सुप्रीम कोर्ट ने किन्नरों को ‘थर्ड जैंडर’  बता कर उन्हें सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग में रखने का फैसला सुना तो दिया है लेकिन इस पर अमल करना एक पेचीदा काम होगा. वजह, हमारे देश में किन्नरों को हमेशा से हंसी का पात्र समझा जाता है. उन्हें स्कूलकालेजों और दफ्तरों में अपने पास की सीट पर बैठा देखना आम लोगों के लिए पत्थर हजम करने जैसी बात होगी. धार्मिक ग्रंथों में भी उसे हमेशा से कोसा जाता रहा है.
अगर किन्नरों को इस का सुख लेना है तो उन्हें खुद को बदलना होगा. किन्नरों को मुख्यधारा में लाना लोहे के चने चबाने जैसा होगा, क्योंकि यहां का पुरातनपंथी समाज किस तरह कानूनी फैसलों पर भारी पड़ता है, सब जानते हैं.    

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