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सिंगर बनीं आलिया

फिल्म ‘स्टूडैंट औफ द ईयर’ फेम अभिनेत्री आलिया सिर्फ अभिनय के मामले में ही उस्ताद नहीं हैं बल्कि मैडम गाना भी गाती हैं. तभी तो उन्होंने आने वाली फिल्म ‘हाइवे’ में न सिर्फ अभिनय किया है बल्कि औस्कर विजेता संगीतकार ए आर रहमान के लिए एक गाना भी रिकौर्ड किया है. इस गाने में उन के साथ पाकिस्तानी जोड़ी जेब और हानिया ने भी आवाज दी  है. आलिया कहती हैं कि उन्हें बिलकुल विश्वास नहीं हो रहा है कि उन्हें रहमान सर के साथ गाना गाने का मौका मिला. वे कहती हैं कि फिल्म ‘हाइवे’ उन के कैरियर की सब से महत्त्वपूर्ण फिल्म हो गई है, न सिर्फ ऐक्ंिटग बल्कि अब तो गायकी के भी लिए.

 

पाक फिल्मों की चाह

बीते कुछ सालों से बौलीवुड की फिल्में भारत के अलावा दूसरे मुल्कों में भी अच्छीखासी कमाई कर रही हैं. इसी फेहरिस्त में पाकिस्तान का नाम भी शामिल है. इस साल रिलीज हुई सलमान खान, अक्षय कुमार, आमिर खान की फिल्मों को न सिर्फ पाकिस्तान में बड़ी रिलीज मिली है बल्कि उन फिल्मों ने जोरदार कमाई भी की है.

पाकिस्तान में बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए अभिनेत्री शबाना आजमी कहती हैं कि उन्हें अच्छी स्टोरी मिली तो वे पाकिस्तानी फिल्मों में काम करना पसंद करेंगी. यह बात उन्होंने तब कही जब वे पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी अध्यक्ष बिलावल भुट्टो के विशेष आमंत्रण पर सिंध महोत्सव में हिस्सा लेने वहां गई थीं. उन के मुताबिक, कला व संस्कृति के क्षेत्र में दोनों मुल्कों में काफी समानता है इसलिए वहां की फिल्मों में काम कर के उन्हें खुशी होगी.

 

कर ले प्यार कर ले

बौलीवुड के जानेमाने फिल्म निर्माता सुनील दर्शन, जिन्होंने 90 के दशक में आमिर खान को ले कर ‘राजा हिंदुस्तानी’ फिल्म बनाई थी, ने अपने बेटे शिव दर्शन को लौंच करने के लिए ‘कर ले प्यार कर ले’ फिल्म बनाई है. लेकिन उन्होंने बजाय अच्छी पटकथा और सब्जैक्ट चुनने के, घिसेपिटे मसालों वाले सब्जेक्ट को चुना. ऊपर से तुर्रा यह कि निर्देशक राजेश पांडे ने बेटे को मनमानी करने की छूट दी और बेटा फिल्म को डुबो गया. फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है जो थोड़ाबहुत भी आकर्षित करे.

कहानी घिसीपिटी है. कबीर (शिव दर्शन) और प्रीत (हसलीन कौर) बचपन में साथसाथ पलेबढ़े हैं. बड़ा होने पर हालात उन्हें जुदा कर देते हैं. उन की फिर से मुलाकात कालेज में होती है. दोनों एकदूसरे से प्यार करने लगते हैं. कालेज का एक अन्य युवक जैस (अहम शर्मा) भी प्रीत को चाहता है. वह कबीर और प्रीत के बीच आ जाता है.

कबीर और जैस के बीच मारामारी होती है जिस में जैस की मौत हो जाती है. जैस का पिता धनराज गिरजी उर्फ डीजी (रूमी) एक डौन है. वह कबीर और प्रीत के पीछे पड़ जाता है. लेकिन कबीर डीजी और उस के आदमियों को मार कर प्रीत का हाथ थाम लेता है.

निर्माता सुनील दर्शन ने फिल्म में पैसा पानी की तरह बहाया है. उस ने बेटे को स्टंट सींस की टे्रनिंग के लिए बैंकौक भी भेजा. मगर बेटा फिसड्डी ही साबित हुआ है. उस ने एक बिगड़ैल युवक की भूमिका निभाई है. हर वक्त वह मोटरसाइकिल पर स्टंट करता नजर आता है. लेकिन न तो वह एक्शन में जमा है और न ही रोमैंटिक दृश्यों में छाप छोड़ सका है.

फिल्म की नायिका हसलीन कौर 2011 में ‘मिस इंडिया अर्थ’ रह चुकी है. इस के अलावा वह दर्जनों कमर्शियल विज्ञापनों में काम कर चुकी है. इस फिल्म में उस ने निराश किया है.

फिल्म का निर्देशन ठीक नहीं है. गीतसंगीत में भी दम नहीं है. फिल्म के अंत में एक गाना जबरदस्ती डाला गया है. छायांकन थोड़ाबहुत अच्छा है. 

या रब

फिल्म ‘या रब’ आतंकवाद का चेहरा दिखाती है. दुनिया भर में आतंकवाद को फैलाने वाले लोग कौन हैं? जेहादियों को तैयार कर पूरी दुनिया में कौन खूनखराबा करा रहा है? इस का परदाफाश इस फिल्म में किया गया है. इस से पहले भी कई फिल्मों में आतंकवाद का सही चेहरा दिखाने की कोशिश की गई है परंतु ‘या रब’ में सीधेसीधे इस का जिम्मेदार धर्म के रहनुमाओं को ठहराया गया है. धर्म के ठेकेदार मुल्लामौलवी अपना उल्लू सीधा करने के लिए भोलेभाले निर्दोष लोगों को धर्म की बातों में उलझा कर उन्हें जेहाद के लिए तैयार करते हैं.

मुल्ला लोग निर्दोषों को जन्नत में हूरें मिलने और खुदा के लिए अपनी जान देने पुण्य मिलने की बातें कह कर गुमराह करते हैं और इसलाम धर्म का बेजा फायदा उठाते हैं. निर्देशक हसनैन हैदराबादवाला ने अपनी बात को असरदायक ढंग से कहने की कोशिश जरूर की है परंतु पूरी फिल्म लफ्फाजी बन कर रह गई है. फिल्म की शुरुआत में ही साफ हो जाता है कि आगे क्या होने वाला है.

फिल्म की कहानी एक मौलाना जिलानी (अखिलेंद्र मिश्रा) पर केंद्रित है, जो युवाओं को धर्म के नाम पर उकसाता रहता है और उन्हें खूनखराबा करने के लिए भड़काता है. उस की एक बेटी अमरीन (अर्जुमन मुगल) है जिस की शादी इमरान (विक्रम सिंह) से हुई है. जिलानी एक साजिश के तहत एक मौल में बम विस्फोट कराता है. इस विस्फोट में अमरीन गंभीर रूप से घायल हो जाती है.

मामले की तहकीकात ऐंटी टैरेरिस्ट अफसर रणविजय (एजाज खान) करता है. मौलाना जिलानी इसलिए परेशान है क्योंकि अगर अमरीन बच जाती है तो वह पुलिस को बयान दे देगी कि विस्फोट करने वाला कौन है. उस ने विस्फोट से पहले उसे देखा था. वह मौलाना जिलानी का ही खास आदमी था.

मौलाना किसी भी कीमत पर अमरीन को मार डालना चाहता है. इंस्पैक्टर रणविजय मौलाना जिलानी के गुंडों को रोक पाने की कोशिश में मारा जाता है. उधर, कोमा में पड़ी गर्भवती अमरीन का औपरेशन कर बच्ची का प्रसव डाक्टर करते हैं. बाद में अमरीन को क्लीनिकली डैड करार दे दिया जाता है. तभी एक नौजवान, जो कभी मौलाना के बहकावे में आ कर जिहादी बना था और जेल में बंद था, भाग कर मौलाना का अंत कर देता है. धर्म के धंधेबाज का खात्मा होता है.

फिल्म की यह कहानी काफी लाउड है. निर्देशन साधारण है. धर्म के नाम पर भाषणबाजी ज्यादा की गई है. निर्देशक की फिल्म बनाने की मंशा तो ठीक लगती है परंतु वह अपनी बात ढंग से कह नहीं सका है.

पूरी फिल्म में मौलाना जिलानी की भूमिका में अखिलेंद्र मिश्रा छाया हुआ है. उस की गरजदार आवाज में दम है. इंस्पैक्टर रणविजय की भूमिका में एजाज खान है जो बिग बौस से सुर्खियों में आ चुका है. इस फिल्म में उस ने अपना दम नहीं दिखाया है. बाकी सभी कलाकार बेकार हैं.

फिल्म का गीतसंगीत पक्ष बेकार है. छायांकन अच्छा है.

 

हंसी तो फंसी

‘हंसी तो फंसी’ एक रोमांटिक कौमेडी फिल्म है, जिसे देख कर आप कुछकुछ हंसेंगे, कहींकहीं पर खीझेंगे पर फंसेंगे नहीं. फिल्म के टाइटल से लगता है, यह हीरोइन को पटाने वाली फिल्म होगी. हीरो हीरोइन को पटा लेगा और फिर मौज करेगा. लेकिन ऐसा नहीं है. फिल्म करन जौहर ने बनाई है, इसलिए उस ने आजकल फिल्मों में युवाओं द्वारा दिखाई जा रही ओछी हरकतों से बचते हुए युवाओं की बदली सोच को दिखाया है. लगभग पूरी फिल्म में शादी का माहौल दिखाया गया है. शादी के माहौल में गुजराती और पंजाबी कल्चर का मेल दिखाने की कोशिश निर्देशक ने की है. निर्देशक चाहता तो उस शादी के माहौल के बीच हीरोहीरोइन के बीच छेड़छाड़, लव सीन डाल सकता था लेकिन उस ने ऐसा न कर हंसी का माहौल बनाए रखा है.

बौलीवुड फिल्मों का एक घिसापिटा फार्मूला है जिस में 2 हीरोइनें और 1 हीरो होता है. मध्यांतर से पहले हीरो एक हीरोइन से प्यार करता है, मगर मध्यांतर के बाद वह उसे छोड़ कर दूसरी से इश्क करने बैठता है. ‘हंसी तो फंसी’ में भी 2 हीरोइनें हैं, मगर निर्देशक ने हीरो को दोनों हीरोइनों से फुल इश्क करने की छूट नहीं दी है. उस ने इस फार्मूले को नए तरीके से अपनी फिल्म में आजमाया है.

इस फिल्म में 2 हीरोइनें हैं परिणीति चोपड़ा और अदा शर्मा. पूरी फिल्म परिणीति चोपड़ा के किरदार के आसपास घूमती है. फिल्म का टेस्ट आप को परिणीति की पिछली फिल्म ‘शुद्ध देसी रोमांस’ जैसा दिखेगा.

फिल्म की कहानी कुछ हद तक दर्शकों को बांधे रखती है. कहानी निखिल (सिद्धार्थ मल्होत्रा) और करिश्मा (अदा शर्मा) की है. दोनों में पिछले 7 सालों से अफेयर है. निखिल अपने कैरियर में कन्फ्यूज्ड रहता है. इसलिए 7 सालों के दौरान निखिल और करिश्मा के बीच कई बार बे्रकअप हो चुका है. इस बार दोनों की शादी की तैयारियां होती हैं. शादी से पहले करिश्मा निखिल के सामने 5 करोड़ रुपए कमाने की शर्त रखती है जिसे वह मान लेता है.

शादी से पहले इन दोनों के घर मेहमान आ चुके हैं. शादी से पहले के फंक्शन भी स्टार्ट हो चुके हैं. इस बीच एक दिन करिश्मा की बहन मीता (परिणीति चोपड़ा) जब अपने घर पहुंचती है तो हलचल मच जाती है. दरअसल, मीता 7 साल पहले घर से मोटी रकम चुरा कर चीन भाग गई थी ताकि वहां वह अपना प्रोजैक्ट शुरू कर सके. मीता कुछ दवाएं लेने की आदी है. इन दवाओं के बिना वह कुछ नहीं कर सकती. करिश्मा निखिल से मीता के कहीं रहने का इंतजाम करने को कहती है. मीता जबजब अपने घर में जाती है वहां का माहौल डिस्टर्ब हो जाता है. इसी शादी के माहौल में मीता और निखिल के बीच नजदीकियां बढ़ती हैं. ठीक शादी वाले दिन निखिल का माइंड चेंज हो जाता है. वह करिश्मा से शादी का इरादा छोड़ कर मंडप से भाग खड़ा होता है और भाग कर मीता का हाथ थाम लेता है.

फिल्म का क्लाइमैक्स ठीक उसी तरह का है जैसा ‘शुद्ध देसी रोमांस’ का था. निर्देशक इस छोटी सी कहानी को खींचने और रोचक बनाने में सफल रहा है. कहानी का फर्स्ट हाफ कुछ कंफर्टेबल नहीं लगेगा, मगर सैकंड हाफ दिलचस्प है. कुछ सीन दर्शकों को हंसाहंसा कर लोटपोट कर देते हैं.

पूरी फिल्म में परिणीति चोपड़ा का लुक टौमबौय जैसा है. उस ने अपने दमदार अभिनय से दर्शकों को अचंभित सा किया है. सिद्धार्थ मल्होत्रा इस से पहले करन जौहर की ही फिल्म ‘स्टुडैंट औफ द ईयर’ में अपनी परफौर्मेंस दिखा चुका है. इस फिल्म में उस की कैमिस्ट्री परिणीति चोपड़ा के साथ खूब जमी है. अदा शर्मा सुंदर लगी है परंतु उसे ज्यादा फुटेज नहीं मिली है.

फिल्म का संगीत इस की विशेषता है. शादी के मौकों पर गाए जाने वाले पंजाबी गानों ने फिल्म में धूम मचाई है. फिल्म का छायांकन अच्छा है.

 

खुद का स्टाइल बनाएं

महान गायक मोहम्मद रफी की आवाज का ठप्पा लिए सोनू निगम एक दौर में खुद की पहचान के संघर्ष से जूझ रहे थे. बदलते वक्त की करवट और मेहनत के बलबूते सोनू निगम कैसे इस मुकाम तक पहुंचे, जानिए उन्हीं की जबानी, जैसा कि उन्होंने बीरेंद्र बरियार ज्योति को बताया.
 
मशहूर गायक सोनू निगम अपनी जादुई आवाज और स्टाइल के चलते 2 दशकों से संगीतप्रेमियों के दिलों पर छाए हुए हैं. 18 साल की उम्र में ही गायक बनने का सपना लिए मुंबई पहुंचने वाले सोनू ने शुरुआती दिनों में मोहम्मद रफी के गानों की नकल कर संगीत की दुनिया में कदम रखा. मोहम्मद रफी की यादें नाम से कई एलबमों ने बाजार में धूम तो मचाई पर उन पर रफी के क्लोन होने का ठप्पा लग गया. इस ठप्पे से सोनू काफी समय तक आजाद नहीं हो सके. 
वर्ष 1997 में ‘बौर्डर’ फिल्म के गीत ‘संदेशे आते हैं, हमें तड़पाते हैं…’ की कामयाबी ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में उन की जगह पक्की कर दी. पिछले दिनों एक संगीत कार्यक्रम में भाग लेने के लिए वे झारखंड की राजधानी रांची आए हुए थे. इसी दौरान उन से हुई मुलाकात के दौरान उन्होंने कहा कि संगीत उन की नसनस में रचाबसा है.
कुछेक फिल्मों में अभिनय का रंग दिखाने के बाद ऐक्ंिटग के मैदान में खास कामयाबी नहीं मिलने के जवाब में वे कहते हैं कि बचपन से ही उन्होंने गायक बनने का सपना देखा था और इस के अलावा कुछ और करने के बारे में सोचा ही नहीं था. 4 साल की उम्र में ही स्टेज पर प्रोग्राम देने के बाद मन में ठान लिया था कि गायक ही बनना है. बचपन के दिनों में ‘कामचोर’, ‘बोब’, ‘उस्तादी उस्ताद से’, ‘हम से है जमाना’, ‘प्यारा दुश्मन’ जैसी फिल्मों में चाइल्ड आर्टिस्ट के तौर पर काम करने का मौका मिला था. उस के बाद ‘काश आप हमारे होते’ और ‘लव इन नेपाल’ में हीरो के तौर पर अभिनय किया. उस के बाद फिल्म  ‘जानी दुश्मन’ में रोल किया. 
सोनू निगम कहते हैं कि उन्होंने कभी हीरो बनने या अभिनय करने की कोशिश नहीं की. उन के सामने ऐक्ंिटग के मौके आते रहे और वे उन्हें निभाते रहे. उन के अनुसार, ‘‘मेरा पहला और आखिरी प्यार तो गायन ही है. यही मेरे जीवन का मकसद है.’’
टैलीविजन पर आएदिन टैलीकास्ट हो रहे रिऐलिटी शोज के बारे में सोनू बताते हैं कि यह अच्छी शुरुआत है, इस के जरिए नए गायकों को मंच मिल रहा है. श्रेया घोषाल और सुनिधि चौहान जैसी उम्दा सिंगर तो रिऐलिटी शोज के जरिए ही दुनिया के समाने आई हैं. ऐसे शोज ने दर्जनों बेहतर गायक दिए हैं. यह जरूर है कि फिल्मों में कामयाबी सभी को नहीं मिल सकी, पर ज्यादातर सिंगर स्टेज प्रोग्राम कर खासी कमाई कर रहे हैं. कई ऐसे गायक भी हैं जिन्होंने टैलीविजन के रिऐलिटी शोज में हिस्सा लेने के बाद गायकी को ही अपना कैरियर बना लिया है.
सिंगर बनने की कोशिशों में लगे युवाओं को सोनू निगम सलाह देते हैं कि आवाज का अच्छा या बुरा होना व्यक्ति के हाथ में नहीं होता, पर लगातार रियाज के जरिए किसी भी आवाज को तराशा जा सकता है, उसे साधा जा सकता है. हर काम के साथ रियाज जुड़ा हुआ है. मेहनत और लगन के बगैर किसी को भी किसी भी क्षेत्र में कामयाबी नहीं मिलती.
सोनू निगम पर मोहम्मद रफी की नकल करने का आरोप लगता रहा है. इस सवाल पर वे कहते हैं कि यह जरूर है कि मोहम्मद रफी उन की प्रेरणा रहे हैं और कैरियर के शुरुआती दिनों में रफी साहब के सैकड़ों गीतों को गाया था, पर अब 20 सालों के लंबे कैरियर के बाद भी यह आरोप लगाना सही नहीं है. नकल कर के कोई भी लंबी पारी नहीं खेल सकता है. वे कहते हैं, ‘‘मैं अकसर युवा गायकों से कहता हूं कि पुराने गायकों और उस्ताद से सीखो, सबक लो, पर धीरेधीरे अपनी खुद की स्टाइल डैवलप करने की कोशिश करो.’’ उन का मानना है कि केवल नकल के भरोसे कैरियर बनाना मुमकिन नहीं है. बाजार में बने रहने के लिए अलग और नया दिखना जरूरी है.
इन दिनों सोनू निगम एमटीवी समेत कई म्यूजिकल चैनल्स पर सोलो परफोर्मेंस देते दिखाई दे जाते हैं. इस के अलावा ज्यादातर वक्त वे देश के बाहर अपने स्टेज शो में व्यस्त रहते हैं.

खेल खिलाड़ी

खिलाडि़यों की मंडी 
बेंगलुरु में इंडियन प्रीमियर लीग-7 की नीलामी हुई. हर बार की तरह इस बार भी क्रिकेट खिलाड़ी किसी उद्योगपति, किसी फिल्मी हस्ती या फिर बड़े कारोबारी के हाथों बिके. हालांकि, खिलाडि़यों की इस मंडी में आर्थिक मंदी नहीं दिखी. करोड़ों रुपयों की बोली खिलाडि़यों पर लगी. इस में रौयल चैलेंजर्स के मालिक विजय माल्या ने युवराज सिंह को 14 करोड़ रुपए में खरीद लिया. दिनेश कार्तिक को दिल्ली डेयरडेविल्स ने 12.5 करोड़ रुपए में खरीदा. इस मंडी में इस बार बड़ा उलटफेर हुआ क्योंकि बड़ेबड़े खिलाडि़यों को इस बार खरीदार नहीं मिले. एक बात यह भी रही कि इस बार अमेरिकी डौलरों के बजाय भारतीय रुपयों में बोली लगी. 
दरअसल, आईपीएल ऐसी दुधारू गाय है जिसे हर बड़ी हस्ती दुहना चाहती है. करोड़ों रुपया लगा कर अरबों कमाने की चाह बलवती हो रही है, चाहे खेल का बेड़ा गर्क ही क्यों न हो जाए.
खिलाडि़यों की इस मंडी में सवाल उठना तो लाजिमी है क्योंकि विजय माल्या जैसे उद्योगपति के पास खिलाडि़यों को खरीदने के लिए तो पैसा होता है पर जब कर्ज चुकाने व अपने कर्मचारियों को वेतन आदि देने की बात आती है तो 
वे कहते हैं कि उन के पास पैसा नहीं है. सरकार और प्रशासन इस के लिए मूकदर्शक बने रहते हैं और कुछ भी कहने से कतराते हैं.
वैसे भी खेल का बेड़ा गर्क हो ही चुका है. क्रिकेट जैसे खेल का स्वरूप की अब बिगड़ गया है. देश के लिए खेलने वाले वैसे भी अब खिलाड़ी रहे कहां, वे तो कारोबारियों के सामने कठपुतली बन कर रह गए हैं. वे जो कहते हैं वही खिलाड़ी करते हैं. करना भी उन की मजबूरी है क्योंकि अगर वे मालिक की बात नहीं मानेंगे तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
खिलाडि़यों के साथसाथ अब दर्शकों का भी मूड बदल गया है. अब दर्शक चाहते हैं कि फटाफट क्रिकेट में जो मजा है वह भला टैस्ट मैचों या फिर एकदिवसीय मैचों में कहां है. ऊपर से म्यूजिक और सुंदरसुंदर चीअर लीडर्स की थिरकती कमर शायद उन्हें भी भाने लगी है यानी 3 घंटे का एक मजेदार सर्कस. आईपीएल महज पैसों का खेल है.
आईपीएल टीमों के मालिकों को खेल से कोई लेनादेना नहीं है. वे तो मुनाफा कमाने के लिए पैसा लगाते हैं.आईपीएल से एक सुकून की बात यह है कि इस में नएनए खिलाडि़यों को दूसरे देशों में जा कर या फिर बड़ेबड़े खिलाडि़यों के साथ खेलने का मौका मिल जाता है.
 
खेल संघ में सियासत
देश हो या फिर विदेश, खेल संघों को राजनीति का अखाड़ा बना दिया गया है. इस की सब से ताजी मिसाल है कि एन श्रीनिवासन ने विश्व क्रिकेट एसोसिएशन की कमान संभाली और ठीक एक दिन के बाद उन के छोटे भाई एन रामचंद्रन को भारतीय ओलिंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया गया.
वर्ष 2012 में अंतर्राष्ट्रीय ओलिंपिक समिति ने चुनाव प्रक्रिया में ओलिंपिक चार्टर का पालन न करने के आरोप में भारत को निलंबित कर दिया था. इस से भारतीय एथलीटों की चिंता तो बढ़ी ही थी लेकिन उस से अधिक चिंता खेल संघों को राजनीति का अखाड़ा बनाने वाले नेताओं की थी. जबकि आईओसी ने कहा था कि खेल संघों के चुनावों में सरकार दखल देती है और इस वजह से दागी लोगों को आसानी से चुनाव लड़ने की इजाजत मिल जाती है, इसलिए आईओए जिस व्यक्ति को चुने वह साफ छवि के होने चाहिए. लेकिन पैसों के आगे यह कहना बेमानी है क्योंकि एन रामचंद्रन के चुने जाने के बाद आईओसी खुश है जबकि एन रामचंद्रन भी विवादों से घिरे हैं.
दरअसल, खेल संघों में अब खिलाडि़यों का वर्चस्व ही खत्म हो गया. हालांकि खेल प्रशंसकों के लिए एक सुकून की बात यह रही कि रूस के ‘सोची’ शहर में ओलिंपिक के समापन के दौरान अब फिर से भारतीय तिरंगा देखने को मिलेगा. आईओसी के बैन के बाद इस के उद्घाटन समारोह में भारतीय खिलाड़ी तिरंगा नहीं लहरा पाए थे.
 
टैस्ट में धौनी फेल
सब से सफल माने जाने वाले भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धौनी की काबिलीयत पर अब सवाल खड़े होने लगे हैं. ऐसा इसलिए हो रहा है कि महेंद्र सिंह धौनी विदेशी सरजमीं पर सब से ज्यादा हारने वाले कप्तान बन गए हैं. न्यूजीलैंड के खिलाफ पहले टैस्ट में 40 रन से हार के साथ ही धौनी विदेशों में सब से असफल कप्तान बन गए.
धौनी की कप्तानी में विदेशों में 22 टैस्ट मैच खेले गए हैं जिन में 5 जीते और 11 हारे, 6 ड्रा रहे. वर्ष 2010 में धौनी की कप्तानी में भारत ने विदेशों में पहला टैस्ट मैच श्रीलंका के खिलाफ खेला था. पिछले कुछ वर्षों में भारतीय टीम का रिकौर्ड काफी शर्मनाक रहा है. वर्ष 2011 में इंगलैंड में सभी मैच हार गए. इस के बाद आस्ट्रेलिया में 4 मैच हुए जिन में बुरी तरह हार हुई. कुल मिला कर कहें तो भारतीय खिलाड़ी विदेशी पिच पर फिसड्डी हैं. औकलैंड में हार के बाद भारत ने हार का सैकड़ा पूरा कर लिया.
हार के बाद कप्तान साहब रटीरटाई बात कहते रहे कि कभी बल्लेबाजी अच्छी नहीं रही तो कभी बल्लेबाजों का परफौर्मैंस संतोषजनक नहीं रहा तो कभी गेंदबाजी को दोष दिया तो कभी मिडिल और्डर बल्लेबाजों को कोसते रहे.
कप्तान साहब भी जानते हैं भारतीय बल्लेबाजों व गेंदबाजों की क्या परेशानी है. भारतीय खिलाड़ी उछाल व रफ्तार वाली पिचों पर फिसड्डी साबित होते हैं. हर बार सुधरने व सुधारने की बात होती है लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.
वैसे देखा जाए तो विदेशी जमीं पर किसी भी कप्तान का अच्छा रिकौर्ड नहीं रहा है. मोहम्मद अजहरुद्दीन की कप्तानी में विदेशों में 27 मैच खेले गए जिन में 1 जीता 10 हारे, 16 ड्रा रहे. वहीं सौरव गांगुली की कप्तानी में 28 मैच खेले गए, 11 जीते, 10 हारे, 7 ड्रा रहे. एम ए खान पटौदी की कप्तानी में भारत ने विदेशों में 13 मैच खेले, 3 जीते 10 हारे और बिशन सिंह बेदी की कप्तानी में 14 मैच खेले, 
3 जीते, 8 हारे और 3 ड्रा रहे. इधर महेंद्र सिंह धौनी पर असफलता के बादल छाए तो उधर मैच फिक्ंिसग की एक रिपोर्ट में नाम आने के चलते वे अब मुश्किल में पड़ सकते हैं.

शादियों का मुहूर्त पंडों का कारोबार

शादियों का सीजन आते ही पंडेपुरोहित धार्मिक संस्कार के नाम पर शुभअशुभ मुहूर्त का जाल बुन कर लोगों को ठगने का कारोबार शुरू कर देते हैं. भारतीय जनमानस के दिलोदिमाग में पैठ बना चुके अंधविश्वास की बदौलत ये पंडे किस तरह धर्म और स्वार्थ के धंधे से अपनी जेबें भरते हैं, बता रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.
साल 2014 में कुल 90 दिन शादी की शहनाइयां बजेंगी. इन में सब से ज्यादा विवाह 17 जून को होंगे. साल 2013 में 126 दिन में शादियों के मुहूर्त थे. यह खबर पिछले दिसंबर से एक नियमित अंतराल से प्रकाशितप्रसारित की जा रही है और हर महीने पड़ने वाले तीजत्योहारों पर इस का अलगअलग तरह से दोहराव होता रहेगा. बड़े पैमाने पर धुआंधार तरीके से इस खबर के प्रचारप्रसार का सीधा संबंध पंडों की दुकान से है जिन की आमदनी का एक बड़ा जरिया शादी कराना भी है.
पत्रपत्रिकाओं और न्यूज चैनल्स ने इस अनुपयोगी मसौदे को खबर बना कर बड़े दिलचस्प तरीकों से पेश किया. आम लोगों ने भी उतनी ही दिलचस्पी से इसे देखा, पढ़ा पर किसी ने यह सोचनेसमझने की न कोशिश की और न ही जरूरत समझी कि आखिरकार इस की उपयोगिता क्या थी.
जिन के यहां विवाह योग्य उम्मीदवार हैं उन्होंने तो बाकायदा ऐसी सभी खबरों की कतरन संभाल कर रखीं ताकि बातचीत के पहले दौर का काम संपन्न कर लिया जाए जिसे मुहूर्त कहते हैं. इंटरनैट इस्तेमाल करने वालों ने कतरन नहीं रखी क्योंकि यह जानकारी कई वैबसाइट्स पर मौजूद है.
दरअसल, इस प्रचार के पीछे पंडों का बड़ा हाथ और स्वार्थ है जिन का कारोबार चलता ही मुहूर्त से है. सदियों से ये लोग शुभ मुहूर्त में काम करवाने का धंधा कर रहे हैं और आम लोगों से मुहूर्त बताने के अलावा धार्मिक और गैर धार्मिक संस्कार संपन्न कराने की फीस वसूल रहे हैं.
मुहूर्त के कारोबार की बुनियाद अनिष्ट का डर और उस से बचना है. कोई नहीं चाहता कि भविष्य में उस के काम में किसी तरह के अड़ंगे पेश आएं. संभावित विघ्नों से बचने के लिए लोगों को पंडों के बताए समय में काम करने में कोई हर्ज नजर नहीं आता. लोगों का ऐसा मानना होता है कि मुहूर्त पर 2-4 हजार रुपए खर्च कर, काल्पनिक ही सही, परेशानियों से बचा जा सकता है तो सौदा घाटे का नहीं.
यह दीगर बात है कि परेशानियां ज्यों की त्यों हैं और शुभ मुहूर्त में काम करने के बाद भी होती हैं. लेकिन यह अंधविश्वास भारतीय जनमानस के दिलोदिमाग में पंडों ने कैंसर की तरह ठूंस रखा है ताकि उन की कमाई पर आंच न आए.
विवाह मुहूर्त का कारोबार
ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो छाती ठोंक कर दावे से कहते हैं कि हम अंधविश्वासी नहीं हैं पर बात शादी की हो या दूसरे शुभ कार्यों की, तो वे भी मुहूर्त के मुहताज दिखते हैं और तुरंत किसी पंडे के पास भागते हैं. मुहूर्त पूछने की दक्षिणा देते हैं, उस के पैर भी छूते हैं और कुछ ऐडवांस दे कर पंडे की बुकिंग भी करा आते हैं. इन पढ़ेलिखे लोगों के अंधविश्वास से दूर रहने के दावे पर तरस ही खाया जा सकता है. जबकि उस प्रचारप्रसार पर चिंता जताई जा सकती है जो लगातार चलता रहता है, और जिस के झांसे में लोग आते रहते हैं.
यह मुहूर्त आता कहां से है, इस की जानकारी आम लोगों को नहीं रहती, सिर्फ पंडों को रहती है, जो संगठित हैं. देश के प्रमुख धार्मिक मठों से एक फतवा सा जारी होता है कि साल 2014 में केवल इन 90 दिनों में शादियां होंगी क्योंकि ये शुभ हैं और देखते ही देखते सट्टे के नंबरों की तरह मुहूर्त देशभर में फैल जाता है.
शादियों के मद्देनजर देखें तो यह एक तरह की साजिश ही है जिस का मकसद यह है कि पंडों की कमाई ज्यादा से ज्यादा हो. 2013 के मुकाबले 2014 में 46 दिन शादियों के घट गए हैं. इस से होगा यह कि शादियों का खर्च कई गुना बढ़ जाएगा. एक दिन में शादियां ज्यादा होंगी तो टैंट, कैटरर्स, कपड़े, कार्ड, मैरिज हौल, बैंडबाजे, घोड़ीघोड़ा समेत शादी से जुड़े तमाम खर्चे बढ़ जाएंगे और अफरातफरी मचेगी सो अलग.
भाव पंडों के भी बढ़ेंगे जो एक दिन में 4-5 शादियां कराते हैं और प्रति शादी 1,100 से ले कर 11 हजार रुपए तक फीस (यजमान की हैसियत और भावताव के मुताबिक) वसूलते हैं. यह कारोबार भी डिमांड ऐंड सप्लाई के सिद्धांत पर चलता है. अगर एक दिन में एक शहर में 1 हजार शादियां हैं तो लोग पंडों के मुहताज स्वाभाविक तौर पर हो जाएंगे. हर भारतीय जानता है कि दक्षिणा ज्यादा दी जाए तो पंडा उन के माफिक मुहूर्त निकाल देता है, इसी से मुहूर्त की औचित्यता व बकवास दोनों साबित हो जाते हैं.
शादी के मुहूर्त को ले कर पंडों ने तरहतरह के दुष्प्रचार फैला रखे हैं कि गलत यानी अशुभ ग्रहनक्षत्रों में परिणय हुआ तो उस का टूटना या बिगड़ना तय है, पति व पत्नी के बीच अनबन चलती रहेगी, बच्चे नहीं होंगे और क्लेश होता रहेगा.
कोई पंडा गारंटी नहीं देता कि शुभ मुहूर्त में शादी कराए जाने पर वरवधू का दांपत्य अच्छा गुजरेगा. तलाक के लाखों मुकदमे अदालतों में चल रहे हैं, वे सभी अशुभ मुहूर्त के नहीं हैं बल्कि 90 फीसदी शुभ मुहूर्त के ही निकलेंगे जो पंडों की कराई शादी के होंगे. इस बात पर चूंकि अभी तक कोई उपभोक्ता फोरम नहीं गया है, इसलिए पंडे बेफिक्र रहते हैं.
इस बेफिक्री की दूसरी बड़ी वजहें भी हैं. मसलन, पंडा कह सकता है कि वरवधू के भाव शुभ नहीं थे, उन्होंने समय पर अक्षत नहीं डाले थे, जनेऊ विधिवत नहीं बांधा था, मन में हमारा बतलाया मंत्र नहीं दोहराया था या फिर कन्यादान लेने वाले ने व्रत तोड़ दिया होगा, वगैरहवगैरह.
ये बातें बताती हैं कि समाज को पिछड़ा रखने में सब से बड़ा योगदान पंडों का है जो अपने धंधे की खातिर किसी भी हद तक जा सकते हैं और जाते भी हैं. लोगों के पारिवारिक और सामाजिक जीवन को दुष्कर बना कर पैसे ऐंठना ही जिन्होंने व्यापार बना रखा हो तो उन से तो भगवान, यदि है, भी नहीं जीत सकता.
यही पंडे रामसीता के वनवास पर ग्रहनक्षत्रों की गणना कर बताते हैं कि तत्कालीन यानी त्रेता युग के पंडों ने कहां चूक की थी. कहीं चूक हुई थी, यह तो वे मानते हैं पर उस की जिम्मेदारी नहीं लेते उलटे, देवीदेवताओं  तक की शादियों का हवाला दे कर लोगों को डराते रहते हैं कि देखो, अशुभ मुहूर्त में शादी करने से तो देवता लोग भी रोए और झींके थे.
यानी चित भी मेरी और पट भी मेरी और सिक्का मेरे बाप का की तर्ज पर काम होता है. इसीलिए लोगों को उन्होंने मुहूर्त का गुलाम बना कर रख दिया है. गर्भ में आने से ले कर श्मशान तक आदमी मुहूर्त के नाम पर पंडों को दक्षिणा देता रहता है. नाम रखने का मुहूर्त, पहली बार अन्न खाने का मुहूर्त, स्कूल जाने का मुहूर्त, जनेऊ पहनने का मुहूर्त, गृहप्रवेश का मुहूर्त आदि. आलम यह है कि सिर्फ शौच जाने की मुहूर्तबाध्यता नहीं है क्योंकि प्राकृतिक दबाव के चलते लोग उस का पालन नहीं कर पाएंगे. मुहूर्त का यह अवैज्ञानिक कारोबार बताता यह है कि पंडे भारतीय समाज को सभ्य और तार्किक कभी नहीं होने देंगे.

परिवर्तन

अब पनियाले नहीं होते
मेरी पलकों के गलियारे
काले बादलों के बीच
सुनहली रेखाएं
मेरे दिल की सीली दीवारों पर
तेरा नक्श नहीं बना पातीं
मेरे कमरे की खिड़की के कांच पे
सिर पटकती बेशुमार बूंदें
मेरी स्मृति के दरवाजे पर
अब कहां दस्तक दे पाती हैं
पानीपानी हो जाते हैं शहर
सूखी ही रहती है मन की तलहटी
तेरी अनदेखियों ने
जिंदगी की जमीन को
बना डाला है बंजर
अब इस पर
भूले से भी तेरे लिए
कोई जज्बात नहीं उगता…
 अनुपमा शर्मा
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