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मैं ‘रोबोटिक इंजीनियरिंग’ की पढ़ाई करना चाहता हूं. इस के लिए मुझे कैसी तैयारी करनी होगी.

सवाल

मैं ने इस बार 10वीं का इम्तिहान दिया है. मैं ‘रोबोटिक इंजीनियरिंग’ की पढ़ाई करना चाहता हूं. इस के लिए मुझे कैसी तैयारी करनी होगी? किन विषयों से पढ़ाई करनी होगी?

जवाब

बहुत अच्छी बात है कि आप ने 10वीं से ही अपना लक्ष्य तय कर लिया है और आप रोबोटिक इंजीनियरिंग में कैरियर बनाना चाहते हैं. अब क्योंकि आप ने 10वीं के इम्तिहान दिए हैं तो 10वीं में पास होने पर आप को विज्ञान विषय लेना चाहिए. फिर 10+2 विज्ञान विषय से उत्तीर्ण करने पर आप प्रवेश परीक्षा के माध्यम से रोबोटिक इंजीनियरिंग में ऐडमिशन ले सकते हैं. यह कोर्स 4 वर्ष का होता है. अधिक जानकारी के लिए सुमन सौरभ का सितंबर, 2015 अंक देख सकते हैं.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

लोकतंत्र व तर्क को बढ़ाते हैं विश्वविद्यालय: कन्हैया कुमार

नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल में स्मृति ईरानी के विभाग को बदले जाने को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुए मई 2014 के बाद के घटनाक्रम से जोड़ा जा रहा है. इस में कितना सच है, यह तो अमित शाह और नरेंद्र मोदी ही जानते हैं पर स्मृति ईरानी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और कन्हैया कुमार का नाम विश्वभर में फैला कर उन्हें विवादास्पद कर दिया था.

दिल्ली के दक्षिणपश्चिम कोने में स्थित, देशदुनिया में विख्यात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से बदलाव की आवाजें सब से अधिक उठती हैं. राजनीतिक, सामाजिक विसंगतियां, विद्रूपता के सवाल यहां सुलगते रहते हैं सरकार चाहे कांग्रेस की हो, मिलीजुली या एनडीए की. व्यवस्था के खिलाफ क्रांति, आंदोलन और विद्रोह की चिंगारियां यहां से उठती रही हैं पर हार्वर्ड, औक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों जैसी खूबसूरत इमारतें, चारों तरफ हरियाली, फलफूल, पेड़पौधों से युक्त माहौल यहां नहीं दिखता. जेएनयू में तो दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस जैसा पौश, साफस्वच्छ, कालेजों के आगे खड़ी शिक्षकों, छात्रछात्राओं की चमचमाती कारों जैसा वातावरण भी नहीं है.

आप गूगल खोल कर हार्वर्ड, औक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों की इमेज पर क्लिक करेंगे तो उन के परिसर में शानदार खूबसूरत इमारतें, चारों और हराभरा मनमोहक वातावरण और खासतौर से शांत, प्रसन्नचित्त, चमकते चेहरे वाले छात्रछात्राएं दिखाई देते हैं. वहीं जेएनयू की इमेज क्लिक करने पर परिसर में

दूरदूर फासले पर खड़े पुराने, कुछ जर्जर भवन, पत्थर, चट्टानें, सूखी जंगली घास, कंटीले झाड़झंखार और हवा में मुट्ठियां ताने, झंडे, बैनर थामे आक्रोशित छात्रछात्राओं की तसवीरों की भरमार देखने को मिलेगी.

मुनीरिका इलाके की ओर से जेएनयू के बड़े से मुख्यद्वार में प्रवेश करते हैं तो सामने बैरिकेड लगे हैं. 4-5 सुरक्षा गार्ड गाडि़यों को इंट्री करा के आगे बढ़ने देते हैं. पैदल जाने वालों को कोई रोकटोक नहीं है. लगभग 300 मीटर चल कर एक और बैरिकेड है. यहां 2 गार्ड बैठे हैं जो किसी को नहीं रोकते. आगे बढ़ेंगे तो लगेगा आप किसी जंगल में बसी बस्ती में प्रवेश कर गए हैं. बाईं ओर साधारण किस्म के क्वार्टर टाइप मकान बने हैं. दाईं तरफ जंगल, सूखे पेड़पौधे, बड़े पहाड़ी पत्थर, सड़क से हट कर स्टूडैंट यूनियन का कार्यालय, सड़क के किनारे होस्टलों का मार्ग दर्शाते बोर्ड, दूरदूर फासलों पर भवन बने नजर आते हैं.

झेलम छात्रावास, साबरमती, सतलज होस्टल, चंद्रभागा, नालंदा, नागार्जुन, नरेंद्र होस्टल, पेरियार होस्टल अलगअलग जगहों पर दिखते हैं. छात्रछात्राएं निकर, कुर्तापायजामा, टीशर्ट, बरमूडा, बनियान, में घूमते दिखाई देते हैं. परिसर में कई ढाबे भी हैं जो छप्पर, टिन के बने हैं. बाहर टूटीफूटी कुरसियां, बैंच लगी हैं. बड़े पत्थरों को भी सीट बना कर छात्रछात्राएं चायनाश्ता व खाना खाते दिख जाएंगे.

दिनरात गुलजार रहने वाले जेएनयू परिसर के इन ढाबों पर देश, समाज को ले कर चिंतन, विमर्श चलता रहता है.

जेएनयू परिसर दिखने में भले ही झाड़झंखार, जंगल, सूखे पेड़पौधों से युक्त किसी चरवाहा विश्वविद्यालय जैसा लगता हो पर सामाजिक, राजनीतिक सवाल यहीं सब से अधिक मथे जाते हैं. यहां का गंगा ढाबा कभी सोता नहीं. यह ढाबा एयरकंडीशंड नहीं, साजसज्जा युक्त नहीं, टिनटप्पर वाला है. सब से अधिक विमर्श विभिन्न मुद्दों पर यहीं चलता है. ऊंचनीच भेदभाव, छुआछूत के शिकार रहे किसानों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, वंचितों के छात्रछात्राएं जब उच्चशिक्षा के लिए यहां आते हैं तो वे सब सवाल मथते हैं जो उन की दशा के जिम्मेदार रहे. वे यहां आ कर हर तरह के, हर रंग के सामाजिक, राजनीतिक और सत्ता प्रतिष्ठानों से जवाब मांगते हैं, व्यवस्था में बदलाव की मांग उठाते हैं पर उन के सवालों से वे घबराते हैं और जवाब देने के बजाय उन की आवाजें दबाने की कोशिशें होती हैं या तरहतरह के झूठे आरोप लगा कर उन्हें प्रताडि़त किया जाता है और विश्वविद्यालय से बेदखल कर देने की धमकियां दी जाती हैं.

जेएनयू वर्षों से सुधार, क्रांति और बदलाव का वाहक रहा है. यहां फाइव, फोर या थ्री स्टार सुविधाएं तो दूर, बुनियादी साधनसुविधाओं के लिए भी विद्यार्थी मुहताज रहे हैं. होस्टलों की पुरानी इमारतों में पुराने पंखे लगे हैं. एसी या कूलर नहीं हैं. प्रोफैसरों, हैड औफ डिपार्टमैंट के कमरे भी अति साधारण, कुरसी, टेबल, पुस्तकों की रैक और ऊपर धीमी गति से चलता पुराना पंखा. प्रोफैसर डा. तुलसीराम का कमरा ऐसा ही था जब यह प्रतिनिधि उन से मिलने गया.

इन्हीं अभावों, गरम हवाओं, तपती लू और थपेड़ों के बीच यहां क्रांति, सुधार के साथसाथ छात्रछात्राओं के बीच प्रेम भी पनपता रहा है. यहां विचारों में उदारता है, दकियानूसीपन नहीं. प्रेम के साथ यहां निश्चित ही सैक्स को ले कर भी दकियानूसी सोच की दीवारें नहीं हैं.

यही सब देखते, सोचते हुए कोई  2 किलोमीटर अंदर ब्रह्मपुत्र होस्टल की इमारत के दरवाजे पर पहुंच कर बाहर बैठे गार्ड से जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार के बारे में पूछते हैं.

गार्ड फोन पर बात कराने को कहता है. फोन मिला कर गार्ड को दे दिया जाता है. गार्ड अंदर दाईं तरफ बने विजिटररूम में बैठ कर इंतजार करने के लिए कहता है.

4 मंजिले होस्टल के ग्राउंडफ्लोर पर कैंटीन के सामने विजिटररूम में एक पुराना सोफा लगा है. अंदर एक और छोटा कमरा है जहां 2 सोफे, एक सैंटर टेबल रखी है. छत पर पुराना सा पंखा गरमी से बस थोड़ी राहत देता है. कुछ ऐसा लगा जैसे गांव के किसी पक्के मकान में मेहमानों के लिए जैसेतैसे पुराने सोफे, टेबल, पंखा जुटा कर बैठने का इंतजाम कर दिया गया हो.

विजिटररूम के बाहर निकल कर होस्टल का माहौल देखने लगा. छात्रछात्राएं आजा रहे थे. होस्टल की बालकनी में बंधी रस्सियों पर कहीं टौवेल लटक रहे हैं, कहीं दूसरे कपड़े. फिर भी सरकार चाहती है कि सवाल करने वालों को जेएनयू से बाहर करो. सवाल यह है कि सरकार ऐसी कौन सी विशेष साधनसुविधाएं शिक्षकों व विद्यार्थियों को मुहैया करा रही है जो उन से छीन लेना चाहती है?

विजिटररूम के दाहिनी ओर से सीढि़यां उतर कर 3 साथियों के साथ कन्हैया आते हैं पर वे खाना खाने के लिए सामने कैंटीन में चले जाते हैं. निशांत, सुमित हमारे साथ आ कर बैठते हैं. निशांत अकसर कन्हैया के साथ ही रहते हैं. कन्हैया के फोन निशांत ही रिसीव करते हैं और फिर कन्हैया को सूचित करते हैं. कन्हैया स्वयं मोबाइल नहीं रखते. उन के लिए मीडिया कोऔर्डिनेटिंग का काम जयंत जिज्ञासु देखते हैं.

करीब 10 मिनट बाद कन्हैया आते हैं. बहुत सामान्य कदकाठी, बढ़ी हुई दाढ़ी, लालकाली लाइनदार टीशर्ट पैंट से बाहर निकली हुई. बिलकुल गांवदेहाती जैसा विद्यार्थी. कन्हैया और उन के साथियों में शहरीपन दिखाई नहीं देता. 2 दिन पहले केरल से लौटे कन्हैया वहां यूनिवर्सिटी में दिए अपने व्याख्यान और दौरे के बारे में बताते हैं. इस के बाद कन्हैया से विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक मुद्दों पर बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ.

मई 2014 के बाद ऐसा क्या हुआ कि देश के कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालय गुस्से से उबलने लगे. खासतौर से यहां पढ़ने वाले दलित, पिछड़े और गरीब तबके के छात्र आक्रोशित हो रहे हैं. आप लोगों की क्या समस्याएं हैं?

देखिए, 2014 के बाद से ऐसा नहीं हो रहा है. इस से पहले भी विश्वविद्यालयों में आंदोलन था. मैं 2011 में जेएनयू का स्टूडैंट बना. सैंट्रल यूनिवर्सिटी में पहली बार. यहां हमेशा से सोशल जस्टिस को ले कर एक स्ट्रौंग डिस्कोर्स इमर्ज कर रहा था. इस की खास वजह यह थी कि दलित, आदिवासी के लिए पहले से रिजर्वेशन था, ओबीसी 2007 के बाद लागू हुआ. इस का असर 3 साल बाद दिखना शुरू हुआ. 2014 में सवाल बना कि कोई पिछड़ा प्रधानमंत्री बना है. बाकायदा लोगों ने इस की घोषणा की. लेकिन इन्होंने आ कर क्या किया. विश्वविद्यालयों में इन का हस्तक्षेप बढ़ गया. दलित, पिछड़े छात्रों की स्कौलरशिप बंद की जाने लगी तो स्वाभाविक रूप से छात्रों को रिऐक्ट करने का मौका मिला.

डा. भीमराव अंबेडकर ने बहुत ठीक बात कही थी कि लोकतंत्र हमेशा दलित, पिछड़ा और शोषितों के पक्ष में जाता है. इन्होंने चुनावों में घोषणाएं कुछ और की थीं क्योंकि मसला वोट का था. शासक वर्ग की आदत होती है कि वह दिखावा करे. लेकिन वह कब तक दिखावा करेगा, किसी न किसी दिन असलियत सामने आएगी ही.

हरिशंकर परसाई की एक बहुत अच्छी कहानी है जिस में भेडि़या चुनाव लड़ता है. उस की मंत्री लोमड़ी कहती है, भेडि़या अब शाकाहारी हो गया है. अब डरने की जरूरत नहीं है. भेडि़या मुंह में घास रखता है. वह चुनाव जीत जाता है. आते ही कहता है, एक मेमना रोज नाश्ते में, फिर पूरा डाइट चार्ट बनाता है.

दरअसल, इस देश के अंदर 1990 के बाद एकसाथ 2 चीजें हुईं. पहले मंडल आया और फिर कमंडल. कमंडल आंदोलन के पीछे कब नवउदारवाद आ गया, लोगों को पता ही नहीं चला. जिन शक्तियों को एकजुट हो कर ब्राह्मणवाद, नवउदारवाद का विरोध करना चाहिए था वे बाबासाहेब अंबेडकर का नाम लेने लगीं.

ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों का एक मजबूत गठजोड़ बन गया. एक तरफ इस देश में हजारों साल से शोषण सहने वाली शोषित जातियां और दूसरी तरफ पूंजीवादी बाजार में नई शक्तियां थीं, जिन्होंने बहुत चालाकी से निजीकरण की शुरुआत की. एकएक कर पब्लिक सैक्टर की कंपनियों को निजी क्षेत्र में बेचा जाने लगा. एक तरफ आरक्षण को ले कर आंदोलन तेज हो रहा था, दूसरी ओर जहां आरक्षण किया जाता, वह जगह ही खत्म की जा रही थी.

हायर एजुकेशन में ओबीसी आरक्षण आया, नवउदारवाद का असर 10-15 सालों में दिखने लगा. स्टेट यूनिवर्सिटीज में आरक्षण ठीक से दिया नहीं जा रहा

था, सैंट्रल में खत्म करने की बात होने लगी. जब आप आरक्षण बंद करेंगे, फैलोशिप बंद करेंगे तो विश्वविद्यालयों में विरोध बढ़ेगा. निजीकरण का विरोध विश्वविद्यालयों में ही नहीं, बाहर भी दिखने लगा.

खुदरा क्षेत्र में एफडीआई आया तो उस का सीधा असर फुटपाथ पर काम करने वालों पर पड़ा. जो मुख्यधारा की राजनीति करते हैं उन को अब भी समझ में नहीं आता कि विश्वविद्यालय पर हमला सोशल जस्टिस पर हमला है. चेहरा रखेंगे किसी पिछड़े का, नीतियां जो होंगी अपर क्लास के पक्ष में. आप देखिए, एससी, एसटी का प्रमोशन में रिजर्वेशन खत्म किया गया. ओबीसी के आरक्षण में परिवर्तन कर दिया गया. जेएनयू जैसे संस्थान बंद होंगे तो सब से बड़ा असर महिलाओं पर पड़ेगा जिन को 15 साल के बाद शादी के लिए मजबूर किया जाता है. मेरी मां 3 हजार रुपए कमाती हैं. क्या मैं प्राइवेट यूनिवर्सिटी में 5 लाख रुपए दे कर पढ़ सकता हूं. यह अपनेआप में एक सवाल है.

फौरेन यूनिवर्सिटी बिल का विरोध हुआ. कांग्रेस और भाजपा में कोई फर्क नहीं है. त्रिलोकपुरी का दंगा देखिए, जहां दलितों और मुसलमानों को लड़ा दिया गया. उत्तर प्रदेश को देखिए, पिछड़ों और मुसलमानों को लड़ाया गया. हर बार ये नौन इश्यूज को छोड़ कर दूसरे इश्यूज खड़ा करते रहते हैं. हिंसा, झूठ, प्रोपेगंडा इन के पावरफुल हथियार हैं. इसलिए हम को लगता है कि ये देश के लिए ज्यादा खतरनाक हैं. इन का इतिहास भी यही रहा है.

भाजपा नवउदारवाद और ब्राह्मणवाद के साथ है. यह दलित विरोधी है, पिछड़ा विरोधी है, महिला विरोधी है. अल्पसंख्यक विरोधी है, आदिवासी, किसान, गरीब विरोधी है. जब इन सब को जोड़ेंगे तो दरअसल ये अल्पसंख्यकों के खिलाफ ही नहीं, बहुसंख्यक विरोधी भी हैं, लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ हैं.   बीच में देशद्रोह और देशभक्ति कहां से आ गई, इस के पीछे क्या वजह मानते हैं?

इस में बहुत पुरानी साजिश है और यह बात मैं आप को फैक्ट ऐंड फिगर के साथ बताता हूं. जब यूनिवर्सिटी में दलित, पिछड़े आएंगे, पढ़ेंगे, शिक्षित होंगे तो वे सवाल उठाएंगे कि हमारा इतिहास कहां है, तब सब अल्टर्न हिस्ट्री की बात होगी. स्त्री विमर्श की बात होगी, दलित साहित्य की बात होगी, शूद्र की बात उठेगी. वे सब बातें आएंगी जो ब्राह्मणवादी इतिहास में लिखी हैं, अपर कास्ट के नजरिए से जो बातें लिखी गई हैं, उन का सच सामने आएगा.

तब कहा जाएगा कि सावित्री बाई फूले ने पहला महिला स्कूल खोला तो महिला दिवस उन के नाम से क्यों न मनाया जाए. बिरसा मुंडा, आदिवासी जिन्हें ‘भगवान’ मानते हैं, जिन्होंने साम्राज्यवाद के खिलाफ इतनी बड़ी लड़ाई लड़ी, उन का जन्मदिन

किसी राष्ट्रीय दिवस के नाम पर क्यों न मनाया जाए. जो धार्मिक व्यवस्था है छुआछूत पर आधारित, उस पर सवाल खड़ा किया जाएगा. महिसासुर कौन था, होलिका कौन थी, पूतना कौन थी, ये तमाम सवाल आते हैं. ये विमर्श के सवाल हैं, किसी खास धर्म के पक्ष की बात नहीं है.

हमारे यहां लोकतांत्रिक स्पेस है और फिर यूनिवर्सिटी होती ही है मानवता को आगे बढ़ाने के लिए, हमारी तर्कशक्ति विकसित करने के लिए लेकिन उन्हें एकता में अनेकता की बात पचती नहीं, गंगाजमुनी संस्कृति नहीं सुहाती. एक दल, एक राष्ट्र, एक नेता, इन को हिटरोजिनियस सोसायटी रास नहीं आएगी. एकएक कर ये उन संस्थाओं पर हमला कर रहे हैं.

हैदराबाद यूनिवर्सिटी को नक्सली कहा गया, आईआईएफटी को कास्टिस्ट कहा गया. जेएनयू को दरार का गढ़ बताया गया. एफटीआईआई में, जहां संभावना है, ‘अछूत कन्या’ जो आजादी के बाद बनी थी, का रिवाइवल किया जाए. उस की संभावना खत्म की जा रही है. गजेंद्र चौहान को ला कर थोपा गया. इफ्टा, जिस ने गांवगांव जा कर चेतना जगाई थी, पर हमला हुआ. पेरियार स्टडी सैंटर, रोहित वेमुला और साथियों को एंटीनैशनल कहा गया. यह बात 9 फरवरी से पहले कही गई थी. इस में प्रोफैसर एस एन मालाकर को टारगेट किया गया जो अति पिछड़ा वर्ग समाज से आते हैं, जो बारबार अपने भाषणों में कहते हैं कि हम तो मछली पकड़ते थे, फूल तोड़ते थे और उन्हें बड़े लोगों के घर में पहुंचाते थे. सत्तू ले कर जेएनयू में आ गए.

इस तरह की यूनिवर्सिटी सत्ता की नजर में हमेशा चुभती है. कांग्रेस यूनिवर्सिटी पर इस तरह के अटैक नहीं करती थी. वह पौलिसी लैवल पर बदलाव करती थी. हम वास्तविकता बता रहे हैं. जस्टिस फौर रोहित के लिए सब से ज्यादा आवाज ही जेएनयू से उठती है. इन्हें लगा कि जेएनयू को टारगेट किया जाए, एक तीर से दो शिकार हों. उधर रोहित मामला दब जाएगा और जेएनयू को बदनाम कर देंगे जहां से संगठित आवाज आने की संभावना है.

9 फरवरी के बवाल में आप शामिल नहीं थे?

9 फरवरी को ले कर एक बात आप जान लीजिए, यूनिवर्सिटी में किसी भी विषय को ले कर विचार हो सकता है. अफजल गुरु की फांसी पर लोग सवाल खड़ा कर रहे थे. हम अफजल गुरु को आइडियल नहीं मानते. जहां तक मैं जेएनयू को जानता हूं, व्यक्तिगत तौर पर मेरी बात कहें तो मैं न उस प्रोग्राम का आयोजक था, न मैं उस दौरान मौजूद था, जहां तथाकथित देशविरोधी नारे लगाए गए.

हम पर लगाए गए झूठे आरोपों में कहा गया है कि आप ने रोका क्यों नहीं. हम कहते हैं कि देश के अंदर ला ऐंड और्डर का काम पुलिसप्रशासन का है, गृहमंत्रालय का है. पर गृह मंत्री का  बचकाना बयान आता है, वे सीधेसीधे विद्यार्थियों को हाफिज सईद से जोड़ देते हैं.

कुल मिला कर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि चुनाव आना है. सरकार को 2 साल हो चुके हैं. सरकार के पास रिपोर्ट कार्ड में दिखाने को कुछ नहीं है. कभी कैराना ट्राई करेंगे, कभी मुजफ्फरनगर, कभी दादरी तो कभी जेएनयू. इस तरह की हरकतें कर के ये नफरत के आधार पर राजनीति करना चाहते हैं. ये एक कम्युनल पोलराइजेशन चाहते हैं. इन का राष्ट्रवाद झूठा है. अगर सच में ये राष्ट्रवादी होते तो ये विदेश क्यों जाते. यह बड़ा सवाल है और ये जिन मुद्दों पर विदेश जाते हैं, क्या वे देश के बुनियादी सवाल हैं?

क्या परमाणु बम से लोगों की भूख खत्म हो जाएगी, क्या परमाणु बम से सामाजिक न्याय आ जाएगा? ये हमारे वास्तविकता से भरे सवाल हैं.

तो क्या इन की राष्ट्रभक्ति हिंदू धर्मभक्ति है. जो भी हिंदू धर्मग्रंथों, परंपराओं, रीतिरिवाजों, हिंदू नायकों पर सवाल खड़े करे वह देशद्रोही है?

हम यही कह रहे हैं. सरकार धर्म की व्यवस्था को बनाए रखना चाहती है. इस व्यवस्था पर सवाल उठाने वालों को निशाना बना रही है. हम ब्राह्मणवाद, सामंतवाद, ऊंचनीच, गरीबी, असमानता पर आवाज उठा रहे हैं, इसलिए हम पर देशद्रोह के आरोप मढ़े जा रहे हैं. हम इन के खात्मे की बात कर रहे हैं. ये हमारे वास्तविक सवाल हैं.

विश्वविद्यालयों में केंद्र हस्तक्षेप कर रहा है, क्या यहां राजनीति हावी है?

सैंटर हस्तक्षेप कर रहा है और इस हस्तक्षेप के खिलाफ यूनिवर्सिटीज के अंदर जो दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक आदिवासी, गरीब लोग हैं, उन का व गरीब मजदूरों का, गरीब किसानों का बच्चा विद्रोह कर रहा है कि आप हम पर हमला करेंगे तो हम बरदाश्त नहीं करेंगे. इस देश के जो वास्तविक सवाल हैं, हम आंख में आंख डाल कर पूछेंगे. आप कुछ भी करिए, जेल में डालिए.

रोहित के साथ क्या हुआ, जांच कमेटी ने उस को निर्दोष पाया तो केंद्र की सत्ता का मन नहीं भरा. दूसरी जांच कमेटी बनाई. उस को पनिश किया. और जिस ने उसे पनिश किया उस को एचसीयू का वाइस चांसलर बना दिया और जो शिक्षक विरोध कर रहे थे, पिछड़े वर्ग से आते हैं, उन को हटा दिया गया. यह सरकार साफसाफ दिखा रही है कि वह दलित, पिछड़ी, आदिवासी, अल्पसंख्यक विरोधी है. विद्यार्थी राजनीति नहीं करते. केंद्र की राजनीति विद्यार्थी विरोधी है.

विश्वविद्यालयों में ये जो तमाम सवाल उठाए जा रहे हैं, जो एक तरह से आक्रोश है, जागरूकता है, क्या इस से बदलाव आ पाएगा?

सामाजिक आंदोलनों के इतिहास को जहां तक मैं देख पाता हूं, समझ पाता हूं, इस देश की एक समस्या रही है, खासकर आजादी के कुछ दशकों के बाद, सामाजिक आंदोलन एक तरफ और चुनावी राजनीति दूसरी तरफ. इन के बीच कोई संवाद नहीं है. 

किसी भी समाज में हम देखते हैं कि शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण साधन है. नेल्सन मंडेला ने कहा था कि ‘एजुकेशन इज द मोस्ट पावरफुल टूल टू ट्रांसफौर्म द सोसायटी’. अगर विद्यार्थियों के बीच शिक्षा समानता आधारित हो, डैमोक्रेटिक ट्रांजेशन, पीसफुल ट्रांजेशन के माध्यम से हो, सोशल ट्रांसफौर्म निश्चित है.

जब शिक्षा, आरक्षण और नौकरियों की बात आती है, तो सवाल आता है कि सरकारी नौकरियां बची कितनी हैं? आरक्षण लेने वाली जातियां बढ़ रही हैं, नौकरियां घटाई जा रही हैं?

यही एक विमर्श है जिसे बहुत मजबूती से लोगों के बीच ले जाने की जरूरत है. आप को निजीकरण के सवाल को सामाजिक न्याय के साथ जोड़ना पड़ेगा. हम चाहते हैं आप जो नीति बनाते हैं, जिन नीतियों से विकास का दावा करते हैं उन में हमारी कितनी भागीदारी है. तब सवाल उठता है कि जिस की जितनी आबादी, उस की उतनी हिस्सेदारी. तब सवाल अपनेआप आएगा कि निजीकरण, बुनियादी तौर पर, आरक्षण के खिलाफ है.

अंबेडकर ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को एकसा मानते थे. आज के समय में पूंजीवाद का चरित्र क्या है. एलपीयू यानी लिबरलाइजेशन प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन पर चलता है. यह मुख्य नीति है. इस में हम कहां हैं. हम यही सवाल उठा रहे हैं. जनता के खजाने में पैसा नहीं है. खजाना खाली है पर 9 हजार करोड़ रुपए ले कर कोई भाग जाता है. अगर उस का हिसाब लगाएं तो कितने स्कूल, कितने अस्पताल, कितनी सड़कें बनाई जा सकती हैं. अभी सरकार के 2 साल पूरे हुए. जश्न में 200 करोड़ रुपया फूंक दिया गया.

99 करोड़ रुपए में तमाम पीएचडी स्कौलर्स को स्कौलरशिप दी जा सकती है. 6 हजार करोड़ रुपए आप टैंक खरीदने पर खर्च कर सकते हैं. इस में कितने जेएनयू, कितने डीयू खोले जा सकते हैं.

शिक्षा के लिए अगर आप के पास पैसा नहीं है तो स्कूलों को बराबर करो या तो सारे स्टूडैंट को बढि़या शीशे वाले स्कूलों में ले जाओ या सब शीशे वाले स्कूलों को बंद कराओ या सब को सरकारी स्कूलों में ले आओ और फिर बराबर कंपीटिशन करो. आप शिक्षा बराबर नहीं दोगे और फिर आरक्षण को कोसोगे.

हम कहते हैं एक तो आप ने सरकारी स्कूलों को बरबाद कर दिया. सैंट्रल यूनिवर्सिटी बची है, उसे बरबाद कर रहे हैं. आप उस पर भी हमला कर रहे हैं. जहां जो शिक्षक बनते हैं वहां आरक्षण खत्म कर रहे हैं. शिक्षक एडहौक बन रहे हैं.

आप ने आजादी की बात की, किस तरह की आजादी की बात कर रहे हैं? क्या इस में जाति, धर्म और इन से जुड़े तमाम पाखंडों से आजादी की बात भी उठाएंगे?

इस पर तो कहना ही क्या है. यह तो स्पष्ट है. कई बार बोला गया है. ब्राह्मणवाद, जातिवाद, ऊंचनीच, छुआछूत, गरीबी, कौर्पोरेट लूट, सामंतवाद, पितृसत्ता से आजादी, यही तो स्लोगन लगते हैं. इसी आजादी को तो उन्होंने जनता के सामने गलत तरीके से प्रस्तुत किया. हम ने कहा देश से नहीं, देश में आजादी मांग रहे हैं. बुनियादी तौर पर इन्हीं से आजादी चाहते हैं.

यह तो सीधेसीधे हिंदू धर्म की व्यवस्था पर हमला है और सरकार चाहती है यह व्यवस्था बनी रहे?

मसला सिर्फ सरकार का नहीं है. हमारे समाज का एक तबका है, एक हिस्सा है जो चाहता है यह व्यवस्था खत्म न हो, जाति खत्म न हो. इस के आधार पर ही उन की पूरी राजनीति टिकी हुई है. बिना कास्ट रिलेट किए इंडिया में रिवोल्यूशन नहीं आ सकती.

कास्ट, रिलीजन बहुत इंफ्लुऐंस करता है सोसायटी को. जुडीशियरी, ब्यूरोक्रेसी, राजनीति, एजुकेशन में जो प्रभावी कास्ट हैं, नहीं चाहते कि कास्ट खत्म हो, उस की व्यवस्था खत्म हो. इन में वे लोग भी हैं जो दलित, पिछड़े हैं और वे आगे बढ़ गए हैं. जाति खत्म किए बिना समतामूलक समाज की स्थापना नहीं हो सकती.

दलित, पिछड़ी जातियों की दशा के लिए धर्म को कितना जिम्मेदार मानते हैं आप?

धर्म को ले कर मैं एक बात समझता हूं कि यह सामाजिक आंदोलन के लिए एक नौन रियल इश्यू है, इसलिए है कि जिन से आप लड़ना चाहते हैं वे धर्म की पीठ पर सवार हैं. राजनीतिक तौर पर हम अगर धर्म से लड़ने लगेंगे तो वे बहुत आसानी से हमें हरा देंगे.

अभी कुंभ का मेला लगा. मेरा एक दोस्त सर्वे कर के लाया है. कुंभ में घाट बनाए गए दलितों के लिए. टैंटों में भीमराव अंबेडकर की बड़ीबड़ी तसवीरें लगाई गईं. अंबेडकर जाति से मुक्त होने की बात करते थे. वे उसी की बात कर के उसी दलदल में

फंस रहे हैं. धर्म का नाम लेने के बजाय आज छुआछूत, गैरबराबरी, गरीबी, अंधविश्वास, भुखमरी के सवालों पर आंदोलन खड़ा करने की जरूरत है. सीधेसीधे हम धर्म के खिलाफ कुछ बोलेंगे तो जनता आहत होने की बात उठाएगी.

भारत में आप तय नहीं कर पाएंगे कि धर्म जाति बनाता है या जाति धर्म. बहुत सारे ऐसे धर्म हैं जिन में जातियां नहीं हैं पर वे हिंदुस्तान में आए तो जातियां पैदा हो गईं. इसलिए हम को लगता है आज जाति के खात्मे का सवाल ज्यादा मुख्य है. धर्म को इस से एक सुरक्षा कवच मिलता है. इसलिए अंधविश्वास के खिलाफ हमला होना चाहिए. धर्म में इतने सैक्ट कैसे पैदा हो गए और ज्यादा मजबूती से. जहां धर्म के खात्मे को ले कर कोई आंदोलन नहीं हुआ और शिक्षा को बुनियादी तौर पर फैलाया गया. अपनेआप में वहां के 40 प्रतिशत लोगों ने धर्म कैसे छोड़ दिया. मैं यूरोप की बात कर रहा हूं. वहां 40 प्रतिशत लोग एथिस्ट हैं. वहां कोई धार्मिक आंदोलन नहीं हुआ. भारत में इतने भक्ति आंदोलन हुए, धार्मिक सुधार आंदोलन हुए फिर भी धर्म बढ़ता ही गया, और मजबूत होता चला गया.

अकर्मण्यता हमें विरासत में मिली है, धर्म ने दी है, लेनिन, मार्क्स, माओ ने भी शायद ही इस पर बात की है, क्या मानते हैं?

मार्क्स और लेनिन को तो नहीं पढ़ा पर एक मार्क्सवादी शिक्षक हैं उन से हमारा संवाद होता है. इंगलिश के ये प्रोफैसर संयोगवश पिछड़े वर्ग से आते हैं. वे एक बात कहते हैं कि आरक्षण खत्म करने या देने की बात आज हो रही है जातियों को, लेकिन इस देश में काम का आरक्षण हमेशा से रहा है. सफाई का काम ब्राह्मण नहीं करेगा, पूजापाठ का काम दलित नहीं करेगा. जौब का यह जो बंटवारा है, इस के बारे में लेनिन लिखते हैं कि जो क्लासडिवीजन है वो तो लेबर डिवीजन से ही पैदा होता है.

यह ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत में है. ये हरेक समाज में, दुनियाभर में रहा है. अकर्मण्यता पूरी दुनिया की विशेषता है. खेतों में काम दलित करेगा और अनाज पैदा कर के मालिक के घर जमा करेगा. पूरी की पूरी फ्यूडल सोसाइटी अकर्मण्य ही है.

हम से ज्यादा क्रूर स्ट्रक्चर यूरोप और अमेरिका में रहा है. कितना बड़ा सिविल वार हुआ. अमेरिका में राष्ट्रपति को मार दिया गया. भारत में इसे आरक्षित कर दिया गया. धर्म की आड़ में इसे फिक्स कर दिया गया.

आप नास्तिक कैसे बने?

क्या कहेंगे, नास्तिक कहेंगे या इग्नोस्टिक. मैं इस तरह के कैटेगराइजेशन में जाता नहीं हूं. पर सिंपली मैं एक बात कह सकता हूं कि मैं मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारा कभी नहीं जाता. इन का मेरे जीवन में कोई रोल नहीं है. काम करना है, जिंदगी जीना है. समाज में जो गलत है, गलत कहता हूं, सही को सही.

एक नागरिक के तौर पर अपनी भूमिका निभाने की कोशिश करता हूं कि समाज को कैसे ट्रांसफौर्म किया जाए. शिक्षित कर के ही समाज को बदला जा सकता है. सब को शिक्षा, रोजगार मिलना चाहिए. बराबरी होनी चाहिए.

आरोप है कि आप अपने कम्युनिस्ट नेताओं से कम जबकि राहुल गांधी, केजरीवाल, नीतीश कुमार व लालू यादव से अधिक मिल रहे हैं?

इस का सोर्स क्या है. इस का सोर्स उन्हीं लोगों का है जो चाहते हैं कि जो सवाल विद्यार्थी लोग उठा रहे हैं, उन पर विमर्श न हो. कन्हैया कहां जा रहा है, किस से मिल रहा है, दरअसल, वे अपने पक्ष में परसैप्शन बना रहे हैं.

मैं आप को बता दूं, मैं सब से मिला हूं. इन लोगों से सब से बाद में मिला हूं. मैं सब से पहले रोहित की मां से मिलने गया. उन के पैर छुए. यह खबर अखबार में नहीं है पर लालू यादव के पैर छुए, यह अखबार में है. ये जो सोर्स हैं वे ही बेईमान हैं. लोग जेल से छूट कर घर जाते हैं, मैं सीधा हैदराबाद गया क्योंकि मैं जिस आंदोलन को छोड़ कर गया था, उसी में शामिल होना चाहता था.

इस तरह के आंदोलनों की शुरुआत कई बार होती है और परिणाम तक पहुंचे बिना खत्म हो जाते हैं. आप का आंदोलन कहां तक चलेगा?

अंतर्विरोध तो समाज का सच है. हमेशा नैगेटिव और पौजिटिव चलता रहता है. बात यह है कि हम एक आंदोलन को दूसरे आंदोलन से जोड़ सकते हैं तब तो आगे बढ़ेंगे. अगर इस को हम आइसोलेशन में रखते हैं कि विद्यार्थी का सवाल है, इसे किसानों से नहीं जोड़ेंगे, किसानों का सवाल मजदूरों से नहीं जोड़ेंगे, मजदूरों का आदिवासियों से, आदिवासियों का अल्पसंख्यकों से तो यह संकीर्णता है.

ऐसे में आंदोलन के नेता को लगता है कि उन का कंट्रोल नहीं रह गया है. संकीर्णता आंदोलनों को खत्म करती है. हम विद्यार्थियों के सवाल दलितों से, दलितों के महिलाओं से, आदिवासियों के अल्पसंख्यकों से, इन तमाम सवालों को गैरबराबरी के खिलाफ समतामूलक संघर्ष से जोड़ना चाहते हैं. अगर हम इस को जमीन पर उतार पाए, जो विश्वविद्यालय में उतरा हुआ है, अगर यह समग्रता से आगे बढ़ पाए, एक मास मूवमैंट की शक्ल ले पाए तो ठीक है वरना बाकी आंदोलनों का जो हश्र हुआ, इस का भी होगा.

केंद्र सरकार कन्हैया से क्यों डरती है?

कन्हैया से नहीं डरती. एक व्यक्ति से नहीं डरती. कन्हैया के सवालों से डरती है?

कन्हैया के सवाल एक कन्हैया के नहीं हैं. सारे समाज के सवाल हैं. ज्यादा घबराहट इस बात से है कि एक नौन दलित भी दलितों का सवाल उठाता है.

तमाम तरह के अंतर्विरोधों के बावजूद मैं बहुत सारे राजनेताओं से मिलता हूं पर मैं उन की राजनीति से सहमत नहीं हूं. मैं उन से क्यों मिलता हूं, इसलिए कि हम देश के, समाज के तमाम सवालों पर एकसाथ आएं ताकि लोकतंत्र बचा रहे. लोकतंत्र जब खत्म हो जाएगा तो सामाजिक न्याय की संभावना खत्म हो जाएगी.

आज एक व्यक्ति बनाम एक वोट, यही वह चीज है जहां भेडि़या भेड़ होने का नाटक करता है. चुनावी भाषणों में आप ने क्या कहा था, जब सत्ता में आ गए तो क्या कर रहे हैं.

एक निजी सवाल. क्या आप ने प्रेम किया है, कोई गर्लफ्रैंड है?

प्रेम करने का समय ही नहीं है. किसी से प्रेम किया नहीं.

कन्हैया : बेगूसराय से जेएनयू तक

जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार बिहार के बेगूसराय जिले के बरौनी थाने के बीहट प्रखंड के मसलनपुर टोला गांव के रहने वाले हैं. जेएनयू के स्कूल औफ इंटरनैशनल स्टडीज से सोशल ट्रांसफौर्मेशन इन साउथ एशिया (1994-2015) विषय पर पीएचडी कर रहे कन्हैया ने गांव के ही स्कूल से शुरुआती पढ़ाई की. इस के बाद बरौनी के आरकेसी स्कूल से मैट्रिक पास किया. आगे की पढ़ाईर् के लिए पटना के कालेज औफ कौमर्स (मगध विश्वविद्यालय) में दाखिला लिया. स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही वे औल इंडिया स्टूडैंट फैडरेशन के अध्यक्ष बने थे. उस के बाद उन्होंने नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी से डिस्टैंस? एजुकेशन के जरिए एमए की डिगरी हासिल की. उस के बाद वे पीएचडी करने के लिए जेएनयू आ गए.

9 फरवरी का सच

9 फरवरी, 2016 को जेएनयू में कुछ ऐसा घटित हुआ जिस ने आम जनता में कई तरह की भ्रांतियां पैदा कर दीं. किसी ने इसे देशभक्ति बनाम देशद्रोह का जामा पहनाया तो कोई इस से राजनीतिक रोटियां सेंकता दिखा. जबकि सच इस से इतर था.

दरअसल, 9 फरवरी को जेएनयू में संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु की तीसरी बरसी पर वामपंथी छात्र संगठनों ने एक कार्यक्रम या कहें सभा आयोजित की. कार्यक्रम में, जैसा कि जेएनयू में सामान्य मत है, काफी छात्र जमा हुए. गौरतलब है कि कार्यक्रम में न तो कोई तोड़फोड़ हुई और न ही देश के विरुद्ध किसी भी तरह के विद्रोह की कौंसपिरैसी रची गई. फिर भी कई न्यूज चैनलों ने ऐसी फुटेज दिखाई जिस में दावा किया गया कि कार्यक्रम में बाहर से आए कुछ लोगों ने पाकिस्तान जिंदाबाद और कश्मीर की आजादी के नारे लगाए.

जैसे ही मामले का सियासीकरण हुआ और भाजपा की छात्र इकाई एबीवीपी ने इस कार्यक्रम के विरोध में वाइस चांसलर का घेराव किया और दिल्ली के भाजपा सांसद महेश गिरी ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, पुलिस प्रशासन ने बिना पुख्ता सुबूत और जांच के सिर्फ शिकायत के आधार पर औल इंडिया स्टूडैंट फैडरेशन यानी एआईएसएफ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार कर लिया. उन पर देशद्रोह का मामला बनाया गया.

इस मसले पर खूब राजनीति हुई. जेएनयू के विवादित कार्यक्रम के अलावा सोशल मीडिया पर दूसरे वीडियो कन्फ्यूजन पैदा करते रहे और सच की आवाज दबा दी गई. सब से चौंकाने वाली बात यह है कि इस पूरे मामले में कन्हैया को दोषी बनाया गया जबकि वे इस में संलिप्त न थे.

जब आज कन्हैया खुद कहते हैं कि उस कार्यक्रम में न तो एआईएसएफ का कोई योगदान था, न उन का सहयोग. वे खुद इस कार्यक्रम में मौजूद नहीं थे, तो अंदाजा हो जाता है कि सत्ता प्रतिष्ठान अपनी सत्ताशक्ति के नशे में चूर हो कर किस तरह कानून और सिस्टम का बेजा इस्तेमाल करता है.

विश्वविद्यालयों में घुसपैठ करती सत्ताधारी शक्तियां

सिर्फ जेएनयू ही नहीं, देश के कई अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालय भी केंद्र सरकार, भाजपा और संघ के निशाने पर हैं. वहां सरकार का हस्तक्षेप बढ़ रहा है या एबीवीपी का दबदबा कायम करने की कोशिश की जा रही है. भाजपा, आरएसएस व भाजपा की छात्र शाखा एबीवीपी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अपनी धाक जमा व विचारधारा थोप कर पिछड़े व दलित मुद्दों पर आवाज उठाते छात्रों को खामोश करना चाहते हैं.

जेएनयू की तर्ज पर जाधवपुर विश्वविद्यालय, हैदराबाद यूनिवर्सिटी, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से ले कर जामिया मिल्लिया इसलामिया, एएमयू और आईआईटी दिल्ली सरीखे संस्थान भी केंद्र सरकार की दखलंदाजी और सियासी हस्तक्षेप के शिकार हैं. जिस तरह जेएनयू में कन्हैया कुमार और कई छात्रों की शिक्षा सुधार, दलितपिछड़ों के अधिकार व विश्वविद्यालय प्रशासन की मनमानियों व ज्यादतियों के खिलाफ उठती

आवाजों को देशद्रोह का जामा पहना कर चुप कराने की कोशिश की गई, उसे देशद्रोही बता कर जेल भेज दिया गया, वैसे ही पश्चिम बंगाल के जाधवपुर विश्वविद्यालय में जब छात्र संगठन कन्हैया की गिरफ्तारी के विरोध में एकजुट हुए तो सोशल मीडिया व तमाम न्यूज चैनल असल मुद्दों को दरकिनार कर यह बात फैलाने लगे कि यहां छात्र ‘फ्रीडम फ्रौम आरएसएस’, ‘फ्रीडम फ्रौम मोदी’, ‘मणिपुर की आजादी’, ‘अफजल गुरु के समर्थन में रैलियां कर रहे हैं. छात्रों की असल बात सामने नहीं लाई गई और केंद्र सरकार इन्हें देशभक्ति बनाम अंधभक्ति की बहस से दूर करने के लिए तमाम हथकंडे अपनाती रही.

इसी तरह लखनऊ के बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय बीबीयू में भी कभी आरक्षण विवाद, कभी प्रोफैसर कांचा एलैया का बीफ पर बयान, नौनवेज पर रोक और सोशल मीडिया पर पाबंदी समेत कई मुद्दों की आड़ में केंद्र सरकार, भाजपा और संघ का हस्तक्षेप देखा गया. शैक्षिक संस्थानों में सोशल मीडिया पर अंकुश लगाना दर्शाता है कि छात्र संगठनों की देश, समाज, अन्याय, पिछड़ेदलित के हक की खातिर आवाज उठाने व उसे प्रचारित करने से रोकने के लिए सत्ता समर्थक तत्त्व व विश्वविद्यालय प्रशासन एकजुट हैं. इसी यूनिवर्सिटी में एमए समाजशास्त्र के छात्र अनिल कुमार के मुताबिक, ‘‘यह तानाशाही रवैया यूनिवर्सिटी मैनेजमैंट का है. पहले नौनवेज पर रोक, अब सोशल मीडिया को ले कर फरमान, दलितों को तो खासतौर से परेशानी झेलनी पड़ ही रही है.’’

भाजपा की पश्चिम बंगाल इकाई के अध्यक्ष दिलीप घोष पर जब जाधवपुर यूनिवर्सिटी की छात्राओं ने छेड़खानी के आरोप लगाए तो नेताजी जांच की बात के बजाय विश्वविद्यालय की लड़कियों को स्तरहीन व बेशर्म करार देने लगे.

इस के अलावा आईआईटी दिल्ली में छात्रों को धर्मपुराणों का महिमामंडन व वैदिक व्यवस्था की सड़ीगली विचारधारा से लैस करने के लिए तब की मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने जब यहां संस्कृत पढ़ाने को ले कर लोकसभा में बोला तो साफ हो गया कि केंद्र सरकार शैक्षिक संस्थानों का भगवाकरण करने पर उतारू है. विचारधारा व तानाशाही थोपने का सिलसिला हैदराबाद यूनिवर्सिटी में वेमुला प्रकरण में भी जाहिर हो गया.

ऐसे ही अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इसलामिया जैसे शैक्षिक संस्थानों को निशाना बनाया जा रहा है. अल्पसंख्यकों से उन की आवाज छीन कर केंद्र सरकार भाजपा समर्थित छात्रों, संगठनों के जरिए हस्तक्षेप को प्रतिपालित करती है. बीएचयू व इलाहाबाद यूनिवर्सिटी तो काफी हद तक इन के रंग में रंग चुके हैं लेकिन जिन यूनिवर्सिटी में दलित, पिछड़े व वंचित तबके के छात्रों की बहुलता है और वे एकजुट हो कर धर्म के नशे में सदियों से गुलाम हाशिए पर पड़े समाज को जगाने के लिए लामबंद हो रहे हैं उन से सत्तासीनों को डर लगने लगता है कि कहीं हिंदू धर्म की पोल न खुल जाए और पिछड़ेदलित उन के नीचे दबे न रहें, ऊंचनीच का भेद न मिट जाए, पंडेपुरोहितों का पाखंड और झूठी श्रेष्ठता खत्म न हो जाए.

हर यूनिवर्सिटी में शैक्षिक जागरूकता पुरानी धार्मिक रूढि़यों व पाखंड के खिलाफ छात्रों को बदलाव के लिए आंदोलित कर रही है और धार्मिक कट्टरता से लैस सरकार वंचितों के शैक्षिक व वैचारिक गढ़ में हस्तक्षेप कर अपना वर्चस्व बनाए रखने के साम दाम दंड भेद की नीति अपनाने से बाज नहीं आ रही.

– साथ में राजेश कुमार  

VIDEO: बारिश, बस स्टॉप, बदमाशों से घिरी लड़की, और फिर…

कोई भी व्यक्ति अथवा समाज कितना सुसंस्कृत है? इस सवाल का जवाब, उसका नारी के प्रति किए जाने वाले व्यवहार में खोजा जा सकता है. महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार हमारी सभ्यता और संस्कृति पर सवालिया निशान लगाता है. नारी के प्रति अपराध, संस्कृति पर आघात है. इनमें दिन-पर-दिन हो वाली बढ़ोत्तरी ने समूचे सांस्कृतिक अस्तित्व को संकट में डाल दिया है.

रात का समय, मूसलाधार बारिश. भीगती हुई बस स्टेंड पर आती है एक लड़की तीन आदमी पहले से ही वहां मौजूद थे. लड़की को अकेला पाकर वो चांस मारने की कोशिश करते हैं. लड़की डर जाती है. वो कुछ नहीं कर पाती, लड़के उसकी तरफ गंदी निगाहों से घूरते हैं लेकिन फिर आता है ट्विस्ट…

कानून में क्या है प्रावधान

भारतीय दंड संहिता की धारा 509 में महिलाओं के शील व सम्मान को ठेस पहुंचाने वाले शब्द, संकेत या हरकत को दंडनीय माना गया है. जिसके लिए जुर्माना व जेल दोनों हो सकती हैं. इसी तरह धारा 354 डी में ऑनलाइन या ऑफलाइन किसी भी तरह से पीछा करना यानी स्टॉकिंग को अपराध माना है. हालांकि ऑनलाइन हमलों के मामलों में कई बार किसी एक की जिम्मेदारी तय करना मुश्किल होता है. खासकर सोशल मीडिया ने ऐसे लोगों को एक मंच दे दिया है, जिन्हें दूसरों को तंग करना, उकसाना, अनावश्यक बहस करना अच्छा लगता है. भले ही आप किसी को जानते हैं या नहीं. ऑनलाइन ट्रोलिंग एक तरह से इस साइबर अपराध को छोटा व सामान्य बना देने की शब्दावली है. ऐसे में क्या महिलाओं को सोशल मीडिया से दूर रहना चाहिए? बिल्कुल नहीं. नजरअंदाज न करें, पर हर किसी पर चीखना-चिल्लाना भी जरूरी नहीं. जहां जरूरी हैं वहां प्रतिक्रिया भी दें और जरूरत पड़ने पर कानून की सहायता भी लें. आप साइबर सेल और पुलिस की मदद ले सकती हैं.

खैर आप लोग देखिए ये वीडियो

बंगलादेश की पहचान बंगाली या मुसलिम?

बंगलादेश का राष्ट्रीय गीत है ‘आमार सोनार बांग्ला…’ लेकिन पिछले कुछ समय से देश के इसलामी कट्टरपंथियों ने वहां जिस तरह खून की होली खेलनी शुरू की है उस के कारण अब आमार रक्तिम बांग्ला कहने की नौबत आ गई है. पिछले कई वर्षों से बंगलादेश में ब्लौगरों के लिए जीना मुश्किल हो गया था. अपने विचार व्यक्त करने के बदले इसलामी कट्टरपंथियों द्वारा मौत दी जा रही थी. लेकिन अब ब्लौगरों के बाद लेखक, अलपसंख्यक, सैकुलर और आम लोगों को भी निशाना बनाया जा रहा है. पिछले साल अक्तूबर से ऐसे आम लोगों को भी कट्टरपंथी अपना निशाना बनाने लगे हैं जिन की सोच इसलाम विरोधी नहीं थी और न ही वे नास्तिक थे. हत्या की इन घटनाओं ने दुनियाभर का ध्यान खींचा है. पिछले साल सितंबरअक्तूबर में जापान और

इटली के नागरिकों की हत्या कर दी गई. इन का अपराध इतना ही था कि ये विदेशी थे. ये लोग न तो नास्तिक थे और न ही इसलाम विरोधी. इस के अलावा हाल के महीनों में हुई हत्याओं ने बंगलादेश के लोगों को काफी हैरत में डाल दिया है. ढाका के जगन्नाथ विश्वविद्यालय के छात्र नजीमुद्दीन समद की भरे बाजार गला रेत कर हत्या कर दी गई. समद कोई इसलाम विरोधी ब्लौगर नहीं थे. इस के बाद  राजशाही विश्वविद्यालय के प्रोफैसर रजाउल करीम सिद्दीकी की सरेआम गला रेत कर हत्या कर दी गई. इस घटना के ठीक 2 दिनों बाद जुल्हास मन्नान और उन के मित्र तनय फहीम को मार डाला गया. मन्नान को बंगलादेश में समलैंगिकों के अधिकारों के बड़े समर्थक के तौर पर जाना जाता था. वे समलैंगिकों के समर्थन में ‘रूपबान’ नामक पत्रिका भी निकालते थे. उन के करीबियों के मुताबिक मन्नान ने कभी इसलाम का विरोध नहीं किया. वे सिर्फ देश में समलैंगिकों को उन के अधिकार दिलाने की मुहिम छेड़े हुए थे. इस के बाद मई में एक मुसलिम सूफी संत, एक बौद्ध भिक्षु, एक हिंदू व्यवसायी और एक ईसाई डाक्टर की हत्याएं की गईं. इन सभी हत्याओं की जिम्मेदारी इसलामिक स्टेट (आईएस) ने ली जिस की घोषणा संगठन से जुड़ी वैबसाइट ‘अमक न्यूज’ पर की गई.

इन हत्याओं की सूची बहुत लंबी है और इस की जड़ें धार्मिक कट्टरपंथ में छिपी हैं. बंगलादेश में कट्टरपंथी संगठन किसी भी धर्मनिरपेक्ष लेखक, ब्लौगर या प्रकाशक को बरदाश्त नहीं कर सकते.  कट्टरपंथी संगठनों का असर बढ़ने की वजह से हाल में ईसाई तबके के लोगों पर भी हमले किए जाने के मामले बढ़े हैं. वर्ष 2013 में अलकायदा के सहयोगी अंसारुल्लाह बांग्ला टीम नामक एक कट्टरपंथी संगठन ने 84 धर्मनिरपेक्ष ब्लौगरों की एक हिटलिस्ट प्रकाशित की थी. इस में उन सभी लोगों के नाम शामिल थे जो अपनी लेखनी के जरिए धार्मिक समानता, महिला अधिकार और अल्पसंख्यकों के मुद्दे उठाते रहते हैं.

ब्लौगरों की ताकत

सरकार को शक है कि तमाम ब्लौगरों की हत्याओं के पीछे इसी संगठन का हाथ है. बावजूद इस के, सरकार के साथसाथ तमाम राजनीतिक दलों ने भी इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है. इसलामी चरमपंथियों के एक गुट ने फरवरी 2013 में राजीव हैदर नामक एक धर्मनिरपेक्ष ब्लौगर की उस के घर के सामने ही हत्या कर दी थी. पिछले साल मई माह में मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी से संबंधित ब्लौगर बिजौय दास की सरेराह नृशंस हत्या कर दी गई.  इस के पहले फरवरी में उन के सहयोगी ब्लौगर अविजीत राय का भी ऐसा ही हश्र किया गया था. जिहादियों ने सनसनी तो फैला दी लेकिन ब्लौगरों के लेखन पर वे रोक लगाने में कामयाब नहीं हुए क्योंकि ब्लौगर भी बंगलादेश में एक ताकत और एक आंदोलन बन चुके हैं.

इस की शुरुआत हुई थी फरवरी 2013 में, जब शाहबाग के प्रदर्शनकारियों ने बंगलादेश के इतिहास को एक नया मोड़ दिया था. ढाका का शाहबाग चौक.  बंगलादेश मुक्ति संघर्ष का पहला बलिदान स्थल. फरवरी 2013 में जब बंगलादेश में बंगला मुक्ति संघर्ष के युद्ध अपराधियों को सजा देने को ले कर आंदोलन हुआ था, तब ढाका की सड़कों पर एक जनसैलाब उमड़ा. बंगलादेश का झंडा फहराते, 1971 के मुक्ति युद्ध के नारे लगाते लाखों युवा.  ‘जौय बंगला.’ ‘तुमी के? आमी के? –बंगाली, बंगाली’, ‘आमादेर एक ही दाबी, रजाकार एर फाशी’. उन की मांगे थीं- एक, 1971 के युद्ध अपराधियों को फांसी दी जाए.  दो, जमाते इसलामी और उस के छात्र संगठन ‘इसलामी छात्र शिविर’ पर प्रतिबंध और तीसरा, बंगला मुक्ति युद्ध के मूल्यों पर बंगलादेश की भावी दिशा तय हो. बंगलादेश के शिक्षित युवा पाकिस्तानी सेना, जमात के गुर्गों और रजाकारों द्वारा की गई लाखों बंगालियों की हत्या व लाखों बलात्कारों को भूलने को तैयार नहीं थे.

स्वतंत्रता व न्याय की लड़ाई

वर्ष 2008 के चुनावों के दौरान अवामी लीग ने वादा किया था कि वह युद्ध अपराधियों के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण का गठन करेगी और युद्ध अपराधियों के खिलाफ मुकदमे चलाएगी, जिस की मांग सालों से चली आ रही थी. फरवरी 2013 में युद्ध अपराधियों के खिलाफ सजा सुनाई गई.   5 फरवरी, 2013 को युद्ध अपराधों की सुनवाई कर रही अदालत में ‘मीरपुर का कसाई’ नाम से कुख्यात अब्दुल कादिर मुल्ला पर फैसला आना था. उस पर 344 बंगालियों की हत्या करने का आरोप था.  आरोप सिद्ध हो चुके थे. फरियादी मौत की सजा के ऐलान का इंतजार कर रहे थे.  लेकिन फैसले से उन्हें सदमा लगा.  सैकड़ों हत्याओं और बलात्कारों के आरोपी को अदालत ने केवल आजीवन कारावास की सजा सुनाई. इस के कुछ घंटों बाद शाहबाग चौक पर नौजवान इकट्ठा होने लगे. इन युवाओं का नेतृत्व कुछ आजादखयाल ब्लौगर कर रहे थे. 

आने वाले दिनों में यहां हजारों युवा उमड़ने लगे. सोशल मीडिया सूचनाओं के आदानप्रदान का माध्यम बना. धीरेधीरे शाहबाग चौक ने सारी दुनिया के मीडिया का ध्यान खींच लिया. खास बात यह थी कि इस आंदोलन को चलाने वाला बंगलादेश का सब से बड़ा समुदाय था–मध्यवर्गीय युवा.  इसी बीच, आंदोलन का नेतृत्व कर रहे ब्लौगर्स में से एक अहमद रजीब हैदर की 15 फरवरी को हत्या कर दी गई. हत्यारे जमाते इसलामी से संबंधित थे. रजीब के खून ने आंदोलन को और ताकत दी.  संसद ने अब्दुल कादिर मुल्ला के मामले में पुनर्विचार पर एकराय दी. 21 फरवरी को शाहबाग आंदोलन विसर्जित हुआ.   एक तरफ प्रधानमंत्री शेख हसीना 1971 की लड़ाई के शहीदों को इंसाफ दिलाने की जिद पर अड़ कर एक नई क्रांति की शुरुआत कर रही थीं, एक ऐसी क्रांति, जो बंगलादेश के सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य को नस्ल, भाषा और संस्कृति आधारित राष्ट्रवाद के रंग में रंग रही है. बारबार एक ही बात कही जा रही थी कि हम बंगलादेशी पहले बंगाली हैं, बाद में कुछ और. और वहीं दूसरी ओर धर्मनिरपेक्ष ब्लौगरों की हत्या कर के अपने जिंदा होने का सुबूत देता इसलामिक कट्टरपंथ बंगलादेश की आजादी की लड़ाई के मूल सिद्धांतों को ही धता बता रहा था. इस से सवाल उठ रहा है, क्या है बंगलादेश की पहचान–पहले बंगाली या या पहले मुसलिम?

यह ऐसी लड़ाई है जिस में युवा ब्लौगर स्वतंत्रता और न्याय की लड़ाई के प्रतीक बन गए हैं. वे अपनी जान गंवा कर, खून बहा कर भी इस अलख को जगाए हुए हैं. दूसरी तरफ बंगलादेश के एक बड़े वर्ग पर  इसलामी कट्टरपंथियों का खासा प्रभाव है. आज भी कट्टरपंथी शाहबाग आंदोलन के खिलाफ यह दुष्प्रचार कर रहे हैं कि यह आंदोलन नास्तिक युवाओं द्वारा चलाया जा रहा है जो इसलाम विरोधी है.  राजनीतिक मतभेदों के चलते बंगलादेश साफसाफ 2 ध्रुवों में बंट चुका है. बंगलादेश की राजनीति 2 दलों के इर्दगिर्द घूमती है–अवामी लीग और बंगलादेश नैशनलिस्ट पार्टी यानी बीएनपी. इन दोनों पार्टियों की लगाम 2 बेगमों के हाथों में है. अवामी लीग की प्रमुख शेख हसीना हैं. वे आज प्रधानमंत्री हैं. बीएनपी की डोर खालिदा जिया के हाथ में है. मुख्य राजनीतिक पार्टियों के बीच लंबे समय से चल रहे कड़े रिश्तों ने यहां हिंसा और उग्र प्रतिक्रियाओं का रूप ले लिया है. दोनों ही बेगमें एकदूसरे को फूटी आंख देखना पसंद नहीं करतीं. जनवरी 2014 में हुए विवादास्पद चुनाव के विरोध में खालिदा जिया की पार्टी बीएनपी देशव्यापी विरोध करती रही है. बीएनपी के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन ने धांधली के आरोप लगाते हुए इन चुनावों का बहिष्कार किया था.

विपक्ष के बहिष्कार के बीच शेख हसीना और उन के समर्थकों ने लगभग सारी सीटें जीत लीं थीं. असल में चुनाव से पहले ही इस की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होने लगे थे क्योंकि मतदान से पहले ही बंगलादेश में संसद की 300 सीटों में से 153 उम्मीदवारों को निर्विरोध चुन लिया गया था.

मौत का खूनी खेल

राजनीतिक दलों के शत्रुतापूर्ण विरोध के कारण बंगाल की खाड़ी उबल रही है.  मुद्दा इसी पहचान का है. एक तरफ है, ‘आमार बंगला, सोनार बंगला’ तो दूसरी तरफ है–‘आमार सोबोई तालिबान, बंगला होबे अफगानिस्तान.’ यानी हम सभी हैं तालिबान बंगलादेश होगा अफगानिस्तान. एक तरफ मुजीबुर्रहमान की क्रांति है, तो दूसरी तरफ जनरल नियाजी की हैवानियत. बंगाली नववर्ष पर प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद ने सरकार की नीति को स्पष्ट करते हुए उन ब्लौगरों को आड़े हाथों लिया जो इसलाम और पैगंबर की आलोचना करते हैं. उन्होंने कहा, ‘‘इन दिनों मुक्तचिंतन के नाम पर धर्म के बारे में कुछ लिखना फैशन बन गया है. लेकिन मैं मानती हूं कि यह लेखन मुक्तचिंतन नहीं, खराब शब्द हैं.’’

यह सही है कि कुछ ब्लौगरों की टिप्पणियां ऐसी होती हैं जिन में इसलाम के प्रति तर्क सहित टिप्पणी होती है, मगर औनलाइन बहसों में धर्म और उग्रवाद के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा ही होती है. असल में सत्तारूढ़ दल के कुछ नेताओं और मुल्लाओं को ये टिप्पणियां रास नहीं आतीं. सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्त्वपूर्ण मसले से पल्ला झाड़ ले, यह तो कायरता है और आतंकवाद को बढ़ावा देना हुआ. सरकार एक उभरते उग्रवाद से लड़ रही है, जो 2011 से अपने करतब दिखा रहा है. पर सरकार इसे विपक्ष का मुखौटा बता कर प्रचारित कर रही है. इस तरह वह बताना चाहती है कि लोकतांत्रिक सहमति के लिए जगह कम होती जा रही है. इस के जरिए वह पश्चिमी देशों का समर्थन हासिल करना चाहती है. मजेदार बात यह है कि 2015 तक सरकार कहती रही कि इन उग्रवादियों के देश के बाहर लिंक हैं. लेकिन जब कहा जाता है कि अलकायदा और इसलामिक स्टेट जैसे संगठनों ने बंगलादेश में अपनी संगठनात्मक इकाइयां बना ली हैं तो सरकार का रुख बदल जाता है. वह कहती है कि अंतर्राष्ट्रीय आतंकी संगठनों का बंगलादेश में कोई वजूद नहीं है. वैसे, ऐसे विश्लेषकों की भी कमी नहीं है जो मानते हैं कि शायद सत्ताधारी आवामी लीग और प्रधानमंत्री हसीना के लिए ब्लौगरों की हिटलिस्ट और ब्लौगरों की मौत विपक्ष को खत्म करने का अच्छा राजनीतिक मौका है. सरकार उन की मौत का जिम्मेदार विपक्ष को बना कर अपना राजनीतिक मकसद पूरा कर रही है.

राजनीति के ये अंतर्विरोध अपनी जगह हैं ही, मगर इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि बंगलादेश आज वैचारिक दोराहे पर खड़ा है–उस की बंगाली पहचान बुनियादी है या मुसलिम पहचान. जब तक यह फैसला नहीं होता तब तक यह खूनी खेल जारी ही रहने वाला है. बंगलादेश का आज तक का इतिहास हमें यही बताता है.

पिछड़ी जातियों को भुनाते बाबा

2 जून को मथुरा के जवाहरबाग में उठी आग की भीषण लपटों ने एक बार फिर इस देश की धार्मिक, सामाजिक व्यवस्था के वीभत्स रूप को उजागर किया है. इस घटना से सदियों से हाशिए पर रही उन जातियों की राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक ताकत पाने की लालसा व आक्रोश दिखाई दिया जो शोषित, वंचित रहते आए हैं. ये लोग वे हैं जो किसी बाबा, गुरु या नेता में अवतारी मसीहा का रूप देखते हैं और भेड़ों की तरह उन के द्वारा हांके जा रहे हैं.

धर्म, जाति की आड़ ले कर निचली, पिछड़ी जातियां रामवृक्ष यादव जैसे बाबा, नेताओं के ठगने के हथियार हैं. भारत की राजनीति में ही नहीं, धर्म का चोला धारण किए गुरुओं, बाबाओं के साम्राज्य भी जातियों के दम पर टिके हैं. देश में जातियों का हर जगह इस्तेमाल होता आया है. मथुरा मामले में यह बात फिर जाहिर हुई है. रामवृक्ष यादव जवाहरबाग में जमा लोगों को आजाद हिंद सरकार का सपना दिखा कर 1 रुपए में 60 लीटर डीजल, 40 लीटर पैट्रोल, 12 रुपए तोला सोना और गरीबों को कर्जमुक्ति दिलाने जैसे दावे करता था. यहां तक कि रामवृक्ष यादव स्वयंभू सम्राट के तौर पर दरबार लगाता. धीरेधीरे प्रशासन भी उस के आगे झुकने लगा क्योंकि राजनीतिक सत्ता की शह उसे मिल रही थी. जयगुरुदेव का उत्तराधिकारी बनने की कोशिश में नाकाम रहा रामवृक्ष यादव अपना अलग पंथ बनाने में सफल रहा क्योंकि हजारों लोग उस के पीछे जुट गए थे.

जवाहरबाग में किलेबंदी कर रहा रामवृक्ष यादव अकेला ही नहीं था. हरियाणा में कुछ दिनों पहले संत रामपाल भी सैकड़ों लोगों के साथ बरवाला में सतलोक आश्रम में रह रहा था. उस के खिलाफ भी पुलिस को बड़ी कार्यवाही करनी पड़ी थी. उस के आश्रम में भी बाकायदा हजारों लोगों के रहने, खानेपीने की व्यवस्था थी. यहां तक कि लाठियां, बंदूक जैसे हथियारों का जमावड़ा भी मिला. रामपाल भी लोगों को कष्ट निवारण के ख्वाब दिखाता था. इस तरह देश में जयगुरुदेव, गुरमीत रामरहीम, आसाराम, निरंकारी हरदेव बाबा, निर्मल बाबा जैसों का साम्राज्य चल रहा है. लाखों, करोड़ों लोग इन के पीछे भाग रहे हैं. खास बात यह है कि इन बाबाओं के पीछे निचली पिछड़ी जातियों के लोग हैं जिन्हें पूजापाठ, धार्मिक कर्मकांडों से हजारों साल दूर रखा गया था पर अब ये ही जातियां बढ़चढ़ कर उन्हीं धार्मिक पाखंडों में भाग ले रही हैं जो इन को नीचा दिखाती थीं.

एक तरफ जयगुरुदेव, आसाराम, निरंकारी बाबा, रामपाल, गुरमीत रामरहीम हैं जो निचली, वंचित जातियों के बल पर अपनी सत्ता चला रहे हैं, तो दूसरी ओर स्वामी नित्यानंद, श्रीश्रीरविशंकर, रामदेव जैसे घंटाल हैं जो ऊंची, अमीर जातियों को साध कर अपनी दुकानदारी चला रहे हैं. सवाल है कि जयगुरुदेव, रामपाल, रामवृक्ष यादव, निरंकारी बाबा, गुरमीत रामरहीम जैसों के पीछे निचली जातियां क्यों उमड़ रही हैं? यह साफ है कि इन के ज्यादातर अनुयायी निचली जातियों के ही हैं. ये लोग अपने लाखों चेलों के दम पर शासन, प्रशासन तक को चुनौती देते दिखाई पड़ते हैं. इन के साम्राज्य को हाथ लगाने पर ये देश में आग लगा देने तक की धमकियां देते हैं. रामपाल की ऐसी ही धमकियों के चलते सेना तक का इस्तेमाल करना पड़ा था. अगर इन बाबाओं के दावों को सही मानें तो आसाराम के 1.5 करोड़, रामपाल के 20 लाख, निर्मल बाबा के 30 लाख, गुरमीत रामरहीम के 50 लाख, रामदेव के 3 करोड़ श्रीश्री रविशंकर के 1 करोड़, सतपाल महाराज के 20 लाख, सुधांशु महाराज के 20 लाख शिष्य हैं.

इन सब के पीछे इन की अपनीअपनी जातियोंउपजातियों का गणित है. आइए, एक नजर देखते हैं किस बाबा के पीछे कौनकौन सी जातियां रही हैं–

आसाराम : सिंधी समुदाय, पटेल, कुनकी, राजपूत, छोटी व्यापारी उपजातियां, पिछड़ी जातियों का मध्यवर्ग, नामदेव, बघेल, पाटीदार, सिखी, लोध, पटवा, गढ़वी, लोढा.

जयगुरुदेव : कश्यप, निषाद, यादव, राजभर, कुम्हार, कहार, मांझी, धीमर, गुर्जर, अहीर, पाल, गड़रिया, गुसाई, सोनकर, मौर्य, शाक्य, कोइरी, महार, माली, खाती, नाई, साहू, कुशवाहा, राछी, चौरसिया.

निरंकारी हरदेव : रामदासिया, मजहबी सिख, सोढ़ी, वाल्मीकि, ओढ़ तथा पिछड़ों की उपजातियां जांगड़ा, सुनार.

रामरहीम : इन के पाले में हरियाणा, पंजाब की ज्यादातर दबीकुचली उपजातियां हैं. इन में कांबोज, कुचेरा, डाकौत, खाती, नाई, तेली, निषाद आदि शामिल हैं.

निर्मल बाबा : पिछड़ी पंजाबी, हिमाचली, हरियाणवी जातियां जो अब नौकरियों, छोटेमोटे व्यापार में आ गई हैं.

रामपाल : जेल में बंद रामपाल को मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड की निचली पिछड़ी जातियों की ताकत प्राप्त थी.

इन के अलावा श्रीश्री रविशंकर, स्वामी नित्यानंद, रामदेव जैसे बाबा के पास सवर्ण जातियां ब्राह्मण, बनिया हैं जो व्यापार, शासन, प्रशासन, कौर्पोरेट, बौलीवुड में सक्रिय हैं. ये जातियां क्यों इन ढोंगियों की पिछलग्गू बन रही हैं? इस के पीछे सामाजिक कारण रहे हैं. अतीत से ले कर आज तक इन जातियों की जो बदतर सामाजिक स्थिति है, इन्हें ढोंगियों की शरण में लाने पर मजबूर करती है. इन गुरुओं के पास निचली, पिछड़ी जातियां स्वयं को सहज, सुरक्षित महसूस करती हैं. इन के यहां इन्हें अपमान का भय, अकेले जाने का भय नहीं रहता.

ये गुरु जातपांत के भेदरहित इंसानियत की बात करते हैं. इन के यहां किसी से जाति नहीं पूछी जाती. हरेक को चेला मूंड कर पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक कष्ट निवारण का भरोसा दिया जाता है. इन जातियों, उपजातियों को और क्या चाहिए. सैकड़ों सालों से भेदभाव सहते आए ये लोग यहां धर्म और गुरुओं से जुड़ कर खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं. समाज से बहिष्कृत रही ये जातियां अब जाग्रत हो रही हैं. वे अपने लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक अधिकार पाना चाहती हैं, इसलिए इन्हें ऐसे किसी न किसी धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक नेता की तलाश होती है जो इन के कल्याण व इन के हक की बात करे और लड़ाई के लिए आगे रहे. रामवृक्ष जैसे आदमी की शरण में रह रहे गरीब, पिछड़े परिवारों, जातियों में अभी भी कबीलाई सोच कायम है. इन जातियों सहित इन के नेताओं में मानसम्मान, सत्ता पाने या सत्ता की ताकत पाने की छटपटाहट है. जातिभेद की शर्मनाक समस्या अभी भी व्यापक स्तर पर मौजूद है. हजारों दलित, पिछड़ी उपजातियां पिछले 4 दशकों में सामने आई हैं. देश की सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था ने जातिव्यवस्था को इस दौर में और मजबूत किया है, इसे बनाए रखने में प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष भूमिका निभाई है.

काका कालेलकर की अध्यक्षता में 1956 में बने पहले पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट में 2,339 जातियों की पहचान हुई थी. फिर 1978 के बी पी मंडल आयोग ने 3,743 जातियां बताईं जिन की आबादी कुल जनसंख्या का 52 प्रतिशत थी. इस के अलावा 22.5 प्रतिशत जनसंख्या अनुसूचित जाति, जनजातियों की थी. मंडल रिपोर्ट लागू होने के बाद पिछड़ी जातियों की संख्या बढ़ती जा रही है. सरकारी रिपोर्टों में 1,500 जातियां अनुसूचित, 1,000 अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों को मिला कर देश में इन की संख्या 6 हजार से अधिक बैठती है. ये सभी जातियां सामाजिक भेदभाव की शिकार रही हैं, कोई कम, कोई ज्यादा.

यह बात भी सही है कि ये सभी जातियां, उपजातियां छोटेबड़े की भावना से ग्रस्त हैं और सभी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक ताकत पाने के लिए छटपटा रही हैं. पिछले 4-5 दशकों में इन वंचित जातियों में सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक न्याय के आंदोलनों के परिणामस्वरूप जो चेतना पैदा हुई वह इन्हें गुरुओं, आश्रमों, मठों, मंदिरों की ओर ले जाने में सहायक सिद्ध हो रही है. इन जातियों की बाड़ेबंदी के लिए जहां लालू यादव, शरद यादव, मुलायम सिंह, मायावती जैसे नेता उभरे तो इन्हीं जातियों के दम पर आसाराम, गुरमीत रामरहीम, जयगुरुदेव, रामपाल, रामवृक्ष यादव, निरंकारी हरदेव जैसे गुरु भी सामने आए. इन जातियों ने अपने आर्थिक, सामाजिक कष्टों से मुक्ति का काम अपने हाथों में नहीं लिया, इन गुरुओं पर छोड़ दिया और अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा इन्हें दानदक्षिणा में देने लगीं.

गुलामी की शिकार जातियां

गुरुओं, बाबाओं से इन जातियों से सुरक्षा की गारंटी मिलती है. यह धारणा कबीलाई समाजों से होती हुई आज भी कायम है. मथुरा के जवाहरबाग में अपना स्वयंभू साम्राज्य चला रहा रामवृक्ष यादव हिंदू समाज की उसी सड़ीगली सामाजिक व्यवस्था की पैदाइश है. रामवृक्ष भी आजादी की बात करता था. यह आजादी असल में हिंदू समाज की भेदभाव वाली व्यवस्था से मांगी जा रही थी. धर्मगुरुओं से उम्मीद पाले लोगों की संख्या करोड़ों में है. 2 हजार साल के जातिगत शोषण और गुलामी को झेल रही ये जातियां इसीलिए गुरुओं के चरणों में हैं. आज देश में गलीगली में गुरुओं की जो तादाद बढ़ रही है वह इन जातियों की वजह से है. ये जातियां इन गुरुओं की ताकत बन रही हैं. असल में धर्म की सब से बड़ी हिफाजत जातीय पहचान के कायम रहने से हो रही है. ‘जाति हटाओ’ जैसा आज कोई आंदोलन नहीं है. धर्म, जाति के प्रचारक अपने पक्ष में तर्कों से कम, विरोधी के खतरों के डर को भुना कर विभिन्न जातियों को अपने बाड़ों में रोके रखने में कामयाब हो रहे हैं.

पर यह भी सच है कि इन बाबाओं के महल ताश के पत्तों के महल साबित हो रहे हैं. एकएक कर इन के साम्राज्य ढह रहे हैं. आसाराम, रामपाल, रामवृक्ष जैसे बाबाओं की पोल खुलती है और उन से जुड़े लोग ठगे से महसूस करते हैं. ये बाबा खुद आपस में एकदूसरे की आलोचना में दिनरात लीन रहते हैं. इन्हें हरदम खटका लगा रहता है कि कहीं दूसरा प्रतिद्वंद्वी उन की समर्थक उपजाति, जाति को अपने पाले में न कर ले. यह प्रतिद्वंद्विता रामरहीम, निरंकारी, आशुतोष महाराज, जयगुरुदेव, आसाराम जैसे बाबाओं के बीच चलती आई है. असल में इन जातियों में असली सामाजिक चेतना अभी तक नहीं आई है. ये मंदिरों में प्रवेश, गुरुओं की भक्ति, पूजापाठ, मंदिर निर्माण को ही तरक्की मान बैठे हैं. पैसा, शिक्षा आ जाने के बावजूद इन के बंद दिमाग अभी अंधेरों में ही भटक रहे हैं. इन जातियों को समझना होगा कि उन का वास्तविक उत्थान जयगुरुदेवों, आसारामों, रामवृक्षों, आशुतोष महाराजों, रामरहीमों, निरंकारी हरदेवों जैसे बाबाओं, गुरुओं में नहीं है. इन की शरण लेना तो फिर से गुलामी है, धर्म का शिकंजा है. इस तरह तो ये जातियां देश में बाबाओं, गुरुओं की फैक्टरियां तैयार कर रही हैं, उन की खुद की तरक्की कहां हो रही है?

जीवन सरिता: संघर्ष और स्फूर्ति के सूत्र

प्रेम और त्याग की प्रतीक नारी ने अपने संघर्ष से पुरुष समाज के साथ कदम से कदम मिला कर समाज में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है. आज की सबल व प्रगतिशील नारी के पीछे उस के संघर्ष की लंबी दास्तान है जिस के बल पर उस ने यह मुकाम हासिल किया है.

– जीवन एक संघर्ष, एक चुनौती है जिसे हर इंसान को स्वीकारना पड़ता है. संघर्ष में न सिर्फ उसे ऊर्जस्विता मिलती है, बल्कि जीवन की विविध दिशाओं व दशाओं से उस का परिचय भी होता है. मानव समाज का इतिहास स्त्री को सत्ता, प्रभुत्व एवं शक्ति से दूर रखने का है.

– नारी की संघर्ष क्षमता और ऊर्जा में ही उस की अपनी पहचान बनाने और पाने की ताकत छिपी होती है. जब उस पर बन आती है तो वह अपने घरसंसार, बच्चों के लिए जिंदगी की सारी चुनौतियों से रूबरू होती है, उन्हें स्वीकारती है.

– अपनी ही बनाई हुई दीवारों में औरत बंदी हो जाती है, अपने भीतर के न्यायालय में स्वयं को वह निर्णय सुनाती है, कारावास का दंड भोगती है. जिस के मन में आग लगे वही उसे बुझाने के रास्ते ढूंढ़ने को आमादा रहता है. जब तक पानी हमारे पैरों तले से नहीं गुजरता, पांव गीले नहीं होते. अपनी समस्या का समाधान पाना अब नारी का ध्येय है. पुरुषप्रधान समाज में हालात से मुकाबला करने की दिशा में एक संघर्ष है जो लक्ष्य की ओर जाता है.

– बदलते जमाने में नारी पुरुष की जागीर नहीं, उस के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलने में सक्षम है. आधुनिक नारी, पुरुष की संपत्ति मात्र न हो कर उस की सहभागिनी है. वह घर और बाहर की हर परिधि में अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अपने परिवार से, अपने पति से सहकार की अपेक्षा रखती है.

– नारी अपने हौसलों को विराम नहीं देती. उस की संघर्ष क्षमता और ऊर्जा में ही उस की अपनी पहचान है. एक नन्हा दीपक घनघोर अंधकार में भी पराजय नहीं मानता, ऐसे में नारी अपनी लड़ाई खुद लड़ते हए उस चक्र से मुक्त होना चाहती है जहां उसे समाज कैदखाने की घुटन बख्शता है.

– सिंध की बागी शायरा अतिया दाऊद लिखती हैं –

‘मुझे गोश्त की थाली समझ कर

चील की तरह झपट पड़ते हो

उसे मैं प्यार समझूं?

इतनी भोली तो मैं भी नहीं

मुझ से तुम्हारा मोह ऐसा है

जैसा बिल्ली का छिछड़े से.’

– कलम आज तलवार की धार बन कर बेजबान की जबान बन गया है. शब्दों की स्याही में आज की औरत की एक ऐसी रूदाद है, एक ऐसी आपबीती है जिस की एकएक पंक्ति में औरत के दिल के भरभराते एहसासों और जज्बों की तसवीरें सांस लेती हुई महसूस होती हैं. अब उन की हर चाहत, खामोशी के परदों को चीर कर अतिया के उपरोक्त शब्दों की गहराइयों के माध्यम से अपने जज्बों की अभिव्यक्ति बन कर गूंजने लगी है.

– औरत ने संघर्ष स्वीकार लिया है, चट्टानों से टकराना जान लिया है. पूरी तरह से वर्तमान को जीना उस ने सीख लिया है और भविष्य को अपने हाथों से संवारने का संकल्प ले लिया है. नई सदी की नारी की दुनिया में सबकुछ है, उस का घर, परिवार, नातेरिश्ते, समाज, संसार आदि.

– आज के समाज के लिए बेहतर होगा कि वह नारी को अपना सहभागी, सहयोगी मान कर उसे आदरसम्मान दे, जिस की वह हकदार है. अपनी चाह का परचम लिए वह जिस राह पर जाती है, वहां संघर्ष करते हुए राह में आई हर चुनौती को स्वीकारती है. वह विमर्श की नई चुनौतियों से भिड़ती हुई नए आयाम पाने में सक्रिय हो रही है. वह एक बेहतर जिंदगी जीने का हक पा रही है. आज उस का बोया हुआ संघर्ष का बीज आने वाले कल में फलित होगा जो मर्द और औरत की सीमारेखाओं को उलांघते हुए उस के जीवन में बदलाव लाएगा.

– नारी अस्मिता और नारी के स्वतंत्र व्यक्तित्व को ले कर साहित्यिक रचनाएं उन के प्रयासों को परवाज के पंख देंगी.

शायरा अतिया दाऊद कुछ यों कहती हैं :

‘तुम इंसान के रूप में मर्द

मैं इंसान के रूप में औरत

लफ्ज एक है

मगर माने तुम ने कितने दे डाले

मेरे जिस्म की अलग पहचान के जुर्म में…’

– स्त्रीवाद लेखन अस्मिता का प्रमाण है, कोई मनोरंजन नहीं. स्वतंत्र रूप से अपने भीतर की संवेदना को, भावनाओं को निर्भीक और बेझिझक स्वर में वाणी दे पाने में नारी सक्षम हुई है. अपने अंदर की छटपटाहट को व्यक्त करना अब उस का ध्येय बन गया है.

– मन के सहरा में शायद नारी का सफर सदियों से जारी है. अपने मनरूपी ज्वालामुखी से पिघले हुए लावे की तरह अपने कलम से निकली धारा में वह निरंतर प्रताडि़त मन की भावाभिव्यक्ति कुछ यों करती है :

‘मुझे खादपानी चाहिए,

फलनेफूलने के लिए,

डाली के साथ मैं खुश हूं

सिर्फ ‘मैं’ होने में.’ –

अंतरदेशी शादियां: प्यार न देखे देश

वर और वधू भिन्न संस्कृति व अलगअलग देशों से होते हैं तो शादियों की महिमा अद्भुत होती है. ऐसी शादियों के कुछ दृश्य असाधारण होते हैं. ऐसी ही एक जोड़ी है अवनी और फबनी की. अवनी एक अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन समूह के परियोजना प्रबंधक हैं. नस्ल से वे आधे गुजराती और आधे उत्तर प्रदेशी हैं. फबनी जरमनी की उ-मी हैं. एक छात्र विनिमय कार्यक्रम के अंतर्गत इन दोनों की मुलाकात जरमनी के एक बिजनैस स्कूल में हुई थी. उस समय अवनी की उम्र

23 वर्ष थी. जब अवनी का शिक्षासत्र खत्म हुआ तो इन दोनों ने निरंतर एकदूसरे से मिलने का निर्णय लिया. कुछ ही समय में उन दोनों ने शादी के बंधन में बंधने का निर्णय भी ले लिया. इस निर्णय को अपने अभिभावकों के समक्ष रखने में दोनों के दिल तितली की तरह धड़क रहे थे. भले ही उन दोनों के कुछ दोस्त इसे गलत मान रहे थे लेकिन उन दोनों ने अपना निर्णय अपनेअपने अभिभावकों के समक्ष रख ही दिया.

उन दोनों के अभिभावक उन के निर्णय से खुश थे सिवा एक चीज के कि शादी किस तरीके से की जाए, जरमन तरीके से या भारतीय तरीके से. लेकिन यह दुविधा भी शीघ्र ही हल हो गई क्योंकि जैसे ही फबनी के मातापिता ने मीरा नायर की फिल्म ‘मानसून वैडिंग’ देखी तो उन्होंने स्वयं को भारतीय शादी के खुमार में ढलने की तैयारी शुरू कर दी. वैसे भी जरमन तरीके से शादी आसान नहीं थी. अवनी के परिवार वाले जरमन संस्कृति के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे. वहां उन्हें एक जरमन पादरी मिल गया, उस ने विवाह संस्कारों को सफल बनाने में पूरा सहयोग दिया.

अवनी का कहना था कि विवाह समारोह स्वयं में हौलीवुड फिल्म की भांति था. मेहमानों के लिए काफी आमोदप्रमोद के साधन उपलब्ध थे. हम लगभग हर किसी के साथ नाचे और भरपूर आनंद लिया.

दोनों ही परिवार एकदूसरे की रीतिरिवाजों को अपनाने में किसी प्रकार का संकोच नहीं कर रहे थे. फबनी का कहना था, ‘मुझे भारतीय परंपरागत विवाह बहुत पसंद है और उस से भी अधिक पसंद हैं भारतीय व्यंजन जो काफी जायकेदार होते हैं.’

अवनी का कहना है कि 2 संस्कृतियों के मिलन का उन्माद विवाह के बाद भी जारी है. निसंदेह चुनौतियां भी कम नहीं हैं. लेकिन अगर आप दूसरों के रीतिरिवाजों व संस्कारों के प्रति आदरभाव रखते हैं तो निश्चित ही आप अपने पारिवारिक संबंधों में आपसी सामंजस्य बैठा सकते हैं. वैसे भी जरमन व भारतीय संस्कृति में काफी समानताएं हैं, जैसा कि अधिकतर जरमनीवासी दूसरों के घर जाने पर अपने जूते भारतीयों की भांति घर के बाहर उतार देते हैं.

बंधन निकिता और राहुल का

निकिता वू और राहुल नायर की जोड़ी भी ऐसी ही एक जोड़ी है. इन का विवाहबंधन में बंधना दिन में देखे गए सपने की तरह था. जैसे आप एकदम से चौंक कर उठते हो और सोचते हो, ‘काश, यह सच हो जाए.’ और कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिन की सोची बात साकार हो जाती है. निकिता की सोच भी साकार हो गई. निकिता ने एक दिन विचारों में जो अपना खुद का विवाहपत्र देखा जिस पर लिखा था, निकिता संग राहुल और विवाहस्थल था गोआ. मजे की बात यह थी कि वह राहुल नाम के किसी लड़के को नहीं जानती थी. लेकिन संयोग से उस के इस विचार के कुछ दिनों बाद ही उस की मुलाकात राहुल नामक एक युवक से होती है.

निकिता और राहुल अपने कौमन मित्रों के माध्यम से एक दिन मुंबई में मिले जहां राहुल पायलट थे. इतने बड़े मित्रों के झुंड में केवल वे दोनों ही ऐसे थे जो कि एकदूसरे से वार्त्तालाप कर रहे एकदूसरे का सहयोग कर रहे थे. वहां कोई रूमानी जगमगाहट नहीं थी लेकिन वह शाम उन दोनों के लिए बहुत ही यादगार साबित हुई.

राहुल अकसर अपने पायलट लाइसैंस के लिए दिल्ली जाता तो उसे निकिता के साथ समय बिताने का मौका मिल जाता था. दिल्ली में मजनू का टीला स्थित तिब्बत मार्केट के एक रेस्तरां में चाय की चुस्की लेते हुए बिताए गए क्षणों को वे अद्भुत क्षण मानते हैं. दूरदर्शन श्रृंखला के लिए विदेश नीति पर विमर्श हो या यात्रा व रोमांचकारी कार्य के प्रति आकर्षण, दोनों का ही नजरिया समान था.

निकिता के पिता चीनी व माता नेपाली थीं. इसी प्रकार राहुल के पिता मलयाली व माता महाराष्ट्रियन थीं. इसलिए उन के लिए भिन्न संस्कृति का होना कोई मुद्दा नहीं था. निकिता अकसर मजाक करते हुए कहती थी कि हमारे बच्चों में प्रत्येक संस्कृति का चौथाई हिस्सा रहेगा.

राहुल का कहना है कि हम दोनों साथसाथ यात्रा करते हैं और साथसाथ रोमांचक खेल स्कूवा डाइविंग और पैराग्लाइडिंग करते हैं.

अनूठा मेल लौरेन व अभिराम का

लौरेन व अभिराम भी इसी दुनिया के बाश्ंिदे हैं. वे दोनों इस संबंध को स्वप्नलोक में तय हुआ मानते हैं. अभिराम ने बताया कि दिसंबर 2012 में एक औनलाइन शाकाहारी संगठन का सदस्य बनने के कुछ मिनटों के बाद ही संगठन की साइट उपयोगकर्ता एक युवती ने मुझ से वार्त्तालाप करना शुरू कर दिया. वह थी फार्मेसी की छात्रा लौरेन जोकि अनदेखे और अनजाने ही मेरे प्रति जुड़ाव महसूस कर रही थी. हम चैटिंग करते रहे. हम दोनों ही महसूस करने लगे कि हम दोनों के बीच कोई अबूझ रिश्ता है. आप इसे पहली नजर का प्यार भी कह सकते हैं.

लौरेन इंगलैंड के बाथ शहर में थी और अभिराम अमेरिका के न्यूजर्सी शहर में नौकरी करता था. अभिराम मूलतया नागपुर, भारत का निवासी है. चंद दिनों की चैटिंग में ही इन दोनों के बीच अटूट संबंध बन चुके थे और आखिरकार इन दोनों ने शादी करने का फैसला कर लिया था. अभिराम ने अपनी नौकरी छोड़ कर अपने मातापिता को यह खबर सुनाने के लिए भारत के लिए फ्लाइट आरक्षित करवा ली. लेकिन बीच में उस ने लंदन में 10 घंटे का विराम लिया जहां जून 2013 में अपनी फार्मेसी की डिगरी पूरी कर चुकी लौरेन से उस की पहली मुलाकात हुई और आखिर लौरेन का भी टिकट बनवा कर वे दोनों भारत आ गए. यहां एक सप्ताह बाद ही उन दोनों ने शादी कर ली.

लौरेन ने अपने ब्लौग में ‘इंगलिश वाइफ इंडियन लाइफ’ नामक हैडलाइन के तहत लिखा है, ‘‘मुझे भारत में रहना बहुत अच्छा लगता है लेकिन आप की कल्पना के अनुरूप यह कोई कमल का फूल या गुड़ का पुआ नहीं है. पहले हम दोनों ने चोरीछिपे मंदिर में शादी की तथा उस के बाद अप्रैल 2014 में सैकड़ों मेहमानों की उपस्थिति में परंपरागत साड़ी पहन कर व मंगलसूत्र धारण कर सात फेरे लिए और इस प्रकार विवाह के बंधन में बंधे.

‘‘भारत में (अपने बुने हुए सपनों के विपरीत) भारीभरकम साड़ी और लहंगा, सगाई की अंगूठी, मंगलसूत्र, 50 के दशक का थैला और उस में लाए गए निमंत्रणपत्रों में से एक को पसंद करना, शादी की खरीदारी करने के लिए 14 घंटे का पुणे तक का स्लीपर बस में सफर करना. सबकुछ पूर्व योजना के उलट था.’’ उन्होंने आगे लिखा है, ‘‘मैं ने जो लहंगा पसंद किया था वह बहुत ही सुंदर था लेकिन उस का साइज मेरी कदकाठी से बड़ा था.’’ उस ने पीला रंग पसंद करना सीख लिया जिसे वह नापसंद करती थी क्योंकि भारतीय संस्कृति में पीले रंग को शादीब्याह में महत्त्व दिया जाता है.

शादी के बाद से अब तक लौरेन ने अपने ब्लौग में अनेक पोस्टें भारतीय जीवनशैली पर आधारित जारी की हैं. जिन में हिना लगाने के तरीके, औनलाइन प्रेम की खोज, दुनिया के अन्य हिस्सों की प्रेम कहानियां, सलाहकारी प्रकोष्ठ, भाभी की पीड़ा तथा दूसरों के लिए भारतीय जीवनशैली में ढलने की सलाह प्रमुख हैं.

इन्हें भी आजमाइए

– बरसात में धुले गीले कपड़ों में वातावरण की आर्द्रता की वजह से बदबू आ जाती है. इसलिए फोल्डिंग क्लौथ रैक पर कपड़े डालें और रैक पंखे के नीचे रखें. कपड़े धोने में फैब्रिक कंडीशनर का इस्तेमाल करें.

– जब एसी का टैम्परेचर काफी लो रहता है तो शरीर को अपना तापमान मेंटेन रखने के लिए अत्यधिक काम करना पड़ता है जिस वजह से शरीर में लगातार थकान बनी रहती है.

– बरसात के दिनों में पानी दूषित हो जाता है, इसलिए छोटे बच्चों को उबला पानी ठंडा कर के दें. मिल्क सप्लीमैंट उबले पानी से तैयार करें और पूरी तरह ढक कर रखें. इस से वे डायरिया जैसी बीमारी से बचे रहेंगे.

– अगर पैरों की बदबू एक गंभीर समस्या बन चुकी है, तो एक टब में गरम पानी में चायपत्ती या 3-4 टी बैग डालें. लगभग आधे घंटे के लिए अपने पैरों को इस गरम पानी में रहने दें.

– यदि आप के बाल गंदे और औइली हैं तो आप का चेहरा भी साफ और फ्रैश नहीं दिखेगा. इसलिए शैंपू कर के अपने बाल और सिर साफ रखें.

– बरसात के दिनों में अलमारी में कपूर की टिकिया रखें. यह वातावरण की नमी को सोखती है जिस से अलमारी में रखे कपड़े सुरक्षित रहते हैं.

कश्मीर की कसक

पिछले कई महीनों से राष्ट्रीयता की बहस और देशभक्ति के नाम पर किसी को भी बुरा भला कह देने या देशद्रोह के नाम पर किसी को भी महीनों तक जेल में रख देने का नतीजा गंभीर होना ही था. जब देश का काफी हिस्सा कभी जाट आंदोलन, कभी पाटीदार आंदोलन, कभी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विवाद और कभी हैदराबाद या वर्धमान विश्वविद्यालयों के विवाद से जैसेतैसे निबट रहा हो, ऐसे में कश्मीर जैसे नाजुक मामले में दूरदर्शिता का अभाव महंगा तो पड़ेगा ही. महबूबा मुफ्ती ने वैसे तो फूंक फूंक कर भारतीय जनता पार्टी के साथ समझौता कर सरकार बनाई पर कश्मीर की असंतुष्ट जनता को वे पसंद नहीं आएंगी, यह महबूबा को भी मालूम था और भाजपा को भी. भाजपा भी अपनी तरफ से मामले को चिंगारी देने से बच रही थी पर 23 वर्षीय बुरहान वानी की सुरक्षाबलों के हाथों मौत ने अलगाववादियों को एक नया नाम दे दिया.

भारत की कोई सरकार कश्मीर में अलगाववादियों को पनपने नहीं दे सकती. पर यह भी पक्का है कि कश्मीर को हर समय बंदूकों के साए में रखना आसान नहीं है. कश्मीर के हर विवाद पर भारत पर विश्वभर में आरोप लगने शुरू हो जाते हैं और अब रूस भी उस तरह भारत का साथ नहीं देता जैसा शीत युद्ध के समय देता था. बुरहान वानी का मामला कश्मीरी जनता के लिए एक नया बहाना हो गया है जिसे महबूबा मुफ्ती आसानी से नहीं सुलझा पाएंगी. 2014 में भारतीय जनता पार्टी ने विकास करने और भ्रष्टाचार रहित सरकार देने का वादा किया था पर जनता तक उस का असर नहीं पहुंचा. कश्मीर में भी न विकास हुआ, न भ्रष्टाचार खत्म हुआ. कश्मीरी जनता ने पहले मुफ्ती मोहम्मद सईद और फिर महबूबा मुफ्ती का शासन काफी धैर्य से स्वीकार लिया था हालांकि राख के नीचे अंगारे पनप रहे थे. पर देश के कट्टरवादियों ने जो माहौल बनाया उस से हर कोई संशय में है कि भारतीय जनता पार्टी का विकास का एजेंडा प्राथमिक है भी या नहीं. देश के अन्य युवाओं की तरह कश्मीर के युवा भी एक सुखद भविष्य चाहते हैं.

वहां तेजी से बढ़ते कोचिंग व्यवसाय और कश्मीरियों की नौकरियों व व्यवसायों की ललक से लग रहा था कि युवाओं को अपने भविष्य से ज्यादा प्रेम रहेगा न कि राज्य की राजनीति से. इस मामले को गलत तरीके से हैंडल करने के चलते यह लग रहा है कि कश्मीर को एक बार फिर असंतोष के कगार पर ला खड़ा कर दिया गया है. बुरहान वानी जैसे अलगाववादियों को पनपने न देने का फर्ज हर सरकार का है और सरकार को हर संभव कदम उठाना पड़ेगा, पर यह भी नहीं भूला जा सकता कि इसलामी जिहाद के खूनी पंजे अब और पैने व खूंखार हो गए हैं. इसलामिक स्टेट का असर दुनियाभर में महसूस किया जा रहा है और सुन्नी मुसलिम देश भी इस की वारदातों से अछूते नहीं हैं. ऐसे में बारूद में ऐसी आग न लग जाए कि हमारा विकास का सपना आंतरिक विवादों में धूधू कर के जलने लगे.

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