ब्रिटिश शासन से आजादी पा लेने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण घटना देश में गणतंत्र की स्थापना और धर्मनिरपेक्ष संविधान का लागू हो जाना थी. लेकिन जल्द ही संवैधानिक सुरूर समाज के दिलोदिमाग से उतर गया और पुराना गणतंत्र यानी जातिवाद फिर से दशक दर दशक नएनए तरीकों से पैर पसारने लगा. आज हालत यह है कि देश के एक सूबे बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के अपने ही राज्य के मधुबनी शहर के एक मंदिर में पूजा करने के बाद प्रबंधन द्वारा मंदिर को धुलवाए जाने पर बहस हो रही है कि मुख्यमंत्री छुआछूत के शिकार हो गए.
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्या ने यह कह दिया कि शादियों में गौरी पुत्र गणेश की पूजा नहीं करनी चाहिए. इस पर पार्टी सुप्रीमो मायावती ने मौर्या की निजी राय कहते हुए पल्ला झाड़ लिया. बहरहाल, यह सवाल न यहां से शुरू होता है और न खत्म. भारतीय समाज में लगातार इन सवालों पर बहस ही नहीं, बल्कि आंदोलन भी हुए. अंबेडकर से पहले और पेरियार के बाद भी यह सिलसिला कायम है. मायावती, जो भले आज इस सवाल से कन्नी काट रही हैं, उत्तर प्रदेश की सत्ता में उन के कायम होने में इसी वैचारिकी की नींव रही है.
सवाल यह है कि आज क्यों इन सवालों से इन्हीं सवालों को उठाने वाले अपना नाता तोड़ रहे हैं? यह कोई राजनीतिक भटकाव है या फिर दलितों के पूरे समाज में समाहित होने की प्रक्रिया, जिस में वे समाहित हो जाने में ही अपना हित समझते हैं? जो राजनीति जाति, धर्म, भाषा या अस्मिता पर आधारित होती है उस का इसी लय में बह जाने का खतरा हर वक्त बरकरार रहता है. ‘तिलक, तराजू और तलवार, इन को मारो जूते चार’ की जगह ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ कहना ऐसे ही नहीं शुरू कर दिया, यह सिर्फ हिंदू धर्म के देवीदेवताओं के प्रति आकर्षणमात्र नहीं था बल्कि यह नरम हिंदुत्व के प्रति आकर्षण था. ‘हाथी आगे बढ़ता जाएगा, ब्राह्मण शंख बजाएगा’ कहतेकहते ‘हाथी’ उसी जातिवादी अहाते में चला गया जहां से निकलने के लिए उस का संघर्ष था और हाथी को दिल्ली ले जाने वाले ‘विकास के रथ’ पर सवार हो कर दिल्ली चले गए. यह एक रणनीति थी, जो अस्मिता आधारित संकीर्ण जातिवादी राजनीति को ‘नरम हिंदुत्ववादी’ राजनीति की तरफ ले कर चली गई. और ‘सर्वजन हिताय, बहुजन सुखाय’ वाले भ्रम में रह गए जो ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ कह देने मात्र से हल नहीं होगा.
महापुरुषों की अनदेखी
दलित नेताओं ने धर्म, आडंबर, रूढि़वादी और जातिवादी व्यवस्था से दलित समाज को दूर रहने के तमाम संदेश दिए थे. इन प्रचारकों की सोच थी कि अगर दलितों को अपनी हालत में सुधार करना है तो धर्म और पाखंड की जंजीरों को तोड़ना होगा. आज का दलित समाज दलित नेताओं व विचारकों के मानअपमान को ले कर मरनेमारने पर भले तैयार हो जाता हो पर उन के विचारों पर चलने को तैयार नहीं है. जिन दलित विचारकों ने जीवनभर मूर्तिपूजा का विरोध किया, उन की मूर्तियां लगा कर ही दलित अपने को महान समझ रहा है. वह जातिवादी व्यवस्था का अंग बनने के लिए कट्टरपंथियों की ही तरह पूजापाठ और पाखंड को मानने लग गया है. दलितों को सुधारने का काम करने वाले राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठन अपने हित के लिए काम कर रहे हैं. वे साफतौर पर मानते हैं कि जब तक दलित खुद सुधरने को तैयार नहीं होंगे उन के हालात नहीं सुधर सकते.
सियासी भटकाव
हालिया संपन्न ‘कर्पूरी ठाकुर भागीदारी महासम्मेलन’ में बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्या की बातों का विश्लेषण निहायत जरूरी हो जाता है कि वे भागीदारी की क्या रूपरेखा खींच रहे थे. उन्होंने कहा कि कट्टर व्यवस्था के लोगों ने पिछड़ों और निचलों का दिमाग नापने के लिए गोबर और गणेश का सहारा लिया था. यह सही भी है कि ऐसे डाक्टर, इंजीनियर होने का क्या मतलब जो यह दिमाग न लगाएं कि क्या गोबर का टुकड़ा भगवान के रूप में हमारा कल्याण कर सकता है, क्या पानसुपारी खा सकता है, क्या पैसे ले सकता है, क्या पत्थर की मूर्ति दूध पी सकती है? ऐसा कह कर उन्होंने कट्टरपंथियों की भी बुद्धि नाप ली और साबित कर दिया कि इन से जो चाहो, कराया जा सकता है.
इस घटना का विश्लेषण उन भावनाओं, जो किसी दलित के मंदिर में जाने के बाद आहत हो कर शुद्धिकरण करवाती हैं, से दूर हट कर करना होगा. और यह सिर्फ दलितोंपिछड़ों से जुड़ा सवाल नहीं है, बल्कि राष्ट्रनिर्माण का सवाल भी है, जो वैज्ञानिकता के बगैर अपूर्ण है. आजादी के 67 साल पूरे होने के बाद भी देश में रहने वाले गरीबों,खासकर दलितों की हालत में बहुत सुधार नहीं हुआ है. यह हाल तब है जब दलितों के हालात सुधारने के लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर बहुत सारे प्रयास हो रहे हैं. आरक्षण जैसी योजनाओं का लाभ जागरूक दलितों ने उठा कर अपने हालात में सुधार कर लिया पर वे अपनी बिरादरी को क्या कुछ नया दे रहे हैं?
दलितों में वर्ग
दलितों के मुख्यरूप से 2 हिस्से हैं. एक हिस्सा वह है जो जागरूक था. उस ने आजादी के बाद दलितों के उत्थान के लिए चलने वाली योजनाओं का लाभ उठाया. दलितों का यह हिस्सा आज जातिवादी व्यवस्था का अंग बन चुका है. पढ़ालिखा होने के कारण यह हर योजना का आसानी से लाभ उठा रहा है. दलितों का दूसरा हिस्सा अपने हालात को सुधारने के लिए तैयार नहीं है. बहुत सारे प्रयासों के बाद भी ये लोग अभी भी अनपढ़ और पिछडे़ बने हुए हैं. ये बच्चों की शादी कम उम्र में कर देते हैं. खुद हर तरह का नशा करते हैं और बच्चों को इस से दूर रहने को कहते भी नहीं. तमाम सरकारी स्कूल होने के बाद भी बच्चों को पढ़ने के लिए नहीं भेजते. जानकारी के अभाव में दलितों के हित में चलने वाली सरकारी योजनाओं का ये लाभ भी नहीं ले पाते. अभी भी ये अपनी तरक्की के लिए दूसरों की ओर ताकते रहते हैं.
दलित समाज की एक बिरादरी मुसहर है. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में इस बिरादरी के लोग बहुतायत में पाए जाते हैं. दलित समाज में ये सब से नीचे पायदान पर खड़े नजर आते हैं. सब से पिछड़े होने के कारण सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर इन को ऊपर उठाने के लिए बहुत सारे काम किए गए. इस के बाद भी ये पूरी तरह से बदहाल हैं. आज भी ये चूहा मार कर खाने के लिए मजबूर हैं. इन के घरों की औरतें पत्तल बनाने का काम करती हैं जबकि मर्द नशाखोरी करते हैं.
वाराणसी में मुसहर समाज की तरक्की के लिए काम करने वाले ‘आसरा’ संगठन के अजय पटेल कहते हैं, ‘‘हमारे संगठन के बहुत प्रयासों के बाद कुछ लोगों को, गरीबों के लिए दिए जाने की इंदिरा आवास योजना के तहत आवास देने की शुरुआत की गई है. इस के पहले इतने साल बीत जाने के बाद अभी तक कोई इंदिरा आवास इन लोगों को नहीं मिला था. जिस गांव के लोग जागरूक हैं और अपने हक की आवाज उठा रहे हैं, उन को सरकारी योजनाओं का लाभ मिल रहा है.’’
पाखंड के शिकार दलित
दलित समाज के जिन लोगों के पास पैसा आया वे संपन्न होने के बाद धर्म के पाखंड को बढ़ाने वाला काम कर रहे हैं. इस का नुकसान यह हुआ कि जो राजनीतिक दल उन की बेहतरी के लिए काम करने की कोशिश करते थे वे भी पुराने सिद्धांतों को छोड़ कर नई विचारधारा बना कर चलने लगे हैं. ऐसे में दलित समाज के उत्थान के लिए किए जाने वाले काम कमजोर पड़ गए या फिर खत्म कर दिए गए. इस को समझने के लिए बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा का उदाहरण सब से आसान दिखता है. जातिवादी व्यवस्था का विरोध कर बसपा ने अपने जनाधार को बढ़ाया. जब उसे राजनीतिक ताकत हासिल हो गई तो उस ने अपनी पुरानी विचारधारा को छोड़ दिया. इस का नुकसान दलितों के साथ ही साथ खुद बसपा को भी हुआ. आज दलितों के लिए बसपा की नीतियां उसी तरह की हैं जैसी किसी दूसरे राजनीतिक दल की. बसपा की नीतियों के बदलने का लाभ जातिवादी व्यवस्था ने उठाया और वह दलितों क ो बसपा से अलग करने में सफल हो गई.
दिखावे की तरक्की
दलितों के हितों में काम करने वाले राजनीतिक और स्वयंसेवी संगठन दलितों में तरक्की का दिखावा करने की कोशिश में उन को मुद्दों से भटकाने का काम कर रहे हैं. ये संगठन होली में दलितों को रंग खेलने, दीवाली में दीये जलाने और मंदिरों में पूजा करवाने को ही तरक्की का हिस्सा मान लेते हैं. ऐसा करते समय वे भूल जाते हैं कि जिस जातिवादी व्यवस्था का वे अंग बनते जा रहे हैं वह उन की तरक्की में सब से बड़ी बाधा रही है. दलित राजनीति, जिस के मूल में ब्राह्मणवादी व्यवस्थाविरोधी स्वर थे, ने अपने समाज के लोगों में मनुष्य से मनुष्य के बीच भेद करने वाले विभाजनकारी विचार को निशाना बनाया था. पर उस राजनीति के भटकाव के बाद उस समाज का भटकाव कोई आश्चर्यजनक नहीं है. यह तो होना ही था. मौजूदा दलित इस बात को भांप रहे हैं कि सिर्फ कोरी वैचारिक बात करने से भेदभाव का हल नहीं होगा, बल्कि व्यावहारिकता में इस को अपनाना होगा. दलित नेताओं से दूर हुआ जनमत, तो वह ‘पत्थर को दूध पिलाने वालों’ के साथ चला गया है. दलित राजनीति आज दलित समाज में उभरे मध्यवर्ग के समझौतावादी हो जाने को एक खतरे के रूप में महसूस कर रही है लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रही.
वर्णवादी प्रवृत्ति
लोकसभा चुनावों में उच्च वर्ग ने भाजपा के प्रति आकर्षण का सब से ज्यादा माहौल बनाया. ठीक इसी तरह की वर्णवादी प्रवृत्ति पिछड़ी जातियों में भी पनप रही है. मध्यवर्ग में पिछड़ी जातियों का शामिल हुआ वर्ग भाजपा के प्रभाव में आ रहा है. वह उस हिंदुत्ववादी प्रक्रिया के तहत आया है जो उस की पहचान के सवाल को हल करने का दावा ही नहीं करती, उस का हल ढूंढ़ने का प्रयास भी करती है. नए हिंदुत्ववादियों ने दलितों व पिछड़ों के मध्यवर्ग को सवर्णों की तरह कर्मकांडी बना दिया और उन्हें उन सब पाखंडों को करने की छूट दे दी जिन्हें वे पहले दूर से देखते थे. तो फिर ऐसे में वह दलितपिछड़ा जो किसी वैचारिकता नहीं बल्कि पहचान के सवाल पर किसी मायामुलायम के साथ गया था, क्यों उन के साथ अब भी रहेगा?
मायावती तो पेरियार की मूर्ति के सवाल पर भाजपा के सामने इस से पहले भी घुटने टेक चुकी हैं. 2002 में भाजपा के सहयोग से चल रही बसपा सरकार द्वारा जब लखनऊ के अंबेडकर पार्क में पेरियार की मूर्ति को लगवाने की बात सामने आई तो भाजपा, बजरंगदल व अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों ने विरोध किया. जिस के बाद मूर्ति नहीं लग पाई. पेरियार की मूर्ति एक मूर्ति नहीं, बल्कि वह सशक्त विचार है, जो भाजपा सरीखे संगठनों को भारतीय समाज में अस्तित्व में रहने को एक कलंकित भाव में देखता था. इसीलिए इस विचार से आतंकित संगठनों ने 2007 में ‘तीसरी आजादी’ नाम की एक सीडी का भी विरोध किया था. मायावती यदि किसी की भी मूर्ति न लगवातीं तो ठीक था पर पहले सुझाव दे कर पीछे हटना असल में हाथ झटकना ही तो है.
मंदिर क्यों गए सीएम
बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी, जो स्वयं के महादलित होने की वजह से समाज में बरती जा रही अस्पृश्यता व पूर्वाग्रह का शिकार खुद को कह रहे हैं, पर भी सवाल उठता है कि वे उस मंदिर में आखिर क्या करने गए थे? मांझी जब कहते हैं कि सोचिए, हम कहां खडे़ हैं, हम जातिवाद से घिर गए हैं, तो उन्हें भी यह सोचना चाहिए कि मंदिर, जहां वे गए थे वह भारतीय लोकतंत्र का कोई सदन नहीं, बल्कि पाखंडवादी व्यवस्था के तहत संचालित वह सदन है जिस के मूल विचार में दलितों का, पिछड़ों का प्रवेश वर्जित है. मांझी को उन के इस बयान के बाद उठ रहे उन सवालों से ज्यादा वहां जाने की अपनी वैचारिकी पर सोचना होगा. उन का कहना ‘वे महादलित हैं, इसलिए उन के साथ ऐसा हुआ, वे झूठ नहीं बोल रहे,’ उन को एक अपरिपक्व वैचारिक नेता के रूप में ही स्थापित करता है.
आज अगर खुद ऊंची जाति वाले और आरएसएस जैसे हिंदूवादी संगठन जातिगत समानता की बात करते हैं तो हैरत होना स्वाभाविक है कि आखिरकार इस चमत्कार के पीछे राज या साजिश क्या है और है भी कि नहीं.
राज भी साजिश भी
दरअसल 25 फीसदी आबादी वाला इलाका ही देश नहीं है जहां लाइटें चमचमाती हैं, भव्य मौल्स सीना ताने खड़े हैं और जहां जाति पूछ कर कोई भी बरताव नहीं करता. लेकिन बचा 75 फीसदी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, जहां दलितों का शोषण ब्राह्मणों के साथ खुद दलितों के अगड़े भी करने लगे हैं. आजादी के बाद पहली दफा ऐसा वक्त और माहौल देखने में आ रहा है कि दलित खुलेआम धरमकरम कर रहा है, पैसे लुटा रहा है और इसी बूते पर वह मुख्यधारा से जुड़ जाने की गलतफहमी पाले बैठा है. उधर, लोकसभा चुनाव भाजपा ने मंदिर या धर्म के मुद्दे पर नहीं बल्कि सामाजिक बराबरी के दम पर जीता है. पिछले दशक में एक बार फिर हिंदू शब्द की परिभाषा बदली गई है. इधर आरएसएस ने भी पैंतरा बदलते दलितों और आदिवासियों के नाम पर आनुषंगिक संगठन बना डाले हैं जिन का काम आदिवासी और दलितों को उन के हिंदू होने का एहसास कराते रह कर उन्हें यह बताना है कि तुम हिंदू हो और हिंदू शब्द या धर्म के माने जो भी निकालो लेकिन यह स्वीकार लो कि इस में जातिपांति थी और रहेगी.
इसी दौरान हैरतअंगेज तरीके से दलितों के लिए काम करने वाले सामाजिक संगठन सिमट कर रह गए. कांशीराम ने जो सामाजिक आक्रोश पैदा किया था वह एक समझौते में तबदील हो गया. यह समझौता था हम जातिवाद की विसंगतियों को विकास के जरिए सुधारने की कोशिश करेंगे. दलित अब पहले की तरह दीनहीन और गरीब नहीं रह गया है, लिहाजा पंडेपुजारियों का काम भी ज्यादा चल पड़ा. आरक्षण से सरकारी नौकरियों और शहरीकरण या शिक्षा से दलितों के पास आए पैसे को लूटनेखसोटने की उन में होड़ मच गई. कांग्रेस इस बदलाव को भांप नहीं पाई और यह मान कर बैठी रही कि देश में अभी भी छुआछूत और जातिपांति है जिस के चलते भाजपा को सरकार बनाने लायक सीटें नहीं मिलेंगी. इसी गलतफहमी ने उसे महज 44 सीटों पर समेट कर रख दिया.
नया वर्णवाद
प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी सिर्फ विकास की बात कर रहे हैं. विदेशों में झंडे गाड़ते फिर रहे हैं, लेकिन हिंदुत्व या जातिपांति की बात उन्होंने नहीं की. आरएसएस ने जरूर बड़े सधे ढंग से कहा कि सदियों से वंचितों और शोषितों को गले लगाने का वक्त आ गया है. शुक्र इस बात का है कि उस ने माना तो कि देश में ये चीजें यानी भेदभाव, छुआछूत और जातिपांति थीं.
2 राज्यों के विधानसभा चुनावों, खासतौर से महाराष्ट्र में, इस का खासा असर देखने को मिला, जहां आरपीआई जैसे दलित हिमायती दलों का सूपड़ा ठीक वैसे ही साफ हो गया जैसे उत्तर प्रदेश में बसपा का हुआ था. बिहार में रामविलास पासवान भाजपा कीगोद में थे, इसलिए केंद्रीय मंत्री बन सवर्णों के साथ बैठे हैं. इस समीकरण और बदलाव को राजनीतिक के बजाय सामाजिक कहना ज्यादा सटीक लगता है क्योंकि वह इसी शर्त और तर्ज पर स्वीकारा गया है. दलित वर्ग के जिन जागरूक लोगों को दलित हितों की बात कहनी और करनी चाहिए थी, वे पंडेपुजारियों की भाषा बोलने लगे हैं. दानदक्षिणा झटकने के लिए दलितों को 2 वर्गों में बांट दिया गया है. ज्यादा पैसे वाले दलित ब्राह्मणों के खाते में गए तो कम पैसे वाले दलितों को उन्हीं की जाति के पंडों ने घेर लिया.
इक्कादुक्का लोगों और संगठनों ने इस नए वर्णवाद की साजिश के खिलाफ बोलने की कोशिश की पर उन की आवाज नक्कारखाने में तूती सरीखी साबित हुई. पढ़ेलिखे बुद्धिजीवी दलितों का एक बड़ा तबका हालात देख हताश है कि आखिर यह हो क्या रहा है, और इस से दलितों को फायदा क्या. मजबूरी और बेबसी में अभी खामोश और तटस्थ बैठा यह वर्ग आज नहीं तो कल, मुंह जरूर खोलेगा लेकिन तब तक कट्टर जातिवाद नए और पुराने धर्मग्रंथों के आदेशों को नए ढंग से अपने मुनाफे के लिए मोड़ लेंगे. लड़ाई या मुद्दा अभी भी संविधान बनाम धर्मग्रंथ है जिन में विकट का विरोधाभास है. इन में से देश में चल क्या रहा है, इसे समझने के लिए दिमाग पर ज्यादा जोर देने की जरूरत नहीं. देश में आज भी सही मानों में गणतंत्र नहीं वर्णतंत्र चल रहा है.
सनातनी रोड़ा
नए परिवर्तन से सभी सहमत हों, ऐसा भी नहीं है. जीतनराम मांझी के मुद्दे पर रांची में पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद ने साफ कहा कि दलितों को मंदिर में नहीं जाना चाहिए, यह शास्त्रसम्मत बात है. इस से पहले दूसरे शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद, शिरडी वाले साईंबाबा और उन की पूजा को ले कर खासा बवाल मचा चुके थे जोहिंदू नहीं, सनातन धर्म की व्याख्या कर रहे थे. भव्य आलीशान वातानुकूलित मठों में बैठे इन शंकराचार्यों की स्थिति रईस दलितों जैसी ही है जिन्हें चिंता अपनी दुकानदारी की है. सनातन धर्म का फंडा ज्यादा नहीं चला क्योंकि वह प्राचीन शास्त्रवादी था जिसे दलित तो दलित, सवर्णों की भी नई पीढ़ी स्वीकारने को तैयार नहीं. आधुनिक संस्थान में इंतजाम ये किए गए हैं कि सब अपनी हैसियत के मुताबिक लूटेंखसोटें और कमाएं, कोई दूसरे के रास्ते में अड़ंगा नहीं डालेगा.
दलितपिछड़े असलियत में धर्म के बिचौलियों के बिछाए जाल में फंस रहे हैं जिस में सदियों से उच्च सवर्ण पहले ही शिकार हैं जो कर्मकांडों, पाखंडों, रीतिरिवाजों पर अपनी औरतों से दुर्व्यवहार भी करते हैं, अपना पैसा भी नष्ट करते हैं और खुद को शारीरिक कष्ट देते हैं. वास्तु, कुंडली, तीर्थयात्राओं, व्रत, उत्सवों के मारे सवर्ण, धर्म की लकीर पीटपीट कर कोई विशेष स्थान ग्रहण नहीं कर रहे पर अब दलित व पिछड़े उसी को दोहरा कर खुश हो रहे हैं. अब हो यह भी रहा है क दलित पंडे अपने मुताबिक धर्म और संस्कृति की व्याख्या करते हुए दलितों से पैसा बना रहे हैं. ज्यादा पैसे वाले दलितों में कर्मकांडों और मोक्ष की छटपटाहट को ब्राह्मण भुना रहे हैं. जिन्हें वाकई नीची जाति वालों से परहेज है बस, उन्हें ही शंकराचार्यों का बैनर रास आ रहा है.
दलित, महादलित, पिछड़े, अतिपिछड़े यह समझौता करते दिख रहे हैं कि उन का शोषण जाति के नाम पर भले ही हो पर उन्हें प्रताडि़त न किया जाए. इस बात के लिए वे पैसा चढ़ा रहे हैं. वे, दरअसल, सामाजिक दुत्कार से बचना चाह रहे हैं. व्यवस्था यह कर दी गई है कि अगर चक्रव्यूह से बचना है तो रास्ता धर्म से हो कर ही जाएगा, किसी संविधान, लोकतंत्र या गणतंत्र से नहीं.
– राजीव कुमार यादव के साथ लखनऊ से शैलेंद्र सिंह, भोपाल से भारत भूषण द्य