जिंदगी में ऊंचाइयां हासिल करने के लिए महत्त्वाकांक्षी होना बहुत जरूरी है, लेकिन यही महत्त्वाकांक्षा यदि अति में बदल जाए तो फिर पतन का कारण भी बन जाती है. मजे की बात तो यह है कि बहुत से व्यक्ति इस अति की महीन रेखा को पहचान ही नहीं पाते.
नीलिमा भी कहां पहचान पाई थी इस विभाजन रेखा को. बचपन से ही आसमान में उड़ने के सपने देखने वाली नीलिमा ने कभी जमीन पर पांव रखने का सोचा भी नहीं था.
हालांकि उस के घरपरिवार में किसी तरह की कोई कमी नहीं थी. पिता सरकारी कर्मचारी और मां गृहिणी थी. एक बड़ा भाई और फिर नीलिमा… सब से छोटी होने के नाते स्वाभाविक रूप से अति नेह की अधिकारिणी थी. बरसात चाहे प्रेम की ही क्यों न हो, यदि टूट कर बरसे तो फिर छत हो या छाता… क्षतिग्रस्त कर ही देती है.
नीलिमा भी परिवार के प्रेम की धारा में बहती एक तरह से मनमौजी झरना हुई जा रही थी. चांद छूने को उतावली लड़की को साधारण वस्तुएं तो कभी रास ही नहीं आईं.
बचपन में जब पिता को अपने वरिष्ठ अधिकारी के सामने झुकते देखती तो अपनेआप को बड़ा अधिकारी बनते देखने की उस की लालसा और भी अधिक जोर मारने लगती थी. स्कूल पहुंची तो अन्य अध्यापकों के मुकाबले प्रधानाध्यापक का रुतबा उसे अधिक आकर्षित करता. इसी तरह की अनुभूति उसे कालेज में प्रिंसिपल और उस के बाद यूनिवर्सिटी में कुलपति को देख कर होती थी.
यही वे पल होते थे, जो उसे सपनों को हकीकत में बदलने के लिए उकसाते थे. यही वे लमहे होते थे, जो उस की महत्त्वाकांक्षाओं को पोषित करते थे. यही वो समय होता था, जो उसे अपने साधारण से व्यक्तित्व को असाधारण में परिवर्तित करने की तरफ धकेलता था.
नीलिमा जानती थी कि अधिक ऊंची उड़ान भरने के लिए पंखों को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है. वह भी कर रही थी. पढ़ाईलिखाई का लक्ष्य पूरा होने के बाद अब वह विभिन्न तरह की प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में जुट गई.
पिता अपनी सोच की सीमा के अनुरूप बेटी को राह दिखाने लगे, लेकिन नीलिमा को उन के सुझाए गए क्लर्क, अध्यापक और इसी तरह के तृतीय श्रेणी के जौब बिलकुल नहीं सुहाते थे. उस के सपनों में तो बड़ी सी सरकारी गाड़ी, आगेपीछे घूमते मातहत, सलाम ठोंकते अर्दली और चारों ओर हरेभरे लौन से घिरा, गेट पर दुनाली लिए खड़ा चैकीदार वाला बंगला दस्तक देते थे.
नीलिमा ने राजपत्रित अधिकारी की पोस्ट के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी शुरू कर दी, लेकिन जितना मीठा चाहिए, शक्कर भी उसी अनुपात में डालनी पड़ती है. एक तो उच्च स्तर पर पदों की सीमित संख्या, दूसरे प्रतिभागियों की बेपनाह भीड़, ऊपर से विभिन्न तरह के आरक्षण… हर बार नीलिमा की डोंगी तट पर लगतेलगते ही रह जाती. अपनी बचीखुची हिम्मत समेट कर नीलिमा फिर से डोंगी को संवारती, लेकिन अंततः उस का हश्र भी यही होता.
4 साल के कठिन प्रयासों के बाद भी जब नीलिमा को वांछित सफलता नहीं मिली, तो वह थकने लगी. हार कर उस ने शादी करने के पिता के प्रस्ताव के आगे हथियार डालना तय कर लिया. तभी अचानक एक विचार उस के दिमाग में कौंध गया.
‘‘मैं बड़ी अफसर नहीं बन सकी तो क्या हुआ? किसी बड़े अधिकारी की पत्नी भी तो बना जा सकता है. उस स्थिति में भी रोब में तो किसी तरह की कोई कमी नहीं आएगी. अलबत्ता, नौकरी वाले दिनभर के काम और माथापच्ची से जरूर नजात मिली रहेगी. अपनी तो बस ऐश ही ऐश होगी,‘‘ यह खयाल दिमाग में आते ही उस ने घर में ऐलान कर दिया कि वह शादी किसी बड़े अधिकारी से ही करेगी, चाहे लड़का तलाश करने में 2 के 4 साल लग जाएं.
बेटी की घोषणा सुन कर पिता ने अपनी हैसियत का अनुमान लगाया और मां ने अपनी तिजोरी और बैंक खाता खंगाला. भाई ने भी इकलौती बहन के लिए हर संभव मदद की पेशकश की, तो पिता को कुछ राहत मिली और इस तरह उन की तलाश विजय पर जा कर खत्म हुई. विद्युत विभाग में सहायक अभियंता विजय की हालांकि तनख्वाह तो अधिक नहीं थी, लेकिन जो सुविधाएं नीलिमा अपने लिए चाह रही थी, वे सब विजय को हासिल थीं. कुलमिला कर नीलिमा ने सीधेसाधे विजय को आसमान तक जाने वाली सीढ़ी के रूप में चुना.
विजय नीलिमा को पत्नी के रूप में पा कर बहुत खुश था. नीलिमा के पिता को भी अपनी खोज पर गर्व था. विजय की पोस्टिंग एक छोटे कसबे में थी. छोटी जगह होने की वजह से वहां विजय का अच्छाखासा रुतबा था. सड़क पर निकलता तो कई लोग नमस्कार करते थे. अनगिनत सलाम कबूल करती नीलिमा का माथा भी दर्प से 2 इंच अधिक तन जाता था.
कुछ दिन तो नीलिमा को पति के पद और पावर का नशा चढ़ा रहा, लेकिन जल्दी ही वह वहां की जीवनशैली से ऊब गई. न सिनेमा, न मौल… न दोस्त, न पार्टी… जिंदगी में कोई थ्रिल ही नहीं. उधर विजय भी अपने काम में बहुत बिजी रहता. ऐसे में नीलिमा का मन वहां से उखड़ने लगा. उस ने विजय से विभाग मुख्यालय में ट्रांसफर कराने की जिद की.
विजय ने बहुत समझाया कि जनता से जुड़े विभागों में ट्रांसफर इतना आसान नहीं होता, बहुत बड़ी सिफारिश लगवानी पड़ती है. तबादला होने के बाद भी वहां टिके रहने की कोई गारंटी नहीं होती. कोई आप से भी बड़ी सिफारिश ले आएगा, तो आप को उठ कर कहीं दूर फेंक दिया जाएगा, लेकिन नीलिमा कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी. जिद पर आई स्त्री कभी मानी है भला? आखिर पत्नी की जीत हुई और जोड़तोड़ के साथ कुछ चेक और कुछ जेक का जुगाड़ लगा कर विजय अपना ट्रांसफर कराने में सफल हो ही गया.
मुख्यालय तो अधिकारियों का अथाह सागर होता है. जहां विभाग का प्रबंधन निदेशक बैठता हो, वहां भला एक सहायक अभियंता की पूछ कितनी हो सकती है? छोटे शहर की तरह यहां तो सहायक अभियंता को कोई पहचानता तक नहीं. विजय से ऊंचे पद वाले अनेक अधिकारी होने के कारण न तो विजय को सरकारी गाड़ी मिली और न ही सरकारी आवास. लोगों से सीधे जुड़ाव न होने के कारण उपभोक्ता भी नमस्कार नहीं करते.
विजय को भले ही यहां का माहौल रास न आया हो, लेकिन नीलिमा यहां आ कर खुश थी. बहुत जल्दी उस ने अपने आसपास की महिलाओं से दोस्ती कर ली और मैट्रो लाइफ को ऐंजौय करने लगी. कभी किटी पार्टी, तो कभी पिकनिक… कभी फिल्म, तो कभी शौपिंग… नीलिमा पति की तनख्वाह मजे से उड़ा रही थी.
इधर जब सैलरी खर्च होने के बाद धीरेधीरे बैंक से बचत की रकम भी लगातार कम होने लगी, तो विजय ने उसे अपने खर्च सीमित करने की नसीहत दी. हाथ में तंगी आते ही नीलिमा को कसबे की जिंदगी याद आने लगी. वहां लोग इज्जत तो करते ही थे, विजय को अच्छीखासी ऊपरी कमाई भी हो जाती थी. लोग अपने खेतबड़ियों से कभी ताजा सब्जी, तो कभी फल आदि खुशीखुशी घर पहुंचा देते थे. यहां तो पाव धनिया भी खुद की जेब से खरीदना पड़ता है. नीलिमा परेशान रहने लगी.
उन्हीं दिनों आयशा उन की कालोनी में रहने आई. आयशा खुद एक सरकारी अधिकारी है और नीलिमा के घर के सामने वाला मकान उस ने किराए पर लिया है. विजय को औफिस के लिए विदा करती नीलिमा आयशा के घर के बाहर खड़ी लाल पट्टी लगी सरकारी गाड़ी को देख कर ठिठक जाती है. वह तब तक अपने घर के मुख्य दरवाजे पर खड़ी रहती है, जब तक कौटन की कलफ लगी साड़ी का पल्लू संभालती मोबाइल पर बात करती आयशा गाड़ी में बैठ नहीं जाती. ड्राइवर के हाथ में थमा उस का लंच बौक्स और पानी की बोतल नीलिमा को एक अलग ही तिलस्मी दुनिया में ले जाते हैं. नीलिमा की आंखें सम्मोहित सी गाड़ी का आंखों से ओझल होने तक उस का पीछा करती हैं.
इस महीने की किटी पार्टी शिवानी के घर थी. शिवानी सब को एक खास मेहमान से मिलाना चाह रही थी. उस मेहमान के रूप में आयशा को देख कर नीलिमा की बांछें खिल गईं. अपने बिजी समय में से कुछ मिनट निकाल कर आयशा ने उन का निमंत्रण स्वीकार किया था.
नीलिमा उस के व्यक्तित्व से तो पहले ही सम्मोहित थी, आज उस की व्यवहार कुशलता की भी कायल हो गई. अभी औपचारिक परिचय ही हुआ था कि जरूरी फोन आने पर फिर मिलने और आवश्यकता पड़ने पर मदद का आश्वासन देती आयशा चली गई. उस के जाते ही पार्टी में एक सन्नाटा सा पसर गया.
‘‘भई मजे हैं इन के भी. हमारे पिया घर नहीं, हमें किसी का डर नहीं,‘‘ मिसेज शर्मा ने चुप्पी तोड़ी, तो शिवानी हंस पड़ी.
‘‘मैं कुछ समझी नहीं. क्या इन के पति कहीं बाहर रहते हैं?‘‘ नीलिमा ने पूछा.
‘‘हां, बाहर ही समझो. घर से ही नहीं, जिंदगी से भी बाहर ही हैं,‘‘ कहती हुई मानसी ने व्यंग्य से होंठ तिरछे किए. नीलिमा अभी भी उन की बातचीत का सिरा नहीं पकड़ पाई थी. उस ने आंखों ही आंखों से अगला प्रश्न किया.
‘‘अरे, ये तलाकशुदा हैं. मेरे ये तो ये भी कह रहे थे कि मैडम को सरकारी कोटे में ये कुरसी मिली है. भई, ऐसी नौकरी मिल जाए तो तलाक भी बुरा नहीं है,‘‘ रीता के इतना कहते ही एक जोरदार ठहाका हाल में गूंज गया और पार्टी फिर से अपनी रंगत में आ गई.
घर लौटने के बाद भी नीलिमा के दिमाग में आयशा ही घूमती रही. वह रहरह कर अपने लिए भी वैसी ही जिंदगी की कल्पना करने लगी. लेकिन उस के लिए आयशा बनना इतना आसान नहीं था.
‘‘विजय तो मुझे बहुत चाहते हैं. किस आधार पर तलाक की मांग करूं? यों भी हमारे समाज में तलाक को अच्छा नहीं समझा जाता. मम्मीपापा भी मुझे ये कदम नहीं उठाने देंगे,‘‘ आजकल कुछ इसी तरह की उधेड़बुन में नीलिमा उलझी हुई थी. लेकिन इतना तो वह समझ ही गई थी कि तलाक के अतिरिक्त कोई दूसरी राह उसे कुरसी तक नहीं ले जा सकती.
उस की झुंझलाहट अब उस के व्यवहार में झलकने लगी थी. नीलिमा बातबात में पति को जलीकटी सुनाने लगी, तो विजय का गुस्सा भी फटने लगा. देखते ही देखते घर की शांति बीते दिनों की बात हो गई. अब न वहां खिलखिलाहटें थीं और न ही शरारतें… दोनों ही एकदूसरे को नीचा दिखाने का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने दे रहे थे. इसी की अगली कड़ी में एक दिन बात इतनी बिगड़ गई कि विजय का हाथ उठ गया. नीलिमा भी कहां कम थी. एक की उधारी दो से चुकाई. बढ़तेबढ़ते बात यहां तक आ पहुंची कि नीलिमा अपना सूटकेस उठा कर मायके आ गई.
ससुराल और मायका… दोनों पक्षों की तरफ से कुछ दिन समझाइश भी चली, लेकिन नीलिमा को तो कुछ समझना ही नहीं था.
एक दिन मम्मीपापा के लाख विरोध के बावजूद उस ने विजय को तलाक का लीगल नोटिस भिजवा दिया. 2 साल लगे और आपसी रजामंदी से आखिर नीलिमा को तलाक मिल गया. यह डिक्री उस के लिए जैसे आने वाले सुनहरे कल की चाबी थी.
नीलिमा कुछ दिन तो अनमनी सी रही. अपने अलगाव का मातम मनाने का दिखावा भी किया, लेकिन जल्दी ही वापस अपनी पुरानी दिनचर्या में लौट आई. उन्हीं दिनों राज्य प्रशासनिक सेवाओं की भरती निकली. नीलिमा ऐसे ही किसी अवसर की तलाश में थी. उस ने अप्लाई कर दिया.
नीलिमा अपने चयन को ले कर निश्चिंत थी. वह जानती थी कि विधवा, परित्यक्ता और तलाकशुदाओं को मिलने वाले सरकारी आरक्षण की सीढ़ी के सहारे जरा सी अतिरिक्त मेहनत उसे जिंदगी के उस मुकाम पर पहुंचा देगी, जिस के वह सपने देखती आई है. अपनी सफलता को सुनिश्चित करने के लिए उस ने एक कोचिंग संस्थान में भी प्रवेश ले लिया.
कई बार जब आत्मविश्वास आत्ममुग्धता में बदल जाता है, तो व्यक्ति को चारों खाने चित भी कर देता है. नीलिमा के साथ भी यही हुआ. कोटे की चाशनी में लिपटी प्रतियोगिता की पहली कड़वी खुराक जब उसे मिली, तो सफलता का जायका बेस्वाद हो गया. नीलिमा यह परीक्षा पास नहीं कर सकी. अगली भरती के लिए उसे 2 साल और इंतजार करना पड़ा.
इस बार वह थोड़ी संजीदा हुई, क्योंकि भाईभाभी के प्रेम में वह पहली सी गरमाहट अब नदारद थी. मां तो सदा उसे ही दोष देती रही थीं. इस बार प्रतियोगिता की प्रीपरीक्षा उस ने पास कर ली. मुख्य परीक्षा लगभग सालभर बाद आयोजित हुई. इस तरह की भरतियों में देरी होना स्वाभाविक सी बात होती है, क्योंकि भरती प्रक्रिया को कई चरणों से गुजरना होता है.
मुख्य परीक्षा प्राथमिक की तुलना में कहीं अधिक कठिन थी. मेहनत अधिक ही मांग रही थी. नीलिमा कर भी रही थी, लेकिन सभी प्रयासों के बावजूद वह इस बार मुख्य परीक्षा में पास नहीं हो सकी.
पहली बार उसे कुछ निराशा हुई. जहां से चली थी वहीं वापस आ गई. फिर से 2 साल का इंतजार और शून्य से शुरुआत… नीलिमा पर हताशा हावी होने लगी. इस बार किसी तरह प्राथमिक और मुख्य परीक्षा पास की, तो नीलिमा के सपनों की सूखी घास फिर से हरी होने लगी. इधर साक्षात्कार की तिथि घोषित हुई और उधर भरती से जुड़े दलाल दल सक्रिय हो गए. कुछ ने नीलिमा से भी संपर्क किया, लेकिन नीलिमा में अब आत्मविश्वास वापस जगह बना चुका था.
नीलिमा ने साक्षात्कार दिया और परिणाम की प्रतीक्षा करने लगी. इसी बीच किसी असंतुष्ट प्रतिभागी ने मुख्य परीक्षा के परिणामों पर न्यायालय में रिट लगा दी और स्थगन आदेश प्राप्त कर लिया. इस के साथ ही परीक्षा के नतीजों पर रोक लग गई.
सालभर तक सुनवाई चलती रही, आखिर किसी तरह नजीजे घोषित हुए. उत्साह से भरी नीलिमा ने परिणाम देखने के लिए आधिकारिक वैबसाइट खंगाली, लेकिन उसे अपना रोल नंबर कहीं भी नहीं दिखा. नीलिमा के होश उड़ गए. एक तरफ बढ़ती उम्र… सामाजिक प्रताड़ना… और घर वालों की व्यंग्यात्मक निगाहें, तो दूसरी तरफ इंचइंच दूर खिसकती कुरसी… नीलिमा की निराशा हताशा में होती हुई अब अवसाद में बदलने लगी थी.
‘‘उफ्फ, अब फिर वहीं से शुरुआत करनी पड़ेगी. मैं जिसे आसान सीढी समझ रही थी, उस पर हो कर मंजिल तक पहुंचने वालों की कतार भी कोई कम छोटी नहीं है. यहां भी बहुत प्रतिस्पर्धा है,‘‘ नीलिमा धीरेधीरे जिंदगी की सचाई से वाकिफ हो रही थी.
नीलिमा को विजय से अलग हुए लगभग 10 साल हो गए. इस बीच पिता भी ये दुनिया छोड़ कर अनंत यात्रा पर निकल गए. मां पूरी तरह से भाई पर आश्रित हो गईं. भाई घर का मुखिया भी बन गया था. भाभी भी यदाकदा सुनाते हुए नीलिमा को बोझ करार देने लगीं. नीलिमा की स्थिति त्रिशंकु सी होने लगी.
‘‘अब अधिक समय नहीं है. या तो अपने पैरों पर खड़ी हो जाओ या भाभी की गुलामी स्वीकार कर लो. पति के पास लौटने का रास्ता तो अब शायद ही खुले,‘‘ कुछ इसी तरह के विचार इन दिनों नीलिमा के मनमस्तिष्क में उमड़ने लगे थे.
अखबार में बैंक क्लर्क की भरती का विज्ञापन देखा तो बिना अधिक विचार किए नीलिमा ने फार्म भर दिया. कोचिंग की मदद भी ली और दिनरात मेहनत भी की. इस बार शायद समय उस के पक्ष में था, नीलिमा इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो गई. मां ने अपनी खुशी जाहिर की, वहीं भाभी ताना देने से बाज नर्हीं आइं.
“नौ दिन चले अढ़ाई कोस,” कह कर उस ने मुंह सिकोड़ दिया. नीलिमा भी अपनेआप को बेहद पराजित सी महसूस कर रही थी. उसे लग रहा था मानो किसी ने उस की थाली में बासी भोजन परोस दिया हो और भूख की अधिकता के कारण ये भोजन करना उस की मजबूरी बन गया हो.
कहते हैं कि नियति जब बदला लेने पर उतारू हो जाती है, तब व्यक्ति को हरेक कोण से आईना दिखाती है. अभी नीलिमा सामान्य हो भी नहीं पाई थी कि एक वज्रपात और हुआ. कल शाम जब भाई ने घर में घुसते ही उस की तरफ हिकारत से देखते हुए कहा, “विजय का प्रमोशन हो गया. इसी शहर में अधीक्षण अभियंता बन कर आया है. क्या ठाठ हैं बंदे के. विभाग की कालोनी में सब से शानदार बंगला उसी का है. रिश्ता बना रहता तो आज चार लोगों में अपनी भी इज्जत होती, लेकिन फूटी किस्मत का कोई क्या करे?”
मां – भाभी ने भी नीलिमा को कोसते हुए अपनी नाराजगी जाहिर की. नीलिमा अपनेआप को उस दोराहे पर खड़ा हुआ महसूस कर रही थी, जिस की हरीभरी पगडंडी को वह न केवल छोड़ आई थी, बल्कि उस तरफ लौटने की राह पर भी उस ने गहरी खाई खोद डाली थी. अब सिर्फ और सिर्फ कांटों वाले रास्ते पर चलना ही उस की नियति थी. कौन जाने इस सेहरा में आगे कोई फूल मिलेगा भी या नहीं.