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मेरे मसूड़ों से खून क्यों आता है.

सवाल

मेरे मसूड़ों से खून क्यों आता है?

जवाब

उम्र बढ़ने के साथ यह सामान्य है कि ब्रश या कुल्ला करने पर खून नजर आ सकता है, जिसे लोग कोई बड़ी समस्या नहीं मानते हैं. लेकिन यह सामान्य बात नहीं है. यह मसूड़ों की बीमारी का संभावित शुरुआती लक्षण हो सकता है.

उत्तर भारत में करीब 89 फीसदी वयस्क आबादी मसूड़ों की किसी 1 या ज्यादा बीमारियों से पीडि़त है. बिना दर्द के यह बीमारी बढ़ने से मरीज को इस बारे में पहले कोई चेतावनी नहीं मिल पाती ताकि वह इस का समय से उपचार करा सके. अगर शुरू में इस का पता लगा लिया जाए, तो मसूड़ों की बीमारी को पूरी तरह दूर किया जा सकता है.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

जब रैंप पर मम्मियों ने की कैटवाक

विवाहित महिलाओं का आत्मविश्वास अब रीतियों और रूढियों की बंदिशों को तोड कर आगे बढ रहा है. ‘मिसेज इंडिया’ और ‘मिसेज वर्ल्ड’ जैसी बहुत सी प्रतियोगिताएं नेशनल और इंटरनेशनल लेवल पर आयोजित होती रहती है. इनमें बडे शहरों की विवाहित महिलायें हिस्सा लेती है. अब केवल बडे शहरों की विवाहित महिलायें ही रैंप पर कैटवाक नहीं कर रही है. छोटे शहरों और कस्बों तक की महिलायें भी मौका मिलने पर पूरे आत्मविश्वास के साथ रैंप पर कैटवाक कर रही है.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की बक्शी का तालाब तहसील के एसआर ग्रुप औफ इंस्टीटयूट में ‘दिल्ली प्रेस’ की पत्रिका ‘गृहशोभा’ ने फैशन शो का आयोजन किया. इस शो के फाइनल राउंड में जिन 15 लोगों को स्थान मिला, उनमें 6 महिलायें न केवल शादीशुदा है उनके बडे बडे बच्चे भी है. फैशन शो में 3 प्रतिभागियों को बेस्ट पर्सनल्टी का खिताब दिया गया. उनमें भी एक खिताब विवाहित महिला किरन भदौरिया के नाम रहा.

फैशन शों में पहली बार बिना किसी तैयारी के उतरी इन मम्मियों ने प्रोफेशनल मौडल की तरह की रैंप पर केवल कैटवाक ही नहीं किया बल्कि उसी अंदाज में लटके झटके भी दिखाये. इनमें किरन भदौरिया, ममता सिंह, प्रीति श्रीवास्तव, विनीता सिंह, आरती वाजपेई और स्वाती सिंह शामिल थी. किरन की 9 साल की बेटी दृष्टि और 5 साल का बेटा सूर्य है. जो कक्षा 4 और 1 में पढते है. ममता सिंह की 9 साल की बेटी काव्यांजलि कक्षा 4 में पढती है. आरती के 2 बच्चे है. वरीशा कक्षा 4 और समृद्वि कक्षा 1 में पढते है. प्रीति श्रीवास्तव का बेटा तन्मय कक्षा 12 में और शिवालिका कक्षा 8 में पढती है. विनीता सिंह के 2 बच्चे आदित्य कक्षा 4 और अरंशा कक्षा 2 में पढती है. पहली बार रैंप शों करने उतरी इन महिलाओं का आत्मविश्वास देखने वाला था. अपने से कम उम्र की लडकियों से किसी भी तरह से यह पीछे नहीं थी.

बक्शी का तालाब लखनऊ जिले की एक तहसील है. वहां की महिलाओं में ऐसा आत्मविश्वास देखने वाला था. बात करने पर पता चला कि यह सभी आत्मनिर्भर है. स्कूल में पढाने का काम करती है. वह न केवल अपने क्लास के बच्चों में आत्मविश्वास भरती हैं बल्कि खुद भी पूरे आत्मविश्वास से भरी हुई है. इनका कहना है कि हम अपने जौब के साथ ही साथ घर परिवार और बच्चों को भी पूरा वक्त देते है. शुरू शुरू में जब महिलायें बाहर निकलती है तो लोग बातें करते है उनकी बातों की परवाह न करते हुये आगे बढने की जरूरत होती है. एक बार आप सफल होते हो तो वही लोग आपको सम्मान देने लगते है और आपका उदाहरण दूसरों को देते है. एसआर ग्रुप औपफ इंस्टीटयूट के पवन सिंह चोहान कहते है ‘जरूरत है कि हम पुरानी रीतियों और रूढियों को तोड कर जमाने के साथ आगे बढे. शिक्षा इसका बहुत बडा माध्यम है. शिक्षा ही तरक्की का आधार है.’

भाजपा का राम जी को राम राम

जिन अयोध्या के रामजी का नाम लेकर भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा की 2 सीटों से बहुमत की सरकार बनाने तक का सफर तय किया अब उन्ही राम को विपक्षी दलो के लिये छोड दिया है. भाजपा के नये प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या ने कहा ‘विरोधी दल राम का नाम लेकर राजनीति करे और उनका सहारा लेकर अपनी सरकार बना ले’. केशव प्रसाद मौर्या ने केवल इतने से ही अपनी बात को विराम नहीं दिया. केशव प्रसाद मौर्या ने साफ किया कि अगर केन्द्र में लोकसभा और राज्यसभा के दोनो सदनों में भाजपा को बहुमत होता, तो भी उनकी पार्टी राम मंदिर बनाने की जगह पर जीएसटी बिल को पहले पास कराती.

भाजपा ने केशव प्रसाद मौर्या को उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव 2017 में पार्टी का सेनापति बनाकर मैदान में उतारा है. अपनी चुनावी रणनीति पर केशव ने कहा कि वह प्रधनमंत्री मोदी के नाम और काम पर चुनाव लड़ेंगे.

49 साल के केशव का जन्म कौशांबी जिले के कसिया गांव में हुआ था. पेशे से वह किसान है. बाद में उनका कई तरह का बिजनेस भी है. किशोरावस्था में वह आरएसएस के संपर्क में आये. वह संघ के तमाम संगठनों में काम करते रहे है. इनमें बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद प्रमुख है. विश्व हिन्दू परिषद के पुरोधा अशोक सिंहल के वे काफी करीबी रहे है. साल 2012 में वह पहली बार कौशांबी के सिराथू से विधायक बने, 2014 के लोकसभा चुनाव में वह लोकसभा का चुनाव लड़े और सांसद बन गये. अयोध्या से केशव का गहरा नाता रहा है. 2001 से लेकर 2010 तक संगठन मंत्री के तौर पर वह अयोध्या में रहे.

अयोध्या के संतों के साथ उनका गहरा नाता है. जिस समय भाजपा ने केशव को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष घोषित किया उस समय हिन्दूवादी ताकतों और राममंदिर को लेकर सकारात्मक सोच रखने वालों को लगा था कि शायद भाजपा विधानसभा चुनावों में राम मंदिर को अपना मुद्दा बनाये. प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद पहली बार पार्टी के प्रदेश कार्यालय में पहली घोषणा में ही केशव प्रसाद मौर्या ने राम मंदिर को भाजपा के एजेंडे से बाहर करके राम जी को राम राम कर लिया है. दरअसल भाजपा ने राम मंदिर को लेकर जिस तरह की राजनीति कर कुर्सी हासिल की अब उस पर राम मंदिर बनवाने का दबाव बनने लगा. ऐसे में भाजपा को सही जवाब देना भारी पडने लगा है. एक तरपफ विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों के लोग राम मंदिर की मूर्ति गांव गांव लेकर जा रहे है दूसरी तरफ भाजपा प्रदेश अध्यक्ष राम मंदिर मुद्दे से दूर खडे हो गये हैं. यह पार्टी की दोहरी नीति का उदाहरण है. विरोधी दलों का आरोप है कि पार्टी राम के नाम पर वोट लेने के लिये राम मंदिर मसले का हल निकालने की बजाये उसको लटकाने में यकीन रखती है. जिससे लंबे समय तक इसका चुनावी लाभ लिया जा सके.

पटेल के बाद अंबेडकर: नये वोट बैंक की तलाश

हिन्दुत्व के सभी नियम कानूनों को मानने वाली भाजपा को अब दलितों की सुध आई है. भाजपा की केन्द्र सरकार ने डाक्टर अंबेडकर की 125वीं जयंती को पूरे जोरशोर से मनाने की शुरूआत 14 अप्रैल को अंबेडकर जंयती से कर रही है. केन्द्र सरकार ने 14 अप्रैल से 24 अप्रैल तक 10 दिन का ‘ग्रामोदय से भारत उदय’ का विशेष अभियान चलायेगी. इस अभियान के सहारे केन्द्र सरकार पंचायती राज को मजबूत करने की बात कह रही है. ‘ग्रामोदय से भारत उदय’ के जरीये भाजपा दलित वोटबैंक को जोडने का काम करना चाहती है. इसीलिये उसने इसकी शुरूआत 14 अप्रैल को अंबेडकर जंयती से की है. डाक्टर भीमराव अंबेडकर के साथ दलितों का भावनात्मक लगाव है. भाजपा इसको वोट बैंक में बदलना चाहती है. भाजपा की कोशिश यह है कि दलित वर्ग नेशनल लेवल पर कांग्रेस को दलितों का शोषक माने. खुद प्रधनमंत्री मोदी कांग्रेस नेता जगजीवन राम को लेकर ऐसा आरोप कांग्रेस पर लगा चुके है.

‘ग्रामोदय से भारत उदय’ के पहले 3 दिन केन्द्र सरकार पूरे देश में समरसता दिवस मनायेगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महू से इसकी शुरूआत कर रहे है. इंदौर के पास महू जगह का चुनाव इसलिये किया गया है क्योकि यहां पर डाक्टर अंबेडकर का जन्म हुआ था. इंदौर मध्य प्रदेश में है जहां भाजपा की सरकार है. ऐसे में प्रधानमंत्री के लिये इस कार्यक्रम को सफल बनाना सरल हो गया है. 17 से 20 अप्रैल तक पंचायत लेवल पर किसान सभाओं का आयोजन होगा. जिसमें खेती को लाभप्रद बनाने के उपाय बताये जायेगे. 21 से 24 अप्रैल तक ग्राम सभाओं की बैठक होगी जिसमें इस बात पर विचार किया जायेगा कि सही तरह से कैसे काम किया जाये. 24 अप्रैल को प्रधनमंत्री जमशेदपुर से सभी ग्राम पंचायतों को लाइव टेलीकास्ट के जरीये संवाद करेगे. भाजपा इसे सबसे बडी ग्राम सभा की तरह से पेश कर रही है.

कार्यक्रम की सफलता में कोई संशय न रहे इसलिये इसकी शुरूआत और समापन दोनो की भाजपा शासित प्रदेशों में रखा गया है. वैसे तो कार्यक्रम में राज्य सरकारों को भी जोडने की बात कही जा रही है पर असल में यह पूरी तरह से केन्द्र सरकार का काम है. केन्द्र के नौकर, सांसद और मंत्रियों को अपने अपने क्षेत्रों में रहकर इसे सफल बनाने के लिये आदेशित किया गया है. 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को सामने कर पिछडी जातियों को पार्टी से जोडने का अभियान चलाया. सरदार पटेल की सबसे ऊंची मूर्ति लगाने के लिये गांव गांव से लोहा एकत्र करने का अभियान चलाया था. अब दलित वोट बैंक को खुद से जोडने के लिये डाक्टर अंबेडकर को ‘ग्रामोदय से भारत उदय’ अभियान से जोडा है. भाजपा अपने ऊंची जातियों के चेहरे को बदलने में जुटी है. पटेल के बाद अब अंबेडकर का भाजपा ने सहारा लिया है.

समलैंगिक शादी के मामले में अमेरिकी फैसला

जिम ओबरगीफैल और और्थर लगभग 20 वर्ष से रिलेशन में थे. 2011 में पता चला कि और्थर एक ऐसी लाइलाज बीमारी से पीडि़त हैं जो निरंतर उन के शरीर को कमजोर कर रही है. यह जानते हुए भी कि और्थर का जीवन अब कुछ ही दिन का है, ओबरगीफैल ने और्थर से विवाह करने का निश्चय किया. वे अमेरिका के ओहायो राज्य में रहते थे, जहां समलैंगिक विवाह पर प्रतिबंध था. इसलिए दोनों ने मैरीलैंड जाने का निश्चय किया, जिस के कानून समलैंगिक विवाह के पक्ष में थे. बहरहाल, और्थर की शारीरिक स्थिति इतनी दयनीय थी कि विवाह समारोह बाल्टीमोर में उसी टैरमैक पर आयोजित किया गया, जहां और्थर को लाने वाला मैडिकल ट्रांसपोर्ट हवाईजहाज उतरा था. विवाह के 3 माह बाद और्थर की मृत्यु हो गई, लेकिन कानूनी विवाह के बावजूद ओहायो राज्य ने ओबरगीफैल को और्थर के जीवित जीवनसाथी के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया.

नतीजतन, अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए ओबरगीफैल ने अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, जिस में 15 अन्य याचिकाओं को भी शामिल कर लिया गया. इन 15 याचिकाओं में से 14 समान लिंग जोड़ों की थीं और 2 ऐसे पुरुषों की जिन के समलैंगिक पार्टनर मर चुके थे. ये याचिकाएं मिशिगन कैंटकी, ओहायो व टैनेसी राज्यों से आई थीं, जहां विवाह का अर्थ केवल पुरुष व महिला के बीच मिलन है. इस तरह यह मुकदमा ओबरगीफैल बनाम होजिस के रूप में विख्यात हुआ.

26 जून, 2015 को अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने 5-4 के बहुमत से फैसला सुनाते हुए कहा कि जो कानून एक लिंग के बीच विवाहों को प्रतिबंधित करते हैं वे अब अमेरिका में असंवैधानिक होंगे. बहुमत की तरफ से फैसला लिखते हुए न्यायाधीश एंथनी कैनेडी ने अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन का हवाला देते हुए कहा कि मानव सम्मान व व्यक्तिगत स्वायत्तता का तकाजा है कि विवाह करने का स्पष्ट अधिकार है, जिस का अर्थ यह है कि राज्य आवश्यक रूप से एक ही लिंग के 2 व्यक्तियों के बीच विवाह को लाइसैंस प्रदान करे. यह बहुत कम होता है जब किसी एक देश का सुप्रीम कोर्ट फैसला दे और उस की चर्चा पूरी दुनिया में हो. अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारत सहित दुनिया के लगभग सभी देशों में गंभीर व परस्पर विरोधी चर्चा का विषय बना हुआ है. कहीं इस फैसले को ले कर उत्साह है कि उन के देश में भी अमेरिका की तरह ही कानून बनेंगे, तो कहीं सतरंगी समुदाय का विरोध करने वालों को लगने लगा है कि अब उन्हें ‘अप्राकृतिक यौन संबंधों’ को कानूनन अवैध रखने के लिए पहले से अधिक मेहनत करनी होगी. खासकर इसलिए भी कि सतरंगी समुदाय जितना सोशल मीडिया, अखबारों व इलैक्ट्रौनिक मीडिया, पर मुखर है कि अल्पमत में होने के बावजूद अपनी बात को बहुमत व आधुनिकता के रूप में प्रस्तुत करने में सफल हो जाता है, उतना वह बहुसंख्यक समुदाय में सक्रिय नहीं है जो परंपरागत व प्राकृतिक यौन संबंधों को ही प्राथमिकता देता है.

अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि कानून के समक्ष उन लोगों को भी स्वतंत्रता व बराबरी का अधिकार है जिन की यौन इच्छाएं वैकल्पिक झुकाव रखती हैं. अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट इस परंपरागत तर्क के पीछे नहीं छिपा कि विवाह जैसे व्यक्तिगत संबंधों के बारे में कानूनी प्रश्न का जवाब संसद ही बेहतर तरीके से दे सकती है बल्कि उस ने कहा कि अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन में जो ‘ड्यू प्रोसैस’ व ‘बराबर की सुरक्षा’ जैसे वाक्यांश हैं, वे किसी अन्य समलैंगिक समुदाय को भी उपलब्ध हैं, जब बात अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने की आती है, भले ही वह अपने ही लिंग का व्यक्ति हो.

इस फैसले से भारत का सतरंगी समुदाय भी इस पक्ष में है कि उसे भी कानूनन अमेरिकी लोगों की तरह अधिकार  प्रदान किए जाएं. दिलचस्प बात यह है कि भारत के कानून मंत्री डी वी सदानंद गौड़ा ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाया जा सकता है और समान लिंग वाले व्यक्तियों के बीच विवाह को भी मंजूरी देने पर विचार किया जा सकता है. लेकिन दूसरी तरफ ऐसे लोगों की कमी नहीं है, बल्कि वही बहुमत में हैं जो भारतीय दंड संहिता की धारा 377, जिस के तहत अप्राकृतिक सैक्स दंडनीय अपराध है, यह चाहते हैं कि सतरंगी समुदाय को किसी किस्म का कोई अधिकार न दिया जाए, उन पर सख्ती से पाबंदी लगाई जाए ताकि समाज को बिगड़ने से बचाया जा सके.

इस में कोई दो राय नहीं कि समलैंगिक संबंध व विवाह एक संवेदनशील व विवादित मुद्दा है, न सिर्फ भारत में बल्कि अमेरिका जैसे विकसित देश में भी. इसलिए अमेरिका में भी उस के सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के खिलाफ जन प्रदर्शन बड़े पैमाने पर हो रहे हैं.

भारत में तो इस का विरोध काफी लंबे समय से होता आ रहा है, बल्कि इस हद तक कि बहुत से लोग समलैंगिकता को मानसिक बीमारी की श्रेणी में रखते हैं और मांग करते हैं कि समलैंगिकों का इलाज कराया जाए. दूसरी ओर संतरंगी समुदाय इसे समता, सम्मान व आजादी का मुद्दा मानता है. उस का कहना है कि वयस्कों को अपने पसंद के साथी से यौन संबंध स्थापित करने का पूर्ण अधिकार होना चाहिए और समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में रखना मानवता व उन के बुनियादी अधिकारों के खिलाफ है.

इन परस्पर विरोधी विचारों के चलते यह तय करना कठिन है कि कौन सा पक्ष सही है. सही व गलत के लिए बहुमत व  अल्पमत आधार नहीं बनता है. इस के अतिरिक्त नैतिक मूल्य भी स्थायी नहीं होते हैं, उन में भी समय के साथ परिवर्तन स्वाभाविक है. ऐसे में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन मामले में सही किया था कि स्वयं धारा 377 पर कोई फैसला लेने के बजाय यह जिम्मेदारी जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों यानी संसद पर डाल दी थी.

इस में दो राय नहीं कि इस विवादित विषय पर बहस करने और किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए संसद ही सब से अच्छी जगह है. हालांकि आयरलैंड की तरह इस मुद्दे पर जनमत संग्रह भी एक विकल्प है, लेकिन बेहतर यही है कि इस विषय पर संसद में ही व्यापक बहस हो ताकि प्रत्येक दृष्टिकोण मुखर हो कर सामने आ सके और कोई ऐसा फैसला बल्कि कानून गठित किया जा सके जो नैतिकता व मानवता के तकाजों को पूरा करता हो और उन लोगों के अधिकारों को भी सुरक्षित रखता हो, जिन की राय अल्पमत में है.

अमेरिका में सतरंगी समुदाय ने अपने तथाकथित अधिकारों को पाने के लिए एक लंबा संघर्ष किया है.

इस की गाथा कुछ ऐसी है :

  •    1986 में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को वैध ठहराया था जिस के तहत समलैंगिक संबंध दंडनीय अपराध के दायरे में आता था.
  •    फिर अपने ही इस फैसले को उस ने 2003 में बदल दिया.
  •    2015 में समान लिंग के बीच विवाहों को अनुमति प्रदान कर दी है.

अमेरिकी फैसले के भारतीय संदर्भ

हाल ही में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने 5-4 से सतरंगी (समलैंगिक) समुदाय के पक्ष में ऐतिहासिक फैसला सुनाया जिस के तहत एक ही लिंग के 2 व्यक्तियों को आपस में विवाह करने का अधिकार अमेरिका के सभी राज्यों में दिया गया, जबकि पहले यह अधिकार नहीं था. चूंकि इस फैसले का महत्त्व इतना ज्यादा है कि पूरी दुनिया में इस की गूंज है और भारत में भी एक वर्ग ऐसा है जो इसे अपने देश के लिए मौडल के रूप में इस्तेमाल करने का इच्छुक है, इसलिए आवश्यक हो जाता है कि इस फैसले के उस महत्त्वपूर्ण बिंदु पर भी रोशनी डाली जाए, जो भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 के संदर्भ में भी दिया था और जिस की वजह से इस धारा की वैधता बरकार रही.

अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रौबर्ट्स ने बहुमत के फैसले का विरोध करते हुए यह महत्त्वपूर्ण सवाल किया था कि क्या अनिर्वाचित न्यायाधीशों का यह सर्वोच्च अधिकार है कि वे उस लोकतांत्रिक तरीके से गठित कानून का उल्लंघन करें जो उन की दृष्टि में बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन करता है.  

इस के जवाब में बहुमत की तरफ से फैसला लिखने वाले न्यायाधीश एंथनी कैनेडी ने लिखा,‘राष्ट्र की अदालतें उन घायल व्यक्तियों के लिए खुली हैं जो उन के पास हमारे बुनियादी चार्टर में सीधे व व्यक्तिगत अधिकार की पुष्टि के लिए आते हैं. एक व्यक्ति को संवैधानिक सुरक्षा का अधिकार है जब उसे महसूस होता है कि उसे कोई नुकसान पहुंच रहा है, भले ही बहुसंख्यक लोग उस से असहमत हों और कार्यपालिका पहल करने से इनकार कर रही हो.’

न्यायाधीश कैनेडी के अनुसार अदालत का सीधा काम यह कानूनी प्रश्न तय करना है कि समलैंगिक विवाह का अधिकार संविधान का उल्लंघन करता है या नहीं? इस प्रश्न का बहुमत में उत्तर हां में है.

जो प्रश्न मुख्य न्यायाधीश रौबर्ट्स ने उठाया था वही भारत के सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भी था जब उस ने दिसंबर, 2013 के फैसले में आईपीसी की धारा 377 को वैध ठहराया था, जिस के तहत ‘गुदामैथुन अप्राकृतिक है,’ भले ही समान लिंग के 2 वयस्कों के आपसी संबंध दोनों की सहमति से बने हों, दंडनीय अपराध है. भारत के सुप्रीम कोर्ट की 2 सदस्यों की खंडपीठ ने इस संदर्भ में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को उलटते हुए, जिस ने धारा 377 को अवैध ठहराया था, कहा था कि इसी कानून को निरस्त करना या उस में संशोधन करने का अधिकार संसद का है न कि अदालत का. अदालत का काम सिर्फ यह है कि कानून की सही से व्याख्या की जाए, वह सही ढंग से लागू हो सके और उस कानून के दायरे में इंसाफ किया जाए.

अगर भारतीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तुलना अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से की जाए तो भारत का सुप्रीम कोर्ट इस मामले में एकदम स्पष्ट था कि समलैंगिकता अपराध की श्रेणी में आती है या नहीं आती, यह निर्णय करना जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों यानी संसद का है और इस में अदालत दखल नहीं दे सकती.

लेकिन इस के विपरीत एक राय यह भी है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट का उक्त फैसला भारतीय न्यायिक स्तर के अनुरूप नहीं था, क्योंकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बरकरार रखने के लिए न्यायिक हस्तक्षेप की हमेशा जरूरत पड़ती है. इसलिए भारत के सुप्रीम कोर्ट को अपनी जिम्मेदारी संसद पर टालनी नहीं चाहिए थी.

कानून मंत्री का साहस

पहले आयरलैंड में जनमत संग्रह से तय हुआ कि एक ही लिंग के 2 लोगों को आपस में विवाह करने का उसी तरह से अधिकार है जिस तरह से विपरीत लिंग के 2 लोग आपस में विवाह करते हैं. इस के बाद अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने 5-4 के बहुमत के फैसले से यह अधिकार अपने देश के सभी राज्यों को प्रदान किया है. इस पृष्ठभूमि में भारत का सतरंगी समुदाय भी यह मांग करने लगा है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट ने जब समलैंगिकता की वैधता/अवैधता का प्रश्न संसद पर डाल दिया है तो अब प्रगतिशील पार्टियों और उदार सांसदों को आगे आना चाहिए और आईपीसी की धारा 377 को संविधान से हटा देना चाहिए. कम से कम उस में संशोधन के जरिए यह प्रावधान रख देना चाहिए कि 2 समान लिंग के वयस्कों के बीच आपसी सहमति से यौन संबंध स्थापित करना अपराध के दायरे से बाहर है. सतरंगी समुदाय का कहना है कि धारा 377 के प्रावधान दकियानूसी हैं, बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन करते हैं व मानव के विपरीत हैं, इसलिए उन्हें संविधान में मौजूद नहीं रहना चाहिए.

संभवतया इसी मांग की पृष्ठभूमि में केंद्रीय कानून मंत्री डी वी सदानंद गौड़ा ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि ‘अप्राकृतिक सैक्स’ को अपराध की श्रेणी में रखने वाली आईपीसी की धारा 377 को निरस्त कर दिया जाएगा और समलैंगिक विवाहों को भी मान्यता प्रदान करने पर विचार किया जाएगा. सदानंद गौड़ा के अनुसार, ‘‘देश का मूल नागरिक इस के पक्ष में प्रतीत हो रहा है, लेकिन यह व्यापक विचारविमर्श के बाद और सभी दृष्टिकोणों को संज्ञान में लेने के बाद ही किया जाएगा.’’ उन का मानना है कि जिस तरह राज्यसभा में ट्रांसजैंडर से संबंधित एक प्राइवेट विधेयक सभी पार्टियों की सहमति से पारित हो गया था और अगर वह लोकसभा में भी इसी तरह से पारित हो जाता है तो धारा 377 अपनेआप ही अर्थहीन हो जाएगी.

निश्चित तौर पर इस किस्म के विचार रखने में सदानंद गौड़ा ने बहुत हिम्मत दिखाई है. उन का संबंध दक्षिण कन्नड़ के पुत्तूर से है जो मंगलुरु लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है. यह तटवर्ती पट्टी सामाजिक मामलों में अपनी परंपरागत सोच के लिए विख्यात है और संघ परिवार का गढ़ मानी जाती है, जोकि सतरंगी समुदाय के विरोध में है. इस के बावजूद सदानंद गौड़ा जो बंगलुरु उत्तर से लोकसभा सांसद हैं, समझते हैं कि ट्रांसजैंडर के संदर्भ में जो विधेयक पारित हुआ वह भारत के समलैंगिक समुदाय के लिए मौडल बन सकता है.

लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है. यद्यपि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन देश की अधिकांश जनता का धर्म में अटूट विश्वास है और धर्म चाहे जो हो वह समलैंगिक विवाह तो बहुत दूर की बात है, समलैंगिकता को ही अप्राकृतिक व पाप समझती है. इसलिए सभी धर्मों के प्रमुख नेताओं ने समलैंगिकता का विरोध किया है. यह लोग बिलकुल इस पक्ष में नहीं हैं कि पश्चिम की तरह भारत में भी समलैंगिकों को अधिकार व स्वतंत्रता प्रदान की जाए. गौैरतलब है कि अमेरिका में भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं और हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट 9 में से 4 न्यायाधीश और वह भी मुख्य न्यायाधीश सहित समलैंगिकों को विवाह अधिकार देने के विरोध में थे. इस पृष्ठभूमि में यह अनुमान गलत न होगा कि चुनावी राजनीति को प्राथमिकता देने वाले भारतीय सांसद मुट्ठीभर सतरंगी समुदाय को खुश करने के लिए बहुसंख्यक राय का विरोध करेंगे. फिर बहुसंख्यक राय की भावनाओं का सम्मान करना भी आवश्यक है.

जब जौब से हाथ धो बैठें

आज का युवा उच्च शिक्षा हासिल कर अच्छी नौकरी तलाश करता है. हालांकि अपनी योग्यता और पसंद के अनुरूप अच्छी नौकरी मिल पाना आसान बात नहीं होती. यदि आप को किसी प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिलती है तो यह आप के कैरियर के लिए एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन प्राइवेट या मल्टीनैशनल कंपनियों के कर्मचारियों पर नौकरी चले जाने का खतरा सदैव मंडराता रहता है. चाहे आप कंपनी छोड़ें या कंपनी आप को निकाले, दोनों ही स्थितियों में आप नौकरी से हाथ धो बैठते हैं. यह समय आप के जीवन का सब से मुश्किल समय होता है और यह आप के लिए परीक्षा की घड़ी भी है. कुछ पलायनवादी कर्मचारी नौकरी चले जाने पर जीवन से इतने हताश और निराश हो जाते हैं कि परिस्थिति का सामना करने के बजाय जिंदगी से ही कूच कर जाते हैं यानी खुदकुशी कर लेते हैं. आखिर इस स्थिति का सामना कैसे करें?

कर्मचारी की नौकरी छूटने को 2 वर्गों में रखा जा सकता है, पहला, जब वह स्वयं नौकरी छोड़े और दूसरा जब कंपनी उसे नौकरी से निकाले. दोनों ही स्थितियों में नौकरी छूटने या छोड़ने के कारण भिन्नभिन्न होते हैं. कुछ कर्मचारियों की नौकरी अपनी गलती की वजह से भी छूटती है. ऐसा उन के साथ होता है जो किसी अन्य कंपनी में अच्छी नौकरी पाने की लालसा में वर्तमान कंपनी से इस्तीफा दे देते हैं और नई कंपनी में उन का सिलैक्शन नहीं हो पाता. यदि उन का इस्तीफा मंजूर हो जाता है तो वे न घर के रहते हैं न घाट के. उन की नौकरी चली जाती है. स्वयं का दिया हुआ इस्तीफा वे वापस भी नहीं ले सकते.

कभीकभी ऐसा भी होता है कि कर्मचारी के पास छुट्टी नहीं है, फिर भी वह लंबी छुट्टी पर चला जाता है या आएदिन छुट्टी लेता है, जिस से कंपनी का कार्य प्रभावित होता है. यदि कर्मचारी बिना सूचना दिए लंबे समय तक अपने कर्तव्य से अनुपस्थित रहता है, तो उसे नौकरी से निकाला जा सकता है. नौकरी छूटने के कई प्रमुख कारण होते हैं. जब कोई कर्मचारी अपने नियोक्ता के खिलाफ असंवैधानिक हड़ताल, घेराव, प्रदर्शन आदि कर व्यवस्था को चुनौती देता है, तो कंपनी क्यों ऐसे व्यक्ति को अपने यहां रखेगी? जाहिर है, गैरकानूनी हड़ताल की वजह से कंपनी को ऐसे लोगों को हटाने का मौका मिल जाता है.

ऐसे कर्मचारी भी होते हैं जो अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन होते हैं या लापरवाही बरतते हैं. इस से कंपनी की कार्यक्षमता प्रभावित होती है. इसी प्रकार कुछ लोग आलसी होते हैं जो काम न करने का कोई झूठासच्चा बहाना ढूंढ़ते हैं. आखिर ऐसे निक्कमे लोगों को कोई भी कंपनी अपने यहां क्यों रखे? जाहिर है नौकरी छूटनी ही है.

यदि कर्मचारी की परफौर्मैंस लगातार रेटिंग औसत से नीचे आ रही है, तो कंपनी उसे हटा सकती है.

कुछ कर्मचारी बेईमान होते हैं जो अपनी ही कंपनी की पीठ में छुरा घोंपते हैं. वे भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाते हैं और कंपनी या फैक्टरी की कमाई के बजाय अपनी निजी कमाई बढ़ाने में लग जाते हैं और इस के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं. जब ऐसे किसी कर्मचारी की गड़बडि़यां पकड़ में आती हैं तो नियोक्ता उसे नौकरी से निकाल देता है.

यदि कर्मचारी कंपनी में गबन करता है तो नियोक्ता उसे न केवल नौकरी से बरखास्त कर सकता है बल्कि पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज कर सकता है. ऐसे कर्मचारी को दोबारा नौकरी मिलने में बड़ी दिक्कत होती है.

यदि किसी कर्मचारी का चरित्र अच्छा नहीं है यानी कोई पुरुष कर्मचारी अपनी कलीग के साथ अश्लील हरकत करता है, या अन्य यौन दुराचार करता है तो इस से कंपनी की बदनामी होती है. अत: ऐसे दुराचारी कर्मचारी को नौकरी से बरखास्त कर दिया जाता है. ऐसे ही यदि कोई महिला कर्मचारी भी किसी अनैतिक कार्य में लिप्त पाई जाती है तो भी कंपनी उस की छुट्टी कर देती है.

कई बार कंपनियां बंद हो जाती हैं या बंद होने के कगार पर खड़ी होती हैं. ऐसा उन कंपनियों के साथ होता है जो लंबे समय तक घाटे में चल रही होती हैं. ऐसे में या तो उन्हें अपने यहां कर्मचारियों की छंटनी करनी पड़ती है या कंपनी अथवा फैक्टरी में ताला लगाना पड़ता है. दोनों ही स्थितियों में नौकरी छूट सकती है.

कई बार अच्छा काम करने पर भी कौस्ट कटिंग के कारण कंपनी कर्मचारियों को हटा सकती है. इस से कंपनी की लागत कम हो जाती है और मुनाफा बढ़ जाता है.

बड़ी कंपनियां बड़े ऋण लेती हैं और जब वे उसे चुका नहीं पातीं तो अपना खर्च कम करने हेतु कुछ कर्मचारियों को नौकरी से हटा देती हैं. इसी प्रकार जब किसी कंपनी के शेयरों में निरंतर भारी गिरावट आती रहे और सुधरने की कोई संभावना नजर न आए तो भी कंपनी अपने कुछ कर्मचारियों की छुट्टी कर सकती है.

कुछ नियोक्ता किसी कर्मचारी को बरखास्त करने के बजाय उस से इस्तीफा देने को कहते हैं ताकि उस का भविष्य बरबाद न हो. इस्तीफा दे कर नौकरी छोड़ना उस के ऊपर किसी तरह की आंच नहीं आने देता जबकि बरखास्तगी उस के कैरियर पर काला धब्बा है.

जब आकस्मिक या अप्रत्याशित रूप से नौकरी चली जाती है तो पैरों तले जमीन खिसक जाती है और आंखों के सामने अंधियारा छा जाता है.

नौकरी छूटते ही व्यक्ति के सामने एक खालीपन आ जाता है. यदि वह शादीशुदा है, बीवीबच्चे हैं, तो उन के भरणपोषण की समस्या खड़ी हो जाती है.

ऐसे में यदि आप ब्रैंडेड आइटम्स खरीदने के शौकीन हैं, तो नई नौकरी मिलने तक उसे भूल जाएं. हवाईजहाज और प्रथम श्रेणी वातानुकूलित श्रेणी में यात्रा करने के बजाय साधारण श्रेणी में यात्रा कर पैसे बचाए जा सकते हैं. होटल या रेस्तरां में खाने के बजाय घर के खाने को प्राथमिकता दें ताकि पैसे बच सकें. नए कपड़े, जूते, ज्वैलरी, पर्स और अन्य मदों पर खर्च न करें.

आज का युवा महत्त्वाकांक्षी है. उस के सपने ऊंचे हैं. कार, बंगला और तमाम ऐशोआराम की चीजें वह खरीदना चाहता है और इस के लिए उसे काफी ऋण भी लेना पड़ता है, लेकिन नौकरी छूटते ही उसे ऋण चुकाने में पसीना आने लगता है. मूलधन तो दूर उस का ब्याज चुकाना भी भारी पड़ता है. कहीं से भी इंतजाम कर के ऋण को चुकाया जाना चाहिए. इस के लिए जिस बैंक या संस्था से ऋण लिया है, उसे ऋण की अवधि बढ़ाने का निवेदन कर सकते हैं या आप अपने पुराने सेविंग या निवेश से भी ऋण या उस की किश्तों का भुगतान कर सकते हैं.

नई नौकरी मिलना आसान काम नहीं है, खासतौर पर ऐसे लोगों को जिन्हें कंपनी ने जौब से निकाला हो, क्योंकि जहांजहां भी वे नौकरी की तलाश में जाएंगे, वहांवहां सामने वाला यही प्रश्न पूछेगा कि वहां से आप को क्यों निकाला गया? आप लाख दुहाई दें, अपना बचाव करें, लेकिन एक कंपनी से निकाले गए व्यक्ति को दूसरी कंपनी सोचसमझ कर और काफी छानबीन के बाद ही नौकरी देती है.

नौकरी छूटना निश्चित रूप से किसी वज्राघात से कम नहीं होता, लेकिन विपरीत परिस्थितियों में खुद पर काबू रखना चाहिए तथा अपने आत्मविश्वास पर भरोसा, तभी आप की राह आसान होगी. बीती बात भुला कर आगे की सुध लेनी चाहिए.

नौकरी छूटने पर अपनी योग्यता और दक्षता को बढ़ाने की कोशिश करें, कोई शौर्टटर्म कोर्स कर सकते हैं जिस से आप को फायदा हो सकता है.

आप जब भी नौकरी को स्वेच्छा से छोड़ें, अनुभव प्रमाणपत्र बनवा लें तथा उस में अच्छे कार्य और अच्छे चरित्र का उल्लेख करवा लें. इस से आप को नई नौकरी मिलने में आसानी होगी. जब कभी भी आप किसी कंपनी से नौकरी छोड़ें तो झगड़ा कर के न छोड़ें, बल्कि संबंध मधुर बनाए रखें क्योंकि नई कंपनी पुरानी कंपनी से आप के बारे में पूछेगी. वहां से आप के लिए सकारात्मक राय मिलनी चाहिए.

अपनी क्षमताओं पर भरोसा करना सीखें. इस से आप हारी हुई बाजी जीत सकते हैं. आप को अपना रिज्यूमे नए सिरे से तैयार करना चाहिए, जिस में आप का उजला पक्ष उजागर होता हो. नई नौकरी मिलना असंभव नहीं कठिन अवश्य हो सकता है.     

सरकारी नौकरी को छोड़ कर कोई भी क्षेत्र जौब सिक्योरिटी की गारंटी नहीं देता. ऐसे में नौकरी छूट जाना आप को परेशानी में डाल सकता है, क्योंकि दूसरी नौकरी ढूंढ़ने और लगने में थोड़ा वक्त तो लगता ही है. सब से ज्यादा परेशानी घरखर्च की आती है. यदि परिवार में आप के अलावा अर्निंग मैंबर और कोई नहीं है, तो यह संकट और गहरा जाता है.

जब तक दूसरी नौकरी न मिल जाए, अपने लाइफस्टाइल में इस तरह का बदलाव करें कि अनावश्यक खर्च से बच सकें. उतना ही खर्च करें जितना नितांत आवश्यक हो या जिस में कटौती करना संभव न हो.

जब एक नौकरी छूट जाती है तो उसी कैडर और सैलरी की तत्काल नई नौकरी मिलना कठिन होता है. इस में थोड़ा समय लग सकता है जोकि कुछ महीने से ले कर कुछ साल भी हो सकते हैं. तब तक खाली बैठने से अच्छा है कि जो भी नौकरी मिले उसे स्वीकार कर लें तथा बेहतर नौकरी के लिए प्रयास करते रहें.

मैडिकल इमरजैंसी कभी भी आ सकती है. नौकरी में रहते हुए तो नियोक्ता की ओर से मैडिकल कवर हो सकता है, लेकिन जौब छूटने के बाद हैल्थ इंश्योरैंस कवर समाप्त हो जाता है. इसलिए नौकरी में रहते हुए ही यदि आप निजी तौर पर हैल्थ इंश्योरैंस भी करा लेते हैं तो नौकरी छूटने पर आप को बीमा कंपनी से राहत मिल सकती है.

‘शारापोवा के डोपिंग मामले का फैसला अदालत करेगा’

रूस की महिला टेनिस स्टार मारिया शारापोवा के प्रतिबंधित पदार्थ के सेवन की जांच अंतर्राष्ट्रीय टेनिस महासंघ (आईटीएफ) की अदालत के जिम्मे है. आईटीएफ ने यह बात कही.

समाचार एजेंसी तास के मुताबिक, इससे पहले विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा) ने कहा था कि एक मार्च से पहले जिस खिलाड़ी का डोपिंग परीक्षण किया गया था अगर उसके नमूने में एक माइक्रोग्राम से कम मेलडोनियम पाया जाता है तो यह मान्य होगा और खिलाड़ी पर किसी भी तरह का प्रतिबंध नहीं लगेगा.

आईटीएफ से जब शारापोवा के नमूने में मेलडोनियम की मात्रा के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वह इस मामले पर बात नहीं कर सकते. साथ ही उन्होंने इस पर अदालत के फैसले के इंतजार करने की बात कही है.

मार्च में शरापोवा ने बताया था कि 2016 आस्ट्रेलियन ओपन के दौरान लिए गए उनके खून के नमूने में प्रतिबंधित पदार्थ मेलडोनियम पाया गया था जिसे विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा) ने एक जनवरी 2016 को प्रतिबंधित कर दिया था.

इसका सेवन करने वाले खिलाड़ियों को डोपिंग के नियमों का दोषी पाया जाता है. शारापोवा 12 मार्च को अस्थायी रूप से टेनिस से प्रतिबंधित कर दिया गया.

देशद्रोही कौन

प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में 9 फरवरी, 2016 को जिस प्रकार राजनीति का घिनौना खेल खेला गया उस से शायद ही कोई छात्र आहत होने से बचा हो. मौका छात्रों के एक समूह द्वारा आयोजित अफजल गुरु की फांसी की तीसरी बरसी पर एक कार्यक्रम का था जिस का छात्रों ने प्रचार भी काफी किया था, लेकिन छात्रसंघ के संयुक्त सचिव सौरभ कुमार द्वारा पत्र लिख कर इसे रोकने की मांग की गई थी, जिस कारण इस प्रोग्राम पर रोक लगा दी गई, लेकिन छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने इसे सांस्कृतिक कार्यक्रम के रूप में आयोजित किया.

दरअसल, सौरभ कुमार एबीवीपी का सदस्य है, जो आरएसएस का एक छात्र संगठन है और भाजपा से जुड़ा है. ऐसे में जब इस कार्यक्रम का आयोजन हुआ तो इस में जम कर नारेबाजी की गई. नारेबाजी करने वाले कौन थे यह कोई नहीं जान पाया. इस का किसी को भी भान नहीं था कि मामला इस कदर गड़बड़ा जाएगा कि छात्रों को देशद्रोही तक करार दे दिया जाएगा और इस की एवज में उन छात्रों को भी परेशानी होगी जिन का दूरदूर तक इस से कोई वास्ता नहीं था. इस कार्यक्रम के दौरान शोरशराबे के बीच नारेबाजी किस ने की इस का साफ पता नहीं चल पाया, लेकिन छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को हिरासत में ले लिया गया और 15 फरवरी को उसे कोर्ट में पेश किया गया तथा उस पर देशद्रोह का आरोप लगा. इतना ही नहीं जब कन्हैया को 15 फरवरी को कोर्ट में पेश किया गया तो वहां कुछ कट्टरपंथियों, जिन में ओम प्रकाश शर्मा नामक एक वृद्ध भी था, द्वारा उसे पीटा गया. जाहिर है कि भगवाकरण की आड़ में यह खेल खेला गया. सचाई यह है कि कन्हैया छात्रसंघ का अध्यक्ष होने के साथसाथ अंधविश्वासी विचारधारा का कट्टर विरोधी भी है, जिसे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद कतई बरदाश्त नहीं करती, क्योंकि एबीवीपी आरएसएस का छात्र संगठन है. इस से साफ जाहिर है कि एबीवीपी की शह प्रदर्शनकारियों को रही होगी और कन्हैया की आवाज दबाने में उन्होंने कोई कोरकसर नहीं छोड़ी और उसे देशद्रोही बना दिया.

कौन नहीं है देशद्रोही

यहां एक तर्क यह दिया जा रहा है कि सरकार द्वारा जेएनयू को करोड़ों रुपए अनुदान में दिए जाते हैं जिस से वहां के छात्र पढ़ते हैं, ऐसे में वहां पढ़ने वाले छात्र जिस देश के पैसे से पढ़ रहे हैं उसी देश के खिलाफ नारे लगा रहे हैं, तो क्यों न जेएनयू के छात्र गुरुकुली छात्रों की तरह पंडों की सीख मान कर रहें, यह तर्क पूर्णतया गलत है. हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि देश पुलिस पर कितना खर्च करता है, पर पुलिस न कानून बनाए रखती है न सुरक्षा देती है और ऊपर से हफ्ता वसूलती है सो अलग. तो क्या पुलिस को देशद्रोही न माना जाए? अरबों रुपए मंदिरों की सुरक्षा व शांति के लिए बरबाद किए जाते हैं पर मिलता क्या है? क्या इन मंदिरों को देशद्राही कह कर बंद करने की मांग नहीं उठनी चाहिए?

स्कूल प्रबंधक बड़ीबड़ी बिल्डिंग्स सरकार से अनुदान में जमीन ले कर खड़ी करते हैं और फिर मनमानी फीस वसूलते हैं बावजूद इस के छात्रों को कोचिंग के सहारे रहना पड़ता है, तो क्या यह देशद्रोह नहीं है?

सरकारी बाबू भ्रष्टाचार से जेबें भरते हैं. मोटी सैलरी लेने के बावजूद काम नहीं करते और सहूलतों व भत्तों के नाम पर, घूमने के नाम पर फर्जी बिल बना कर, यात्रा भत्ते दिखा कर देश का पैसा डकारते हैं तो क्या यह देशद्रोह नहीं?

कितने घोटालों में नेता लिप्त हैं और बावजूद इस के साफ बच जाते हैं, क्या वे देशद्रोही नहीं हैं?

व्यापारी करोड़ों रुपए का टैक्स नहीं देते क्या वे देशद्रोही नहीं हैं? 1 लाख करोड़ रुपए बैंकों का उधार ले कर लोग डकार गए, उन्हें भी क्या देशद्रोही ही कहा जाए. सड़क पर टैंट लगा कर जागरण करने वाले क्या देशद्रोही नहीं हैं? जो काला धन लाने से रोक लेते हैं, क्या वे देशद्रोही नहीं हैं?

वामपंथी बनाम कट्टरपंथी

दरअसल, वामपंथी या अंधविश्वास विरोधी होना ही जेएनयू की विशेषता है. वह यही खुले विचार देता है और पुरातनपंथी दलदल से निकलने का रास्ता सुझाता है, जो कट्टरपंथियों को नहीं सुहाता. जैसा कि ऊपर बताया गया है कि सौरभ कुमार एबीवीपी का सदस्य भी है और एबीवीपी आरएसएस का छात्र संगठन, तो जाहिर है उसे वामपंथी कभी नहीं भाएंगे. साथ ही वामपंथी विचारधारा आगे बढ़ने से अंधविश्वास की अपनी भगवा दुकानदारी खत्म होती नजर आई और उन्होंने इसे कुचलने की कोशिश की. क्या कट्टरपंथी नहीं हैं असली देशद्रोही?

अपनी वामपंथी विचारधारा के चलते जेएनयू में महिसासुर दिवस मनाने, योगगुरु रामदेव के विरोध के कारण यह संस्थान हिंदुत्व व पुरातनवाद के विरोधी के रूप में चर्चित हो गया है, जिस कारण धर्मावलंबियों को अपनी नैया डूबती नजर आई और यही कारण रहा कि वे नई सोच, नई क्रांति, नए विचारों को आगे नहीं बढ़ने देना चाहते और खाप पंचायतों की तरह तुगलकी फरमान सुनाते हुए युवा विचारों के खिलाफ खड़े हो जाते हैं.

फर्जी वीडियो टेप का बड़ा खेल

बिना जांचेपरखे कन्हैया की फर्जी वीडियो क्लिपिंग सोशल मीडिया पर व न्यूज चैनल्स पर वायरल कर देना और फिर उसी के आधार पर कन्हैया और उस के साथियों को देशद्रोही करार देना कहां की अक्लमंदी है.

लेकिन हुआ ऐसा ही. बिना जांचे और तह तक पहुंचे ही कन्हैया को जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया गया, लेकिन जब दिल्ली सरकार ने जिलाधिकारी जांच में वायरल हुई वीडियो की फोरैंसिक जांच करवाई, तब कहानी कुछ और ही सामने आई, जिस से इस बात की पुष्टि हुई कि वीडियो के साथ छेड़छाड़ की गई थी. इसी आधार पर कन्हैया को क्लीनचिट भी मिली. पहले ही इस ओर सतर्कता क्यों नहीं बरती गई. क्यों कन्हैया को जेल में डालने की नौबत आई?

इस पूरे प्रकरण से तो ऐसा लग रहा है कि असल में देशद्रोही नारे लगाने वालों को राजनीतिक दल विशेष की शह मिली हुई थी और अशांति फैला कर वे अपना उल्लू सीधा करना चाहते थे.

कन्हैया की जीभ के 5 लाख, गोली मारने के 11 लाख रुपए

जहां देशभर में यही गूंज है कि कन्हैया ने देशद्रोह के नारे लगाए इसलिए उसे किसी भी कीमत पर बरदाश्त नहीं किया जाना चाहिए, जबकि इस बात का कोई सुबूत नहीं कि कन्हैया ने ऐसा कोई घिनौना कृत्य किया हो कि सब उस के खून के प्यासे हो जाएं.

इस से ज्यादा शर्मनाक घटना तो अभी हाल में हुई, जब बदायूं भारतीय जनता युवा मोरचा के जिलाध्यक्ष कुलदीप वार्ष्णेय द्वारा कन्हैया की जीभ काट कर लाने वाले को 5 लाख रुपए देने की घोषणा की गई. इस बात से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि ऐसे बयान देने से देश में यह आग और फैलेगी. आप ही सोचिए दोष युवा सोच में  है या ऐसे नेताओं में, ऐसे में कोन है देशद्रोही?

एक ओर देशद्रोही कन्हैया को गोली मारने वाले को 11 लाख रुपए देने वाले पोस्टर भी लगाए गए जो पूर्वांचल सेना के अध्यक्ष की ओर से लगे. पुलिस की नाक के नीचे किए गए ये कृत्य, भले ही बाद में एफआईआर दर्ज कर आदर्श शर्मा को गिरफ्तार किया गया हो पर असल सवाल यह है कि देशद्रोह के नाम से कन्हैया को बदनाम करने वाले देशद्रोही कौन हैं?

जेएनयू के छात्र अपने खुले विचारों के कारण जाने जाते रहे हैं, निर्भया कांड हो या किसान आत्महत्या, यूजीसी फैलोशिप या अन्य कोई सामाजिक मुद्दा रहा हो, जेएनयू ने सदा अपनी सहभागिता प्रदर्शित की है फिर वे अब ऐसा कृत्य क्यों करेंगे कि उन्हें देशद्रोही कहा जाए?

बहरहाल, कन्हैया को 2 मार्च को दिल्ली हाईकोर्ट से कुछ शर्तों पर 6 महीने की बेल मिल गई है. तिहाड़ जेल से आने के बाद जेएनयू में खुशी का माहौल दिखा और कन्हैया कुमार ने 3 मार्च को करीब 50 मिनट का भाषण दिया और साफ किया कि उस का रोल मौडल अफजल गुरु नहीं बल्कि रोहित वेमुला है.

कन्हैया का सुबूतों के अभाव में बेल पर छूटने से साफ जाहिर है कि वह देशद्रोही नहीं बल्कि देशद्रोही वे कट्टरपंथी हैं जो युवाओं की, नए विचारों, नई सोच और क्रांति की आवाज दबाने में लगे हैं. जाहिर है कट्टरपंथी भगवाकरण के आगे न सोचते हैं न चाहते हैं. इसीलिए उन्हें नई सोच और विचारों के पर कतरने से भी गुरेज नहीं. असली देशद्रोही तो उन्हें मानना चाहिए जो भगवाकरण की आड़ में फलफूल रहे हैं और अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते हुए रोहित वेमुला का केस हो या कन्हैया का, को राजनीतिक रंग देते हुए, नई पीढ़ी को देशद्रोही करार दे रहे हैं.

कन्हैया को देशद्रोही बनाने का सिलसिलेवार घटनाक्रम

9 फरवरी, 2016 : जेएनयू में वामपंथी स्टूडैंट्स के एक ग्रुप ने अफजल गुरु और जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के कोफाउंडर मकबूल भट्ट की याद में एक प्रोग्राम रखा, जिसे सांस्कृतिक कार्यक्रम का नाम दिया गया. इसी कार्यक्रम में जेएनयू के साबरमती होस्टल के सामने शाम को कुछ लोगों ने देशविरोधी नारे लगाए फिर एबीवीपी व वामपंथी छात्रों में झड़प हुई.

10 फरवरी, 2016 : नारेबाजी की वीडियो क्लिपिंग सामने आई.

12 फरवरी, 2016 : पुलिस ने नारेबाजी करने व देशद्रोह के आरोप में कन्हैया कुमार को गिरफ्तार किया. फिर कन्हैया को पटियाला हाउस कोर्ट में पेश किया गया जहां से उसे 3 दिन के रिमांड पर भेजा गया.

15 फरवरी, 2016 : कन्हैया को फिर कोर्ट में पेश किया गया और 2 दिन के रिमांड पर भेजा गया. इसी दौरान वकीलों ने कोर्ट में नारेबाजी कर रहे छात्रों को पीटा.

भाजपा एमएलए ओम प्रकाश शर्मा पर भी कन्हैया को पीटने का आरोप लगा.

17 फरवरी, 2016 : दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने कन्हैया को 2 मार्च तक न्यायिक हिरासत में भेजा.

18 फरवरी, 2016 : कन्हैया ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की.

19 फरवरी, 2016 : कन्हैया को सुप्रीम कोर्ट के बजाय हाईकोर्ट में जाने की सलाह दी गई.

2 मार्च, 2016 : हाईकोर्ट ने कन्हैया को कुछ शर्तों पर 6 महीने की अंतरिम जमानत दी.

3 मार्च, 2016 : कन्हैया ने तिहाड़ से आने के बाद जेएनयू में 50 मिनट का भाषण दिया.

4 मार्च, 2016 : कन्हैया ने स्पष्ट किया कि वह अफजल गुरु को नहीं रोहित वेमुला को अपना आदर्श मानता है.

पारुल भटनागर

‘धूम्रपान’ बनाता है बेरोजगार

आज तक आप ने धूम्रपान से होने वाले शारीरिक नुकसान व गंभीर बीमारियों के बारे में सुना होगा लेकिन धूम्रपान ना केवल आप के स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है बल्कि इस का असर आप की आमदनी पर भी पड़ता है. जी हां जो लोग धूम्रपान करते हैं उन की वित्तीय स्थिति धूम्रपान नहीं करने वाले लोगों की तुलना में कम होती है.

यह बात एक शोध में सामने आई है अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के सहायक प्रोफेसर और इस शोध के नेतृत्वकर्ता जुडिथ प्रोचास्का ने मिल कर धूम्रपान से होने वाली वित्तीय हानि का खुलासा किया है. इस नए शोध में जुडिथ और न के दल ने 131 बेरोजगार धूम्रपान प्रतिभागियों और 120 बेरोजगार धूम्रपान न करने वाले प्रतिभागियों पर एक साल तक अध्ययन किया. इस दौरान प्रतिभागियों का अध्ययन के पहले, छठे और फिर 12वें महीने में आकलन किया गया.

जुडिथ के अनुसार शोध में धूम्रपान करने और न करने वाले प्रतिभागियों के बीच कई मामलों में अंतर पाए गए. उदाहरण के तौर पर धूम्रपान करने वाले प्रतिभागी शिक्षा, आयु और स्वास्थ्य के मामले में धूम्रपान न करने वाले प्रतिभागियों से पीछे थे.

दरअसल धूम्रपान करने वाले लोग मानते हैं कि धूम्रपान उन के काम के प्रदर्शन को बढ़ाता है, लेकिन वास्तव में निकोटिन के अस्थायी व उत्तेजक प्रभाव के कारण वे थोड़ी देर ही काम कर पाते हैं और जैसे ही प्रभाव खत्म होता है, वे तनाव महसूस करने लगते हैं, उन्हें फिर से धूम्रपान की जरूरत पड़ती है, जिस की वजह से वे ज्यादा बे्रक लेते हैं और उन का काम प्रभावित होता है.

शोध के अनुसार, धूम्रपान करने वाले प्रतिभागियों को फिर सेरोजगार प्राप्त करने की दर धूम्रपान न करने वाले प्रतिभागियों से 24% कम ही. जुडिथ के अनुसार निष्कर्षों में पाया गया है कि धूम्रपान करने वालों को नौकरी हासिल करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. यह शोध अमेरिकी पत्रिका जेएएमए में प्रकाशित हुआ है.

भारतीय महिलाओं के साहस को समर्पित है ‘कैबरे’

ऋचा चड्ढा अभिनीत फिल्म 'कैबरे' के साथ शुरुआत कर रहे नवोदित फिल्मकार कौस्तव नारायण नियोगी ने कहा कि यह फिल्म भारतीय महिलाओं के साहस को सलाम करती है. नियोगी ने कहा, "फिल्म 'कैबरे' एक लड़की की कहानी है, जिसकी यात्रा झारखंड के एक छोटे से गांव से शुरू होती है. गांव में उसके साथ दर्दनाक हादसा होता है और इसके बाद वह काम ढूंढ़ने मुंबई आती है."

उन्होंने कहा, "फिल्म 'कैबरे' भारतीय महिलाओं के साहस को एक श्रद्धांजलि है. मैं महिलाओं का बहुत सम्मान करता हूं, जो अपनी आजीविका के लिए देश के विभिन्न भागों से आकर संघर्ष कर रही हैं. यह एक साहसी महिला की एक जीवन यात्रा है."

पूजा भट्ट द्वारा निर्मित इस फिल्म में ऋचा चड्ढा, गुलशन देवैया और एस. श्रीसंत प्रमुख भूमिकाओं में हैं. नियोगी फिल्म निर्देशक बनने का श्रेय पूजा भट्ट को देना चाहते हैं. उनका कहना है कि पूजा ने उन्हें इसके लिए प्रेरित किया.

उन्होंने कहा, "इसका श्रेय पूजा भट्ट को जाता है. मैं विज्ञापन की दुनिया से हूं और वह हमेशा मुझसे कहती थीं कि मुझमें कहानी सुनाने के गुण हैं और मुझे किसी दिन फिल्म-निर्देशन करना चाहिए. वह कहती रहीं और आखिरकार मैंने फिल्म के निर्देशन का फैसला किया."

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