Islamic Nations : अमेरिका की सत्ता में हुए उलटफेर का असर भारत सहित पूरी दुनिया के देशों पर होगा खासकर उन मुसलिम देशों में अब कट्टरवाद बढ़ेगा जहां के शासक रूढि़वादी मानसिकता से ग्रस्त हैं और औरत को सिर्फ इस्तेमाल की वस्तु सम झते हैं.

शीरीन एबादी अपने देश ईरान से निर्वासित हो कर 2009 से ब्रिटेन में रह रही हैं. वे एक वकील, पूर्व न्यायाधीश और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. उन्होंने ईरान में कई मानवाधिकार केंद्रों की स्थापना की और ईरानी औरतों के अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़ी. 2003 में शीरीन एबादी को लोकतंत्र और मानवाधिकारों, विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों के अधिकारों, के लिए किए गए कार्यों के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वे नोबेल पुरस्कार पाने वाली पहली ईरानी और पहली मुसलिम महिला हैं. एबादी की जिंदगी सीधी और आसान कभी नहीं रही. उन की निर्वासित जिंदगी ईरान में धार्मिक कट्टरवाद का ऐसा खूंखार चेहरा सामने लाती है जो मानवता को शर्मसार करता है.

बिलकुल वैसे ही कट्टरवाद की आग में आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान, तुर्किस्तान, कजाखिस्तान, यूक्रेन, रूस, भारत और अमेरिका जैसे तमाम देश धधक रहे हैं. इस आग में महिलाएं ज्यादा झुलस रही हैं क्योंकि वे पुरुषों के अधीन हैं. शीरीन एबादी ने अपनी कई किताबों में इस बात का खुलासा किया है कि धार्मिक कट्टरता और रूढि़वादिता से ग्रस्त सरकारें अपनी जिद को पूरा करने के लिए लोगों को किसकिस तरह से प्रताडि़त करती हैं, खासकर औरतों को.

Islamic Nations : कई सालों तक अधिकारियों ने एबादी के पति, उन की बेटियों और बहन को निशाना बनाया. एबादी के पति को एक दिन अचानक गायब कर दिया गया. उस के बाद पुलिस ने उन्हें शराब, सैक्स और व्यभिचार के मामले में फंसा कर अदालत में पेश किया. इसलामी कानून में विवाह के बाहर सैक्स निषिद्ध है, लिहाजा अधिकारियों को उसे जेल ले जाने की खुली छूट मिल गई जहां उन्हें कोड़े मारे गए, व्यभिचार का दोषी ठहराया गया और फिर कोर्ट द्वारा उन्हें मौत की सजा सुनाई गई. लेकिन वे अधिकारियों के साथ एक सौदा कर के फांसी से बच गए.

अपनी स्वतंत्रता के बदले में एबादी के पति को एबादी की सार्वजनिक रूप से निंदा करनी पड़ी. उन को कहना पड़ा, ‘शीरीन एबादी नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने की हकदार नहीं थी. उसे पुरस्कार इसलिए दिया गया ताकि वह इसलामी गणराज्य को गिराने में मदद कर सके. वह पश्चिम, विशेष रूप से अमेरिका, की समर्थक है.’ एबादी लिखती हैं, ‘‘मैं ने अपनी कहानी इतनी खुल कर इसलिए बताई क्योंकि मैं दिखाना चाहती थी कि ईरान की सरकार क्या करने में सक्षम है. एक ऐसी सरकार जो मेरे बाल दिखने पर मु झे सड़कों पर कोड़े मार सकती है और इसलाम के नाम पर राजनीति के लिए एक सैक्सवर्कर को काम पर रखती है?’’

ईरान की शीरीन एबादी की कहानी हो या नरगिस मोहम्मदी की, पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई की या बंगलादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन की, ये तमाम नाम धार्मिक कट्टरवाद, महिला विरोधी और रूढि़वादी मानसिकता को उजागर करने वाली औरतों के हैं. लेकिन ये नाम अभी इतने कम हैं कि इन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है, जबकि धार्मिक कट्टरता पूरी दुनिया में बहुत तेजी से बढ़ रही है, जिस का पहला निशाना औरत है. धर्म औरत का सब से बड़ा शत्रु किसी ऐसे व्यक्ति के सत्ता के शीर्ष पर स्थापित होने, जो मानसिक रूप से रूढि़वादी और कट्टरपंथी हो, का सब से बुरा प्रभाव औरतों पर पड़ता है.

औरत चाहे भारत की, अमेरिका की हो, अफगानिस्तान, पाकिस्तान या ईरान जैसे देश की हो, सत्ता में धर्म के उभार ने उस की जिंदगी मुश्किल की है. एक औरत क्या पहने, क्या खाए, कैसे जिए, किस से मिले, किस से न मिले, किस से प्रेम करे, किस से विवाह करे, किस में आस्था रखे, किस में आस्था न रखे आदि तमाम बातें पुरुष तय करते हैं और उसे धर्मसम्मत बता कर स्त्री को अपने बनाए नियमों का पालन करने के लिए बाध्य करते हैं. जब किसी देश में सत्ताशीर्ष पर कोई ऐसा चालाक, रूढि़वादी, कट्टर और स्त्री को दोयम दर्जे पर रखने वाला व्यक्ति बैठता है तो उस देश के पुरुषों को स्त्री के प्रति बर्बरता करने का जैसे लाइसैंस मिल जाता है.

अगर कोई ऐसा देश है जिस में होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव अन्य देशों पर भी पड़ता है तो अन्य देशों की स्त्रियां भी उसी प्रताड़ना से गुजरती हैं. हाल ही में अमेरिका में चुनाव संपन्न हुए हैं और डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति मनोनीत हुए हैं. ट्रंप के व्हाइट हाउस में लौटने से करोड़ों अमेरिकी महिलाओं को निराशा हुई है. दरअसल ट्रंप महिलाओं की बराबरी के व शारीरिक अधिकारों के पक्ष में नहीं हैं, जिन में एबौर्शन का अधिकार मुख्य रूप से शामिल है. ट्रंप का मानना है कि एबौर्शन पेट में पल रहे बच्चे की हत्या करना है. जबकि, आज की उदार व तार्किक महिलाएं इसे एक मूल अधिकार के रूप में देखती हैं और मानती हैं कि यह उन के अपने शरीर के स्वास्थ्य से जुड़ा एक अधिकार है और अपने शरीर के बारे में फैसला लेने का हक सिर्फ उन्हें ही होना चाहिए.

पिछले कार्यकाल में ट्रंप की पार्टी के कई सीनेटर्स ने देशभर में एबौर्शन पर बैन लगाने की इच्छा जाहिर की थी और कुछ राज्यों, जहां रिपब्लिकन पार्टी का राज है, में तो यह बैन है भी. ऐसे में महिलाओं ने ‘माय बौडी, माय चौइस’ स्लोगन के जरिए यह साफ कर दिया था कि उन के शरीर से जुड़े फैसले लेने का हक सिर्फ उन्हें ही होना चाहिए. लेकिन अब ट्रंप के सत्ता में लौटने पर इस स्लोगन पर महिलाओं के खिलाफ हेट स्पीच बढ़ रही है. ट्रंप की जीत के बाद सोशल मीडिया पर निक फुएंटेस नाम के एक यूजर ने लिखा, ‘योर बौडी, माय चौइस. फौरएवर.’ यानी कि ‘तुम्हारा शरीर, मेरी मरजी, हमेशा.’ ]ऐसा कहते हुए इस यूजर ने ‘माय बौडी, माय चौइस’ स्लोगन पर निशाना साधा.

इस के बाद सोशल मीडिया पर ट्रंप समर्थकों ने महिलाओं के खिलाफ जम कर हेट स्पीच उगली. दरअसल डोनाल्ड ट्रंप उस रूढि़वादी मानसिकता से ग्रस्त हैं जो चर्चों से निकल कर ईसाई धर्म की शुरुआत से समाज पर छाई रही है. महिला आजादी और महिला अधिकारों के खिलाफ उन्होंने कई ऐसे फैसले पिछले कार्यकाल में किए जिन्होंने अमेरिकी महिलाओं को सड़क पर आने के लिए मजबूर किया.

ट्रंप नस्लवादी मानसिकता से भी ग्रस्त हैं. अमेरिका में जबरन लाए गए गुलाम अफ्रीकियों की काली चमड़ी के प्रति उन के दिल में नफरत है, बिलकुल वैसे ही जैसे भारत में थोड़ी गोरी चमड़ी वाले सवर्णों के दिल में थोड़े काले दलितों के प्रति नफरत का गहरा भाव है. सत्ता में बैठा व्यक्ति दलितों को पांव की जूती सम झता है और अपने फायदे के लिए उस का इस्तेमाल करता है. अमेरिका में भी नस्लवादी नफरत सत्ता की देन है, जिसे यूरोप से गए श्वेत, व्हाइट्स, कट्टर और रूढि़वादी मानसिकता के शासक द्वारा बढ़ावा दिया जाता रहा है.

अमेरिका की सत्ता में हुए हालिया उलटफेर का असर भारत सहित पूरी दुनिया के देशों पर (कहीं कम कहीं ज्यादा) पड़ेगा, खासकर उन मुसलिम देशों पर जहां के शासक कट्टरता और रूढि़वादिता से ग्रस्त हैं और औरत को सिर्फ इस्तेमाल की वस्तु सम झते हैं. डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता में लौटने से निसंदेह धर्म की सत्ता को बल मिलेगा क्योंकि उस के समर्थक, जिन्हें अब मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) कहा जाने लगा है, धार्मिक कट्टरता से भरेपूरे हैं.

धर्म वह है जिस ने औरत के साथ कभी न्याय नहीं किया और उस को हथियार बना कर पुरुषों ने सदा नारी का शोषण किया. धर्म की सत्ता कायम होने पर पुरुष ने स्त्री को धार्मिक कर्मकांडों में उल झा कर, उसे घर की चारदीवारी में कैद कर उस की प्रगति को रोका है. वह दिनभर धार्मिक कार्य करे, पुरुष की सैक्स कामना शांत करे, उस के बच्चे पैदा करे, उन बच्चों की और परिवार की देखभाल करे, इस से ज्यादा स्त्री को कुछ हासिल न हो, धर्म की सत्ता का पूरा जोर इसी बात पर रहता है.

धर्म का फैलाव पैदा करता है मानसिक संकीर्णता भारत में भी मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य के क्षेत्र में तो न के बराबर काम हुए मगर देशभर में पूजापाठ, आरती, धार्मिक यात्राएं, व्रतत्योहारों की जैसे बाढ़ आ गई. अयोध्या में राम मंदिर बनने और उस का महिमामंडन करने व तीर्थयात्राओं के इर्दगिर्द ही पूरी शासनप्रशासन व्यवस्था सिमट कर रह गई है. होलीदीवाली जैसे त्योहार जो मोदी सरकार के सत्ता में आने से पहले तक मेलमिलाप और आपसी सौहार्द बढ़ाने वाले हुआ करते थे और जिन्हें हिंदूमुसलिम बिना विवाद के मनाते थे, वे अब एक धर्म द्वारा दूसरे के धर्म को नीचा दिखाने वाले बना डाले गए हैं.

अब हर चीज को धर्म के चश्मे से देखा और आंका जा रहा है. देशभर में हिंदू औरतें पूजापाठ, व्रत, त्योहार, आरती, धार्मिक यात्राओं, गंगास्नान आदि में लगा दी गई हैं. ट्रंप के अमेरिका की सत्ता में लौटने से मोदी सरकार की बांछें खिल गई हैं क्योंकि अब धर्म के नाम पर औरतों को दो सदी पीछे धकेलने का काम और आसान होगा. उदाहरण दिया जाएगा कि देखो, अमेरिका में भी ऐसा ही होता है.

अफगानिस्तान और ईरान जैसे देशों में भी ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने से धर्म के नाम पर औरतों पर जुल्म ढाने का काम आसान हो जाएगा. पहले अमेरिका दुनिया का नैतिक चौकीदार भी हुआ करता था. अब वह नैतिकता का नहीं बल्कि कट्टरता का सोल्जर हो गया है जो बंदूकों का, धर्म की कट्टरता का इस्तेमाल उसी तरह करेगा जैसा इसलामी देशों में होता है.

तालिबानी शासन में अफगानी औरतों की हालत : पहला दौर सब से बुरी हालत दुनिया में इसलामी देशों में औरतों की है. वहां औरतों की हालत अमेरिका में संभावित हालत और भारत की औरतों से कहीं ज्यादा बुरी है. अफगानिस्तान इस का केंद्र है. अफगानिस्तान पर कब्जा कर रूसी साम्राज्य को एशियाई महासागर तक पहुंचाने का सपना

1919 में कम्यूनिस्ट क्रांति से पहले वहां के सम्राटों का था. उन्हें रोकने के लिए भारत में राज कर रहे ब्रिटिश शासकों ने 3 इंडो-अफगान युद्ध लड़े जिन में वे बुरी तरह हारे. सोवियत रूस ने यह सपना साकार करना चाहा पर अफगानिस्तान ने विरोध किया और इसलामी कट्टरवादी एकता के सहारे शिकस्त दी. इन्होंने खुद को तालिबानी कहा.

तालिबान ऐसा कट्टरपंथी समूह है जो कई वर्षों के संघर्ष के बाद 1994 में उभरा. इस के कई सदस्य पूर्व मुजाहिदीन लड़ाके थे जिन्हें 80 और 90 के दशकों में अफगानिस्तान के गृहयुद्ध और रूसी कब्जे के दौरान पाकिस्तानी सेना ने प्रशिक्षित किया था. वे अफगानिस्तान को एक इसलामिक राज्य बनाने के उद्देश्य से इकट्ठे हुए और 1996 से 2001 तक इस कट्टरपंथी समूह ने अफगानिस्तान पर पूरा शासन किया और अमेरिकियों के अफगानिस्तान छोड़ने पर फिर सत्ता में हैं. तब से यह तालिबानी समूह मानवाधिकारों के हनन के लिए कुख्यात है, खासकर महिलाओं और लड़कियों के प्रति.

1996 में तालिबान के सत्ता में आने से पहले अफगानिस्तान एक पारंपरिक समाज था, जिस में एक खुलापन था, महिलाओं को अनेक अधिकार प्राप्त थे. 1970 के दशक में अफगान महिलाओं की भूमिका घरसमाज में वैसे तो पुरुष के अधीन ही थी मगर शिक्षण संस्थानों में, व्यवसायों में, मैडिकल व सिविल सेवाओं में उन का छोटा ही सही पर महत्त्वपूर्ण प्रतिशत था. वे शिक्षा प्राप्त कर रही थीं, अपने मनपसंद कपड़े पहनती थीं. मनपसंद स्थानों पर अकेले घूमने जाने में कोई रुकावट या डर उन्हें नहीं था.

1996 में तालिबान शासकों ने सत्ता में आने के बाद पहले दौर में ही अफगानिस्तान में इसलामिक शरिया कानून के अपने संस्करण को लागू किया और महिलाओं व लड़कियों पर अनेक प्रतिबंध लगाए. तालिबान ने महिलाओं को राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक जीवन में शामिल होने के अवसर से वंचित कर दिया. उन से निजी संपत्ति के अधिकार छीन लिए गए यानी औरतों को मर्दों के ऊपर आश्रित कर आर्थिक गुलाम बना दिया. नियम लागू किए गए कि लड़कियां स्कूल नहीं जा सकतीं.

बड़े क्रूर तरीके से उन पर ड्रैस कोड लागू कर उन्हें सिर से पांव तक बुर्के में रहने के लिए बाध्य किया गया. काबुल में अपने ग्राउंड और पहली मंजिल की खिड़कियों को ढकने का आदेश था ताकि अंदर की महिलाएं सड़क से दिखाई न दें. अगर कोई महिला घर से बाहर निकलती तो वह पूरे शरीर को बुर्के में लपेट कर किसी पुरुष रिश्तेदार के साथ ही निकल सकती थी. 27 सितंबर, 1996 को तालिबानी लड़ाकों ने काबुल पर कब्जा कर लिया क्योंकि अमेरिकी और पाकिस्तानी सेनाओं की सहायता से रूसियों को खदेड़ दिया गया था.

अफगानिस्तान की जनता तो रूसियों से मुक्त हो गई पर अफगानिस्तानी महिलाएं मर्दों की गुलाम बन गईं. रूसी शासन के दौरान औरतों को पूरी बराबरी मिली हो, ऐसा तो नहीं था, पर कम्यूनिस्ट रूस मूलतया बराबरी का समर्थक था और उस की कठपुतली काबुल सरकार औरतों के खिलाफ फतवे जारी नहीं करती थी.

अब निम्न कदम उठा लिए गए : 
1996 में पहले दौर में आते ही तालिबानियों ने औरतों को नौकरियों से निकाल दिया. लड़कियों के स्कूल बंद कर दिए गए और विश्वविद्यालयों से औरतों को निकाल बाहर फेंका.

औरतों को बिना नजदीकी पुरुष संबंधी के घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी गई. घरों की खिड़कियों को बंद करने के साथ बाहर आने पर औरतों को बुर्के में ही निकलने का आदेश दिया गया.औरतें पुरुष डाक्टरों से इलाज नहीं करा सकती थीं. अस्पतालों में औरतों का इलाज केवल औरत डाक्टर ही कर सकती थीं. औरतों को बुरी तरह पीटना, खुले चौराहों पर कोड़े मारना, उन की हत्या कर देना इसलामी कानून का पालन करना था.

एक लड़की ने घर में लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया तो उस के घर वालों के सामने उस की हत्या कर दी गई. द्य एक लड़की जो किसी पुरुष के साथ थी, उस की पत्थर मारमार कर खुले मैदान में हत्या कर दी गई.एक बूढ़ी औरत की हत्या लोहे के तार से मारमार कर कर दी गई क्योंकि उस की एडि़यां दिख रही थीं. ये तालिबानी क्रूरता की चंद बानगियां हैं. अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के तहत अधिकांश महिलाएं पर्याप्त भोजन से वंचित रहीं और आज भी हैं. उन के पास नौकरी या आर्थिक आजीविका नहीं है. स्वास्थ्य देखभाल, विशेष रूप से प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल, सेवाओं तक उन की पहुंच बहुत कम या नहीं के बराबर है.

पुरुष बिना किसी दंड के घरेलू हिंसा कर सकते थे. पुरुषों को परिवार की महिला सदस्यों के साथ हिंसा करने या उसे घायल करने की छूट थी, यहां तक कि वे उन की हत्या भी कर सकते थे और इस के लिए उन के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती थी, जैसे महिलाएं इंसान नहीं मुरगी या बकरा थीं, जिन्हें हलाल करना कोई जुर्म नहीं था.

Islamic Nations : इस के अलावा बलात्कार और अन्य प्रकार की हिंसा से पीडि़त महिलाओं पर नैतिक अपराध और व्यभिचार का आरोप लगाया जा सकता था और उन्हें सजा के तौर पर पत्थर मार कर मौत के घाट उतार दिया जाता था. तालिबानी शासन में अफगान महिलाओं के साथ उन के दैनिक जीवन के लगभग हर पहलू में क्रूरता की जाती थी. उदाहरण के लिए, 1996 में काबुल में एक महिला के अंगूठे का सिरा इसलिए काट दिया गया क्योंकि उस ने नेलपौलिश लगाई थी. महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने वाले और नियमों का उल्लंघन करने वाले पुरुषों के साथ भी क्रूरता होती थी.

अमेरिकी उदारता का दबाव पहले तालिबानी शासन के बाद ही अमेरिका व यूरोप के अन्य देशों में औरतों ने अफगान औरतों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी. अखबारों में लेख व रिपोर्टें छपने लगीं. अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर शोर हुआ. 2001 में तालिबानी क्रूरता के खिलाफ आवाज उठनी शुरू हुई तो अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप शुरू हुआ.

11 सितंबर, 2001 के न्यूयौर्क पर तालिबानी मुखिया ओसामा बिन लादेन द्वारा आयोजित आतंकवादी हमलों के तुरंत बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप करते हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सैन्य अभियान चलाया. दिसंबर 2001 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया और तालिबानी सत्ता को उखाड़ फेंका.

तालिबान के कई सदस्य पड़ोसी देश पाकिस्तान भाग गए. 2001 में अफगानिस्तान की औरतें पहले तालिबान दौर की यातनाओं से आजाद हुईं. स्कूलों ने लड़कियों के लिए अपने दरवाजे खोले और महिलाएं काम पर वापस लौटीं. समानता की दिशा में प्रगति हुई. 2003 में नए संविधान में महिलाओं के अधिकारों को शामिल किया गया और 2009 में अफगानिस्तान ने महिलाओं के खिलाफ हिंसा उन्मूलन कानून को अपनाया. हालांकि इस प्रगति के बावजूद अफगानी समाज में ग्रामीण व कसबाई इलाकों में महिलाओं के प्रति भेदभाव व्याप्त रहा.

2011 में अफगानिस्तान को महिलाओं के लिए ‘सब से खतरनाक देश’ बताया गया. 2001 में इस आजादी के बाद करीब 19 वर्षों तक अफगान महिलाओं ने खुली हवा में सांस ली. अफगान महिलाओं की राजनीतिक और व्यावहारिक दोनों स्थितियों में काफी सुधार हुआ. संयुक्त राज्य अमेरिका के मजबूत प्रोत्साहन के साथ 2 महिलाओं को अफगान अंतरिम प्राधिकरण में नियुक्त किया गया (डा. सिमा समर, एआईए उपाध्यक्ष और महिला मामलों की मंत्री; और डा. सुहैला सिद्दीक, सार्वजनिक स्वास्थ्य मंत्री).

बाद में 24 जून को नवनिर्वाचित राष्ट्रपति हामिद करजई की संक्रमणकालीन सरकार के मंत्रिमंडल में उन्हें फिर से नियुक्त किया गया, जबकि डा. सिमा समर को नए मानवाधिकार आयोग का नेतृत्व करने के लिए नियुक्त किया गया. एक अन्य महिला हबीबा सोराबी ने महिला मामलों के मंत्रालय को संभाला. इस के अलावा आपातकालीन लोया जिरगा का आयोजन करने वाले 21 सदस्यीय आयोग में 3 महिलाओं को नियुक्त किया गया, जिस में उपाध्यक्ष डा. महबूबा होकुकमल भी शामिल थीं.

तालिबान ने सीमा पार पाकिस्तान में फिर एकजुट हो कर अपनी ताकत बढ़ाई और अपने निष्कासन के 10 साल से भी कम समय बाद वापस क्षेत्र पर कब्जा करना शुरू कर दिया. अगस्त 2021 तक, तालिबान फिर से सत्ता में लौट आया और पूरे देश में महिलाओं व लड़कियों के खिलाफ हिंसा और भेदभाव का साम्राज्य फिर स्थापित हो गया.

अफगानिस्तान में तालिबान का दूसरा दौर इस बार तालिबान के कम सख्त होने के दावे के बावजूद एक बार फिर महिलाओं व लड़कियों को सार्वजनिक और सामाजिक जीवन से दूर कर दिया गया है. तालिबान ने महिलाओं और लड़कियों पर माध्यमिक विद्यालय में जाने, काम करने, टीवी पर आने, यहां तक कि पार्क में जाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया. महिलाओं और धार्मिक व जातीय अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों का सम्मान करने के वादे के बावजूद तालिबान ने इसलामी कानून की कठोर व गलत व्याख्या लागू की. तालिबान के शासनकाल में अफगानिस्तान में प्रैस की स्वतंत्रता प्रतिबंधित है. इस के चलते अब तक 200 से अधिक समाचार संगठन बंद हो चुके हैं.

तालिबानी सरकार अपने खिलाफ किसी भी प्रदर्शन का हिंसक रूप से दमन करती है. प्रदर्शनकारियों और कार्यकर्ताओं पर नजर रखी जाती है और अकसर उन्हें गायब कर दिया जाता है. तालिबान ने एक ऐसे मंत्रालय की स्थापना की है जो उस के सद्गुण का प्रचार और बुराई की रोकथाम करता है.

नवंबर 2022 में तालिबान सरकार ने न्यायाधीशों को शरिया की अपनी व्याख्या को लागू करने का आदेश दिया. इस के कुछ हफ्तों बाद अधिकारियों ने सार्वजनिक रूप से कोड़े मारना और फांसी देना फिर से शुरू कर दिया. तालिबान के उत्पीड़न से डरे और दूसरे देशों में शरण लेने का विकल्प चुनने वाले अफगान भी चिंताजनक परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं.

पाकिस्तान में अफगान शरणार्थियों से एकत्रित साक्ष्यों से पता चलता है कि उन्हें गिरफ्तारियां, हिरासत और निर्वासन की धमकियों का सामना करना पड़ रहा है, जबकि अधिकांश के पास पहचान दस्तावेजों के लिए पंजीकरण प्रक्रिया में देरी होने के कारण वीजा की अवधि समाप्त हो गई है. विश्व बैंक ने अनुमान लगाया है कि देश ने 2021 और 2022 में अपने वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 26 प्रतिशत खो दिया है. तालिबान की वापसी के बाद पहले महीनों में लाखों लोग गरीबी में चले गए. उन में से कई भुखमरी की ओर बढ़ रहे थे, जिन में 55 प्रतिशत आबादी भूख के गंभीर स्तर से पीडि़त थी.

खाद्य असुरक्षा की सब से खराब श्रेणियों में अफगानों की हिस्सेदारी 2024 तक घट कर 28 प्रतिशत हो गई है. कुपोषण का बो झ सब से ज्यादा गरीब परिवारों की लड़कियों पर पड़ा है. वहां लड़कियों में मृत्युदर लड़कों की तुलना में 90 प्रतिशत अधिक है. ईरान के इसलामिक राज में महिलाएं बदतर ईरान के हालात अफगानिस्तान जैसे तो नहीं हैं पर थोड़े ही कम हैं. इस के जवाब में पिछले कुछ सालों में ईरान में भी महिलाओं द्वारा ड्रैस कोड का विरोध बढ़ा है.

1979 की इसलामिक क्रांति के बाद, जिस में शाह मोहम्मद रजा पहलवी के शासन को उखाड़ फेंका गया, आयतुल्ला खोमैनी शासन में आ गए. ईरान में महिलाओं के लिए हिजाब पहनना अनिवार्य कर दिया गया. ईरान में लड़कियां स्कूलकालेज तो जा सकती हैं मगर उन को हिदायत है कि वे हिजाब में, अपने पूरे शरीर को ढांक कर ही घर से बाहर निकलें.

इस ड्रैस कोड को ले कर ईरानी औरतों में काफी आक्रोश है. ईरान में अनिवार्य ड्रैस कोड को ले कर साल 2022 में भी एक प्रोटैस्ट सामने आया था जहां महसा अमीनी की हिरासत में मौत होने के बाद महिलाओं ने अनिवार्य ड्रैस कोड के खिलाफ आवाज बुलंद की थी. हाल ही में 2 नवंबर, 2024 को एक ईरानी लड़की अहू दरयाई को यूनिवर्सिटी कैंपस में अपने कपड़े उतारने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया.

तेहरान यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली यह लड़की बिना हिजाब के यूनिवर्सिटी आई थी. वह यूनिवर्सिटी के सामने की सड़क पर जा रही थी. तभी ईरान की मोरल पुलिस कर्मचारियों ने उसे रोका और उस को थप्पड़ मारे. उस ने भी हाथ उठाया तो एक पुलिसकर्मी ने उस की कमीज फाड़ दी. फिर अहू दरयाई ने खुद ही अपनी पैंट उतार दी और ऐसे ही तेहरान की सड़कों पर चहलकदमी करती रही. बाद में पुलिस ने उस की निर्दयता से पिटाई की और उसे गिरफ्तार कर लिया. उस के बाद अहू दरयाई का क्या हुआ, वह कहां गई, इस का कोई खुलासा ईरान के समाचारपत्र नहीं करते.

सोशल मीडिया पर लड़की द्वारा सिर्फ ब्रापैंटी में घूमने की तसवीरें वायरल हुईं. कुछ सोशल मीडिया रिपोर्ट्स और प्रत्यक्षदर्शी कहते हैं कि उस लड़की को मोरल पुलिस ने बर्बरता से पीट कर कहा कि उस की इस हरकत पर वह मौत की सजा पा सकती है तो जवाब में अहू दरयाई बोली थी, ‘मैं सोए हुए ईरानी लोगों को जगाने के लिए अपनी कुर्बानी देना चाहती हूं कि तुम लोग उठो और इस निरंकुश शासन को उखाड़ फेंको.’

कहा जा रहा है कि बर्बर पिटाई के बाद अहू दरयाई का रेप कर उसे मौत के घाट उतारा जा चुका है. इस घटना के बाद से पूरे ईरान में जबरदस्त गुस्सा है. लोग अंदर ही अंदर सुलग रहे हैं और कभी भी बगावत हो सकती है. ईरानी पत्रकार मसीह अलीनेजाद ने एक्स पर इस घटना के संबंध में लिखा, ‘ईरान में यूनिवर्सिटी मोरैलिटी पुलिस ने अनुचित हिजाब के कारण एक छात्रा को परेशान किया लेकिन उस ने पीछे हटने से इनकार कर दिया. उस ने अपने शरीर को विरोध में बदल दिया, अपने कपड़े उतार दिए और कैंपस में मार्च किया.

उस ने एक ऐसी व्यवस्था को चुनौती दी जो लगातार महिलाओं के शरीर को नियंत्रित करती है. उस का यह कृत्य ईरानी महिलाओं की आजादी की लड़ाई की एक शक्तिशाली याद होगी.’ ईरानी महिलाओं ने हर जनआंदोलन में मर्दों का पूरा साथ दिया इस उम्मीद में कि उन्हें भी बराबर के लोकतांत्रिक अधिकार मिलेंगे, लेकिन राजनीति और व्यवस्था ने उन्हें हर बार ठगा और उन के दिमाग व शरीर पर बंदिशें लागू कीं.

1891 के तंबाकू विरोध से ले कर 1905-1911 के दरम्यान हुई संवैधानिक क्रांति तक में महिलाओं की महती भूमिका रही. इस संबंध में इब्राहिम तयमोरी की किताब ‘द टोबैको बायकौट’ में विस्तार से जिक्र किया गया है. इस आंदोलन में महिलाओं ने अपनी तमाम ज्वैलरी दे कर आंदोलन को मजबूती प्रदान की. मगर इस के बदले उन्हें कुछ नहीं हासिल हुआ.

जब मोजफ्फर अद-दीन शाह काजर ने नए संविधान पर हस्ताक्षर किए तो उस में महिलाओं की ओर से एजुकेशन को ले कर दिया गया प्रस्ताव शामिल नहीं था. इस के बाद ईरान में महिलाओं की लड़ाई संगठित तौर पर शुरू हुई. उसी दौरान कई महिलावादी संगठनों ने भी जन्म लिया. द एसोसिएशन औफ वुमंस फ्रीडम, सीक्रेट लीग औफ वुमेन, द वुमंस कमेटी जैसी संस्थाओं ने प्रतिरोध की आग को जिंदा रखा. नतीजतन आने वाले बरसों में लड़कियों के कई स्कूल ईरान में खुले. महिलाओं के लिए 20वीं सदी के ईरान में पहलवी शासक का वक्त कई लिहाज से बेहतर रहा.

Islamic Nations : 1936 में हिजाब बैन हुआ और 1963 में औरतों को वोट का अधिकार मिला. फैमिली प्रोटैक्शन कानून ने कई जरूरी सामाजिक समानताएं दिलाईं. लेकिन महिलाएं राजनीति में कदम बढ़ा पातीं, उस से पहले ही शाह का शासन 1979 में चला गया और देश इसलामिक रिपब्लिक बन गया. हालांकि इस की ख्वाहिश महिलाओं को भी थी. उन्हें इसलामिक रिपब्लिक में समान अधिकार मिलने की उम्मीद थी, लेकिन वे फिर निराश हुईं. इसलामिक रिपब्लिक में उन की आजादी पूरी तरह छीन ली गई.

जिन महिला संगठनों को इतनी मेहनत से खड़ा किया गया था, उन्हें रूढि़वादी और कट्टर सरकार ने बंद करा दिया. तमाम महिला वर्कर्स भूमिगत हो गईं. तब आधी आबादी के अधिकारों का जो दमन शुरू हुआ वह अभी तक जारी है. 20वीं सदी का पूरा इतिहास ईरानी महिलाओं के प्रतिरोध का गवाह रहा है. फरवरी 1994 में होमा दरबी नाम की महिला ने हिजाब उतार कर खुद को आग लगा ली.

2017 में विदा मोवहाद नाम की एक लड़की ने हिजाब को सार्वजनिक तौर पर उछाला और उस तसवीर ने ‘द गर्ल्स औन द रिवोल्यूशन स्ट्रीट’ नाम के आंदोलन की शुरुआत की. सोशल मीडिया के दौर में क्रांति का तरीका भी बदला. लिबरल ढंग से कपड़े पहनना, गीत गाना और डांस करना – ईरान में ये विरोध के नए तौरतरीके बने.

महसा अमीनी के बाद इस प्रतिरोध ने जो विस्तार पाया उसे सरकार तमाम कोशिशों के बाद भी दबा नहीं पाई. अमीनी की मौत के बाद 2022 के विरोध प्रदर्शनों में महिलाओं ने हैडस्कार्फ उछाले, बाल काटे, सैनिटरी पैड से सीसीटीवी कैमरों को ढक दिया. ऐसे ही एक प्रदर्शन के दौरान यूनिवर्सिटी की स्टूडैंट हमीद रेजा को गोली मारी गई थी. इंस्टाग्राम पर उस की आखिरी पोस्ट थी, ‘अगर इंटरनैट हमेशा के लिए बंद हो जाए तो यह मेरी अंतिम पोस्ट होगी. ‘

लौंग लिव वुमन, लौंग लिव फ्रीडम, लौंग लिव ईरान.’ 2022 के प्रदर्शनों के बाद ईरान में सख्ती बढ़ी है तो महिलाओं का विरोध भी तीव्र हुआ है. ईरान में करीब 20 लाख छात्राएं हैं. उन में से बहुतेरी दीवारों पर ग्रैफिटी बना कर और दूसरे कलात्मक तरीकों से अपनी आवाज उठा रही हैं. छात्राओं का कहना है कि यूनिवर्सिटी में हिजाब को ले कर पहले से ज्यादा सख्ती बरती जा रही है, निगरानी बढ़ गई है. हालांकि, समाज भी बदल रहा है.

साल 2020 का एक सर्वे बताता है कि 75 प्रतिशत ईरानियों ने हिजाब को जरूरी बनाए जाने का विरोध किया, जबकि इसलामी क्रांति के वक्त यह संख्या महज एकतिहाई थी. विरोध की दबी चिनगारी तेहरान यूनिवर्सिटी जैसी घटना के रूप में सामने आ जाती है. ईरानी महिलाएं प्रतिरोध करना कभी नहीं भूलीं, बस नाम और चेहरे बदल जाते हैं. मगर यह कब तक चलेगा? पितृसत्ता और धर्म की बेडि़यों से उन्हें कब मुक्ति मिलेगी, कहना मुश्किल है. खासकर अब जब दुनिया का बाप कहलाने वाले देश अमेरिका का शासन एक कट्टर और धार्मिक अंधता में ग्रस्त व्यक्ति के हाथ में आ गया है जो औरतों को मर्दों के लिए खिलौना मानता है, उन्हें पालतू बिल्ली मानता है और मुल्लाओं की तरह के पादरियों के बल पर सत्ता में आ बैठा है.

विश्व के अन्य मुसलिम देश दुनियाभर में 50 से अधिक मुसलिम देश हैं, इन में से अधिकतर देशों में मुसलिम महिलाओं की स्थिति दयनीय है. ईरान, ईराक हो या हो सीरिया, अफगानिस्तान, हर देश में महिलाओं को हिजाब पहनने, मर्दों की शारीरिक इच्छाओं को पूरा करने और उन के घरपरिवार की देखभाल करने के लिए प्रताडि़त किया जाता है. मुसलिम देशों में महिलाओं के ऊपर कई तरह की बंदिशें थोपी गई हैं.

मध्य अफ्रीकी गणराज्य में 61 फीसदी महिलाओं की स्थिति बहुत ही बुरी है. वहां पर अधिकतर महिलाओं का निकाह 14 साल की उम्र में ही कर दिया जाता है. इसी तरह से दक्षिणी अफ्रीकी देश सोमालिया में भी सिर्फ 2 फीसदी महिलाएं ही आधुनिक सुखसुविधाओं का लाभ उठा पाती हैं. सोमालिया की महिलाओं की मृत्युदर भी काफी उच्च है. हालात ये हैं कि वहां पर अगर एक लाख बच्चों का जन्म होता है तो उन में से 829 महिलाएं मार दी जाती हैं.

ऐसे ही चाड में मात्र 16 वर्ष की आयु में ही लड़कियों का निकाह कर देते हैं. चाड, अफ्रीका में हालात इतने बदतर हैं कि प्रति एक लाख बच्चों के जन्म पर 1,140 महिलाओं की मौत हो जाती है. वहीं सीरिया, पश्चिम एशिया, में भी स्थिति बहुत खराब है. सीरिया में एक लाख महिलाओं की मौत में 75 महिलाओं की मृत्यु हिंसा के कारण होती है. महिलाओं के साथ यौनहिंसा आम बात है. वहां नई क्रांति के बाद कुछ बदलेगा, इस की उम्मीद नहीं है. कांगो भी अफ्रीका महाद्वीप का लोकतांत्रिक गणराज्य है, जहां 51 फीसदी मुसलिम महिलाएं पुरुषों द्वारा प्रताडि़त की जाती हैं. आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो कांगो में प्रति 1,000 महिलाओं में से 124 महिलाएं मात्र 18 साल की आयु में ही मां बन जाती हैं.

सूडान में हालात बदतर

सूडान इसलामिक राष्ट्र है. वहां केवल 5 फीसदी महिलाएं ही ऐसी हैं जो खुद को आर्थिक रूप से सशक्त बना पाती हैं. वहां 100 में से एक गर्भवती महिला की मौत हो जाती है. क्षेत्रफल के आधार पर सूडान अफ्रीका का तीसरा सब से बड़ा देश है. इस की राजधानी खार्तूम है. सूडान की लगभग 91 प्रतिशत आबादी मुसलिम है. पुरुष कट्टरवाद के समर्थक हैं और औरतों पर हावी रहते हैं. गृहयुद्ध से जू झ रहे सूडान के हालात काफी खराब हैं.

खराब हालात का सब से बुरा असर महिलाओं पर पड़ा है. गरीबी, भुखमरी से जू झ रही बहुतेरी महिलाओं को खाने के लिए बलात्कार का शिकार होना पड़ रहा है करीब डेढ़ साल से चल रहे गृहयुद्ध में. हजारों लोगों की मौत के अलावा करीब एक करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं. विस्थापितों में महिलाओं और बच्चों की हालत दयनीय है. देश की आधी से ज्यादा आबादी खाद्य असुरक्षा का सामना कर रही है.

अप्रैल 2023 में संघर्ष शुरू होने के बाद महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर बलात्कार की खबरें आने लगीं. सूडान का समाज इसलामिक कट्टरपंथ का शिकार रहा है. सूडान में महिलाओं की साक्षरता दर दुनिया में सब से कम है. अनुमान है कि दक्षिण सूडान में केवल 8 फीसदी महिलाएं ही साक्षर हैं. जबरन कम उम्र में शादी के जाल में फंसी लड़कियों को स्कूल की पढ़ाई जारी रखने की अनुमति नहीं है. वहां का पारिवारिक कानून बालविवाह को वैध मानता है. पत्नी को अपने पति का आज्ञाकारी होना आवश्यक है.

 

तुर्की में औरतों की हालत बहुत खराब

इस्तांबुल की ब्यूटीशियन एमीन डिरिकन ने एक अच्छी पत्नी बनने की भरपूर कोशिश की, लेकिन उस के पति को यह पसंद नहीं था कि वह काम करे, लोगों से मिलेजुले या उस के बगैर घर से अकेली बाहर जाए. एमीन ने जब भी अपने पति को सम झाने की कोशिश की, वह उस पर बुरी तरह भड़क गया. एमीन ने आखिरकार अपने मांबाप को वह घटना बताई थी जब उस के पति ने उसे जानवरों की तरह पीटा. उस ने बताया, ‘‘उन्होंने मु झे बांध दिया. मेरे हाथ, मेरे पैर पीछे से, जैसे जानवरों को बांधते हैं. फिर उस ने मु झे बैल्ट से पीटा और कहा, ‘तुम मेरी बात सुनोगी, मैं जो भी कहूंगा, तुम उस का पालन करोगी.’’

एमीन पति की हिंसा से परेशान हो कर अपने मातापिता के साथ रहने लगी. एक दिन एमीन का पति उस के मांबाप के घर पहुंचा. वह जोर दे कर बोला कि वह बदल गया है. एमीन ने उस पर भरोसा किया और उस को घर में आने दिया. घर में दाखिल होते ही वह रसोई में घुस गया जहां एमीन की मां काम कर रही थीं. उस ने एमीन की मां के बाल पकड़ कर उन्हें फर्श पर फेंक दिया और बंदूक निकाल कर एमीन पर फायर कर दिया. फिर वह बंदूक लिए उस की मां की तरफ पलटा और ट्रिगर दबाया पर गोली फंस गई. उस ने झुं झला कर बंदूक के पिछले हिस्से से उन के सिर पर वार किया. एमीन के पैर की मुख्य धमनी में गोली लगने से अत्यधिक रक्तस्राव के कारण उस का देहांत हो गया. आखिरी वक्त वह अपने पिता की बांहों में रोते हुए कह रही थी, ‘मैं मरना नहीं चाहती.’ यह अकेली एमीन की कहानी नहीं है. तुर्की की अधिकांश महिलाएं बलात्कार और औनरकिलिंग की शिकार हैं, खासकर कुर्दिस्तान में.

बुद्धिजीवियों और एजेंसियों द्वारा किए गए शोध से पता चलता है कि तुर्की के लोगों के साथसाथ तुर्की में रह रहे प्रवासी महिलाओं के साथ भी व्यापक घरेलू हिंसा होती है. तुर्की में महिलाओं की हत्या एक पुराना मुद्दा है. वर्ल्ड पौपुलेशन रिव्यू में बिस्कोलरली की रिपोर्ट की मानें तो दुनिया में सब से खूबसूरत महिलाएं तुर्की में पाई जाती हैं. तुर्की की 40 प्रतिशत महिलाओं ने शारीरिक यौनहिंसा का अनुभव किया है. लगभग दोतिहाई तुर्की महिलाओं के पास व्यक्तिगत आय नहीं है. श्रमबल में तुर्की महिलाओं की भागीदारी मात्र 24 प्रतिशत है.

तुर्की में महिलाओं को रोजगार और कुछ क्षेत्रों में शिक्षा में काफी भेदभाव का सामना करना पड़ता है. तुर्की देश में महिला हत्या पर आधिकारिक आंकड़े नहीं रखता है और महिलाओं की हत्याओं के बारे में कोई नियमित डेटा भी जारी नहीं करता है. अधिकांश आंकड़े गैरसरकारी मानवाधिकार संगठनों से आते हैं. दूसरे इसलामिक देशों में भी यही कहानी दोहराई जा रही है, कहीं कम, कहीं ज्यादा. ज्यादा तेल होने के कारण खाड़ी के मुसलिम देशों में औरतें शान से तो रहती हैं पर उन के अधिकार कम हैं. यह मसला इतना बड़ा है कि इस पर किताबों पर किताबें लिखी गई हैं. यहां तो सिर्फ एक झलकी दिखाई गई कि धार्मिक कट्टरता की शिकार दूसरे धर्मों के लोगों से ज्यादा अपने धर्म को मानने वाली, अपने बिस्तर पर सोने वाली, अपने बच्चों की मां, अपनी बेटी, अपनी खुद की मां सभी औरत होने के कारण शिकार बनती हैं.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...