुविधा में फंस गया.

उस की क्या इच्छा थी यह तो मुझे पता न था लेकिन उस की दुविधा मेरी विजय थी. मेरी कल्पना में उस की स्थिति उस पतंग जैसी थी जो अनंत आकाश में कुलांचें तो भर सकती थी मगर डोर मेरे हाथ में थी. पिछले 15 घंटों में यह पहला सुखद अनुभव था. मेरा मन चहचहा उठा.

‘‘फिर से खाना बनवाने का इरादा तो नहीं है?’’

उस के इस प्रश्न से तो मेरे अरमानों की दुनिया ही चरमरा गई. पता नहीं उस की काया किस मिट्टी की बनी थी, मुझे तो जैसे प्रसन्न देख ही नहीं सकता था.

‘‘अब तो आप को यहां रुकना ही पड़ेगा,’’ मैं ने अपना फैसला सुना दिया. वास्तव में मैं किसी ऐसे अवसर की तलाश में थी कि कुछ उस की भी खबर ली जा सके.

‘‘एक शर्त पर, यदि खाना आप पकाएं.’’

उस ने मुसकरा कर कहा था, सारा घर खिलखिला उठा. मैं भी.

‘‘चलिए, आज आप को अपना शहर दिखा लाऊं.’’

मेरे दिमाग से धुआं छटने लगा था इसलिए कुछ षड्यंत्र टिमटिमाने लगे थे. असल में मैं खानेपीने का तामझाम बाहर ही निबटाना चाहती थी. रसोई में जाना मेरे लिए सरहद पर जाने जैसा था. मैं ने जिस अंदाज में अपना निर्णय सुनाया था उस के बाद अभिन्न की प्रतिक्रियाएं काफी कम हो गई थीं. उस ने सहमति में सिर हिला दिया.

‘‘मैं कुछ देर में आती हूं,’’ कह कर मैं फिर से अंदर चली गई थी.

आखिरी बार खुद को आईने में निहार कर कलाई से घड़ी लपेटी तो दिल फूल कर फुटबाल बन गया. नानी, दादी की मैं परी जैसी लाडली बेटी थी. कालिज में लड़कों की आशिक निगाहों ने एहसास दिला दिया था कि बहुत बुरी नहीं दिखती हूं. मगर वास्तव में खूबसूरत हूं इस का एहसास मुझे कभीकभार ही हुआ था. गहरे बैगनी रंग के सूट में खिलती गोरी बांहें, मैच नहीं करती मम्मी की गहरी गुलाबी लिपस्टिक और नजर नहीं आती काजल की रेखाएं. बचीखुची कमी बेमौसम उमड़ आई लज्जा ने पूरी कर दी थी. एक बार तो खुद पर ही सीटी बजाने को दिल मचल गया.

घड़ी की दोनों सुइयां सीधेसीधे आलिंगन कर रही थीं.

‘‘चलें?’’ मैं ने बड़ी नजाकत से गेस्टरूम के  दरवाजे पर दस्तक दी.

‘‘बस, एक मिनट,’’ उस ने अपनी नजर एक बार दरवाजे से घुमा कर वापस कैमरे पर टिका दी.

मैं तब तक अंदर पहुंच चुकी थी. थोड़ी ऊंची सैंडल के कारण मुझे धीरेधीरे चलना पड़ रहा था.

उस ने मेरी ओर नजरें उठाईं और जैसे उस की पलकें जम गईं. कुछ पलों तक मुझे महसूस हुआ सारी सृष्टि ही मुझे निहारने को थम गई है.

‘‘चलें?’’ मैं ने हौले से उस की तंद्रा भंग की तो लगा जैसे वह नींद से जागा.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ उस ने इतने सीधे शब्दों में कहा कि मैं उलझ कर रह गई.

‘‘क्यों? क्या हुआ?’’ मेरी सारी अदा आलोपित हो गई.

‘‘क्या हुआ? अरे मैडम, लंगूर के साथ हूर देख कर तो शहर वाले हमारा काम ही तमाम कर देंगे न,’’ उस ने भोलेपन से जवाब दिया.

ऐसा न था कि मेरी प्रशंसा करने वाला वह पहला युवक था लेकिन ऐसी विचित्र बात किसी ने नहीं कही थी. उस की बात सुन कर और लड़कियों पर क्या गुजरती पता नहीं लेकिन शरम के मारे मेरी धड़कनें हिचकोले खाने लगीं.

टैक्सी में उस ने कितनी बार मुझे देखा पता नहीं लेकिन 3-4 बार नजरें मिलीं तो वह खिड़की के बाहर परेशान शहर को देखने लगता. यों तो शांत लोग मुझे पसंद थे मगर मौन रहना खलने लगा तो बिना शीर्षक और उपसंहार के बातें शुरू कर दीं.

अगर दिल में ज्यादा कपट न हो तो हृदय के मिलन में देर नहीं लगती है. फिर हम तो हमउम्र थे और दिल में कुछ भी नहीं था. जो मन में आता झट से बोल देती.

‘‘क्या फिगर है?’’

उस की ऊटपटांग बातें मुझे अच्छी लगने लगी थीं. मैं ने शरमाते हुए कनखियों से उस की भावभंगिमाएं देखने की कोशिश की तो मेरे मन में क्रोध की सुनामी उठने लगी. वह मेरी नहीं संगमरमर की प्रतिमा की बात कर रहा था. जब तक उस की समझ में आता कि उस ने क्या गुस्ताखी की तब तक मैं उसे खींचती हुई विक्टोरिया मेमोरियल से बाहर ले आई.

‘‘मैं आप की एक तसवीर उतार लूं?’’ अभिन्न ने अपना कैमरा निकालते हुए पूछा.

‘‘नहीं,’’ जब तक मैं उस का प्रश्न समझ कर एक अच्छा सा उत्तर तैयार करती एक शब्द फुदक कर बाहर आ गया. मेरे मन में थोड़ा नखरा करने का आइडिया आया था.

‘‘कोई बात नहीं,’’ उस ने यों कंधे उचकाए जैसे इसी उत्तर के लिए तैयार बैठा हो.

मैं गुमशुम सी तांबे की मूर्ति के साथ खड़ी हो गई जहां ज्यादातर लोग फोटो खिंचवाते थे. वह खुशीखुशी कैमरे में झांकने लगा.

‘‘जरा उधर…हां, ठीक है. अब जरा मुसकराइए.’’

उस की हरकतें देख मेरे चेहरे पर वे तमाम भावनाएं आ सकती थीं सिवा हंसने के. मैं ने उसे चिढ़ाने के लिए विचित्र मुद्रा में बत्तीसी खिसोड़ दी. उस ने झट बटन दबा दिया. मेरा नखरे का सारा नशा उतर गया.

रास्ते में पड़े पत्थरों को देख कर खयाल आया कि चुपके से एक पत्थर उठा कर उस का सिर तोड़ दूं. कमाल का लड़का था, जब साथ में इतनी सुंदर लड़की हो तो थोड़ाबहुत भाव देने में उस का क्या चला जाता. मेरा मन खूंखार होने लगा.

‘‘चलिए, थोड़ा रक्तदान कर दिया जाए?’’ रक्तदान का चलताफिरता शिविर देख कर मुझे जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. मैं बस, थोड़ा सा कष्ट उसे भी देना चाहती थी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. अभी मुझे बाहर जाना है.’’

‘‘चलिए, आप न सही मगर मैं रक्तदान करना चाहती हूं,’’ मुझे उसे नीचा दिखाने का अवसर मिल गया.

‘‘आप हो आइए, मैं इधर ही इंतजार करता हूं,’’ उस ने नजरें चुराते हुए कहा.

मैं इतनी आसानी से मानने वाली नहीं थी. उसे लगभग जबरदस्ती ले कर गाड़ी तक पहुंची. नामपता लिख कर जब नर्स ने सूई निकाली तो मेरी सारी बहादुरी ऐसे गायब हो गई जैसे मैं कभी बहादुर थी ही नहीं. पलभर के लिए इच्छा हुई कि चुपचाप खिसक लूं मगर मैं उसे दर्द का एहसास कराना चाहती थी.

अम्मा : भाग 2

अजय ने नीरा के होंठों को कस कर भींच दिया था पर चौखट पर खड़ी अपर्णा ने सबकुछ सुन लिया था. उस के तो तनबदन में आग सी लग गई पर सीधे नीरा से कुछ न कह कर अम्मां से जरूर मन की भड़ास निकाली थी.

‘3-3 ननदें हैं मेरी. हफ्ते में बारीबारी से तीनों आती हैं. मेरी सास के साथ मुंह से मुंह जोड़ कर बैठी रहती हैं, चौके में मैं अकेली पिसती हूं. सब्जी काट कर भी कोई नहीं देता. एक यह घर है, सबकुछ किया कराया मिलता है, तब भी बहू को चैन नहीं.’

‘तेरी ससुराल में होता होगा. बहू तो घर की लक्ष्मी होती है. उस की निंदा कोई बेटी से क्यों करे? वह पहले ही अपना घर छोड़ कर पराए घर की हो गई,’ अपर्णा की बात को बीच में काट कर अम्मां ने साफगोई से बीचबचाव करते हुए कहा था.

पर बेटी के जाने के बाद उन्होंने बारीकी से विश्लेषण किया. सुहाग उन का उजड़ा, वैधव्य उन्हें मिला. न किसी से कुछ मांगा, न ही गिलाशिकवा किया. चुपचाप कोने में बैठी, किताबों से मन बहलाती रहीं. फिर भी घर का वातावरण दूषित क्यों हो गया.

मन में यह विचार आया कि कहीं ऐसा तो नहीं, अजय उन्हें ज्यादा समय देने लगा है. इसलिए नीरा चिड़चिड़ी हो गई है. हर पत्नी को अपने पति का सान्निध्य भाता ही है.

अम्मां ने एक अहम फैसला लिया. अगले दिन शाम होते ही वह सत्संग पर निकल गई थीं. अपनी हमउम्र औरतों के साथ मिल कर कुछ देर प्रवचन सुनती रहीं फिर गपशप में थोड़ा समय व्यतीत कर वापस आ गईं. यही दिनचर्या आगे भी चलती रही.

हमेशा की तरह अजय अम्मां के कमरे में जाता और जब वह नहीं मिलतीं तो नीरा से प्रश्न करता. नीरा 10 दलीलें देती, पर अजय को चैन नहीं था. व्यावहारिक दृष्टिकोण रखने वाली अम्मां ‘कर्म’ पर विश्वास करती थीं. घर छोड़ कर सत्संग, कथा, कीर्तन करने वाली महिलाओं को अम्मां हेयदृष्टि से ही देखती थीं. फिर अब क्या हो गया?

नीरा प्रखर वक्ता की तरह बोली, ‘बाबूजी के गुजरने के बाद अम्मांजी कुछ ज्यादा ही नेमनियम मानने लगी हैं. शायद समाज के भय से अपने वैधव्य के प्रति अधिक सतर्कता बरतनी शुरू कर दी है.’

एक शाम अम्मां घर लौटीं तो घर कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ था. नीरा बुरी तरह चीख रही थी. अजय का स्वर धीमा था. फिर भी अम्मां ने इतना तो सुन ही लिया था, ‘दालरोटी का खर्च तो निकलता नहीं, फलदूध कहां से लाऊं?’

रात को नीरा अम्मां के कमरे में फलदूध रखने गई तो उन्होंने बहू को अपने पास बिठा लिया और बोलीं, ‘एक बात कहूं, नीरा.’

‘जी, अम्मां,’ उसे लगा, अम्मां ने शायद हम दोनों की बात सुन ली है.

‘तुम ने एम.ए., बी.एड. किया है और शादी से पहले भी तुम एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाती थीं.’

‘वह तो ठीक है अम्मां. पर तब घरपरिवार की कोई जिम्मेदारी नहीं थी. अब लवकुश भी हैं. इन्हें कौन संभालेगा?’ नीरा के चेहरे पर चिढ़ के भाव तिर आए.

‘मैं संभालूंगी,’ अम्मां ने दृढ़ता से कहा, ‘चार पैसे घर में आएंगे तो घर भी सुचारु रूप से चलेगा.’

सासबहू की बात चल ही रही थी, जब अजय और अपर्णा कमरे में प्रविष्ट हुए. नीरा चौके में चायनाश्ते का प्रबंध करने गई तो अजय ने ब्रीफकेस खोल कर एकएक कर कागज अम्मां के सामने फैलाने शुरू किए और फिर बोला, ‘अम्मां, सी.पी. फंड, इंश्योरेंस, गे्रच्युटी से कुल मिला कर 5 लाख रुपए मिले हैं. मिल तो और भी सकते थे, पर बाबूजी ने यहां से थोड़ाथोड़ा ऋण ले कर हमारी शादियों और शिक्षा आदि पर खर्च किया था. 7 हजार रुपए महीना तुम्हें पेंशन मिलेगी.’

‘अरे, बेटा, मैं क्या करूंगी इतने पैसों का? तुम्हीं रखो यह कागज अपने पास.’

‘अम्मां, पैसा तुम्हारा है. सुख में, दुख में तुम्हारे काम आएगा,’ अजय ने लिफाफा अम्मां को पकड़ा दिया.

नीरा ने सुना तो अपना माथा पीट लिया. बाद में अजय को आड़े हाथों ले कर बोली, ‘राजीखुशी अम्मां तुम्हें अपनी जमा पूंजी सौंप रही थीं तो ले क्यों न ली? पूरे मिट्टी के माधो हो. अब बुढि़या सांप की तरह पैसे पर कुंडली मार कर बैठी रहेगी.’

‘तड़ाक,’ एक झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा नीरा के गाल पर, ‘यह क्या हो गया?’ अम्मां क्षुब्ध मन से सोचने लगीं, ‘मेरे दिए हुए संस्कार, शिक्षा, सभी पर पानी फेर दिया अजय ने?’

अश्रुपूरित दृष्टि से अपर्णा की ओर अम्मां ने देखा था. जैसे पूछ रही हों कि यह सब क्यों हो रहा है इस घर में. कुछ देर तक नेत्रों की भाषा पढ़ने की कोशिश की पर एकदूसरे के ऊपर दृष्टि निक्षेप और गहरी श्वासों के अलावा कोई वार्तालाप नहीं हो सका था.

अचानक अपर्णा का स्वर उभरा, ‘सारी लड़ाईर् पैसे को ले कर है. बाबूजी थे तो इन पर कोई जिम्मेदारी नहीं थी. अब खर्च करना पड़ रहा है तो परेशानी हो रही है.’

अम्मां ने दीर्घनिश्वास भरा, ‘मैं ने तो नीरा से कहा है कि कोई नौकरी तलाश ले. कुछ पेंशन के पैसे अजय को मैं दे दूंगी.’

जीवन में ऐसे ढेरों क्षण आते हैं जो चुपचाप गुजर जाते हैं पर उन में से कुछ यादों की दहलीज पर अंगद की तरह पैर जमा कर खड़े हो जाते हैं. मां के साथ बिताए कितने क्षण, जिस में वह सिर्फ याचक है, उस की स्मृति पटल पर कतार बांधे खडे़ हैं.

बच्चे दादी को प्यार करते, अड़ोसीपड़ोसी अम्मां से सलाहमशविरा करते, अपर्णा और अजय मां को सम्मान देते तो नीरा चिढ़ती. पता नहीं क्यों? चाहे अम्मां यही प्यार, सम्मान अपनी तरफ से एक तश्तरी में सजा कर, दोगुना कर के बहू की थाली में परोस भी देतीं फिर भी न जाने क्यों नीरा का व्यवहार बद से बदतर होता चला गया.

अम्मां के हर काम में मीनमेख, छोटीछोटी बातों पर रूठना, हर किसी की बात काटना, घरपरिवार की जिम्मेदारियों के प्रति उदासीनता, उस के व्यवहार के हिस्से बनते चले गए.

एक बरस बाद बाबूजी का श्राद्ध था. अपर्णा को तो आना ही था. बेटी के बिना ब्राह्मण भोज कैसा? उस दिन पहली बार, स्थिर दृष्टि से अपर्णा ने अम्मां को देखा. कदाचित जिम्मेदारियों के बोझ से अम्मां बुढ़ा गई थीं. हर समय तनाव की स्थिति में रहने की वजह से घुटनों में दर्द होना शुरू हो गया था.

एकाधिकार : भाग 2

‘‘मांजी कहां हैं, भाभी?’’ पहली बार मोहिनी ने नरेंद्र के मुंह से कोई बात सुनी.

‘‘वे अंदर कमरे में हैं, अभी आएंगी. तुम दोनों थोड़ा सुस्ता लो. मैं चाय भेजती हूं,’’ और जेठानी चली गईं. थोड़ी ही देर में चाय की ट्रे उठाए 3-4 लड़कियों ने अंदर आ कर मोहिनी को घेर लिया. शीघ्र ही 2-3 लड़कियां और भी आ गईं. किसी के हाथ में नमकीन की प्लेट थी तो किसी के हाथ में मिठाई की. नई बहू को सब से पहले देखने का चाव सभी को था. नरेंद्र इस शैतानमंडली को देख कर घबरा गया. वह चाय का प्याला हाथ में थामे बाहर खिसक लिया.

‘‘भाभी, हमारे भैया कैसे लगे?’’ एक लड़की ने पूछा.

‘‘भाभी, तुम्हें गाना आता है?’’ दूसरी बोली.

‘‘अरे भाभी, हम सब तो नरेंद्र भैया से छोटी हैं, हम से क्यों शरमाती हो?’’ और भी इसी तरह के न जाने कितने सवाल वे करती जा रही थीं.

मोहिनी इन सवालों की बौछार से घबरा उठी. फिर सोचने लगी, ‘नरेंद्र की मांजी कहां हैं? क्या वे उस से मिलेंगी नहीं?’

चाय का प्याला थाम कर उस ने धीरे से सिर उठा कर उन सभी लड़कियों की ओर देखा, जिन के भोले चेहरों पर अपनत्व झलक रहा था किंतु आंखें शरारत से बाज नहीं आ रही थीं. मोहिनी कुछ सहज हुई और आखिर पूछ ही बैठी, ‘‘मांजी कहां हैं?’’

‘‘कौन, चाची? अरे, वे तो अभी तुम्हारे पास नहीं आएंगी. शगुन के सारे काम तो बड़ी भाभी ही करेंगी.’’ मोहिनी कुछ ठीक से समझ न पाई, इसलिए चुप ही रही. चुपचाप चाय पीती वह सोच रही थी, क्या वह अंदर जा कर मांजी से नहीं मिल सकती.

तभी जेठानी अंदर आ गईं, ‘‘चलो मोहिनी, मांजी के पांव छू लो.’’ मोहिनी उठ खड़ी हुई. सास के पास पहुंच कर उस ने बड़ी श्रद्धा से झुक कर उन के पांव छुए और इस इंतजार में झुकी रही कि अभी वे उसे खींच कर अपने हृदय से लगा लेंगी, किंतु ऐसा कुछ भी न हुआ.

‘‘सदा सुखी रहो,’’ कहते हुए उन्होंने उस के सिर पर हाथ रख दिया और वहां से चली गईं.

ममता की प्यासी मोहिनी को ऐसा लगा जैसे उस के सामने से प्यार का ठंडा अमृत कलश ही हटा लिया गया हो.

फूलों से सजे कमरे में रात्रि के समय नरेंद्र व मोहिनी अकेले थे. यों तो नरेंद्र स्वभाव से ही शर्मीला था, किंतु उस रात वह भी सूरमा बन बैठा. हिचकिचाती, अपनेआप में सिमटी मोहिनी को उस ने जबरन अपनी बांहों में समेट लिया.

जीवनभर के विश्वासों की नींव शायद इसी परस्पर निकटता की आधारशिला पर टिकी होती है. इसीलिए सुबह होतेहोते दोनों आपस में इस तरह घुलमिल कर बातें कर रहे थे मानो वर्षों से एकदूसरे को जानते हों. मोहिनी नरेंद्र के मन को भा गई थी. दसरे दिन सुबह सभी मेहमान जाने को हो रहे थे. रसोई में नाश्ते की व्यवस्था हो रही थी. शायद उसे भी काम में हाथ बंटाना चाहिए, यही सोच कर मोहिनी भी रसोई के दरवाजे पर जा खड़ी हुई. जेठानी प्यालों में चाय छान रही थीं और मां पूरियां उतार रही थीं.

मोहिनी ने धीरे से चकला अपनी ओर खिसका कर सास के हाथ से बेलन ले लिया और ‘मैं बेलती हूं, मांजी’ कह कर पूरियां बेलने लगी. उस की बेली 4-6 पूरियां उतारने के बाद ही सास धीरे से बोल उठीं, ‘‘नरेंद्र की बहू, पूरियां मोटी हो रही हैं…रहने दो, मैं ही कर लूंगी.’’ मोहिनी सहम कर बाहर आ गई. रात को मोहिनी ने नरेंद्र के कंधे पर सिर टिका कर 2 दिन से अपने हृदय में मथ रहे प्रश्न को पूछ ही लिया, ‘‘मांजी मुझे पसंद नहीं करतीं क्या?’’

नरेंद्र इस बेतुके, किंतु बिना किसी बनावट के किए गए सीधे प्रश्न से चौंक उठा, ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘मांजी मुझ से प्यार से बोलती नहीं, न ही मुझे अपने से चिपटा कर प्यार किया. भाभी ने तो प्यार किया लेकिन मांजी ने नहीं.’’

मोहिनी के दोनों हाथ थाम कर वह बोला, ‘‘मां को समझने में तुम्हें अभी कुछ समय लगेगा. वैधव्य के सूनेपन ने ही उन्हें रूखा बना दिया है, उस पर भाभी के साथ कुछ न कुछ खटपट चलती ही रहती है. इसी कारण मांजी अंतर्मुखी हो गई हैं. किसी से अधिक बोलती नहीं. कुछ दिन तुम्हारे साथ रह कर शायद वे बदल जाएं.’’

‘‘मैं पूरा यत्न करूंगी,’’ और अपनेआप में हलका महसूस करते हुए मोहिनी नरेंद्र से सट कर सो गई. दूसरे दिन सुबह नरेंद्र के बड़े भाई एवं भाभी भी बच्चों सहित लौट गए. नरेंद्र से छोटे दोनों भाई अपनीअपनी नौकरियों पर वापस चले गए थे और 2 सब से छोटे भाई, जो नरेंद्र के पास रह कर पढ़ाई करते थे, अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए.

सपनों की बगिया : भाग 2

वह सोचा करती थी कि जब उस का विवाह होगा तो उस का पति होगा, छोटा सा एक घर होगा, जिस में हर वस्तु कलात्मक और सुंदर होगी. घर में फूलों से भरी क्यारियां होंगी, हमेशा हरेभरे रहने वाले पौधे होंगे. घर की हवा ताजगी और खुशबुओं से भरी होगी पर अब उसे ऐसा लग रहा था, जैसे जेठ की तपती धूप ने उस के सारे फूलों को जला डाला है और किसी भीषण आंधी ने उस के छोटे से घर की हर कलात्मक, खूबसूरत चीज को धूल से ढक कर एकदम बदरंग कर दिया है.

उसे यह दयाशंकर शर्मा की याद दिलाता था, जिस के मांबाप ने सुजाता का हाथ मांगा था पर वह जानती थी कि दयाशंकर एक नंबर का निकम्मा है. जब दयाशंकर ने उसे दिनेश के साथ घूमते देखा तो एक दिन एक छोटे रैस्तरां, जहां दोनों चाय पी रहे थे, में आ धमका और दिनेश से कहने लगा कि वह अपनी औकात में रहे. उसे भी धमकी दे गया कि यदि उस ने जाति से बाहर कदम रखा तो बवाल करा देगा. यह तो दिनेश के दोस्तों की देन थी कि वे दयाशंकर को सही से सम झाने आए थे और दोनों का विवाह हो गया.

कई बार सुजाता सोचती कि क्या उस की अपनी जाति का दयाशंकर उसे ढंग से रखता पर जब वह दयाशंकर की बड़ी भाभी से मिली तो साफ हो गया कि उस घर में तो हर समय क्लेश रहता है. हर जना गरूर में रहता है और कोई भी मेहनत से कमाना ही नहीं जानता. हरेक को मुफ्तखोरी की आदत पड़ी थी. कुछ महीने पहले उस ने दयाशंकर को कुछ लफंगों के साथ बाजार में एक आम बेचने वाले को पीटते देखा था, जो उन से पूरे पैसे मांगने की हिमाकत कर चुका था. उसे अपने फैसले पर पूरा गर्व हो उठा था.

वह अपने सपनों के टूटे टुकड़ों को फेंक कर जो पा सकी है, उसे ले कर जीवन सार्थक मान ले या इस परिवाररूपी वृक्ष की एक डाली यहां से कहीं दूर ले जा कर अपने सपनों की बगिया को सजा ले. बहुत सोचने पर भी उसे कोई उत्तर नहीं मिल पा रहा था. बहुत सम झनेसोचने पर उसे लगा कि वह दोनों ही काम करने में असमर्थ है. न तो वह अपने सपनों को कभी मन से निकाल सकेगी और न ही इतनी इज्जत देने वाले सासससुर, ननददेवरों को छोड़ कर पति के साथ नई गृहस्थी बना कर ही सुखी रह सकेगी.

उसे अपने सपनों को इसी घर में रह कर पूरा करना होगा. इन्हीं लोगों के साथ रह कर विरोधों को  झेल कर, उसे धीरेधीरे बहुतकुछ बदलना होगा. उस ने अपनी चचेरी बहनों की दुर्गति देखी थी, जो उसी जाति में ब्याही गईं पर रातदिन दहेज पर कमैंट सुनतीं, जराजरा सी बात पर उन की सांसें तुनक जातीं.

मित्रों के साथ ताश और गपबाजी में दिनेश का समय गुजरे, यह बात सुजाता को बहुत सताती. एक दिन मित्रों की बुलाहट होने पर दिनेश उठा ही था कि सुजाता ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘मैं भी चलूंगी आप के साथ,’’ सुजाता हंसती हुई बोली.

दिनेश अचकचा गया, ‘‘वहां, मेरे मित्रों में?

‘‘पर वहां तो एक भी औरत नहीं होती है. तुम बोर हो जाओगी और फिर माताजी और पिताजी क्या कहेंगे?’’

‘‘यही कि नववधू को अकेला छोड़ कर मित्रों के पास बैठना आप को शोभा नहीं देता.’’

‘‘बस, मैं अभी आता हूं. जब आ ही गए हैं तो कुछ देर बैठ ही लें.’’

सुजाता मचल उठी, ‘‘नहींनहीं, मैं आप को आज नहीं जाने दूंगी. हम लोगों ने पिक्चर चलने का प्रोग्राम बनाया है. आज तो मित्रों को विदा करना ही पड़ेगा.’’

दिनेश को सुजाता के हठ के आगे  झुकना ही पड़ा और धीरेधीरे उस की सारी शामें सुजाता की हो गईं.

गुड्डू तिमाही इम्तिहान में हमेशा की तरह फेल हो गया था. पिताजी और महेश से अच्छी तरह पिटने के बाद वह सुबक रहा था.

सुजाता का दिल उमड़ पड़ा. बेचारे बालक का दोष ही क्या था? यह सब घर वालों की उस के प्रति लापरवाही का ही नतीजा था. वह इसी तरह पढ़ेगा तो कितना पढ़ पाएगा? उस का भविष्य क्या होगा? नतीजा खराब निकलने पर मारपीट करने तक की जिम्मेदारी तो सब लेते हैं, परंतु पढ़ाने की जिम्मेदारी लेने का अवकाश किसी को नहीं जाता. स्कूल नहीं जाता, इसलिए पढ़ाई नहीं कर पाता. शायद यह एक चक्कर था, जो घूम रहा था. क्या वह भी उस की बरबादी की दर्शिका बन कर रह जाए? क्या वह इस अबोध बालक की कोई सहायता नहीं कर सकती?

गुड्डू की परीक्षा लेने पर उसे पता

चला कि वह शिक्षा के हर पहलू

से अनजान है और उस की अधूरी शिक्षा को पहली सीढ़ी से शुरू करना पड़ेगा. उसे एक ध्येय मिल गया था. वह पूरे उत्साह से उस में जुट गई. उस ने पूरे 10 दिन की अस्पताल से छुट्टी ले ली. सारा दिन उसे पढ़ाया. बचे समय में उस ने घर पर ध्यान देना शुरू किया.

धीरेधीरे घर में पौधों पर गमलों का प्रवेश होने लगा था. आंगन की सीमेंट तोड़ कर, ईंटें निकाल कर किनारेकिनारे क्यारियां बना दी गईं. अब तो दिनेश ने स्वयं इस काम में सुजाता की सहायता की थी. सब लोगों ने पढ़ीलिखी सम झदार घर की बहू की उस की सनक सम झा पर जब नन्हेनन्हे पौधे हरेहरे दिखने लगे तो सब को अच्छा लगा. उसे पता था किसी दिन इन बेजान से पौधों से पत्ते निकलेंगे और फूल खिलेंगे, फिर उन में से रंग उभरेंगे और खुशबू की लहरें उठेंगी पर यह सब धीरेधीरे होगा. उसे बड़े धैर्य से उन की देखभाल करनी होगी.

सुजाता ने सास की  झाड़ू तो नहीं उठाई, परंतु जब समय मिलता वह घर में फैले हुए कपड़ों, बरतनों और फर्नीचर को सहेजने में लग जाती थी. घर की व्यवस्था सुधारने का हर छोटा सा प्रयत्न उस के लिए संतोष का विषय हो गया था.

खूंटी, अलगनी और गुसलखाने में पुराने स्टाइल से लटके रतना के नए से नए डिजाइन के कपड़े देखरेख के अभाव में बहुत जल्दी अपना रूपरंग खो देते थे. पुरानों को फेंक रतना नए कपड़ों के ढेर लगाती रहती. उस के कपड़ों और दर्जी का बढ़ता बिल घर में तनातनी का विषय बना रहता.

इस बात को ले कर काफी चखचख और बहस भी होती. कभी खुशामद कर के, कभी रोधो कर रतना किसी न किसी तरह नए कपड़े सिलवाने के लिए रुपए पा ही लेती थी.

आखिरी लोकल : भाग 2

इस शहर की आबादी दिनोंदिन बढ़ते रहने की एक वजह यह भी है. हालांकि शिवानी और शिवेश ने अभी तक मुंबई में बस जाने का फैसला नहीं लिया था, फिर भी फिलहाल मुंबई में कुछ दिन बिताने के बाद वे यहां के लाइफ स्टाइल से अच्छी तरह परिचित तो हो ही चुके थे.  वे तकरीबन पूरी मुंबई घूम चुके थे. जब कभी उन की मुंबई घूमने की इच्छा होती थी, तो वे मुंबई दर्शन की बस में बैठ जाते और पूरी मुंबई को देख लेते थे. अपने रिश्तेदारों के साथ भी वे यह तकनीक अपनाते थे.

कभीकभी जब शिवानी की इच्छा होती तो दोनों अकसर शनिवार की रात कोई फिल्म देख लेते थे. खासतौर पर जब शाहरुख खान की कोई नई फिल्म लगती तो शिवानी फिर जिद कर के रिलीज के दूसरे दिन यानी शनिवार को ही वह फिल्म देख लेती थी. आज भी उस के पसंदीदा हीरो की फिल्म की रिलीज का दूसरा ही दिन था. समीक्षकों ने फिल्म की धज्जियां उड़ा दी थीं, फिर भी शिवानी पर इस का कोई असर नहीं पड़ा था. बस देखनी है तो देखनी है.

‘‘ये फिल्मों की समीक्षा करने वाले फिल्म बनाने की औकात रखते हैं क्या?’’ वह चिढ़ कर कहती थी.  ‘‘ऐसा न कहो.

सब लोग अपने पेशे के मुताबिक ही काम करते हैं. समीक्षक  भी फिल्म कला से अच्छी तरह परिचित होते हैं. प्रजातांत्रिक देश है मैडमजी. कहने, सुनने और लिखने की पूरीपूरी आजादी है.  ‘‘यहां लोग पहले की समीक्षाएं पढ़ कर फिल्म समीक्षा करना सीखते हैं, जबकि विदेशों में फिल्म समीक्षा  भी पढ़ाई का एक जरूरी अंग है,’’ शिवेश अकसर समझाने की कोशिश करता था. ‘‘बसबस, ज्यादा ज्ञान देने की जरूरत नहीं. मैं समझ गई. लेकिन फिल्म मैं जरूर देखूंगी,’’ अकसर किसी भी बात का समापन शिवानी हाथ जोड़ते हुए मुसकरा कर अपनी बात कहती थी और शिवेश हथियार डाल देता था. आज भी वैसा ही हुआ. ‘‘अच्छा चलो महारानीजी, तुम जीती मैं हारा. रात का शो हम देख रहे हैं. अब खुश?’’ शिवेश ने भी हाथ जोड़ लिए.  ‘‘हां जी, जीत हमेशा पत्नी की होनी चाहिए.’’  ‘‘मान लिया जी,’’ शिवेश ने मुसकरा कर कहा.

‘‘मन तो कर रहा है कि तुम्हारा मुंह  चूम लूं, लेकिन जाने दो. बच गए. पब्लिक प्लेस है न,’’ शिवानी ने बड़ी अदा से कहा. इस मस्ती के बाद दोनों अपनेअपने औफिस की तरफ चल दिए. औफिस पहुंच कर दोनों अपने काम में बिजी हो गए. काम निबटातेनिबटाते कब साढ़े  5 बज जाते थे, किसी को पता ही नहीं चलता था. शिवेश ने आज के काम जल्दी निबटा लिए थे. ऐसे भी अगले दिन रविवार की छुट्टी थी.

लिहाजा, आराम से रात के शो में फिल्म देखी जा सकती थी. उस ने शिवानी से बात करने का मन बनाया. अपने मोबाइल से उस ने शिवानी को फोन लगाया. ‘हांजी पतिदेव महोदय, क्या इरादा है?’ शिवानी ने फोन उठाते हुए पूछा. ‘‘जी महोदया, मेरा काम तो पूरा हो चुका है. क्या हम साढ़े 6 बजे का शो भी देख सकते हैं?’’ ‘जी नहीं, माफ करें स्वामी. हमारा काम खत्म होने में कम से कम एक घंटा और लगेगा. आप एक घंटे तक मटरगश्ती भी कर सकते हैं,’ शिवानी ने मस्ती में कहा.

‘‘आवारागर्दी से क्या मतलब है तुम्हारा?’’ शिवेश जलभुन गया.

‘अरे बाबा, नाराज नहीं होते. मैं तो मजाक कर रही थी,’ कह कर शिवानी हंस पड़ी थी.  ‘‘मैं तुम्हारे औफिस आ जाऊं?’’ ‘नो बेबी, बिलकुल नहीं. तुम्हें यहां चुड़ैलों की नजर लग जाएगी. ऐसा करो, तुम सिनेमाघर के पास पहुंच जाओ. वहां किताबों की दुकान है. देख लो कुछ नई किताबें आई हैं क्या?’ ‘‘ठीक है,’’ शिवेश ने कहा, ‘‘और हां, टिकट खरीदने की बारी तुम्हारी है. याद है न?’’ ‘हां जी याद है. अब चलो फोन रखो,’ शिवानी ने हंस कर कहा.

शिवेश औफिस से निकल कर सिनेमाघर की तरफ चल पड़ा. मुंबई में ज्यादातर सिनेमाघर अब मल्टीप्लैक्स में शिफ्ट हो गए थे. यह हाल अभी तक सिंगल स्क्रीन वाला था. स्टेशन के नजदीक होने के चलते यहां किसी भी नई फिल्म का रिलीज होना तय था. मुंबई का छत्रपति शिवाजी रेलवे टर्मिनस, जो पहले विक्टोरिया टर्मिनस के नाम से मशहूर था, आज भी पुराने छोटे नाम ‘वीटी’ से ही मशहूर था.

स्टेशन से लगा हुआ बहुत बड़ा बाजार था, जहां एक से एक हर किस्म के सामानों की दुकानें थीं. हुतात्मा चौक के पास फुटपाथों पर बिकने वाली किताबों की खुली दुकानों के अलावा भी किताबों की दुकानों की भरमार थी.  रेलवे स्टेशन से गेटवे औफ इंडिया तक मुंबई 2 भागों डीएन रोड और फोर्ट क्षेत्र में बंटा हुआ था. दुकानें दोनों तरफ थीं. एक मल्टीस्टोर भी था. यहां सभी ब्रांडों के म्यूजिक सिस्टम मिलते थे. इस के अलावा नईपुरानी फिल्मों की सीडी या फिर डीवीडी भी मिलती थी.

शिवेश ने यहां अकसर कई पुरानी फिल्मों की डीवीडी और सीडी खरीदी  थी. आज  उस के पास किताबें और फिल्मों की डीवीडी और सीडी भरपूर मात्रा में थीं. हिंदी सिनेमा के सभी कलाकारों की पुरानी से पुरानी और नई फिल्मों की उस ने इकट्ठी कर के रखी थीं. ‘चलो आज नई किताबें ही देख लेते हैं,’ यह सोच कर के वह किताबों की दुकान में घुसने ही वाला था कि सामने एक पुराना औफिस साथी नरेश दिख दिख गया.

‘‘अरे शिवेश, आज इधर?’’  ‘‘हां, कुछ किताबें खरीदनी थीं,’’ शिवेश ने जवाब दिया.  ‘‘तुम तो दोनों कीड़े हो, किताबी भी और फिल्मी भी. फिल्में नहीं खरीदोगे?’’ ‘‘वे भी खरीदनी हैं, पर ब्रांडेड खरीदनी हैं.’’ ‘‘फिर तो इंतजार करना होगा. नई फिल्में इतनी जल्दी तो आएंगी नहीं.’’ ‘‘वह तो है, इसलिए आज सिर्फ किताबें खरीदनी हैं. आओ, साथ में अंदर चलो.’’

‘‘रहने दो यार. तुम तो जानते ही हो, किताबों से मेरा छत्तीस का आंकड़ा है,’’ यह कह कर हंसते हुए नरेश वहां से चला गया. शिवेश ने चैन की सांस ली कि चलो पीछा छूटा. इस बीच मोबाइल की घंटी बजी. ‘कहां हो बे?’ शिवानी ने पूछा.

‘‘अरे यार, कोई आसपास नहीं है क्या? कोई सुनेगा तो क्या कहेगा?’’ शिवेश ने झूठी नाराजगी जताई. शिवानी अकसर टपोरी भाषा में बात करती थी.  ‘अरे कोई नहीं है. सब लोग चले गए हैं. मैं भी शटडाउन कर रही हूं. बस निकल ही रही हूं.’ ‘‘इस का मतलब है, औफिस तुम्हें ही बंद करना होगा.’’ ‘बौस है न बैठा हुआ. वह करेगा औफिस बंद. पता नहीं, क्याक्या फर्जी आंकड़े तैयार कर रहा है?’ ‘‘मार्केटिंग का यही तो रोना है बेबी. खैर, छोड़ो. अपने को क्या करना है. तुम बस निकल लो यहां के लिए.’’

‘हां, पहुंच जाऊंगी.’ ‘‘साढ़े 9 बजे का शो है. अब भी सोच लो.’’ ‘अब सोचना क्या है जी. देखना है तो बस देखना है. भले ही रात स्टेशन पर गुजारनी पड़े.’ ‘‘पूछ कर गलती हो गई जानेमन. सहमत हुआ. देखना है तो देखना है.’’ शिवेश ने बात खत्म की और किताब  की दुकान के अंदर चला गया.

शिवेश ने कुछ किताबें खरीदीं और फिर बाहर आ कर शिवानी का इंतजार करने लगा. थोड़ी देर में ही शिवानी आ गई. दोनों सिनेमाघर पहुंच गए, जो वहां से कुछ ही दूरी पर था. भीड़ बहुत ज्यादा नजर नहीं आ रही थी.  ‘‘देख लो, तुम्हारे हीरो की फिल्म के लिए कितनी जबरदस्त भीड़ है,’’ शिवेश ने तंज कसते हुए कहा.  ‘‘रात का शो है न, इसलिए भी कम है.’’ शिवानी हार मानने वालों में कहां थी.  ‘‘बिलकुल सही. चलो टिकट लो,’’ शिवेश ने शिवानी से कहा.

‘‘लेती हूं बाबा. याद है मुझे कि  आज मेरी  बारी है,’’ शिवानी ने हंसते हुए कहा.  शिवानी ने टिकट ली और शिवेश के साथ एक कोने में खड़ी हो गई.  शो अब शुरू ही होने वाला था. दोनों सिनेमाघर के अंदर चले गए. परदे पर फिल्म रील की लंबाई देख कर दोनों चिंतित हो गए. ‘‘ठीक 12 बजे हम लोग बाहर निकल जाएंगे, वरना आखिरी लोकल मिलने से रही,’’ शिवेश ने धीमे से शिवानी के कान में कहा.  ‘‘जो हो जाए, पूरी फिल्म देख कर ही जाएंगे.’’ ‘‘ठीक है बेबी. आज पता चलेगा कि नाइट शो का क्या मजा होता है.’’  फिर दोनों फिल्म देखने में मशगूल हो गए.

शिवानी पूरी मगन हो कर फिल्म देख रही थी. शिवेश का ध्यान बारबार घड़ी की तरफ था. इंटरवल हुआ तो उस समय तकरीबन 11 बज रहे थे. शिवानी ने उस की तरफ देखा और उस से पूछ बैठी, ‘‘क्या बात है, बहुत चिंतित लग रहे हो?’’ ‘‘11 बज रहे हैं. फिल्म खत्म होतेहोते साढ़े 12 बज जाएंगे. स्टेशन पहुंचने तक तो एक जरूर बज जाएगा.’’ ‘‘बजने दो. कौन परवाह करता है?’’ शिवानी ने बेफिक्र हो कर जवाब दिया.  इस बीच इंटरवल खत्म हो चुका था. फिल्म फिर शुरू हो गई. पूरी फिल्म के दौरान शिवेश बारबार घड़ी देख रहा था, जबकि शिवानी फिल्म देख रही थी.

फिल्म साढ़े 12 बजे खत्म हुई. दोनों बाहर निकले. पौने 1 बजे की लास्ट लोकल उन की आखिरी उम्मीद थी. तेजी से वे दोनों स्टेशन की तरफ बढ़ चले.  ‘‘आखिरी लोकल तो एक चालीस की खुलती है न?’’ शिवानी ने चलतेचलते पूछा.  ‘‘वह फिल्मी लोकल थी. हकीकत में रात 12 बज कर 45 मिनट पर आखिरी लोकल खुलती है.’’ शिवानी के चेहरे पर पहली बार डर नजर आया. ‘‘डरो मत. देखा जाएगा,’’ शिवेश ने आत्मविश्वास से भरी आवाज में जवाब दिया. आखिर वही हुआ, जिस का डर था. लोकल ट्रेन परिसर के फाटक बंद हो रहे थे. अंदर जो लोग थे, सब को बाहर किया जा रहा था. ‘अब कहां जाएंगे?’ दोनों एकदूसरे से आंखों में सवाल कर रहे थे.

‘‘अब क्या करेंगे हम? पहली लोकल ट्रेन सुबह साढ़े 3 बजे की है?’’ शिवेश ने कहा.  शिवानी एकदम चुपचाप थी, जैसे सारा कुसूर उसी का था.  ‘‘मुझे माफ कर दो. मेरी ही जिद से यह सब हो रहा है,’’ शिवानी बोली. ‘‘कोई बात नहीं. आज हमें एक मौका मिला है. मुंबई को रात में देखने का, तो क्यों न इस मौके का भरपूर फायदा उठाया जाए.  ‘‘बहुत सुन रखा था, मुंबई रात को सोती नहीं है. रात जवान हो जाती है वगैरह. क्या खयाल है आप का?’’ शिवेश ने मुसकरा कर शिवानी की तरफ देखते हुए पूछा.

प्रेम का दायरा : भाग 2

उस आदमी ने कहा,”आप उसे वहीं खोजें. बच्चा बाहर तो नहीं गया होगा.”

वह निशा के साथ बड़े पार्क में गया. निशा ने देखा कि बबलू बेंच पर बैठा रो रहा है. उधर से एक सुरक्षाकर्मी भी आता दिखा. निशा बबलू को देख कर जोरजोर से रोने लगी थी. उस ने उसे चूमा और सीने से लगा लिया था,”कहां चला गया था?”

बबलू ने कहा, “मैं तो यहीं था,” वह भी हिचकियां लेले कर रो रहा था.

“मैं तो हाइड ऐंड सिक खेल रह था,” बबलू पता नहीं क्यों अकेले में बातें किया करता है. निशा अकसर यह बात पीर मोहम्मद से पूछती थी. बबलू ने उसी पार्क में एक कुआं दिखाया जो लगभग 4 फुट ऊंचे ईंटों से घेरा गया था और लोहे के ग्रिल से ढंका हुआ था ताकि कोई बच्चा उस में न गिर जाए और न कोई उस पर चढ़ पाए. बबलू उस कुएं के पीछे छिप गया था.

निशा ने कहा,”बेटा, ऐसा नहीं करते. अकेले बच्चों को राक्षस ले जाता है. जब मम्मी आवाज लगा रही थी तो क्या आप ने सुना नहीं?”

“नहीं मम्मी, मैं तो हाइड ऐंड सिक खेल रहा था.”

इस के बाद निशा बबलू को ले कर पार्क से बाहर आई. साथ में वह आदमी भी आया था. उस की उम्र लगभग 40 की होगी. निशा ने उस से कहा,”आप का एहसान है, मुझे तो उस समय कुछ समझ ही नहीं आ रहा था आखिर मैं करूं तो क्या? एक तो नया शहर है. पता नहीं क्या उलटासीधा दिमाग में घूमने लगा था.”

व्यक्ति ने कहा, “आप नए हैं यहां?”

“जी…” निशा ने उसे बताया कि वह सैक्टर-बी में नई बनी सोसायटी में रहती है.

निशा ने उसे अपना फोन नंबर भी दिया. वह कुछ आगे बढ़ गई तभी उसे याद आया कि अरे, मैं ने तो उन का नाम भी नहीं पूछा.

उस ने पीछे मुड़ कर देखा तो वह आदमी जा रहा था. उस ने आवाज लगाई और जब उस ने देखा तो निशा ने उस को हाथ हिलाया. वह ज्यादा दूर नहीं गया था. वह उस के पास आया तो निशा बोली,”सौरी, मैं ने तो आप का नाम ही नहीं पूछा, क्या नाम है आप का?”

“सरफराज खान.”

पीर मोहम्मद घर पहुंच चुका था. वह निशा पर कोई पाबंदी नहीं चाहता था. दूसरी बात यह भी थी कि वह घर से ज्यादा निकलती भी नहीं थी. दिल्ली शहर में जब वे रहते थे तो वहां उन के कुछ रिश्तेदार भी रहते थे. अगर निशा उन के घर जाती तो जाने से पहले वह पीर मोहम्मद को बता देती थी. औफिस से आने के बाद पीर मोहम्मद अगर सिंक में किचन के जूठे बरतन देखता तो उसे साफ कर देता था. चाय भी बना कर पी लेता था. आज जब निशा नहीं आई थी तो वह समझ गया था कि कुछ काम होगा उसे, क्योंकि निशा ने उन्हें बता दिया था कि वह बबलू को पार्क में ले जा रही है. निशा एक जिम्मेदार औरत है.

दरअसल, वह अपनी उम्र से ज्यादा समझदार हो गई थी. शादी कर के आई तो उस के कम खर्चे को ले कर पीर मोहम्मद अकसर दुखी भी हो जाता था. जब कभी दोनों बाजार जाते तो वह अपने लिए कुछ न खरीदती. पीर मोहम्मद उसे बारबार कहता कि कुछ तो खरीद लो, लेकिन वह नहीं खरीदती. पीर मोहम्मद को अंदर से रोने जैसा भाव हो जाता था.

निशा ने उसे देख कर कहा,”कब आए?”

“थोड़ी देर हुआ है. क्यों बबलू, आज तो मजा आया होगा?”

निशा ने कहा, “आप ने कुछ लिया?”

“हां, चाय बनाई थी, लेकिन तुम तो जानती हो कि तुम्हारे हाथ की चाय पीए बगैर लगता ही नहीं है कि चाय पी है.”

निशा और पीर मोहम्मद का विवाह अरैंज्ड से लव मैरिज बन गया था. जब दोनों की शादी की बात चली तो दोनों ने एकदूसरे से मिले बगैर ही शादी कर ली. पीर मोहम्मद और निशा का एकदूसरे से फोन पर बातचीत से ही बहुत लगाव हो गया था. इतना लगाव कि उन्होंने एकदूसरे को देखना भी मुनासिब नहीं समझा था. पीर मोहम्मद के साथ रहतेरहते निशा के सालों गुजर गए थे. इन वर्षों में निशा ने पीर मोहम्मद से कुछ डिमांड न की, क्योंकि वह पीर मोहम्मद की माली हालात को अच्छी तरह समझती थी. दूसरी तरफ वह बहुत संकोची थी. उसे लगता कि कोई उस बात को बोल न दे. कोई ताना न मार दे. वह किसी बात को ले कर गंभीर हो जाती है. वह किसी भी बात को बहुत जल्दी दिल पर लगा लेती. बहुत संवेदनशील रहती थी वह.
साल 2 साल में कभी कपड़े खरीद लिए नहीं तो कोई डिमांड नहीं. कहीं घूमना भी नहीं जाना होता.

निशा को याद है जब उस की शादी हुई थी, तो पीर मोहम्मद ने कहा था कि वह उसे आगरा ले कर जाएगा, लेकिन उस के पास इतने पैसे ही नहीं हुए कि ले कर जाए. 3 महीने बाद वह अपने मायके चली गई थी. जब वापस आई तो 1 साल के बाद पीर मोहम्मद उसे घुमाने ले गया था. उस समय निशा 2 महीने से पेट से थी. पीर मोहम्मद दहेज तो नहीं लेना चाहता था, लेकिन सामाजिक रूढ़ियों में वह दवाब में आ गया था. उस के अंदर भी कुछ दहेज को ले कर एक लालच समा गया था था फिर भी अपनी तरफ से कुछ भी डिमांड नहीं कर सका. लेकिन शादी के बाद उस ने निशा के मातापिता को सरेआम बेइज्जत किया, पारिवारिक व सामाजिक रूढ़ियों के दबाव में क्योंकि कोई कितना भी आदर्शवादी बने, लेकिन इस व्यवस्था से निकलना मुश्किल हो जाता है. ऐसा नहीं है कि लोग नहीं निकले हैं. पीर मोहम्मद परिवर्तनवादी प्रक्रिया में जरूर था. सब से बड़ी बात तो यह थी कि उस ने कुछ मांगा भी नहीं था, लेकिन घर वालों की तानाकशी के प्रभाव में आ ही गया था. लेकिन वह एक अच्छा इंसान है जो केयर तो करता है लेकिन उस में व्यक्ति को पहचानने की समझ नहीं. वह निशा से कहता कि किसी चीज की आवश्यकता है तो उसे कह दे. लेकिन निशा कहती कि जैसे मैं आप की दिल की बात समझ जाती हूं तो आप क्यों नहीं समझ पाते? यह दोनों का बहुत बड़ा विरोधाभाष लगता है.

शादी के बाद बाद वे 2-3 बार ही लोकल घूमने गए थे. इतने सालों में वे पीर मोहम्मद के साथ 2 बार ही सिनेमा देखने गई थी. लेकिन निशा पीर मोहम्मद को बहुत प्यार करती थी जबकि पीर मोहम्मद उस से उतना प्यार नहीं करता था. लेकिन वह उस के बगैर रह भी नहीं सकता था. जब निशा उस से नाराज हो जाती या बात करना बंद कर देती तब पीर मोहम्मद बैचन हो जाता.

प्यार बिलकुल अंधा होता है, जो व्यक्ति उस के अंदर उस में समाहित हो जाता है उस से निकलना एक सच्चे और संवेदनशील व्यक्ति के लिए बहुत मुश्किल होता है. शादी से पहले एक बार फोन पर पीर मोहम्मद ने निशा से कहा था, “इस बार जब तुम्हारे पापामम्मी आए तो अपना फोटो जरूर भेज देना.”

लेकिन जब उस के मम्मीपापा आए, तो फोटो नहीं ले कर आए थे. इस पर पीर मोहम्मद ने निशा से अपनी नाराजगी जाहिर की थी. सच्चा प्यार वही कर सकता है, जो संवेदनशील है. देश, अपने और समाज के प्रति इस के विपरीत कोई नहीं. प्यार किसी की जान नहीं लेता. प्यार न ही किसी के शरीर का भूखा होता है. प्यार तो समर्पण है एकदूसरे के लिए. प्यार किसी के प्रति इर्ष्या भी नहीं है. अगर कोई किसी को प्यार करता तो वह उस को दुख नहीं दे सकता. न उस को हानि पहुंचा सकता है. प्यार किसी का रूपरंग भी नहीं देखता है, लेकिन इस को जीवन में ढाल लेना ही जीवन को समझ लेना होता है. इसी प्रकार समाज और देश है. इस के प्रति सच्चा समर्पण किसी व्यक्ति को किसी भी स्तर से दुखी न करना है.

लेकिन जब शादी में पीर मोहम्मद ने निशा को पहली बार देखा तो उसे लगा कि कैसी लड़की से शादी हो रही है, इस के तो सिर के बाल झङ गए हैं. निशा अपने बालों को सामने से ढंक कर रखती थी, जोकि उस पर बहुत भद्दा लगता था. शुरू में निशा में पीर मोहम्मद को कुछ विशेष आकर्षण नहीं दिखा था. लेकिन वह कुछ कर नहीं सकता था क्योंकि शादी हो चुकी थी. अब वह उस के बंधन में बंध चुका था, अगर वह उस को पहले देख लेता तो शायद शादी न करता. लेकिन वह उस से बेहद प्रेम करने लगा था, निशा उस से ज्यादा प्रेम करती थी.

पीर मोहम्मद को स्त्रियों के घने बाल बहुत अच्छे लगते थे. अपनी शादी के बाद वह सोचता है चि क्या उपाय करें, जिस से निशा के बाल घने हो जाएं. तब वस बाजार से अपनी हैसियत के अनुसार बाल घने और गंजापन दूर करने के लिए तरहतरह के तेल खरीद कर लाने लगा. उस के सिर पर मलिश भी करता. वह मालिश करता तो निशा को बुरा लगता था. लेकिन पीर मोहम्मद ने उसे बता दिया था कि उसे घने बाल अच्छे लगते हैं और छोटे बौब कट जैसे.

एक बात और थी कि पीर मोहम्मद भी कोई बहुत विशेष न था. लेकिन समाज हमेशा सुंदर बहू की कामना करता है चाहे लड़का कैसा भी हो. लेकिन निशा दब्बू लड़की नहीं थी. यह चाहत तो पीर मोहम्मद में थी. पर निशा सुंदर थी. दूसरी बात यह भी थी कि निशा उसे बहुत खराखरा सुना भी देती थी, उस के फुजूलखर्ची जोकि वह नहीं करता था लेकिन अनावश्यक कोई सामान मंगा ले आना. अपने खर्चे को ताक पर रख कर दूसरों को दे देना. पीर मोहम्मद दिखावटी भी था.

एक दिन निशा ने उस से कहा,”तुम्हारे साथ इतने वर्ष हो गए कभी कुछ डिमांड न की. क्या तुम बच्चे की ख्वाहिश भी पूरी नहीं कर सकते हो?”

लेकिन अब दोनों की स्थितियां बदल चुकी थीं. अब पीर मोहम्मद के पास पहले से बेहतर नौकरी थी. पीर अब 40 का हो गया था और निशा 34 की, लेकिन सचाई तो यह भी थी कि निशा ने उस के साथ बहुत समझौता किया था. पीर मोहम्मद एक अच्छा इंसान तो था लेकिन उस में शुरूशुरू में मेल ईगो भी था, कुछ घमंडी भी, जबकि उस के पास कुछ न था. पर उस ने अपने मेल ईगो धीरेधीरे समाप्त कर लिया.

निशा जब पार्क से आई, तो बबलू को ले कर बाथरूम में चली गई थी, क्योंकि भारत में जब से कोरोना फैला, लोगों में एक दूरी सी बन गई. अब सोशल डिस्टैंस ज्यादा ही हो गया है. हाथ धोना, मुंह धोना, कपड़े बदलना… खासकर बाहर से आने के बाद तो यह एक नियमित दिनचर्या है. निशा सोचती कि क्या यह सामाजिक दूरी पहले कम थी, जो कोरोना की आड़ में और ज्यादा हुई है? मुसलमानों से मिलनेजुलने में खासतौर पर शहरी वर्ग में एक संशय पहले ही था जो अब ज्यादा बढ़ गया है. सीएए और एनसीआर के विरोध के बाद खासतौर पर मुसलिम मोहल्लों को मुल्क विरोधी गतिविधियों के तौर पर जानना कुछ लोगों की मनोस्थिति थी जबकि कोरोना को रोकने का उपाय सरकार ढूंढ़ नहीं पा रही थी.

जल्दीजल्दी बबलू के हाथमुंह धो कर बाथरूम से निशा ने उसे बाहर भेज दिया था और पीर मोहम्मद ने उसे दूसरे कपड़े पहना दिए थे. अब बबलू उस के साथ खेलने लगा था.

कुछ देर के बाद निशा पीर मोहम्मद के लिए चाय ले कर आई. वह बबलू के साथ खेल रहा था. बबलू को दूध और कुछ बिस्कुट दिए थे. दोनों चाय पीने लगे, तब निशा ने पीर मोहम्मद को पार्क वाली घटना बताई कि बबलू कैसे गुम हो गया था, गुम क्या उस की शरारत थी.

एक आदमी ने मदद की, सहयोग किया खोजने में. इस पर पीर मोहम्मद गुस्सा हुआ, लेकिन जल्दी ही शांत हो गया क्योंकि वह जानता था कि उस का गुस्सा निशा के सामने नहीं चल सकता. चलेगा तो उसे ही सौरी बोलना पड़ेगा नहीं तो निशा गुमशुम हो जाएगी. घर का सब काम करेगी लेकिन उस से पहले जैसा व्यवहार नहीं करेगी. निशा ने अपने को पहले से बहुत बदल लिया है फिर पीर मोहम्मद उस को समझ ही चुका था.

उस ने कहा “देखो यार, नया शहर है, हम किसी को ज्यादा जानते नहीं हैं. तुम ने मुझे फोन क्यों नहीं किया?”

निशा ने कहा, “मैं काफी डर गई थी और कुछ समझ ही नहीं आ रहा था.”

“चलो, कोई बात नहीं, अब खुश हो जाओ. क्या नाम था उस आदमी का?”

“सरफराज खान….”

“छुट्टी वाले दिन उस को खाने पर बुलाना. मेरे पास तो उस का फोन नंबर भी नहीं है,” पीर मोहम्मद ने कहा.

2 दिन के बाद सरफराज ने निशा को फोन किया और मिलने की इच्छा जाहिर की. निशा संकोच करते हुए उसे टाल न सकी, क्योंकि उस दिन का एहसान था. निशा ने उसे अगले दिन मिलने की बात कही. कहा कि वह सुबह बच्चे को स्कूल वैन तक छोड़ने आती है, उस के बाद मिलेगी. क्योंकि वह भी सैक्टर-बी में ही रहता था. निशा बबलू को छोड़ने के बाद उस से मिली. सरफराज बहुत खुश हुआ और वह उस के लिए चाय बना कर भी लाया. निशा ने देखा कि उस के फ्लैट में बहुत सी पैंटिंग थी. निशा ने पूछा,”क्या आप आर्टिस्ट हैं?”

उस ने कहा,”जी, पहले मैं विदेश में रहता था अब फिर कुछ वर्षों से यहां हूं. वहां कुछ व्यापर भी करता था. उस ने निशा की भी पैंटिंग दिखाई जो उस ने बनाई थी, जब उस के आंखों में आंसू आ गए थे जो बहुत आकर्षित कर रह था. निशा की बड़ीबड़ी आंखें जो बिलकुल दूध की भांति सफेद दिखती थी, अपनी सचाई को बखान कर रही थी. निशा ने जब वे पैंटिंग्स देखी तो बहुत ज्यादा खुश हुई.

निशा ने उस से पूछा,’यह कब की पैंटिंग हैं?”

उस ने कहा,”जब आप बबलू को खोज रही थीं और आप के आंखों में आंसू थे तब मैं ने फोटो लिया था.”

निशा ने कहा,”आप ने कब फोटो ले ली.”

उस ने कहा, “उसी शाम को. हम तो कलाकार हैं, चेहरा देख कर याद कर लेते हैं फिर भी फोटो ले लेते हैं ताकि कुछ गलत न हो. मैं एक फोटोग्राफर भी हूं.”

निशा ने कल्पना भी न की थी कि कोई व्यक्ति उस की इतनी अच्छी पैंटिंग बनाएगा. अब चाय खत्म हो चुकी थी.

सरफराज ने पूछा,”चाय कैसी लगी?”

निशा ने कहा, “पैंटिंग के मुकाबले तो बिलकुल रद्दी थी. सही बता रही हूं. मैं झूठी तारीफ नहीं करती.”

“फिर तो आप की हाथ की चाय पीनी पड़ेगी.”

“क्यों नहीं?”

“कभी हमारे घर आएं. पीर मोहम्मद भी आप से मिलना चाहते हैं?”

“लेकिन मुझे तो अभी पीनी है. प्लीज…प्लीज…”

निशा ने समय देखा, अभी सुबह के 9 बजे थे. बबलू की स्कूल वैन तो दोपहर 1 बजे आती है. सरफराज के आग्रह में बहुत आकर्षण था. उस में एक अनुरोध था, निशा मना नहीं कर पाई.

निशा को लगा कि यह ऐसे कह रहा है जैसे कल यह यहां नहीं होगा. निशा ने उस से पूछा, “आप अकेले रहते हैं?”

प्यार का तीन पहिया : भाग 2

वह उतर गई, तो मुझ से बोला, ‘‘अब बताइए, आप को कहां छोड़ूं?’’

‘‘मैं चली जाऊंगी. पास ही है मेरा घर,’’ कह मैं ने पर्स निकाला.

‘‘रहने दीजिए. आप लोगों से क्या किराया लेना?’’ वह बोला.

‘‘क्या मैं इस दरियादिली की वजह जान सकती हूं?’’

‘‘आप वसुधाजी की सहेली हैं, तो जाहिर है मेरे लिए भी खास हैं… खैर, मैं चलता हूं,’’ और वह चला गया.

‘इस आटो वाले को वसुधा में इतनी दिलचस्पी क्यों? कहीं दोनों पुराने प्रेमी तो नहीं?’ मैं सोच में पड़ गई.

अगले दिन जब मैं ने वसुधा से इस संदर्भ में बात की तो उस ने बताया, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है. हां, कुछ दिनों से वह मेरे पीछे जरूर पड़ा है, पर कभी गलत हरकत नहीं की.’’

‘‘क्या तू भी उसे मन ही मन पसंद करती है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मेरा और उस का क्या मेल? वह एक तो आटो वाला, ऊपर से न जाने किस जाति का है… हम लोग कुलीनवर्ग के हैं. मैं अपाहिज हूं, तो इस का मतलब यह तो नहीं कि कोई भी मुझे अपने लायक समझने लगे.’’

मैं बोली, ‘‘ये छोटे लोग तो बस ऐसे ही होते हैं.’’

अगले दिन जानबूझ कर हम दूसरे रास्ते से निकले पर उस आटो वाले ने हमें ढूंढ़ ही लिया और आटो बगल में रोक कर बोला, ‘‘चलिए.’’

‘‘नहीं जाना,’’ हम ने रुखाई से कहा.

‘‘गरीब हूं, पर बेईमान नहीं. वसुधाजी ज्यादा चल नहीं सकतीं, मैं आटो ले आता हूं, तो इस में बुरा क्या है?’’

मैं ने वसुधा की तरफ देखा तो वह भी पसीज गई. हम दोनों एक बार फिर आटो में खामोश बैठे थे. सच, कभीकभी जिंदगी कितनी अजनबी लगती है. कौन किस तरह और कब हमारे जीवन से जुड़ जाए, कुछ पता नहीं.

अब तो रोज का नियम बन गया था. आटो वाला मुझे और वसुधा को घर छोड़ता पर एक रुपया भी नहीं लेता. रास्ते भर वह अपने बारे में बताता रहता. उस का नाम अभिषेक था और वह बिहार का रहने वाला था. 2 कमरे के घर में किराए पर रहता था.

उस दिन औफिस से निकलते हुए मैं ने वसुधा से कहा, ‘‘शुक्रवार की छुट्टी है, यानी कुल मिला कर 3 दिन की छुट्टियां लगातार पड़ रही हैं. कितना मजा आएगा.’’

मैं खुश थी पर वसुधा परेशान सी थी. बोली, ‘‘क्या करूंगी 3 दिन… समय काटना मुश्किल हो जाएगा.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रही है? हम घूमने चलेंगे. खूब ऐंजौय करेंगे.’’

‘‘सच,’’ वसुधा का चेहरा खिल उठा.

शुक्रवार को सुबह हम लोटस टैंपल देखने के लिए निकले. इस के बाद कुतुबमीनार जाने की प्लानिंग थी. तभी अभिषेक आटो ले कर सामने आ खड़ा हुआ, ‘‘आइए मैं ले चलता हूं. कहां जाना है?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम आज सुबह ही आ गए हमारी खिदमत के लिए, माजरा क्या है?’’

‘‘क्या करूं मैडम, अपना मिजाज ही ऐसा है. आइए न.’’

उस ने फिर निवेदन किया तो मैं हंस पड़ी. बोली, ‘‘हम आज लोटस टैंपल और कुतुबमीनार जाने वाले थे.’’

‘‘तब तो आप दोनों को इस बंदे से बेहतर गाइड कोई मिल ही नहीं सकता. कुतुबमीनार ही क्यों, पूरी दिल्ली घुमाऊंगा. बैठिए तो सही.’’

हम दोनों बैठ गए.

‘‘आप को पता है कि कुतुबमीनार कब और किस के द्वारा बनवाई गई थी?’’ अभिषेक की बकबक शुरू हो गई.

‘‘जी नहीं, हमें नहीं पता पर क्या आप जानते हैं?’’ वसुधा ने पूछा.

‘‘बिलकुल. कुतुबमीनार का निर्माण दिल्ली के प्रथम मुसलिम शासक कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1193 में आरंभ कराया था. पर उस समय केवल इस का आधार ही बन पाया. फिर उस के उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने इस का निर्माण कार्य पूरा करवाया.’’

‘‘अच्छा, पर यह बताओ, इसे बनवाने के पीछे मकसद क्या था?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘दरअसल, मुगल अपनी जीत सैलिब्रेट करने के लिए विक्ट्री टावर बनवाते थे. कुतुबमीनार को भी ऐसा ही एक टावर माना जा सकता है. वैसे आप के लिए यह जानना रोचक होगा कि कुतुबमीनार को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर के रूप में स्वीकृत किया गया है.’’

वसुधा और मैं एकदूसरे की तरफ देख कर मुसकरा पड़े, क्योंकि एक आटो वाले से इतनी ज्यादा ऐतिहासिक और सामान्यज्ञान की जानकारी रखने की उम्मीद हमें नहीं थी.

‘‘1 मिनट, तुम ने यह तो बताया ही नहीं कि कुतुबमीनार की ऊंचाई कितनी है?’’ वसुधा ने फिर से सवाल उछाला और फिर मेरी तरफ देख कर मुसकराने लगी, क्योंकि उसे पूरा यकीन था कि यह सब अभिषेक नहीं जानता होगा.

‘‘5 मंजिला इस इमारत की ऊंचाई 234 फुट और व्यास 14.3 मीटर है, जो ऊपर जा कर 2.75 मीटर हो जाता है और इस में कुल 378 सीढि़यां हैं.’’ आटो वाला गर्व से बोला.

अब तक हम कुतुबमीनार पहुंच चुके थे. अभिषेक हमारे साथ परिसर में गया और रोचक जानकारियां देने लगा. हम चकित थे. इतनी गूढ़ता से तो कोई गाइड भी नहीं बता सकता था.

परिसर में घूमते हुए वसुधा कुछ आगे निकल गई, तो अभिषेक तुरंत बोला, ‘‘अरे मैडम, उधर ध्यान से जाना… कहीं चोट न लग जाए.’’

‘‘बहुत फिक्र करते हो उस की. जरा बताओ, ऐसा क्यों?’’ मैं ने पूछा.

‘‘क्योंकि वे मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.’’

‘‘पर क्यों?’’

‘‘उन की झील सी आंखें… वह सादगी…’’

वह और कुछ कहता, मैं उसे बीच में ही टोकती हुई बोली, ‘‘कभी सोचा है, तुम ने कि तुम दोनों में क्या मेल है? तुम ठहरे आटो वाले और वह है बड़े घराने की.’’

‘‘मैडमजी, ठीक कहा आप ने. कहां वे महलों में रहने वाली और कहां मैं आटो वाला. पर क्या मैं इंसान नहीं? क्या मेरी पहचान सिर्फ इतनी है कि मैं आटो चलाता हूं. आप को नहीं पता, मैं भी अच्छे परिवार से हूं. इतिहास में एम.ए. किया है, परिस्थितियोंवश हाथों में आटो आ गया.’’

तभी वसुधा आ गई और हमारी बात बीच में ही रह गई. अगले दिन जब मैं वसुधा से मिली तो अभिषेक से हुई बातचीत सुनाते हुए उसे समझाया, ‘‘एक बार तुझे अभिषेक के लिए सोचना चाहिए. इतना बुरा भी नहीं है वह… और तुझे कितना प्यार करता है.’’

पहलापहला प्यार : भाग 2

“ओह हां, सौरी… दरअसल, तुम ने यह कहां बताया था कि रात के 8 बजेंगे? तुम्हें क्या पता नहीं है कि मैं 6 बजे तक घर आ जाता हूं?”

“आ जाते हो तो क्या हुआ, तुम्हें भी समझना चाहिए कि कालेज कोई मेरे हिसाब से तो नहीं चलेगा और न ही मैं सब को छोड़ कर आ जाऊंगी कि मेरे हसबैंड आ गए होंगे, मैं जा रही हूं. तुम भी न कमाल करते हो.”

“अरे बाबा, बोला न सौरी, मैं भूल गया था. चलो, अब खाना लगा लो,” कह कर प्रशांत डाइनिंग टेबल पर खाना लगने का इंतजार करने लगा.

चूंकि वह बहुत थक चुकी थी इसलिए शांतिपूर्वक खाना खा कर चुपचाप बैडरूम में जा कर सो गई. प्रशांत काफी देर तक लिविंगरूम में बैठ कर टीवी देखता रहा और फिर दूसरे रूम में जा कर सो गया.

अगले दिन सुबह जब वह चाय बना रही थी तो अचानक प्रशांत ने उसे आलिंगनबद्ध कर लिया और फिर अपने रात के व्यवहार के लिए माफी मांगने लगा. खैर, उसे भी लगा कि अब सब ठीक हो जाएगा पर पहले जम कर बुराभला कहना और फिर 2 दिन बाद ऐसे बिहेव करना मानों कुछ हुआ ही न हो, यह सब प्रशांत की आदत बन चुकी थी. उसे ले कर प्रशांत का इतना अधिक पजैसिव होना अब उसे ही अखरने लगा था.

जैसेजैसे समय बीतता जा रहा था हर दिन उसे प्रशांत का नया रूप देखने को मिलता. उस का व्यवहार अब पहले से अधिक उग्र और शक्की होता जा रहा था. अब आएदिन शराब के नशे में घर आते और सो जाते…प्रशांत के इस व्यवहार के कारण अब उन के रिलेशन में भी ठंडापन आता जा रहा था.

एक दिन अंतरंग क्षणों में उस ने प्रशांत से कहा,”प्रशांत, यह सब क्या है. 2 साल हो गए हमारी शादी को, तुम हर बार अगली बार न पीने का वादा करते हो पर सब भूल हो जाते हो…आजकल सब मुझ पर फैमिली बढ़ाने के लिए कहने लगे हैं पर मैं अपने बच्चे को उस के पिता का यह रूप और लड़ाईझगड़े वाला घर का माहौल कभी नहीं दिखाना चाहती. प्लीज, कुछ समझने की कोशिश तो करो.”

“अरे यार, हमेशा तो नहीं पीता न, कभीकभार ही तो ले लेता हूं दोस्तों और क्लाइंटों के साथ. क्या करूं आजकल ड्रिंक के बिना हर जश्न अधूरा रहता है. बैंक की नौकरी है तो लोन लेने वाले पार्टी देने को कहते रहते हैं.”

“देखो, पिछले कई बार से यह तुम्हारा फैशन तुम्हारा नशा बन चुका है. कितनी बार तुम इतनी चढ़ा कर आए हो कि तुम्हें अपना ही होश नहीं रहता.”

“ऐसा कुछ नहीं है. यह सिर्फ तुम्हारा वहम है,” कह कर प्रशांत औफिस चला गया.

“सुमी, तुम कहां चली गईं? रात गहराती जा रही है, चलो होटल लौट चलें.”

सुमित की आवाज से उस की तंद्रा लौटी. सच में वह तो अतीत में इतना डूब गई थी कि कब सूर्य की जगह चंद्रमा ने ले ली उसे ही पता नहीं चला. कैब बुक कर के दोनों होटल में वापस आ गए. सुमित को खाना और जरूरी दवाएं खिला कर उस ने सुलाया और खुद बालकनी में आ गई. बालकनी में खड़े हो कर वह तेजी से अपनी मंजिल को पूरा करते चंद्रमा को देखतेदेखते उसे फिर वे दिन याद आ गए जब शादी की सालगिरह से ठीक 1 दिन पहले रात को प्रशांत देर रात 2 बजे लौटे पर शराब के नशे में धुत्त लडखडाते हुए…ड्रिंक इतनी ज्यादा कर ली थी कि खुद के पास चाबी होने के बाद भी वे दसियों बार लगातार कौलबेल बजा रहे थे.

कौलबेल की आवाज से शादी की सालगिरह मनाने आए दूसरे कमरे में सोए उन के मातापिता भी उठ गए थे. खैर, मातापिता को किसी तरह समझाबुझा कर प्रशांत को कमरे में ले जा कर सुलाया पर उस रात आगे का अपना भविष्य सोच कर उस की आंखों की नींद पूरी तरह गायब हो गई थी. सुबह उठी तो नींद पूरी न हो पाने से उस का सिर बहुत भारी था पर कालेज में ऐग्जाम होने के कारण अवकाश ले पाना भी संभव नहीं था.

लंचटाइम में उस की उनींदी सी आंखें देख कर उस की कलीग निशा ने कहा,”बात क्या है, तू इतनी खोई, थकी और परेशान सी क्यों लग रही है?”

निशा उस की कलीग होने के साथसाथ बहुत अच्छी दोस्त भी थी. उसे प्रशांत के बारे में काफी कुछ पता भी था. उस के इतना कहते ही सुमी ने सारी दास्तान उसे कह सुनाई.

“अरे, तू इतनी परेशानी सह क्यों रही है? तुझे क्या लगता है तेरे इस प्रकार सहते रहने से समस्या सौल्व हो जाएगी. कुछ नहीं सही होने वाला बस, तू जरूर सूख कर कांटा हो जाएगी.”

“तो तू ही बता मैं क्या करूं? कितनी बार प्यार से, डांट से समझा चुकी हूं…हर बार अगली बार ठीक से रहने का वादा पर कुछ दिन बाद फिर वही ‘ढाक के तीन पात’ वाली स्थिति हो जाती है,”सुमी ने कहा.

“अल्टीमेटम… हां, प्रशांत को अल्टीमेटम दे कि या तो वह सुधरे और नहीं तो तू अपना अलग रास्ता बना लेगी.”

“अलग रास्ता से तेरा मतलब डाइवोर्स तो नहीं?” सुमी ने चौंकते हुए कहा.

“हां, सही समझी है तू. डायवोर्स ही है मेरा मतलब. जो बंधन घुटन और तनाव देने लगे तो उस से मुक्त हो जाना ही अच्छा होता है. केवल दिखावे के लिए ही तो है तुम दोनों का रिश्ता. 3 साल में जो इंसान नहीं सुधरा वह आगे क्या सुधरेगा…” निशा ने उसे समझाते हुए कहा.

“पागल हो गई है क्या? तलाक की बात तो मैं सोच भी नहीं सकती. मेरे ससुराल वाले और मम्मीपापा क्या कहेंगे. क्या बताऊंगी उन्हें कि क्यों तलाक की बात कर रही हूं. मैं उन्हें अपने डाइवोर्स की बात नहीं कह सकती. सारे नातेरिश्तेदार मुझे ही गलत कहेंगे क्योंकि समाज की नजरों में पुरुष हमेशा सही होता है.”

“तो बस, सारे जमाने और मातापिता की चिंता कर के अपनी पूरी जिंदगी तबाह कर ले और बस यों ही घुटती रह…अच्छा कमाती है तू, प्रशांत की दया की मुहताज नहीं है फिर क्यों इतना सोच रही है. पिछले 3 सालों के बारे में सोच कितना तनाव झेला है तू ने. शक करना, ड्रिंक कर के गालीगलौच करना सबकुछ तो कर रहा है पिछले 3 साल से तेरे साथ और तू फिर भी सहे जा रही है… सह.

“अब अगर अपनी आगे की जिंदगी भी तुझे ऐसे ही गुजारनी है तो तेरी मरजी. बस, एक बात समझ ले कि खुद से जुड़ा कोई फैसला तू तभी ले पाएगी जब तू खुद मजबूत होगी क्योंकि अगर तुझे ही अपने फैसले पर भरोसा नहीं है तो दूसरों को कैसे होगा.”

रात को वे सब बाहर खाना खाने भी गए पर निशा की बातें सुनने के बाद उस का मन बेहद उचाट हो गया था. रात को उस ने प्रशांत से कहा,”प्रशांत, अब तुम्हारा बिहेवियर मेरी बरदाश्त के बाहर होता जा रहा है. कल तुम ने मम्मीपापा तक का लिहाज तक नहीं किया. ऐसे कब तक चलेगा?”

“अरे यार, अब आज की रात तो इस तरह की बातें न करो,” कह कर उस ने उसे चुप करा दिया.

हमेशा की तरह सुबह उठ कर फिर वही मीठीमीठी बातें और आगे से कभी कुछ ऐसावैसा न करने के वादे. जिंदगी बस यों ही कट रही थी. हमेशा की तरह वह उस दिन भी बहल जाती यदि प्रशांत ने उस के ऊपर हाथ न उठाया होता.

उस दिन प्रशांत के एक दोस्त का बर्थडे था और फिर प्रशांत रात के 3 बजे लौटे थे और वही लगातार घंटी बजाना. प्रशांत का इंतजार करतेकरते वह अकसर सो जाया करती थी. लगातार बजती घंटी की आवाज से वह चौंक कर उठी और दरवाजे के पास जा कर बोली,”यह क्या तरीका है तुम्हारा घर लौट कर आने का? नहीं खोलूंगी मैं दरवाजा. जाओ वापस अपने उन्हीं दोस्तों के पास जिन के साथ तुम अभी तक मौजमस्ती कर रहे थे.”

“दरवाजा खोलती है कि नहीं…बेशर्म कहीं की, पता नहीं दिनभर किस के साथ क्या करती है. छोड़ो यह नौकरीवौकरी… मुझे नहीं पसंद यह सब. खोल दरवाजा खोल,” कह कर प्रशांत जोरजोर से दरवाजा पीटने लगे थे.

‘अङोसपङोसस में रहने वाले सभी अपनेअपने घरों से बाहर आ जाएंगे,’ यह सोच कर उस ने आगे कुछ नहीं कहा और जल्दी से दरवाजा खोल कर बड़ी मुश्किल से प्रशांत को किसी तरह अंदर किया और दरवाजा बंद कर के गुस्से से कहा,”शर्म नहीं आती तुम्हें इस तरह हंगामा करते हुए.”

“अगर तुम शांति से दरवाजा खोल देतीं तो कुछ नहीं होता. शर्म मुझे नहीं तम्हें आनी चाहिए. बेवकूफ कहीं की,” बेशर्मी से प्रशांत ने कहा और क्रोध से एक थप्पड़ उस की तरफ बढ़ाया ही था कि उस ने बीच में ही उस का हाथ रोकते हुए कहा,
“प्रशांत, अभी तुम होश में नहीं हो. जा कर चुपचाप सो जाओ. सुबह बात करते हैं,” कह कर वह प्रशांत को वहीं छोड़ कर सोने चली गई.

उस के बाद तो उस की आंखों से नींद ही गायब हो गई…वह सोचने लगी कि क्यों और किस के लिए सह रही है वह यह सब? क्या जिंदगीभर यही सहना उस की नियति है…नहीं, अब बस अब और नहीं. अभी तक तो मानसिक हिंसा ही सही थी पर अब तो शारीरिक भी शुरू हो गई है और धीरेधीरे यह विकराल रूप ले कर उस की पूरी जिंदगी को ही तबाह कर देगी. उस के मातापिता ने उसे इसीलिए आत्मनिर्भर बनाया था कि भविष्य में किसी फैसले को लेने से पहले उसे सोचना न पड़े. बस, उसी पल उस ने घर छोड़ने का फैसला कर लिया.

अगले दिन सुबह प्रशांत के उठने से पहले ही प्रशांत के नाम घर छोड़ने का नोट छोड़ कर वह अपनी सहेली निशा के घर चली गई. निशा बैचलर थी और उस के घर के पास ही एक फ्लैट ले कर रहती थी. उसे देखते ही उस ने कहा,”जो फैसला तुम ने आज लिया है वह तुझे बहुत पहले ही ले लेना चाहिए था. देख, यह जिंदगी खुश हो कर गुजारने के लिए मिली है नकि रोरो कर जीने के लिए. अब तू यहां आराम से जब तक चाहे रह सकती है.”

कुछ दिनों बाद उस ने निशा की ही सोसाइटी में एक फ्लैट किराए पर ले कर अपनी छोटी सी गृहस्थी बसा ली थी. इस बीच प्रशांत ने भी उस से कोई संपर्क नहीं किया.

6 माह बाद एक दिन प्रशांत को फोन आया,”अब क्या वहीं बनी रहोगी? आना नहीं है क्या? यह सब क्या तमाशा लगा रखा है…” प्रशांत के तेवर देख कर उसे क्रोध आ गया,”तमाशा मैं ने लगा रखा है कि तुम ने? हर दूसरे दिन चढ़ा लेना. फिर मारपीट करना और अगले दिन फिर शरीफ बन जाना, यह कहां की शराफत है? मैं अब और नहीं झेल सकती, मेरी तरफ से तुम आजाद हो.”

अपना अपमान होते देख प्रशांत का पौरुष उजागर हो गया और गुस्से से उस ने फोन काट दिया. इस के बाद आपसी सहमति से उस ने तलाक ले कर इस अनचाहे बंधन से मुक्त होने के लिए कोर्ट में डाइवोर्स के लिए अरजी लगा दी.

कठघरे में प्यार : भाग 2

“बहुत कंफ्यूजिंग है, सर,” इला बोली. इला इस ग्रुप की सब से ज्यादा इंटैलीजैंट लड़की मानी जाती थी, पढ़ाई में भी उस से कोई टक्कर नहीं ले पाता था.

“अरे, जब इस जैसी जीनियस को प्यार का सब्जैक्ट कंफ्यूजिंग लग रहा है तो हमारी बिसात ही क्या,” रतन ने मेज पर रखे चाय के कप को उठाते हुए कहा, “इतने सूक्ष्म ज्ञान के बाद पकौड़ों की तलब होने लगी है.” प्रो. शास्त्री की संगति व इंफ्लूएंस में उन के स्टूडैंट्स की हिंदी भी बहुत अच्छी हो गई थी. बहुत चुनचुन कर वे शब्दों का प्रयोग कर अपनी धाक जमाने की कोशिश किया करते थे.

“और ये गरमागरम पकौड़े हाजिर हैं,” रीतिका ने पकौड़ों की प्लेट मेज पर रखते हुए कहा.

“वाह दीदी, आप का जवाब नहीं,” नैना ने झट से एक पकौड़ा अपने मुंह में डालते हुए कहा. नैना बहुत ही चुलबुली किस्म की लड़की थी. बहुत ही धनी परिवार से होने की वजह से थोड़ा दंभ भी कभीकभी झलक जाता था. हमेशा नए डिजाइन के कपड़े पहनती थी और महंगी चीजें खरीदने का शौक था. पढ़ाई में एवरेज थी, पर नाटकों और अन्य गतिविधियों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती थी. “मन करता है कि आप के हाथ चूम लूं,” नैना के नाटकीय अंदाज पर रीतिका ने प्यार से उस के गाल पर हलकी सी चपत लगाई.

“बहुत देर हो चुकी है, अब तुम लोग घर जाओ. कल सिर्फ रिहर्सल करेंगे. बहुत कम दिन हैं हमारे पास. यह नाटक सब के लिए महत्त्वपूर्ण होगा, क्योंकि पहली बार तुम एक बड़े मंच पर इसे प्रस्तुत करोगे.” प्रो. शास्त्री और रीतिका दीदी से विदा ले सब चले गए.

“आज पता चला कि प्रोफैसर साहब के लिए प्यार की परिभाषा क्या है,” रात को सोते समय रीतिका ने उन के बालों को सहलाते हुए कहा.

“कोई संशय है क्या तुम्हारे मन में, आजमा कर देख लेना,” उन्होंने शरारत से मुसकराते हुए कहा.

“यानी कि अगर मुझ से कभी कोई गलती हो गई या मैं ने बेवफाई की तो तुम अपनी जान देने के बजाय या मुझे छोड़ देने के बजाय, मुझे माफ कर दोगे?” रीतिका उन से लिपटते हुए बोली.

“उफ, क्या बेकार की बातों में उलझ रही हो इस वक्त? तुम से कभी कोई गलती हो ही नहीं सकती. सोने का इरादा नहीं है क्या?” विवेक के स्वर में थोड़ी झुंझलाहट थी. उन्होंने रीतिका के हाथों को अपने से अलग कर लाइट बंद की और मुंह फेर कर सो गए.

रीतिका कसमसा कर रह गई. उस का मन कर रहा था कि विवेक इस समय उसे प्यार करें, उस के जिस्म के रेशेरेशे को सहलाएं. पर… सच था कि प्रो. विवेक उस से बहुत प्यार करते थे, लेकिन संबंधों में प्यार, सम्मान, सहयोग या विश्वास के अलावा भी बहुतकुछ होता है जो छोटीछोटी खुशियों को जीने के पल देता है. जिस्मानी भूख इन सब से कभीकभी बहुत बड़ी हो जाती है जो प्यार के सारे आदर्शों को दरकिनार कर व्याकुल कर जाती है. रीतिका अकसर अपनी इस भूख से लड़ती थी, पर कभी अपनी बात कह नहीं पाई. विवेक के प्यार और उन के प्रति सम्मान के आगे वह अपनी इच्छाओं को बेरहमी से कुचल देती थी. सारा दिन काम में अपने को बिजी रखने का प्रयत्न करती. अपने मन और जिस्म को भटकने से बचाने के लिए इधर कुछ दिनों से उसे लग रहा था कि उसे अब कोई नौकरी कर लेनी चाहिए.

प्रो. शास्त्री ने ही कुछ दिनों पहले उसे बताया था कि एक कंपनी में हिंदी औफिसर की जरूरत है क्योंकि वे सरकारी नियमों के अनुसार हिंदी को बढ़ावा देना चाहते हैं. रीतिका ने अपना रिज्यूमे वहां भेज दिया था.

उस की जैसी क्वालीफाइड के लिए नौकरी मिलना मुश्किल नहीं था. रीतिका को काम करते हुए महसूस हुआ कि जैसे उस के सपनों को पंख लग गए हैं. खुली हवा में सांस लेने का एहसास उसे अच्छा लग रहा था. उसे तब लगा कि इतने साल खुद को घर में कैद कर जैसे उस ने अपने साथ ही नाइंसाफी की है, वह भी तब जब विवेक ने कभी उसे किसी बात के लिए रोका नहीं था. वे भी खुश थे और हमेशा की तरह अपने कालेज, स्टूडैंट्स और नाटकों में मस्त, प्यार के नए आयाम और परिभाषाएं गढ़ते हुए.

“आप की हिंदी बहुत ही शुद्ध है,” एक आवाज ने रीतिका का ध्यान भंग किया तो हाथ में पकड़ी मैगजीन को मेज पर रखते हुए उस ने सिर उठा कर देखा. वह इस समय कैंटीन में बैठी थी और कौफी पी रही थी. सामने अकाउंट्स डिपार्टमैंट के रोमेश सहाय खड़े थे. गोरेपन से लिपटे उन के चेहरे में एक आकर्षण था. पुरुषों की जैसी नाक होती है, थोड़ी बेडौल या चोड़ीचपटी, उस की तुलना में एकदम सुतवां नाक. क्लीनशेव्ड रोमेश सहाय को रीतिका ने हमेशा टिपटौप देखा था. ट्राउजर और शर्ट…जो उन की ही तरह बहुत स्मार्ट होती थीं. बहुत ज्यादा बात तो उन से नहीं होती थी पर कभीकभी हैलो हो जाती थी.

“थैंक यू, आप कौफी पिएंगे?” कर्टसी के नाते रीतिका ने पूछा.

“या, श्योर. इस बहाने आप की कंपनी को एंजौय कर पाऊंगा,” बहुत ही बेबाकी से उन्होंने कहा और अपने गोल्डन फ्रेम के कीमती चश्मे को हलका सा हाथ से अपनी नाक के ऊपर से खिसकाया.

रीतिका समझ नहीं पाई कि उन की इस साफगोई पर क्या प्रतिक्रिया करे. वह, बस, हलके से मुसकराई. सहजता के पुल उन के बीच अभी तक नहीं बने थे पर रोमेश को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था. हो सकता है वह ऐसे ही हो…रीतिका ने कौफी का सिप लेते हुए सोचा.

“हिंदी को प्रोमोट किया जा रहा है, यह बात बहुत अच्छी है. वरना नई पीढ़ी तो हिंदी को सीरियसली लेती ही नहीं है. इंग्लिश बोलना तो जैसे स्टेटस सिंबल समझा जाता है,” कुछ बात तो करनी पड़ेगी, यह सोच रीतिका बोली.

“यू आर राइट रीतिका जी. पर सच तो यह है कि आज के बच्चे न तो शुद्ध रूप से हिंदी बोलते हैं, न ही इंग्लिश. वे तो हिंदीइंग्लिश के मिक्सचर पर जीते हैं. दोनों ही भाषाओं की धज्जियां उड़ी हुई हैं. व्हाट्सऐप के मैसेज देखते हैं तो बहुत तकलीफ होती है. लैंग्वेज का शौर्ट फौर्म कर के रख दिया है. इंस्टैंट लाइफ की प्रतीक है नई पीढ़ी.”

भाषा से ले कर उन दोनों के बीच और जाने कितने विषयों पर उस के बाद बातें होती रहीं. पता ही नहीं चला रीतिका को कि उस मुलाकात में सहजता का पुल कैसे निर्मित हो गया. रोमेश का साथ, उस की बातें अच्छी लगीं रीतिका को. जो बातें वह विवेक के साथ भी शेयर नहीं कर पाती थी, उस के साथ बिना झिझक कर पा रही थी. उस के बाद तो उन की मुलाकातें केवल औफिस की कैंटीन तक ही सीमित नहीं रह गईं. कभी किसी मौल में, कभी किसी रैस्तरां में. कभी यों ही सड़क पर वे घूमते नजर आ जाते. 45 वर्षीय रोमेश सहाय कुंआरे थे, क्योंकि कभी उन्हें कोई पसंद ही नहीं आई. इस शहर में अकेले रहते थे. वैसे भी, अपना कहने को उन का सिवा एक बहन के कोई नहीं था जो शादी के बाद सिंगापुर में ही बस गई थी. मस्त और खुश रहते थे और जिंदगी को भरपूर ढंग से जीने में विश्वास रखते थे वे.

अपनी अपनी नजर : भाग 2

समीर के साथ चलते हुए, उस के साथ बातें करते हुए, उस के साथ कुछ ही कदमों के सफर में जैसे मैं ने कितना लंबा सफर करने की इच्छा कर ली, मुझे खुद ही नहीं पता चला. जब तक मैं अस्पताल से रक्तदान कर लौटी पूरी तरह समीर के प्रभावी व्यक्तित्व में रंग चुकी थी. वह सारी रात मैं ने जाग कर गुजारी थी. समीर की गंभीर आवाज मेरे कानों में रात भर गूंजती रही थी. सुबह फोन की घंटी बजी तो पता नहीं किस उम्मीद से मैं ने ही फोन लपक कर उठाया. उधर से आवाज आई, ‘मैं, समीर.’

आवाज सुन कर मैं खड़ी रह गई, मेरी हथेलियां पसीने से भीग उठीं. दिल धड़क उठा. मेरी खामोशी को महसूस कर के समीर फिर बोला, ‘सुनंदा, क्या तुम्हें रात को नींद आई? मैं तो शायद जीवन में पहली बार पूरी रात जागता रहा.’ इस का मतलब उस से मिलने के बाद जो हालत मेरी थी वही उस की भी थी. मैं ने अपनी चुप्पी तोड़ी और बोली, ‘हां, मैं भी नहीं सो पाई, समीर.’

‘तो क्या हम दोनों की हालत एक सी है? हम आज फिर मिल सकते हैं?’ मैं ने कहा, ‘समीर, थोड़ी देर में मैं अस्पताल के गेट पर आती हूं.’

मैं ने फोन रख दिया. हम दोनों एक ही दिन में एकदूसरे को अपने दिल के करीब महसूस कर रहे थे, एकदूसरे को देख कर दिल को जैसे कुछ चैन मिला. फिर समीर कई बार समय निकाल कर मिलने का कार्यक्रम भी बना लेता. मम्मीपापा की आपसी नीरसता से उपजे घर के अजीब से माहौल के कारण मैं सालों तक अपने जिस खोल में बंद थी, समीर के सान्निध्य में मैं ने उस से बाहर निकल कर जैसे खुली हवा में सांस ली.

समीर पूरी तरह से एक समर्पित डाक्टर था. यही वजह थी कि पापा उसे बहुत पसंद करते थे. हर मरीज की इतनी लगन और मेहनत से देखरेख करता जैसे वह उस के ही घर के सदस्य हों. अचानक मेरा रुझान सोशल वेल्यूज की तरफ बढ़ने लगा. मैं ने इस विषय पर किताबें पढ़नी शुरू कर दीं. कुछ ही दिनों में मेरी सोच में सकारात्मक परिवर्तन आने लगा. अब मुझे मम्मी का टोकना बेकार लगता, बुरा नहीं. दुनिया को देखने का मेरा दृष्टिकोण बदल गया था.

पापा से मेरा समीर से मिलना छिप नहीं पाया. पापा समीर और मेरी एकदूसरे में रुचि समझ गए. उन्होंने मम्मी से बिना सलाह किए समीर के मांबाबूजी से बात भी कर ली और इस रिश्ते के लिए अपनी स्वीकृति भी दे दी. समीर अपने भाईबहनों में सब से बड़ा था. उस से छोटा एक भाई और एक बहन थी. सब से बाद में पापा ने घर पर मम्मी को बताया तो जैसे घर में तूफान आ गया. मम्मी ने हंगामा खड़ा कर दिया, ‘मैं अपनी बेटी की शादी किसी डाक्टर से नहीं करूंगी. जिस नर्क में मैं ने अपना जीवन बिताया है, अब मैं उस नर्क में अपनी बेटी को नहीं धकेल सकती.’ समीर को मम्मी की प्रतिक्रिया पता चली तो वह घबरा गया. मुझ से कहने लगा, ‘मैं न तो मेडिकल फील्ड छोड़ सकता हूं न तुम्हें, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है, अब तुम ही कोई रास्ता सोचो.’

मुझे भी समीर का साथ चाहिए था, उस के प्यार ने मुझ में बहुत हिम्मत भर दी थी. मैं घर पहुंची तो मम्मी से बात करने से पहले ही आंखों में आंसू आ गए. मैं अपने हाल पर चिल्ला उठी, ‘मम्मी, लोग तो कहते हैं कि मां औलाद के दिल की बात उस के कहे बिना जान लेती है लेकिन मेरे साथ कभी ऐसा नहीं हुआ.’

मम्मी के लिए मेरी बातें और आंसू दोनों ही हैरान करने वाले थे. मैं कहती रही, ‘मेरा दिल भी चाहता है कि मैं इस घर को छोड़ कर दूर चली जाऊं, क्योंकि जब इस घर में खामोशी होती है तो चारों तरफ सन्नाटा होता है और जब शोर होता है तो वह सिर्फ आप की और पापा की लड़ाई के रूप में होता है, जो इन दीवारों से टपकती वीरानियों से भी ज्यादा डरावना होता है. आप खुद तो एक प्यार करने वाली मां बन नहीं सकीं मगर आप के इस अनबैलेंस्ड व्यवहार ने मुझ से पापा को भी दूर किया है.’ ‘मम्मी, आप ने कह दिया कि समीर से शादी कर के आप अपनी बेटी को नर्क में नहीं धकेलना चाहतीं. आप ने यह भी नहीं सोचा कि जिसे आप नर्क कह रही हैं, वह आप की नजर में ही नर्क हो. आप को पता ही नहीं आप की बेटी का दृष्टिकोण आप से कितना अलग है. मुझे लगता है डाक्टरों के पास भी अपनी पत्नी और बच्चों के लिए समय हो सकता है क्योंकि वह समय निकालना चाहते हैं, लेकिन पापा ऐसा कोई प्रयत्न ही नहीं करते क्योंकि आप के व्यवहार की वजह से उन का घर आने का मन ही नहीं करता होगा. आप को जीवन में पापा की मजबूरियों से संतुलन बिठाना नहीं आया.’

मुझे खुद नहीं पता था मैं सबकुछ कैसे कह गई. ये वे बातें थीं जो मैं काफी समय से उन से कहना चाहती थी मगर कभी साहस नहीं कर पाई थी और आज शब्द जैसे खुद ही फिसलते चले गए थे. फिर मैं अचानक मुंह हाथों में छिपा कर फूटफूट कर रो पड़ी. रोतेरोते पापा पर नजर पड़ी, इस का मतलब वह सारी बातें सुन चुके थे. मम्मीपापा दोनों बुत बने खड़े थे. मैं सिर झुकाए चुपचाप अपने कमरे में चली गई.

सुबह उठने पर मैं समझ नहीं पाई कि मम्मी मुझ से नाराज हैं या उन्होंने मेरी बातों को कोई महत्त्व ही नहीं दिया. मगर यह सिर्फ मेरी गलतफहमी थी. मेरी बातों ने उन के फैसले बदल दिए थे और इस बात का पता मुझे तब चला जब 2 दिन बाद ही समीर के घर वाले मुझे अंगूठी पहना गए और शादी की तारीख भी बहुत जल्दी तय हो गई.

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