जिम ओबरगीफैल और और्थर लगभग 20 वर्ष से रिलेशन में थे. 2011 में पता चला कि और्थर एक ऐसी लाइलाज बीमारी से पीडि़त हैं जो निरंतर उन के शरीर को कमजोर कर रही है. यह जानते हुए भी कि और्थर का जीवन अब कुछ ही दिन का है, ओबरगीफैल ने और्थर से विवाह करने का निश्चय किया. वे अमेरिका के ओहायो राज्य में रहते थे, जहां समलैंगिक विवाह पर प्रतिबंध था. इसलिए दोनों ने मैरीलैंड जाने का निश्चय किया, जिस के कानून समलैंगिक विवाह के पक्ष में थे. बहरहाल, और्थर की शारीरिक स्थिति इतनी दयनीय थी कि विवाह समारोह बाल्टीमोर में उसी टैरमैक पर आयोजित किया गया, जहां और्थर को लाने वाला मैडिकल ट्रांसपोर्ट हवाईजहाज उतरा था. विवाह के 3 माह बाद और्थर की मृत्यु हो गई, लेकिन कानूनी विवाह के बावजूद ओहायो राज्य ने ओबरगीफैल को और्थर के जीवित जीवनसाथी के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया.
नतीजतन, अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए ओबरगीफैल ने अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, जिस में 15 अन्य याचिकाओं को भी शामिल कर लिया गया. इन 15 याचिकाओं में से 14 समान लिंग जोड़ों की थीं और 2 ऐसे पुरुषों की जिन के समलैंगिक पार्टनर मर चुके थे. ये याचिकाएं मिशिगन कैंटकी, ओहायो व टैनेसी राज्यों से आई थीं, जहां विवाह का अर्थ केवल पुरुष व महिला के बीच मिलन है. इस तरह यह मुकदमा ओबरगीफैल बनाम होजिस के रूप में विख्यात हुआ.
26 जून, 2015 को अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने 5-4 के बहुमत से फैसला सुनाते हुए कहा कि जो कानून एक लिंग के बीच विवाहों को प्रतिबंधित करते हैं वे अब अमेरिका में असंवैधानिक होंगे. बहुमत की तरफ से फैसला लिखते हुए न्यायाधीश एंथनी कैनेडी ने अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन का हवाला देते हुए कहा कि मानव सम्मान व व्यक्तिगत स्वायत्तता का तकाजा है कि विवाह करने का स्पष्ट अधिकार है, जिस का अर्थ यह है कि राज्य आवश्यक रूप से एक ही लिंग के 2 व्यक्तियों के बीच विवाह को लाइसैंस प्रदान करे. यह बहुत कम होता है जब किसी एक देश का सुप्रीम कोर्ट फैसला दे और उस की चर्चा पूरी दुनिया में हो. अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारत सहित दुनिया के लगभग सभी देशों में गंभीर व परस्पर विरोधी चर्चा का विषय बना हुआ है. कहीं इस फैसले को ले कर उत्साह है कि उन के देश में भी अमेरिका की तरह ही कानून बनेंगे, तो कहीं सतरंगी समुदाय का विरोध करने वालों को लगने लगा है कि अब उन्हें ‘अप्राकृतिक यौन संबंधों’ को कानूनन अवैध रखने के लिए पहले से अधिक मेहनत करनी होगी. खासकर इसलिए भी कि सतरंगी समुदाय जितना सोशल मीडिया, अखबारों व इलैक्ट्रौनिक मीडिया, पर मुखर है कि अल्पमत में होने के बावजूद अपनी बात को बहुमत व आधुनिकता के रूप में प्रस्तुत करने में सफल हो जाता है, उतना वह बहुसंख्यक समुदाय में सक्रिय नहीं है जो परंपरागत व प्राकृतिक यौन संबंधों को ही प्राथमिकता देता है.
अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि कानून के समक्ष उन लोगों को भी स्वतंत्रता व बराबरी का अधिकार है जिन की यौन इच्छाएं वैकल्पिक झुकाव रखती हैं. अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट इस परंपरागत तर्क के पीछे नहीं छिपा कि विवाह जैसे व्यक्तिगत संबंधों के बारे में कानूनी प्रश्न का जवाब संसद ही बेहतर तरीके से दे सकती है बल्कि उस ने कहा कि अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन में जो ‘ड्यू प्रोसैस’ व ‘बराबर की सुरक्षा’ जैसे वाक्यांश हैं, वे किसी अन्य समलैंगिक समुदाय को भी उपलब्ध हैं, जब बात अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने की आती है, भले ही वह अपने ही लिंग का व्यक्ति हो.
इस फैसले से भारत का सतरंगी समुदाय भी इस पक्ष में है कि उसे भी कानूनन अमेरिकी लोगों की तरह अधिकार प्रदान किए जाएं. दिलचस्प बात यह है कि भारत के कानून मंत्री डी वी सदानंद गौड़ा ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाया जा सकता है और समान लिंग वाले व्यक्तियों के बीच विवाह को भी मंजूरी देने पर विचार किया जा सकता है. लेकिन दूसरी तरफ ऐसे लोगों की कमी नहीं है, बल्कि वही बहुमत में हैं जो भारतीय दंड संहिता की धारा 377, जिस के तहत अप्राकृतिक सैक्स दंडनीय अपराध है, यह चाहते हैं कि सतरंगी समुदाय को किसी किस्म का कोई अधिकार न दिया जाए, उन पर सख्ती से पाबंदी लगाई जाए ताकि समाज को बिगड़ने से बचाया जा सके.
इस में कोई दो राय नहीं कि समलैंगिक संबंध व विवाह एक संवेदनशील व विवादित मुद्दा है, न सिर्फ भारत में बल्कि अमेरिका जैसे विकसित देश में भी. इसलिए अमेरिका में भी उस के सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के खिलाफ जन प्रदर्शन बड़े पैमाने पर हो रहे हैं.
भारत में तो इस का विरोध काफी लंबे समय से होता आ रहा है, बल्कि इस हद तक कि बहुत से लोग समलैंगिकता को मानसिक बीमारी की श्रेणी में रखते हैं और मांग करते हैं कि समलैंगिकों का इलाज कराया जाए. दूसरी ओर संतरंगी समुदाय इसे समता, सम्मान व आजादी का मुद्दा मानता है. उस का कहना है कि वयस्कों को अपने पसंद के साथी से यौन संबंध स्थापित करने का पूर्ण अधिकार होना चाहिए और समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में रखना मानवता व उन के बुनियादी अधिकारों के खिलाफ है.
इन परस्पर विरोधी विचारों के चलते यह तय करना कठिन है कि कौन सा पक्ष सही है. सही व गलत के लिए बहुमत व अल्पमत आधार नहीं बनता है. इस के अतिरिक्त नैतिक मूल्य भी स्थायी नहीं होते हैं, उन में भी समय के साथ परिवर्तन स्वाभाविक है. ऐसे में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन मामले में सही किया था कि स्वयं धारा 377 पर कोई फैसला लेने के बजाय यह जिम्मेदारी जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों यानी संसद पर डाल दी थी.
इस में दो राय नहीं कि इस विवादित विषय पर बहस करने और किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए संसद ही सब से अच्छी जगह है. हालांकि आयरलैंड की तरह इस मुद्दे पर जनमत संग्रह भी एक विकल्प है, लेकिन बेहतर यही है कि इस विषय पर संसद में ही व्यापक बहस हो ताकि प्रत्येक दृष्टिकोण मुखर हो कर सामने आ सके और कोई ऐसा फैसला बल्कि कानून गठित किया जा सके जो नैतिकता व मानवता के तकाजों को पूरा करता हो और उन लोगों के अधिकारों को भी सुरक्षित रखता हो, जिन की राय अल्पमत में है.
अमेरिका में सतरंगी समुदाय ने अपने तथाकथित अधिकारों को पाने के लिए एक लंबा संघर्ष किया है.
इस की गाथा कुछ ऐसी है :
- 1986 में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को वैध ठहराया था जिस के तहत समलैंगिक संबंध दंडनीय अपराध के दायरे में आता था.
- फिर अपने ही इस फैसले को उस ने 2003 में बदल दिया.
- 2015 में समान लिंग के बीच विवाहों को अनुमति प्रदान कर दी है.
अमेरिकी फैसले के भारतीय संदर्भ
हाल ही में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने 5-4 से सतरंगी (समलैंगिक) समुदाय के पक्ष में ऐतिहासिक फैसला सुनाया जिस के तहत एक ही लिंग के 2 व्यक्तियों को आपस में विवाह करने का अधिकार अमेरिका के सभी राज्यों में दिया गया, जबकि पहले यह अधिकार नहीं था. चूंकि इस फैसले का महत्त्व इतना ज्यादा है कि पूरी दुनिया में इस की गूंज है और भारत में भी एक वर्ग ऐसा है जो इसे अपने देश के लिए मौडल के रूप में इस्तेमाल करने का इच्छुक है, इसलिए आवश्यक हो जाता है कि इस फैसले के उस महत्त्वपूर्ण बिंदु पर भी रोशनी डाली जाए, जो भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 के संदर्भ में भी दिया था और जिस की वजह से इस धारा की वैधता बरकार रही.
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रौबर्ट्स ने बहुमत के फैसले का विरोध करते हुए यह महत्त्वपूर्ण सवाल किया था कि क्या अनिर्वाचित न्यायाधीशों का यह सर्वोच्च अधिकार है कि वे उस लोकतांत्रिक तरीके से गठित कानून का उल्लंघन करें जो उन की दृष्टि में बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन करता है.
इस के जवाब में बहुमत की तरफ से फैसला लिखने वाले न्यायाधीश एंथनी कैनेडी ने लिखा,‘राष्ट्र की अदालतें उन घायल व्यक्तियों के लिए खुली हैं जो उन के पास हमारे बुनियादी चार्टर में सीधे व व्यक्तिगत अधिकार की पुष्टि के लिए आते हैं. एक व्यक्ति को संवैधानिक सुरक्षा का अधिकार है जब उसे महसूस होता है कि उसे कोई नुकसान पहुंच रहा है, भले ही बहुसंख्यक लोग उस से असहमत हों और कार्यपालिका पहल करने से इनकार कर रही हो.’
न्यायाधीश कैनेडी के अनुसार अदालत का सीधा काम यह कानूनी प्रश्न तय करना है कि समलैंगिक विवाह का अधिकार संविधान का उल्लंघन करता है या नहीं? इस प्रश्न का बहुमत में उत्तर हां में है.
जो प्रश्न मुख्य न्यायाधीश रौबर्ट्स ने उठाया था वही भारत के सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भी था जब उस ने दिसंबर, 2013 के फैसले में आईपीसी की धारा 377 को वैध ठहराया था, जिस के तहत ‘गुदामैथुन अप्राकृतिक है,’ भले ही समान लिंग के 2 वयस्कों के आपसी संबंध दोनों की सहमति से बने हों, दंडनीय अपराध है. भारत के सुप्रीम कोर्ट की 2 सदस्यों की खंडपीठ ने इस संदर्भ में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को उलटते हुए, जिस ने धारा 377 को अवैध ठहराया था, कहा था कि इसी कानून को निरस्त करना या उस में संशोधन करने का अधिकार संसद का है न कि अदालत का. अदालत का काम सिर्फ यह है कि कानून की सही से व्याख्या की जाए, वह सही ढंग से लागू हो सके और उस कानून के दायरे में इंसाफ किया जाए.
अगर भारतीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तुलना अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से की जाए तो भारत का सुप्रीम कोर्ट इस मामले में एकदम स्पष्ट था कि समलैंगिकता अपराध की श्रेणी में आती है या नहीं आती, यह निर्णय करना जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों यानी संसद का है और इस में अदालत दखल नहीं दे सकती.
लेकिन इस के विपरीत एक राय यह भी है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट का उक्त फैसला भारतीय न्यायिक स्तर के अनुरूप नहीं था, क्योंकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बरकरार रखने के लिए न्यायिक हस्तक्षेप की हमेशा जरूरत पड़ती है. इसलिए भारत के सुप्रीम कोर्ट को अपनी जिम्मेदारी संसद पर टालनी नहीं चाहिए थी.
कानून मंत्री का साहस
पहले आयरलैंड में जनमत संग्रह से तय हुआ कि एक ही लिंग के 2 लोगों को आपस में विवाह करने का उसी तरह से अधिकार है जिस तरह से विपरीत लिंग के 2 लोग आपस में विवाह करते हैं. इस के बाद अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने 5-4 के बहुमत के फैसले से यह अधिकार अपने देश के सभी राज्यों को प्रदान किया है. इस पृष्ठभूमि में भारत का सतरंगी समुदाय भी यह मांग करने लगा है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट ने जब समलैंगिकता की वैधता/अवैधता का प्रश्न संसद पर डाल दिया है तो अब प्रगतिशील पार्टियों और उदार सांसदों को आगे आना चाहिए और आईपीसी की धारा 377 को संविधान से हटा देना चाहिए. कम से कम उस में संशोधन के जरिए यह प्रावधान रख देना चाहिए कि 2 समान लिंग के वयस्कों के बीच आपसी सहमति से यौन संबंध स्थापित करना अपराध के दायरे से बाहर है. सतरंगी समुदाय का कहना है कि धारा 377 के प्रावधान दकियानूसी हैं, बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन करते हैं व मानव के विपरीत हैं, इसलिए उन्हें संविधान में मौजूद नहीं रहना चाहिए.
संभवतया इसी मांग की पृष्ठभूमि में केंद्रीय कानून मंत्री डी वी सदानंद गौड़ा ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि ‘अप्राकृतिक सैक्स’ को अपराध की श्रेणी में रखने वाली आईपीसी की धारा 377 को निरस्त कर दिया जाएगा और समलैंगिक विवाहों को भी मान्यता प्रदान करने पर विचार किया जाएगा. सदानंद गौड़ा के अनुसार, ‘‘देश का मूल नागरिक इस के पक्ष में प्रतीत हो रहा है, लेकिन यह व्यापक विचारविमर्श के बाद और सभी दृष्टिकोणों को संज्ञान में लेने के बाद ही किया जाएगा.’’ उन का मानना है कि जिस तरह राज्यसभा में ट्रांसजैंडर से संबंधित एक प्राइवेट विधेयक सभी पार्टियों की सहमति से पारित हो गया था और अगर वह लोकसभा में भी इसी तरह से पारित हो जाता है तो धारा 377 अपनेआप ही अर्थहीन हो जाएगी.
निश्चित तौर पर इस किस्म के विचार रखने में सदानंद गौड़ा ने बहुत हिम्मत दिखाई है. उन का संबंध दक्षिण कन्नड़ के पुत्तूर से है जो मंगलुरु लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है. यह तटवर्ती पट्टी सामाजिक मामलों में अपनी परंपरागत सोच के लिए विख्यात है और संघ परिवार का गढ़ मानी जाती है, जोकि सतरंगी समुदाय के विरोध में है. इस के बावजूद सदानंद गौड़ा जो बंगलुरु उत्तर से लोकसभा सांसद हैं, समझते हैं कि ट्रांसजैंडर के संदर्भ में जो विधेयक पारित हुआ वह भारत के समलैंगिक समुदाय के लिए मौडल बन सकता है.
लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है. यद्यपि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन देश की अधिकांश जनता का धर्म में अटूट विश्वास है और धर्म चाहे जो हो वह समलैंगिक विवाह तो बहुत दूर की बात है, समलैंगिकता को ही अप्राकृतिक व पाप समझती है. इसलिए सभी धर्मों के प्रमुख नेताओं ने समलैंगिकता का विरोध किया है. यह लोग बिलकुल इस पक्ष में नहीं हैं कि पश्चिम की तरह भारत में भी समलैंगिकों को अधिकार व स्वतंत्रता प्रदान की जाए. गौैरतलब है कि अमेरिका में भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं और हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट 9 में से 4 न्यायाधीश और वह भी मुख्य न्यायाधीश सहित समलैंगिकों को विवाह अधिकार देने के विरोध में थे. इस पृष्ठभूमि में यह अनुमान गलत न होगा कि चुनावी राजनीति को प्राथमिकता देने वाले भारतीय सांसद मुट्ठीभर सतरंगी समुदाय को खुश करने के लिए बहुसंख्यक राय का विरोध करेंगे. फिर बहुसंख्यक राय की भावनाओं का सम्मान करना भी आवश्यक है.