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मायके गई पत्नी का बेचारा पति

फिल्म ‘बौबी’ के एक मशहूर गाने की एक पंक्ति है, ‘मैं मायके चली जाऊंगी तुम देखते रहियो…’ जवाब में हीरो गाता है, ‘तू मायके चली जाएगी मैं दूजा ब्याह रचाऊंगा…’ और इस एक पंक्ति से वह हीरोइन को डराने में फौरन सफल हो जाता है. वहीं, दूसरी ओर, ‘मेरी बीवी की शादी’ फिल्म का गाना, ‘राम दुलारी मायके गई, खटिया हमरी खड़ी कर गई…’ में मायके गई पत्नी के बेचारे पति की दुर्दशा का सच्चा वर्णन है.

हम सभी ऐसे कितने ही चुटकुलों पर हंसे हैं जिन में मायके गई पत्नी के पति की खुशी का जिक्र होता है मानो यही वह एक समय होता है जब पति अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जी पाता है लेकिन यह भी एक बहुत बड़ा सत्य है कि यह मौका तभी एक उत्सव की तरह मनाया जा सकता है जब पत्नी खुशी से मायके गई हो और उस की वापसी निश्चित हो. किंतु तब क्या हो जब पत्नी मायके जाने को अपना अधिकार बना ले? मायके जाने की धमकी दे कर पति को अपनी बात मनवाने पर मजबूर करती रहे?

4 जून, 2016 को मुंबई उच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक फैसला आया है. मामले में न्यायालय की नागपुर बैंच के वी ए नाइक तथा ए एम बदर ने निर्णय दिया कि बिना किसी ठोस कारण केपत्नी ने अपने पति को छोड़ कर 7-8 वर्ष अपने मायके में व्यतीत किए, इस को न्यायालय ने क्रूरता का स्थान दिया और इसीलिए उन की तलाक की अर्जी स्वीकार की.

दरअसल 13 दिसंबर, 2006 को विवाह हुआ और 5 मार्च, 2007 को पत्नी हमेशा के लिए अपने मायके चली गई. शादी के इन 3 महीनों में पत्नी ने पति से उस के मातापिता से अलग घर बनाने की मांग की और इसी जिद को मनवाने हेतु अपने मायके जा कर रहने लगी. जब पत्नी

नहीं मानी तो अगले वर्ष पति ने तलाक की अर्जी डाली, किंतु कोर्ट का निर्णय आतेआते कई वर्ष लग गए.

न्यायालय से तलाक का निर्णय आने में कई वर्षों का समय लगना आम बात है. न्यायालयों से समन, पारिवारिक न्यायालयों द्वारा मध्यस्थता, लिखित बयान, आपत्ति आदि में 2-3 वर्ष का समय लग जाता है. अगले 1-2 वर्ष हिंदू विवाह अधिनियम द्वारा अंतरिम रखरखाव के निर्णय में, फिर जा कर तथ्यों की सुनवाई होनी प्रारंभ होती है. पारिवारिक न्यायालयों द्वारा यह स्वीकारा गया है कि उच्च न्यायालय लंबे समय से लंबित मामलों के बारे में जांचपड़ताल करते हैं. अर्थात तलाक के मामलों में शीघ्रता से कार्यवाही तलाक की अर्जी डालने के करीब 5 वर्ष बाद ही हो पाती है.

कानून का दुरुपयोग

इस केस में हुए निर्णय से एक बात स्पष्ट है कि पत्नी के मायके जाने में केवल पत्नी को बेचारगी के पलड़े में नहीं रखा जा सकता है. हो सकता है कि नाजायज मांग और उसे मनवाने की जिद के कारण वह मायके जा बैठी हो और ऐसी स्थिति में बेचारा केवल पति होता है जो बिना किसी दोष के सजा भुगतता है. इस में कोई दोराय नहीं है कि भारतीय कानून पत्नियों के प्रति अतिनरम हो गया है. धारा 498ए का कितना गलत उपयोग कर पत्नियां अपने पतियों को बेवजह सताती हैं. जिस ने भी फिल्म ‘दावत-ए-इश्क’ देखी होगी वह इस कानून और इस के दुरुपयोग को भलीभांति समझ सकेगा. दहेज के झूठे इलजाम में फंसा कर पत्नी पति और उस के पूरे परिवार को अपनी उंगलियों पर नचा सकती है क्योंकि इस केस में जमानत नहीं मिलती है. यह बात पति भी जानते हैं, इसलिए डरते हैं. और पत्नियां भी जानती हैं, इसलिए मनमानी कर सकती हैं.

सुमित की दिल्ली के सरोजिनीनगर मार्केट में साडि़यों की दुकान है. उस की पत्नी को खरीदारी का बेहद शौक था. अपने इस शौक को पूरा करने में वह इस बात का ध्यान भी नहीं रखती थी कि इस बार आमदनी कितनी हुई है. बस, इसी बात को ले कर अकसर झगड़े होने लगे. पत्नी ने मायके को अपना युद्धक्षेत्र बना लिया. मातापिता की वह इकलौती संतान थी सो, उसे पूरा सहयोग मिला. मायके में रहते हुए उस ने सुमित पर खूब जोर डाला. किंतु जब यह तरीका आम होने लगा तब सुमित भी अड़ने लगा. पत्नी ने धारा 498ए के तहत अदालत का दरवाजा खटखटा दिया. नतीजतन, सुमित को उस के मातापिता सहित जेल जाना पड़ा. समाज में बदनामी हुई, सो अलग. दुकान के काम पर भी इस का काफी असर पड़ा.

भारतीय दंड संहिता के तहत यदि पत्नी व्यभिचार के आरोप में पकड़ी जाए तो भी सजा उसे नहीं, केवल उस के प्रेमी को होगी. ऐसे में कोई तेजतर्रार औरत इन कानूनी दांवपेंचों का गलत इस्तेमाल कितनी आसानी से कर सकती है, यह सोचना कठिन नहीं.

करतूत पत्नी की, सजा पति को

मीना  का पति अकसर टूर पर रहता था. उस दौरान वह अपने मायके आ- जाया करती थी. अपने फ्लर्ट स्वभाव के चलते उस ने पड़ोस में एक आशिक बना लिया. एक बार किसी रिश्तेदार ने उन्हें मार्केट में  रंगेहाथों पकड़ लिया. बस, उस ने फौरन बोरियाबिस्तर बांध कर मायके का रुख कर लिया. सारी समस्या वहीं से शुरू हुई, केस कोर्ट पहुंचा. पति तलाक पर आमादा था. किंतु सजा किसी को नहीं हुई. पति का पैसा कोर्टवकीलों के चक्कर

में पानी की तरह बहता रहा. इस बीच न्यायालय ने मीना को पति से मासिक मुआवजा भी दिलवाया और मकान भी. जब 8 वर्ष बीत गए, सारा पैसा निकल गया, मकान भी गया और तलाक फिर भी नहीं हुआ तब झक मार कर पति फिर मीना के साथ रहने लगा.

यदि पत्नी मायके जा कर बैठ गई है तो समाज का दृष्टिकोण पति के प्रति कठोर हो उठता है. पत्नी को असहाय मान कर समाज पति पर दोषारोपण करने में जरा भी नहीं हिचकता. ऊपर से बच्चों का संरक्षण भी आमतौर पर मां को ही मिलता है.

कहां जाए पति?

पत्नी की ज्यादतियों से प्रताडि़त पति कहां जाएं? उन का मायका कहां है? वे अपने मातापिता के साथ रहते हैं तो सासबहू की चक्की में घुन जैसे पिसते हैं. यदि पत्नी की बात मान कर अलग हो जाएं तो भारतीय समाज में अपने मातापिता का भरणपोषण न करने पर गाली सुनें. पत्नी के लिए रूठ कर मायके जाना बहुत सरल है. किंतु पति यदि लड़ाई के बाद अपने घर वालों से मदद ले तो सारा समाज ससुरालियों को बहू का दुश्मन करार देता है.

समाचारों पर ध्यान दें तो पाते हैं कि तलाक का इंतजार सब से खतरनाक समय है. अकसर अपराध या पत्नी या पति का खून इसी समय होता है. पति चाहे सही हो या गलत, विवाहोपरांत झगड़ों में बेचारे पति को ही गालियां सुनने को मिलती हैं, उसी को ब्लैकमेल किया जाता है. और तो और, उसी के पैसों से केस लड़ा जाता है जो न्यायालय स्वयं पत्नी को दिलवाता है.

वर्ष 2012 के नैशलन अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, शादीशुदा मर्दों के मुकाबले शादीशुदा औरतों में आत्महत्या की संख्या काफी कम है. 2014 में जहां आत्महत्या करने वाले पुरुषों की संख्या 60 हजार थी तो वहीं शादीशुदा महिलाओं की संख्या 27 हजार रही. इस के अगलेपिछले सालों के आंकड़े भी यही तसदीक करते हैं. ऐसे में मर्दों के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए कोई कानून क्यों नहीं है?

बेंगलुरु में वकालत कर रहे धावेश पाहुजा के अनुसार, ‘‘कुछ शिक्षित शहरी स्त्रियों ने ऐसे कानूनों को अपने पतियों और उन के रिश्तेदारों से अपनी मनमानी करने का हथियार बना लिया है.’’

माना कि भारतीय दंड संहिता के नियमकानून स्त्री के अधिकारों की रक्षा हेतु बनाए गए हैं, सवाल यह है कि समाज की कुरीतियों से स्त्री को बचाने के लिए इन कानूनों का उपयोग हो तो सही है किंतु जब स्त्री मायके का सहारा ले कर अपने पति को तंग करने पर आमादा हो जाए तब क्या होगा?

खून करवाता धर्म

त्योहारों में मूक व असहाय जानवरों की बलि चढ़ाने का रिवाज है. इन दिनों कसाइखानों से ले कर मंदिरों की चौखट में खून ही खून बिखरा नजर आता है. ‘अहिंसा परमो धर्म’ के विचाराधारा वाले इस देश में धर्म का सिर्फ एक ही काम है, वह है खून बहाना. कभी पूजापाठ की पीठ पर सवार हो कर तो कभी आतंकवाद की शक्ल में धर्म ने मानवता को खून से लथपथ कर दिया है.

देश में सभी धर्मों के अनुयायी अपनेअपने धर्म को अहिंसक बताने से थकते नहीं हैं. मगर कटु सत्य यह है कि धर्म की वजह से धर्मभीरू लोग जम कर हिंसात्मक तरीके से कहीं अपना तो कहीं दूसरे का खून बहा रहे हैं. मामला धर्म से जुड़ा होने के कारण शासनप्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा नजर आता है. वहीं, दूसरी ओर देश में अनेक रोगी खून के अभाव में दम तोड़ दे रहे हैं.

धर्म की वजह से चल रहे अनेक दकियानूसी कामों में प्रतिवर्ष कहीं स्वयं के खून को चढ़ावे में देने, मातम करने के नाम पर खून बहाने, महिलाओं को भूतही, डायन, टोनही बता कर जान से मार देने एवं स्वयं लाखों निरीह पशु, पक्षियों, जंतुओं की बर्बरतापूर्वक हत्याएं कर दी जा रही हैं. हैरत की बात यह है कि सदियों से चले आ रहे इन जघन्य अपराधों को 21वीं सदी की उच्च शिक्षित पीढ़ी भी खुशी से अपना रही है.

केस-1 : उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में बासगांव कसबा स्थित दुर्गा मंदिर से जुड़ी एक परंपरा है. वहां प्रतिवर्ष चैत्र नवरात्रि के 9वें दिन श्रीनेत राजपूतों के विवाहित व्यक्ति शरीर के 9 स्थानों से देवी को खून चढ़ाते हैं जबकि अविवाहित शरीर के एक स्थान से खून निकाल कर चढ़ाते हैं.

कसबे के एक बुजुर्ग के अनुसार, 13 दिन के बच्चे तक का खून देवी को चढ़ता है. यह काम वहां 1943 से बदस्तूर जारी है. इस से पहले वहां श्रीनेत राजपूत भैंस, बकरा, सूअर, मुरगा आदि की बलि देवी को चढ़ाते थे. मगर वर्ष 1943 में यहां राम शर्मा आचार्य आए. उन्होंने इस के विरोध में 3 दिन आमरण अनशन किया तो श्रीनेत राजपूतों के पुरखों ने जानवरों की बलि न दे कर अपने खून को देवी को चढ़ाने की परंपरा को शुरू कर दिया.

केस-2 : पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के भीरा थाने के अंतर्गत देवरिया रडा गांव में पड़ोस के ही महेशापुर गांव से एक दलित बिरादरी के घर बरात आई थी. मंडप में फेरे लेते समय वर पक्ष के लोगों ने कहा कि हमारे यहां रिवाज है कि कुलदेवता को भेड़ की बलि देने के बाद उसी के खून से दूल्हा, दुलहन को तिलक लगाया जाता है. इस प्रस्ताव पर लड़की के पिता भड़क गए. यह देख दुलहन को भी गुस्सा आया. लिहाजा, शादी ठुकरा दी गई. मामला भीरा थाने पहुंचा. अंत में दोनों पक्षों में समझौता हुआ और बिना दुलहन बरात वापस चली गई.

केस-3 : उत्तर प्रदेश के मउ जिले के थाना कोतवाली के बल्लीपुर गांव का युवक मनोज कुमार काफी दिनों से बीमार था. उस ने किसी तांत्रिक के कहने पर देवी को अपने ही गले का खून चढ़ाने के लिए गले को किसी धारदार हथियार से रेत दिया. देवी का आशीर्वाद काम न आया. बाद में परिवारजनों ने नाजुक हालत में उसे एक अस्पताल में भरती कराया तब जा कर वह ठीक हो सका.

ये तो कुछ प्रमुख उदाहरण हैं, इन से इतर न जाने कितनी ही रस्में एवं घटनाएं देशभर में घटती हैं जो जानकारी में नहीं आ पाती हैं. प्रतिवर्ष मोहर्रम में मुसलिम धर्मभीरुओं के मातम से हजारों लिटर खून बह जाने की घटनाएं आम हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में करीब 3 मिलियन यूनिट से भी ज्यादा खून की कमी बरकरार है जिसे मात्र 2 प्रतिशत लोग स्वैच्छिक ‘रक्तदान’ दे कर भरपाई कर सकते हैं. उल्लेखनीय है कि रक्तदान का सैल्फ लाइफ पीरियड 35-42 दिनों का होता है. जबकि विभिन्न धार्मिक कारणों से बहाया गया खून तत्काल पूर्णरूप से व्यर्थ हो जाता है.

भेड़चाल में शिक्षित वर्ग

ऐसे समय जब चांद पर आशियाना बनाने की बात की जा रही है और गौड पार्टिकल की खोज हो चुकी है तब इस प्रकार के कर्मकांडों एवं मूढ़ विश्वासों को सुशिक्षित युवाओं द्वार तवज्जुह देना देश के मानसिक दिवालियेपन का द्योतक ही लगता है.

बासगांव के श्रीनेत राजपूत राधेश्याम सिंह बताते हैं, ‘‘चैत्र नवरात्रि के 9वें दिन हमारे वंशज, चाहे जहां हों, कुल देवी को खून चढ़ाने जरूर पहुंचते हैं. यहां तक कि जो लोग विदेशों में नौकरी कर रहे हैं वे भी.’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘हम लोग मूलतया श्रीनगर तथा गढ़वाल के रहने वाले हैं. हमारे वंशज राजस्थान में भी बसे हुए हैं. सभी जगह से लोग यहां आते हैं.’’ इस का सीधा मतलब है कि श्रीनेत समाज के पढ़ेलिखे युवाओं की फौज भी खुशी से इस भेड़चाल में शरीक होती है.

सुशिक्षित युवाओं के इस तरह के कर्मकांडों में शामिल होने की यह कोई अकेली घटना नहीं है. इस की अंतहीन फेहरिस्त है. पिछले वर्ष रक्षा मंत्रालय ने सेना में भैंसों के बलि दिए जाने संबंधी कृत्य पर रोक लगाई है. गौरतलब है कि सेना के कुछ यूनिटों में भैंसों की बलि देने की परंपरा रही है जिस में गोरखा रेजीमैंट प्रमुख रूप से है. सेना, जहां पर युवावस्था तक ही सेवाएं ली जाती हैं और बड़े अफसर बहुत ही सुशिक्षित होते हैं, वहां निरीह जानवरों की बलि दिए जाने की बात अत्यंत शर्मसार करने के साथ ही साथ मन को झकझोर देती है.

जीवजंतुओं पर धर्म का सितम

नीलकंठ पक्षी और सर्प को शंकर से, मयूर को सरस्वती से जोड़ने वाले धर्मभीरू हिंदू, इन्हीं का बेरहमी से कत्लेआम करवा रहे हैं. ऊपर से ‘अहिंसा परमोधर्म’ एवं ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की रट अलग से. आखिर ये सारे जीवजंतु भी तो इसी वसुधा के हैं. नवरात्रि पूजा एवं दशहरा पश्चिम बंगाल में बड़े ही हर्षोल्लास से मनाया जाता है. इसी पूजा में वहां पक्षियों के सफेद पंखों से ढोल सजाने का खास रिवाज है. सो, नवरात्रि के पहले से ही पूरे पश्चिम बंगाल में सफेद पक्षियों की जान पर बन आती है. धर्मभीरुओं की इस अनिवार्य जरूरत एवं उन के द्वारा मोटी रकम अदा करने के कारण पक्षियों के सफेद पंखों को ऊंचे दामों पर बेचा जाता है.

कोलकाता के एक गैर सरकारी संगठन ‘फ्रैंडस ऐंड वाइल्डलाइफ’ के एक सर्वेक्षण के अनुसार, दुर्गापूजा के समय कोलकाता एवं आसपास के इलाकों में हर साल 20 हजार से भी अधिक पक्षी मार दिए जाते हैं. संगठन के मुताबिक, एक ढोल को सजाने के लिए 4-5 पक्षियों को मारना पड़ता है.

इसी तरह मुंबई में, वन्यप्राणी विशेषज्ञों के अनुसार, प्रतिवर्ष नागपंचमी के मौके पर सांपों को दिखाने के लिए सपेरे विभिन्न स्थानों से सांपों को पकड़ते हैं. उस समय करीब देश में 60 हजार सांप मारे जाते हैं. विभिन्न धर्मों की मान्यताओं के चलते प्रतिवर्ष लाखों सूअरों, भैंसों, मोरों, कबूतरों, बकरों, काली मुरगियों व मुरगों की जान पर बन आती है. बहुत सारे तांत्रिक जल में रहने वाली मुरगियों को मिरगी के दौरे की अचूक दवा करार देते हैं.

हिंदू धर्म में मयूरों को मार कर उस के पंख नोच कर रखने पर कभी प्रेतबाधा एवं सांपों के न आने की बात कह कर पूरे देश में लाखों मयूरों को मौत के घाट उतारा जा रहा है. इसी तरह कहींकहीं इसलाम धर्म में काले मुरगे की शहादत को नामर्दी दूर करने की अचूक दवा माना जाता है.

डायन के नाम पर

एक गैर सरकारी संगठन ‘रूरल लिटिगेशन ऐंड एंटाइटलमैंट सैंटर’ के आंकड़ों के अनुसार, देश के विभिन्न राज्यों में 15 वर्षों के अंदर 2,500 से अधिक औरतें डायन और टोनही बता कर मौत के घाट उतार दी गई हैं. अकेले मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में हर वर्ष 10-15 महिलाएं डायन और टोनही बता कर मार डाली जाती हैं. इस तरह के अनेक मामले अदालत की चौखट तक पहुंच भी रहे हैं. अकेले छत्तीसगढ़ राज्य में 1,268 मामले विभिन्न अदालतों में आए हैं.

नैशनल क्राइम रिकौडर्स ब्यूरो के साल 2014 के आंकड़ों के अनुसार, पूरे देश में 160 औरतें डायन, टोनही बता कर मार दी गईं जिन में सर्वाधिक संख्या झारखंड में 54 है.

राजनेताओं की सरपरस्ती

देश के नुमाइंदों से ऐसे आचरण की अपेक्षाएं होती हैं जो जनताजनार्दन के लिए नजीर बन सकें. मगर यहां तो नुमाइंदे खुद बढ़चढ़ कर ऐसे जघन्य कामों में हिस्सा लिया करते हैं. तभी तो शायद इस तरह के अपराध सभी प्रदेशों में बदस्तूर बढ़ते जा रहे हैं. कुछ वर्ष पहले की बात है, मध्य प्रदेश के पूर्व सपा विधायक किशोर समरीते ने समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाने हेतु कामाख्या देवी के मंदिर में 101 भैंसों की बलि दी थी. लेकिन मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री नहीं बन पाए. आश्चर्य की बात तो यह है कि सपा की तरफ से इस जघन्य अपराध पर किशोर समरीते के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गई.

कानून है मगर कारगर नहीं

ऐसा नहीं है कि इन अंधविश्वासों के कारण हो रहे खूनखराबे को रोकने के लिए कोई कानून नहीं है. विडंबना है कि लोग इन कानूनों के बारे में जानते ही नहीं हैं या फिर कानून के सहारे इन पर अंकुश लगाने को आगे नहीं आ रहे हैं.

इस बारे में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद उच्च न्यायालय की वरिष्ठ अधिवक्ता एवं सामाजिक कार्यकर्ता मोनिका आर्या बताती हैं, ‘‘भारतीय दंड विधान के तहत महिलाओं को डायन, टोनही, भूतही बता कर प्रताडि़त करने के लिए कड़ी सजा के प्रावधान हैं. जान से मारने पर धारा 302, किसी भी तरह से जान को खतरा बनाए जाने पर धारा 338, किसी भी तरह का अपराध जो उन के मानसम्मान को ठेस पहुंचाए धारा 354 के तहत कड़ी सजा के प्रावधान हैं. इसी तरह डायन, भूतही, टोनही के नाम पर होने वाली हत्याओं पर रोक लगाने के लिए खासतौर पर ‘विच प्रिवैंशन ऐक्ट’ भी है. निरीह जानवरों को मौत के घाट उतार दिए जाने पर रोक लगाने हेतु ‘प्रिवैंशन औफ कु्रएल्टी टू एनिमल ऐक्ट 1960’ विशेषरूप से लागू है. इस ऐक्ट के तहत 3 माह तक जेल की सजा एवं जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.’’

इस तरह होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाए जाने के संबंध में वे सुझाव देती हुई कहती हैं, ‘‘सरकार एवं संगठनों को सामाजिक चेतना हेतु जनता को शिक्षित करना होगा. मानसिक बीमारियों के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में उचित चिकित्सा व्यवस्था होनी चाहिए. कई बार जब लोगों को उचित चिकित्सा नहीं मिल पाती है तो थकहार कर ओझाओं के चंगुल में फंस जाते हैं. जिस से झाड़फूंक, तंत्र, मंत्र, एवं बलि प्रथा को बल मिलता है.’’

कैसे होगी रोकथाम

ऐसी घटनाओं की रोकथाम के लिए अधिकतम जागरूकता एवं शिक्षा कारगर उपाय हैं. बेहतर यह होगा कि उन्मूलन हेतु सरकार इसे एक मानसिक बीमारी मान कर प्रभावित क्षेत्रों में युद्धस्तर पर सघन अभियान चलाए. ऐसी करतूतों में संलिप्त लोगों पर नियमानुसार कड़ी कार्यवाही की जाए ताकि दूसरे इस का अनुसरण न कर सकें.

दरअसल, ऐसी घटनाओं का प्रमुख कारण धर्म है. धर्म तमाम तरह के अप्रत्याशित लाभों को बढ़ावा देता है, जिस से धर्मभीरू किसी भी तरह के शारीरिक कष्ट झेलने एवं पशुबलि देने को तैयार हो जाते हैं. जबकि सचाई यह है कि कोई भी लाभ बिना किसी भौतिक प्रयासों जैसे श्रम, शिक्षा के बगैर नहीं प्राप्त किया जा सकता है. देश के लोगों को अब तक जो भी शिक्षा मिली है वह आंशिक रूप से मिली है. सो, आवश्यक है कि लोगों को वैज्ञानिक शिक्षा दी जाए. वैज्ञानिक शिक्षा कभी भी किसी मुद्दे पर संशय का सृजन नहीं करती.          

देश में बेरोजगारी और हुनर का हाहाकार

20 से 25 साल का हर चौथा हिंदुस्तानी युवा बेरोजगार है. यह एक ऐसा खौफनाक आंकड़ा है जिस में स्वत: तमाम दूसरे डराने वाले आंकड़े आ मिलते हैं. जनगणना रिपोर्ट से हासिल इस आंकड़े के मुताबिक, देश में मौजूद कुल कार्यशक्ति में से 12 करोड़ लोग या 24 करोड़ हाथों के पास करने के लिए कोई रोजगार नहीं है. ये लोग या तो अपने परिवार के दूसरे कमाऊ लोगों पर निर्भर हैं या ऐसे रोजगार में जबरदस्ती लगे हुए हैं जहां वाजिब मेहनताना नहीं मिलता.

आमतौर पर कार्यपालिका के नीतिगत मामलों में कोई हस्तक्षेप न करने वाले सुप्रीम कोर्ट ने देश में बेरोजगारी की भयावह हो रही समस्या से सही ढंग से न निबट पाने के लिए केंद्र सरकार को फटकार लगाई है. यही नहीं, देश की सर्वोच्च अदालत ने बेरोजगारी की गहराती समस्या के बीच केंद्र सरकार को याद दिलाया है कि जीविका का अधिकार, जीवन के मूलभूत अधिकार में अंतर्निहित है. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी यह राय दक्षिण मध्य रेलवे कैटरर्स एसोसिएशन की अपील पर पिछले दिनों व्यक्त की थी, जिस के ठेके को सरकार ने रद्द कर दिया था.

लेकिन सवाल सिर्फ बेरोजगारी का नहीं है. वास्तव में बड़ी समस्या यह है कि हिंदुस्तान एकसाथ कई तरह की हकीकतों का विरोधाभासी हब बन चुका है. एक तरफ कहा जा रहा है कि हम दुनिया के सब से युवा देश हैं और भविष्य की मानव संसाधन संबंधी तमाम वैश्विक जरूरतों को हम ही पूरा करेंगे. दूसरी तरफ, वर्तमान में हम ही योग्य और कल्पनाशील तकनीशियनों का अभाव झेल रहे हैं. एक तरफ बेरोजगारी हमारी सब से बड़ी समस्या है तो दूसरी तरफ भारत के कौर्पोरेट जगत को 12-14 लाख योग्य कर्मचारियों की अविलंब जरूरत है और लोग हैं कि ढूंढ़े नहीं मिल रहे. जिस तरह देश का हर अच्छा शैक्षणिक संस्थान योग्य फैकल्टी का अभाव झेल रहा है उसी तरह देश की अच्छी कंपनियां योग्य कर्मचारियों की कमी का शिकार हैं. कुशल कर्मचारियों की बैंच स्ट्रैंथ तो शायद ही किसी कंपनी के पास हो.

यह अकारण नहीं है कि देश की वे तमाम आईटी कंपनियां जो विदेशों में काम कर रही हैं, इन दिनों अपने लिए तमाम कर्मचारियों का चयन भी विदेशों में ही कर रही हैं जबकि यह स्थिति उन के लिए कतई लाभदायक नहीं है, न ही वे इस की इच्छुक हैं. मगर क्या करें, मजबूरी है. देश में योग्य युवा मिल ही नहीं रहे. संक्षेप में कहा जाए तो देश में बेरोजगारी के साथसाथ हुनर का भी हाहाकार है. देश में हुनरमंद लोगों की भारी किल्लत है. राजनीतिक दल, सरकारें और विशेषज्ञ सब के सब सिद्धांतत: एक ही बात कर रहे हैं कि देश में सब से बड़ी चुनौती युवा आबादी के लिए नौकरियां पैदा करना है.

बेरोजगारी का परिदृश्य

हद तो यह है कि देश में बेराजगारी बिलकुल नए किस्म के सच निर्मित कर रही है. मसलन, इस समय एक यह विचित्र सच भी उभर कर सामने आ रहा है कि जो वर्ग जितना ज्यादा पढ़ालिखा है उस वर्ग में बेरोजगारी की उतनी ही बड़ी समस्या है. देश में यह आमधारणा है कि कोई तकनीकी कोर्स कर लिया जाए तो कोई न कोई काम मिल ही जाता है. मगर, बेरोजगारी का परिदृश्य इस के उलट आंकड़े पेश करता है. आंकड़े बताते हैं कि कुल पढ़ेलिखे बेरोजगारों में से 16.9 प्रतिशत ऐसे युवा बेरोजगार तकनीकी डिगरी या डिप्लोमाधारी ही हैं. जबकि मैट्रिकुलेशन या सैकंडरी तक की पढ़ाई करने वाले 14.5 प्रतिशत युवा ही बेरोजगार हैं. इस का साफ मतलब है कि हमारे यहां तमाम पढ़ेलिखे किसी काम के नहीं हैं.

हमारे यहां के तमाम पढ़ेलिखे लोग वाकई हुनर के मामले में शून्य हैं. संख्या के हिसाब से तो हर साल हमारे यहां लगभग 27 लाख ग्रेजुएट (अब चीन से भी ज्यादा) तैयार होते हैं मगर सवाल है ये काम के कितने हैं? भारत सरकार का मेक इन इंडिया कार्यक्रम में जोर देने का मकसद यही है कि बडे़ पैमाने में प्रशिक्षित कामगार तैयार किए जाएं. यही वजह है कि सरकार अगले 10 सालों में 40 करोड़ लोगों को प्रशिक्षित किए जाने का बेहद महत्त्वाकांक्षी खाका भी तैयार कर रही है. मगर असली सवाल यह है कि क्या व्यवहार में यह सब फलीभूत हो सकेगा? क्योंकि यहां भी जिस तरह से जानपहचान के लोग हुनरमंद बनाने का ठेका पा रहे हैं, उस से भी इस लक्ष्य पर शक है. ऐसी योजनाएं पहले भी बनती रही हैं और देश में प्रशिक्षणशालाओं का अच्छाखासा जाल भी है, खासकर आइटीआई जैसे संस्थानों का. वास्तव में समस्या तकनीकी संस्थानों की नहीं, बल्कि उन के द्वारा प्रशिक्षित किए गए लोगों की गुणवत्ता का है.

इसे यों भी कह सकते हैं कि असली समस्या बेईमानी की है. बेईमानी सिर्फ शिक्षकों या प्रशिक्षकों की ही नहीं, बेईमानी प्रशिक्षार्थियों या छात्रों की तरफ से भी बड़े पैमाने पर हो रही है. छात्र या प्रशिक्षार्थी पढ़ ही नहीं रहे. उन्हें अभी इस की महत्ता ही नहीं समझ में आ रही. उन्हें लगता है गंभीरता से पढ़नेखिने में लग गए तो जिंदगी का मजा ही क्या? पूर्व मानव संसाधन मंत्री जयराम रमेश ने एक बार कहा था कि हमारे 20 फीसदी ग्रेजुएट भी नौकरी पाने के लायक नहीं होते. जबकि इनफोसिस के पूर्व चेयरमैन एन नारायणमूर्ति ने तो इस के भी एक कदम आगे जा कर यहां तक कह डाला था कि आईआईटी से निकलने वाले भी सिर्फ15 प्रतिशत ग्रेजुएट ही नौकरी देने के लायक होते हैं.

अनिश्चितता व असुरक्षा

वास्तव में हमारे छात्रों और प्रशिक्षार्थियों में मेहनत व ईमानदारी का जज्बा ही नहीं है. निसंदेह इस सब में अकेले कुसूरवार वही भर नहीं हैं. समाज की साझी प्रवृत्ति, शिक्षकों की पढ़ाने को ले कर बरती जाने वाली बेईमानी, घरपरिवार का माहौल, समाज का साझा चरित्र और अनिश्चितता व असुरक्षा भी इस सब के लिए जिम्मेदार हैं. लेकिन वजहें कुछ भी हों, अब हमें इस सब से पार तो आना ही होगा. हमें तत्काल यह सुनिश्चित तो करना ही होगा कि नौकरी के इच्छुक लोग काम के लिए तैयार हों और वे कंपनियों के काम के भी हों यानी योग्य हों. इसलिए तमाम सैद्धांतिक खामियों को फिलहाल एकतरफ करते हुए सरकार की कोशिश है कि नौकरी करने के इच्छुक करोड़ों लोगों को तकनीकी प्रशिक्षण दे कर उन्हें हुनरमंद बनाया जाए. यही लोगों के हित में है और देश के हित में भी यही है.

यही कारण है कि पुरानी तमाम योजनाओं और कार्यक्रमों को एकतरफ रखते हुए भारत सरकार ने अप्रशिक्षित लोगों को हुनर प्रदान करने के लिए बड़े पैमाने पर एक नया कार्यक्रम शुरू किया है. मौजूदा केंद्र सरकार का कहना है कि वह अगले 7 सालों में ऐसे में 40 करोड़ लोगों को हुनरमंद बनाएगी जो काम कर सकते हैं. यह प्रशिक्षण सफलतापूर्वक हासिल करने वाले लोगों को उन के हुनर और प्रशिक्षण के ब्योरे वाले स्किल कार्ड व सर्टिफिकेट दिए जाएंगे. इस से उम्मीद की जा रही है कि न केवल मौजूदा बेरोजगारों के लिए नौकरी पाने की गुंजाइश बढ़ेगी, बल्कि भारत में निर्माण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश करने के लिए विदेशी कंपनियां भी आकर्षित होंगी.

व्यावहारिक प्रशिक्षण का अभाव

भारत के लिए ऐसा करना तुरंत इसलिए भी जरूरी हो गया है क्योंकि कुशल श्रमिकों की दुनिया में हमारी बहुत ही दयनीय स्थिति है. अगर दुनिया से तुलना की जाए तो भारत में सिर्फ 23 फीसदी श्रमिक ही प्रशिक्षित हैं, जबकि अमेरिका में 52 फीसदी, जापान में 80 फीसदी और दक्षिण कोरिया में 96 फीसदी वर्कफोर्स प्रशिक्षित है. लेकिन भारत में नौकरी देने वालों के लिए सिर्फ यही एक समस्या भर नहीं है. असल में भारत में जो 23 फीसदी लोग कुशल श्रमिकों में गिने जाते हैं उन प्रशिक्षित लोगों में भी गुणवत्ता का बड़ा अभाव होता है. वास्तव में काम के लायक या कहें कि उन्हें व्यावहारिक कुशलता तो नौकरी पर लिए जाने के बाद फिर से प्रशिक्षण दिए जाने पर ही हासिल होती है क्योंकि उन्हें जहां प्रशिक्षण दिया गया होता है वहां उन साधनों का अभाव होता है जिन से व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है.

हद तो यह है, किसी इंजीनियरिंग संस्थान से सिविल इंजीनियरिंग में फर्स्ट क्लास डिगरी पाने वाला इंजीनियर भी साइट पर काम के दौरान बगलें झांकता बुद्धू नजर आता है. 100 में 90 फीसदी मौकों में पाया जाता है कि उसे भवन निर्माण की एबीसीडी तक नहीं पता होती. दरअसल, इस की वजह उस का कम अक्ल का होना नहीं होता. इस की वजह यह होती है कि उसे प्रशिक्षण के दौरान कोई व्यावहारिक अनुभव ही नहीं मिला होता. वह सही मानो में कभी भवननिर्माण स्थल पर गया ही नहीं होता है क्योंकि उस के प्रशिक्षक कभी इस की जरूरत ही नहीं समझते. हिंदुस्तान में ज्यादातर कारीगर किसी का नुकसान कर के ही कुछ सीखते हैं. मसलन, प्लंबर को ही लीजिए. किसी तकनीकी संस्थान से प्लंबिंग का डिप्लोमा या सर्टिफिकेट हासिल किए कोई प्लंबर या तो किसी के घर का या किसी भवन निर्माण कंपनी का नल तोड़ कर ही काम सीखता है क्योंकि उसे पता ही नहीं होता कि वास्तव में शिकंजे को कसना कितना है.

हो सकता है उसे क्लासरूम में कभी यह सब पढ़ाया और बताया भी गया हो लेकिन पढ़ कर या सुन कर यह सब नहीं आता. यह सब व्यावहारिक रूप से करने पर ही आता है. यही वजह है कि वह इसे अनुभव लेने के दौरान एकदो बार तोड़ कर ही सीखता है. बिजली का मेकैनिक 2-4 फिटिंग्स बरबाद कर के ही सही फिटिंग करना सीखता है. वास्तव में यह अप्रशिक्षित कामगार होने से भी बुरी स्थिति होती है कि किसी प्रशिक्षित कामगार को काम न आए.

एक और बड़ी बात, ऐसे लोग काम देने वाले की कीमत पर तो काम सीखते ही हैं, कितना सीख पाते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस के साथ काम करते हैं. अगर किसी कुशल कारीगर के पास पहुंच गए तब तो ठीक, वरना काम सीखने की यह स्थिति वर्षों बनी रहती है. बड़ी अकथ कहानी है इन नीमहकीम कामगारों की. बेरोजगारी और कुशल श्रमिकों की स्थिति से निबटने के लिए यों तो मोदी सरकार बहुत महत्त्वाकांक्षी योजना के साथ आगे बढ़ रही है लेकिन इस रास्ते में चुनौतियां कई हैं.

जरूरत हुनर की

अगर सरकार बड़ी संख्या में लोगों को हुनरमंद करने में कामयाब हो जाती है तो सब के लिए नौकरी पैदा करना भी एक मुद्दा होगा क्योंकि भारत में करीब 12 करोड़ लोग बेरोजगार हैं. इस में चिंता का पहलू यह भी है कि आधी से ज्यादा आबादी 25 साल से कम उम्र की है. इसलिए नौकरी चाहने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले 10 सालों में जिस तरह की नौकरियों की मांग बढ़ी है उसे देखते हुए यह तय है कि भारत के सामने बड़ी चुनौती है. दरअसल, पिछले कुछ सालों से ही नहीं, बल्कि दशकों से देखा जा रहा है कि किन्हीं एकदो क्षेत्रों की तरफ ही हर कोई भागना चाहता है. 90 के दशक के उत्तरार्ध में हर कोई आईटी क्षेत्र में जाना चाहता था, हर कोई कंप्यूटर या ग्राफिक इंजीनियर ही बनना चाहता था. बाद में यह भेड़चाल एमबीए के लिए देखी गई.

सचाई यह है कि हर क्षेत्र में लोगों की मांग का एक आनुपातिक समीकरण होता है. कोई क्षेत्र कितना ही तेजी से विकास करे, वह पूरा समाज नहीं हो सकता. समाज में उस की एक स्थिति के बाद मांग घट जाएगी. लेकिन हमारे यहां भेड़चाल चलते हुए लोग यह सब कभी नहीं सोचते. वास्तव में हमारे यहां नौकरी के चयन में हमारी पसंद से ज्यादा हमारे सोशल स्टेटस का हाथ होता है. नौकरी वही चाहिए जिस से समाज में रुतबा बनता हो. रुचि का कोई मामला नहीं होता. मसलन, कानून क्षेत्र को ही लीजिए. आज की तारीख में यह ऐसा क्षेत्र है जहां रोजगार की बहुत स्मूथ स्थितियां नहीं हैं फिर भी लोग इस क्षेत्र में जाना चाहते हैं क्योंकि इस क्षेत्र की एक सामाजिक हैसियत और छवि है जो कि बेहद पौजिटिव है.

व्यावहारिक तौर पर देखा जाए तो हाल के सालों में सब से ज्यादा नौकरियां भवननिर्माण क्षेत्र में ही पैदा हुई हैं. लेकिन भवननिर्माण क्षेत्र के लिए जरूरी प्रशिक्षित व योग्य लोग नहीं मिलते. नतीजतन, प्रगति धीमी रही है. इसलिए देश के लिए चुनौती है कि वह विभिन्न क्षेत्रों में नौकरियां पैदा करे, साथ ही साथ, विभिन्न क्षेत्रों में समान सामाजिक रुतबा भी पैदा करे.                  

महिलाओं से ज्यादा पुरुष हैं बेरोजगार

देश में बेरोजगारी की समस्या का एक लिंगभेदी पाठ भी है. वास्तव में तकरीबन 12 करोड़ बेरोजगार लोगों में से पुरुष बेरोजगारों की संख्या, महिला बेरोजगारों से बहुत मामूली ही सही, पर ज्यादा है. जहां कुल पुरुष बेरोजगारों की संख्या करीब 5 करोड़ 82 लाख है. वहीं महिला बेरोजगारों की संख्या 5 करोड़ 79 लाख के आसपास बैठती है. कहने का मतलब पुरुषों के मुकाबले 3 लाख कम महिलाएं बेरोजगार हैं. इस की एक वजह यह है कि हाल के सालों में रोजगार ढांचे का परिदृश्य थोड़ा बदला है. साथ ही, रोजगार की दुनिया महिलाओं के लिए ज्यादा फ्रैंडली हुई है. इस में सिर्फ तकनीकी वजह ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि इस के पीछे एक बड़ा कारण काम के प्रति महिलाओं का ज्यादा जिम्मेदार रवैया तथा चयन की कम चाह रखना भी है.

नौकरियों का हब बन सकता है भारत

भारत दुनिया का मैन्यूफैक्चरिंग हब बन पाएगा या नहीं, यह इस बात पर निर्भर है कि भारत में उत्पादन की ख्वाहिशमंद कंपनियों के लिए कुशल कामगार कितनी सहजता से मिल सकते हैं. कोई भी कंपनी अपने साथ पूंजी ला सकती है, तकनीक ला सकती है, ऊपर के लैवल का एक सीमित अमला ला सकती है लेकिन श्रमिक नहीं ला सकती. फिर चाहे वे कुशल श्रमिक हों या अकुशल. श्रमिक तो उसे लोकल ही चाहिए होंगे, तभी वह सफल हो सकती है यानी मुनाफा हासिल कर सकने लायक उत्पादन कर सकती है. अपनेआप को हब में तबदील करने वाले देश को भी तभी कोई फायदा हो सकता है.

इस लिहाज से देखें तो खासकर उत्पादन के क्षेत्र में अब भारत का दांव सरकार के ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम पर है. इसी महत्त्वाकांक्षी परियोजना के तहत मोदी सरकार देश को दुनिया के मैन्यूफैक्चरिंग हब में बदलना चाहती है. मगर क्या कुशल श्रमिकों के अभाव में ऐसा संभव है? ऐसा कभी नहीं हो सकता. देश बड़े पैमाने पर विदेशी निवेशकों को आकर्षित कर सके और हुनर आधारित नौकरियां दे सके, इस के लिए जरूरी है कि बड़े पैमाने पर लोगों को हुनर या कौशल का प्रशिक्षण दिया जाए. बिना ऐसे किए न तो हब बनने का सपना पूरा हो सकता है और न ही देश की बेरोजगारी को काबू किया जा सकता है. लेकिन हमें इस बात को भी याद रखना होगा कि यह सब सरकार नहीं कर सकती. इस में सब से अहम भागीदारी लोगों की व्यक्तिगत ईमानदारी और हासिल की गई कुशलता की होगी. तभी भारत उत्पादन का गढ़ बन सकता है.

मुसलिम और मोदी: कट्टरवाद बनाम उदारवाद

कद और पद के साथ जिम्मेदारियां तो बढ़ती ही हैं, शख्स का चिंतन भी बदलता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  ने केरल के कोझीकोड में भाजपा की नैशनल काउंसलिग की मीटिंग में जब मुसलिम बिरादरी को ले कर अपनी नई सोच सामने रखी तो उन की पार्टी के ही कट्टरवादी नेताओं और दूसरे संगठनों में कसमसाहट दिखने लगी. दरअसल, नरेंद्र मोदी अपनी कट्टवादी ‘गुजरात छवि’ को बदल कर उदारवादी छवि पेश करना चाहते है. लेकिन यह दिखावा भर है, यह हर कोई जानता है क्योंकि नरेंद्र मोदी का रिकौर्ड कुछ और कहता है. वे चुनाव जीतने से पहले विषवमन करते रहे हैं.

जब भारत व पाकिस्तान के बीच संबंधों में युद्ध की तनातनी दिखने लगी. पूरे विश्व की नजरें इन दोनों देशों पर लगी थीं. पाकिस्तान अपनी सड़कों पर जेट फाइटर उड़ा कर युद्ध की चुनौती दे रहा था. उस समय नरेंद्र मोदी मुसलिमों के विकास और उन की शिक्षा की बात कर के कौन सी नई विचारधारा को पेश कर रहे हैं. यह उन के दिल की बात नहीं है, यह बहाना है.  

आज भारत में हर तरफ से इस बात का दबाव बढ़ रहा था कि पठानकोट व उरी के हमलों के लिए पाकिस्तान को सबक सिखाया जाए.भारत में सभी लोग इस बात से बेहद खफा थे कि पाकिस्तान ने अपने आतंकी संगठनों का सहारा ले कर उरी में भारतीय सेना के जवानों को सोते समय मारा. इस के पहले विपक्ष में रहते हुए खुद नरेंद्र मोदी ने कड़ी कार्यवाही की वकालत तब की कांग्रेस सरकार से कर चुके थे. वर्तमान के गरम माहौल के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने स्वभाव के उलट संयम से काम लेते हुए पाकिस्तान से युद्ध के बजाय दूसरे दबाव बनाने की बात शुरू तो की पर संयुक्त राष्ट्रसंघ से ले कर सिंधु जल समझौता और समझौता ऐक्सप्रैस को ले कर समीक्षा करनी शुरू कर दी. यह कोई समन्वयवादी नीति नहीं है.

यही नहीं, प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान की बदहाली के मुद्दे को उठा कर वहां की जनता से आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की उम्मीद जताई. अपने इस कदम से नरेंद्र मोदी ने केवल देश के अंदर लोगों को चौंकाया है कि कल का कट्टरपंथी आज शांतिप्रिय क्यों बन रहा है.  

इस का कारण देश की राजनीतिक पैंतरेबाजी है. भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रवाद की जब बात करती है तो उस का धार्मिक एजेंडा साफ झलकने लगता है. वह राष्ट्र को कट्टर पौराणिकवादी मानती है. यही कारण है कि केवल मुसलिम ही नहीं, दलित भी, जो पुराणों के दमन के शिकार रहे हैं, इस एजेंडे के साथ खुद को जोड़ नहीं पाते हैं. लगता यही है कि राष्ट्रवाद की आड़ में कट्टरवादी तत्त्व ही धर्म का सहारा ले कर अपनी बात को सामने रखने की कोशिश में लगे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नए रुख से भाजपा का धार्मिक एजेंडा हाशिए पर चला गया, ऐसा कहीं से सिद्ध नहीं होता.

नरेंद्र मोदी अगर अपने संगठनों के दबाव में आए बिना इसी तरह से अपनी छवि को बदलते रहे तो अपनी मुसलिम विरोधी छवि से छुटकारा पाने में तो सफल हो जाएंगे पर वे भाजपा की मुख्यधारा को तितरबितर कर देंगे. गोमांस और गोरक्षा के नाम पर पिछले कुछ समय से देश में बहुत सी ऐसी घटनाएं घटीं जो भारत की सर्वधर्म छवि पर धब्बा थीं पर नरेंद्र मोदी इन पर आमतौर पर चुप रहे या देर से बोले, वह भी तब, जब नुकसान हो चुका था. 

गोरक्षा से पहले राष्ट्रवाद और तिरंगा यात्रा के तहत भाजपा ने अपने संकीर्ण एजेंडे को लागू करने का प्रयास किया था. इन मुद्दों को तीखा बनाने के लिए जेएनयू और हैदराबाद विश्वविद्यालय में घटी घटनाओं को पूरे देश ने देखा था. शुरुआत में भाजपा और उस से जुडे़ संगठनों को लगा कि इन मुददों से वे अपने छोटे वोटबैंक को खुश रख सकेंगे. वे यह न भूलें कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद देश में न केवल भाजपा बल्कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता लगातार कमजोर हुई है. लोकसभा चुनावों के बाद हुए सभी विधानसभा चुनावों के पैमाने पर यह बात परखी जा सकती है.

आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश और पंजाब में विधानसभा के चुनाव होने हैं. भाजपा को अपनी गिरती लोकप्रियता से डर लग रहा है. इन राज्यों में भाजपा को चुनावी प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है. ऐसे में भाजपा को अपनी नीतियों में बदलाव की जरूरत महसूस हो रही है पर असल में कितना बदलाव आएगा, इस में संदेह है. 

मोदी का मुसलिम प्रेम 

छुआछूत के मुददे पर दलित अलगथलग पड़ते थे तो राष्ट्रवाद के नाम पर मुसलिम. अब भाजपा नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह समझ आ रहा है कि बिना दलितों और मुसलिमों को साथ लिए चुनाव जीतना मुश्किल होगा. अब वे दलितों और मुसलिमों को ले कर नई सोच बना रहे हैं. परेशानी की बात यह है कि उन की बात खुद उन की पार्टी और उस से जुडे़ संगठनों को समझ में आएगी भी कि नहीं.

पाकिस्तान के साथ गरम माहौल के बीच केरल के कोझीकोड में मोदी ने कहा, ‘‘मुसलिमों को अपना समझें. उन को वोटबैंक का माल नहीं समझा जाना चाहिए.’’ यह कहना तो असंभव है पर गलीगली फैले भगवाई दुपट्टा ओढ़े कार्यकर्ताओं को समझाना असंभव है. यह समाज हारना, गुलामी सहना स्वीकार करता है पर अपने धार्मिक, सामाजिक नियमों को नहीं बदलता. नरेंद्र मोदी नई सोच के मसीहा तो हैं नहीं. 

प्रधानमंत्री मोदी ने जनसंघ के विचारक दीनदयाल उपाध्याय के कथन को सामने रखते कहा, ‘‘मुसलमानों को न पुरस्कृत किया जाए और न फटकारा जाए, बल्कि उन्हें अपने पांव पर खड़ा कर के मजबूत बनाया जाए. उन्हें अपना समझा जाए, न कि वोटबैंक की वस्तु या फिर नफरत का सामान.’’

प्रधानमंत्री मोदी यहीं नहीं रुकते हैं, आगे कहते हैं, ‘‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने मुसलमानों को करीब आने और उन की तरक्की के लिए यह मंत्र 50 साल पहले दिया था. कुछ लोगों ने पहले जनसंघ और बाद में भाजपा को समझने में गलती की. कुछ जानबूझ कर अब भी ऐसा कर रहे है.’’ मोदी केवल अपनी बात ही नहीं कर रहे, वे अपनी पार्टी भाजपा और जनसंघ को भी मुसलिमों का समर्थक बता रहे हैं.

यह सच है कि हर विचारधारा सब को साथ ले कर चलने की बात करती है. परेशानी की बात यह है कि राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में फर्क होता है. भाजपा यदि ऐसा सोचेगी तो उस की पूछ जीरो हो जाएगी. ऊंची सवर्ण जातियां केवल अपना हित देखती हैं. न उन्हें देश की चिंता होती है, न समाज की. उन के लिए पूजापाठ और मंदिरमठ मुख्य हैं.

कट्टरता से निकलने की बेचैनी

असल में नरेंद्र मोदी का मुसलिम और दलित प्रेम केवल दिखावटी है. गोरक्षा के नाम पर पहले मुसलिमों और बाद में दलितों के साथ भेदभाव भरा व्यवहार किया गया. इस में राष्ट्रवादी कहे जाने वाले संगठनों का बहुत बड़ा हाथ था. गोमांस के नाम पर कई हिंसककांड हुए जिन में भाजपा नेतृत्व ने चुप्पी साध ली थी. जब ये मसले आगे बढे़ तो प्रधानमंत्री ने 80 फीसदी गोरक्षा संगठनों को फर्जी बता दिया और 20 प्रतिशत को जिम्मेदार ठहरा कर खुद को स्वयं दोषमुक्त कर डाला. दलितों के साथ मुसलिमों की बारी आई. पाकिस्तान के साथ तनावभरे माहौल में भाजपा पर नैतिक दबाव आने लगा. उस पर मुसलिम विरोध का पुराना लैवल लगा है. ऐसे में माहौल को हलका करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने अपना नया मुसलिम प्रेमराग छेड़ दिया है. भाजपा ही नहीं, नरेंद्र मोदी की राजनीति की धुरी सदा ही मुसलिमविरोधी रही है. गुजरात दंगों से बनी इस छवि को तोड़ कर मोदी अब अपनी नई छवि गढ़ना चाहते हैं पर अब देर हो चुकी है.

भाजपा की राजनीति का तो केंद्रबिंदु ही मुसलिम विरोध रहा है. देश में मंदिरमसजिद विवाद के पहले हिंदू व मुसलिम एकसाथ गंगाजमुनी सभ्यता के साथ रहते थे. अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाए जाने के बाद देश में सांप्रदायिक माहौल खराब हुआ.

मुंबई का बम विस्फोट ऐसी पहली बड़ी घटना थी जिस ने इस दूरी को आतंकवाद से जोड़ दिया. इस के बाद देश में होने वाली आतंकी घटनाएं

बढ़ने लगीं. देशविरोधी ताकतों को मजहबी दूरी बढ़ाने में मदद मिली. वे इस दूरी के बहाने देश को आतंकवाद के मुहाने पर ले आए. इस देश के अधिकांश मुसलमान इसी देश के दलित, अछूत, पिछड़े हैं जिन्होंने लालच में या गुस्से में इसलाम कुबूल किया है. वृहद भारत के 50 करोड़ मुसलमान मक्का व मदीना से नहीं आए हैं. उन के पुरखे यहीं गंगा, जमुना, सिंधु, ब्रह्मपुत्र और कावेरी के किनारों पर रहते थे.

बाधा बनेंगे फायरब्रांड नेता

भाजपा वोट के ध्रुवीकरण का आरोप कांग्रेस और दूसरे दलों पर लगाती है. सच यह है कि खुद भाजपा कांग्रेस और दूसरे दलों की तरह ही वोटबैंक की परिपाटी पर चलती रही है. 2014 के लोकसभा चुनाव में पाकिस्तान व भारत के संबंधों को प्रचार के रूप में प्रयोग किया गया और कांग्रेस पर पाकिस्तान समर्थक होने के आरोप लगे.

सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक के बाद एक इस बात का आभास होने लगा है कि देश की एकता और अख्ांडता के लिए दलित और मुसलिम भी बेहद जरूरी हैं. इन को साथ ले कर चले बिना देश का विकास संभव नहीं है. मुश्किल बात यह है कि यह सच प्रधानमंत्री तो समझ गए पर उन से जुडे़ सैकड़ों फायरब्रांड छुटभैए वक्ता यह बात समझें, तो बात बने.

भाजपा में कई नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए कट्टरता का सहारा ले कर घोर सांप्रदायिक बयान देते हैं ताकि उन को हिंदुत्व की धुरी माना जाए. ये लोग अपने बयानों से भारत व पाकिस्तान के बीच युद्व का माहौल बनाने का भी काम करते हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नए रुख से ऐसे नेताओं में बेचैनी बढ़ेगी. भारत-पाक संबंधों पर नरेंद्र मोदी ने संयम से काम लिया है. पर यह कूटनीति है या कुछ न कर पाने की अक्षमता, कहा नहीं जा सकता. भड़काने का काम केवल पाकिस्तान नहीं कर रहा, भाजपा के कुछ नेता भी कर सकते हैं. ऐसे नेताओं पर काबू पाना होगा. भड़काऊ बयान अब लाभ के बजाय नुकसान भी देने लगे हैं. बिहार चुनाव में इस को देखा जा चुका है.   

आड़े आती गुजरात छवि

नरेंद्र मोदी की मुसलिम विरोधी छवि आज उन्हें अपनी छवि को उदारवादी बनाने की राह में सब से बड़ा रोड़ा महसूस हो रही है. गुजरात में ‘गोधरा कांड’ और ‘इशरत जहां एनकाउंटर’ के बाद से उन की छवि मुसलिम विरोधी बन गई. उस समय पूरे विश्व के मीडिया ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को मुसलिम विरोधी के रूप में पेश किया. हालात यहां तक हो गए कि नरेंद्र मोदी को अमेरिका यात्रा के लिए वीजा का आवेदन करना विवादों में आ गया था. भारत में राजनीतिक लाभ के लिए कोई नरेंद्र मोदी की मुसलिम विरोधी छवि को अपने लिए लाभकारी समझता था तो कोई उन की इस छवि का लाभ लेने की फिक्र में था. खुद नरेंद्र मोदी अपनी मुसलिम विरोधी छवि को बनाने में ही खुश थे. चुनावी सभाओं में कई बार ऐसे मौके भी आए जब उन्होंने मंच पर ही मुसलिम टोपी पहनने से इनकार कर दिया.

2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने अपनी हिंदूवादी छवि को बनाए रखा. लोकसभा चुनाव में भारत और पाकिस्तान संबंधों में उस समय के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की आलोचना एक मुद्दा बन गई. उस समय प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में नरेंद्र मोदी ने ‘एक के बदले 10 सिर काटने’ और ‘56 इंच का सीना’ होने वाले तमाम जुमले भी कहे थे. लोकसभा चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने अपनी छवि को बदलने का प्रयास किया. उन्होंने पाकिस्तान के साथ संबंधों को मधुर बनाने के लिए वहां के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया. ये कदम पाकिस्तान के कट्टरपंथी लोगों को रास नहीं आ रहे थे. ऐसे में भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बिगड़ने लगे और आज हालात युद्ध के मुहाने पर पहुंच गए. दरअसल, नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से अपनी छवि को बदलते हुए सुलह और विकास की नीति को आगे बढ़ाया वह दोनों देशों में कट्टरवादी लोगों को रास नहीं आ रही.

मेरे पति को नौकरी से निकाल दिया गया. अब समस्या यह है कि उन्हें अपनी पोजीशन और योग्यता के अनुसार काम नहीं मिल रहा.

सवाल

मैं 30 वर्षीय विवाहिता व किशोरवय बेटे की मां हूं. आजकल मैं अपनी एक पारिवारिक समस्या से बेहद परेशान हूं. मैं सरकारी स्कूल में अध्यापिका हूं, जबकि पति आजकल बहुत बुरे दौर से गुजर रहे हैं. वे जिस प्राइवेट कंपनी में काम करते थे वहां से अचानक उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया. कहा गया कि कंपनी आर्थिक मंदी से जूझ रही है. अब समस्या यह है कि उन्हें अपनी पोजीशन और योग्यता के अनुसार काम नहीं मिल रहा. वे पहली कंपनी में जितनी तनख्वाह पाते थे उतनी ही तनख्वाह पर काम करना चाहते हैं. उन्हें खाली बैठे 2 महीने हो गए हैं.

मैं उन से कहती हूं कि तनख्वाह कुछ कम भी मिलती है तो कोई बात नहीं. नौकरी जौइन कर लें. पर वे मानते ही नहीं. कहते हैं लोग आगे बढ़ना चाहते हैं और मैं पीछे जाऊं? उन्हें कैसे समझाऊं?

जवाब

आप अपने पति को इस बात के लिए राजी करें कि यदि उन्हें मनमाफिक काम मिलता है, कंपनी अच्छी है, तो तनख्वाह को ज्यादा तवज्जो नहीं देनी चाहिए.

मेहनत करेंगे तो आगे बढ़ने का अवसर भी मिलेगा. नौकरी करते हुए इस से बेहतर नौकरी के लिए प्रयास कर सकते हैं. पर निरंतर कुछ समय और खाली बैठे रहे तो जहां उन का आत्मविश्वास कम होगा, वहीं बेहतर नौकरी मिलना और दूभर हो जाएगा.

फेसबुक ने कंपनियों के लिए लॉन्च किया ‘वर्कप्लेस’

सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक ने अपने नए फीचर ‘वर्कप्लेस’ का कमर्शियल लॉन्च किया है. कंपनी इससे दुनिया की सभी कंपनियों को वर्कप्लेस में फेसबुक के इस्तेमाल का मेसेज देना चाहती है. ऑफिशल कम्यूनिकेशन में आमतौर पर ईमेल का इस्तेमाल होता है. फेसबुक इसे ‘वर्कप्लेस’ से बदलना चाहती है. भारत इस नए टूल का इस्तेमाल करने में दूसरे देशों से आगे है.

फेसबुक फॉर वर्क को कंपनी ने वर्कप्लेस का नाम दिया है. इसे कंपनी ने पायलट प्रॉजेक्ट के तहत 18 महीने पहले लॉन्च किया था. इस टूल का इस्तेमाल अभी स्टारबक्स से डेनॉन, भारत में गोदरेज से लेकर यस बैंक, सिंगापुर की गवर्नमेंट टेक्नोलॉजी एजेंसी और ऑटो रिक्शा एग्रीगेटर जुगनू, लॉजिस्टिक कंपनी डेलीवेरी में हो रहा है. फेसबुक ऐट वर्क के एशिया पैसिफिक हेड रमेश गोपालकृष्ण ने कहा, ‘फेसबुक यूज करने के लिए ट्रेनिंग की जरूरत नहीं है. यह सिंपल है. भारत में पहले से ही 16 करोड़ लोग हमारे यूजर्स हैं. हम इसका फायदा उठाना चाहते हैं.’

फेसबुक ऐट वर्क को 1,000 से ज्यादा कंपनियों ने अपनाया है. वर्कप्लेस यूजर्स में भारत के बाद नॉर्वे, अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस का नंबर है. फेसबुक ने वर्कप्लेस को सोमवार से सभी कंपनियों के लिए खोल दिया. जो कंपनियां अब फेसबुक की इस सर्विस का इस्तेमाल करना चाहती हैं, उन्हें पहले 1,000 मंथली ऐक्टिव यूजर्स के लिए प्रति यूजर 3$, 1,001 से 10,000 मंथली यूजर्स के लिए प्रति यूजर 2$ और 10,000 से अधिक मंथली यूजर के लिए 1$ प्रति यूजर के हिसाब से पेमेंट करना होगा.

एंटरप्राइज सेगमेंट में फेसबुक की एंट्री देर से हुई है. ऑफिस स्पेस में दूसरी कंपनियां भी जोर-आजमाइश कर रही हैं. इनमें माइक्रोसॉफ्ट के यमर और फेसबुक के वॉट्सएप जैसे प्रॉडक्ट्स शामिल हैं. ये दोनों छोटी कंपनियों में पॉप्युलर हैं. फेसबुक ने एक बयान में कहा, ‘वर्कप्लेस का एक्सपीरियंस फेसबुक अकाउंट जैसा है. इसमें लाइव, रिऐक्शन, सर्च और ट्रेंडिंग पोस्ट जैसे फीचर्स हैं. आप इसके जरिए अपने ऑफिस मित्र के साथ दुनियाभर में कही भी रियल टाइम में चैट कर सकते हैं.’

कंपनी के मुताबिक एंप्लॉयी के फेसबुक अकाउंट से वर्कप्लेस बिल्कुल अलग है. वर्कप्लेस में खुद का चैट ऐप ‘वर्कचैट’ है. यह मोबाइल डिवाइस और डेस्कटॉप दोनों के लिए अवेलेबल है. स्टरलाइट पावर ट्रांसमिशन लिमिटेड एक महीने से ‘फेसबुक एट वर्क’ का इस्तेमाल कर रही है. कंपनी के मुताबिक इससे उसके इंटरनल कम्यूनिकेशन में सुधार हुआ है. इस समय कंपनी के 97 पर्सेंट एंप्लॉयीज इस प्लैटफॉर्म पर एक्टिव हैं.

इस तरह आसानी से करें डाटा रिकवर

स्मार्टफोन आज हर कोई इस्तेमाल करता है. लोग अपने कॉन्टैक्ट्स, एसएमएस, ईमेल, फोटो-वीडियो, जरूरी डॉक्यूमेंट्स समेत तमाम महत्वपूर्ण चीजें इसमें सेव करके रखते हैं. ऐसे में अगर आपके स्मार्टफोन की स्क्रीन टूट जाए तो क्या करते हैं आप? फोन से जरुरी डाटा रिकवर करना बेहद मुश्किल हो जाता है. ये मुश्किल तब और ज्यादा बढ़ जाती है जब फोन टच स्क्रीन हो. हर किसी ने कभी न कभी इस परेशानी का सामना जरुर किया होगा. इसी के चलते हम आपके लिए लाएं हैं कुछ टिप्स जिसके जरिए फोन टूटने पर भी डाटा सुरक्षित किया जा सकता है.

स्क्रीन टूट जाने पर डाटा कैसे करें रिकवर

अगर आपके फोन की स्क्रीन टूटी है लेकिन डिस्पले सही है तो ये तरीका अपनाया जा सकता है. इस परेशानी से निजात पाने के लिए आपको यूएसबी ओटीजी (ऑन द गो) और माउस की जरुरत होगी. इसके लिए आपको गूगल पर जाकर ये पता करना होगा कि आपका फोन ओटीजी को सपोर्ट करता है या नहीं. अगर आपका फोन ओटीजी सपोर्ट करता है तो इसमें ओटीजी केबल लगाएं और फिर केबल के दूसरे पोर्ट में माउस की यूएसबी लीड कनेक्ट करें. माउज कनेक्ट होते ही आप फोन का पैटर्न लॉक या पासवर्ड खोल पाने में सक्षम होंगे. जैसे ही आपका फोन अनलॉक हो जाए आप फोन को पीसी से कनेक्ट करें और सारा डाटा कॉपी कर लें.

स्क्रीन ही बंद हो जाए तो कैसे करें डाटा रिकवर

इसके लिए आपको वीएनसी प्रोग्राम की जरूरत पड़ सकती है. बाजार में ऐसे कई प्रोग्राम मौजूद हैं. प्रोग्राम डाउनलोड करने से पहले ये सुनिश्चित करें कि वो सेफ और फ्री है. यह वीएनसी प्रोग्राम आपके स्मार्टफोन के एंड्रायड इंटरफेस को पीसी में भेज देते हैं ताकि आप इसे पीसी से कंट्रोल कर पाएं. ध्यान रहे कि इस प्रोसेस से पहले आपको अपने पीसी और एंड्रायड डिवाइस में प्रोग्राम को डाउनलोड करना होगा.

एयरड्रॉयड से कैसे करें फाइल रिकवर

एयरड्रॉयड नाम का सॉफ्टवेयर आपके स्मार्टफोन को कंप्यूटर से कनेक्ट कर देता है. आप इसे वेब इंटरफेस या कंप्यूटर एप्लीकेशन के जरिए यूज कर सकते हैं. इसे केवल आपको अपने पीसी और एंड्रायड डिवाइस पर इंस्टॉल करना होगा. अकाउंट के जरिए आप दोनों डिवाइस से कनेक्ट हो जाएंगे जिसके बाद आपको फाइल ट्रांसफर, बैकअप या एप अनइंस्टॉलिंग जैसे कई आइकन दिखाई देंगे. यहां से आप डाटा ट्रांसफर कर सकते हैं.

कुरसी बड़ी या रिश्ता

उत्तर प्रदेश में सास बहू की सी लड़ाई बेटे, पिता, चाचा में हो रही है. अखिलेश यादव सरकार अपनी तरह चलाना चाहते हैं, पिता और चाचा यानी ससिया चाची और सास मिल कर अपने रंग दिखा रहे हैं. भारतीय पारिवारिक परंपरा का यह उदाहरण न पहला है न अंतिम. पौराणिक ग्रंथ भी इन से भरे हैं, लोक कथाएं इन से भरी हैं और अदालतों के फैसले इन से भरे हैं.

निकटता जहां प्रेम व भरोसा पैदा करती है, वहीं असहजता भी पैदा करती है. अनजानों से लेनदेन बकाया नहीं रहता. अपनों से खाता कभी बंद नहीं होता और बैक डेटेड ऐंट्रियां होती रहती हैं और अखिलेश, मुलायम व शिवपाल इसी चक्कर में हैं और वह भी तब जब 2017 के चुनाव सिर पर हों. जिसे लगता है कि उसे उतना लाभ नहीं हो रहा है जितना वह उठा सकता है, वह विद्रोह का झंडा सास या बहू की तरह उठा लेता है.

कहने को तो हम नारे लगाते रहते हैं कि सास मांजी होती है, बहू बेटी होती है पर इन के बीच एक अदृश्य दीवार मोटी होती है और पैतरेबाजी हर समय चलती रहती है. इस से परिवार टूटते हैं, मातापिता यानी सासससुर भी नुकसान में रहते हैं और नातीपोते भी. पर यह प्रकृति का नियम है और इस पर गम नहीं करना चाहिए.

उत्तर प्रदेश में जो हुआ वह इंदिरा गांधी के घर में हो चुका है. वह जयललिता के साथ हुआ,

आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू के साथ हुआ, शिवसेना के बाल ठाकरे परिवार के साथ हुआ. इसलिए न यह अनूठा है और न चिंता की बात. राज्य की सरकार चलती रहेगी, रसोई में खाना पकता रहेगा बस बरतन जरा जोर से पटके जाएंगे.

मनुष्य को साथ रहने के गुण मिले हैं पर ये गुण हमारे जीन्स में इतने गहरे नहीं गए हैं कि सभी मानव एकसाथ एकजैसा सोचने लगें. ऐसा होता तो न सदियों से युद्ध होते, न करोड़ों मारे जाते और न ही तलाक होते. मनुष्य अपने हितों के कारण साथी ढूंढ़ता है और जब बात हितअहित की सीमा तक पहुंच जाए तो अलग होना ही एक तरीका बचता है.

अखिलेश को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की गद्दी छोड़नी पड़ सकती है और हो सकता है 2017 के चुनावों में कोई पक्ष जा कर भाजपा या मायावती से जा मिले. ऐसा होता है तो समाजवादी दल चाहे समाप्तप्राय हो जाए पर दूसरों की थाली में हलवापूरी बिना मेहनत के आ जाएगी. यह मामला थोड़ा चौंकाने वाला है पर अजीब नहीं और इसीलिए 2-4 महीनों बाद उस की लकीरें भी रेत की जमीन पर न रहेंगी.

 

श्री राजपूतः जहां लड़की को पढ़ाया नहीं जाता

भारत में लड़कियों को लेकर जिस तरह से बदलाव आ रहा है, उसकी जीती जागती मिसाल हैं अभिनेत्री श्री राजपूत. तीन सौ से अधिक विज्ञापन फिल्में, कई नाटकों में अभिनय, ‘‘लाइफ ओके’’ चैनल के सीरियल ‘‘रिश्तों के सौदागार बाजीगर’’ में नैना नामक  उस नारी का चरित्र निभा चुकी जो कि शादीशुदा होते हुए पर पुरुष से  संबंध रखती है तथा दो हिंदी फिल्मों में पुलिस अफसर के किरदार निभा रही अभिनेत्री श्री राजपूत को देखकर यह नहीं सोच सकते कि वह ऐसे सामाजिक परिवेश से हैं, जहासं लड़कियों को पढ़ाया तक नहीं जाता. जी हां! यह कटु सत्य है.

एक दकियानूसी परिवार में जन्मी व पली बढ़ी श्री राजपूत ने खुद इस बात को कबूल करते हुए ‘‘सरिता’’ पत्रिका को बताया-‘‘मेरा जन्म ऐसे परिवार में हुआ है, जहां लड़की को पढ़ाया नहीं जाता. मगर मेरे माता पिता मुंबई मे रह रहे थे, इसलिए उन्होंने मुझे स्कूल भेजा और मेंने इकोनामिक्स आर्ट की पढ़ाई की. फिर मैंने किसी तरह माता पिता को मनाकर छह माह के लिए ट्रेनिंग व नया अनुभव की बात कहकर एचडीएफसी बैंक में नौकरी करनी शुरू की. नौकरी करते करते मैं ‘‘कर्मकला नाट्य ग्रुप’’ से जुड़ गयी. उसके बाद मैं पार्ट टाइम नौकरी करती थी और बाद में नाटक में रिहर्सल करती थी. जब भ्रूण हत्या पर सामाजिक संदेश देने वाले नाटक ‘‘एक नन्ही चीख’’ का मंचन हो रहा थे, तो मैं वह नाटक देखने के लिए अपने माता पिता को ले गयी. मेरा नाटक देखकर वह खुश हुए और उन्हें पहली बार पता चला कि मैं नाटक में अभिनय कर रही हूं. फिर मुझे नाटकों में काम करने की इजाजत मिल गयी. मेंने कई नाटकों में अभिनय किया. उसके बाद मुझे पहला सीरियल ‘‘रिश्तों का सौदागर बाजीगर’’ मिला, तो मैंने घर में बिना बताए इसकी शूटिंग की. जब पहला एपीसोड प्रसारित हुआ, तो रिश्तेदारों ने हंगामा मचा दिया. लेकिन मेरे पिताजी के दोस्तों ने उनसे मेरी इतनी तारीफ की, कि मेरे घर का माहौल ठंडा हो गया. अब तो मुझे माता पिता का पूरा समर्थन मिल रहा है.’’

श्री राजपूत आगे कहती हैं-‘‘अब मेरी दो फिल्में ‘‘गन्स आफ गुजरात’’ और ‘‘मिस खिलाड़ी – परफैक्ट मर्डर’’ प्रदर्शन के लिए तैयार हैं. जिसमें से फिल्म ‘‘मिस खिलाड़ी – परफैक्ट मर्डर’’14 अक्टूबर को प्रदर्शित होगी. इस फिल्म में मैंने सोनल नामक उस पुलिस अफसर का किरदार निभाया है, जो कि हत्यारे की तलाश करती है. इसके अलावा इन दिनों मैं रोमांटिक कामेडी फिल्म ‘‘इश्क दा खूंटा’’ की शूटिंग कर रही हूं.’’ स्व.स्मिता पाटिल को अपना आदर्श मानने वाली श्री राजपूत की तमन्ना अक्षय कुमार के साथ फिल्म करने की है.

भारत में लड़कियों के प्रति सोच कैसे बदलेगी? इस सवाल पर श्री राजपूत कहती हैं- ‘‘सारी जिम्मेदारी पुरुषों पर डालकर हम नारियां अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लेती हैं, यह गलत है. हर लड़की को अपने सपनों को पूरा करने के लिए अपने घर में शांतिपूर्ण तरीके से लड़ाई लड़नी पड़ेगी. हर लड़की को चाहिए कि वह अपने माता पिता को समझाए कि दुनिया कितनी बदल रही है. मैंने यही किया और मुझे सफलता मिली. हर लड़की को यह बात याद रखनी होगी कि हर माता पिता अपनी लड़की का भला ही चाहते हैं.’’ 

भारत की पहली ‘थ्रीसम’ फिल्म का हीरो डीएसपी का बेटा

निजी जिंदगी में समाज के हर वर्ग को आदर्शवाद, शालीनता व न्याय का पाठ पढ़ा रहे इंदौर के पुलिस अफसर अशोक रंगशाही के बेटे अक्षय रंगशाही अपने अभिनय करियर की शुरुआत अनुज शर्मा निर्देशित ‘थ्रीसम’ पर आधारित पहली अति बोल्ड और अति सेक्सी फिल्म ‘‘इश्क जुनूनःद हीट इज आन’’ से कर रहे हैं. इस फिल्म में अक्षय रंगशाही और राजवीर दो हीरो तथा दिव्या सिंह हीरोईन हैं.

जी हां! फिल्म ‘‘इश्क जुनूनःद हीट इज आन’’ की कहानी दो गहरे दोस्त वीर (अक्षय रंगशाही) और राज (राजवीर) की है, जो कि बचपन से ही एक दूसरे की हर छोटी बड़ी बात के राजदार हैं. दोनों अपनी जिंदगी की हर बात एक दूसरे न सिर्फ बताते हैं, बल्कि खुशी और दुःख के मौके पर भी एक ही रहते हैं. इनकी दोस्ती को कोई तोड़ नहीं पाता. जबकि उत्तर भारत के एक छोटे शहर की मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की पाखी (दिव्या सिंह) अपने आसमानी सपनों को पूरा करने और एकदम स्वतंत्र जिंदगी जीने की चाह के साथ मुंबई शहर में पहुंचती है, उसे लोडेड यानी कि करोड़पति प्रेमी की तलाश है. पाखी की दोस्ती राज से होती है, पर एक दिन राज के कालेज के समारोह में वीर की मुलाकात राज की प्रेमिका पाखी से होती है और वह उसे दिल दे बैठता है. पाखी, राज व वीर दोनों की प्रेमिका बनी रहने का प्रयास करती है, पर एक दिन तूफान आता ही है.

फिल्म ‘‘इश्क जुनूनःद हीट इज आन’’ में अक्षय रंगशाही ने दिव्या सिंह के साथ कई अति सेक्सी व बोल्ड सीन किए हैं. जब हमने अक्षय रंगशाही से पूछा कि आपके पिता पुलिस में डीएसपी हैं. ऐसे में अभिनय करियर की शुरुआत इस तरह की सेक्सी फिल्म से करना कितना सही है?

इस पर अक्षय रंगशाही ने कहा- ‘‘निजी जिंदगी को परदे की जिंदगी के साथ मिलाकर नहीं देखा जाना चाहिए. यदि में निजी जिंदगी में इस तरह की कोई हरकत करता, तो मेरे पिता की वर्दी पर आंच आती. पर मैंने तो एक फिल्म में अभिनय करते समय एक किरदार को पटकथा के अनुरूप निभाने का ही काम किया है. मुझे अनुज शर्मा ने एक सशक्त कथानक वाली फिल्म में अभिनय करने का मौका दिया, तो मैं इंकार न कर सका. वैसे आज कई कलाकार बहुत बड़े नेता व सांसद हैं. उन्होंने अतीत में फिल्मों में जो कुछ किया, क्या उसे गलत कहा जाएगा? ऐसा नही होता. अभिनय को निजी जिंदगी से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. निजी जिंदगी में मैं बहुत ही शर्मीले स्वभाव का एक नेकदिल व शरीफ लड़का हूं. मैं उम्मीद करता हूं कि 11 नवंबर को इस फिल्म के प्रदर्शित होने पर लोग मेरे अभिनय की तारीफ करेंगे.’’

अक्षय रंगशाही कहते हैं-‘‘वास्तव में यह हमारी फिल्म उस कटु सत्य का चित्रण करती है, जो आज समाज में नजर आ रहा है. हमारी युवा पीढ़ी पर पाश्चात्य सभ्यता, बाजारवाद व संस्कृति इस कदर हावी होती जा रही है कि अब उनके लिए जीवन मूल्य, संस्कार वगैरह कोई मायने नहीं रखते. यह फिल्म इस बारे में बात करती है कि नई आंधी के चलते अब जीवन की सही दिशा क्या होनी चाहिए?’’

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