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सरिता : मुन्ना को किस बात की चिंता हो रही थी ? – भाग 1

कितना मुश्किल हो जाता है कभीकभी कोई निर्णय ले पाना. जिंदगी जैसे किसी मुकाम पर पहुंच कर आगे ही नहीं बढ़ना चाहती. बस, दिल चाहता है कि वक्त यहीं रुक जाए और हम आने वाले उस वक्त से अपना दामन बचा सकें, जो अपने साथ पता नहीं कितने अनसुलझे सवाल ले कर आ रहा है. परंतु ऐसा कहां हो पाता है, किसी के चाहने से वक्त भला कहीं रुकता है. उस की तो अपनी ही गति है. जिंदगी के सवाल चाहे जितने उलझे हों परंतु उन के उत्तर तो हमें तलाशने ही पड़ते हैं.

‘‘क्या बात है, तुम सो क्यों नहीं रहे…’’ पत्नी की आवाज सुन कर थोड़ी देर के लिए मेरी विचार तंद्रा भंग हो गई, ‘‘क्या बात है, आफिस में कुछ हुआ है क्या?’’ उसे मेरी बेचैनी की वजह नहीं समझ में आ रही थी.

‘‘नहीं, बस, यों ही… नींद नहीं आ रही, तुम सो जाओ, शुभी,’’ मैं ने धीरे से थपकी दे कर उसे आश्वस्त किया तो दिनभर की थकीमांदी शुभी कुनमुना कर सो गई.

घड़ी की टिकटिक निरंतर अपनी आवाज से मुझे बीतते वक्त का बोध करा रही थी. क्या होगा कल…कल जीजाजी फिर मुझ से पूछेंगे तब क्या जवाब दूंगा मैं उन्हें…मेरी नजरों के सामने उन की कातर छवि घूम गई थी. पता नहीं कैसे वह कांपते पैरों से मेरे आफिस में आए थे. कितने भीगे हुए स्वर में उन्होंने कहा था, ‘मुन्ना, अब मैं थक गया हूं…तन से भी और मन से भी. जिंदगी में जो गलती मैं ने की थी उस का प्रायश्चित्त तो शायद ही हो पर एक बार, सिर्फ एक बार मैं सरिता से मिलना चाहता हूं. मन में अब इतनी शक्ति शेष नहीं है कि मैं खुद उस के सामने जा सकूं. मुन्ना, बस एक बार मुझे उस से मिलवा दे. फिर शायद मैं सुकून से मर सकूं.’

क्या कहता मैं उन से. एक बार तो सोचा कि कह दूं, ‘जीजाजी, आप जिस भगवान की तलाश में उस बेसहारा औरत को एक बच्चे की जिम्मेदारी के साथ छोड़ गए थे, क्या वह भगवान आप को नहीं मिला. उसी से कहिए न कि वह बीते वक्त को वापस ला दे, क्यों मिलेगी वह आप से? जिंदगी के 20 साल तो उस ने अपने आंसुआें को अपने आंचल में छिपाए आप के बगैर काट दिए, अब कौन से नए आंसू देने के लिए आप मिलना चाहते हैं?’ लेकिन नहीं कह सका, बिस्तर पर पड़े मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे उस व्यक्ति से कोई कठोर बात कहने की हिम्मत ही नहीं पड़ी.

यह वह जीजाजी नहीं थे, जो कभी दमकते चेहरे वाले सुंदर, सुगठित नौजवान थे. घर छोड़ते वक्त जब साधुओं वाले वस्त्र पहने थे तब भी मैं ने इन्हें देखा था. उस दुखद वातावरण में भी मुझे इन का सौंदर्य खिला सा लग रहा था, लेकिन आज बीमारी से जर्जर शरीर के साथ सरकारी अस्पताल के बेड पर जाने लायक यह व्यक्ति जैसे निरीहता की प्रतिमूर्ति लग रहा था.

परंतु अब मैं क्या करूं, उन की हालत से पिघल कर मैं उन्हें मौन आश्वासन तो दे आया था, लेकिन कैसे कहूं दीदी से और क्या कहूं. 20 साल से दीदी अपने अंदर पता नहीं कितने तूफानों को समेटे चुपचाप जीती चली जा रही हैं.

जीजा के संन्यास लेने के बाद भी शायद ही किसी ने कभी उन के मुंह से जीजा की कोई शिकायत सुनी हो, वह तो बस निरंतर समय की गति के साथ किसी नदी की भांति बहती चली जा रही हैं. न किसी से कोई शिकवा न शिकायत. बीते वक्त का कोई भी दंश उन के व्यक्तित्व से नहीं झलकता. आज भी जो उन से मिलता है, प्रभावित हुए बिना नहीं रहता.

अब तो प्रियांशु ने ही सारा घर संभाल लिया है. वह दीदी के ही नक्शेकदम पर गया है. वही बोलने का मधुर अंदाज, वही सपनीली आंखें, अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा. दीदी ने प्रियांशु में अपने संस्कार कूटकूट कर भर दिए हैं. उन दोनों की जिंदगी किसी मधुरमंद हवा की भांति बह रही है. ऐसे में मैं कैसे उन दोनों की जिंदगी में एकाएक कोई तूफान भर दूं, कैसे कहूं दीदी से कि आज जीजा तुम से मिलने के लिए व्याकुल हैं, प्रियांशु पर क्या प्रभाव पड़ेगा उस का…

5 साल का था जब जीजा ने उन दोनों को छोड़ कर संन्यास ले लिया था. इस की खबर पा कर मैं भी बाबूजी के साथ दीदी के घर गया था. 2 साल ही तो बड़ी थीं दीदी मुझ से पर उस समय मुझे उन्हें देख कर ऐसा लगा था जैसे वह अपनी उम्र से 10 साल आगे निकल गई हों.

जीजाजी के पिताजी भी तब जीवित थे. उन की हालत तो दीदी से भी बुरी थी. बाबूजी के आगे हाथ जोड़ कर उन्होंने कहा था, ‘भाई साहब… कैसे भी वापस लौटा लाइए उसे, उसे जो भी करना है घर में रह कर करे, आखिर उस के अलावा हम लोगों का कौन है? कैसे जीएगी बहू, जवान बहू को ले कर मैं बूढ़ा गृहस्थी की गाड़ी को खींच नहीं पाऊंगा, मेरी तो उस ने सुनी नहीं अब आप ही…’ कह कर रो पड़े थे वह.

Valentine’s Day 2024 : रूह का स्पंदन – दीक्षा के जीवन की क्या थी हकीकत ? – भाग 1

शादी के लिए सुदेश और दीक्षा एक रेस्टोरेंट में मिले. दोनों को ही उम्मीद नहीं थी कि वे एकदूसरे की कसौटी पर खरे उतरेंगे. तब तो बिलकुल भी नहीं, जब दीक्षा ने अपने जीवन की हकीकत बताई. लेकिन सुदेश ने जब 5 मिनट दीक्षा का हाथ अपने हाथों में थामा तो नतीजा पल भर में सामने आ गया. आखिर ऐसा…

‘‘डूयू बिलीव इन वाइब्स?’’ दक्षा द्वारा पूरे गए इस सवाल पर सुदेश चौंका. उस के चेहरे के हावभाव तो बदल ही गए, होंठों पर हलकी मुसकान भी तैर गई. सुदेश का खुद का जमाजमाया कारोबार था. वह सुंदर और आकर्षक युवक था. गोरा चिट्टा, लंबा, स्लिम,

हलकी दाढ़ी और हमेशा चेहरे पर तैरती बाल सुलभ हंसी. वह ऐसा लड़का था, जिसे देख कर कोई भी पहली नजर में ही आकर्षित हो जाए. घर में पे्रम विवाह करने की पूरी छूट थी, इस के बावजूद उस ने सोच रखा था कि वह मांबाप की पसंद से ही शादी करेगा.

सुदेश ने एकएक कर के कई लड़कियां देखी थीं. कहीं लड़की वालों को उस की अपार प्यार करने वाली मां पुराने विचारों वाली लगती थी तो कहीं उस का मन नहीं माना. ऐसा कतई नहीं था कि वह कोई रूप की रानी या देवकन्या तलाश रहा था. पर वह जिस तरह की लड़की चाहता था, उस तरह की कोई उसे मिली ही नहीं थी.

सुदेश का अलग तरह का स्वभाव था. उस की सीधीसादी जीवनशैली थी, गिनेचुने मित्र थे. न कोई व्यसन और न किसी तरह का कोई महंगा शौक. वह जितना कमाता था, उस हिसाब से उस के कपड़े या जीवनशैली नहीं थी. इस बात को ले कर वह हमेशा परेशान रहता था कि आजकल की आधुनिक लड़कियां उस के घरपरिवार और खास कर उस के साथ व्यवस्थित हो पाएंगी या नहीं.

अपने मातापिता का हंसताखेलता, मुसकराता, प्यार से भरपूर दांपत्य जीवन देख कर पलाबढ़ा सुदेश अपनी भावी पत्नी के साथ वैसे ही मजबूत बंधन की अपेक्षा रखता था. आज जिस तरह समाज में अलगाव बढ़ रहा है, उसे देख कर वह सहम जाता था कि अगर ऐसा कुछ उस के साथ हो गया तो…

सुदेश की शादी को ले कर उस की मां कभीकभी चिंता करती थीं लेकिन उस के पापा उसे समझाते रहते थे कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा. सुदेश भी वक्त पर भरोसा कर के आगे बढ़ता रहा. यह सब चल रहा था कि उस से छोटे उस के चचेरे भाई की सगाई का निमंत्रण आया. इस से सुदेश की मां को लगा कि उन के बेटे से छोटे लड़कों की शादी हो रही हैं और उन का हीरा जैसा बेटा किसी को पता नहीं क्यों दिखाई नहीं देता.

चिंता में डूबी सुदेश की मां ने उस से मेट्रोमोनियल साइट पर औनलाइन रजिस्ट्रेशन कराने को कहा. मां की इच्छा का सम्मान करते हुए सुदेश ने रजिस्ट्रेशन करा दिया. एक दिन टाइम पास करने के लिए सुदेश साइट पर रजिस्टर्ड लड़कियों की प्रोफाइल देख रहा था, तभी एक लड़की की प्रोफाइल पर उस की नजर ठहर गई.

ज्यादातर लड़कियों ने अपनी प्रोफाइल में शौक के रूप में डांसिंग, सिंगिंग या कुकिंग लिख रखा था. पर उस लड़की ने अपनी प्रोफाइल में जो शौक लिखे थे, उस के अनुसार उसे ट्रैवलिंग, एडवेंचर ट्रिप्स, फूडी का शौक था. वह बिजनैस माइंडेड भी थी.

उस की हाइट यानी ऊंचाई भी नौर्मल लड़कियों से अधिक थी. फोटो में वह काफी सुंदर लग रही थी. सुदेश को लगा कि उसे इस लड़की के लिए ट्राइ करना चाहिए. शायद लड़की को भी उस की प्रोफाइल पसंद आ जाए और बात आगे बढ़ जाए. यही सोच कर उस ने उस लड़की के पास रिक्वेस्ट भेज दी.

सुदेश तब हैरान रह गया, जब उस लड़की ने उस की रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली. हिम्मत कर के उस ने साइट पर मैसेज डाल दिया. जवाब में उस से फोन नंबर मांगा गया. सुदेश ने अपना फोन नंबर लिख कर भेज दिया. थोड़ी ही देर में उस के फोन की घंटी बजी. अनजान नंबर होने की वजह से सुदेश थोड़ा असमंजस में था. फिर भी उस ने फोन रिसीव कर ही लिया.

दूसरी ओर से किसी संभ्रांत सी महिला ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं दक्षा की मम्मी बोल रही हूं. आप की प्रोफाइल मुझे अच्छी लगी, इसलिए मैं चाहती हूं कि आप अपना बायोडाटा और कुछ फोटोग्राफ्स इसी नंबर पर वाट्सऐप कर दें.’’

सुदेश ने हां कह कर फोन काट दिया. उस के लिए यह सब अचानक हो गया था. इतनी जल्दी जवाब आ जाएगा और बात भी हो जाएगी, सुदेश को उम्मीद नहीं थी. सोचविचार छोड़ कर उस ने अपना बायोडाटा और फोटोग्राफ्स वाट्सऐप कर दिए.

फोन रखते ही दक्षा ने मां से पूछा, ‘‘मम्मी, लड़का किस तरह बातचीत कर रहा था? अपने ही इलाके की भाषा बोल रहा था या किसी अन्य प्रदेश की भाषा में बात कर रहा था?’’

‘‘बेटा, फिलहाल वह दिल्ली में रह रहा है और दिल्ली में तो सभी प्रदेश के लोग भरे पड़े हैं. यहां कहां पता चलता है कि कौन कहां का है. खासकर यूपी, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान वाले तो अच्छी हिंदी बोल लेते हैं.’’ मां ने बताया.

घर लौट जा माधुरी : जवानी की दहलीज पर पैर रखते ही माधुरी की जिंगदी में क्या बदलाव आया ? – भाग 1

रात के साढ़े 10 बज रहे थे. तृप्ति खाना खा कर पढ़ने के लिए बैठी थी. वह अपने जरूरी नोट रात में 11 बजे के बाद ही तैयार करती थी. रात में गली सुनसान हो जाती थी. कभीकभार तो कुत्तों के भूंकने की आवाज के अलावा कोई शोर नहीं होता था.

तृप्ति के कमरे का एक दरवाजा बनारस की एक संकरी गली में खुलता था. मकान मालकिन ऊपर की मंजिल पर रहती थीं. वे विधवा थीं. उन की एकलौती बेटी अपने पति के साथ इलाहाबाद में रहती थी.

नीचे छात्राओं को देने के लिए 3 छोटेछोटे कमरे बनाए गए थे. 2 कमरों के दरवाजे अंदर के गलियारे में खुलते थे. उन दोनों कमरों में भी छात्राएं रहती थीं.

दरवाजा बाहर की ओर खुलने का एक फायदा यह था कि तृप्ति को किसी वजह से बाहर से आने में देर हो जाती थी तो मकान मालकिन की डांट नहीं सुननी पड़ती थी.

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया. तृप्ति किसी अनजाने डर से सिहर उठी. उसे लगा, कोई गली का लफंगा तो नहीं. वैसे, आज तक ऐसा नहीं हुआ था. रात 10 बजे के बाद गली की ओर खुलने वाले दरवाजे को किसी ने नहीं खटखटाया था.

कभीकभार बगल वाली छात्राएं कुछ पूछने के लिए साइड वाला दरवाजा खटखटा देती थीं. उन दोनों से वह सीनियर थी, इसलिए वे भी रात में ऐसा कभीकभार ही करती थीं.

पर जब ‘तृप्ति, दरवाजा खोलो… मैं माधुरी’ की आवाज सुनाई पड़ी, तो तृप्ति ने दरवाजे की दरार से झांक कर देखा. यह माधुरी थी. उस के बगल के गांव की एक सहेली. मैट्रिक तक दोनों साथसाथ पढ़ी थीं. बाद में तृप्ति बनारस आ गई थी. बीए करने के बाद बीएचयू की ला फैकल्टी में एडमिशन लेने के लिए वह एडमिशन टैस्ट की तैयारी कर रही थी.

माधुरी बगल के कसबे में ही एक कालेज से बीए करने के बाद घर बैठी थी. पिता उस की शादी करने के लिए किसी नौकरी करने वाले लड़के की तलाश में थे.

‘‘अरे तुम… इतनी रात गए… कहां से आ रही हो?’’ हैरान होते हुए तृप्ति ने पूछा.

‘‘बताती हूं, पहले अंदर तो आने दे,’’ कुछ बदहवास और चिंतित माधुरी आते ही बैड पर बैठ गई.

‘‘एक गिलास पानी तो ला… बहुत प्यास लगी है,’’ माधुरी ने इतमीनान की सांस लेते हुए कहा. ऐसा लग रहा था मानो वह दौड़ कर आई थी.

तृप्ति ने मटके से पानी निकाल कर उसे देते हुए कहा, ‘‘गलियां अभी पूरी तरह सुनसान नहीं हुई हैं… वरना अब तक तो इस गली में कुत्ते भी भूंकना बंद कर देते हैं,’’ फिर उस ने माधुरी की ओर एक प्लेट में बेसन का लड्डू बढ़ाते हुए कहा, ‘‘पहले कुछ खा ले, फिर पानी पीना. लगता है, तुम दौड़ कर आ रही हो?’’

माधुरी ने लड्डू खाते हुए कहा, ‘‘इतनी संकरी गली में कमरा लिया है कि तुम्हारे यहां कोई पहुंच भी नहीं सकता. यह तो मैं पिछले महीने ही आई थी इसलिए भूली नहीं, वरना जाने इतनी रात को अब तक कहां भटकती रहती.’’

‘‘पहले मैं गर्ल्स होस्टल में रहना चाहती थी, पर अगलबगल में कोई ढंग का मिल नहीं रहा था, महंगा भी बहुत था. यह बहुत सस्ते में मिल गया. यहां बहुत शांति रहती है, इसलिए इम्तिहान की तैयारी के लिए सही लगा. बस, आ गई. अगर मेरा एडमिशन बीएचयू में हो जाता है, तो आगे से वहीं होस्टल में रहूंगी.

‘‘अच्छा, अब तो बता कैसे आई हो? इतना बड़ा बैग… लगता है, काफी सामान भर रखा है इस में. कहीं जाने का प्लान है क्या?’’ तृप्ति ने पूछा.

‘‘हां, बताती हूं. अब एक कप चाय तो पिला,’’ माधुरी बोली.

‘‘खाना खाया है या बनाऊं… लेकिन, तुम ने खाना कहां से खाया होगा. घर से सीधे आ रही हो या…’’

‘‘खाना तो नहीं खाया है. मौका ही नहीं मिला, लेकिन रास्ते में एक दुकान से ब्रैड ले ली थी. अब इतनी रात को खाने की चिंता छोड़ो. ब्रैडचाय से काम चला लूंगी मैं,’’ माधुरी ने कहा.

चाय और ब्रैड खाने के बाद माधुरी की थकान तो मिट गई थी, पर उस के चेहरे पर अब भी चिंता की लकीरें साफ दिखाई पड़ रही थीं.

माधुरी बोली, ‘‘तृप्ति, तुम्हें याद है, जब हम लोग 9वीं जमात में थे, तब सौरभ नाम का एक लड़का 10वीं जमात में पढ़ता था. वही लंबी नाक वाला, गोरा, सुंदर, जो हमेशा मुसकराता रहता था…’’

‘‘हां, जिस के पीछे कई लड़कियां भागती थीं… और जिस के पिता की गहनों की मार्केट में बड़ी सी दुकान थी,’’ तृप्ति ने याद करते हुए कहा.

‘‘हां, वही.’’

‘‘पर, बात क्या है… तुम कहना क्या चाहती हो?’’

‘‘वही तो मैं बता रही हूं. वह 2 बार मैट्रिक में फेल हुआ तो उस के पिता ने उस की पढ़ाई छुड़वा कर दुकान पर बैठा दिया. पिछले साल भैया की शादी थी. मां भाभी के लिए गहनों के लिए और्डर देने जाने लगीं तो साथ में मुझे भी ले लिया.

‘‘मैं गहनों में बहुत काटछांट कर रही थी, इसलिए उस के पिता ने गहने दिखाने के लिए सौरभ को लगा दिया, तभी उस ने मुझ से पूछा था, ‘तुम माधुरी हो न?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘हां, पर तुम कैसे जानते हो?’

‘‘उस ने बताया, ‘भूल गई क्या… हम दोनों एक ही स्कूल में तो पढ़ते थे.’

‘‘मैं उसे पहचानती तो थी, लेकिन जानबूझ कर अनजान बन रही थी. फिर उस ने मेरी ओर देखा तो शर्म से मेरी आंखें झुक गईं. उस दिन गहनों के और्डर दे कर हम लोग घर चले आए, फिर एक हफ्ते बाद मां के साथ मैं भी गहने लेने दुकान पर गई थी.

‘‘मां ने मुझ से कहा था, ‘दुकानदार का बेटा तुम्हारा परिचित है, तो दाम में कुछ छूट करा देना.’

‘‘मैं ने कहा था, ‘अच्छा मां, मैं उस से बोल दूंगी.’

‘‘पर, दाम उस के पिताजी ने लगाए. उस ने पिता से कहा, तो कुछ कम हो गया… घर आने पर मालूम हुआ कि भाभी के लिए जो सोने की अंगूठी खरीदी गई थी, वह नाप में छोटी थी. मां बोलीं, ‘माधुरी, कल अंगूठी ले जा कर बदलवा देना, मुझे मौका नहीं मिलेगा. कल कुछ लोग आने वाले हैं.’

‘‘मैं दूसरे दिन जब दुकान पर पहुंची तो सौरभ के पिताजी नहीं थे. मुझे देख कर वह मुसकराते हुए बोला, ‘आओ माधुरी, बैठो. आज क्या और्डर करना है?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘कुछ नहीं… बस, यह अंगूठी बदलवानी है. भाभी की उंगली में नहीं आएगी. नाप में बहुत छोटी है.’‘‘वह बोला था, ‘कोई बात नहीं,

इसे तुम रख लो. भाभी के लिए मैं दूसरी दे देता हूं.’

‘‘मैं ने छेड़ते हुए कहा था, ‘बड़े आए देने वाले… दाम तो कम कर नहीं सकते… मुफ्त में देने चले हो.’

‘‘यह सुन कर उस ने कहा था, ‘कल पिताजी मालिक थे, आज मैं हूं. आज मेरा और्डर चलेगा.’

‘‘सचमुच ही उस ने वही किया, जो कहा. मैं ने बहुत कोशिश की, लेकिन उस ने अंगूठी वापस नहीं ली. भाभी के नाप की वैसी ही दूसरी अंगूठी भी दे दी.

Valentine’s Day 2024 : काश – श्रीकांत किसे देखकर हैरान हो गया था ? – भाग 1

सारिका को देख श्रीकांत सन्न रह गया था. उसे समझ नहीं आया कि सारिका का सामना कैसे करे और उसे क्या कहे. आखिर उस के साथ गलत भी तो उसी ने किया था.

‘‘लगता है जब तक तू पिटेगा नहीं, तेरे भेजे में इत्ती सी बात घुसेगी नहीं…,’’ आज फिर शांता ने घर सिर पर उठा रखा था. बेचारा नन्हा विपुल डर के मारे तितरबितर भाग रहा था. रोज का काम था यह. शांता के बदमिजाज व्यक्तित्व ने सारे घर में क्लेश घोल रखा था. शाम को दफ्तर से घर लौट रहे श्रीकांत ने घर के बाहर ही चीखने की आवाजें सुन ली थीं. ‘‘क्या शांता, आज फिर तुम विपुल पर चिल्ला रही हो? ऐसा क्या कर दिया इस नन्ही सी जान ने?’’

‘‘चढ़ा लो सिर, बाद में मुझ से मत कहना, तुम्हारे लाड़प्यार से ही बिगड़ रहा है यह. पता है आज क्या किया इस ने…’’ पंचम सुर में शांता ने विपुल की बालक्रियाओं की शिकायतें आरंभ कर दीं. श्रीकांत सोच रहा था कि यदि वह भी विपुल को दुलारना बंद कर दे तो बेचारा बच्चा मातापिता के होते हुए भी प्यार नहीं पा सकेगा. इतनी रूखी, इतनी चिड़चिड़ी क्यों थी शांता? श्रीकांत ने शादी की शुरुआत में जानने की काफी कोशिश की, उस के मातापिता से भी पूछा लेकिन हर बार यही सुनने को मिला कि स्वभाव की थोड़ी कड़वी जरूर है पर दिल की बहुत अच्छी है शांता. किंतु उस अच्छे दिल का दीदार गाहेबगाहे ही हुआ करता था.

शांता के ऐसे टेढ़े स्वभाव के कारण श्रीकांत के मातापिता ने भी उस की गृहस्थी में आना कम कर दिया था. वे दोनों अपने शहर में ही संतुष्ट थे. नौकरी की वजह से श्रीकांत को अलग शहर में रहना पड़ रहा था. ऐसा नहीं था कि श्रीकांत और शांता कभी मातापिता के साथ रहे ही नहीं. शादी के बाद कुछ समय तक सब साथ ही रहे थे. पर ऐसी कलहप्रिया पत्नी के साथ मातापिता के घर में रहना बहुत कठिन था.

श्रीकांत के पिता की गिनती अपने शहर के उच्च श्रेणी के पंडितों में हुआ करती थी. वे धार्मिक प्रवृत्ति के थे. शादी से पहले श्रीकांत वडोदरा में नौकरी करता था. श्रीकांत ने घरवालों के कहने पर अपने ही शहर के दूसरे उच्च कुलीन ब्राह्मण की बेटी से शादी कर ली.

पंडितजी ने बताया था, ‘‘दोनों के पूरे 30 गुण मिले हैं. शुक्र बहुत उच्च का है, इसलिए बहुत पैसा आएगा. बृहस्पति सुग्रही है, इसलिए ऊंचा नाम होगा. ऐसा कुंडली मिलान कम ही देखने को मिलता है.’’

‘‘जिस घर जाएगी वहां शांतिसमृद्धि की वर्षा कर देगी शांता. मैं ने स्वयं पत्री देखी है उस की,’’ पिताजी ने पूर्व विश्वास के साथ दावे भरे थे. परंतु शादी के कुछ समय बाद ही शांता ने घर की शांति भंग करनी शुरू कर दी थी. बातबेबात मां से झगड़े, यहां तक कि पिताजी को भी उलटे जवाब देती. वह इतनी बेशर्मी से लड़ती कि मातापिता अपनी इज्जत का खयाल कर के अपने कमरे में छिप जाते. एक वर्ष में विपुल गोद में आ गया. लेकिन शांता का स्वभाव बद से बदतर होता गया. पहले सोचते थे लड़कपन है, बच्चा होगा तो ममताबाई गुण अपना रंग दिखाएंगे.

विपुल के होने के बाद भी जब कोई बदलाव नहीं आया, उलटा सास से लड़ाइयां बढ़ती गईं तो श्रीकांत ने अलग शहर में नौकरी करने का निश्चय किया. शांता तो आज भी लड़ाई में ताने दे मारती है कि सासससुर ने उस की गृहस्थी के कामों में मदद न करने के लिए अपने बेटे की अलग शहर में नौकरी लगवा दी.

‘‘अगले हफ्ते मुझे टूर पर जाना है. इस बार थोड़ा लंबा टूर है, करीब 10 दिन लग जाएंगे,’’ श्रीकांत ने खाने की मेज पर बताया.

‘‘याद से अपनी दवाइयां ले जाना,’’ शांता के कहने पर श्रीकांत के मन में एक टीस उठी. बीमारी भी इसी के स्वभाव के कारण लगी और अब उच्च रक्तचाप की दवाईर् लेने की याद भी यही दिलाती है.

बेंगलुरु के सदा सुहावने मौसम के बारे में श्रीकांत ने सुन रखा था. शहर में पहुंच कर उस मौसम का आनंद लेना उसे और भी अच्छा लग रहा था. किसी अन्य मैट्रो शहर की भांति चौड़ी सड़कें, फ्लाईओवर, और अब तो मैट्रो का भी काम चल रहा था. लेकिन भीड़ हर जगह हो गई है. यहां भी कितना ट्रैफिक, गाडि़यों का कितना धुआं है, सोचता हुआ वह अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच गया.

सारा दिन दफ्तर में काम निबटाने के बाद शाम को वह व्हाइटफील्ड मौल में कुछ देर तरोताजा होने चला गया. इस मौल में अकसर कोई न कोई मेला आयोजित होता रहता है, ऐसा दफ्तर के सहकर्मियों ने बताया था. आज भी मौल के प्रवेशद्वार पर जो लंबाचौड़ा अहाता है वहां गोल्फ की नकली पिच बिछा कर खेल चल रहा था. श्रीकांत को कुछ अच्छे पल बिताने के अवसर कम मिलते थे. वह भी वहां खेलने के इरादे से चला गया. अपना नाम दर्ज करवा कर जब वह काउंटर पर गोल्फस्टिक लेने पहुंचा तो सामने सारिका को गोल्फस्टिक वापस रखते देख चौंक गया. आंखों के साथसाथ मुंह भी खुला रह गया.

‘‘तुम? यहां?’’ अटकते हुए उस के मुंह से अस्फुटित शब्द निकले. सारिका भी अचानक श्रीकांत को यहां देख अचंभित थी. शाम ढल चुकी थी. श्रीकांत पहले ही अपने दफ्तर का काम निबटा कर फ्री हो चुका था. सारिका भी खाली हो गई. दोनों उसी मौल के तीसरे माले पर इटैलियन क्विजीन खाने कैलिफोर्निया पिज्जा किचन रैस्तरां की ओर चल दिए. वहां सारिका ने चिकन फहीता पिज्जा और इटैलियन सोडा मंगवाया. सारिका ने जिस अंदाज और आत्मविश्वास से और्डर किया, उस से श्रीकांत समझ गया कि सारिका का ऐसी महंगी जगहों पर आनाजाना आम होता होगा.

‘‘और तुम क्या लोगे?’’ सारिका के पूछने पर श्रीकांत थोड़ा सकुचाया, कहा, ‘‘क्या अच्छा है यहां का?’’

‘‘मैं और्डर करती हूं तुम्हारे लिए. अ… तुम तो शाकाहारी हो न, तो तुम्हारे लिए कैलिफोर्निया वेजी पिज्जा और तुम्हें नींबूपानी पसंद था न, तो लेमोनेड,’’ कहते हुए सारिका ने वेटर को चलता किया.

‘‘तुम्हें अब भी मेरी पसंदनापसंद याद है?’’ श्रीकांत आश्चर्यचकित था और थोड़ा शर्मिंदा भी.

‘‘क्यों, तुम भुला पाए मुझे?’’ सारिका के इस प्रश्न ने श्रीकांत की आंखों से अतीत का परदा सरका दिया. उस की आंखों के सामने पुरानी बातें फिल्मी रील की तरह प्रतिबिंबित होने लगीं.

वडोदरा में नौकरी के पहले दिन ही श्रीकांत अपनी सहकर्मी सारिका पर आसक्त हो गया था. अप्रतिम सौंदर्य की मलिका, हंसे तो लगता था जैसे पंखुरी से होंठ नाच रहे हों, नयनकटारी ऐसी तीखी जैसे तेजधार तलवार, काजल की रेखा नयनों को और भी पैना बना देती. लेकिन वहीं, इतनी कठोर कि दफ्तर में किसीकी हिम्मत नहीं थी सारिका को कुछ ऐसावैसा कहने की.

‘अपनी दृष्टि काबू में रख, अभीअभी नौकरी शुरू की है, अभी से छोड़ने का इरादा है क्या?’ दफ्तर के एक दोस्त के पूछने पर श्रीकांत ने हैरतभरी दृष्टि उस पर डाली थी. ‘तेरी आंखें सारे राज खोल रही हैं. पर कुछ ऐसावैसा सोचना भी मत. सारिका देखने में जितनी सुंदर है उतनी ही सख्त भी. किसी को नहीं बख्शती.’

चेतावनी पाने पर श्रीकांत चुप हो गया था पर वह दिल ही क्या जो दिमाग की बात मान जाए. घूमफिर कर सारिका का खयाल जेहन में घूमता रहता. नियति को भी तरस आ गया. एक प्रोजैक्ट पर सारिका और श्रीकांत को साथ काम करने को कहा गया. दोस्ती हो गई. सारिका भी श्रीकांत की तरह अपने घरपरिवार से दूर यहां नौकरी के लिए आई थी. श्रीकांत की तरह वह भी एक फ्लैट में रहती थी.

‘क्या हुआ, आज बड़े उखड़े हुए लग रहे हो?’ सारिका ने उस दिन श्रीकांत का खराब मूड भांपते हुए पूछा.

‘क्या बताऊं, आज फिर मकानमालिक से झगड़ा हो गया. वह बहुत झगड़ालू है. सोच रहा हूं घर बदल लूं. कोई नजर में हो तो बताना.’ लेकिन उसी रात श्रीकांत, सारिका के दरवाजे पर अपना सामान लिए खड़ा था. ‘सौरी सारिका, इस समय कहीं और जाने का ठिकाना न हुआ. मकानमालिक ने मेरे घर पहुंचने से पहले से सामान बाहर कर दिया था. प्लीज, आज रात रुक जाने दो. कल से कोई और इंतजाम कर लूंगा.’

रात्रिभोजन के बाद श्रीकांत के मुंह से निकल गया, ‘इतना स्वादिष्ठ खाना, तुम में तो आदर्श बीवी बनने के सारे गुण हैं,’ श्रीकांत की आंखों ने भी उस की भावनाओं का साथ दे डाला. शायद सारिका के मन में भी कुछ पनप रहा था श्रीकांत के लिए, वह बस, शरमा कर मुसकरा दी.

श्रीकांत की हिम्मत बढ़ गई. वह फौरन सारिका के पास आ बैठा और धीरे से उस के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए बोला, ‘सारिका, कभी हिम्मत नहीं हुई तुम से कहने की पर…मैं तुम्हें बहुत पसंद करता हूं. तुम हो ही ऐसी.’ सारिका खामोशी से सब सुनती, नीची नजर किए मुसकराती रही. उस के मुखमंडल पर एक अलग ही लालिमा छाई थी. उस सौंदर्य को पी जाने की लालसा में श्रीकांत ने अपने अधर सारिका के अधरों पर अंकित कर दिए. फिर दोनों को किसी भी सीमा का आभास न रहा. कुंआरे प्यार ने सारे बांध तोड़ दिए.

अब दोनों साथ रहने लगे थे. दोनों एकदूसरे के साथ बेहद खुश थे. तृप्ति उन के चेहरों से झलकती थी. धीरेधीरे दफ्तर में भी यह बात खुल गई. सब को पता चल गया. युवा समाज वाकई काफी बदल गया है. अधिकतर सहकर्मियों ने इस बात को सहर्ष स्वीकारा. लेकिन जब बात परिवार तक आती है तब अकसर समाज अपना पुराना, जीर्ण, संकुचित रूप ही दिखाता है. यहां भी यही हुआ. सारिका के परिवार वाले उस पर शादी के लिए जोर डालने लगे. श्रीकांत ने अपने परिवार में बात छेड़ी, तो वहां मानो जंग छिड़ गई.

‘हाय, यह किस कलमुंही को हमारे घर की बहू बनाने की बात कर रहा है? ऐसी निर्लज्ज, जो ब्याह से पहले ही…मुझे तो कहने में भी लज्जा आती है,’ मां ने घर सिर पर उठा लिया.

‘और नहीं तो क्या, आदमी का क्या है, वह तो बहक ही जाता है. पर औरत को तो खुद पर संयम रखना चाहिए. ऐसे नीच संस्कारों वाली भाभी नहीं चाहिए मुझे,’ दीदी भी चुप नहीं थीं.

‘अरे, चुप हो तुम सब. बिना पत्रीमिलान करे मैं इस की शादी की इजाजत नहीं दे सकता. पहले उस लड़की की पत्री मंगवा कर मुझे दे,’ पिताजी ने आखिरी फरमान सुनाया.

सब की बातों को दरकिनार कर श्रीकांत ने सारिका की पत्री अपने पिता को दी. उस ने सोचा, एक बार शादी हो जाएगी, तो सारिका अपने व्यवहार और निपुणता से सब का दिल स्वयं ही मोह लेगी.

‘इस लड़की की उम्र बहुत कम है, अधिक से अधिक एकडेढ़ वर्ष, और तब तक यह बीमारियों का शिकार रहेगी. इस के संसार छोड़ने से पहले श्रीकांत ने इसे गृहस्थ सुख का वरदान दिया, इस के लिए श्रीकांत को अवश्य लाभ मिलेगा. किंतु, अब बस. अब इस से नाता तोड़ो और जहां कुंडली मिलान हो वहां गृहस्थी बसाओ,’ पिताजी की इस अप्रत्याशित बात से श्रीकांत के पांवतले की जमीन सरक गई. वह तो सारिका के साथ जीवन के सुनहरे स्वप्न संजो रहा था और यहां तो बात ही खत्म. आगे किसी बहस की कोई गुंजाइश नहीं थी. श्रीकांत को नौकरी छोड़ कर अपने शहर लौटने का आदेश दे दिया गया था. फटाफट अपने ही शहर की एक कुलीन कन्या से पत्री मिलान करवाया जा चुका था.

जब श्रीकांत अपना सामान लेने आखिरी बार वडोदरा गया था तब सारिका उस के समक्ष फूटफूट कर रोई थी. ‘मेरी क्या गलती है, श्रीकांत? तुम मुझे यों मझधार में नहीं छोड़ सकते. सब को हमारे रिश्ते के बारे में पता है. तुम तो शादी कर लोगे, मेरा क्या होगा? मुझे कोई बीमारी नहीं है. मैं स्वस्थ हूं. बेकार की बातों में तुम हमारा भविष्य खराब करने पर राजी कैसे हो गए?’ पर श्रीकांत चुप रहा. आखिरी समय तक, स्टेशन पर गाड़ी में सवार होने तक सारिका प्रयास करती रही कि शायद श्रीकांत कुछ नम्र पड़ जाए.

अनकहा प्यार : 40 साल की औरत की जिंदगी को दर्शाती कहानी – भाग 1

वे फिर मिलेंगे. उन्हें भरोसा नहीं था. पहले तो पहचानने में एकदो मिनट लगे उन्हें एकदूसरे को. वे पार्क में मिले. सबीना का जबजब अपने पति से झगड़ा होता, तो वह एकांत में आ कर बैठ जाती. ऐसा एकांत जहां भीड़ थी. सुरक्षा थी. लेकिन फिर भी वह अकेली थी. उस की उम्र 40 वर्ष के आसपास थी. रंग गोरा, लेकिन चेहरा अपनी रंगत खो चुका था. आधे से ज्यादा बाल सफेद हो चुके थे. जो मेहंदी के रंग में डूब कर लाल थे. आंखें बुझबुझ सी थीं.

वह अपने में खोईर् थी. अपने जीवन से तंग आ चुकी थी. मन करता था कि  कहीं भाग जाए. डूब मरे किसी नदी में. लेकिन बेटे का खयाल आते ही वह अपने झलसे और उलझे विचारों को झटक देती. क्याक्या नहीं हुआ उस के साथ. पहले पति ने तलाक दे कर दूसरा विवाह किया. उस के पास अपना जीवन चलाने का कोई साधन नहीं था. उस पर बेटे सलीम की जिम्मेदारी.

पति हर माह कुछ रुपए भेज देता था. लेकिन इतने कम रुपयों में घर चलाए या बेटे की परवरिश अच्छी तरह करे. मातापिता स्वयं वृद्ध, लाचार और गरीब थे. एक भाई था जो बड़ी मुश्किल से अपना गुजारा चलाता था. अपना परिवार पालता था. साथ में मातापिता भी थे. वह उन से किस तरह सहयोग की अपेक्षा कर सकती थी.

उस ने एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने का काम शुरू कर दिया. वह अंगरेजी में एमए के साथ बीएड भी थी. सो, उसे आसानी से नौकरी मिल गई. सरकारी नौकरी की उस की उम्र निकल चुकी थी. वह सोचती, आमिर यदि बच्चा होने के पहले या शादी के कुछ वर्ष बाद तलाक दे देता, तो वह सरकारी नौकरी तो तलाश सकती थी. उस समय उस की उम्र सरकारी नौकरी के लायक थी. शादी के कुछ समय बाद जब उस ने आमिर के सामने नौकरी करने की बात कही, तो वह भड़क उठा था कि हमारे खानदान में औरतें नौकरी नहीं करतीं.

उम्र गुजरती रही. आमिर दुबई में इंजीनियर था. अच्छा वेतन मिलता था. किसी चीज की कमी नहीं थी. साल में एकदो बार आता और सालभर की खुशियां हफ्तेभर में दे कर चला जाता. एक दिन आमिर ने दुबई से ही फोन कर के उसे यह कहते हुए तलाक दे दिया कि यहां काम करने वाली एक अमेरिकन लड़की से मुझे प्यार हो गया है. मैं तुम्हें हर महीने हर्जाखर्चा भेजता रहूंगा. मुझे अपनी गलती का एहसास तो है, लेकिन मैं दिल के हाथों मजबूर हूं. एक बार वापस आया तो तलाक की शेष शर्तें मौलवी के सामने पूरी कर दीं और चला गया. इस बीच एक बेटा हो चुका था.

आमिर को कुछ बेटे के प्रेम ने खींचा और कुछ अमेरिकन पत्नी की प्रताड़ना ने सबीना की याद दिलाई. और वह माफी मांगते हुए दुबई से वापस आ गए. लेकिन सबीना से फिर से विवाह के लिए उसे हलाला से हो कर गुजरना था. सबीना इस के लिए तैयार नहीं हुई. आमिर ने मौलवी से फिर निकाह के विकल्प पूछे जिस से सबीना राजी हो सके. मौलवी ने कहा कि 3 लाख रुपए खर्च करने होंगे. निकाह का मात्र दिखावा होगा. तुम्हारी पत्नी को उस का शौहर हाथ भी नहीं लगाएगा. कुछ समय बाद तलाक दे देगा.

‘ऐसा संभव है,’ आमिर ने पूछा.

‘पैसा हो तो कुछ भी असंभव नहीं,’ मौलाना ने कहा.

‘कुछ लोग करते हैं यह बिजनैस अपनी गरीबी के कारण. लेकिन यह बात राज ही रहनी चाहिए.’

‘मैं तैयार हूं,’ आमिर ने कहा और सबीना को सारी बात समझई. सबीना न चाहते हुए भी तैयार हो गई. सबीना को अपनी इच्छा के विरुद्ध निकाह करना पड़ा. कुछ समय गुजारना पड़ा पत्नी बन कर एक अधेड़ व्यक्ति के साथ. फिर तलाक ले कर सबीना से आमिर ने फिर निकाह कर लिया.

साथ साथ : उस दिन कौन सी अनहोनी हुई थी रुखसाना और रज्जाक के साथ ? – भाग 1

आपरेशन थियेटर के दरवाजे पर लालबत्ती अब भी जल रही थी और रुखसाना बेगम की नजर लगातार उस पर टिकी थी. पलकें मानो झपकना ही भूल गई थीं, लग रहा था जैसे उसी लालबत्ती की चमक पर उस की जिंदगी रुकी है.

रुखसाना की जिंदगी जिस धुरी के चारों तरफ घूमती थी वही रज्जाक मियां अंदर आपरेशन टेबल पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे. जिन बांहों का सहारा ले कर वह कश्मीर के एक छोटे से गांव से सुदूर कोलकाता आई थी उन्हीं बांहों पर 3-3 गोलियां लगी थीं. शायद उस बांह को काट कर शरीर से अलग करना पड़े, ऐसा ही कुछ डाक्टर साहब कह रहे थे उस के मकान मालिक गोविंदरामजी से. रुखसाना की तो जैसे उस वक्त सुनने की शक्ति भी कमजोर पड़ गई थी.

क्या सोच रहे होंगे गोविंदरामजी और उन की पत्नी शीला उस के और रज्जाक के बारे में? कुछ भी सोचें पर भला हो शीला बहन का जो उन्होंने उस के 1 साल के पुत्र रफीक को अपने पास घर में ही रख लिया, वरना वह क्या करती? यहां तो अपने ही खानेपीने की कोई सुध नहीं है.

रुखसाना ने मन ही मन ठान लिया कि अब जब घर लौटेगी तो गोविंद भाई साहब और शीला भाभी को अपने बारे में सबकुछ सचसच बता देगी. जिन से छिपाना था जब उन्हीं से नहीं छिपा तो अब किस का डर? और फिर गोविंद भाई और शीला भाभी ने उस के इस मुसीबत के समय जो उपकार किया, वह तो कोई अपना ही कर सकता है न. अपनों की बात आते ही रुखसाना की आंखों के आगे उस का अतीत घूम गया.

ऊंचेऊंचे बर्फ से ढके पहाड़, हरेभरे मैदान, बीचबीच में पहाड़ी झरने और उन के बीच अपनी सखियों और भाईबहनों के साथ हंसताखेलता रुखसाना का बचपन.

वह रहा सरहद के पास उस का बदनसीब गांव जहां के लोग नहीं जानते कि उन्हें किस बात की सजा मिल रही है. साल पर साल, कभी मजहब के नाम पर तो कभी धरती के नाम पर, कभी कोई वरदीधारी तो कभी कोई नकाबधारी यह कहता कि वतन के नाम पर वफा करो… धर्म के नाम पर वफा करो, बेवफाई की सजा मौत है.

रुखसाना को अब भी याद है कि दरवाजे पर दस्तक पड़ते ही अम्मीजान कैसे 3 बहनों को और जवान बेवा भाभी को अंदर खींच कर तहखाने में बिठा देती थीं और अब्बूजान सहमेसहमे दरवाजा खोलते.

इन्हीं भयावह हालात में जिंदगी अपनी रफ्तार से गुजर रही थी.

कहते हैं हंसतेखेलते बचपन के बाद जवानी आती ही आती है पर यहां तो जवानी मातम का पैगाम ले कर आई थी. अब्बू ने घर से मेरा निकलना ही बंद करवा दिया था. न सखियों से हंसना- बोलना, न खुली वादियों में घूमना. जब देखो इज्जत का डर. जवानी क्या आई जैसे कोई आफत आ गई.

उस रोज मझली को बुखार चढ़ आया था तो छोटी को साथ ले कर वह ही पानी भरने आई थी. बड़े दिनों के बाद घर से बाहर निकलने का उसे मौका मिला था. चेहरे से परदा उठा कर आंखें बंद किए वह पहाड़ी हवा का आनंद ले रही थी. छोटी थोड़ी दूरी पर एक बकरी के बच्चे से खेल रही थी.

सहसा किसी की गरम सांसों को उस ने अपने बहुत करीब अनुभव किया. फिर आंखें जो खुलीं तो खुली की खुली ही रह गईं. जवानी की दहलीज पर कदम रखने के बाद यह पहला मौका था जब किसी अजनबी पुरुष से इतना करीबी सामना हुआ था. इस से पहले उस ने जो भी अजनबी पुरुष देखे थे वे या तो वरदीधारी थे या नकाबधारी…रुखसाना को उन दोनों से ही डर लगता था.

लंबा कद, गठा हुआ बदन, तीखे नैननक्श, रूखे चेहरे पर कठोरता और कोमलता का अजीब सा मिश्रण. रुखसाना को लगा जैसे उस के दिल ने धड़कना ही बंद कर दिया हो. अपने मदहोशी के आलम में उसे इस बात का भी खयाल न रहा कि वह बेपरदा है.

तभी अजनबी युवक बोल उठा, ‘वाह, क्या खूब. समझ नहीं आता, इस हसीन वादी को देखूं या आप के हुस्न को. 3-4 रात की थकान तो चुटकी में दूर हो गई.’

शायराना अंदाज में कहे इन शब्दों के कानों में पड़ते ही रुखसाना जैसे होश में आ गई. लजा कर परदा गिरा लिया और उठ खड़ी हुई.

अजनबी युवक फिर बोला, ‘वैसे गुलाम को रज्जाक कहते हैं और आप?’

‘रुखसाना बेगम,’ कहते हुए उस ने घर का रुख किया. इस अजनबी से दूर जाना ही अच्छा है. कहीं उस ने उस के दिल की कमजोरी को समझ लिया तो बस, कयामत ही आ जाएगी.

‘कहीं आप अब्दुल मौला की बेटी रुखसाना तो नहीं?’

‘हां, आप ने सही पहचाना. पर आप को इतना कैसे मालूम?’

‘अरे, मुझे तो यह भी पता है कि आप के मकान में एक तहखाना है और फिलहाल मेरा डेरा भी वहीं है.’

अजनबी युवक का इतना कहना था कि रुखसाना का हाथ अपनेआप उस के सीने पर ठहर गया जैसे वह तेजी से बढ़ती धड़कनों को रोकने की कोशिश कर रही हो. दिल आया भी तो किस पत्थर दिल पर. वह जानती थी कि तहखानों में किन लोगों को रखा जाता है.

पिछली बार जब महजबीन से बात हुई थी तब वह भी कुछ ऐसा ही कह रही थी. उस का लोभीलालची अब्बा तो कभी अपना तहखाना खाली ही नहीं रखता. हमेशा 2-3 जेहादियों को भरे रखता है और महजबीन से जबरदस्ती उन लोगों की हर तरह की खिदमत करवाता है. बदले में उन से मोटी रकम ऐंठता है. एक बार जब महजबीन ने उन से हुक्मउदूली की थी तो उस के अब्बू के सामने ही जेहादियों ने उसे बेपरदा कर पीटा था और उस के अब्बू दूसरी तरफ मुंह घुमाए बैठे थे.

तब रुखसाना का चेहरा यह सुन कर गुस्से से तमतमा उठा था पर लाचार महजबीन ने तो हालात से समझौता कर लिया था. उस के अब्बू में तो यह अच्छाई है कि वह पैसे के लालची नहीं हैं और जब से उस के सीधेसादे बड़े भाई साहब को जेहादी उठा कर ले गए तब से तो अब्बा इन जेहादियों से कुछ कटेकटे ही रहते हैं. पर अब सुना है कि अब्बू के छोटे भाई साहब जेहादियों से जा मिले हैं. क्या पता यह उन की ही करतूत हो.

एक अनजानी दहशत से रुखसाना का दिल कांप उठा था. उसे अपनी बरबादी बहुत करीब नजर आ रही थी. भलाई इसी में है कि इस अजनबी को यहीं से चलता कर दे.

कुछ कहने के उद्देश्य से रुखसाना ने ज्यों ही पलट कर उस अजनबी को देखा तो उस के जवान खूबसूरत चेहरे की कशिश रुखसाना को कमजोर बना गई और होंठ अपनेआप सिल गए. रज्जाक अभी भी मुहब्बत भरी नजरों से उसी को निहार रहा था.

उस का वजूद : दीनू की धडकनें क्यों बेकाबू हो रही थी ?

“दीनू नहीं रहा,” मांबाप के ज़माने से पुश्तैनी घर में काम करने वाली शांति मासी ने खबर दी.

दीनू, दीनानाथ हांड़ी, उस का क्लासमेट. खबर सुन कर वह 3 दशक पीछे चला गया…

जैसे ही सिनेमाहौल के बाहर लगे हाउसफुल के बोर्ड पर नज़रें पड़ीं, सब के चेहरे बुझ गए. बुझेमन से सब वापस कार में जा बैठे. किशन कुमार अभी कार स्टार्ट करने ही वाला था कि कोई खिड़की के पास आ कर फुसफुसाया, ‘सा’ब, कहे को वापिस होना. अपने पास 8 टिकट हैं, 10 का 15 में दूंगा, बाल्कोनी का है. ले लो सा’ब.’

किशन कुमार सिर घुमा कर अभी कुछ कहता कि सामने वाला ब्लैकिया आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी से चिल्ला पड़ा, ‘अरे, तुम किसना है न? पहिचाना? मैं, दीनानाथ, तेरा दीनू हूं, बचपन का…’

‘शटअप, तमीज़ से बात करो. मैं किसी दीनूवीनू को नहीं जानता.’ और गाड़ी झटके से स्टार्ट हो गई. वह हक्काबक्का वहीँ खड़ेखड़े पैट्रोल और धूल की दुर्गंध फेफड़े में निगलता रहा. ‘स्साला अब काहे को पहिचानेगा. बड़का आदमी जो बन गया है,’ वह फुसफुसाया.

सारी रात किशन कुमार सोने के प्रयास में करवटें बदलता रहा. जैसे ही आंखें बंद करता, दीनू का चेहरा सामने आ जाता, जिसे आज उस ने अपने बीवीबच्चों के सामने पहचानने से एकदम इनकार कर दिया था. वह कई साल और पीछे लौट गया…

कसबे का सरकारी स्कूल. पहली से 7वीं कक्षा तक दीनानाथ हांड़ी उस के साथ था. किशन कुमार शुक्ल के पिता नगरपालिका के एक किरानी और दीनू के मातापिता उसी नगरपालिका के स्वीपर थे. जातपांत और सामाजिक स्तर कभी उन की मित्रता में दीवार नहीं बन पाए थे. क्या घर, क्या बाहर, क्या स्कूल सब जगह दोनों गलबहियां डाले बेपरवाह घूमा करते थे. दीनू का परिवार आर्थिक दृष्टि से संपन्न था. मांबाप दोनों कमाने वाले. खाने वाला केवल एक बेटा. उस की जेब में हमेशा पांचदस रुपए के नोट फड़फड़ाते रहते. चाट, छोले, बादाम, सिनेमा आदि का खर्च दीनू की जेब के जिम्मे रहता था.

किशन को अपनी जेब के कोने में एकदो रुपए के सिक्के ही दुबके मिलते थे. दीनू द्वारा लाए गए हलवा, मिठाइयां, केक आदि पर किशन भी हक़ जमाता था. किशन को दीनू किसना कहा करता था. टिफ़िन के वक़्त स्कूल के किसी खाली कमरे में बैठ कर खुद कम खाना और किसना को जीभर खिलाना दीनू की आदत सी बन गई थी.

उस समय एकदो रुपए के सिक्के किसना के लिए बहुत बड़ी धनराशि हुआ करती थी. सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले उस के 5 भाईबहनों को एकदो रुपए के ही सिक्के मिला करते थे. अगर किसी माह उस के पापा को तनख्वाह न मिलती तो उन्हें ये सिक्के भी न मिल पाते. उस महीने पापा को परिवार के 7 प्राणियों के लिए राशनपानी का इंतजाम करना बेहद मुश्किल हो जाता. इस बीच परिवार का कोई सदस्य शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो गया तो उस के इलाज के मद में खर्च होने वाले पैसों का बंदोबस्त करना पापा के लिए टेढ़ी खीर बन जाती थी. मैडिकल स्टोर के उधार खाते में नाम दर्ज़ करवाने के अलावा कोई उपाय नहीं रहता था.

टिफिन के वक्त वह झिझकते हुए अकसर जेब में दुबके पड़े 2 रुपए का सिक्का निकाल कर दीनू को थमाना चाहता. दीनू के खर्च में शामिल होने की उस की भी इच्छा होती. लेकिन दीनू उस के कंधों पर हाथ रख कर विनम्रता से मना कर देता, ‘इन्हें जमा कर के रख. कभी अगर कड़की आ गई तो मैं तुम से बोलूंगा.’ लेकिन कड़की उस के पास कभी फटकी ही नहीं.

किशन कुमार को मिलने वाले एकदो के सिक्के जब बीसपचास के नोट में बदलने लगते तो कोईनकोई आफ़त उस पर आन पड़ती. कभी पैंसिल खो जाती, कभी क़लम तो कभी ज्योमिट्री बौक्स. उन्हें दोबारा खरीदने के लिए पापा से पैसे मांगने का मतलब एक और बड़ी ‘आफ़त’ को निमंत्रण देना. ऐसे मामलो में पापा का रौद्र रूप की कल्पना कर ही वह कांप जाता. एक बार जब उस की जेब के सिक्के दस-दस के 5 नोट के रूप में उछलकूद मचाने लगे तो उस ने दीनू से जोर दे कर कहा, ‘अगले सप्ताह के टिफिन का सारा खर्च मेरा रहेगा.’ लेकिन अफ़सोस, यह हो नहीं सका.

उस दिन स्कूल से लौटते वक्त गली में फुटबौल खेलते हमउम्र बच्चों को देखने के लिए रुका था. अचानक एक बच्चे की किक से बौल उस की तरफ आ गई. बौल को वापस बच्चों के पास भेजने के लिए उस ने एक ज़ोरदार किक मारी. अरे, यह क्या हो गया, बौल के साथ उस के जूते का तल्ला भी हवा में लहराने लगा. लो, एक और नई आफ़त. बड़े प्यार से सहेजे गए दसदस के 5 नोट में से 4 नोट छिटक कर रवि काका के पास चले गए. जूते का नया तल्ला खरीदने और मरम्मती में पूरे 40 रुपए खर्च हो गए.

पता नहीं फिर क्या हुआ कि अचानक दीनू का स्कूल आना बंद हो गया. दीनू का पता लगाने के लिए वह उस कालोनी में गया जहां दीनू रहता था. उस के पड़ोसियों ने उसे इस ख़बर से वाकिफ़ कराया कि किन्हीं पारिवारिक कारणों से उस के मातापिता ने नौकरी छोड़ दी है और खड़गपुर की किसी बस्ती में जा बसे हैं. वहीं दीनू का ननिहाल भी था.

इस बीच किशन कुमार की पढ़ाई उसी सरकारी स्कूल में ही जारी रही. चूंकि वह अपने भाईबहनों की तुलना में सब से ज़्यादा कुशाग्र बुद्धि पाई थी, इसलिए पढ़ाईलिखाई के मामले में उस ने कोई शिकायत का मौका नहीं दिया. मातापिता पूर्ण संतुष्ट थे. कक्षा में अव्वल रहने का सिलसिला 10वीं तक जारी रहा. आगे की पढ़ाई के लिए उसे निकटवर्ती शहर दुर्गापुर भेज दिया गया. वहीं उस ने स्नातक की डिग्री हासिल की. रोजगार की तलाश की शुरुआती कोशिश में ही उसे कामयाबी मिल गई. इंडियन रेलवे सर्विस में उस का चयन हो गया. द्वितीय श्रेणी के अधिकारी की 3 वर्षीय ट्रेनिंग के बाद दक्षिणपूर्व रेलवे के खड़गपुर डिविजन में वाणिज्य प्रबंधक के रूप में उस की पोस्टिंग हो गई.

आज एक मुद्दत के बाद दीनू मिला भी तो उस के सामाजिक स्तर ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया. गाली भी दे डाली. दीनू के प्रति उस की बदसुलूकी ने उसे बेहद उद्विग्न कर डाला. उसे लगा कि उस के स्तर ने उसे मिली ऊंची तालीम का मज़ाक उड़ाया है. ऊंची तालीम ने तो यह नहीं सिखाया कि उंचाईयों पर पहुंच कर अपनी ज़मीन को भूल जाओ. लेकिन वह ज़मीन को भूल गया और इस धारणा को और भी पुख्ता कर डाला कि मित्रता समान स्तर के ही बीच होती है. लेकिन नहीं, वह इस धारणा को तोड़ेगा. दीनू को शिद्दत से एहसास दिलाएगा कि वह उसे भूला नहीं है. बचपन में उस के संग गुज़ारे एकएक पल अभी भी उस के ज़ेहन में बदस्तूर जिंदा हैं. वह एहसानफरामोश नहीं है. उस के हरेक एहसान को वह अपने सीने में संजोए रखे है.

उस की उद्विग्नता में थोड़ी सी नरमी आई इस फैसले से. उस ने निश्चय कर लिया कि वह दीनू से मिलेगा, ज़रूर मिलेगा, एक अफ़सर की तरह नहीं बल्कि किसना की तरह, बचपन के दोस्त की तरह. उस से माफ़ी मांगेगा उस बदसुलूकी के लिए. वह जानता है, दीनू का दिल बहुत बड़ा है. उस की गुस्ताख़ी को वह नज़रअंदाज़ कर देगा, जैसे बचपन में उस की कई गुस्ताखियों को हंस कर माफ़ कर देता था. उसे पूरी उम्मीद है अपने सामने उसे देखते ही मोम की मानिंद पिघल जाएगा. उसे गले लगाएगा. बचपन की दोस्ती फिर से जिंदा करेगा.

दूसरे दिन वह अपनी गाड़ी ले कर सिनेमाहौल पहुंचा. इधरउधर नज़रें दौडाईं. दीनू नज़र नहीं आया. एक ब्लैकिए से पता पूछा. पता मिल गया, और वह जा पहुंचा उस बस्ती में जहां दीनू रहता था. बस्ती में चमचमाती गाड़ी घुसते ही हलचल मच गई. बस्ती के लोग अपनेअपने झोंपड़ीनुमा घरों से बाहर निकल आए. कई तरह के सवाल, जिज्ञासाएं, आशंकाएं छिपकली की कटी दुम की तरह इधरउधर छटपटाने लगीं.

आननफानन चर्चाओं का बाज़ार गरम हो गया. जैसे ही वह कार से उतरा, हरिया भौचक रह गया, ‘अरे ये तो हमरे डिपाट के बड़े सा’ब हैं,

लेकिन हमारी बस्ती में इन का का काम?’ हरिया रेल का सफाईकर्मी था. इस नाते जबतब बड़े सा’ब से उस का वास्ता पड़ता रहता था. तत्काल बड़े सा’ब के पास पहुंच कर हरिया ने सलाम ठोंका, “सर, मैं हरिया, स्टेशन का सफाईवाला. आप यहां?”

किशन कुमार ने उसे न पहचानते हुए भी पहचानने का नाटक किया, “अरे हां, हरिया, यह बताओ दीनू हांड़ी यहां कहां रहता है. मुझे उस से मिलना है.”

“सर, उसी के द्वार पर तो आप खड़े हैं.”

किशन कुमार की गाड़ी के आसपास बस्ती के बाशिंदों की तादाद धीरेधीरे बढ़ गई थी. हलकी दबी फुसफुसाहटें माहौल को रहस्मयी बना रही थीं. दीनू घर के ही अंदर था. हलका दबा शोर जब उस के कानों में पड़ा तो मामले को जानने के लिए दरवाजा खोल कर बाहर आ गया.

दीनू को देखते ही किशन कुमार उस के सामने जा खड़ा हुआ. बांहें फैला कर भीतर के उफान को तोड़ा, “दीनू, मेरे दीनू. मैं किसना ही हूं, तेरे बचपन का यार.”

दीनू अपने सामने बचपन के यार को देख कर एकबारगी अचकचा गया. उस के लिए यह अप्रत्याशित था. उसे इस की कतई उम्मीद नहीं थी कि किसना उस से मिलने उस की बस्ती पहुंच जाएगा.

“अरे यार, ऐसे भकुआ कर देखता क्या है? आ जा, गले लग जा. देख, तुझ से मिलने को मैं खुद पहुंच गया.”

दीनू के भीतर का बांध टूटने वाला था. अपने यार की मौजूदगी की तपिश से यादों के बर्फ़ कईकई टुकड़ों में बंट कर पिघलने वाले थे. उस की धडकनें बेकाबू हो रही थीं. सांसें भी तेज हो कर उस के नियंत्रण से बाहर हो रही थीं. उस का जी चाहा कि बांहों में जकड़ ले अपने किसना को. वह आगे बढ़ने ही वाला था. आगे बढ़ कर अपने यार को सीने से भींचने ही वाला था. उस के कदम बढ़ते कि भीतर से किसी ने बुरी तरह झिंझोड़ा. झिंझोड़ कर उस की नज़रों के करीब सिनेमाहौल में लगे होर्डिंग की तरह उसे बेइज़्ज़्त किया जाने वाला मंजर ला खड़ा कर दिया. उसे पहचानने से इनकार कर दिया जाने वाला दृश्य उस के सीने में कांटों की तरह चुभने लगा. ज़ज्बात की उफनती नदी में किसी ने एक बड़ा सा पत्थर फेंका, ‘खबरदार, आगे मत बढ़. तेरा भी अपना एक वजूद है.’

उस ने स्वयं को संयत किया. बढ़ते कदम रुक गए. चेहरे को भावहीन बना कर कहा, “नहीं, सा’ब, हम दीनू नहीं. आप गलत ठिकाने पर आ गए हैं” और वह झटके से झोंपड़ी में समा गया .

किशन को लगा, बचपन के यार ने ऊंचाइयां छूते उस के वजूद और उसे मिली ऊंची तालीम के दमकते मुखड़े पर ढेर सारा थूक उगल दिया.

अब आज उस के इस दुनिया से हमेशा के लिए चले जाने की खबर ने उसे घोर चिंता में डाल दिया.

Valentine’s Day 2024 : दो कदम तन्हा – अंजलि ने क्यों किया डा. दास का विश्वास ?

‘‘दास.’’ अपने नाम का उच्चारण सुन कर डा. रविरंजन दास ठिठक कर खड़े हो गए. ऐसा लगा मानो पूरा शरीर झनझना उठा हो. उन के शरीर के रोएं खड़े हो गए. मस्तिष्क में किसी अदृश्य वीणा के तार बज उठे. लंबीलंबी सांसें ले कर डा. दास ने अपने को संयत किया. वर्षों बाद अचानक यह आवाज? लगा जैसे यह आवाज उन के पीछे से नहीं, उन के मस्तिष्क के अंदर से आई थी. वह वैसे ही खड़े रहे, बिना आवाज की दिशा में मुड़े. शंका और संशय में कि दोबारा पीछे से वही संगीत लहरी आई, ‘‘डा. दास.’’

वह धीरेधीरे मुड़े और चित्रलिखित से केवल देखते रहे. वही तो है, अंजलि राय. वही रूप और लावण्य, वही बड़ी- बड़ी आंखें और उन के ऊपर लगभग पारदर्शी पलकों की लंबी बरौनियां, मानो ऊषा गहरी काली परतों से झांक रही हो. वही पतली लंबी गरदन, वही लंबी पतली देहयष्टि. वही हंसी जिस से कोई भी मौसम सावन बन जाता है…कुछ बुलाती, कुछ चिढ़ाती, कुछ जगाती.

थोड़ा सा वजन बढ़ गया है किंतु वही निश्छल व्यक्तित्व, वही सम्मोहन.  डा. दास प्रयास के बाद भी कुछ बोल न सके, बस देखते रहे. लगा मानो बिजली की चमक उन्हें चकाचौंध कर गई. मन के अंदर गहरी तहों से भावनाओं और यादों का वेग सा उठा. उन का गला रुंध सा गया और बदन में हलकी सी कंपन होने लगी. वह पास आई. आंखों में थोड़ा आश्चर्य का भाव उभरा, ‘‘पहचाना नहीं क्या?’’

‘कैसे नहीं पहचानूंगा. 15 वर्षों में जिस चेहरे को एक पल भी नहीं भूल पाया,’ उन्होंने सोचा.

‘‘मैं, अंजलि.’’

डा. दास थोड़ा चेतन हुए. उन्होंने अपने सिर को झटका दिया. पूरी इच्छा- शक्ति से अपने को संयत किया फिर बोले, ‘‘तुम?’’

‘‘हां, मैं. गनीमत है पहचान तो लिया,’’ वह खिलखिला उठी और

डा. दास को लगा मानो स्वच्छ जलप्रपात बह निकला हो.

‘‘मैं और तुम्हें पहचानूंगा कैसे नहीं? मैं ने तो तुम्हें दूर से पीछे से ही पहचान लिया था.’’

मैदान में भीड़ थी. डा. दास धीरेधीरे फेंस की ओर खिसकने लगे. यहां कालिज के स्टूडेंट्स और डाक्टरों के बीच उन्हें संकोच होने लगा कि जाने कब कौन आ जाए.

‘‘बड़ी भीड़ है,’’ अंजलि ने चारों ओर देखा.

‘‘हां, इस समय तो यहां भीड़ रहती ही है.’’

शाम के 4 बजे थे. फरवरी का अंतिम सप्ताह था. पटना मेडिकल कालिज के मैदान में स्वास्थ्य मेला लगा था. हर साल यह मेला इसी तारीख को लगता है, कालिज फाउंडेशन डे के अवसर पर…एक हफ्ता चलता है. पूरे मैदान में तरहतरह के स्टाल लगे रहते हैं. स्वास्थ्य संबंधी प्रदर्शनी लगी रहती है. स्टूडेंट्स अपना- अपना स्टाल लगाते हैं, संभालते हैं. तरहतरह के पोस्टर, स्वास्थ्य संबंधी जानकारियां और मरीजों का फ्री चेकअप, सलाह…बड़ी गहमागहमी रहती है.

शाम को 7 बजे के बाद मनोरंजन कार्यक्रम होता है. गानाबजाना, कवि- सम्मेलन, मुशायरा आदि. कालिज के सभी डाक्टर और विद्यार्थी आते हैं. हर विभाग का स्टाल उस विभाग के एक वरीय शिक्षक की देखरेख में लगता है. डा. दास मेडिसिन विभाग में लेक्चरर हैं. इस वर्ष अपने विभाग के स्टाल के वह इंचार्ज हैं. कल प्रदर्शनी का आखिरी दिन है.

‘‘और, कैसे हो?’’

डा. दास चौंके, ‘‘ठीक हूं…तुम?’’

‘‘ठीक ही हूं,’’ और अंजलि ने अपने बगल में खड़े उत्सुकता से इधरउधर देखते 10 वर्ष के बालक की ओर इशारा किया, ‘‘मेरा बेटा है,’’ मानो अपने ठीक होने का सुबूत दे रही हो, ‘‘नमस्ते करो अंकल को.’’

बालक ने अन्यमनस्क भाव से हाथ जोड़े. डा. दास ने उसे गौर से देखा फिर आगे बढ़ कर उस के माथे के मुलायम बालों को हलके से सहलाया फिर जल्दी से हाथ वापस खींच लिया. उन्हें कुछ अतिक्रमण जैसा लगा.

‘‘कितनी उम्र है?’’

‘‘यह 10 साल का है,’’ क्षणिक विराम, ‘‘एक बेटी भी है…12 साल की, उस की परीक्षा नजदीक है इसलिए नहीं लाई,’’ मानो अंजलि किसी गलती का स्पष्टीकरण दे रही हो. फिर अंजलि ने बालक की ओर देखा, ‘‘वैसे परीक्षा तो इस की भी होने वाली है लेकिन जबरदस्ती चला आया. बड़ा जिद्दी है, पढ़ता कम है, खेलता ज्यादा है.’’

बेटे को शायद यह टिप्पणी नागवार लगी. अंगरेजी में बोला, ‘‘मैं कभी फेल नहीं होता. हमेशा फर्स्ट डिवीजन में पास होता हूं.’’

डा. दास हलके से मुसकराए, ‘‘मैं तो एक बार एम.आर.सी.पी. में फेल हो गया था,’’ फिर वह चुप हो गए और इधरउधर देखने लगे.

कुछ लोग उन की ओर देख रहे थे.

‘‘तुम्हारे कितने बच्चे हैं?’’

डा. दास ने प्रश्न सुना लेकिन जवाब नहीं दिया. वह बगल में बाईं ओर मेडिसिन विभाग के भवन की ओर देखने लगे.

अंजलि ने थोड़ा आश्चर्य से देखा फिर पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं?’’

‘‘2 बच्चे हैं.’’

‘‘लड़के या लड़कियां?’’

‘‘लड़कियां.’’

‘‘कितनी उम्र है?’’

‘‘एक 10 साल की और एक 9 साल की.’’

‘‘और कैसे हो, दास?’’

‘‘मुझे दास…’’ अचानक डा. दास चुप हो गए. अंजलि मुसकराई. डा. दास को याद आ गया, वह अकसर अंजलि को कहा करते थे कि मुझे दास मत कहा करो. मेरा पूरा नाम रवि रंजन दास है. मुझे रवि कहो या रंजन. दास का मतलब स्लेव होता है.

अंजलि ऐसे ही चिढ़ाने वाली हंसी के साथ कहा करती थी, ‘नहीं, मैं हमेशा तुम्हें दास ही कहूंगी. तुम बूढ़े हो जाओगे तब भी. यू आर माई स्लेव एंड आई एम योर स्लेव…दासी. तुम मुझे दासी कह सकते हो.’

आज डा. दास कालिज के सब से पौपुलर टीचर हैं. उन की कालिज और अस्पताल में बहुत इज्जत है. लोग उन की ओर देख रहे हैं. उन्हें कुछ अजीब सा संकोच होने लगा. यहां यों खड़े रहना ठीक नहीं लगा. उन्होंने गला साफ कर के मानो किसी बंधन से छूटने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘बहुत भीड़ है. बहुत देर से खड़ा हूं. चलो, कैंटीन में बैठते हैं, चाय पीते हैं.’’

अंजलि तुरंत तैयार हो गई, ‘‘चलो.’’

बेटे को यह प्रस्ताव नहीं भाया. उसे भीड़, रोशनी और आवाजों के हुजूम में मजा आ रहा था, बोला, ‘‘ममी, यहीं घूमेंगे.’’

‘‘चाय पी कर तुरंत लौट आएंगे. चलो, गंगा नदी दिखाएंगे.’’

गेट से निकल कर तीनों उत्तर की ओर गंगा के किनारे बने मेडिकल कालिज की कैंटीन की ओर बढ़े. डा. दास जल्दीजल्दी कदम बढ़ा रहे थे फिर अंजलि को पीछे देख कर रुक जाते थे. कैंटीन में भीड़ नहीं थी, ज्यादातर लोग प्रदर्शनी में थे. दोनों कैंटीन के हाल के बगल वाले कमरे में बैठे.

कैंटीन के पीछे थोड़ी सी जगह है जहां कुरसियां रखी रहती हैं, उस के बाद रेलिंग है. बालक की उदासी दूर हो गई. वह दौड़ कर वहां गया और रेलिंग पकड़ कर गंगा के बहाव को देखने लगा.

डा. दास और अंजलि भी कुरसी मोड़ कर उधर ही देखने लगे. गरमी नहीं आई थी, मौसम सुहावना था. मोतियों का रंग ले कर सूर्य का मंद आलोक सरिता के शांत, गंभीर जल की धारा पर फैला था. कई नावें चल रही थीं. नाविक नदी के किनारे चलते हुए रस्सी से नाव खींच रहे थे. कई लोग किनारे नहा रहे थे.

मौसम ऐसा था जो मन को सुखद बीती हुई घडि़यों की ओर ले जा रहा था. वेटर चाय का आर्डर ले गया. दोनों नदी की ओर देखते रहे.

‘‘याद है? हम लोग बोटिंग करते हुए कितनी दूर निकल जाते थे?’’

‘‘हां,’’ डा. दास तो कभी भूले ही नहीं थे. शाम साढ़े 4 बजे क्लास खत्म होने के बाद अंजलि यहां आ जाती थी और दोनों मेडिकल कालिज के घाट से बोटिंग क्लब की नाव ले कर निकल जाते थे नदी के बीच में. फिर पश्चिम की ओर नाव खेते लहरों के विरुद्ध महेंद्रू घाट, मगध महिला कालिज तक.

सूरज जब डूबने को होता और अंजलि याद दिलाती कि अंधेरा हो जाएगा, घर पहुंचना है तो नाव घुमा कर नदी की धारा के साथ छोड़ देते. नाव वेग से लहरों पर थिरकती हुई चंद मिनटों में मेडिकल कालिज के घाट तक पहुंच जाती.

डूबती किरणों की स्वर्णिम आभा में अंजलि का पूरा बदन कंचन सा हो जाता. वह अपनी बड़ीबड़ी आंखें बंद किए नाव में लेटी रहती. लहरों के हलके छींटे बदन पर पड़ते रहते और डा. दास सबकुछ भूल कर उसी को देखते रहते. कभी नाव बहती हुई मेडिकल कालिज घाट से आगे निकल जाती तो अंजलि चौंक कर उठ बैठती, ‘अरे, मोड़ो, आगे निकल गए.’

डा. दास चौंक कर चेतन होते हुए नाव मोड़ कर मेडिकल कालिज घाट पर लाते. कभी वह आगे जा कर पटना कालिज घाट पर ही अनिच्छा से अंजलि को उतार देते. उन्हें अच्छा लगता था मेडिकल कालिज से अंजलि के साथ उस के घर के नजदीक जा कर छोड़ने में, जितनी देर तक हो सके साथ चलें, साथ रहें. वेटर 2 कप चाय दे गया. अंजलि ने बेटे को पुकार कर पूछा, ‘‘क्या खाओगे? बे्रडआमलेट खाओगे. यहां बहुत अच्छा बनता है.’’

बालक ने नकरात्मक भाव से सिर हिलाया तो डा. दास ने पूछा, ‘‘लस्सी पीओगे?’’

‘‘नो…नथिंग,’’ बालक को नदी का दृश्य अधिक आकर्षित कर रहा था.

चाय पी कर डा. दास ने सिगरेट का पैकेट निकाला.

अंजलि ने पूछा, ‘‘सिगरेट कब से पीने लगे?’’

डा. दास ने चौंक कर अपनी उंगलियों में दबी सिगरेट की ओर देखा, मानो याद नहीं, फिर उन्होंने कहा, ‘‘इंगलैंड से लौटने के बाद.’’

अंजलि के चेहरे पर उदासी का एक साया आ कर निकल गया. उस ने निगाहें नीची कर लीं. इंगलैंड से आने के बाद तो बहुत कुछ खो गया, बहुत सी नई आदतें लग गईं.

अंजलि मुसकराई तो चेहरे पर स्वच्छ प्रकाश फैल गया. किंतु डा. दास के मन का अंधकार अतीत की गहरी परतों में छिपा था. खामोशी बोझिल हो गई तो उन्होंने पूछा, ‘‘मृणालिनी कहां है?’’

‘‘इंगलैंड में. वह तो वहीं लीवरपूल में बस गई है. अब इंडिया वापस नहीं लौटेगी. उस के पति भी डाक्टर हैं. कभीकभी 2-3 साल में कुछ दिन के लिए आती है.’’

‘‘तभी तो…’’

‘‘क्या?’’

‘‘कुछ भी नहीं, ब्रिलियंट स्टूडेंट थी. अच्छा ही हुआ.’’

मृणालिनी अंजलि की चचेरी बहन थी. उम्र में उस से बड़ी. डा. दास से वह मेडिकल कालिज में 2 साल जूनियर थी.

डा. दास फाइनल इयर में थे तो वह थर्ड इयर में थी. अंजलि उस समय बी.ए. इंगलिश आनर्स में थी.

अंजलि अकसर मृणालिनी से मिलने महिला होस्टल में आती थी और उस से मिल कर वह डा. दास के साथ घूमने निकल जाती थी. कभी कैंटीन में चाय पीने, कभी घाट पर सीढि़यों पर बैठ कर बातें करने, कभी बोटिंग करने.

डा. दास की पहली मुलाकात अंजलि से सरस्वती पूजा के फंक्शन में ही हुई थी. वह मृणालिनी के साथ आई थी. डा. दास गंभीर छात्र थे. उन्हें किसी भी लड़की ने अपनी ओर आकर्षित नहीं किया था, लेकिन अंजलि से मिल कर उन्हें लगा था मानो सघन हरियाली के बीच ढेर सारे फूल खिल उठे हैं और उपवन में हिरनी अपनी निर्दोष आंखों से देख रही हो, जिसे देख कर आदमी सम्मोहित सा हो जाता है.

फिर दूसरी मुलाकात बैडमिंटन प्रतियोगिता के दौरान हुई और बातों की शुरुआत से मुलाकातों का सिलसिला शुरू हुआ. वह अकसर शाम को पटना कालिज में टेनिस खेलने जाते थे. वहां मित्रों के साथ कैंटीन में बैठ कर चाय पीते थे. वहां कभीकभी अंजलि से मुलाकात हो जाती थी. जाड़ों की दोपहर में जब क्रिकेट मैच होता तो दोनों मैदान के एक कोने में पेड़ के नीचे बैठ कर बातें करते.

मृणालिनी ने दोनों की नजदीकियों को देखा था. उसे कोई आपत्ति नहीं थी. डा. दास अपनी क्लास के टापर थे, आकर्षक व्यक्तित्व था और चरित्रवान थे.

बालक के लिए अब गंगा नदी का आकर्षण समाप्त हो गया था. उसे बाजार और शादी में आए रिश्तेदारों का आकर्षण खींच रहा था. उस ने अंजलि के पास आ कर कहा, ‘‘चलो, ममी.’’

‘‘चलती हूं, बेटा,’’ अंजलि ने डा. दास की ओर देखा, ‘‘चश्मा लगाना कब से शुरू किया?’’

‘‘वही इंगलैंड से लौटने के बाद. वापस आने के कुछ महीने बाद अचानक आंखें कमजोर हो गईं तो चश्मे की जरूरत पड़ गई,’’ डा. दास गंगा की लहरों की ओर देखने लगे.

अंजलि ने अपनी दोनों आंखों को हथेलियों से मला, मानो उस की आंखें भी कमजोर हो गई हैं और स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा है.

‘‘शादी कब की? वाइफ क्या करती है?’’

डा. दास ने अंजलि की ओर देखा, कुछ जवाब नहीं दिया, उठ कर बोले, ‘‘चलो.’’

मैदान की बगल वाली सड़क पर चलते हुए गेट के पास आ कर दोनों ठिठक कर रुक गए. दोनों ने एकदूसरे की ओर देखा, अंदर से एकसाथ आवाज आई, याद है?

मैदान के अंदर लाउडस्पीकर से गाने की आवाज आ रही थी. गालिब की गजल और तलत महमूद की आवाज थी :

‘‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक…’’

तलत महमूद पटना आए थे.

डा. घोषाल ने रवींद्र भवन में प्रोग्राम करवाया था. उस समय रवींद्र भवन पूरा नहीं बना था. उसी को पूरा करने के लिए फंड एकत्र करने के लिए चैरिटी शो करवाया गया था. बड़ी भीड़ थी. ज्यादातर लोग खड़े हो कर सुन रहे थे. तलत ने गजलों का ऐसा समा बांधा था कि समय का पता ही नहीं चला.

डा. दास और अंजलि को भी वक्त का पता नहीं चला. रात काफी बीत गई. दोनों रिकशा पकड़ कर घबराए हुए वापस लौटे थे. डा. दास अंजलि को उस के आवास तक छोड़ने गए थे. अंजलि के मातापिता बाहर गेट के पास चिंतित हो कर इंतजार कर रहे थे. डा. दास ने देर होने के कारण माफी मांगी थी. लेकिन उस रात को पहली बार अंजलि को देर से आने के लिए डांट सुननी पड़ी थी और उस के मांबाप को यह भी पता लग गया कि वह डा. दास के साथ अकेली गई थी. मृणालिनी या उस की सहेलियां साथ में नहीं थीं.

हालांकि दूसरे दिन मृणालिनी ने उन्हें समझाया था और डा. दास के चरित्र की गवाही दी थी तब जा कर अंजलि के मांबाप का गुस्सा थोड़ा कम हुआ था किंतु अनुशासन का बंधन थोड़ा कड़ा हो गया था. मृणालिनी ने यह भी कहा था कि डा. दास से अच्छा लड़का आप लोगों को कहीं नहीं मिलेगा. जाति एक नहीं है तो क्या हुआ, अंजलि के लिए उपयुक्त मैच है. लेकिन आजाद खयाल वाले अभिभावकों ने सख्ती कम नहीं की.

बालक ने अंजलि का हाथ पकड़ कर जल्दी चलने का आग्रह किया तो उस ने डा. दास से कहा, ‘‘ठीक है, चलती हूं, फिर आऊंगी. कल तो नहीं आ सकती, शादी है, परसों आऊंगी.’’

‘‘परसों रविवार है.’’

‘‘ठीक तो है, घर पर आ जाऊंगी. दोपहर का खाना तुम्हारे साथ खाऊंगी. बहुत बातें करनी हैं. अकेली आऊंगी,’’ उस ने बेटे की ओर इशारा किया, ‘‘यह तो बोर हो जाएगा. वैसे भी वहां बच्चों में इस का खूब मन लगता है. पूरी छुट्टी है, डांटने के लिए कोई नहीं है.’’

डा. दास ने केवल सिर हिलाया. अंजलि कुछ आगे बढ़ कर रुक गई और तेजी से वापस आई. डा. दास वहीं खड़े थे. अंजलि ने कहा, ‘‘कहां रहते हो? तुम्हारे घर का पता पूछना तो भूल ही गई?’’

‘‘ओ, हां, राजेंद्र नगर में.’’

‘‘राजेंद्र नगर में कहां?’’

‘‘रोड नंबर 3, हाउस नंबर 7.’’

‘‘ओके, बाय.’’

अंजलि चली गई. डा. दास बुत बने बहुत देर तक उसे जाते देखते रहे. ऐसे ही एक दिन वह चली गई थी…बिना किसी आहट, बिना दस्तक दिए.

डा. दास गरीब परिवार से थे. इसलिए एम.बी.बी.एस. पास कर के हाउसजाब खत्म होते ही उन्हें तुरंत नौकरी की जरूरत थी. वह डा. दामोदर के अधीन काम कर रहे थे और टर्म समाप्त होने को था कि उसी समय उन के सीनियर की कोशिश से उन्हें इंगलैंड जाने का मौका मिला.

पटना कालिज के टेनिस लान की बगल में दोनों घास पर बैठे थे. डा. दास ने अंजलि को बताया कि अगले हफ्ते इंगलैंड जा रहा हूं. सभी कागजी काररवाई पूरी हो चुकी है. एम.आर.सी.पी. करते ही तुरंत वापस लौटेंगे. उम्मीद है वापस लौटने पर मेडिकल कालिज में नौकरी मिल जाएगी और नौकरी मिलते ही…’’

अंजलि ने केवल इतना ही कहा था कि जल्दी लौटना. डा. दास ने वादा किया था कि जिस दिन एम.आर.सी.पी. की डिगरी मिलेगी उस के दूसरे ही दिन जहाज पकड़ कर वापस लौटेंगे.

लेकिन इंगलैंड से लौटने में डा. दास को 1 साल लग गया. वहां उन्हें नौकरी करनी पड़ी. रहने, खाने और पढ़ने के लिए पैसे की जरूरत थी. फीस के लिए भी धन जमा करना था. नौकरी करते हुए उन्होंने परीक्षा दी और 1 वर्ष बाद एम.आर.सी.पी. कर के पटना लौटे.

होस्टल में दोस्त के यहां सामान रख कर वह सीधे अंजलि के घर पहुंचे. लेकिन घर में नए लोग थे. डा. दास दुविधा में गेट के बाहर खड़े रहे. उन्हें वहां का पुराना चौकीदार दिखाई दिया तो उन्होंने उसे बुला कर पूछा, ‘‘प्रोफेसर साहब कहां हैं?’’

चौकीदार डा. दास को पहचानता था, प्रोफेसर साहब का मतलब समझ गया और बोला, ‘‘अंजलि दीदी के पिताजी? वह तो चले गए?’’

‘‘कहां?’’

‘‘दिल्ली.’’

‘‘और अंजलि?’’

‘‘वह भी साथ चली गईं. वहीं पीएच.डी. करेंगी.’’

‘‘ओह,’’ डा. दास पत्थर की मूर्ति की भांति खड़े रहे. सबकुछ धुंधला सा नजर आ रहा था. कुछ देर बाद दृष्टि कुछ स्पष्ट हुई तो उन्होंने चौकीदार को अपनी ओर गौर से देखते पाया. वह झट से मुड़ कर वहां से जाने लगे.

चौकीदार ने पुकारा, ‘‘सुनिए.’’

डा. दास ठिठक कर खड़े हो गए तो उस ने पीछे से कहा, ‘‘अंजलि दीदी की शादी हो गई.’’

‘‘शादी?’’ कोई आवाज नहीं निकल पाई.

‘‘हां, 6 महीने हुए. अच्छा लड़का मिल गया. बहुत बड़ा अधिकारी है. यहां सब के नाम कार्ड आया था. शादी में बहुत लोग गए भी थे.’’

रविवार को 12 बजे अंजलि डा. दास के घर पहुंची. सामने छोटे से लान में हरी दूब पर 2 लड़कियां खेल रही थीं. बरामदे में एक बूढ़ी दाई बैठी थी. अंजलि ने दाई को पुकारा, ‘‘सुनो.’’

दाई गेट के पास आई तो अंजलि ने पूछा, ‘‘डाक्टर साहब से कहो अंजलि आई है.’’

दाई ने दिलचस्पी से अंजलि को देखा फिर गेट खोलते हुए बोली, ‘‘डाक्टर साहब घर पर नहीं हैं. कल रात को ही कोलकाता चले गए.’’

‘‘कल रात को?’’

‘‘हां, परीक्षा लेने. अचानक बुलावा आ गया. फिर वहां से पुरी जाएंगे…एक हफ्ते बाद लौटेंगे.’’

दाई बातूनी थी, शायद अकेले बोर हो जाती होगी. आग्रह से अंजलि को अंदर ले जा कर बरामदे में कुरसी पर बैठाया. जानना चाहती थी उस के बारे में कि यह कौन है?

अंजलि ने अपने हाथों में पकड़े गिफ्ट की ओर देखा फिर अंदर की ओर देखते हुए पूछा, ‘‘मेम साहब तो घर में हैं न?’’

‘‘मेम साहब, कौन मेम साहब?’’

‘‘डा. दास की पत्नी.’’

‘‘उन की शादी कहां हुई?’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां, मेम साहब, साहब ने आज तक शादी नहीं की.’’

‘‘शादी नहीं की?’’

‘‘नहीं, मेम साहब, हम पुरानी दाई हैं. शुरू से बहुत समझाया लेकिन कुछ नहीं बोलते हैं…कितने रिश्ते आए, एक से एक…’’

अंजलि ने कुछ नहीं कहा. आई तो सोच कर थी कि बहुत कुछ कहेगी, लेकिन केवल मूक बन दाई की बात सुन रही थी.

दाई ने उत्साहित हो कर कहा, ‘‘अब क्या कहें, मेम साहब, सब तो हम को संभालना पड़ता है. बूढे़ हो गए हम लोग, कब तक जिंदा रहेंगे. इन दोनों बच्चियों की भी परवरिश. अब क्या बोलें, दिन भर तो ठीक रहता है. सांझ को क्लिनिक में बैठते हैं,’’ उस ने परिसर में ही एक ओर इशारा किया फिर आवाज को धीमा कर के गोपनीयता के स्तर पर ले आई, ‘‘बाकी साढ़े 8 बजे क्लब जाते हैं तो 12 के पहले नहीं आते हैं…बहुत तेज गाड़ी चला कर…पूरे नशे में. हम रोज चिंता में डूबे 12 बजे रात तक रास्ता देखते रहते हैं. कहीं कुछ हो गया तो? बड़े डाक्टर हैं, अब हम गंवार क्या समझाएं.’’

अंजलि ने गहरी धुंध से निकल कर पूछा, ‘‘शराब पीते हैं?’’

‘‘दिन में नहीं, रात को क्लब में बहुत पीते हैं.’’

‘‘कब से शराब पीने लगे हैं?’’

‘‘वही इंगलैंड से वापस आने के कुछ दिन बाद से. हम तब से इन के यहां हैं.’’

इंगलैंड से लौटने के बाद. अंजलि ने हाथ में पकड़े गिफ्ट को दाई की ओर बढ़ाते हुए पूछा, ‘‘शादी नहीं हुई तो ये दोनों लड़कियां?’’

दाई ने दोनों लड़कियों की ओर देखा, फिर हंसी, ‘‘ये दोनों बच्चे तो अनाथ हैं, मेम साहब. डाक्टर साहब दोनों को बच्चा वार्ड से लाए हैं. वहां कभीकभार कोई औरत बच्चा पैदा कर के उस को छोड़ कर भाग जाती है. लावारिस बच्चा वहीं अस्पताल में ही पलता है. बहुत से लोग ऐसे बच्चों को गोद ले लेते हैं. अच्छेअच्छे परिवार के लोग.

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विलासिनी : क्या नीलिमा अपनी गृहस्थी में फिट हो पाई ?

जिंदगी में ऊंचाइयां हासिल करने के लिए महत्त्वाकांक्षी होना बहुत जरूरी है, लेकिन यही महत्त्वाकांक्षा यदि अति में बदल जाए तो फिर पतन का कारण भी बन जाती है. मजे की बात तो यह है कि बहुत से व्यक्ति इस अति की महीन रेखा को पहचान ही नहीं पाते.

नीलिमा भी कहां पहचान पाई थी इस विभाजन रेखा को. बचपन से ही आसमान में उड़ने के सपने देखने वाली नीलिमा ने कभी जमीन पर पांव रखने का सोचा भी नहीं था.

हालांकि उस के घरपरिवार में किसी तरह की कोई कमी नहीं थी. पिता सरकारी कर्मचारी और मां गृहिणी थी. एक बड़ा भाई और फिर नीलिमा… सब से छोटी होने के नाते स्वाभाविक रूप से अति नेह की अधिकारिणी थी. बरसात चाहे प्रेम की ही क्यों न हो, यदि टूट कर बरसे तो फिर छत हो या छाता… क्षतिग्रस्त कर ही देती है.

नीलिमा भी परिवार के प्रेम की धारा में बहती एक तरह से मनमौजी झरना हुई जा रही थी. चांद छूने को उतावली लड़की को साधारण वस्तुएं तो कभी रास ही नहीं आईं.

बचपन में जब पिता को अपने वरिष्ठ अधिकारी के सामने झुकते देखती तो अपनेआप को बड़ा अधिकारी बनते देखने की उस की लालसा और भी अधिक जोर मारने लगती थी. स्कूल पहुंची तो अन्य अध्यापकों के मुकाबले प्रधानाध्यापक का रुतबा उसे अधिक आकर्षित करता. इसी तरह की अनुभूति उसे कालेज में प्रिंसिपल और उस के बाद यूनिवर्सिटी में कुलपति को देख कर होती थी.

यही वे पल होते थे, जो उसे सपनों को हकीकत में बदलने के लिए उकसाते थे. यही वे लमहे होते थे, जो उस की महत्त्वाकांक्षाओं को पोषित करते थे. यही वो समय होता था, जो उसे अपने साधारण से व्यक्तित्व को असाधारण में परिवर्तित करने की तरफ धकेलता था.

नीलिमा जानती थी कि अधिक ऊंची उड़ान भरने के लिए पंखों को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है. वह भी कर रही थी. पढ़ाईलिखाई का लक्ष्य पूरा होने के बाद अब वह विभिन्न तरह की प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में जुट गई.

पिता अपनी सोच की सीमा के अनुरूप बेटी को राह दिखाने लगे, लेकिन नीलिमा को उन के सुझाए गए क्लर्क, अध्यापक और इसी तरह के तृतीय श्रेणी के जौब बिलकुल नहीं सुहाते थे. उस के सपनों में तो बड़ी सी सरकारी गाड़ी, आगेपीछे घूमते मातहत, सलाम ठोंकते अर्दली और चारों ओर हरेभरे लौन से घिरा, गेट पर दुनाली लिए खड़ा चैकीदार वाला बंगला दस्तक देते थे.

नीलिमा ने राजपत्रित अधिकारी की पोस्ट के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी शुरू कर दी, लेकिन जितना मीठा चाहिए, शक्कर भी उसी अनुपात में डालनी पड़ती है. एक तो उच्च स्तर पर पदों की सीमित संख्या, दूसरे प्रतिभागियों की बेपनाह भीड़, ऊपर से विभिन्न तरह के आरक्षण… हर बार नीलिमा की डोंगी तट पर लगतेलगते ही रह जाती. अपनी बचीखुची हिम्मत समेट कर नीलिमा फिर से डोंगी को संवारती, लेकिन अंततः उस का हश्र भी यही होता.

4 साल के कठिन प्रयासों के बाद भी जब नीलिमा को वांछित सफलता नहीं मिली, तो वह थकने लगी. हार कर उस ने शादी करने के पिता के प्रस्ताव के आगे हथियार डालना तय कर लिया. तभी अचानक एक विचार उस के दिमाग में कौंध गया.

‘‘मैं बड़ी अफसर नहीं बन सकी तो क्या हुआ? किसी बड़े अधिकारी की पत्नी भी तो बना जा सकता है. उस स्थिति में भी रोब में तो किसी तरह की कोई कमी नहीं आएगी. अलबत्ता, नौकरी वाले दिनभर के काम और माथापच्ची से जरूर नजात मिली रहेगी. अपनी तो बस ऐश ही ऐश होगी,‘‘ यह खयाल दिमाग में आते ही उस ने घर में ऐलान कर दिया कि वह शादी किसी बड़े अधिकारी से ही करेगी, चाहे लड़का तलाश करने में 2 के 4 साल लग जाएं.

बेटी की घोषणा सुन कर पिता ने अपनी हैसियत का अनुमान लगाया और मां ने अपनी तिजोरी और बैंक खाता खंगाला. भाई ने भी इकलौती बहन के लिए हर संभव मदद की पेशकश की, तो पिता को कुछ राहत मिली और इस तरह उन की तलाश विजय पर जा कर खत्म हुई. विद्युत विभाग में सहायक अभियंता विजय की हालांकि तनख्वाह तो अधिक नहीं थी, लेकिन जो सुविधाएं नीलिमा अपने लिए चाह रही थी, वे सब विजय को हासिल थीं. कुलमिला कर नीलिमा ने सीधेसाधे विजय को आसमान तक जाने वाली सीढ़ी के रूप में चुना.

विजय नीलिमा को पत्नी के रूप में पा कर बहुत खुश था. नीलिमा के पिता को भी अपनी खोज पर गर्व था. विजय की पोस्टिंग एक छोटे कसबे में थी. छोटी जगह होने की वजह से वहां विजय का अच्छाखासा रुतबा था. सड़क पर निकलता तो कई लोग नमस्कार करते थे. अनगिनत सलाम कबूल करती नीलिमा का माथा भी दर्प से 2 इंच अधिक तन जाता था.

कुछ दिन तो नीलिमा को पति के पद और पावर का नशा चढ़ा रहा, लेकिन जल्दी ही वह वहां की जीवनशैली से ऊब गई. न सिनेमा, न मौल… न दोस्त, न पार्टी… जिंदगी में कोई थ्रिल ही नहीं. उधर विजय भी अपने काम में बहुत बिजी रहता. ऐसे में नीलिमा का मन वहां से उखड़ने लगा. उस ने विजय से विभाग मुख्यालय में ट्रांसफर कराने की जिद की.

विजय ने बहुत समझाया कि जनता से जुड़े विभागों में ट्रांसफर इतना आसान नहीं होता, बहुत बड़ी सिफारिश लगवानी पड़ती है. तबादला होने के बाद भी वहां टिके रहने की कोई गारंटी नहीं होती. कोई आप से भी बड़ी सिफारिश ले आएगा, तो आप को उठ कर कहीं दूर फेंक दिया जाएगा, लेकिन नीलिमा कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी. जिद पर आई स्त्री कभी मानी है भला? आखिर पत्नी की जीत हुई और जोड़तोड़ के साथ कुछ चेक और कुछ जेक का जुगाड़ लगा कर विजय अपना ट्रांसफर कराने में सफल हो ही गया.

मुख्यालय तो अधिकारियों का अथाह सागर होता है. जहां विभाग का प्रबंधन निदेशक बैठता हो, वहां भला एक सहायक अभियंता की पूछ कितनी हो सकती है? छोटे शहर की तरह यहां तो सहायक अभियंता को कोई पहचानता तक नहीं. विजय से ऊंचे पद वाले अनेक अधिकारी होने के कारण न तो विजय को सरकारी गाड़ी मिली और न ही सरकारी आवास. लोगों से सीधे जुड़ाव न होने के कारण उपभोक्ता भी नमस्कार नहीं करते.

विजय को भले ही यहां का माहौल रास न आया हो, लेकिन नीलिमा यहां आ कर खुश थी. बहुत जल्दी उस ने अपने आसपास की महिलाओं से दोस्ती कर ली और मैट्रो लाइफ को ऐंजौय करने लगी. कभी किटी पार्टी, तो कभी पिकनिक… कभी फिल्म, तो कभी शौपिंग… नीलिमा पति की तनख्वाह मजे से उड़ा रही थी.

इधर जब सैलरी खर्च होने के बाद धीरेधीरे बैंक से बचत की रकम भी लगातार कम होने लगी, तो विजय ने उसे अपने खर्च सीमित करने की नसीहत दी. हाथ में तंगी आते ही नीलिमा को कसबे की जिंदगी याद आने लगी. वहां लोग इज्जत तो करते ही थे, विजय को अच्छीखासी ऊपरी कमाई भी हो जाती थी. लोग अपने खेतबड़ियों से कभी ताजा सब्जी, तो कभी फल आदि खुशीखुशी घर पहुंचा देते थे. यहां तो पाव धनिया भी खुद की जेब से खरीदना पड़ता है. नीलिमा परेशान रहने लगी.

उन्हीं दिनों आयशा उन की कालोनी में रहने आई. आयशा खुद एक सरकारी अधिकारी है और नीलिमा के घर के सामने वाला मकान उस ने किराए पर लिया है. विजय को औफिस के लिए विदा करती नीलिमा आयशा के घर के बाहर खड़ी लाल पट्टी लगी सरकारी गाड़ी को देख कर ठिठक जाती है. वह तब तक अपने घर के मुख्य दरवाजे पर खड़ी रहती है, जब तक कौटन की कलफ लगी साड़ी का पल्लू संभालती मोबाइल पर बात करती आयशा गाड़ी में बैठ नहीं जाती. ड्राइवर के हाथ में थमा उस का लंच बौक्स और पानी की बोतल नीलिमा को एक अलग ही तिलस्मी दुनिया में ले जाते हैं. नीलिमा की आंखें सम्मोहित सी गाड़ी का आंखों से ओझल होने तक उस का पीछा करती हैं.

इस महीने की किटी पार्टी शिवानी के घर थी. शिवानी सब को एक खास मेहमान से मिलाना चाह रही थी. उस मेहमान के रूप में आयशा को देख कर नीलिमा की बांछें खिल गईं. अपने बिजी समय में से कुछ मिनट निकाल कर आयशा ने उन का निमंत्रण स्वीकार किया था.

नीलिमा उस के व्यक्तित्व से तो पहले ही सम्मोहित थी, आज उस की व्यवहार कुशलता की भी कायल हो गई. अभी औपचारिक परिचय ही हुआ था कि जरूरी फोन आने पर फिर मिलने और आवश्यकता पड़ने पर मदद का आश्वासन देती आयशा चली गई. उस के जाते ही पार्टी में एक सन्नाटा सा पसर गया.

‘‘भई मजे हैं इन के भी. हमारे पिया घर नहीं, हमें किसी का डर नहीं,‘‘ मिसेज शर्मा ने चुप्पी तोड़ी, तो शिवानी हंस पड़ी.

‘‘मैं कुछ समझी नहीं. क्या इन के पति कहीं बाहर रहते हैं?‘‘ नीलिमा ने पूछा.

‘‘हां, बाहर ही समझो. घर से ही नहीं, जिंदगी से भी बाहर ही हैं,‘‘ कहती हुई मानसी ने व्यंग्य से होंठ तिरछे किए. नीलिमा अभी भी उन की बातचीत का सिरा नहीं पकड़ पाई थी. उस ने आंखों ही आंखों से अगला प्रश्न किया.

‘‘अरे, ये तलाकशुदा हैं. मेरे ये तो ये भी कह रहे थे कि मैडम को सरकारी कोटे में ये कुरसी मिली है. भई, ऐसी नौकरी मिल जाए तो तलाक भी बुरा नहीं है,‘‘ रीता के इतना कहते ही एक जोरदार ठहाका हाल में गूंज गया और पार्टी फिर से अपनी रंगत में आ गई.

घर लौटने के बाद भी नीलिमा के दिमाग में आयशा ही घूमती रही. वह रहरह कर अपने लिए भी वैसी ही जिंदगी की कल्पना करने लगी. लेकिन उस के लिए आयशा बनना इतना आसान नहीं था.

‘‘विजय तो मुझे बहुत चाहते हैं. किस आधार पर तलाक की मांग करूं? यों भी हमारे समाज में तलाक को अच्छा नहीं समझा जाता. मम्मीपापा भी मुझे ये कदम नहीं उठाने देंगे,‘‘ आजकल कुछ इसी तरह की उधेड़बुन में नीलिमा उलझी हुई थी. लेकिन इतना तो वह समझ ही गई थी कि तलाक के अतिरिक्त कोई दूसरी राह उसे कुरसी तक नहीं ले जा सकती.

उस की झुंझलाहट अब उस के व्यवहार में झलकने लगी थी. नीलिमा बातबात में पति को जलीकटी सुनाने लगी, तो विजय का गुस्सा भी फटने लगा. देखते ही देखते घर की शांति बीते दिनों की बात हो गई. अब न वहां खिलखिलाहटें थीं और न ही शरारतें… दोनों ही एकदूसरे को नीचा दिखाने का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने दे रहे थे. इसी की अगली कड़ी में एक दिन बात इतनी बिगड़ गई कि विजय का हाथ उठ गया. नीलिमा भी कहां कम थी. एक की उधारी दो से चुकाई. बढ़तेबढ़ते बात यहां तक आ पहुंची कि नीलिमा अपना सूटकेस उठा कर मायके आ गई.

ससुराल और मायका… दोनों पक्षों की तरफ से कुछ दिन समझाइश भी चली, लेकिन नीलिमा को तो कुछ समझना ही नहीं था.
एक दिन मम्मीपापा के लाख विरोध के बावजूद उस ने विजय को तलाक का लीगल नोटिस भिजवा दिया. 2 साल लगे और आपसी रजामंदी से आखिर नीलिमा को तलाक मिल गया. यह डिक्री उस के लिए जैसे आने वाले सुनहरे कल की चाबी थी.

नीलिमा कुछ दिन तो अनमनी सी रही. अपने अलगाव का मातम मनाने का दिखावा भी किया, लेकिन जल्दी ही वापस अपनी पुरानी दिनचर्या में लौट आई. उन्हीं दिनों राज्य प्रशासनिक सेवाओं की भरती निकली. नीलिमा ऐसे ही किसी अवसर की तलाश में थी. उस ने अप्लाई कर दिया.

नीलिमा अपने चयन को ले कर निश्चिंत थी. वह जानती थी कि विधवा, परित्यक्ता और तलाकशुदाओं को मिलने वाले सरकारी आरक्षण की सीढ़ी के सहारे जरा सी अतिरिक्त मेहनत उसे जिंदगी के उस मुकाम पर पहुंचा देगी, जिस के वह सपने देखती आई है. अपनी सफलता को सुनिश्चित करने के लिए उस ने एक कोचिंग संस्थान में भी प्रवेश ले लिया.

कई बार जब आत्मविश्वास आत्ममुग्धता में बदल जाता है, तो व्यक्ति को चारों खाने चित भी कर देता है. नीलिमा के साथ भी यही हुआ. कोटे की चाशनी में लिपटी प्रतियोगिता की पहली कड़वी खुराक जब उसे मिली, तो सफलता का जायका बेस्वाद हो गया. नीलिमा यह परीक्षा पास नहीं कर सकी. अगली भरती के लिए उसे 2 साल और इंतजार करना पड़ा.

इस बार वह थोड़ी संजीदा हुई, क्योंकि भाईभाभी के प्रेम में वह पहली सी गरमाहट अब नदारद थी. मां तो सदा उसे ही दोष देती रही थीं. इस बार प्रतियोगिता की प्रीपरीक्षा उस ने पास कर ली. मुख्य परीक्षा लगभग सालभर बाद आयोजित हुई. इस तरह की भरतियों में देरी होना स्वाभाविक सी बात होती है, क्योंकि भरती प्रक्रिया को कई चरणों से गुजरना होता है.

मुख्य परीक्षा प्राथमिक की तुलना में कहीं अधिक कठिन थी. मेहनत अधिक ही मांग रही थी. नीलिमा कर भी रही थी, लेकिन सभी प्रयासों के बावजूद वह इस बार मुख्य परीक्षा में पास नहीं हो सकी.

पहली बार उसे कुछ निराशा हुई. जहां से चली थी वहीं वापस आ गई. फिर से 2 साल का इंतजार और शून्य से शुरुआत… नीलिमा पर हताशा हावी होने लगी. इस बार किसी तरह प्राथमिक और मुख्य परीक्षा पास की, तो नीलिमा के सपनों की सूखी घास फिर से हरी होने लगी. इधर साक्षात्कार की तिथि घोषित हुई और उधर भरती से जुड़े दलाल दल सक्रिय हो गए. कुछ ने नीलिमा से भी संपर्क किया, लेकिन नीलिमा में अब आत्मविश्वास वापस जगह बना चुका था.

नीलिमा ने साक्षात्कार दिया और परिणाम की प्रतीक्षा करने लगी. इसी बीच किसी असंतुष्ट प्रतिभागी ने मुख्य परीक्षा के परिणामों पर न्यायालय में रिट लगा दी और स्थगन आदेश प्राप्त कर लिया. इस के साथ ही परीक्षा के नतीजों पर रोक लग गई.

सालभर तक सुनवाई चलती रही, आखिर किसी तरह नजीजे घोषित हुए. उत्साह से भरी नीलिमा ने परिणाम देखने के लिए आधिकारिक वैबसाइट खंगाली, लेकिन उसे अपना रोल नंबर कहीं भी नहीं दिखा. नीलिमा के होश उड़ गए. एक तरफ बढ़ती उम्र… सामाजिक प्रताड़ना… और घर वालों की व्यंग्यात्मक निगाहें, तो दूसरी तरफ इंचइंच दूर खिसकती कुरसी… नीलिमा की निराशा हताशा में होती हुई अब अवसाद में बदलने लगी थी.

‘‘उफ्फ, अब फिर वहीं से शुरुआत करनी पड़ेगी. मैं जिसे आसान सीढी समझ रही थी, उस पर हो कर मंजिल तक पहुंचने वालों की कतार भी कोई कम छोटी नहीं है. यहां भी बहुत प्रतिस्पर्धा है,‘‘ नीलिमा धीरेधीरे जिंदगी की सचाई से वाकिफ हो रही थी.

नीलिमा को विजय से अलग हुए लगभग 10 साल हो गए. इस बीच पिता भी ये दुनिया छोड़ कर अनंत यात्रा पर निकल गए. मां पूरी तरह से भाई पर आश्रित हो गईं. भाई घर का मुखिया भी बन गया था. भाभी भी यदाकदा सुनाते हुए नीलिमा को बोझ करार देने लगीं. नीलिमा की स्थिति त्रिशंकु सी होने लगी.

‘‘अब अधिक समय नहीं है. या तो अपने पैरों पर खड़ी हो जाओ या भाभी की गुलामी स्वीकार कर लो. पति के पास लौटने का रास्ता तो अब शायद ही खुले,‘‘ कुछ इसी तरह के विचार इन दिनों नीलिमा के मनमस्तिष्क में उमड़ने लगे थे.

अखबार में बैंक क्लर्क की भरती का विज्ञापन देखा तो बिना अधिक विचार किए नीलिमा ने फार्म भर दिया. कोचिंग की मदद भी ली और दिनरात मेहनत भी की. इस बार शायद समय उस के पक्ष में था, नीलिमा इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो गई. मां ने अपनी खुशी जाहिर की, वहीं भाभी ताना देने से बाज नर्हीं आइं.

“नौ दिन चले अढ़ाई कोस,” कह कर उस ने मुंह सिकोड़ दिया. नीलिमा भी अपनेआप को बेहद पराजित सी महसूस कर रही थी. उसे लग रहा था मानो किसी ने उस की थाली में बासी भोजन परोस दिया हो और भूख की अधिकता के कारण ये भोजन करना उस की मजबूरी बन गया हो.

कहते हैं कि नियति जब बदला लेने पर उतारू हो जाती है, तब व्यक्ति को हरेक कोण से आईना दिखाती है. अभी नीलिमा सामान्य हो भी नहीं पाई थी कि एक वज्रपात और हुआ. कल शाम जब भाई ने घर में घुसते ही उस की तरफ हिकारत से देखते हुए कहा, “विजय का प्रमोशन हो गया. इसी शहर में अधीक्षण अभियंता बन कर आया है. क्या ठाठ हैं बंदे के. विभाग की कालोनी में सब से शानदार बंगला उसी का है. रिश्ता बना रहता तो आज चार लोगों में अपनी भी इज्जत होती, लेकिन फूटी किस्मत का कोई क्या करे?”

मां – भाभी ने भी नीलिमा को कोसते हुए अपनी नाराजगी जाहिर की. नीलिमा अपनेआप को उस दोराहे पर खड़ा हुआ महसूस कर रही थी, जिस की हरीभरी पगडंडी को वह न केवल छोड़ आई थी, बल्कि उस तरफ लौटने की राह पर भी उस ने गहरी खाई खोद डाली थी. अब सिर्फ और सिर्फ कांटों वाले रास्ते पर चलना ही उस की नियति थी. कौन जाने इस सेहरा में आगे कोई फूल मिलेगा भी या नहीं.

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