“दीनू नहीं रहा,” मांबाप के ज़माने से पुश्तैनी घर में काम करने वाली शांति मासी ने खबर दी.

दीनू, दीनानाथ हांड़ी, उस का क्लासमेट. खबर सुन कर वह 3 दशक पीछे चला गया...

जैसे ही सिनेमाहौल के बाहर लगे हाउसफुल के बोर्ड पर नज़रें पड़ीं, सब के चेहरे बुझ गए. बुझेमन से सब वापस कार में जा बैठे. किशन कुमार अभी कार स्टार्ट करने ही वाला था कि कोई खिड़की के पास आ कर फुसफुसाया, ‘सा’ब, कहे को वापिस होना. अपने पास 8 टिकट हैं, 10 का 15 में दूंगा, बाल्कोनी का है. ले लो सा’ब.’

किशन कुमार सिर घुमा कर अभी कुछ कहता कि सामने वाला ब्लैकिया आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी से चिल्ला पड़ा, ‘अरे, तुम किसना है न? पहिचाना? मैं, दीनानाथ, तेरा दीनू हूं, बचपन का...’

‘शटअप, तमीज़ से बात करो. मैं किसी दीनूवीनू को नहीं जानता.’ और गाड़ी झटके से स्टार्ट हो गई. वह हक्काबक्का वहीँ खड़ेखड़े पैट्रोल और धूल की दुर्गंध फेफड़े में निगलता रहा. ‘स्साला अब काहे को पहिचानेगा. बड़का आदमी जो बन गया है,’ वह फुसफुसाया.

सारी रात किशन कुमार सोने के प्रयास में करवटें बदलता रहा. जैसे ही आंखें बंद करता, दीनू का चेहरा सामने आ जाता, जिसे आज उस ने अपने बीवीबच्चों के सामने पहचानने से एकदम इनकार कर दिया था. वह कई साल और पीछे लौट गया...

कसबे का सरकारी स्कूल. पहली से 7वीं कक्षा तक दीनानाथ हांड़ी उस के साथ था. किशन कुमार शुक्ल के पिता नगरपालिका के एक किरानी और दीनू के मातापिता उसी नगरपालिका के स्वीपर थे. जातपांत और सामाजिक स्तर कभी उन की मित्रता में दीवार नहीं बन पाए थे. क्या घर, क्या बाहर, क्या स्कूल सब जगह दोनों गलबहियां डाले बेपरवाह घूमा करते थे. दीनू का परिवार आर्थिक दृष्टि से संपन्न था. मांबाप दोनों कमाने वाले. खाने वाला केवल एक बेटा. उस की जेब में हमेशा पांचदस रुपए के नोट फड़फड़ाते रहते. चाट, छोले, बादाम, सिनेमा आदि का खर्च दीनू की जेब के जिम्मे रहता था.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...