Download App

लौंगलता स्वाद रहेगा याद

भारत में मिठाइयों को ले कर नएनए प्रयोग होते?हैं. कुछ मिठाइयों के स्वाद खाने वालों को इतने पसंद आए कि हर शहर के लोग उन्हें पसंद करने लगे. लौंगलता भी ऐसी मिठाइयों में शामिल है. भारत में लौंग की गिनती लोकप्रिय मसालों में होती?है. इस की लोकप्रियता का ही प्रमाण इस के नाम पर बनने वाली लौंगलता?है. लौंगलता की सब से बड़ी खासीयत उस में लौंग का इस्तेमाल है. लौंगलता को लौंग के जरीए बांधा जाता है, ताकि उस के अंदर भरे मेवे और मसाले बाहर न आ सकें. लौंगलता देशी मिठाई?है. पहले यह वाराणसी में सब से ज्यादा मशहूर थी. समय के साथसाथ लखनऊ जैसे दूसरे शहरों में भी यह मिलने लगी. अब सारी दुनिया इस की दीवानी है. इस का जायका लोगों को काफी समय तक याद रहता?है.

लखनऊ में जब छप्पनभोग नामक मिठाई की दुकान चालू हुई, तो उस के मालिक रवींद्र गुप्ता ने देशी मिठाइयों को विदेशों में पहचान दिलाने का काम शुरू किया. उन की नजर सब से पहले लौंगलता पर पड़ी. रवींद्र गुप्ता कहते?हैं कि लौंगलता ऐसी मिठाई?है, जिसे बाहर भेजना आसान होता है. यह आसानी से पैक हो जाती?है. इसे कोरियर से बाहर भेजते?हैं. विदेशों में रहने वाले भारतीय मिठाइयों के शौकीन लोग इसे खूब पसंद करते?हैं. इसे खाने में मिठाई और मेवे के साथसाथ लौंग का स्वाद भी मिलता?है. इसे बनाने में अच्छे किस्म के गेहूं के मैदे का इस्तेमाल किया जाता है. इस में खोया व मेवा भी अच्छी किस्म का इस्तेमाल किया जाता?है. वैसे तो विदेशों में बहुत सारी भारतीय मिठायां खाई जाती?हैं, पर लौंगलता अपने रसीले बनारसी टेस्ट के कारण लोगों को बहुत लुभाती?है.

विदेशों में रहने वाले लोग ऐसी मिठाई पसंद करते?हैं, जिस का स्वाद अच्छा हो, पर उस में चीनी का इतना प्रयोग न हुआ हो, जो नुकसान कर सके. ऐसे में लौंगलता उन के लिए सब से ज्यादा मुफीद होती?है. लौंगलता की मांग उन देशों में सब से ज्यादा है, जहां पर भारतीय ज्यादा तादाद में रहते?हैं. अमेरिका, इंगलैंड, मारीशस और सिंगापुर वगैरह ऐसे ही देश?हैं. मुसलिम आबादी वाले देशों में भी इस की मांग खूब?है. अरब देशों में भी लौंगलता खूब पसंद की जाती?है. तमाम भारतीय विदेश वापस जाते समय अपने साथ लौंगलता जरूर ले जाते?हैं.

लौंगलता ज्यादा दिनों तक बिना खराब हुए रखी जा सकती?है. विदेशों के अलावा मुंबई, दिल्ली और जयपुर के लोग भी इसे खूब पसंद करते?हैं. बाहर भेजने के लिए लौंगलता को ऐसे पैक किया जाता है, जिस से इसे ले जाना आसान हो और देखने वाले पर इस का बेहतर असर पड़ सके.

लौंगलता 300 रुपए प्रति किलोग्राम से ले कर 500 रुपए प्रति किलोग्राम तक बिकती?है. गरम लौंगलता खाने का अलग मजा होता?है. आजकल ज्यादातर घरों में ओवन होता है. लौंगलता खाने से पहले उसे ओवन में एक बार गरम कर लिया जाए तो उस का स्वाद बढ़ जाता है. लौंगलता गुझिया नस्ल की मिठाई?है, जिस का स्वाद अब विदेशों तक पहुंच रहा है.

बनाने की विधि

लौंगलता के कारीगर रमेशपाल कहते?हैं कि 1 किलोग्राम मैदे से 100 के करीब लौंगलता बन जाती?हैं. इसे बनाने के लिए सब से पहले मैदे को ठीक तरह से गूंधा जाता है. इस के बाद 1 किलोग्राम खोया, 200 ग्राम काजू, 1 ग्राम केसर और 50 ग्राम किशमिश को मिला कर अंदर भरने की सामग्री तैयार की जाती?है. फिर 1 किलोग्राम चीनी ले कर चाशनी तैयार की जाती है. मैदे से गोल आकार की पूड़ी बना कर उस के अंदर मेवा भर दिया जाता?है. इस के बाद पूड़ी को मोड़ कर सही आकार देते?हैं. मोड़ते समय परत दर परत हलका घी लगा देते?हैं, जिस से परतें आपस में मिलती नहीं हैं. परतें खुले नहीं, इस के लिए लौंग से उन्हें फंसा दिया जाता है.

तैयार लौंगलताओं को घी में हलका भूरा होने तक तल लेते?हैं. इस के बाद उन्हें चीनी की चाशनी में डाल कर निकाल लेते हैं. ऊपर पिस्ता डाल कर लौंगलताओं को सजा देते?हैं.

लौंगलता को तलते समय ध्यान रखना चाहिए कि आंच ज्यादा न हो. ज्यादा तेज आंच होने से यह सख्त हो सकती है, जो खाने में सही नहीं लगती है.

जैविक खेती से भंवर ने कमाया नाम

राजस्थान के जोधपुर जिले के गांव उचियाड़ा के 74 साल के किसान भंवरलाल ने जैविक खेती में नए प्रयोगों से बहुत नाम कमाया है और फसलों का उत्पादन बढ़ा कर कमाई भी की है. भंवरलाल के पास 125 बीघे जमीन है, जिस में 75 बीघे सिंचाई वाली है. साल 1962 में मैट्रिक पास करने के बाद भंवरलाल मास्टर बन गए. 3 साल तक नौकरी करने के बाद वे नौकरी छोड़ कर खेती के काम में लग गए.

भंवरलाल खरीफ में बाजरा, तिल व मूंग की फसल उगाते हैं और रबी में जीरा, सौंफ, मेथी, धनिया, राई व चारा फसलें (रिजका) उगाते हैं. उन के घर में 12 गायें हैं, जिन से खेती के लिए जैविक खाद गोबर के रूप में मिल जाती है. वे गायों को इस तरह रखते हैं कि उन का मूत्र भी एक नाली में बह कर इकट्ठा हो जाए.

जैविक खेती के तहत उन्होंने गौमूत्र इकट्ठा कर के एक ड्रम में भर कर उसे सिंचाई के पानी के साथ मिला कर देना शुरू किया. इस से फसलों के कीटरोग के अंश खत्म हो गए और फसल की पैदावार भी बढ़ी. जैविक खाद के साथ गौमूत्र देने से फसल की गुणवत्ता भी अच्छी रही और अनाज स्वादिष्ठ भी होने लगा.

गोबर की खाद व गौमूत्र जमीन में देने से फसलों में सिंचाई भी कम करनी पड़ी. इस से पानी की बचत हुई और गैरजरूरी रासायनिक खाद व दवाओं का खर्च भी बचा. इस के साथ दीमक से बचाव भी हो गया.

जैविक खेती में नवाचारों में छाछ इकट्ठा कर के खट्टा होने पर नीबू की फसल व अन्य फसलों पर छिड़कने से पत्तों का सिकुड़न रोग खत्म हो गया और पत्तों में पीलेपन की बीमारी नहीं रही. नीबू, आक व धतूरे के पत्तों और निंबोली को ड्रम में भर कर उस की 10 किलोग्राम मात्रा में 100 लीटर पानी डाल कर उस से छिड़काव करने से सौंफ, जीरा व धनिया में कीटों व दूसरे रोगों से छुटकारा पाया.

भंवरलाल बताते हैं कि जैविक खेती में गोबर की जैविक खाद का बहुत महत्त्व है. इस में घर के पशुओं का गोबर काम आ जाता है. कभीकभी बाहर से भी गोबर खरीदना पड़ता है, जिसे वे गड्ढे में सड़ा देते हैं और फिर जरूरत के मुताबिक फसलों में इस्तेमाल करते हैं. भंवरलाल का कहना है कि यूरिया से बढ़वार तो जरूर होती है, परंतु फसलों में ताकत नहीं होती और खेती टिकाऊ नहीं रहती है.

भंवरलाल के मुताबिक निंबौली को इकट्ठा कर के पीस कर व छान कर फसल पर छिड़काव करने से कीटों व रोगों में कमी होती है. इस से हवा भी साफ रहती है.

भंवरलाल लगातार जैविक खेती में आगे बढ़ रहे हैं. उन्हें जहां भी नई जानकारी मिलती है, वे उसे समझ कर अपनाते हैं. पिछले साल भंवरलाल को पशुपालन में जिला स्तर पर प्रगतिशील किसान के नाते 25 हजार रुपए का इनाम दिया गया था. उन्हें उद्यानविभाग से उन्नत बागबानी में जिलास्तर पर 10 हजार रुपए और उन्नतकृषि में 10 हजार रुपए के इनाम भी मिले हैं. उन्होंने किसानों की कई जैविकप्रतियोगिताओं में भाग लिया और उन्हें कई प्रमाणपत्र मिले. इस प्रकार जैविक खेती से भंवरलाल आगे बढ़ रहे हैं. उन्होंने नाम तो कमाया ही है, साथ ही उन की आमदनी भी बढ़ी है. पड़ोसी किसान उन के खेत पर जैविक खेती देखने आते हैं.

भंवरलाल बताते हैं कि जैविक खेती में देशी खाद की करामात होती है. सभी किसान भाई जैविक खेती की तरफ बढ़ें, तो फसल में जहर कम हो सकता है. इस से खर्चा कम होगा, स्वास्थ्य सुधरेगा व खेती में सिंचाई कम होगी. जैविक खेती ही टिकाऊ खेती है. भंवरलाल ने जैविक खेती में तमाम प्रयोग किए हैं.

पशुओं में नस्ल सुधार जरूरी

यह तो हम सभी जानते?हैं कि किसी भी चीज की अच्छी किस्म के कई फायदे होते?हैं, चाहे वह निर्जीव वस्तु हो या सजीव. यहां हम बात कर रहे?हैं पशुओं की नस्ल की. हर नस्ल की कुछ खासीयतें होती?हैं, जो उन्हें उसी जाति के जानवरों से अलग करती हैं. आज के दौर में अगर हम भैंस की बात करते?हैं, तो मुर्रा नस्ल का नाम तुरंत जबान पर आता है. मुर्रा भैंस विश्व की सर्वश्रेष्ठ भैंस मानी जाती है. मुर्रा नस्ल की भैंसें एक ब्यांत में तकरीबन 4500 लीटर तक दूध देती?हैं, जबकि अन्य नस्ल की भैंसें (नीली रावी, कुंडी, भदावरी, तराई, महसाना, जाफराबादी, नागपुरी वगैरह) इतना दूध नहीं दे पाती हैं.

गाय की नस्लों में अमेरिकन नस्ल की गाय जरसी, होलस्टिन, फ्रीजियन ज्यादा मात्रा में दूध देती?हैं. इन की तुलना में भारतीय नस्ल की गायें साहीवाल, गिर, रेड सिंघी, नागौरी, थारपारकर कम दूध देती?हैं.

जरूरी है नस्ल सुधार

इस बारे में पशु विशेषज्ञों का कहना?है कि हम किसी पशु को चाहे कितना भी अच्छा पौष्टिक चारा या अन्य पौष्टिक आहार क्यों न दें, लेकिन इस से उस की दूध देने की कूवत में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं हो सकता. जिस नस्ल की जितना दूध देने की कूवत है, उस को हम बदल नहीं सकते. इस के लिए हमें पशु की नस्ल में सुधार करना होगा.

पशु प्रजनन विज्ञान में ऐसा तरीका है, जिस के द्वारा हम कम दूध देने वाली नस्ल को भी ज्यादा दूध देने वाली नस्ल में तबदील कर सकते हैं. इस तरीके को हम क्रास ब्रीडिंग कहते हैं. यानी जब हम एक ही जीव की 2 अलगअलग नस्लों का आपस में मिलन करवाते हैं, तो इसे क्रास ब्रीडिंग कहते?हैं.

कृत्रिम गर्भाधान विधि से कम अच्छी नस्ल वाली मादा पशु को ज्यादा अच्छी नस्ल वाले नर पशु से न मिलवा कर कृत्रिम तरीके से मादा पशु की बच्चेदानी में बीज रखते हैं. आमतौर पर हम अगर अपने दुधारू पशु को गाभिन करवाते?हैं तो नर पशु (सांड़) मादा की वैजाइना में सीमन (वीर्य) छोड़ता?है, जबकि कृत्रिम गर्भाधान में पशु चिकित्सक नर पशु के सीमन को मादा की बच्चेदानी में छोड़ते हैं. इस प्रकार कृत्रिम गर्भाधान से गर्भधारण की संभावना बढ़ जाती है.

कम अच्छी नस्ल की मादा को आसानी से अच्छी नस्ल वाला पशु बनाया जा सकता है. इस के लिए मादा का गर्भाधान हर बार अच्छी नस्ल वाले नर के सीमन से कृत्रिम तरीके से करवाना होगा और तकरीबन छठेसातवें गर्भाधान तक वह उसी नस्ल की मादा बन जाती?है, जिस नस्ल का नर है.

आमतौर पर गाय की गर्भावस्था का समय 9 महीने 9 दिनों व भैंस की गर्भावस्था का समय 10 महीने 10 दिनों का होता है. भेड़बकरी की गर्भावस्था का समय 5 महीने 5 दिनों, मादा सूअर की गर्भावस्था का समय साढ़े 3 से 4 महीने होता है. आज बेशक हम दूध उत्पादन के मामले में काफी आगे हैं, लेकिन पशुओं की नस्लों के मामले में अभी कई देशों से पीछे?हैं. अभी हम जो दूध उत्पादन कर रहे?हैं, उस के लिए ज्यादा पशुओं का इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि विदेशों मेंकम पशुओं से ज्यादा दूध लिया जा रहा?है.

देश में हैं 151 देशी नस्ले

राष्ट्रीय पशु अनुवांशिक संसाधन?ब्यूरो करनाल (हरियाणा) देश के पशुधन व मुरगियों की नस्ल के पंजीकरण की समिति है. नस्ल पंजीकरण समिति ने 5 जनवरी 2015 को नई दिल्ली में हुई बैठक में 7 नई पशुओं व मुरगियों की प्रजातियों को शामिल किया, जिन में गाय की 2 नस्लें और बकरी, भेड़, ऊंट, सूअर व चिकन की 1-1 नस्लें शामिल हैं. इन नई नस्लों को शामिल करने के बाद अब देश में देशी नस्लों की कुल संख्या 151 हो गई है, जिस में गाय की 39, भैंस की 13, बकरी की 24, भेड़ की 40, घोड़े व टट्टू की 6, ऊंट की 9, सूअर की 3, गधे की 1 और चिकन की 16 नस्लें शामिल हैं.

देशी खाद से उपजा रहे खाद्यान्न 6 महीने पहले हो जाती है बुकिंग

आज के दौर में घटती जमीन और गिरती पैदावार किसानों की सब से बड़ी परेशानी बनती जा रही है. ऐसे में किसान उपज की पैदावार बढ़ाने के लिए जब महंगी खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल करता है, तो खेती की लागत और भी ज्यादा बढ़ जाती है. साथ ही किसान अच्छी पैदावार लेने के चक्कर में जमीन की सेहत को भी नजरअंदाज कर देते हैं.

कई बार महंगी फसल की बोआई करने के लिए किसान बैंक से या साहूकारों से कर्ज ले कर काम करते हैं. जब सही तरह से फसल तैयार नहीं होती, तो वे नुकसान उठाते हैं. ऐसे हालात में फंस कर किसान कई बार आत्महत्या तक करने को मजबूर हो जाते हैं.

कम जमीन होने के बावजूद जैविक खेती कर के गुणवत्तापूर्ण फसल लेने वाले कोथून इलाके के आधा दर्जन से भी ज्यादा किसान दूसरे किसानों के लिए मिसाल बन रहे हैं. इन किसानों की खास बात यह है कि ये खेत में एक भी दाना यूरिया या डीएपी खाद का नहीं डालते और न ही किसी तरह के कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं. इस के बावजूद उत्पादन और गुणवत्ता लगातार बढ़ रही है.

ऐसे ही एक किसान रामलाल चौधरी बताते हैं कि अगर किसान अपनी खेती की सेहत को सही रखे, उस में सही मात्रा में जैविक खाद का इस्तेमाल करे, तो मिट्टी तो उपजाऊ बनी रहेगी ही, साथ ही कैमिकल खादों और कीटनाशकों की जरूरत ही नहीं रहेगी. यदि खेत की सेहत ठीक रहेगी, तो उस में विभिन्न किस्मों की फसलें भी ली जा सकती हैं.

जैविक खेती करने वाले किसान रामलाल, रामप्रसाद, रामकिशन, महिपाल व रामजस मानते हैं कि जिस तरह से कमजोर शरीर वाला व्यक्ति ज्यादा मेहनत वाला काम नहीं  कर सकता, उसी तरह कमजोर खेत भी अच्छी फसल पैदा नहीं कर सकता. इसलिए किसानों को सब से पहले अपने खेत की मिट्टी की सेहत ठीक रखनी चाहिए.

जैविक खाद से खेती करने वाले महाचंदपुरा गांव के रहने वाले किसान रामकिशन चौधरी के पास 6 बीघे जमीन है. इस में वे चना, मटर, अरहर, मूंगफली व गेहूं की खेती करते हैं. वे कई तरह की अलगअलग फसलों को मिला कर मिक्स खेती करते हैं, जिस से मुनाफा बढ़ जाता है.

अकसर एक खेत में एकसाथ कई तरह की फसलें लेने से मिट्टी की उपजाने की ताकत घट जाती है, लेकिन खेत की सेहत को बनाए रखने के लिए रामकिशन चौधरी ने जैविक खाद का इस्तेमाल किया. वे मानते हैं कि कंपोस्ट खाद और सीपीपी यानी हरी खाद से खेत की उर्वराशक्ति अच्छी रहती है, जिस से खेत से एकसाथ कई तरह की फसलें ली जा सकती हैं.

जयपुर जिले के कोथून गांव में जयपुरकोटा नेशनल हाईवे के किनारे रामलाल की 40 बीघे जमीन है. एक सीजन में वे 20 बीघे जमीन पर खेती करते हैं और इतनी ही जमीन खाली छोड़ देते हैं, ताकि अगली फसल के लिए जमीन अच्छी तरह से तैयार हो सके. वे रबी सीजन में गेहूं तो खरीफ में बाजरा व कुछ जमीन पर सब्जियां भी उगा लेते हैं.

खास बात यह है कि वे खेत में एक भी दाना यूरिया या डीएपी खाद का नहीं डालते और न ही किसी तरह के कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं. इस के बावजूद उन की फसलों का उत्पादन और गुणवत्ता लगातार बढ़ रही है.

किसानों के सामने ऐसी ही अनूठी मिसाल पेश कर रहे हैं, पेशे से टीचर रामलाल चौधरी. स्कूल की छुट्टी के बाद रामलाल अपना ज्यादातर समय खेतीबारी में ही निकालते हैं. वे फसल बोने से पहले खेत में गायभैंस का गोबर भरपूर मात्रा में डालते हैं, ताकि फसल का उत्पादन अच्छा हो.

रामलाल ने बताया कि उन के इस कदम से हालांकि उत्पादन में तो ज्यादा फर्क नहीं आया है, लेकिन फसल की गुणवत्ता में काफी बदलाव आया है. गेहूं व बाजरे का दाना बड़ा होता है और उन का स्वाद भी अच्छा रहता है.

वैसे रामलाल द्वारा देशी खाद से उपजाए जा रहे खाद्यान्न की जानकारी जैसेजैसे उन के रिश्तेदारों व जानपहचान वालों को मिली, उन्होंने पहले ही बुकिंग करना शुरू कर दिया.

रामलाल ने बताया कि उन के द्वारा उगाए जा रहे खाद्यान्न की कीमत उन्हें बाजार भाव से 8 से 10 रुपए प्रति किलोग्राम ज्यादा मिल रही है. उन का यह सिलसिला पिछले 8 सालों से लगातार चल रहा?है. अब तो अनजान लोग भी उन से गेहूं व बाजरा लेने के लिए पहले ही रुपए जमा करा देते हैं.

वैसे तो खेत में गोबर डालने के लिए रामलाल 8-10 गायभैंसें पालते हैं, लेकिन गोबर की मात्रा कम पड़ने पर वे आसपास की गौशालाओं से भी गोबर खरीद कर लाते हैं और खेत में डालते हैं. उन का मानना है कि गोबर को खेत में डालने से फसल व उपज की गुणवत्ता में काफी हद तक सुधार आता है.वे कहते हैं कि ज्यादा उपज लेने के चक्कर में ज्यादातर किसान फसलों व खेतों में अंधाधुंध कैमिकल खादों व कीटनाशकों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि ये बीमारियों को बुलावा देने का साधन हैं.

रामलाल आगे बताते हैं कि पंजाब व हरियाणा में आज सब से ज्यादा कैंसर के रोगी मिलने की यही सब से बड़ी वजह है. वहां पर कैमिकल खादों व कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल किया जा रहा है. इन के साइड इफैक्ट देख कर उन्होंने 8 साल से कैमिकल खादों व कीटनाशकों का इस्तेमाल करना बंद कर दिया. अब वे खेत में केवल गोबर की खाद ही डाल रहे हैं.

इस मामले में चाकसू की कृषि अधिकारी डाक्टर पूनम शर्मा का कहना है कि फसलों में कीटनाशकों व कैमिकल खादों का ज्यादा इस्तेमाल नुकसानदायक है. हालांकि उपज बढ़ाने के लिए उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन इस के साथ किसानों को गोबर की खाद का भी बराबर इस्तेमाल करते रहना चाहिए. वैसे किसानों को खेती के माहिरों की सलाह ले कर ही कीटनाशकों व कैमिकल खादों का इस्तेमाल करना चाहिए.

चीनी मिलों के बेढंगे रंग किसानों का मोह भंग

पहली फरवरी 2016 को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्नाकिसानों ने सरकारी बेरुखी से परेशान हो कर सड़क जाम कर दी थी. ऐसा पहली बार नहीं हुआ, क्योंकि चीनीमिलों को बेचे गए गन्ने के दाम पाने के लिए किसानों को हर साल धरनाप्रदर्शन करना पड़ता?है. गन्नाकिसानों के अलावा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो अपना माल बेच दे व उसे यही न पता हो कि उस का दाम कितना व कब मिलेगा? किसानों की परेशानियां यहीं खत्म नहीं होती हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गुड़ के कोल्हू व चीनीमिलें नवंबर में चालू हो जाती हैं, लेकिन इस बार ज्यादातर चीनीमिलें करीब 1 महीने देर से चलीं. इसलिए गेहूं की बोआई करने के लिए किसानों को सही समय पर खेत खाली नहीं मिले. जुलाई से सितंबर तक हर साल चीनीमिलों में मरम्मत होती है, जो इस बार 2 महीने देर तक हुई?थी. इस के अलावा गन्ना पेराई के लिए सभी चीनीमिलों ने गन्ने की मांग, खरीद सेंटर व क्षेत्र रिजर्व करने आदि के बारे में कोई जानकारी भी नहीं भेजी थी. इसलिए गन्नाकिसान परेशान रहे.

बहुत से किसान अब गन्ने की खेती से परेशान आ चुके हैं. ज्यादातर चीनीमिलें हर साल उन की गन्ने की पैदावार के अरबों रुपए दबा कर बैठ जाती हैं और देने का नाम ही नहीं लेतीं. गन्ने की कीमत का बकाया किसानों को मिलने के बजाय कचहरी में उलझ जाता?है. इसलिए परेशान हो कर बहुत से किसान अब दूसरी फसलों को उगाने लगे?हैं.

भीकुरहेड़ी मुजफ्फरनगर के किसान सुमित गन्ना छोड़ कर अब केले की सफल खेती कर रहे हैं. सुमित को गन्ने की खेती में 1 एकड़ पर होने वाले 25 हजार रुपए खर्च पर मुनाफा 50 हजार रुपए मिलता था, लेकिन गन्ने के पूरे दाम कभी समय पर नहीं मिलते थे, जबकि केले उगाने में सिर्फ 18 हजार रुपए खर्च कर के 70 हजार रुपए का मुनाफा मिलता है.

बहुत से किसान गन्ना छोड़ कर फल, फूल, सब्जी, मैंथा व मसालों आदि की खेती करने लगे हैं. बढ़रा गांव के कृष्णपाल सिंह पापुलर उगाते हैं, साथ में नर्सरी चलाते हैं और गन्ने से कहीं ज्यादा कमाते हैं. अगर यही हाल रहा तो अरबोंखरबों की लागत से चल रही चीनीमिलों का हाल ठीक कानपुर व मुंबई की सूती मिलों जैसा होगा. चीनीमिलें बंद हो कर कम हो सकती हैं, जिस का असर चीनी उत्पादन पर पड़ेगा.

गन्ने की कमी से चीनी उद्योग टूट सकता?है. गन्नाकिसानों के सामने भी परेशानियां आएंगी. गन्ने की प्रति हेक्टेयर उत्पादन लागत दिनोंदिन बढ़ती जा रही?है. किसान नुकसान उठा कर अब गन्ने की खेती से दूर भाग रहे हैं. इसलिए गन्ने की खेती में ज्यादा कमाई के लिए किसानों द्वारा खुद गन्ने की प्रोसेसिंग करना बेहद जरूरी है.

देश में गन्ने की पैदावार चीनीमिलों की जरूरत से 40 लाख टन ज्यादा है. इसलिए बचा हुआ गन्ना किसान कोल्हू व क्रैशरों पर औनेपौने दामों पर देने को मजबूर रहते हैं. यह बात चीनीमिलों के मालिक अच्छी तरह से जानते हैं और इसी का वे फायदा भी उठाते?हैं. इसलिए कम जमीन में गन्ने की ज्यादा उपज लेने की तरकीब खोजनी जरूरी है. इस के लिए किसान गन्ने की जल्दी पकने व ज्यादा उपज देने वाली नई अगेती किस्में उगा सकते हैं.

ठगे जाते हैं किसान

गन्नाकिसान हर मोर्चे पर ठगे जाते हैं. गन्ने से जुड़ी सब से बड़ी मजबूरी यह?है कि गेहूं व धान आदि खेती की दूसरी उपजों की तरह गन्ने को खेत से काटने के बाद रोक कर नहीं रखा जा सकता. कटाई के बाद गन्ने को जल्द से जल्द चीनीमिलों में पहुंचाना पड़ता?है, नहीं तो वह सूखने लगता है. इसी जल्दबाजी के कारण गन्ना खरीद सेंटरों पर खूब धांधली होती है.

चीनीमिलों में गन्ना डालने के बाद किसानों को उन के गन्ने की पूरी कीमत कभी समय पर नहीं मिलती. प्राइवेट चीनीमिलों की लूट से बचने के लिए महाराष्ट्र, गुजरात व उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में किसानों ने सहकारी चीनीमिलें लगाई?थीं. लेकिन सरकारी दखलअंदाजी व खराब रखरखाव से वे सिर्फ नाम की ही सहकारी मिलें हैं. उन पर असरदार नेताओं का कब्जा?है.

भारी बकाया

उत्तर प्रदेश की ज्यादातर चीनी मिलों पर बीते व चालू गन्ना पेराई मौसम की गन्ना कीमत व ब्याज के करोड़ों रुपए बकाया चल रहे?हैं. हालांकि चीनीमिल मालिकों पर कार्यवाही की गई व नोटिस भेजे गए. कुछ चीनीमिलों के खिलाफ एफआईआर भी लिखी गई. एक मिलमालिक को जेल भी भेजा गया, लेकिन नतीजा फिर भी कुछ भी नहीं निकला. ऐसे में किसान आखिर कहां जाएं व किस से अपनी परेशानी बताएं.

हाई कोर्ट इलाहाबाद ने किसानों को उन की बकाया कीमत देने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश दिए थे, लेकिन प्राइवेट मिलों ने उस आदेश की परवा नहीं की. किसानों की कही जाने वाली 23 सहकारी चीनीमिलों ने भी कोर्ट से अपनी मजबूरी जताते हुए पैसा देने के लिए समय मांग लिया था. हालांकि केंद्र सरकार ने गन्नाकिसानों की बकाया कीमत देने के लिए चीनीमिलों को कर्ज भी दिया है, लेकिन समस्या फिर भी नहीं सुलझी.

क्या है उपाय

निजी चीनीमिलों के संगठन व सहकारी चीनीमिल फेडरेशन का कहना?है कि चीनीमिलें कई सालों से घाटे में हैं. वे अपनी पूंजी खा रही?हैं. वेतन व मजदूरी आदि के लिए उन के पास पैसा नहीं है. 50 लाख गन्नाकिसानों का बकाया 21 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा है. लिहाजा चीनी की कीमतों में बढ़ोतरी व गन्नेचीनी की कीमतें आपस में जोड़ने से ही सरकारी रेट पर गन्ने की कीमत दी जा सकती है. किसान अपनी उपज की सही कीमत चाहते?हैं. लिहाजा सरकार को जल्द ही गन्नाकिसानों व चीनीमिलों के लिए बीच का रास्ता निकालना पड़ेगा. एक उपाय यह?भी हो सकता है कि गेहूं व धान की तरह गन्ने पर सब्सिडी सीधे किसानों को उन के बैंकखाते में दी जाए.

किसान खेती के पुराने तरीकों पर चलना छोड़ कर नए तौरतरीके अपनाएं, गन्ने की प्रोसेसिंग करें, गन्ने से बनने वाली वस्तुओं के लिए अपने कारखाने लगाएं, ताकि खेती से होने वाली आमदनी में बढ़ोतरी हो सके, लेकिन इस के लिए किसानों को अपनी सोच बदल कर कारोबारी बनना होगा व तकनीक सीखनी होगी.

केंद्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी संस्थान, एफटीआरआई मैसूर के वैज्ञानिकों ने ऐसी तकनीक निकाली है, जिस से कोल्ड ड्रिंक की तरह गन्नारस को बोतलबंद किया जा सकता है. भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ के वैज्ञानिकों ने गन्ने के रस से पैक्ड गुड़, क्यूब्स, तरल गुड़ का सिरप व औरगैनिक शक्कर बनाने के किफायती तरीके निकाले हैं. केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान, भोपाल ने चाकलेट जैसी गुड़ व मूंगफली की न्यूट्रीबार बनाने की तकनीक खोजी है. किसान इन्हें अपना कर गन्ने से ज्यादा कमाई कर सकते?हैं.

तकनीक नई

नई तकनीकों से गन्ने की खोई जैसे कचरे का भी बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है. मसलन 200 चीनी मिलों में गन्ने की खोई से चलने वाले कोजनरेशन प्लांट लगा कर 3500 मेगावाट बिजली बनाई जा रही है. अब 529 चीनीमिलों से 16000 मेगावाट बिजली बनाने का मकसद तय किया गया?है. बिजली के अलावा गन्ने की खोई से गत्ता, लुग्दी, कागज और वर्मी कंपोस्ट खाद आदि बना कर कमाई की जा सकती?है.

किसान गन्ने की मिठास से खुशहाली ला सकते?हैं, क्योंकि पूंजी जुटाने की सहूलियत मौजूद?है. किसान मिल कर यदि अपनी निर्माता कंपनी बनाएं तो केंद्र सरकार शेयर पूंजी अनुदान योजना के तहत 10 लाख रुपए तक 2 गुना अनुदान दे रही?है.

घट रहा गन्ने का रकबा

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में साल 2012 के दौरान सभी गन्ना उत्पादक 18 राज्यों में गन्ने का कुल रकबा 3610 लाख हेक्टेयर था, जो साल 2014 तक घट कर सिर्फ 3500 हेक्टेयर रह गया. उम्मीद है कि इस साल इस में और भी कमी आएगी. गन्ने की खेती में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र व कर्नाटक सूबे देश भर में सब से आगे हैं. देश का 38 फीसदी गन्ना उत्तर प्रदेश में, 22 फीसदी गन्ना महाराष्ट्र में और 10 फीसदी गन्ना कर्नाटक में पैदा होता?है.

उत्तर प्रदेश के गन्ना विभाग में करीब 5 हजार लोग गन्ने की खेती को बढ़ावा देने का काम करते?हैं. गन्नाविकास के नाम पर हर साल करोड़ों रुपए खर्च किए जाते?हैं. तब भी वहां गन्ने की खेती व गन्ने की पैदावार लगातार घट रही?है.

इस राज्य के 44 गन्ना उगाने वाले जिलों में साल 2013 के दौरान गन्ने का रकबा 2424025 हेक्टेयर था, जो साल 2014 में?घट कर 2360266 व साल 2015 के दौरान घट कर सिर्फ 2132092 हेक्टेयर रह गया. इसी तरह गन्ने की पैदावार में भी कमी आई?है. उत्तर प्रदेश में साल 2013 के दौरान गन्ने की पैदावार 1493 लाख टन थी, जो साल 2014 के दौरान घट कर 1480 लाख टन व साल 2015 में?घट कर सिर्फ 1389 लाख टन रह गई.                                         ठ्ठ

कुछ कहती हैं तसवीरें

रंग भरे मौसम में : ‘मेरी पहले ही तंग थी चोली…’ जैसे गीतों से भरा होली का त्योहार भारतीयों के लिए किसी टानिक से कम नहीं है. किसानों और गांव वालों के लिए तो होली किसी सौगात जैसी दिलकश होती है.

अंगूर की खास किस्म ‘पूसा अदिति’

नई दिल्ली के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के फल एवं बागबानी विभाग ने अंगूर की एक नई किस्म ‘पूसा अदिति’ तैयार की है. इस का विकास उत्तर भारत के इलाकों को ध्यान में रख कर किया गया है.

मिट्टी : अंगूर की बागबानी हर प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है. लेकिन इस के लिए बड़े कणों वाली रेतीली से ले कर मटियार दोमट मिट्टी सब से अच्छी मानी गई है.

खाद व उर्वरक : दक्षिणी भारत में अंगूरों के बागों में सब से ज्यादा खाद व उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाता?है. वैसे यह भी सही?है कि वहां पर उपज भी सब से?ज्यादा यानी तकरीबन 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जाती?है. दरअसल वहां के हालात व जलवायु में काफी मात्रा में खाद व उर्वरकों की जरूरत पड़ती है. वहां पर हर तोड़ाई के बाद अंगूर के बगीचों में खाद डाली जाती है. पहली खुराक में नाइट्रोजन व फास्फोरस की पूरी मात्रा और पोटेशियम की आधी मात्रा दी जाती है. फल लगने के बाद पोटेशियम की बाकी मात्रा दी जाती है.

उत्तर भारत में प्रति लता के हिसाब से हर साल 75 किलोग्राम गोबर की खाद दी जाती है. इस के अलावा हर साल 125-250 किलोग्राम नाइट्रोजन, 62.5-125 किलोग्राम फास्फोरस और 250-375 किलोग्राम पोटेशियम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डाला जाता?है.

अंगूर की फसल में 5 साल की बेलों में 500 ग्राम नाइट्रोजन, 700 ग्राम म्यूरेट औफ पोटाश या 700 ग्राम पोटेशियम सल्फेट व 50-60 किलोग्राम नाइट्रोजन की खाद प्रति बेल हर साल देने को कहा जाता है.

काटछांट के तुरंत बाद जनवरी के आखिरी हफ्ते में नाइट्रोजन व पोटाश की आधी मात्रा व फास्फोरस की पूरी मात्रा डालनी चाहिए. बाकी उर्वरकों की मात्रा फल लगने के बाद डाल कर जमीन में अच्छी तरह मिला देना चाहिए. ऐसा करने से अंगूर की भरपूर उपज मिलती है.

कलम लगाना : कलम के नीचे का कट गांठ के ठीक नीचे होना चाहिए और ऊपर का कट तिरछा होना चाहिए. इन कलमों को अच्छी तरह तैयार की गई क्यारियों में लगा देना चाहिए. ये कलमें हमेशा निरोग व पकी टहनियों से ही लेनी चाहिए. 4-6 गांठों वाली 25-45 सेंटीमीटर लंबी कलमें ली जाती?हैं, जो 1 साल में रोपने के लिए तैयार हो जाती?हैं.

रोपाई : उत्तर भारत में अंगूर की रोपाई का सही समय जनवरी महीना है, जबकि दक्षिणी भारत में अक्तूबरनवंबर व मार्चअप्रैल में रोपाई की जाती?है.

सधाई व छंटाई : अंगूर की?भरपूर उपज लेने के लिए बेलों की सही छंटाई जरूरी है. अनचाहे भाग काट दिए जाते?हैं, इसे सधाई कहते?हैं और बेल पर फल लगने वाली शाखाओं को सामान्य रूप से फैलने के लिए किसी?भाग की?छंटनी को छंटाई कहते हैं.

अंगूर की बेल को साधने के लिए 2.5 मीटर?ऊंचाई पर सीमेंट के खंभों के सहारे लगे तारों के जाल पर बेलों को फैलाया जाता?है. बेलों को जाल तक पहुंचाने के लिए केवल 1 ही ताना बना दिया जाता है. बेलों के जाल पर पहुंचने पर ताने को काट दिया जाता?है.

अंगूर की बेलों की समय पर काटछांट करना बेहद जरूरी है, पर कोंपलें फूटने से पहले काम पूरा हो जाना चाहिए. काटछांट का सही समय जनवरी का महीना होता है.

सिंचाई : आमतौर पर अंगूर की बेलों को नवंबर से दिसंबर तक सिंचाई की जरूरत नहीं होती है, लेकिन छंटाई के बाद बेलों की सिंचाई जरूरी होती है. फूल आने व फल बनने के दौरान पानी की जरूरत होती?है. जैसे ही फल पकने शुरू हो जाएं, सिंचाई बंद कर देनी चाहिए. फलों की तोड़ाई के बाद भी एक सिंचाई जरूर करनी चाहिए.

फलों की तोड़ाई?: अंगूर के फलों के गुच्छों को पूरी तरह पकने के बाद ही तोड़ना चाहिए, क्योंकि अंगूर तोड़ने के बाद नहीं पकते?हैं. फलों की तोड़ाई सुबह या शाम के समय करनी चाहिए. पैकिंग से पहले गुच्छों से?टूटे या गलेसड़े दानों को निकाल देना चाहिए ताकि अच्छे अंगूर खराब न हों.

उपज ?: अंगूर के बाग की अच्छी देखभाल करने के 3 साल बाद फल मिलने शुरू हो जाते?हैं, जो 25-30 सालों तक चलते रहते?हैं. उत्तर भारत में उगाई जाने वाली किस्मों से शुरू में कम उपज मिलती है, पर बाद में उपज में इजाफा होता रहता है. नई पूसा अदिति किस्म से अन्य किस्मों के मुकाबले ज्यादा उपज मिलती?है. उत्तर भारत के किसानों को इस नई किस्म को उगा कर लाभ उठाना चाहिए.

खरपतवार की रोकथाम के लिए नियमित रूप से निराई व गुड़ाई करें.

कीटों से बचाव

थ्रिप्स : इस कीट का प्रकोप मार्च से अक्तूबर तक रहता?है. यह अंगूर की पत्तियों, शाखाओं और फलों का रस चूस कर नुकसान पहुंचाता?है.

इस की रोकथाम के लिए 500 मिलीलीटर मेलाथियान को 500 लीटर पानी में?घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

चैफर बीटिल : यह अंगूर का सब से खतरनाक कीट है, जो रात के समय बेलों पर हमला करता?है और पूरी फसल को तबाह कर देता?है. इस की रोकथाम के लिए 0.5 फीसदी क्यूनालफास के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

एंथ्रेक्नोज : यह एक फफूंदी जनक रोग है. इस का प्रकोप पत्तियों व फलों दोनों पर होता है. पत्तियों की शिराओं के बीच में जगहजगह टेढ़ेमेढ़े गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते?हैं, इन के किनारे भूरे या लाल रंग के होते?हैं, बीच का हिस्सा धंसा हुआ होता?है और बाद में पत्ता गिर जाता है. शुरू में काले रंग के धब्बे फलों पर पड़ जाते हैं.

इस की रोकथाम के लिए पौधे के रोगी भागों को काट कर जला दें. पत्तियां निकलने पर 0.2 फीसदी बाविस्टीन के घोल का छिड़काव करें. बारिश के मौसम में कार्बडाजिम के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

चूर्णी फफूंदी : यह एक फफूंदीजनक रोग है. इस में पत्ती, शाखाओं व फलों पर सफेद चूर्णी धब्बे बन जाते हैं. ये धब्बे धीरेधीरे सभी पत्तों व फलों पर फैल जाते हैं, जिस के कारण फल गिर सकते?हैं या देरी से पकते?हैं.

इस की रोकथाम के लिए 0.2 फीसदी घुलनशील गंधक या 0.1 फीसदी कैराथेन का छिड़काव 10-15 दिनों के अंतराल करें. ठ्ठ

पूसा अदिति अंगूर की खासीयत

 

*      यह अगेती किस्म है.

*      अंगूर के गुच्छे का वजन तकरीबन 450 ग्राम होता है.

*      गुच्छे के हर दाने का आकार एकसमान होता?है.

*      सभी दानों की मिठास भी एकजैसी होती?है.

*      इस के दाने फटते नहीं?हैं.

*      यह किस्म मानसून आने से पहले जून के दूसरे हफ्ते तक तैयार हो जाती है.

*      इस किस्म के अंगूर पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश व राजस्थान राज्यों में उगाए जा सकते?हैं.

*      यह ज्यादा उपज देने वाली किस्म है.

लोबिया की खेती से बदल गई जिंदगी

उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के ब्लाक सल्टौआ गोपालपुर के गांव घवखास के रहने वाले 58 साल के किसान जगदत्त सालों से गन्ने की खेती कर रहे थे, लेकिन गन्ना मिलमालिकों की मनमानी और सरकार की लापरवाही से ऊब कर उन्होंने गन्ने की खेती छोड़ कर दूसरी नकदी फसलों की खेती करने की ठानी जो कम समय और कम लागत में ही ज्यादा मुनाफा दें. यह बात 4 साल पहले की है, जब उन्होंने गन्ने की खेती को?छोड़ कर सब्जी की खेती करने की ठानी.

इस से पहले उन्होंने सब्जी की खेती कभी नहीं की?थी. इसलिए सब्जी की फसल की शुरुआत करने से पहले वे बस्ती की सब्जी मंडी गए जहां उन्होंने अलगअलग सब्जियों के आढ़तियों से सब्जी की मांग, उपलब्धता व बाजार भाव की जानकारियां लीं. किसान जगदत्त को लोबिया के एक आढ़ती ने बताया कि उस के यहां साल भर लोबिया की आवक होती है, जिस की मांग और बाजार भाव दोनों हमेशा ऊंचा रहता है. इस के बाद जगदत्त ने सब्जी की अन्य किस्मों व उन के बाजार भाव की भी जानकारी ली.

मंडी से वापस लौटते समय जगदत्त लोबिया की खेती का मन बना चुके थे. इस के लिए उन्होंने रास्ते में पड़ने वाली बीज की एक दुकान पर लोबिया की किस्मों व उस की खेती की जानकारी ली और वे लोबिया की उन्नतशील किस्म काशी कंचन का 2.5 किलोग्राम बीज ले कर घर आए. इस के बाद लोबिया की खेती के बारे में ली गई जानकारी के अनुसार उन्होंने जून के महीने में लोबिया के बीजों का शोधन कर उन की अपने खेत में रोपाई कर दी. 2 बीघे खेत में उन्होंने देशी खाद डाल कर बताई गई विधि के अनुसार लोबिया की बौनी किस्म की बोआई कर दी.

जब उन की बोई गई लोबिया की फसल में तकरीबन 50 दिनों बाद फलियां तोड़ने लायक हो गईं तो उन्होंने पहली बार 1 क्विंटल फलियों की तोड़ाई कर के उन्हें खुद बाजार में बेचा, जहां उन्हें तकरीबन 3 हजार रुपए की आमदनी हुई. पहले दिन इतना सारा पैसा देख कर उन का उत्साह दोगुना हो गया. वे अपनी फसल की और अच्छी तरह देखभाल करते रहे और तैयार फसल को बाजार में बेचने ले जाते रहे. इस से उन्हें 4 महीने में ही तकरीबन 20 क्विंटल लोबिया की उपज मिल चुकी थी, जिस से तकरीबन 60 हजार रुपए की आमदनी हुई. इस प्रकार लागत को छोड़ कर उन्हें 4 महीने में 50 हजार रुपए का शुद्ध मुनाफा हुआ.

इस के बाद जगदत्त ने लगातार सब्जी की खेती करने का मन बना लिया. जब 4 महीने बाद उन की लोबिया की फसल कट गई तो उन्होंने गरमी के लिए दोबारा फरवरी माह में लोबिया की बोआई की. लेकिन इस बार अलग हट कर खेती की. उन्होंने लोबिया की बौनी किस्म काशी कंचन को नीचे बो कर अपने खेत में बांस का मचान बना कर उस पर लता वाली फसल लौकी की फसल लेना शुरू किया. उन का कहना?है कि अगर फसल में किसी तरह के कीट या बीमारियां दिखाई देती हैं तो वे जानकारों से पूछ कर कीट बीमारियों का प्रकोप फैलने से पहले ही रोकथाम कर लेते हैं. वे कहते?हैं कि 4 साल पहले उन्होंने गन्ने की खेती छोड़ कर सब्जी की खेती का जो निर्णय लिया था, वह बेहद ही सफल रहा. उन का कहना है कि सब्जी की खेती में गन्ने की खेती के मुकाबले मेहनत व लागत कम है. सब्जी की बिक्री के लिए मिलों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है. अगर आप की सब्जी की फसल अच्छी है, तो वह हाथोंहाथ बिक जाती है.

व्यावसायिक बकरीपालन गांवों का एटीएम

गांवों में गरीब तबके के लोग पिछले कई दशकों से बकरीपालन कर के अपने परिवार का पेट पालते रहे हैं. मगर कई सालों तक बकरीपालन के बाद भी गरीबों की माली हालत में तरक्की नहीं हो पाती है. अगर बकरीपालन करने वाले व्यावसायिक तरीके से गोट फार्मिंग (बकरीपालन) करें तो बकरियों की तादाद और आमदनी दोनों में इजाफा हो सकता है. बड़े पैमाने पर बकरीपालन शुरू करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की बकरीपालन योजनाओं और अनुदान का लाभ लिया जा सकता है.

सब से पहले यह समझना जरूरी है कि व्यावसायिक बकरीपालन क्या है? इस में 100 से 1000 बकरियों को एक ही बाड़े में रखा जाता है और बड़े नाद में सभी को एकसाथ खाना खिलाया जाता है. यह तरीका मुरगीपालन की तरह ही होता है. घर में 5-7 बकरियां पालने और बकरियों का व्यावसायिक रूप से पालन करने में फर्क है.

अगर एक परिवार में कम से कम 100 बकरियों का पालन करें तो उस परिवार के 6-8 लोगों को काम मिलेगा और आमदनी भी बढ़ेगी. गौरतलब है कि भारत में मांस की मांग करीब 80 लाख टन है, जबकि 60 लाख टन का ही उत्पादन हो पाता है. इस में बकरी के मांस की खपत 12 फीसदी ही है.

बकरीपालन की सब से बड़ी खासीयत यह है कि बाढ़ या सूखा जैसी आपदा होने पर ये फसलों की तरह बरबाद नहीं होती हैं. दूसरी बड़ी खासीयत यह है कि अचानक पैसों की जरूरत पड़ने पर बकरियों को बेचा जा सकता है, यानी इन्हें कभी भी कैश कर लीजिए. इसलिए इन्हें ‘गांवों का एटीएम’ कहा जाता है. बकरी की तीसरी खासीयत यह है कि वह दूसरी चीजों की तरह खराब नहीं होती. उसे कभी भी कहीं भी बेचा जा सकता है. कई अवसरों पर तो बकरियों की मुंहमांगी कीमत मिलती है. ऐसे अवसरों को भुनाने के लिए बकरीपालक बकरियों को अच्छी तरह खिलापिला कर बड़ा करते हैं.

पशु वैज्ञानिक डा. सुरेंद्र नाथ बताते हैं कि गोट फार्मिंग की एक मिनी यूनिट में 20 बकरियां और 1 बकरा (बोतो) होता है, जबकि बड़ी यूनिट में 40 बकरियां और 2 बकरे होते हैं. साधारण किस्म की बकरी 1 साल में 2 बार 2-2 बच्चे देती है. कुछ बकरियां 3-4 बच्चे भी देती हैं. इस हिसाब से 20 बकरियों वाली यूनिट से 1 साल में कम से कम 80 बच्चे मिल सकते हैं. 1 बकरे की कीमत कम से कम 4 हजार रुपए है. इस लिहाज से 80 बकरों की कीमत 3 लाख 32 हजार रुपए होती है. मिनी यूनिट में बकरियों के चारे, दवाओं व टीकों आदि पर साल में करीब 1 लाख रुपए खर्च होते हैं. इस तरह इस यूनिट से 2 लाख 32 हजार रुपए सालाना कमाई हो सकती है.

व्यावसायिक बकरीपालन के लिए मुख्य जरूरी चीजों के बारे में विशेषज्ञों से सलाह ले कर काम चालू करना चाहिए. 1 मिनी यूनिट के लिए 300 वर्गमीटर जगह और 1 लाख रुपए की जरूरत होती है. बकरियों को रखने के लिए जमीन से कुछ ऊंचाई पर बांस की जमीन बना ली जाती है. बकरीपालन वाली जगह पर पानी का जमाव नहीं होना चाहिए और जगह हवादार होनी चाहिए.

बिहार में नहीं बढ़ रही बकरियां

बिहार को बकरीपालन के लिए काफी मुफीद माना जाता है. इस के बाद भी राज्य में बकरीपालन की हालत काफी खराब है. पिछले 10 सालों से वहां बकरियों की तादाद जस की तस है. राज्य में हुई पशुगणना के मुताबिक बकरियों की कुल तादाद 96 लाख है, जो समूचे देश की बकरियों की तादाद का 8.40 फीसदी है.

किसानों को होने वाली आमदनी का आधा हिस्सा पशुधन से ही आता है और बकरी गरीब राज्यों के लिए गाय की तरह है. बकरियों की नस्लों को सुधार कर बीपीएल परिवारों की आमदनी को आसानी से बढ़ाया जा सकता है.

हैरत की बात है कि बकरीपालन को बढ़ावा देने की कई योजनाओं के बाद भी सूबे में पिछले 10 सालों में बकरियों की तादाद में कोई इजाफा नहीं हुआ है. आज से 10 साल पहले राज्य में बकरियों की तादाद 96 लाख थी और आज भी इतनी ही है.

 

चावल मिलों के आगे बेबस सरकार

चावल के मामले में बिहार सूबे का काफी नाम है. और चावलमिलों के मालिकों की धांधली के मामले में भी बिहार किसी से कम नहीं है. वहां के धाकड़ मिलमालिक धान तो धड़ल्ले से हासिल कर लेते हैं मगर उस का चावल तैयार कर के देने के मामले में मनमानी करते हैं. अपने चावलों के लिए मशहूर बिहार में चावलमिलों की धांधली पर रोक लगाने में सरकार बिल्कुल ही नाकाम रही है. पिछले 5 सालों से चावलमिल मालिकों के पास बिहार खाद्य निगम के 1342 करोड़ रुपए बकाया हैं और निगम उन्हें वसूलने के लिए कछुए की चाल ही चलता रहा है. जबतब बकाए की वसूली के लिए मुहिम शुरू की जाती है, मगर वह कभी भी अपने अंजाम तक नहीं पहुंच सकी है.

पटना की 64 चावलमिलों पर 55.61, भोजपुर की 90 मिलों पर 72.05, बक्सर की 152 मिलों पर 101, कैमूर की 357 मिलों पर 220, रोहतास की 191 मिलों पर 111, नालंदा की 84 मिलों पर 55.34, गया की 49 मिलों पर 40, औरंगाबाद की 207 मिलों पर 62.15, वैशाली की 25 मिलों पर 23.66, मुजफ्फरपुर की 33 मिलों पर 66.51, पूर्वी और पश्चिमी चंपारण की 153 मिलों पर 63, सीतामढ़ी की 52 मिलों पर 55.83, दरभंगा की 34 मिलों पर 39.83, शिवहर की 8 मिलों पर 17.78 और नवादा की 23 मिलों पर 20.48 करोड़ रुपए की रकम बकाया है. इस के अलावा अरवल, शेखपुरा, लखीसराय, मधुबनी, समस्तीपुर, सिवान, सारण व गोपालगंज आदि जिलों की सैकड़ों छोटीमोटी चावलमिलों पर भी करीब 90 करोड़ रुपए बकाया हैं.

बिहार महालेखाकार ने पिछले साल की अपनी रिपोर्ट में कहा था कि धान को ले कर मिल वालों ने सरकार को 434 करोड़ रुपए का चूना लगाया है. इस से पहले साल 2011-12 में भी मिल वाले करोड़ों रुपए का धान दबा कर बैठ गए थे और उस के बाद के साल में 929 करोड़ रुपए के धान की हेराफेरी कर के सरकारी राजस्व को नुकसान पहुंचाया था. इस के बाद भी सरकार ने मिलमालिकों के खिलाफ कार्यवाही करने में दिलचस्पी नहीं ली.

बिहार राज्य खाद्य निगम के सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक साल 2011-12 में जिन मिलों पर धांधली का आरोप लगा था, उन्हीं मिलों को साल 2012-13 में भी करोड़ों रुपए के धान दे दिए गए.

इतना ही नहीं केवल 50 हजार रुपए की गारंटी रकम पर ही 3 से 6 करोड़ रुपए के धान चावलमिलों को सौंप दिए गए. मिलों को धान देने के बारे में नियम यह है कि भारतीय खाद्य निगम मिलों से एग्रीमेंट करता है, जिस के तहत मिल वाले पहले निगम को 67 फीसदी चावल देते हैं, जिस के बदले में उन्हें रसीद मिलती है. उस रसीद को दिखाने के बाद ही निगम द्वारा मिलों को 100 फीसदी धान दिया जाता है.

वसूली की रफ्तार धीमी रहने पर राज्य के मुख्य सचिव अंजनी कुमार सिंह ने खाद्य निगम को फटकार लगाई है और चावलमिल वालों से बकाया रकम वसूलने की मुहिम तेज करने का फरमान जारी किया है. इस के तहत राज्य खाद्य निगम और पुलिस मिल कर सभी जिलों में वसूली करेंगे. दोषियों के पकड़े जाने पर जिलाधीश और एसपी मिल कर कार्यवाही करेंगे.

बिहार में किसानों और सरकार से धान ले कर चावल नहीं लौटाने वाले मिलमालिकों को जेल भेजने की कवायद कई बार शुरू की गई, पर उस की रफ्तार काफी धीमी रही है. सरकार ने ऐसे मिलमालिकों को गिरफ्तार कर के उन की कुर्कीजब्ती करने का आदेश जारी कर दिया है. इस सिलसिले में 1200 बड़े बकायादार मिलमालिकों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई है.

गौरतलब है कि पिछले 5 सालों से चावलमिलों के मालिक 1342 करोड़ रुपए का बकाया देने में टालमटोल करते रहे हैं. मिलमालिकों पर साल 2013-14 के 150 करोड़, साल 2012-13 के 732 करोड़ और साल 2011-12 के 427 करोड़ रुपए बकाया हैं.

धान ले कर चावल वापस नहीं करने के मामले में एसएफसी समेत कई विभागों के अफसरों और मुलाजिमों पर भी कानूनी कार्यवाही की जा रही है. कुल 394 अफसरों और मुलाजिमों की जांच की जा रही है और 184 पर मुकदमा दर्ज किया गया है.

साल 2011-12, 2012-13 और 2013-14 में 2024 मिलमालिकों पर राज्य खाद्य निगम से धान लेने के बाद उस का चावल तैयार कर के नहीं लौटाने का आरोप है. चावल की बकाया रकम का भी भुगतान नहीं किया गया है. मिलमालिकों के पास निगम के 1341 करोड़ 75 लाख रुपए बकाया हैं. काफी जद्दोजहद के बाद निगम केवल 240 करोड़ 62 लाख रुपए ही वसूल सका है. निगम के द्वारा बारबार कहे जाने के बाद भी 332 चावलमिलों ने पैसे जमा नहीं किए हैं.

इस मामले में अब तक 1193 मिलमालिकों पर 992 एफआईआर दर्ज कराए गए हैं, 1630 सर्टिफिकेट केस किए गए हैं और 722 मिल वालों के खिलाफ वारंट जारी किए गए हैं. अब तक इन में से 199 मिलमालिकों की गिरफ्तारी हुई है और 336 ने सरेंडर किया है. 255 मिलमालिकों के खिलाफ आरोपपत्र दायर किए जा चुके हैं.

 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें