Download App

फिर वही शून्य : समर को सामने पा कर सौम्या का क्या हुआ ?

story in hindi

सिंगल वुमन जरूर करवाएं ये 7 मेडिकल टेस्ट, कम होगा बीमारियों का खतरा

जो महिलाएं शादी नहीं करतीं या तलाक अथवा पति की मृत्यु के कारण अकेली रह जाती हैं उन में उम्र बढ़ने पर अकेलेपन की भावना घर करने लगती है, क्योंकि जब तक वे 40 की होती हैं, उन के भाईबहनों, कजिंस और दोस्तों की शादियां हो जाती हैं और वे अपनेअपने परिवार में व्यस्त हो जाते हैं, जिस से वे एकदम अकेली पड़ जाती हैं. इस से उन में तनाव का स्तर बढ़ने लगता है, जो उन्हें कई बीमारियों का शिकार बना देता है. उन में वजन कम या अधिक होने, उच्च रक्त दाब, हृदय रोग, तंत्रिकातंत्र से संबंधित समस्याएं यहां तक कि कई प्रकार के कैंसर होने की आशंका तक बढ़ जाती है.

एकल जीवन बिता रही महिलाओं को अपनी सेहत का और अधिक खयाल रखना चाहिए. वे यह न सोचें कि हैल्थ चैकअप समय और पैसों की बरबादी है. चूंकि कई गंभीर बीमारियों के लक्षण प्रथम चरण में नजर नहीं आते, इसलिए मैडिकल टैस्ट जरूरी है ताकि बीमारी का पता चलने पर उस का समय रहते उपचार करा लिया जाए.

प्रमुख मैडिकल चैकअप

ओवेरियन सिस्ट टैस्ट: अगर आप को पेट के निचले हिस्से में दर्द हो या अनियमित मासिक धर्म हो अथवा मासिक धर्म के दौरान अत्यधिक ब्लीडिंग हो तो ओवेरियन सिस्ट का टैस्ट कराएं. अगर सामान्य पैल्विक परीक्षण के दौरान सिस्ट का पता चलता है, तो ऐब्डोमिनल अल्ट्रासाउंड किया जाता है. छोटे आकार के सिस्ट तो अपनेआप ठीक हो जाते हैं पर यदि ओवेरियन ग्रोथ या सिस्ट का आकार 1 इंच से बड़ा हो तो आप को ओवेरियन कैंसर होने की आशंका है. इस स्थिति में डाक्टर कुछ और टैस्ट कराने की सलाह देते हैं.

मैमोग्राम: यह महिलाओं के लिए सब से महत्त्वपूर्ण टैस्ट है. जब कैंसर हो जाने पर भी कोई बाहरी लक्षण दिखाई न दे तब यह टैस्ट कैंसर होने का पता लगा लेता है. क्लीनिकल ब्रैस्ट ऐग्जामिनेशन (सीबीई) किसी डाक्टर द्वारा किया जाने वाला ब्रैस्ट का फिजिकल ऐग्जामिनेशन है. इस में स्तनों के आकार में बदलाव जैसे गठान, निपल का मोटा हो जाना, दर्द, निपल से डिस्चार्ज बाहर आना और स्तनों की बनावट में किसी प्रकार के बदलाव की जांच की जाती है.

कितने अंतराल के बाद: सीबीई साल में 1 बार और मैमोग्राम 2 साल में 1 बार.

कोलैस्ट्रौल स्क्रीनिंग टैस्ट: कोलैस्ट्रौल एक तरह का फैटी ऐसिड होता है. यह जांच यह बताने के लिए जरूरी है कि आप के दिल की बीमारियों की चपेट में आने की कितनी संभावना है. कोलैस्ट्रौल 2 प्रकार के होते हैं-एचडीएल या हाई डैंसिटी लिपोप्रोटीन्स और एलडीएल या लो डैंसिटी लिपोप्रोटीन्स. इस टैस्ट में रक्त में दोनों के स्तर की जांच होती है.

कितने अंतराल के बाद: 3 वर्ष में 1 बार. लेकिन अगर जांच में यह बात सामने आती है कि आप के रक्त में कोलैस्ट्रौल का स्तर सामान्य से अधिक है या आप के परिवार में दिल की बीमारी का पारिवारिक इतिहास रहा है तो डाक्टर आप को हर 6 से 12 महीनों में यह जांच कराने की सलाह देते हैं.

ब्लड प्रैशर टैस्ट: नियमित रूप से ब्लड प्रैशर की जांच शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी है. अगर आप का ब्लड प्रैशर 90/140 से अधिक या कम है तो आप के दिल पर दबाव पड़ता है, जिस से ब्रेन स्ट्रोक, हार्ट अटैक और किडनी फेल होने की आशंका बढ़ जाती है.

कितने अंतराल के बाद: साल में 1 बार, लेकिन अगर आप का ब्लड प्रैशर सामान्य से अधिक या कम है तो डाक्टर आप को 6 महीने में 1 बार कराने की सलाह देंगे.

ब्लड शुगर टैस्ट और डायबिटीज स्क्रीनिंग: ब्लड शुगर टैस्ट में यूरिन की जांच कर रक्त में शुगर के स्तर का पता लगाया जाता है. डायबिटीज स्क्रीनिंग में शरीर के ग्लूकोज के अवशोषण की क्षमता की जांच की जाती है.

कितने अंतराल के बाद: 3 साल में 1 बार. पारिवारिक इतिहास होने पर प्रति वर्ष.

बोन डैंसिटी टैस्ट: बोन डैंसिटी टैस्ट में एक विशेष प्रकार के ऐक्स रे के द्वारा स्पाइन, कलाइयों, कूल्हों की हड्डियों की डैंसिटी माप कर इन की शक्ति का पता लगाया जाता है ताकि हड्डियों के टूटने से पहले ही उन का उपचार किया जा सके.

कितने अंतराल में कराएं: हर 5 साल बाद.

पैप स्मियर टैस्ट: इस के द्वारा गर्भाशय के कैंसर की जांच की जाती है. अगर समय रहते इस के बारे में पता चल जाए तो इस का उपचार आसान हो जाता है. इस में योनि में एक यंत्र स्पैक्युलम डाल कर सर्विक्स की कुछ कोशिकाओं के नमूने लिए जाते हैं. इन कोशिकाओं की जांच की जाती है कि कहीं इन में कोई असमानता तो नहीं है.

कितने अंतराल के बाद: 3 साल में 1 बार.

– डा. नुपुर गुप्ता, कंसलटैंट ओस्टेट्रिशियन ऐंड गाइनोकोलौजिस्ट, निदेशक, लैव वूमन क्लीनिक, गुड़गांव   

Valentine’s Day 2024 : चार आंखों का खेल – क्या संध्या उसके खेल से बच पाई ?

चार आंखों का खेल मेरी नजर में दुनिया का सब से रोमांचक व खूबसूरत खेल है (कम से कम शुरू में तो ऐसा ही लगता है). इस खेल की सब से अच्छी बात यही है कि जो चार आंखें यह खेल खेलती हैं, इस खेलके बारे में बस उन्हीं को पता होता है. उन के आसपास रहने वालों को इस खेल का अंदाजा ही नहीं हो पाता है. मैं भी इस खेल में लगभग 1 साल पहले शामिल हुई थी. यहां मुंबई में जुलाई में बारिश का मौसम था. सोसायटी के गार्डन के ट्रैक पर फिसलने का डर था. वैसे मुझे बाहर सड़कों पर सैर करना अच्छा नहीं लगता. ट्रैफिक, स्कूलबसों के हौर्न का शोर, भीड़भाड़ से दूर मुझे अपनी सोसायटी के शांत गार्डन में सैर करना ही अच्छा लगता.

हां, तो बारिश के ही एक दिन मैं घर से 20 मिनट दूर एक दूसरे बड़े गार्डन में सैर के लिए जा रही थी. वहीं सड़क पर वह अपने बेटे को साइकिल चलाना सिखा रहा था. हम दोनों ने अचानक एकदूसरे को देखा. पहली बार आंखों से आंखें मिलते ही जो होना था, हो चुका था. यह शायद आंखों का ही दोष है. किसी की आंखों से किसी की आंखें मिल जाएं, तो फिर उस का कोई इलाज नहीं रहता. शायद इसी का नाम चार आंखों का खेल है.

हां, तो जब हम दोनों ने एकदूसरे को देखा तो कुछ हुआ. क्या, यह बताना उस पल का वर्णन करना, उस एहसास को शब्दों का रूप देना मुश्किल है. हां, इतना याद रहा कि उस पूरा दिन मैं चहकती रही, न घर आते हुए बसों के हौर्न बुरे लग रहे थे, न सड़क पर कुछ शोर सुनाई दे रहा था. सुबह के 7 बजे मैं हवा में उड़ती, चहकती घर लौट आई थी.

मेरे पति निखिल 9 बजे औफिस निकलते हैं. 22 वर्षीय बेटी कोमल कालेज के लिए 8 बजे निकलती है. मैं रोज की तरह कोमल को आवाज दे कर किचन संभालने में व्यस्त हो गई. दोनों के जाने के बाद मैं दिन भर एक अलग ही उत्साह में घिरी रही. अगले दिन भी मैं सैर करने के लिए फिर बाहर ही गई. वह फिर उसी जगह अपने बेटे को साइकिल चलाना सिखा रहा था. हमारी आंखें फिर मिलीं, तनमन एक पुलक से भरते चले गए. फिर अगले 3-4 दिन मेरे सामने यह स्पष्ट हो गया कि उसे भी मेरा इंतजार रहता है. वह बारबार मुड़ कर उसी तरफ देखता है जहां से मैं उस रोड पर आती हूं. मैं ने उसे दूर से ही बारबार देखते देख लिया था.

चार आंखों का खेल बहुत ही खूबसूरती से शुरू हो गया था. दोनों खिलाड़ी शायद हर सुबह का बेचैनी से इंतजार करने लगे थे. मैं संडे को सैर पर कभी नहीं जाती थी, ब्रेक लेती थी, पर अब मैं संडे को भी जाने लगी तो निखिल ने टोका, ‘‘अरे, संध्या कहां…?’’

‘‘सैर पर,’’ मैं ने कहा.

‘‘पर आज तो संडे है?’’

‘‘आंख खुल गई है, तो चली ही जाती हूं. तुम आराम करो, मैं अभी आई,’’ कह मैं तेज कदमों से भागी सी उस रोड पर चली जा रही थी. देखा, आज उस का बेटा नहीं था. सोचा संडे है, सो रहा होगा. आज वह अपनी पत्नी के साथ सैर कर रहा था. मैं ने गौर से उस की पत्नी को देखा. मुझे वह अच्छी लगी, काफी सुंदर व स्मार्ट थी. उस ने मुझे देखा, पत्नी की नजरें बचा कर आज पहली बार वह मुसकरा भी दिया तो मुझे लगा संडे को आना जैसे सार्थक हो गया.

अब कुछ तो जरूर था हम दोनों के बीच जिस ने मुझे काफी बदल दिया था. सुबह के इंतजार में मैं पूरा दिन, शाम, रात बिताने लगी थी. 10 दिन में ही मैं कितना बदल गई थी. पूरा दिन यह एहसास कि रोज सुबह इस उम्र में भी कोई आप का इंतजार कर रहा होगा, इतना ही बहुत है रोमांचित होने के लिए.

धीरेधीरे 1 महीना बीत गया. इस खेल के दोनों खिलाड़ी मुंह से कभी एक शब्द नहीं बोले थे. आंखें ही पूछती थीं, आंखें ही जवाब देती थीं.

एक दिन निखिल ने पूछा भी, ‘‘आजकल सोसायटी के गार्डन नहीं जा रही हो?’’

‘‘नहीं, फिसलने का डर रहता है.’’

‘‘पर तुम्हें तो सैर के समय बाहर का शोर अच्छा नहीं लगता?’’

‘‘हां, पर अब ठीक लग रहा है,’’ कहते हुए मन में थोड़ा अपराधबोध सा तो महसूस हुआ पर चूंकि इस खेल में मजा आने लगा था, इसलिए सिर झटक कर अगली सुबह का इंतजार करने लगी.

बारिश का मौसम खत्म हो गया था, पर मैं अब भी बाहर ही जा रही थी. अक्तूबर शुरू हो गया था. चार आंखों का खेल अब और भी रोमांचक हो चुका था. मैं उसे सिर्फ देखने के लिए बाहर का शोरगुल पसंद न होते हुए भी बाहर भागी चली जाती थी, पहले से ज्यादा तैयार, संजसंवर कर. नईनई टीशर्ट्स, ट्रैक पैंट में, स्टाइलिश शूज में, अपने शोल्डरकट बालों को कभी खुला छोड़ कर, कभी पोनीटेल बना कर, बढि़या परफ्यूम लगा कर षोडशी सी महसूस करती हुई भागी चली जाती थी. सैर तो हमेशा करती आई थी पर इतनी दिलकश सैर पहले कभी नहीं थी.

उस से आंखें मिलते ही कितने सवाल होते थे, आंखें ही जवाब देती थीं. कभी छुट्टी वाले दिन देर से जाने पर कभी अस्वस्थता के कारण नागा होता था, तो उस की आंखें एक शिकायत करती थीं, जिस का जवाब मैं आंखों में ही मुसकरा कर दे देती थी. कभी वह नहीं देखता था तो मैं उसे घूरती थी, वह भी मुसकरा देता था फिर. अजीब सा खेल था, बात करने की जरूरत ही नहीं थी. सुबह से देखने के बाद एक जादुई एहसास से घिरी रहती थी मैं. दिन भर न किसी बात पर गुस्सा आता था, न किसी बात से चिढ़ होती थी. शांत, खुश, मुसकराते हुए अपने घर के  काम निबटाती रहती थी.

निखिल हैरान थे. एक दिन कहने लगे, ‘‘अब तो बारिश भी गई, अब भी बाहर सैर करोगी?’’

‘‘हां, ज्यादा अच्छी और लंबी सैर हो जाती है, सालों से गार्डन में ही सैर कर के ऊब गई हूं.’’

‘‘ठीक है, जहां तुम्हें अच्छा लगे,’’ निखिल भी सैर पर जाते थे, पर जब मैं आ जाती थी, तब.

फिर कमरदर्द से संबंधित शारीरिक अस्वस्थता के कारण मुझे परेशानी होने लगी थी. सुबह 20 मिनट जाना, 20 मिनट आना, फिर आते ही नाश्ता, दोनों के टिफिन, मेरी परेशानी बढ़ रही थी. पहले मैं आधे घंटे में घर आ जाती थी. डाक्टर ने कुछ दिन सैर करने का समय कम करने के लिए कहा तो मैं बेचैन हो गई. मेरे तो रातदिन आजकल उसे सुबह देखने से जुड़े थे. उसे देखने का मतलब था सुबह उठ कर 20 मिनट चल कर जाना, 20 मिनट आना, 40 मिनट तो लगने ही थे. अपनी अस्वस्थता से मैं थकने लगी थी.

अब वहां जाने का नागा होने लगा था, क्योंकि आते ही किचन में मुझे 1 घंटा लगता ही था. मैं अब इतनी देर एकसाथ काम करती तो पूरा दिन मेरी तकलीफ बढ़ी रहती. अब क्या करूं? इतने दिनों से जो एक षोडशी की तरह उत्साहित, रोमांचित महसूस कर रही हूं, अब क्या होगा? सब छूट जाएगा?

निखिल परेशान थे, मुझे समझा रहे थे, ‘‘इतने सालों से यहीं सैर कर रही हो न. अब सुबह सैर पर मत जाओ, तुम्हें और भी काम होते हैं. शाम को फ्री रहती हो, आराम से उस समय सैर पर चली जाया करो. सुबह सब एकसाथ करती हो तो तुम्हारी तकलीफ बढ़ जाती है.’’

डाक्टर ने भी निखिल की बात पर सहमति जताई थी. पर मैं नहीं मानी. एक अजीब सी मनोदशा थी मेरी. शारीरिक रूप से आराम की जरूरत थी पर दिल को आराम उसे देखने से ही मिलता था. मैं उसे देखने के लिए बाहर जाती रही. पर अब नागे बहुत होते थे.

उस का बेटा अब तक साइकिल सीख चुका था. अब वह अकेला ही वहां दिखता था. चार आंखों का खेल जारी था. अपनी हैल्थ की चिंता न करते हुए मैं बाहर ही जाती रही.

पहली जनवरी की सुबह पहली बार उस ने मेरे पास से गुजरते हुए ‘हैप्पी न्यू ईयर’ बोला. मैं ने भी अपने कदम धीरे करते हुए ‘थैंक्स, सेम टू यू’ कहा, इतने दिनों के खेल में शब्दों ने पहली बार भाग लिया था. मन मयूर प्रफुल्लित हो कर नाच उठा.

अब मेरी तबीयत खराब भी रहती तो मैं निखिल और कोमल से छिपा लेती. दोनों के जाने के बाद दर्द से बेहाल हो कर घंटो बैड पर लेटी रहती. कोमल बेटी है, बिना बताए भी चेहरा देख कर मेरे दर्द का अंदाजा उसे हो जाता था, तो कहती थी, ‘‘मौम, आप को स्ट्रैस लेने से मना किया है डाक्टर ने. आप मौर्निंग वाक पर नहीं जाएंगी, अब आप शाम की सैर पर ही जाना.’’

पर मैं नहीं मानी, क्योंकि मैं तो दुनिया के सब से दिलकश खेल की खिलाड़ी थी.

मई का महीना आया तो मेरे मन की उथलपुथल बढ़ गई. मई में मैं ने हमेशा शाम की ही सैर की थी. मुझे जरा भी गरमी बरदाश्त नहीं है. 8-10 दिन तो मैं गई. मुंबई की चिपचिपी गरमी से सुबह ही बेहाल, पसीनेपसीने लौटती. आ कर कभी नीबू पानी पीती, तो कभी आते ही एसी में बैठ जाती पर कितनी देर बैठ सकती थी. किचन के काम तो सब से जरूरी थे सुबह.

इस गरमी ने तो मेरे मन के भाव ही बदल दिए. इस बार की गरमी तो इस चार आंखों के खेल का सब से महत्त्वपूर्ण पड़ाव बन कर सामने आई. बहुत कोशिश करने पर भी मैं गरमी में सुबह सैर पर रोज नहीं जा पाई. छुट्टी वाले दिन चली जाती, क्योंकि जब आते ही किचन में नहीं जाना पड़ता था. उसे देखने के मोह पर गरमी की तपिश भारी पड़ने लगी थी. पसीना पोंछती जाती. उसे देख कर जब वापस आती, तब यह सोचती कि नहीं, अब नहीं जाऊंगी. बहुत गरमी है. मैं कोई षोडशी थोड़े ही हूं कि अपने किसी आशिक को देखने सुबहसुबह भागी जाऊं. अरे, मैं एक मैच्योर औरत हूं, पति है, बेटी है और इतने महीनों से हासिल क्या हुआ? न मुझे उस से कोई अफेयर चलाना है, न मतलब रखना है किसी तरह का. जो हुआ, बस हो गया. इस का कोई महत्त्व थोड़े ही है. जैसेजैसे गरमी बढ़ रही थी, मेरी अक्ल ठिकाने आ रही थी.

सारा उत्साह, रोमांच हवा हो रहा था. गरमी, कमरदर्द और सुबह के कामों ने मिल कर मुझे इस खेल में धराशायी कर दिया था. दिल तो अब भी वहीं उसी पार्क के रोड पर जाने के लिए उकसाता था पर दिमाग अब दिल पर हावी होने लगा था.

मन में कहीं कुछ टूटा तो था पर खुद को समझा लिया था कि ठीक है, लाइफ है, होता है ऐसा कभीकभी. यह उम्र, यह समय, ये जिम्मेदारियां शायद इस खेल के लिए नहीं हैं.

चार आंखों के इस खेल में मैं ने अपनी हार स्वीकार ली थी और पहले की तरह अपनी सोसायटी के गार्डन में ही शाम की सैर पर जाना शुरू कर दिया था.

Valentine’s Day 2024 : आखिरी टैलीग्राम – शादी के बाद क्या तनु अपने प्रेमी से मिल पाई ?

प्लेन से मुंबई से दिल्ली तक के सफर में थकान जैसा तो कुछ नहीं था पर मां के ‘थोड़ा आराम कर ले,’ कहने पर मैं फ्रैश हो कर मां के ही बैडरूम में आ कर लेट गई. भैयाभाभी औफिस में थे. मां घर की मेड श्यामा को किचन में कुछ निर्देश दे रही थीं. कल पिताजी की बरसी है. हर साल मैं मां की इच्छानुसार उन के पास जरूर आती हूं. मैं 5 साल की ही थी जब पिताजी की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. भैया उस समय 10 साल के थे. मां टीचर थीं. अब रिटायर हो चुकी हैं. 25 सालों के अपने वैवाहिक जीवन में मैं सुरभि और सार्थक के जन्म के समय ही नहीं आ पाई हूं पर बाकी समय हर साल आती रही हूं. विपिन मेरे सकुशल पहुंचने की खबर ले चुके थे. बच्चों से भी बात हो चुकी थी.

मैं चुपचाप लेटी कल होने वाले हवन, भैयाभाभी और अपने इकलौते भतीजे यश के बारे में सोच ही रही थी कि तभी मां की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, ‘‘ले तनु, कुछ खा ले.’’ पीछेपीछे श्यामा मुसकराती हुई ट्रे ले कर हाजिर हुई.

 

मैं ने कहा, ‘‘मां, इतना सब?’’ ‘‘अरे, सफर से आई है, घर के काम निबटाने में पता नहीं कुछ खा कर चली होगी या नहीं.’’

मैं हंस पड़ी, ‘‘मांएं ऐसी ही होती हैं, मैं जानती हूं मां. अच्छाभला नाश्ता कर के निकली थी और प्लेन में कौफी भी पी थी.’’ मां ने एक परांठा और दही प्लेट में रख कर मुझे पकड़ा दिया, साथ में हलवा.

मायके आते ही एक मैच्योर स्त्री भी चंचल तरुणी में बदल जाती है. अत: मैं ने भी ठुनकते हुए कहा, ‘‘नहीं, मैं इतना नहीं खाऊंगी और हलवा तो बिलकुल भी नहीं.’’ मां ने प्यार भरे स्वर में कहा, ‘‘यह डाइटिंग मुंबई में ही करना, मेरे सामने नहीं चलेगी. खा ले मेरी बिटिया.’’

‘‘अच्छा ठीक है, अपना नाश्ता भी ले आओ आप.’’

‘‘हां, मैं लाती हूं,’’ कह कर श्यामा चली गई. हम दोनों ने साथ नाश्ता किया. भैयाभाभी रात तक ही आने वाले थे. मैं ने कहा, ‘‘कल के लिए कुछ सामान लाना है क्या?’’

‘‘नहीं, संडे को ही अनिल ने सारी तैयारी कर ली थी. तू थोड़ा आराम कर. मैं जरा श्यामा से कुछ काम करवा लूं.’’

दोपहर तक यश भी आ कर मुझ से लिपट गया. मेरे इस इकलौते भतीजे को मुझ से बहुत लगाव है. मेरे मायके में गिनेचुने लोग ही तो हैं. सब से मुधर स्वभाव के कारण घर में एक स्नेहपूर्ण माहौल रहता है. जब आती हूं अच्छा लगता है. 3 बजे तक का टाइम कब कट गया पता ही नहीं चला. यश कोचिंग चला गया तो मैं भी मां के पास ही लेट गई. मां दोपहर में थोड़ा सोती हैं. मुझे नींद नहीं आई तो मैं उठ कर ड्राइंगरूम में आ कर सोफे पर बैठ कर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगी. इतने में डोरबैल बजी. मैं ने ही दरवाजा खोला, श्यामा पास में ही रहती है. वह दोपहर में घर चली जाती है. शाम को फिर आ जाती है.

पोस्टमैन था. टैलीग्राम था. मैं ने उलटापलटा. टैलीग्राम मेरे नाम था. प्रेषक के नाम पर नजर पड़ते ही मुझे हैरत का एक तेज झटका लगा. मेरी हथेलियां पसीने से भीग उठीं. अनिरुद्ध. मैं टैलीग्राम ले कर सोफे पर धंस गई. हमेशा की तरह कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया था अनिरुद्ध ने, ‘‘तुम इस समय यहीं होगी, जानता हूं. अगर ठीक समझो तो संपर्क करना.’’

पता नहीं कैसे मेरी आंखें मिश्रित भावों की नमी से भरती चली गई थीं. ओह अनिरुद्ध. तुम्हें आज 25 साल बाद भी याद है मेरे पिताजी की बरसी. और यह टैलीग्राम. 3 दिन बाद 164 साल पुरानी टैलीग्राम सेवा बंद होने वाली है. अनिरुद्ध के पास यही एक रास्ता था आखिरी बार मुझ तक पहुंचने का. मेरा मोबाइल नंबर उस के पास है नहीं, न मेरा मुंबई का पता है उस के पास. तब यहां उन दिनों घर में भी फोन नहीं था. बस यही आखिरी तरीका उसे सूझा होगा. उसे यह हमेशा से पता था कि पिताजी की बरसी पर मैं कहीं भी रहूं, मां और भैया के पास जरूर आऊंगी और उस की यह कोशिश मेरे दिल के कोनेकोने को उस की मीठी सी याद से भरती जा रही थी. अनिरुद्ध… मेरा पहला प्यार एक सुगंधित पुष्प की तरह ही तो था. एक पूरा कालखंड ही बीत गया अनिरुद्ध से मिले. वयसंधि पर खड़ी थी तब मैं जब पहली बार मन में प्यार की कोंपल फूटी थी. यह वही नाम था जिस की आवाज कानों में उतरने के साथ ही जेठ की दोपहर में वसंत का एहसास कराने लगती. तब लगता था यदि परम आनंद कहीं है तो बस उन पलो में सिमटा हुआ जो हमारे एकांत के हमसफर होते, पर कालेज के दिनों में ऐसे पल हम दोनों को मुश्किल से ही मिलते थे. होते भी तो संकोच, संस्कार और डर में लिपटे हुए कि कहीं कोई

देख न ले. नौकरी मिलते ही उस पर घर में विवाह का दबाव बना तो उस ने मेरे बारे में अपने परिवार को बताया. फिर वही हुआ जिस का डर था. उस के अतिपुरातनपंथी परिवार में हंगामा खड़ा हो गया और फिर प्यार हार गया था. परंपराओं के आगे, सामाजिक नियमों के आगे, बुजुर्गों के आदेश के आगे मुंह सिला खड़ा रह गया था. प्यार क्या योजना बना कर जातिधर्म परख कर किया जाता है या किया जा सकता है? और बस हम दोनों ने ही एकदूसरे को भविष्य की शुभकामनाएं दे कर भरे मन से विदा ले ली थी. यही समझा लिया था मन को कि प्यार में पाना जरूरी भी नहीं, पृथ्वीआकाश कहां मिलते हैं भला. सच्चा प्यार तो शरीर से ऊपर मन से जुड़ता है. बस, हम जुदा भर हुए थे.

उस की विरह में मेरी आंखों से बहे अनगिनत आंसू बाबुल के घर से विदाई के आंसुओं में गिन लिए गए थे. मैं इस अध्याय को वहीं समाप्त समझ पति के घर आ गई थी. लेकिन आज उसी बंद अध्याय के पन्ने फिर से खुलने के लिए मेरे सम्मुख फड़फड़ा रहे थे. टैलीग्राम पर उस का पता लिखा हुआ था, वह यहीं दिल्ली में ही है. क्या उस से मिल लूं? देखूं तो कैसा है? उस के परिवार से भी मिल लूं. पर यह मुलाकात हमारे शांतसुखी वैवाहिक जीवन में हलचल तो नहीं मचा देगी? दिल उस से मिलने के लिए उकसा रहा था, दिमाग कह रहा था पीछे मुड़ कर देखना ठीक नहीं रहेगा. मन तो हो रहा था, देखूंमिलूं उस से, 25 साल बाद कैसा लगता होगा. पूछूं ये साल कैसे रहे, क्याक्या किया, अपने बारे में भी बताऊं. फिर अचानक पता नहीं क्या मन में आया मैं चुपचाप स्टोररूम में चली गई. वहां काफी नीचे दबा अपना एक बौक्स उठाया. मेरा यह बौक्स सालों से यहीं पड़ा है. इसे कभी किसी ने नहीं छेड़ा. मैं ने बौक्स खोला, उस में एक और डब्बा था.

सामने अनिरुद्ध के कुछ पुराने पीले पड़ चुके, भावनाओं की स्याही में लिपटे खतों का 1-1 पन्ना पुरानी यादों को आंखों के सामने एक खूबसूरत तसवीर की तरह ला रहा था. न जाने कितनी भावनाओं का लेखाजोखा इन खतों में था. मुझे अचानक महसूस हुआ आजकल के प्रेमियों के लिए तो मोबाइल ने कई विकल्प खोल दिए हैं. फेसबुक ने तो अपनों को छोड़ कर अनजान रिश्तों को जोड़ दिया है.

सारा सामान अपनी गोद में फैलाए मैं अनगिनत यादों की गिरफ्त में बैठी थी जहां कुछ भी बनावटी नहीं होता था. शब्दों का जादू और भावों का सम्मोहन लिए ये खत मन में उतर जाते थे. हर शब्द में लिखने वाले की मौजूदगी महसूस होती थी. अनिरुद्ध ने एक पेपर पर लिखा था, ‘‘खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वाकी धार. जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार.’’

मेरे होंठों पर एक मुसकराहट आ गई. आजकल के बच्चे इन शब्दों की गहराई नहीं समझ पाएंगे. वे तो अपने प्रिय को मनाने के लिए सिर्फ एक आई लव यू स्माइली का सहारा ले कर बात कर लेते हैं. अनिरुद्ध खत में न कभी अपना नाम लिखता था न मेरा, इसी वजह से मैं इन्हें संभाल कर रख सकी थी. अनिरुद्ध की दी हुई कई चीजें मेरे सामने पड़ी थीं. उस का दिया हुआ एक पैन, उस का पीला पड़ चुका एक सफेद रूमाल जो उस ने मुझे बारिश में भीगे हुए चेहरे को साफ करने के लिए दिया था. मुझे दिए गए उस के लिखे क्लास के कुछ नोट्स, कई बार तो वह ऐसे ही कोई कागज पकड़ा देता था जिस पर कोई बहुत ही सुंदर शेर लिखा होता था.

स्टोररूम के ठंडेठंडे फर्श पर बैठ कर मैं उस के खत उलटपुलट रही थी और अब यह अंतिम टैलीग्राम. बहुत सी मीठी, अच्छी, मधुर यादों से भरे रिश्ते की मिठास से भरा, मैं इसे हमेशा संभाल कर रखूंगी पर कहां रख पाऊंगी भला, किसी ने देख लिया तो क्या समझा पाऊंगी कुछ? नहीं. फिर वैसे भी मेरे वर्तमान में अतीत के इस अध्याय की न जरूरत है, न जगह. फिर पता नहीं मेरे मन में क्या आया कि मैं ने अंतिम टैलीग्राम को आखिरी बार भरी आंखों से निहार कर उस के टुकड़ेटुकड़े कर दिए. मुझे उसे कहीं रखने की जरूरत नहीं है. मेरे मन में इस टैलीग्राम में बसी भावनाओं की खुशबू जो बस गई है. अब इसी खुशबू में भीगी फिरती रहूंगी जीवन भर. वह मुझे भूला नहीं है, मेरे लिए यह एहसास कोई ग्लानि नहीं है, प्यार है, खुशी है.

Valentine’s Day 2024 : प्यार का रंग – राशि के बौयफ्रैंड ने क्यों गिरगिट की तरह बदला रंग ?

जब राशि की आंखें खुलीं तो उस ने खुद को अस्पताल के बैड पर पाया. उसे शरीर में कमजोरी महसूस हो रही थी. इसलिए उस ने फिर आंखें मूंद लीं. जब उस ने अपने दिमाग पर जोर डाला तो उसे याद आया कि उस ने तो नींद की गोलियां खा कर अपनी जीवनलीला समाप्त करने की कोशिश की थी, लेकिन वह बच कैसे गई. तभी किसी की पदचाप से उस की तंद्रा भंग हुई. उस के सामने डाक्टर रंजना खड़ी थीं.

‘‘अब कैसी हो तुम?’’ वे उस का चैकअप करते हुए उस से पूछ बैठीं.

‘‘ठीक हूं डाक्टर,’’ वह धीमे स्वर में बोली.

फिर डाक्टर रंजना सामने खड़ी नर्स को कुछ हिदायतें दे कर चली गईं. लेकिन राशि न चाहते हुए भी अतीत के सागर में गोते खाने लगी और रोहन को याद कर के फूटफूट कर रो पड़ी. थोड़ी देर रो लेने के बाद उस का जी हलका हुआ और वह न चाहते हुए भी फिर से यादों के मकड़जाल में उलझ कर रह गई. फिर उसे अपने कालेज के मस्ती भरे दिन याद आने लगे जब वह और उस के 2 दोस्त रोहन और कपिल कालेज में मस्ती करते थे. रोहन मध्यवर्गीय परिवार का सुंदर नौजवान था और कपिल रईस परिवार का गोलमटोल युवक था. ‘मुझ से शादी करेगी तो मुनाफे में रहेगी,’ कपिल उसे अकसर छेड़ते हुए कहता, ‘मैं गोलू हूं तो क्या हुआ? पर देख लेना, जिस दिन तूने इस रिश्ते के लिए हामी भर दी, उस दिन से मेरी डाइटिंग चालू हो जाएगी.’

‘यह मुंह और मसूर की दाल,’ राशि कपिल का मजाक उड़ाते हुए कहती, ‘मैं अर्धांगिनी बनूंगी तो सिर्फ रोहन की, क्योंकि मेरे मन में तो उसी की तसवीर बसी हुई है.’ फिर मजाकमजाक में सभी जोर से हंस देते. पर कालेज खत्म होने के बाद राशि और रोहन अपने रिश्ते को ले कर काफी संजीदा हो उठे थे. लेकिन शादी से पहले जरूरी था कि रोहन अपने पैरों पर खड़ा हो जाए ताकि वह राशि का हाथ मांग सके. वैसे रोहन आगे बढ़ने के लिए हाथपांव तो मार रहा था, पर उसे सफलता नहीं मिल पा रही थी. सरकारी जौब पाने के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करना बहुत जरूरी था. अब 3 बहनों के इकलौते भाई के पास इतनी जमापूंजी तो थी नहीं कि वह प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए अच्छी कोचिंग ले पाता. वैसे उस के पापा अपने स्तर पर उस की मदद को तो तत्पर रहते थे, पर बढ़ती महंगाई ने उन के हाथ बांध रखे थे.

तब ऐसे में राशि ने ही रोहन की मदद का बीड़ा उठा लिया था. वैसे तो राशि भी आगे पढ़ना चाहती थी और आगे बढ़ना चाहती थी पर रोहन की मदद के बाद इतना नहीं बच पाता था कि वह खुद भी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर सके. फिर उस ने खुद से समझौता कर लिया था और अपना कैरियर दांव पर लगाते हुए रोहन की सहायता करना उस ने अपना लक्ष्य बना लिया था. ‘तुम से यों हर वक्त पैसे लेना अखरता है मुझे, पर क्या करूं विवश हूं,’ रोहन अकसर उस से भरे मन से कहता. ‘तुम में और मुझ में कुछ फर्क है क्या?’ फिर वह उस की गले में बांह डालती हुई कहती, ‘जब अपना सारा जीवन ही तुम्हारे नाम कर दिया है तो अपने और पराए का फर्क बचा ही कहां है?’

फिर धीरेधीरे समय का पहिया घूमा. इधर संघर्षरत रोहन को सफलता मिली तो उधर कपिल अपने पापा के बिजनैस में सैटल हो गया. जब रोहन को पुणे की एक जानीमानी कंपनी में जौब मिली, तब सब से ज्यादा खुश राशि ही थी, जिस ने इस दिन के लिए न जाने कितने पापड़ बेले थे. उस ने न सिर्फ आर्थिक रूप से बल्कि हर तरह से रोहन की मदद की थी. जब रोहन पढ़ता तो वह सारी रात जाग कर उस का हौसला बढ़ाती. वह हमेशा अपने रोहन की सफलता की कामना करती थी. इसीलिए उसे जैसे ही पता चला कि रोहन की जौब लग गई है, वह बहुत खुश हो गई. रोहन को सामने देख खुशी के अतिरेक में मानो उस के तो होंठ सिल ही गए थे और आंखों से निरंतर आंसू बह रहे थे.

‘पगली, अब तो तेरे खुश होने का समय है,’’ रोहन शरारती अंदाज में बोला तो राशि शर्म से पानीपानी हो गई. तब उस ने आत्मसमर्पण सा कर दिया था. उस ने अपना सिर उस के कंधे से टिका दिया था. जिस दिन रोहन पुणे के लिए गया, उस दिन भी कमोबेश उस की यही स्थिति थी. अपनी मम्मी से कह कर उस ने रोहन के लिए नमकीन, अचार, हलवा और न जाने क्याक्या पैक करवा डाला था. ‘अरी, कम से कम यह तो बता कि इतना सब किस के लिए पैक करवा रही है,’ उस की मां सामान पैक करते वक्त लगातार उस से पूछती रहीं, पर वह जवाब में मंदमंद मुसकराती रही. ‘रोहन, यह सब सिर्फ तुम्हारे लिए है. अगर दोस्तों में बांटा तो मुझ से बुरा कोई नही होगा,’ राशि खाने के सामान से भरा बैग उसे थमाते हुए बोली थी.

‘जानेमन, तुम फिक्र न करो. यह बंदा ही सिर्फ इस सामान को खाएगा,’ फिर रोहन ने वह बैग राशि से ले कर अपने सामान के साथ रख लिया था. ‘मम्मीपापा से मिलने कब आओगे,’ लाख चाहते हुए भी राशि अपनी अधीरता उस से छिपा नहीं पाई थी. ‘पगली, पहले वहां जा कर सैटल तो होने दे मुझे. बस, फिर तुरंत आ कर तुझे तेरे परिवार से मांग लूंगा,’ फिर उस ने आगे बढ़ कर उस का माथा चूमते हुए कहा था, ‘बस, यह समझ ले कि मेरा तन पुणे जा रहा है, मन तो तेरे पास ही है, उस की हिफाजत करना.’ फिर ट्रेन चली गई थी और रोहन भी. तब वह न जाने कितनी देर स्टेशन पर ही खड़ी रह गई थी. जब तक ट्रेन उस की आंखों से पूरी तरह ओझल नहीं हो गई थी.

अब तो उस का किसी भी काम में मन नहीं लगता था. इधर वह रोहन की दुलहन का सपना अपनी आंखों में संजोए उस का बेसब्री से इंतजार कर रही थी तो उधर रोहन अब उस से कन्नी काटने लगा था. धीरेधीरे बढ़ रही उस की बेरुखी राशि को तोड़ने लगी थी. ऐसे में उस ने पुणे जा कर सारी बात जानने का मन बनाया. पर उस के जाने से पहले ही उसे माही मिल गई थी, जिस का चचेरा भाई संयोगवश रोहन की कंपनी में ही काम करता था. ‘अरे यार, तू जिस के साथ शादी कर सैटल होने का मन बना रही है, वह तो दगाबाज निकला. रोहन तो अब अपनी कंपनी के सीईओ की बेटी से इश्क फरमाने में लगा है. आखिर अपने परिवार की गरीबी दूर करने का इस से बढि़या विकल्प क्या होगा?’ फिर माही तो चली गई, लेकिन राशि… वह तो मानो दुख के सागर में डूबती चली गई. जिस पेड़ की शाखा के सहारे वह इस जिंदगी के सागर को पार लगाने की आस में थी, वह शाखा इतनी कच्ची निकलेगी, इस का उसे अंदाजा ही नहीं था.

वह क्या करे? इसी ऊहापोह में करीब एक महीना गुजर गया. इस बीच न तो उस ने रोहन से बात की और न ही रोहन का कोई फोन आया. तब फिर एक दिन जब वह अपने दिल से हार गई, तब उस ने ही उसे फोन लगाया.

‘हैलो, रोहन, कैसे हो?’

‘ठीक हूं.’

‘और तुम कैसी हो?’

‘मैं भी ठीक हूं.’

‘अच्छा रोहन, तुम दिल्ली कब आ रहे हो,’ राशि न चाहते हुए भी उस से पूछ बैठी. ‘‘अभी तो फिलहाल दिल्ली आने का कोई प्रोग्राम नहीं है, क्योंकि मैं तो अपना सारा परिवार यहां पुणे में शिफ्ट करने की सोच रहा हूं,’ इतना कह कर उस ने फोन काट दिया. रोहन ने तो उस से दोटूक बात कर के अपनी जिम्मेदारी से, अपने प्यार से मुंह मोड़ लिया, लेकिन खाली हाथ रह गई तो राशि. वह बहुत कोशिश करती थी, रोहन को भूलने की, पर उस का दिल हर समय उस की याद में ही धड़कता रहता था. सच, कितनी आसानी से रोहन ने उस से कह दिया कि वह अपना पूरा परिवार पुणे शिफ्ट करने की सोच रहा है, जबकि वह यह बात अच्छे से जानता है कि वह भी तो उस के परिवार का हिस्सा थी. रोहन के परिवार में शामिल होने के लिए ही तो उस ने इतने सारे यत्न किए थे. यहां तक कि अपना कैरियर भी दांव पर लगा दिया था, पर बदले में उसे क्या मिला?

वह फोन पर उस से यह सब कहना चाहती थी, पर चाह कर भी उसे फोन नहीं मिला पाई. रोहन जैसा मौकापरस्त इंसान अब उस की नफरत के काबिल भी नहीं था. रोहन की बेवफाई ने उसे भीतर तक तोड़ दिया था. तब उस ने खुद को आगे की पढ़ाई में झोंक दिया. हर समय हंसनेखिलखिलाने वाली राशि चुप्पी के खोल में सिमट कर रह गई थी. उस की यह खामोशी उस के मम्मीपापा के लिए भी कम दुखदाई नहीं थी, पर मौके की नजाकत को देखते हुए वे चुप ही रहते थे.

अपने दुख को दबाना जब राशि के लिए असहनीय हो गया, तब उस ने एक दिन नींद की ढेर सारी गोलियां खा कर अपना जीवन समाप्त करने की कोशिश की. लेकिन शायद अभी उसे और जीना था इसलिए बच गई. ‘‘बेटी, कैसी है तू अब?’’ मां की प्यार भरी आवाज सुन कर उस की तंद्रा भंग हो गई और वह अतीत से वर्तमान में लौट आई थी. जब मां का आत्मीयता भरा स्पर्श उसे अपने माथे पर महसूस हुआ तो वह सिसक पड़ी. ‘‘मेरी बेटी इतनी कमजोर निकलेगी, मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था,’’ मां के स्वर में तड़प का पुट था.

मां की यह बात उसे चुभ गई थी. अब उस ने रोतेरोते सारी बातें अपनी मां को बता दी थीं. सबकुछ जानने के बाद उस की मां का भी दिल भर आया था. फिर वे प्यार से उसे समझाते हुए बोलीं, ‘‘मैं मानती हूं कि जो कुछ भी तेरे साथ हुआ वह गलत था, पर बेटी, किसी मौकापरस्त इंसान के लिए अपना जीवन समाप्त करना भी तो समझदारी नहीं है. तुझे तो यह सोचना चाहिए कि तू ऐसे खुदगर्ज इंसान से बच गई जो सिर्फ अपने को ही महत्त्व देता है.’’ मां की प्यार भरी बातों ने उस के रिसते घाव पर मरहम का काम किया था. फिर वह हलके मन से सामने रखा सूप पीने लगी थी. तभी अचानक मां उस से बोलीं, ‘‘बेटा, एक बात कहूं?’’

‘‘हां, कहो न मां.’’

‘‘देख बेटी, पुरानी बातों को छोड़ कर आगे बढ़ने में ही समझदारी है. इस से पुरानी बातों का दंश कम हो जाता है.’’

‘‘वह तो ठीक है, पर…’’

‘‘अब परवर कुछ नहीं. बस, यह समझ ले कि एक बार तूने सूरत के आधार पर अपने जीवन का फैसला लिया था, अब तू सीरत को आधार बना कर आगे बढ़ जा.’’

‘‘लेकिन आप कहना क्या चाह रही हैं, मैं समझी नहीं,’’ राशि सूप का खाली कप अपनी मां को थमाते हुए बोली. ‘‘अरे, मैं तो उसी कपिल की बात कर रही हूं, जिसे तू गोलू कह कर छेड़ती थी,’’ मां फिर से संजीदा हो उठी थीं, ‘‘पता है, जब मैं ने तुझे बेहोश देखा, तब मैं समझ नहीं पाई थी कि क्या करूं? पहले तेरे पापा को फोन लगाया, लेकिन उन का फोन स्विच औफ जा रहा था. तब मैं ने परेशान हो कर तेरे एकदो दोस्तों को फोन लगाया. वे सभी पुलिस केस के डर से कन्नी काट गए. ‘‘फिर मैं ने गोलू को फोन लगाया. मेरे फोन करते ही वह तुरंत मेरे पास पहुंच गया. उस ने उस समय न सिर्फ तुझे संभाला बल्कि मुझे भी हिम्म्मत दी. अब बता, जो इंसान तेरी बेरुखी के बावजूद सिर्फ इंसानियत के नाते तेरी मदद को आगे आया, वह इंसान तारीफ के काबिल है या नहीं…’’

‘‘पर मां, अब तो शादी के नाम से ही नफरत हो गई है मुझे…’’ इतना कहतेकहते राशि फिर से रो पड़ी.

‘‘बेटा, धोखा रोहन ने दिया है तो उस की करनी की सजा तू क्यों भुगते? किसी और की गलती का पश्चात्ताप तू क्यों करे?’’ मां के स्वर में चिंता का पुट था. फिर न जाने उस के मन में अचानक क्या आया? उस ने तुरंत हां में सिर हिला दिया. उस की हां मिलते ही गोलू और उस की मां अस्पताल जा पहुंचे. ‘‘देख लेना बेटा, मैं दुनिया की हर खुशी दूंगी तुझे. बस, तू जल्दी से ठीक हो जा. तुझे ही अपने कमरे का सारा डैकोरेशन करना होगा,’’ गोलू की मां उस का माथा चूमते हुए बोलीं. फिर वह और उस की मां कमरे से बाहर चली गईं. उन के जाने के बाद कपिल राशि से मिलने आया.

‘‘मैं तो मरमिटा हूं तेरी हां पर. मैं ने तो पहली नजर में ही तुझे अपना दिल दे दिया था, लेकिन वहां तो… चल छोड़ उन बेकार की बातों को.

‘‘पर अब जब हम दोनों ने एक होने का फैसला कर लिया है, तो आज से तेरे सारे गम मेरे और मेरी सारी खुशियां तेरी,’’ मोटू राशि का हाथ थामते हुए बोला. गोलू की इस अदा पर राशि फिदा हो गई. अब उसे अपनी मां की कही बातों का अर्थ समझ में आने लगा था. सच, कितना फर्क है रोहन और कपिल की सोच में. एक वह निर्मोही रोहन है, जो अपनी मौकापरस्ती के कारण उसे लगभग भूल ही गया और दूसरी तरफ कपिल है, जो उस का झुकाव रोहन की तरफ होते हुए भी उसे अपना बनाने को तैयार है. सच में कपिल महान है जो इतना कुछ होने के बावजूद उस से सच्चा प्यार करता है. बस, कपिल की यही जिंदादिली भा गई थी उसे. उस का वर्तमान और भविष्य सुरक्षित रहेगा उस के साथ, इस की उम्मीद अब राशि के अंदर जाग चुकी थी. फिर अचानक ही कपिल उस से बोला, ‘‘थोड़े दिन बाद होली है. तुझे हमारे घर आना होगा, मेरे साथ होली खेलने,’’ कपिल उसे दोबारा बैड पर लिटाते हुए बोला.

‘‘हांहां, मैं जरूर आऊंगी,’’ राशि ने हां में अपना सिर हिला दिया.

‘‘यह हुई न बात, तो तू रंगेगी न, मेरे प्यार के रंग में?’’

‘‘हां, मेरे मोटू.’’ राशि के इतना कहते ही झट से मोटू ने एक प्यार भरा चुंबन उस के गाल पर अंकित किया और फिर शरमा कर बाहर निकल गया.

बलात्कार का आरोपी चिन्मयानंद अदालत से बाइज्जत रिहा हुआ

Swami Chinmayanand Rape Case : लौ छात्रा से बलात्कार के आरोपी संत और पूर्व केंद्रीय गृह राज्यमंत्री स्वामी चिन्मयानंद को एमपी-एमएलए कोर्ट ने दोषमुक्त कर ‘बाइज्जत’ बरी कर दिया. मामले के विवेचना अधिकारी कोर्ट के सामने पुख्ता साक्ष्य पेश नहीं कर सके, लिहाजा साक्ष्यों के अभाव का फायदा बलात्कार के आरोपी को मिला. पुख्ता साक्ष्य मिलता भी कैसे? सरकार स्वामीजी की, स्वामीजी सरकार के, पुलिस सरकार की और पीड़िता का मुंह तो डर, दबाव और पैसे से पहले ही बंद करवाया जा चुका है. मगर कोर्ट ने भी कुछ क्यों नहीं किया, यह सवाल है?

इस देश में साधु, महात्मा और स्वामी कहलाने वाले बड़ेबड़े लोग बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य कृत्यों के कारण जेल गए. कुछ छूट गए, कुछ छूटने की पूरी उम्मीद में हैं. छूट वे इसलिए जाते हैं क्योंकि सत्ता, नेता, पुलिस, अदालत और जनता सब उन की जेब में हैं.

इन चिन्मायनंद सरीखों को शर्म नहीं आती. अपनी गलीच करतूतों पर धर्म का परदा डाल कर ये रोज जनता को प्रवचन देने बैठ जाते हैं. और जनता निरी मूर्ख, इन के कुकृत्यों के वीडियो देख कर, इन के कुकर्मों को समाचारपत्रों और चैनलों पर देखपढ़ कर भी इन की भक्त बनी रहती है. ऐसे अनपढ़, मूर्ख और धर्म के आगे अंधे व बहरे हो चुके लोगों को अगर ये साधु-संन्यासी आराम से अपना शिकार बनाते हैं, उन की बहूबेटियों की इज्जत लूटते हैं और फिर कानून के शिकंजे से साफसुथरे बाहर निकल आते हैं तो दोष किस का है?

निसंदेह दोषी इस देश की जनता ही है. अंधभक्त लोगों को ये साधुसंत ही नहीं नोंच रहे, यही उन की बेटियों से रेप नहीं कर रहे बल्कि आज तो धर्म के नाम पर सत्ता भी यही सब कर रही है.

चिन्मयानंदों को उन के किसी कुकृत्य की सजा इसलिए नहीं मिलती क्योंकि अपने अंधभक्तों की बेशुमार संख्या दिखा कर वे सरकार को हमेशा अपने दबाव में रखते हैं. वोट खिसकाने की धमकी में लिए रहते हैं. इसलिए चिन्मयानंदों के कुकृत्यों के केस कमजोर करने और उन की रिहाई के लिए सरकार पुलिस व अदालत पर दबाव बनाती है.

अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए चिन्मयानंदों की जरूरत सरकार को बहुत ज़्यादा है, खासतौर पर दक्षिणपंथी सरकार को. सत्ता में बना रहना ही एकमात्र लक्ष्य है, उस के आगे औरत की इज्जत कोई माने नहीं रखती. ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के नारे लगाते रहो और बलात्कारी चिन्मयानंदों को जेल से निकलवाते रहो, उस के लिए चाहे गवाहों को खरीदना पड़े या पीड़ित को. चिन्मयानंदों के खिलाफ अदालतों में चल रहे मुकदमों को कमजोर करने के लिए सरकार किसी भी हद तक जा सकती है. धर्म को राजनीति का हथियार बनाने वाली मौजूदा सत्ताधारी पार्टी ऐसे चिन्मयानंदों के सहारे ही सत्ता में बनी रहेगी.

आसाराम और उस के बेटे नारायण साईं सहित उस के आश्रम के 8 लोगों के खिलाफ बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, अप्राकृतिक यौन अपराध, महिलाओं पर नाजायज बल का इस्तेमाल, धमकी, हत्या, बंधक बनाना जैसी धाराओं में केस दर्ज हुआ. सारे कुकृत्य इन संतों ने अपने आश्रमों में किए. आश्रमों में रहने वाली साध्वियों के साथ मुंह काला किया, आश्रम में अपने दुख ले कर आने वाली औरतों की इज्जत लूटी, मगर मूर्ख जनता आज भी इन आसारामों के गुणगान में लगी है. इन के आश्रम बदस्तूर चल रहे हैं. और धर्म की अंधी औरतें तो इन के आते ही इन के पैरों में लोटने लगती हैं. मूर्खता और अंधेपन की इस से बड़ी मिसाल कहीं नहीं मिलेगी.

डेरा सच्चा सौदा का बाबा रामरहीम अपने आश्रम में महिलाओं से बलात्कार करता रहा. उस पर ह्त्या का मामला भी दर्ज हुआ. मामला खुला तो पीड़ितों के दबाव में एफआईआर दर्ज हुई. उस को जेल भेजना पड़ा. मगर रामरहीम के लिए जेल तो जैसे एक पिकनिक स्पौट है, खानेखेलने की जगह. वह कुछ दिन अंदर रहता है, कुछ दिन पैरोल पर बाहर घूमता है. नेताओं से मिलता है. अपने भक्तों को दर्शन-प्रवचन देता है. आश्रम बदस्तूर चल रहा है. सत्ता को उस के अनुयायियों का पूरा सपोर्ट मिल रहा है. मूर्ख और अंधी जनता उस की भक्त बनी हुई है. उस को यह बलात्कारी अभी भी भगवान का अवतार नज़र आता है.

संत रामपाल के भी लाखों अनुयायी हैं. रामपाल पहले सिंचाई विभाग में इंजीनियर था. वहां बंधीबंधाई तनख्वाह मिलती थी. उस से संतोष नहीं हुआ तो बाबा बन कर कमाई करने लगा. धर्म के धंधे में उतारते ही करोड़ों की कमाई होने लगी. रामपाल के खिलाफ अवैध गर्भपात सैंटर खोलने, अनुयायी की हत्या करने, आश्रम में हथियार रखने और सरकारी काम में बाधा डालने जैसे कई जघन्य मामले दर्ज हैं. मगर जनता इस अपराधी के आगे अभी भी  नतमस्तक है.

नाचने वाले बाबा स्वामी नित्यानंद को कौन भूल सकता है? नित्यानंद भी स्वयंभू भगवान है. वह अपने भक्तों के सामने खुद को भगवान की तरह पेश करता था. नित्यानंद पर बच्चों का अपहरण करने और अपने शिष्यों के साथ दुष्कर्म करने के आरोप हैं. साल 2010 में उसे गिरफ्तार किया गया था, जिस के कुछ ही समय बाद ही उसे बेल मिल गई. इस के बाद नित्यानंद फरार हो गया. उस ने एक द्वीप पर अपना कब्जा जमाया और उसे एक देश घोषित कर दिया. इतना ही नहीं, नित्यानंद ने इस द्वीप के लिए पासपोर्ट भी जारी करने का दावा किया था. आखिर सरकार की मदद के बिना कोई देश छोड़ कर नए द्वीप पर कैसे जा सकता है?

खुद को इच्छाधारी बताने वाला बाबा भीमानंद राजधानी दिल्ली में हाईप्रोफाइल सैक्स रैकेट चलाता था. पूरी तरह ऐयाशी में डूबा रहने वाला भीमानंद कई नेताओं और अधिकारियों को लड़कियां सप्लाई करता था. फिलहाल जेल में है और उस के अंधभक्त उस के बाहर निकलने की राह देख रहे हैं.

आसाराम बापू, सच्चिदानंद गिरी, गुरमीत सिंह राम रहीम, स्वामी ओम, निर्मल बाबा, इच्छाधारी भीमानंद, स्वामी असीमानंद, नारायण सांई, संत रामपाल, आचार्य कुषमुनी, बृहस्पति गिरी, ओम नमः शिवाय बाबा, मलखान सिंह जैसे हत्या, बलात्कार, अवैध जमीनें और हथियार रखने के आरोपी बाबाओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है. इन की जगह सिर्फ जेल होनी चाहिए, मगर देश में इन के बड़ेबड़े लग्जरी आश्रम हैं, इन के पास अरबोंखरबों की संपत्तियां हैं. विदेशों में बड़ेबड़े आश्रम और जमीनें हैं. लाखों की भीड़ इन की अनुयायी है, सरकार और पुलिस इन की जेब में हैं, इसलिए इन्हें अपने कर्मों पर शर्म नहीं आती, बल्कि गर्व होता है.

लौ की छात्रा से बलात्कार का आरोपी स्वामी चिन्मयानंद जेल से बाहर आ कर गरजता है कि अगले 7 साल में मेरा लाड़ला देश का प्रधानमंत्री बनेगा, तो इशारा किस तरफ है और जेल से बाहर निकलने में किस स्तर पर जा कर उस को मदद पहुंचाई गई है, यह लिखने की जरूरत नहीं है. पीड़िता कहां है? चिन्मयानंद की रिहाई का उस पर क्या असर हुआ है? यह सब जानने की किसी को जरूरत नहीं है. अंधभक्त इस बात से खुश हैं कि बाबा पर ईश्वर की कृपा है. वे उन की जयजयकार में लगे हैं. इन अंधभक्तों में बहुत बड़ी संख्या औरतों की है. शर्मनाक !

बात 12 साल पहले की है. 30 नवंबर, 2011 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के मुमुक्षु आश्रम के अधिष्ठाता स्वामी चिन्मयानंद के खिलाफ उस की एक शिष्या ने चौक कोतवाली में दुष्कर्म का मुकदमा दर्ज कराया था. यह शिष्या चिन्मयानंद द्वारा संचालित एक लौ कालेज की स्टूडैंट थी. आरोप था कि चिन्मयानंद ने अपने कर्मचारियों की मदद से शिष्या को मुमुक्षु आश्रम में बंधक बना कर उस से कई बार बलात्कार किया.

बता दें कि चिन्मयानंद का असली नाम कृष्णपाल सिंह है. वह उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले का रहने वाला है. चिन्मयानंद का नाम राम मंदिर आंदोलन के बड़े नेताओं में शुमार था. वाजपेयी सरकार में वह केंद्रीय गृह राज्यमंत्री बनाया गया. चिन्मयानंद का शाहजहांपुर में आश्रम है और वहां वह एक लौ कालेज भी चलाता है. बलात्कार की शिकार लड़की उसी लौ कालेज की स्टूडैंट थी.

लड़की के पिता की तरफ से कोतवाली शाहजहांपुर में लड़की के अपहरण, बलात्कार और जान से मारने की धाराओं में केस दर्ज हुआ था और लड़की का बयान मजिस्ट्रेट के सामने कलमबद्ध किया गया था. यह भी बता दें कि इस से पहले चिन्मयानंद के आश्रम में रहने वाली एक साध्वी ने भी उस पर बलात्कार का केस दर्ज करवाया था.

स्वामी चिन्मयानन्द को पुलिस ने अरेस्ट कर जेल भेज दिया. जिन दिनों यह मामला उछला, सारे टीवी चैनलों में चिन्मयानन्द की क्लिप्स चलीं. गंदे और घिनौने वीडियोज आज भी यूट्यूब पर देखे जा सकते हैं. अखबारों में उस की तस्वीरें छपीं. जाहिर है, पीड़ित लड़की ने ही वे वीडियो बनाए थे. मामला तो दर्ज होना था. कुछ दिनों बाद पुलिस ने विवेचना कर के चिन्मयानंद के खिलाफ आरोपपत्र अदालत में दाखिल किया. मगर इस केस की विवेचना के दौरान पीड़ित लड़की को और पीड़ित किया गया. कहा गया कि उस ने चिन्मयानंद से एक बड़ी रकम की डिमांड की. उस ने चिन्मयानंद को बदनाम करने की नीयत से वीडियो मीडिया में लीक किए जबकि दोनों के संबंध सहमति से बने थे.

शर्म आनी चाहिए स्वामी चिन्मयानंद को अपनेआप को संत कहते हुए. पीड़ित लड़की ने कुछ भी किया हो मगर वीडियो तो चिन्मयानंद के ही थे जिस में उस की नग्नता साफ नजर आ रही थी.

खैर, आज पुख्ता सुबूतों के अभाव में चिन्मयानंद अदालत से बाइज्जत बरी हो चुका है. लोकसभा चुनाव से पहले स्वामी चिन्मयानंद को जेल से बाहर निकालना उत्तर प्रदेश सरकार से ले कर केंद्र सरकार तक के लिए जरूरी था क्योंकि रामलला के मंदिर के लिए लड़ाई लड़ने वालों में चिन्मयानन्द का नाम भी शामिल है. सम्मान-उपहार तो मिलना ही था.

दरअसल, 80 के दशक के आखिरी में जब देश में राम मंदिर आंदोलन जोर पकड़ रहा था तब इस आंदोलन में चिन्मयानंद ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था और भाजपा में शामिल हो कर अपने राजनीतिक सफर का भी आगाज किया था. श्रीराम जन्मभूमि न्यास के वरिष्ठ सदस्य डा. रामविलास वेदांती के मुताबिक, राम मंदिर आंदोलन में अनेक संत जुड़े थे. उन में से एक चिन्मयानंद भी था. आंदोलन के दौरान अयोध्या आनाजाना भी लगा रहा.

एक भाजपा नेता ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहा- मंदिर आंदोलन के समय चिन्मयानंद ने महंत अवैद्यनाथ (उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गुरु) के साथ मिल कर राम मंदिर मुक्ति यज्ञ समिति बनाई और इसी के जरिए ये लोग मंदिर आंदोलन में अहम भूमिका निभाने लगे.

बाद में दूसरे बड़े संत रामविलास वेदांती और रामचंद्र परमहंस समेत तमाम संतों को भी राम मंदिर आंदोलन से जोड़ लिया गया. 7 अक्टूबर, 1984 को चिन्मयानंद ने सरयू तट पर राम जन्मभूमि आंदोलन का संकल्प लिया. 19 जनवरी, 1986 को वह राम जन्मभूमि आंदोलन संघर्ष समिति के राष्ट्रीय संयोजक बना. 1989 में स्वामी निश्चलानंद के अधिष्ठाता पद छोड़ने के बाद चिन्मयानंद मुमुक्षु आश्रम आ गया.

80 के दशक में स्वामी धर्मानंद के बाद स्वामी चिन्मयानंद इस आश्रम और उस से जुड़े संस्थानों के प्रबंधन की जिम्मेदारी का निर्वहन करने लगा. चिन्मयानंद ने ही शाहजहांपुर में मुमुक्षु शिक्षा संकुल नाम से एक ट्रस्ट बनाया, जिस के जरिए कई शिक्षण संस्थानों का संचालन किया जाता है. इन में पब्लिक स्कूल से ले कर पोस्टग्रेजुएट स्तर के कालेज तक शामिल हैं. इस तरह कमाई के साथसाथ धर्म के प्रचारप्रसार के कई द्वार खुल गए.

राम मंदिर को करीब से जानने वाले वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक ब्रजेश शुक्ला कहते हैं कि राम मंदिर आंदोलन के दौरान चिन्मयानंद का शौक राजनीति के साथसाथ महिला संसर्ग का भी रहा. एक दिन यह ज़रा जोर से उछल गया.

आज चिन्मयानन्द के कई बड़े आश्रम हैं. हरिद्वार में भी एक आश्रम है. इन आश्रमों में महिला साध्वियों के साथ क्या हुआ और कालेज की छात्राओं को कैसे हवस का शिकार बनाया गया, ये बातें अब किसी से छिपी नहीं हैं. मगर ताज्जुब है कि इतने खुलासे के बाद भी औरतों को ऐसे घृणित किरदार के लोगों से नफरत नहीं होती. कानून अंधा हो, अदालत सुबूत मांगती हो लेकिन जिन लोगों ने स्वामी चिन्मयानन्द के नंगे और अश्लील वीडियो देखे हैं क्या उन को यह मानने के लिए किसी सुबूत की जरूरत है कि यह कोई संत नहीं है?

तोंद निकल आई तो समझिए आप में पहले सा आकर्षण नहीं रहा

मोटापे का मतलब है शरीर में अतिरिक्त चरबी या फैट का जमा होना और यह चरबी शरीर पर बाहर दिखने के साथसाथ अंदरूनी हिस्सों को भी चपेट में ले लेती है. पसलियों के आसपास त्वचा एक इंच से ज़्यादा खिंचने लगे तो हम इसे बेली फैट या पेट की चरबी कहते हैं जो ठीक त्वचा के नीचे होती है. इस के अलावा यह हमारे अंदरूनी अंगों, लिवर, पैंक्रियाज और आंतों के इर्दगिर्द भी इकट्ठा होती है. महटीवीपूर्ण अंदरूनी अंगों के आसपास चरबी सेहत पर असर डाल सकती है. हालांकि, त्वचा की फैट के मुकाबले आंत पर चरबी ज्यादा तेजी से बनती है और ज्यादा तेजी से कम भी होती है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण यानी एनएफएचएस ने 2019-21 में पेट के मोटापे का आकलन किया. इस अध्ययन में देश में पेट के मोटापे की व्यापकता महिलाओं में 40 फीसदी और पुरुषों में 12 फीसदी पाई गई. निष्कर्षों से पता चलता है कि 30-49 वर्ष की आयु के बीच की 10 में से 5-6 महिलाएं पेट के मोटापे से ग्रस्त हैं. महिलाओं में पेट का मोटापा अधिक आयु वर्ग, शहरी निवासियों, धनी वर्गों और मांसाहारियों में ज्यादा है. ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह समस्या मौजूद है और यह समाज के निचले व मध्यम सामाजिक-आर्थिक वर्गों में ज्यादा है.

खतरे का संकेत है आदमियों का बढ़ता पेट

मोटापे का बढ़ना कई समस्याओं की आशंका को भी बढ़ा देता है. खानेपीने में कोताही से ले कर अनियमित दिनचर्या, दफ्तर या घर के लंबे सिटिंग औवर्स और बढ़ता सामाजिक व कामकाजी दबाव व तनाव आप को मोटापे की तरफ ले जा सकता है. उम्र का भी असर मोटापे पर पड़ता है. अकसर 40 साल के बाद पुरुषों की तोंद निकलनी शुरू होती है. यह सेहत के साथसाथ हर तरह से उन के व्यक्तित्व को बेढंगा बनाता है.

बढ़ा हुआ वजन केवल बाहरी शारीरिक स्थिति को ही असंतुलित नहीं करता, इस की वजह से पूरी सेहत असंतुलित हो सकती है. हर बढ़ते किलो के साथ व्यक्ति डायबिटीज, हाई ब्लडप्रैशर, ह्रदय रोग जैसी समस्याओं के और करीब पहुंच जाता है. शरीर में पूरे बढ़े हुए वजन की तुलना में पेट पर बढ़ा वजन अधिक चिंता का विषय हो सकता है.

यह कई बीमारियों की आशंका को बढ़ा सकता है, जैसे कार्डियोवैस्कुलर डिजीज, टाइप-2 डायबिटीज, कौलोरेक्टल कैंसर, स्लीप एप्निया, जोड़ों से संबंधित समस्याएं आदि. पेट पर इकट्ठी होने वाली चरबी जब त्वचा के नीचे महत्त्वपूर्ण अंगों के आसपास जमा होने लगती है तो यही अधिक नुकसान करती है. इस से उन अंगों पर दबाव बनने लगता है और उन की काम करने की क्षमता प्रभावित होने लगती है.

भारतीय पुरुषों के मामले में एक और चीज जो खतरा पैदा करती है वह है उन की लाइफस्टाइल. अधिकांश पुरुष अपने भोजन और निजी कामों, जैसे कपड़े धोने, घर की साफसफाई आदि के लिए घर की महिलाओं पर निर्भर रहते हैं. उन का ज्यादातर समय दफ्तर में लंबे समय तक बैठे रह कर काम करने में बीतता है. यदि वे फील्ड में काम करते हैं तो भी अपने खानपान को ले कर लापरवाही बरतते हैं.

दूसरी ओर शराब और सिगरेट के सेवन में भी वे आगे रहते हैं. देखा जाए तो हमारे समाज में महिलाओं के मोटापे को उन के अनाकर्षक होने से जोड़ा जाता है, इस वजह से वे इस तरफ ज्यादा सचेत रहती हैं. जबकि पुरुषों के लिए आकर्षक दिखने की कोई बाध्यता नहीं होती. पुरुष अकसर अपने बढ़ते पेट को नजरअंदाज करने लगते हैं और नतीजा घातक हो जाता है.

ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि अगर महिलाएं अधिक वसा वाला खाना खाती हैं तो पुरुषों के मुकाबले उन के पेट के आसपास चरबी जमा होने का खतरा ज्यादा होता है.

महिलाओं में 35 इंच से अधिक और पुरुषों में 40 इंच से अधिक कमर की माप खतरनाक स्थिति की शुरुआत को इंगित करती है. महिलाओं में अकसर प्रैगनैंसी के बाद पेट बढ़ जाता है जो स्वाभाविक है.

45 से 79 वर्ष की आयु की यूरोपीय महिलाओं पर किए गए एक बड़े अध्ययन में पाया गया कि जिन महिलाओं की कमर चौड़ी होती है उन में हृदय रोग विकसित होने का खतरा दोगुने से भी अधिक होता है. द न्यू इंग्लैंड जर्नल औफ मैडिसिन में प्रकाशित 350,000 से अधिक यूरोपीय पुरुषों और महिलाओं पर किए गए एक अध्ययन के अनुसार, अत्यधिक आंत वसा किसी के समय से पहले मरने के जोखिम को लगभग दोगुना कर सकती है.

आप पेट की चरबी से कैसे लड़ सकते हैं ?

सप्ताह में 5 दिन सिर्फ 30 मिनट से एक घंटे का व्यायाम करें और प्रतिदिन 8,000 से 10,000 कदम चलें, फर्क साफ नजर आएगा. एक अध्ययन में पाया गया कि जिन लोगों ने प्रति रात 6 से 7 घंटे की नींद ली उन में पेट की चरबी कम पाई गई.

तोंद के बढ़ने में आप का कैलोरी इनटेक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. आप पूरे दिन में कितनी कैलोरी लेते हैं और कितनी बर्न करते हैं, इस पर ही सारा समीकरण निर्भर करता है.

याद रखिए, वजन कम करने का मतलब कभी भी खाने से दूरी बना लेना या खाना छोड़ देना नहीं है. भूखे रहने से न केवल इम्यूनिटी पर बुरा असर पड़ सकता है बल्कि डायबिटीज होने की आशंका भी हो सकती है. इसलिए अपने भोजन को संतुलित बनाने पर ध्यान दें. इस के लिए अधिकतर प्लांट बेस्ड डाइट को चुनें. इन में मोटा अनाज, पत्तेदार सब्जियां, अनाज आदि को अपनाएं. कोशिश करें कि दिनभर कुछ न कुछ जंक या पैकेज्ड फूड खाने की आदत पर रोक लगे.

अल्कोहल, सौफ्ट ड्रिंक्स, बाजार के शरबत और कोल्ड ड्रिंक आदि से भी दूरी बनाएं. फिजिकल एक्टिविटी को अपने रूटीन में शामिल जरूर करें. रोजाना सिर्फ 15 मिनिट का ब्रिस्क वाक, साइक्लिंग या स्विमिंग और दूसरी एक्सरसाइज रोज करें.

उलझे धागे : दामिनी के गले की फांस क्या चीज बन रही थी ?

story in hindi

एक दिन की बात : श्रेया क्या अपनी जिंदगी से खुश थी ?

स्कूल बस का ड्राइवर बेसब्री से हौर्न बजाए जा रहा था. श्रेया अपने दोनों बच्चों को लगभग घसीटती हुई बस की ओर भागी कि अगर बस छूट गई तो फिर उन्हें स्कूल पहुंचाने का झंझट हो जाएगा. पल्लव स्कूटर से छोड़ भी आएंगे तो उस के लिए श्रेया को एक लंबा लैक्चर सुनना पड़ेगा, ‘थोड़ा जल्दी उठा करो. आखिर बस वाले को पैसे किस बात के लिए दिए जाते हैं.’

इस पर श्रेया चिढ़ कर मन ही मन बुदबुदाती कि क्या सारी जिम्मेदारी मेरी है? बच्चे हैं या आफत की पुडि़या? थोड़ी जल्दी उठ कर उन्हें तैयार करने में खुद मदद कर दें, यह होता नहीं.

किंतु आवाज श्रेया के गले में घुट कर ही रह जाती, क्योंकि उस समय ड्राइंगरूम में परिवार के अन्य सदस्य चाय की चुसकियां ले रहे होते. उन के हाथ में ताजा अखबार होती थी, सुर्खियों पर टीकाटिप्पणी चल रही होगी. उस के कुछ कहने पर सभी उसे कुछ ऐसी निगाहों से देखेंगे जैसे वह लंबी सजा काट कर घर लौटी हो. एकाध फिकरे भी कसे जाएंगे, जैसे ‘जब मालूम है कि बस पौने 7 बजे आती है तो साढ़े 6 बजे तक बच्चों को तैयार कर लिया जाए.’

लगभग दौड़ते हुए श्रेया ने सड़क पार की कि बस चली न जाए. बस ड्राइवर ने श्रेया, बिट्टू और चिंटी को देख लिया था. वह धीरे से मुसकराया, क्योंकि अकसर ऐसी स्थितियों का सामना उसे रोज ही करना पड़ता है. बस रुकी देख श्रेया की जान में जान आई.

उस का घर भी तो गली के आखिरी छोर पर है. सड़क से दूरी चौथाई किलोमीटर से कम न होगी. यह कालोनी नई ही बसी है, सो सड़क अभी कच्ची ही है. जगहजगह बालू, कंकरीट और ईंटें बिखरी पड़ी हैं.

‘‘देखो, टिफिन का खाना खा लेना. तुम दोनों ने दूध भी ठीक से नहीं पिया है,’’ श्रेया बच्चों को हिदायतें देती जा रही थी.

‘‘मैं यह खाना नहीं खाऊंगा. अंडा चाप, नूडल्स क्यों नहीं दिए?’’ बिट्टू बोला.

दोनों बच्चे ठुनक रहे थे. श्रेया को बिट्टू, चिंटी की बेमौके की इस जिद पर क्रोध आया और तरस भी.

‘‘नहीं, ऐसा नहीं कहते, खाओगे नहीं तो मजबूत कैसे बनोगे,’’ श्रेया बच्चों को मायूस नहीं करना चाहती थी.

‘‘अंकुर की मम्मी उसे टिफिन में रोजाना स्वादिष्ठ खाना देती है,’’ बिट्टू रोंआसा हो उठा.

‘‘तुम हमें वही सूखे टोस्ट और मक्खन दे देती हो.’’ चिंटी दुखी थी.

‘‘अच्छा, कल से मैं भी अच्छीअच्छी चीजें बना कर दिया करूंगी. आज टिफिन का खाना तुम लोग जरूर खा लेना,’’ श्रेया का स्वर भीग उठा. मां थी, बच्चों का दिल टूटता नहीं देख सकती थी, वह भी खानेपीने के प्रश्न पर.

‘‘अच्छा मम्मी, खा लेंगे.’’

‘‘प्रौमिस?’’

‘‘प्रौमिस.’’

एक अपना जमाना था, परांठे और अचार अम्मा दे देतीं, जो हम सभी चटखारे ले कर कितने स्वाद से खाते. इस के अलावा और कुछ चाहिए, यह कभी सोचा भी न था पर आज के बच्चे फास्ट फूड के दीवाने, अगड़मबगड़म सब खा लेंगे, लेकिन परांठा और पूरी देख कर मुंह ऐसा बनाएंगे जैसे यह जानवरों का भोजन हो. बित्तेभर के बच्चे हैं, किंतु खानेपीने की तालिका इतनी लंबी है कि कई नाम तो श्रेया को याद भी नहीं रहते.

आज वैसे भी देर हो चुकी थी, ‘बायबाय’ करते बच्चे बस में सवार हो गए.

स्कूली बच्चों से बस ठसाठस भरी थी. बस में जरूरत से ज्यादा बच्चे धक्कामुक्की कर रहे थे, पर उजड्ड खलासी बच्चों को भेड़बकरी की तरह ठूंस रहा था. उस ने चिंटी को हाथ पकड़ कर खींचा तो वह चीख पड़ी. तभी श्रेया यथासंभव अपना स्वर कोमल बनाते हुए बोली, ‘‘अरे, संभाल के भैया’’ वह जानती थी कि उस का जरा भी रूखापन इख्तियार करने का फल उस के मासूम बच्चों को भुगतना पड़ेगा.

‘‘एक तो देर से आते हो, उस पर नसीहतें देते हो. समय से क्यों नहीं आते?’’ खलासी ने बुरा सा मुंह बनाया और बस चल पड़ी. बच्चे अपनीअपनी मम्मियों तथा पहुंचाने वालों को हाथ हिलाते रहे.

‘‘हैलो, श्रेया,’’ मालती चहकी.

मालती की गहरी लिपस्टिक, लहराते कटे बाल व गुलाबी दुपट्टा इंद्रधनुषी छटा बिखेर रहे थे. कीमती पर्स कंधे पर झल रहा था. इतनी सुबह कैसे समय मिल जाता है. वह जब भी श्रेया को बसस्टौप पर मिली, ऐसी ही बनीठनी. न कोई हड़बड़ाहट न जल्दबाजी, जैसे किसी समारोह में जा रही हो.

‘‘हैलो, कैसी हैं?’’ श्रेया बोली, तभी उस का ध्यान अपनी मुड़ीतुड़ी साड़ी पर गया. कई जगहों पर हलदीमसाले के धब्बे, रूखे उलझे बाल, सूखे होंठ, सुबहसवेरे घड़ी के साथ काम निबटाने की विवशता, वह झेंप गई.

बसस्टौप पर आई महिलाओं के कदम धीरेधीरे अपनेअपने बसेरे की ओर बढ़ने लगे. वे एकदूसरे की कुशलक्षेम पूछ रही थीं. सजीधजी, ताजातरीन हमउम्र उन युवतियों को देख श्रेया संकोच से भर उठी कि आखिर उन का भी तो घरसंसार है, पति हैं, बच्चे हैं. फिर वे इस तरह निश्ंिचत कैसे हैं. एक वह है, काम कभी खत्म ही नहीं होता. सासुमां ठीक ही कहती हैं कि आजकल की लड़कियों में दमखम नहीं है. जरा सी देर में ही हांफ जाती हैं. जब अपने शरीर का ही काम नहीं होता तो घरगृहस्थी क्या संभालेंगी.

‘‘मैं आज 2 फिल्मों की कैसेट लाई हूं. वीसीआर पर देखूंगी. तुम भी आ जाना, गपशप करेंगे,’’ आरती अपना मुंह श्रेया के कान के निकट ले जा कर बोली, जैसे कोई राज की बात हो.

‘‘मैं और सिनेमा?’’ श्रेया जैसे सोते से जागी.

‘‘क्यों, बच्चे 3 बजे से पहले आने वाले नहीं हैं. पल्लव दफ्तर चले जाएंगे तो तुम दिनभर क्या करोगी? सोओगी ही न? आज जरा कम सो लेना,’’ आरती बोली, वह भी हार मानने वाली नहीं थी.

‘सोऊंगी और मैं? दोपहर में सोने की आदत तो उसी दिन छूट गई जिस दिन डोली में चढ़ कर मायके से विदा हुई,’ श्रेया ने सोचा, फिर बोली, ‘‘घर में बाकी लोग हैं. घरगृहस्थी के हजारों

काम हैं.’’

‘‘बाकी लोग और हजारों काम? अरे, ये सब करने के लिए तुम हो? पति दफ्तर, बच्चे स्कूल, फिर आजादी, अपना तो यही उसूल है,’’ आरती बेहयायी से श्रेया की आंखों में आंखें डाल कर बोल पड़ी.

फिर तो घरगृहस्थी, सासपुराण, बहुओं को सताए जाने की कल्पित और तथाकथित किस्से जो शुरू हुए तो उन की लपेट में बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ने आई सभी माताएं आ गईं.

श्रेया ने कुछ सुना, कुछ नहीं और लगभग दौड़ती सी घर भागी.

ससुरजी सुबह के भ्रमण से आ कर चाय के लिए श्रेया की राह देख रहे थे. उस ने घर में घुसते ही आंचल से सिर ढक कर उन के पैर छू लिए.

‘‘जीती रहो, बेटी. जरा चाय कड़क बनाना, कुछ सुस्ती सी है.’’

‘‘जी, पिताजी,’’ श्रेया ने हां में

सिर हिलाया.

‘‘बहू, जरा गरम पानी के साथ फंकी देना,’’ ददियासास उस के पैरों की आहट पहचान गईं तो वे भी बोल पड़ीं.

‘‘जी, दादीमां.’’

‘‘पूजाघर जल्दी साफ कर देना, मुझे सत्संग जाना है,’’ अंधविश्वासी सासुमां अपनी साडि़यों के ढेर में से सत्संग में पहनने के लिए सुंदर सी कोई साड़ी छांटती हुई बोलीं. धर्म के नाम पर किसी तरह की कोताही उन्हें पसंद न थी.

एकसाथ कई काम, श्रेया दादीमां को गरम पानी के साथ फंकी, ससुरजी को कड़क चाय दे कर शीघ्रता से पूजाघर साफ करने लगी. संगमरमर के बने पूजाघर में शायद ही कोईर् देवीदेवता हो जिस की मूर्ति न होगी. उन का बस चले तो आधा घर मंदिर बना दे और दिनरात घर में भजनकीर्तन चलता रहे.

पौधों में पानी दे कर वह दालचावल साफ करने लगी. सुबह का नाश्ता, दोपहर का भोजन, जितने सदस्य उतनी ही फरमाइशें.

‘‘श्रेया, श्रेया, एक कप चाय देना, चीनी जरा कम,’’ रसोईघर से लगे कमरे में पल्लव पता नहीं कब से श्रेया के फुरसत में होने का इंतजार कर रहा था.

श्रेया ने सवालिया नजरों से पल्लव की ओर देखा और बोली, ‘‘चाय तो मैं कमरे में दे आई थी.’’

‘‘उस से बात कुछ बनी नहीं, ठंडी हो गई थी न,’’ पल्लव ने चिरौरी की, ‘‘प्लीज, एक कप…’’

‘‘हांहां, जरूर.’’

श्रेया ने चाय का पानी चढ़ा दिया.

ददियासास, ससुर, सासुमां, पति, देवर चंदर, छोटी ननद मंदा और नन्हे बच्चे, परिवार के जितने सदस्य, उतनी ही उन की रुचि का नाश्ता, खाना. श्रेया उन के स्वभाव और खानपान की आदतों से पूरी तरह परिचित हो गई है.

‘‘आज ऐसे ही दफ्तर चला जाता हूं,’’ पल्लव चाय का जूठा प्याला सिंक में रखते हुए बोला.

‘‘कैसे?’’

‘‘ऐसे ही,’’ कहते हुए पल्लव दाहिने हाथ से अपनी दाढ़ी सहला रहा था.

श्रेया को हंसी आ गई. वह पल्लव का इशारा समझ कर शेविंग किट लेने भागी. फिर कप में गरम पानी और शेविंग का सामान पल्लव को थमा कर रसोई की ओर दौड़ी.

उस ने अभी परांठे बनाना शुरू ही किया था कि पल्लव की चीखती आवाज कानों में पड़ी, ‘‘मेरी जुराबें कहां हैं? सूट भी निकाल दो. अरे, जल्दी करो भई.’’ श्रेया तुरंत ही बैडरूम की ओर लपकी, जहां पल्लव सिर्फ तौलिया लपेटे उस की प्रतीक्षा कर रहा था.

‘‘आज मेरी विशेष मीटिंग है. मेरे कपड़े कहां हैं, लाओ. तैयार हैं न? मैं ने तुम्हें 3 दिन पहले ही बता दिया था. जल्दी करो, भई.’’

सच, श्रेया तो भूल ही गई थी. उसे जरा सा भी याद नहीं रहा कि आज पल्लव को मीटिंग में जाना है, सो उस की विशेष पोशाक वह तैयार कर के रखे. सहम कर उस ने दांतों से अपनी जीभ दबाई, क्योंकि अपनी याद्दाश्त को कोसने का अर्थ था, पल्लव से तूतू मैंमैं.

‘‘अभी देती हूं,’’ कह कर वह कपड़ों की अलमारी की ओर दौड़ी. किसी तरह उस ने स्थिति को संभाला. पल्लव उस की नादानी समझ पाए या नहीं, यह तो वही जाने पर श्रेया अपनी गलती छिपाने में कामयाब रही.

‘‘भाभी, नाश्ता…’’ चंदर ने कहा.

‘‘देती हूं,’’ श्रेया पल्लव के जूते का फीता बांध कर रसोईघर की ओर लौटी.

‘‘भाभी, कुछ याद है,’’ चंदर नाश्ते की प्लेट ले कर धीरे से बोला.

‘‘क्यों? कुछ और लोगे?’’ श्रेया अनजान बनी रही.

‘‘भाभी, पहले कहा तो था, आज पार्टी…’’ आगे के शब्द चंदर परांठे के साथ चबा गया ताकि कोई सुन न ले. यह उस की खास बात थी, जिसे उसे भाभी के साथ ही शेयर करना था.

‘‘ओह, अच्छा,’’ कहते हुए श्रेया ने मसाले के डब्बे के नीचे से 50 रुपए का नोट निकाल कर चंदर को पकड़ाया.

‘‘ओह, मेरी प्यारी भाभी,’’ चंदर करारा नोट पा कर खुशी से नाचता चला गया.

पल्लव घर खर्च के लिए अपने वेतन का बड़ा हिस्सा मां के हाथों में देता है. किंतु कुछ रुपए वह हर महीने श्रेया का भी उस के निजी खर्च के लिए जरूर देता है. श्रेया का अपना खर्च तो क्या है, किंतु देवर, ननद की इस तरह की जरूरतें वह जरूर पूरा करती थी.

आज भी चंदर के किसी दोस्त का जन्मदिन था. चंदर पिछले 4 दिन से भाभी की खुशामद कर रहा था. वह जानता था कि हर बार की तरह इस बार भी उस की प्यारी भाभी उस का मान अवश्य रख लेंगी और हुआ भी यही.

पल्लव ने नाश्ता कर के, टिफिन ले कर कार्यालय के लिए प्रस्थान किया तब तक साढ़े 9 बज चुके थे.

बाबूजी स्नानध्यान कर के खाने की मेज पर बैठ चुके थे. वे नाश्ते में दूध और दलिया खाते हैं.

‘‘भाभी, मेरा पीला दुपट्टा नहीं मिल रहा है,’’ मंदा का तेज स्वर गूंजा.

‘‘पीला नहीं मिल रहा है तो लाल ओढ़ लो. तुम्हारे पास दुपट्टे और ड्रैसों की कमी है क्या,’ पर चाह कर भी श्रेया प्रतिवाद न कर सकी और बोली, ‘‘वहीं रखा होगा.’’

‘‘वहीं कहां. प्लीज भाभी, ढूंढ़ने में मेरी मदद करो, नहीं तो आज मुझे फिर देर हो जाएगी. पहला पीरियड छूट जाएगा,’’ मंदा का चीखना जारी था.

पहले पीरियड की इतनी चिंता क्यों है, श्रेया सब समझती है, पहला पीरियड इंग्लिश का है और इंग्लिश पढ़ाने वाला हैंडसम प्रोफैसर पढ़ाता कम है, मंदा की आंखों में झंकता ज्यादा है. उसे प्रभावित करने के लिए उस के पीरियड में मंदा का साजसज्जा और वस्त्रों पर विशेष ध्यान रहता है.

प्रोफैसर वाली बात श्रेया को मंदा ने ही बताई थी, ‘सच भाभी, तुम देखोगी तो बस, देखती ही रह जाओगी,’ कहते हुए मंदा की आंखों में एकसाथ हजारों सपने उतर आए थे.

‘देख मंदा, तेरी यह उम्र पढ़नेलिखने की है, आंखें चार करने की नहीं. वह तेरा प्रोफैसर है, शिक्षक है, पूज्य है,’ श्रेया और भी कुछ कहती उस से पर मंदा ने श्रेया के होंठों पर हाथ रख कर उस को बोलने से रोकते हुए कहा, ‘चाहे जो हो, भाभी, वह है बहुत स्मार्ट. तुम नहीं जानतीं, रोज एक से बढ़ कर एक नई ड्रैस पहनता है. इतनी मीठी आवाज है, ऐसा पढ़ाता है जैसे कहीं सितार बज रहा हो. कालेज की सभी लड़कियां उस पर मरती हैं, लेकिन वह सिर्फ मेरी ओर ही देखता है.’

मंदा खुद से बोले जा रही थी, ‘अगर यही हाल रहा तो सितार बजे न बजे, तेरा बाजा जरूर बज जाएगा, फिर मुझे कुछ न कहना,’ यह सुन कर श्रेया हंस पड़ी तो मंदा भाभी के गले लग शरमा गई थी.

इन सभी का यही प्यार, विश्वास, सम्मान श्रेया को हिम्मत देता था. घर के प्रत्येक सदस्य उस पर निर्भर से थे. वह सभी की राजदार थी.

‘‘अरे, यह लो अपना पीला दुपट्टा,’’ कपड़ों के ढेर से पीला दुपट्टा झंक रहा था, उसे देखते ही श्रेया बोली.

‘‘सच भाभी, तुम्हारी आंखें हैं या एक्सरे मशीन, झट से खोज डाला.’’

श्रेया सोचने लगी, ‘कितनी सुंदर है मंदा. इस के भैया से बात करनी होगी कि इस की शादी की चिंता करें, नहीं तो यह हाथ से निकल जाएगी. आज प्रोफैसर के पीछे दीवानी है, कल कोई इस के पीछे परवाना होगा. यह इस उम्र का दोष है,’ मंदा की खूबसूरती और रूपसज्जा देख श्रेया सचेत हो उठी.

वह भी तो कभी पल्लव की इसी तरह दीवानी थी. तभी तो सारी सुखसुविधाएं छोड़ कर वह इस मध्यवर्गीय परिवार में बहू बन कर आई. आज भी इस घर के प्रत्येक सदस्य से तालमेल बिठाना वह अपना कर्तव्य समझती है. यह उस के लिए खुशी की बात है कि उस के विरोध के बावजूद उस के मातापिता को उस के दृढ़निश्चय और निश्च्छल प्रेम के आगे झकना पड़ा था.

‘किंतु, क्या मंदा और प्रोफैसर एक हो पाएंगे,’ इस उधेड़बुन में श्रेया घर के काम निबटाती रही. खातेपीते, घर व्यवस्थित करतेकरते बच्चों का स्कूल से आने का समय भी हो गया.

श्रेया बसस्टौप की ओर चली. बिट्टू, चिंटी के सुर्ख मुखड़े देख उसे बच्चों पर प्यार उमड़ आया, क्योंकि सुबह उन्होंने दूध भी ठीक से नहीं पिया था. टिफिन में भी उन की पसंद का खाना वह नहीं दे पाई थी.

वह भी क्या करे, सुबह 5 बजे उठती है, नल से पानी भरती, चायनाश्ता बनाती है. आज उठने में ही थोड़ी देर हो गई थी. सुबह का आधा घंटा देर होने का अर्थ है कई कामों का उलटपुलट होना. आज भी यही हुआ. श्रेया ने बच्चों का बस्ता ले लिया. बिट्टू, चिंटी आगेआगे चलते हुए घर में घुसे.

‘‘मटरपुलाव,’’ अपना मनपसंद भोजन देख वे चहके.

फिर उन की ड्रैस बदलती, सारे दिन का हाल पूछती श्रेया सारी थकान भूल गई.

‘‘ओह, 4 बज गए,’’ श्रेया ने घड़ी की ओर नजर दौड़ा कर कहा और चाय बनाने चल दी. बच्चों को दूध, बड़ों को चाय ले कर यह सोच वह शाम के नाश्ते और खाने की तैयारी में जुट गईर् कि पल्लव आते ही होंगे.

रात का खाना निबटा और रसोईघर संभाल कर श्रेया जब अपने शयनकक्ष में पहुंची तो बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे. उन के मासूम चेहरे पर भोली मुसकान छाई हुई थी. उस ने दोनों बच्चों को प्यार किया, फिर सिर के नीचे तकिया लगाया. श्रेया की दिनचर्या छुट्टी के घंटों जैसी थी, 5 मिनट भी इधरउधर हुए नहीं कि कोई न कोई गड़बड़ी अवश्यंभावी है.

उस ने हसरतभरी नजरों से पल्लव की ओर देखा कि जनाब सो रहे होंगे, फिर बोली, ‘‘मजे तो इन के हैं. जल्दी सोओ, देर से जागो.’’

‘‘बहुत थक गई हो,’’ पल्लव का प्यारभरा स्वर सुन उस के अंदर कुछ पिघलने सा लगा.

‘‘अरे, जाग रहे हो,’’ श्रेया भौचक थी.

‘‘हां, तुम मां और मंदा को रसोई में क्यों नहीं लगातीं? जब तुम ब्याह कर नहीं आई थीं तो वे घर का सारा काम करती थीं या नहीं?’’ पल्लव कुछ ज्यादा ही चिंतित था.

‘‘यह आज तुम्हें हो क्या गया है?’’ श्रेया बोली, वह कुछ समझ नहीं पा रही थी.

‘‘तुम सुबह से मशीन की तरह खटती रहती हो. मां और मंदा हाथ बंटाएंगी तो तुम पर इतना बोझ नहीं पड़ेगा,’’ पल्लव सचमुच गंभीर था.

‘‘मेरे लिए इतनी चिंता?’’ श्रेया पलकें झपकाना भूल गई.

‘‘हां, तुम्हारे लिए. मैं कई दिनों से देख रहा हूं, तुम्हारी व्यस्तता बढ़ती ही जा रही है.’’

‘‘अब मांजी कितने दिनों तक काम करेंगी और मंदा कल को ससुराल चली जाएगी. वहां तो उसे घरगृहस्थी में जुटना ही होगा. फिर यहां तो संभालना मुझे ही है. हां, चंदर की कहीं नौकरी लग जाए तो देवरानी जरूर हाथ बंटाएगी. मैं इंतजार करूंगी,’’ कहते हुए श्रेया हंस पड़ी.

‘‘मजाक नहीं, श्रेया हम एक नौकर रख लेंगे. मैं ने तुम्हें दिल की रानी बनाया है, नौकरानी नहीं,’’ पल्लव का प्यारभरा स्वर सुन कर तो श्रेया का तनमन सराबोर हो गया.

‘‘नौकर रखेंगे जब रखेंगे, अभी तो सो जाएं.’’

दिनभर की थकीमांदी श्रेया नरम, गुदगुदे बिस्तर पर लेटते ही उबासी

लेने लगी.

भरीपूरी गृहस्थी, इतना प्यार करने वाला पति, सासुमां, ससुरजी का स्नेह, देवर का विश्वास, ननद का सखी सा अपनापन, प्यारेप्यारे बच्चे. इन के लिए भागदौड़ करने में जो आनंद है, संपूर्णता का जो एहसास है, इसे पल्लव क्या समझेंगे.

पल्लव की मजबूत बांहों में वह कब खर्राटें भरने लगी, उसे क्या पता.

‘अब कोई व्यवस्था करनी ही होगी,’ श्रेया के शिथिल तन को निहारते हुए पल्लव बुदबुदा उठा.

गली के मोड़ पर दरवाजा : शिखा ने ऐसा क्या कहा कि घर में गहरा सन्नाटा पसर गया ?

दिल के कहीं किसी कोने में कुछ दरकता सा महसूस हुआ. न जाने क्यों शिखा का मन जारजार रोने को कर रहा था पर उस के शिक्षित और सभ्य मन ने उसे डांट कर सख्ती से रोक लिया.

कितनी आसानी से हिमांशु ने कह दिया था, ‘तुम भी न, क्या ले कर बैठ गई हो, क्या फर्क पड़ता है, तुम्हें कौन सा रहना है उस घर में, ईंट और गारे से बने उस निर्जीव से घर के लिए इतना मोह. अपने पापामम्मी को समझओ कि फालतू में मरम्मत के नाम पर पैसा बरबाद करने की जरूरत नहीं. आज नहीं तो कल उन्हें उस घर को छोड़ कर बेटों के पास जाना ही पड़ेगा.’

घर तो निर्जीव था, हिमांशु को क्या पता वह घर आज भी शिखा के तनमन में सांसें ले रहा था. पिछले साल की ही तो बात है, गरमी की छुट्टियों में शिखा को गांव वाले घर जाने का मौका मिला था. सच पूछो तो इस में नया क्या था, कुछ भी तो नहीं, साधारण सी तो बात थी पर न जाने क्यों जर्जर होती उस घर की दीवारों को देख कर मन कैसाकैसा हो गया था. आखिर उस घर में बचपन बीता था उस का. चिरपरिचित सी दीवारें, घर का एकएक कोना न जाने क्यों शिखा को अपरचितों की तरह देख रहा था.

घर में नाममात्र के पड़े हुए फर्नीचर पर हाथ फेरने के लिए बढ़ाया हुआ शिखा का हाथ न जाने क्या सोच कर रुक गया. यादों के सारे पन्ने एकएक कर खुलने लगे. याद है उसे आज भी वह दिन. शादी के बाद पहली बार वह मम्मीपापा के साथ रस्म अदायगी करने आई थी. लाल महावर से रचे शिखा के पैरों ने जब घर की चौखट पर कदम रखा तो लगा मानो घर का कोनाकोना उस का स्वागत कर रहा था.

शायद इंसानों की तरह घरों की भी उम्र होती है. यह वही घर है जहां कभी रिश्तों की खिलखिलाहट गूंजती थी. बच्चों की किलकारियों से घर मंदमंद मुसकराता था पर आज उस घर की दीवारों पर यहांवहां उखड़ा पेंट नजर आ रहा था. एक बार तो शिखा को ऐसा लगा मानो दीवारों पर उदास चेहरे उभर आए हों. घर के सामने खड़ा आम का विशाल पेड़ और उस की लंबीलंबी डालियों को देख कर आज भी उसे ऐसा लगा मानो वे गलबहियों के लिए तैयार हों. मां से छिप कर उस पेड़ की नर्म छांव में अपने भाइयों के साथ नमकमिर्च के साथ कितनी कैरियां खाई थीं उस ने.

पर पता नहीं क्यों आज उस की तरफ देखने का शिखा साहस नहीं कर सकी. शायद उस की आंखों में तैर आए मूक प्रश्नों को ?ोलने की शिखा में हिम्मत नहीं थी.

एकएक कर के उस घर के सारे परिंदे इस घोंसले को छोड़ कर नए घोंसलों में चले गए और यह घर चुपचाप जर्जर व उदास मन से उन्हें जाता देखता रहा. कल ही तो पापा का फोन आया था. पापा ने कितने उदास स्वर में कहा था. शिखा पीछे वाले अहाते की धरन टूट गई है, तेरी शादी के वक्त ही रंगरोगन करवाया था. तेरे भाइयों से कहा कि कुछ मदद कर दें तो वे अपना ही रोना ले कर बैठ गए. बेटा देखा नहीं जाता, तेरे बाबा और दादी की एक यही निशानी तो बची है.

क्या एक बार वह हिमांशु से बात कर के देखे पर हिमांशु के लिए तो यह सिर्फ निर्जीव और जर्जर मकान भर ही था. तो क्या मांजी? शायद वे जरूर सम?ोंगी, आखिर वे भी तो.

‘ये देखो महारानीजी को, उलटी गंगा बहाने चली हैं. लोगों के यहां समधियाने से सामान आता है और ये वहां भेजने की बात कर रही हैं.’

‘मांजी, मैं उस घर की बेटी हूं, मेरा भी तो कुछ फर्ज है.’

शिखा का मुंह उतर गया था. घर के लोग उसे अजीब निगाहों से देख रहे थे जैसे उस ने कोई अजूबी बात कह दी हो. हिमांशु ने उसे जलती निगाहों से देखा. शायद उस का पुरुषत्व बुरी तरह आहत हो गया था. कमरे में जब सारी बात हो चुकी थी, फिर घर वालों के सामने यह तमाशा करने की क्या जरूरत है. वह अपनी मां के बारे में अच्छी तरह जानता था. उन्हें तो मौका मिलना चाहिए. आज शिखा की खैर नहीं, मां उसे उधेड़ कर रख देगी. हुआ भी वही.

‘शिखा, लोगों के मायके से न जाने क्याक्या आता है पर हमारा ही समय खराब है कि सास बनने का सुख ही न जान सके. अरे भाई, मायके वाले कुछ दे न सके ठीक पर दहेज में संस्कार भी न दे सके.’

शिखा की आंखें डबडबा गईं. शादी होने को 20 साल हो गए पर दहेज और संस्कार का ताना आज भी उस का पीछा न छोड़ पा रहे थे. उस ने बड़ी उम्मीद से हिमांशु की तरफ देखा. हिमांशु ने वितृष्णा से मुंह फेर लिया.

हिमांशु घर में सब से छोटे थे. बड़े भाइयों की शादियां अच्छे परिवारों में हुई थीं. अच्छे मतलब शादी में गाड़ी भर कर दहेज मिला था. मांजी की नजर में अच्छे परिवार का मतलब यही था. मांजी के पास कभी त्योहार तो कभी शगुन के नाम पर उपहारस्वरूप कुछ न कुछ समधियाने से आता ही रहता था. शिखा एक मध्यवर्गीय परिवार की इकलौती लड़की थी. पिता ने अपनी हैसियत के अनुसार सबकुछ दिया था पर उस की जिंदगी मांजी की कसौटी पर कभी खरी न उतरी.

ऐसा नहीं था कि मांजी चांदी का चम्मच ले कर पैदा हुई हों. बचपन  से ले कर जवानी तक उन का जीवन संघर्षों में ही बीता था. पापाजी एक साधारण सी नौकरी ही करते थे पर बच्चों के चलते धन की वर्षा होने लगी. मांजी की तो मानो मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई. जो रिश्तेदार कब का उन से मुंह फेर चुके थे, एकएक कर जुड़ने लगे थे. मांजी भी उन पर खुलेहाथों से पैसा लुटातीं. शिखा ने कई बार दबे स्वर में हिमांशु से इस बात को कहा भी था कि इस तरह पैसा लुटाना कहां की समझदारी है पर मांजी के फैसले के विरुद्ध जाने की किसी की भी हिम्मत न थी.

‘शिखा, मां का जीवन सिर्फ संघर्ष में ही बीत गया. अगर उन्हें इन सब चीजों से खुशी मिलती है तो तुम्हें क्या दिक्कत है?’

‘दिक्कत, हिमांशु, बात दिक्कत की नहीं पर मांजी जिस तरह से…’

‘तुम फालतू का दिमाग मत लगाओ. अगर भैयाभाभी को दिक्कत नहीं तो तुम क्यों फुदक रही हो.’

शिखा हिमांशु को देखती रह गई. क्या कहती, दिक्कत तो सभी को थी पर मांजी से कहने की हिम्मत किसी की भी न थी. कितनी बार चौके में जेठानियों को कसमसाते देखा है.

पिछले साल मौसीजी के इलाज के लिए मांजी ने एक लाख रुपए दे दिए थे तो अभी पिछले महीने घर में काम करने वाली बाई की बिटिया की शादी के नाम पर 10 हजार रुपए और कपड़े, बरतन व न जाने क्याक्या दे दिया. कभी मंदिर तो कभी जागरण के नाम पर हर महीने कुछ न कुछ जाता ही रहता था. उन की मांगें सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही थीं.

एक दिन बड़े भैया ने दबे स्वर में कहा भी था, ‘मां, आप इस तरह से कभी सामान तो कभी पैसे बांटती रहती हो, कल अगर हमें जरूरत पड़ेगी तो क्या हमें कोई देगा?’

‘मैं ने लेने के लिए थोड़ी दिया है. तेरे पापा की कमाई से तो घर ही चल जाता, वही बड़ी बात थी पर अब जब प्रकृति ने दिया है तो फिर क्यों न करूं.’

शिखा को यह बात कभी समझ न आई कि जिन रिश्तेदारों ने कभी बुरे समय में उन का साथ तक न दिया, आज उन पर यों पैसे लुटाना कहां तक सही था. ‘‘शिखा, अपने कमरे में जाओ,’’ हिमांशु की आवाज सुन कर शिखा सोच की दलदल से बाहर निकल आई. पता नहीं क्यों एक अजीब सी जिद उस के मन में घर कर गई थी, आज वह बात कर के ही जाएगी.

‘‘मांजी, गांव वाला मकान जर्जर हो गया है, उस घर से मेरा बहुत जुड़ाव है. बाबादादी की आखिरी निशानी है वह.’’

‘‘तो?’’ मांजी ने बड़े तल्ख स्वर में कहा.

शिखा अपनेआप को मजबूती से बांधे खड़ी हुई थी. हिमांशु हमेशा की तरह उसे अकेला छोड़ अपने परिवार के साथ खड़े थे. इन बीते सालों में शिखा इतना तो समझ ही चुकी थी कि आज वह खुद के लिए खड़ी नहीं हुई तो कोई भी उस के लिए खड़ा न होगा. वैसे भी, अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होती है. जानती थी वह कि यहां जो होगा, सो होगा. बंद कमरे में चारदीवारी के बीच महीनों तक शिखा और हिमांशु के मध्य एक शीत युद्ध भी चलता रहेगा पर आज नहीं तो शायद वह कभी भी न कह पाएगी.

‘‘मांजी, मैं… मैं उस घर की मरम्मत के लिए कुछ पैसा भेजना चाहती हूं?’’

शिखा का गला सूख गया. पता नहीं अब कौन सा भूचाल आने वाला था. सब उसे ऐसे देख रहे थे जैसे अभी ही निगल जाएंगे.

‘‘देख लो, क्या जमाना आ गया है. बहू बेशर्मों की तरह मायके के लिए पैसे मांग रही है. एक जमाना था लोग बेटी के घरों का पानी तक नहीं पीते थे और यह अपने मायके के लिए ससुराल से पैसे मांग रही है. तेरे भाई भी तो हैं, तेरे पापा उन से क्यों नहीं मांग लेते?’’

‘‘पापा ने उन से भी कहा था पर बड़े भैया के अपने ही बहुत सारे खर्चे हैं और छोटे वाले ने पहले ही अपने मकान के लिए लोन ले रखा है, इसलिए.’’

‘‘इसलिए, मतलब?’’ यहां कोई पेड़ लगा है. कल बाप के मरने के बाद हिस्सा हथियाने तो सब से पहले चले आएंगे. एक बार भी नहीं सोचेंगे कि बहन का भी तो हक बनता है. जब उन्हें कोई चिंता नहीं तो तुम क्या हो, न तीन में न तेरह में. तुम काहे चिंता में गली जा रही हो.’’

शिखा की अंतरात्मा शब्दों के बाणों से बुरी तरह छलनी हो चुकी थी पर बोली, ‘‘मांजी, बेटी का हक सिर्फ जीवनभर पाने का नहीं होता. नौ महीने तो उसे भी पेट में रखा होता है. फिर जिम्मेदारी के नाम पर यह भेदभाव क्यों? एक लड़की को जीवनभर यह समझया जाता है कि उसे पराए घर जाना है पर वह पराया घर भी उसे ताउम्र पराया ही समझता है. जीवन गुजर जाता है एक लड़की को यह समझने में ही कि उस का अपना घर कौन सा है. आप भी तो इस घर की बहू हैं और मैं भी पर हमारे अधिकारों और कर्तव्यों में यह भेद क्यों?

‘‘आप खुलेहाथों से रिश्तेदारों, नौकरचाकर सभी को कुछ भी दे सकती हैं. आप से पूछने वाला कोई भी नहीं पर जब बात बहू के मायके वालों की आती है तब दुनियादारी और संस्कार की बातें क्यों होने लगती हैं. क्या गरीब और जरूरतमंद सिर्फ सास या ससुराल के रिश्तेदार ही हो सकते हैं, बहू के नहीं. अगर गलती से बहू का मायके का कोई रिश्तेदार कमजोर हो तो बहू पूरे परिवार के लिए हंसी का पात्र क्यों हो जाती है?

‘‘भाई की पढ़ाई के लिए पापा ने कैसेकैसे इंतजाम किए थे, हिमांशु से कुछ भी नहीं छिपा है पर किसी ने एक बार भी यह जानने या समझने की कोशिश की कि इस के परिवार को भी कभी जरूरत पड़ सकती है. अब तो मायके की जमीनजायदाद में लड़कियों की भी हिस्सेदारी होती है. तो फिर मायके की जिम्मेदारियों और कर्तव्यों में हिस्सेदारी क्यों नहीं?’’

शिखा अपनी ही धुन में बोले जा रही थी, वर्षों से जमा कितनाकुछ उस ने सब के सामने उड़ेल कर रख दिया था. जेठानियां आश्चर्य से उसे देख रही थीं. मांजी धप्प की आवाज के साथ सोफे पर बैठ गईं. एक अजीब सी नफरत उस ने उन की आंखों में महसूस की. सच सभी को पसंद होता बशर्ते वह सच खुद का न हो.

घर में एक गहरा सन्नाटा पसर गया, इतना गहरा कि अपनी सांसें भी सुनाई पड़ जाएं. शब्द कहीं खो से गए थे. इतने वर्षों में शब्द तो यदाकदा चुभते ही रहते थे पर आज सब का मौन बुरी तरह चुभ गया था. किसी के पास जवाब न था और शायद इस सवाल का जवाब कभी मिले भी न. हम जीवनभर इस बात के लिए लड़ते हैं कि सही कौन है पर सही क्या है, क्या किसी ने कभी यह सोचा. लोग कहते हैं, औरत है तो घर घर है पर क्या उस घर के फैसले भी? समझना आसान है पर समझना कठिन.

शिखा भरे दिल और भरे कदमों से चुपचाप अपने कमरे में चली गई.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें