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इच्छामृत्यु का अधिकार देना खतरनाक : अरविंद जैन

इच्छामृत्यु के बाबत आखिरकार सुप्रीम कोर्ट अब इस बात के लिए तैयार हो गया है कि आम लोगों को जीने के साथ मरने का भी मौलिक अधिकार है. यह एक किस्म से उस की अब तक की सोच का यूटर्न है. कुछ लोग इसे नागरिक आजादी की चरम निजता का सम्मान मान रहे हैं, तो कुछ लोगों की नजर में यह बेहद खौफनाक फैसला है.

सुप्रीम कोर्ट के जानेमाने वकील और स्त्रियों, बच्चों तथा तमाम वंचित तबकों के मानवाधिकारों की हमेशा वकालत करने वाले अरविंद जैन इच्छामृत्यु पर शुरू से ही लगातार अपनी सुचिंतित प्रतिक्रिया व्यक्त करते रहे हैं. पेश हैं सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक कहे जाने वाले फैसले के बाद उन से हुई विस्तृत बातचीत के महत्त्वपूर्ण अंश-

सुप्रीम कोर्ट ने इच्छामृत्यु का जो ऐतिहासिक फैसला दिया है, जिस में जीवन के साथ मृत्यु को भी गरिमापूर्ण बनाने की बात कही जा रही है, उस के बारे में क्या कहेंगे?

यह बेहद खतरनाक फैसला है. खासकर इस माने में हम देश को दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, पुणे और कोलकाता की नजर से ही नहीं देखें. बीमारियां और खासकर लाइलाज बीमारियां सिर्फ इन शहरों में ही नहीं होतीं, गांव में भी, कसबों में भी, ऐसे दूरदराज के इलाकों में भी जहां तमाम मैडिकल सुविधाएं हैं ही नहीं, वहां भी होती हैं, जिन से जूझने के बजाय हम उन के मुकाबले जीवन को ही खत्म कर देने का सरल विकल्प ढूंढ़ लाए हैं. यह पलायन है. यह इंसान की गरिमा और उस के जज्बे का अपमान है.

देश के बड़े हिस्से में तो लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम भी नहीं है, वहां तो लोग इस फैसले की आड़ में मामूली सी बीमारियों को भी लाइलाज बता कर जीवन को निबटा देंगे. जरा, कोई सुप्रीम कोर्ट से पूछें जहां आज तक एक सुविधासंपन्न हौस्पिटल नहीं पहुंचा, उन जगहों, उन इलाकों में मृत्यु के फैसले को न्यायोचित ठहराने वाला मैडिकल बोर्ड कहां से आएगा? क्या इतने डाक्टर देश में हैं जो हर इच्छामृत्यु को जांचपरख सकें कि मरने वाले की इच्छा से ही या सही मानो में ऐसा जीवन खत्म हुआ है, जिस के बचने की कोई उम्मीद नहीं थी.

हैरानी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने देश के दूरदराज इलाकों में या कहना चाहिए महानगरों के बाहर के इलाकों में डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट को मौत को सही या गलत ठहराने का अधिकार दे दिया है. यह इंसान की गरिमा का कितना बड़ा अपमान है कि एक औफिसर किसी की मौत को जायज या नाजायज ठहराने वाला बन जाता है.

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इच्छामृत्यु के इस अधिकार से कहीं समाज में अराजकता की स्थिति तो नहीं पैदा हो जाएगी?

मेरा इस मामले में बिलकुल साफ कहना है कि इस वक्त राज्य के पास मैडिकल सुविधाएं डाक्टर, दवाई, खर्चे, पैसा है नहीं. सरकार आप को बचा नहीं सकती. आप के जीवन की रक्षा नहीं कर सकती. इसलिए कोई मरे, समाज मरे, देश मरे राज्य की बला से.

 लेकिन यह फैसला राज्य यानी सरकार नहीं कर रही, यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की तरफ से आया है, जो कि एक स्वतंत्र न्यायिक संस्था है?

बेसिकली न्यायपालिका के मुखौटे में यह राज्यसत्ता का ही पौलिटिकल बिल है, मैं ऐसा मानता हूं. यहां राज्य नहीं चाहता या उस के पास संसाधन नहीं है या वह संसाधनों को राफेल खरीदने में खर्च करना चाहता है. मैडिकल ऐक्सपैंसेज या दूसरे वैलफेयर ऐक्सपैंसेज के लिए उस के पास कोई जगह नहीं है?

या कहें उस की इच्छा नहीं है अथवा उस की प्राथमिकता में नहीं है?

यस, उस की प्राथमिकता में ही नहीं है. वह कहता है हां, ठीक है यार, जब इस का कुछ होना ही नहीं है, बचना है नहीं, इस को मरना ही मरना है, तो इस को लाइफ सपोर्ट सिस्टम में लगा कर इतने डाक्टर, इतनी दवाएं क्यों बरबाद करें.

न्यायिक एथिक्स की दृष्टि से इच्छामृत्यु का यह निर्णय कितना खतरनाक है?

देखिए, मृत्युदंड के बारे में सुप्रीम कोर्ट की सोच है कि रेयरैस्ट औफ रेयर मामले में ही मृत्युदंड दिया जा सकता है, वह भी तब जबकि जिन्हें मृत्युदंड दिया जाना है, वे जघन्यतम अपराधी हैं. फिर भी, सुप्रीम कोर्ट मृत्युदंड देने से बचता है. अब निर्भया कांड के अपराधियों को ही लें, छोटी अदालत से, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से भी उन्हें मृत्युदंड हो चुका है. फिर भी अभी तक उन को फांसी नहीं हुई. कहने का मतलब वहां तो आप रिव्यू भी करेंगे, प्रीव्यू भी करेंगे और अगर सजा देने में 5-10 साल की देरी हो गई तो उसे आजीवन कैद में परिवर्तन भी करेंगे यानी पहले तो रेयरैस्ट औफ रेयर केस में फांसी देंगे, फिर इस फैसले को 5-10 साल एक्जिक्यूट नहीं करेंगे, फिर डिले होने के नाम पर फांसी को आजीवन कारावास में परिवर्तित कर देंगे.

छोटी बच्चियों से रेप के मामले में आज तक सिवा धनंजय चटर्जी और जुम्मन खां के किसी और को मौत की सजा नहीं हुई. दहेज हत्याओं के मामले में पहले फांसी हो सकती थी और छोटी अदालतों तथा हाईकोर्ट ने ऐसे कुछ फैसले भी दिए लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें आजीवन कैद में बदल दिया. एक भी फांसी दहेज हत्याओं के मामले में आज तक नहीं हुई. 1986 में तो इन्होंने कानून ही बदल दिया कि दहेज हत्याओं के मामले में मुकदमा 302 में नहीं, बल्कि धारा 304बी में चलेगा. जिस में अधिकतम सजा आजीवन कैद ही हो सकती है. इस तरह देश के सारे दहेज हत्यारों को सुप्रीम कोर्ट ने फांसी से बचा लिया. यहां तक कि आतंकवादियों की भी मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदला गया है.

जब जिन लोगों ने अपराध किए हैं, वह भी बर्बर अपराध किए हैं, अगर उन लोगों को फांसी की सजा नहीं देना चाहते क्योंकि फांसी की सजा देने के बाद कोर्ट उसे पलट नहीं सकता, इसलिए बहुत सोचसमझ कर मृत्युदंड का निर्णय लिया जाता है. सिर्फ हिंदुस्तान में ही नहीं, दुनिया के तमाम बड़े देशों ने तो इसी बात को ध्यान में रख कर फांसी की सजा ही खत्म कर दी है. तो ऐसे में किसी को भी इच्छामृत्यु का अधिकार दे देना, यह तो बहुत खतरनाक है.

क्या ऐसे फैसलों के पीछे माहौल की भी कोई भूमिका होती है, आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने इस इच्छामृत्यु के फैसले को इतनी सहजता से कैसे दे दिया है?

बेसिकली आज यानी साल 2018 में समाज की 2 ही मानसिक स्थितियां हैं या तो मर जाऊं या किसी को मार दूं यानी किसी की हत्या कर दूं या आत्महत्या कर लूं. आदमी इतना परेशान है कि वह कुछ भी कर सकता है.

आप की बातों से तो लगता है कि यह एक बेहद निराश माहौल का निराशा से भरा बेहद घातक फैसला है?

यस.

यह तो समाज के लिए बहुत घातक है?

यस. चूंकि ये लोग आइवरी टावर में बैठे हुए हैं, समाज से इन का कोई सरोकार नहीं है, समाज से कोई कंसर्न नहीं है, समाज से कोई संवाद नहीं है, इसलिए ये समझते हैं, बस यही दुनिया है, यही समाज है और यही हकीकत है. यही जीरो ग्राउंड रियलिटी है. चलो ऐसा कर देते हैं, चलो वैसा कर देते हैं, चलो मरना है मर जाओ, यार. बस, वसीयत लिख देना. अरे, वसीयत नहीं लिखा, घरपरिवार के तो लोग हैं? वो नहीं हैं तो फ्रैंड्स की कंसैंट ले लो. बुलाओ इन 4 डाक्टरों को. भाई देखो, यह बचेगा या नहीं बचेगा? नहीं बच सकता तो हटाओ यह लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम. खत्म करो. इतना पैसा नहीं है सरकार के पास, वह भी जिस का कोई फायदा न हो. इफरात में न डाक्टर हैं, न दवाईयां हैं और न पैसा है.

इस से तो बहुत खतरनाक निष्कर्ष निकल रहा है. कहां तो इसे गरिमापूर्ण मौत का नाम दिया जा रहा है, जबकि इस से तो लगता है कि यह जीवन की गरिमा खत्म करने वाला है?

वो तो हो ही रहा है. जो लोग सत्ता में बैठे हैं चाहे राजनीतिक सत्ता में हों, चाहे न्यायिक सत्ता में, उन के लिए सारी दुनिया अच्छी है. ये लोग आम जनता के दृष्टिकोण से समाज को देख ही नहीं सकते. ये तमाम बड़े अफसरों के बेटे, नेताओं के बेटे, राष्ट्रपति के बेटे, मुख्यमंत्रियों के बेटे, बड़े घरानों के बेटे, बड़े वकीलों के बेटे, बड़े भूतपूर्व जजों के बेटेबेटियां, यही सब पीढ़ी दर पीढ़ी शासक हैं. बाप भी सुप्रीम कोर्ट जज होता है, बाद में बेटा भी. ऐसे क्लास के सामने जीवन और मृत्यु के सवाल आ कर खड़े ही नहीं होते. इन के लिए मृत्यु की दूरदूर तक कल्पना ही नहीं होती. दुख क्या होता है, ये क्या जानें.

ओह, तो यह वर्ग इच्छामृत्यु के रोमांच का सुख लेना चाहता है?

हां.

इस समय जिस तरह का खतरनाक माहौल  है, भीड़, बिना किसी खौफ के, जिस की चाहे हत्या कर देती है, कहीं यह उसी रास्ते का अगला कदम तो नहीं है?

मैं ने कहा न, हमारी जीने की इच्छाएं खत्म की जा रही हैं. सच पूछो तो मुझे भी मरने में कोई दिक्कत नहीं है, सारा रोना जीने का है. जीने में दिक्कत है. मुझे मरने से डर नहीं लगता, जीने में डर लगता है. पूरे समाज का यही हाल है. तो पहले तो ऐसी स्थितियां पैदा कर दो कि लोग जीने से डरने लगें और फिर मरने का अधिकार दे दो. लोग सहजता से सोचने लगेंगे, चल यार, मर जाते हैं.

देश की 73 फीसदी संपत्ति पर देश के एक फीसदी लोगों का कब्जा है. लोगों के पास खाने को रोटी नहीं है, पीने को पानी नहीं है. हां, मौत का सुख है. यह यों ही नहीं है कि किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला बढ़ता जा रहा है लेकिन उन की मौतें आंकड़े बन कर रह गई हैं. महिलाओं की आत्महत्याओं का सिलसिला हाल के सालों में काफी ज्यादा बढ़ा है. ऐसा हो भी क्यों न, किसी को अगर किसी हौस्पिटल में एडमिट कराना हो तो बड़े से बड़े नेता की सिफारिश चाहिए. डाक्टर नहीं है, दवाएं नहीं हैं. पिछले 4 वर्षों में पूरे देश में एक हौस्पिटल नहीं बना, एक कालेज नहीं बना. यह सब क्या हो रहा है. ऐसे में राज्य सरकार हो, न्यायपालिका हो, या साधनसंपन्न वर्ग, ये तीनोंचारों वर्ग जो आम लोगों के कंधों पर बैठे हैं, वे समझते हैं कि आम लोगों को मरने दो न यार, हमें क्या लेना.

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भाजपाई रक्षाकवच : राजनीति करनी है तो भाजपा में करो

भारतीय जनता पार्टी की तारीफ करनी चाहिए कि जम्मू के कठुआ और उत्तर प्रदेश के उन्नाव में अपने समर्थकों को बलात्कार जैसे आरोप से बचाने के लिए वह जीजान से जुटी रही. जिसे 2 गायों के अपनेआप मर जाने पर दलितों और मुसलमानों पर कहर ढाने में देर नहीं लगती उस पार्टी की अपनों को बचाने की संस्कृति ही भारतीय जनता पार्टी को ‘उत्तम’ पार्टी बना रही है.

2002 में नरेंद्र मोदी की गुजरात संहार में भूमिका की आज तक पार्टी पूरी तन्मयता से रक्षा कर रही है. जैसे ही यह मामला उठाया जाता है, तुरंत पार्टी के सारे नेताओं को 1984 के दंगे याद आ जाते हैं और वे कहने लगते हैं कि कांग्रेस द्वारा किसी को 1984 के दंगों में सजा न देने का अर्थ है कि देश का कानून ऐसा है कि जो सत्ता में है वह गलत कर ही नहीं सकता, वह गुनाहगार हो ही नहीं सकता.

यही जम्मू के कठुआ और उत्तर प्रदेश के उन्नाव के मामलों में हुआ. अगर आम लोगों ने यह कांड किया होता तो प्राथमिकी लिखने से पहले अभियुक्त गिरफ्तार हो चुका होता पर चूंकि इस मामले में अपराधियों ने भाजपाई रक्षाकवच धारण कर रखा था, सो, पार्टी, सरकार, पुलिस, अदालत सब चुप रहे.

अपनी सत्ता के दौरान कांग्रेस अपनों को यदाकदा गिरफ्तार होने देती थी, और तभी उस में इतने निष्ठावान सदस्य कहां हैं जो मरने तक पार्टी के साथ रहें. भाजपा तो कहती है कि जो एक बार भाजपाधर्म ग्रहण कर ले वह सब पापों से ऊपर

हो गया और गरीबअमीर, चोरीडकैती, किडनी खरीद, बैंक लोन, अपनों को टैंडर देने जैसे छोटे अपराध वैसे ही शुद्ध हो जाते हैं जैसे राम का बालि को पेड़ की आड़ से तीर मारना या भीम का कृष्ण के कहने पर दुर्योधन की जांघ पर गदा वार करना था.

जनता के दबाव में सरकार ने यदि इन बलात्कारों के अपराधियों को गिरफ्तार भी किया है तो वे अपने ‘पुण्यों’ के बल पर जरूर ही किसी न किसी तरह मुक्ति पा जाएंगे, गवाह मुकर जाएंगे, जमानतें मिल जाएंगी, जज बारबार बदल दिए जाएंगे. हमारे पुराणों में ये सब तरकीबें बाकायदा दी गई हैं जो हमारी धार्मिक धरोहर हैं. ये आज भी विधिवत प्रवचनों में, धारावाहिकों में, फिल्मों में, धार्मिक पुस्तकों में दोहराई जाती हैं.

राजनीति करनी है तो भारतीय जनता पार्टी में करो. इसी में सुरक्षा मिलती है. कुसमय में यही किसी शिखंडी को आगे खड़ा कर बचाती है. कांग्रेस में क्या रखा है, वह तो दबाव में झुक जाती है और गुनहगारों को सजा हो जाने देती है. पार्टी सही चुनें जो खाए व खाने दे.

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साधु संतों के बहाने आदिवासियों को साधने की कोशिश

मध्य प्रदेश में आदिवासियों की तादाद सवा करोड़ से भी ज्यादा है और इन में से अधिकांश राज्य की लाइफलाइन कही जाने वाली नर्मदा नदी के किनारे रहते हैं. कहनेसुनने को तो ये आदिवासी बड़े सरल व सहज हैं पर इन का एक बड़ा ऐब खुद को हिंदू न मानने की जिद है.

पिछले साल फरवरी में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत आदिवासी बाहुल्य जिले बैतूल गए थे, तो वहां के आदिवासियों ने साफतौर पर सार्वजनिक एतराज यह जताया था कि वे हिंदू किसी भी कीमत पर नहीं हैं, लेकिन संघ से जुड़े लोग आएदिन उन्हें हिंदू बनाने व साबित करने पर उतारू रहते हैं, इसे बरदाश्त नहीं किया जाएगा.

तब आदिवासी संगठनों की अगुआई कर रहे एक आदिवासी शिक्षक कगू सिंह उइके ने इस प्रतिनिधि को बताया था कि आदिवासी हिंदुओं की तरह पाखंडी नहीं हैं और न ही मूर्तिपूजा में भरोसा करते हैं. ऐसे कई उदाहरण इस आदिवासी नेता ने गिनाए थे, जो यह साबित करते हैं कि वाकई आदिवासी हिंदू नहीं हैं, यहां तक की शादी के फेरे भी इस समुदाय में उलटे लिए जाते हैं. इन में शव को दफनाया जाता है, जबकि हिंदू धर्म में शव को जलाए जाने की परंपरा है.

तमाम शिक्षित और जागरूक आदिवासियों को डर यह है कि आरएसएस और भाजपा उन्हें हिंदू करार दे कर उन की मौलिकता खत्म करने की साजिश रच रहे हैं, जिस से आदिवासियों की पहचान खत्म करने में सहूलियत रहे और धर्म व राजनीति में उन का इस्तेमाल किया जा सके. उधर, संघ का दुखड़ा यह है कि ईसाई संगठन आदिवासियों को लालच व सहूलियत दे कर उन्हें अपने धर्म में शामिल कर रहे हैं, जो हिंदुत्व के लिए बड़ा खतरा है.

ये तीनों ही बातें सच हैं और इस बाबत कोई रत्तीभर भी झूठ नहीं बोल रहा है. ईसाई मिशनरियां आजादी के पहले से इन जंगलों में घुस कर जानवरों की सी जिंदगी जी रहे आदिवासियों के लिए स्वास्थ्य व शिक्षा मुहैया कराती रही हैं. अब यह हिंदुओं की कमजोरी या खुदगरजी रही कि वे कभी आदिवासियों के नजदीक नहीं गए, उलटे उन्हें शूद्र व जंगली कह कर दुत्कारते ही रहे. आदिवासी खुद को ईसाई धर्म में ज्यादा सहज और फिट महसूस करते हैं तो इस की कई वजहें भी हैं, एक लंबा ऐतिहासिक व धार्मिक विवाद इन वजहों की वजह है. यह विवाद द्रविड़ों और आर्यों का संघर्ष है, जो अब नएनए तरीकों से सामने आता रहता है. आदिवासी खुद को देश का मूल निवासी और बाकियों को बाहरी मानते हैं.

ये करेंगे कमाल

इस पूरे फसाद में आरएसएस ने कभी या अभी भी हथियार नहीं डाले हैं, इस की ताजी मिसाल हाल ही में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा 5 संतों को राज्यमंत्री का दर्जा देना है. चुनावी साल के लिहाज से विवादित और चर्चित ये गैरजरूरी नियुक्तियां निश्चित ही एक जोखिमभरा फैसला है, जो हर किसी को चौंका रहा है और हर कोई अपने स्तर पर कयास भी लगा रहा है.

साधुसंतों को राज्यमंत्री का दर्जा दिए जाने की एक बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि इन पांचों ने शिवराज सिंह की चर्चित व विवादित नर्मदा यात्रा से जुड़े घोटाले उजागर करने की धौंस दी थी, इसलिए उन का मुंह बंद करने के लिए शिवराज सिंह के पास यही इकलौता रास्ता बचा था. बात एक हद तक सही भी है कि बीती 28 मार्च को इंदौर के गोम्मटगिरि में संत समुदाय की एक अहम मीटिंग में इस आशय का फैसला ले कर उसे सार्वजनिक भी किया गया था. इन संतों ने ऐलान किया था कि 1 अप्रैल से 15 मई तक वे नर्मदा घोटाला यात्रा निकालेंगे. यह धौंस पूर्वनियोजित इस लिहाज से लग रही है कि भारीभरकम खर्च के अलावा कोई घोटाला हुआ होता तो वह विपक्ष और मीडिया से छिपा नहीं रह पाता.

जिन 5 संतों को राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया है उन में सब से बड़ा नाम चौकलेटी चेहरे वाले युवा संत भय्यू महाराज का है, जिन के दरबार में देशभर के दिग्गज नेता आ कर माथा टेकते हैं. दूसरे 4 हैं-कंप्यूटर बाबा, नर्मदानंद, हरिहरानंद और महंत योगेंद्र. इन पांचों में कई बातें समान हैं. मसलन, इन सभी ने कम उम्र में ही खासी दौलत व शोहरत हासिल कर ली है. इन पांचों का सीधा कनैक्शन भगवान से है और अहम बात यह कि इन पांचों का नर्मदा नदी के घाटों और निकटवर्ती इलाकों पर अच्छा दबदबा है, यानी इन का बड़ा भक्तवर्ग यहीं है.

नर्मदा नदी की परिक्रमा अगर कोई करे, तो वह राज्य की 230 विधानसभा सीटों में से 100 की नब्ज टटोल कर बता सकता है कि सियासी बहाव किस पार्टी की तरफ है. अपनी नर्मदा यात्रा के दौरान ही शिवराज सिंह को यह एहसास हो गया था कि उन की इस धार्मिक तामझाम वाली यात्रा में आदिवासियों ने कोई दिलचस्पी नहीं ली है, इस के बाद भी वे संतुष्ट थे कि कुछ आदिवासी तो उन की तरफ झुकेंगे ही.

शिवराज सिंह और आरएसएस का मकसद आदिवासी ही थे और हैं, जो इस बार धार्मिक कारणों के चलते भाजपा से बिदकने लगे हैं. जब बैतूल में मोहन भागवत का विरोध हुआ था, तभी समझने वाले समझ गए थे कि इस दफा आदिवासी इलाकों में भगवा दाल नहीं गलने वाली. लिहाजा, संघ ने भी इन इलाकों से अपनी गतिविधियां समेट ली थीं. राज्य सरकार ने नर्मदा किनारे के इलाकों में पौधारोपण और जलसंरक्षण जैसे उबाऊ मसलों पर जागृति लाने के लिए एक विशेष समिति गठित कर इन पांचों को उस का सदस्य बनाते हुए राज्यमंत्री का दर्जा भी दे डाला, तो किसी को इस की वजह शिवराज सिंह की डोलती नैया लगी, तो किसी को इस फैसले के पीछे उन की सियासी लड़खड़ाहट नजर आई.

संयोग से यह फैसला उस वक्त लिया गया जब सुप्रीम कोर्ट के एससी एसटीएक्ट में बदलाव या ढील के खिलाफ दलितों ने सड़कों पर आ कर विरोध जताया था और देशव्यापी हिंसा में कोई डेढ़ दर्जन लोग मारे गए थे. सर्वाधिक हिंसा और मौतें भी मध्य प्रदेश में ही हुई थीं. दलितों ने अदालत से ज्यादा नरेंद्र मोदी की सरकार को दोषी करार दिया था. ऐसे में पूरी भाजपा थर्रा उठी थी और डैमेज कंट्रोल में जुट गई थी. इस हिंसक प्रदर्शन से एक अहम बात यह भी उजागर हुई थी कि दलितों का भाजपा से मोहभंग हो चुका है.politics in india

इन बातों से चिंतित और हैरानपरेशान शिवराज सिंह को सहारा अगर आदिवासी वोटों में दिख रहा है तो उन्होंने उन्हें अपने पाले में खींचने के लिए इन पांडवों को जिम्मेदारी सौंप एक तीर से चार निशाने साधने की कोशिश ही की है.

भाजपा की धर्म की राजनीति से अब आम लोग चिढ़ने लगे हैं, फिर पहले से ही चिढ़े बैठे आदिवासियों को ये संत रिझा पाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा. भाजपा के राज में साधुसंतों की मौज ज्यादा रहती है और उन्हें दानदक्षिणा भी ज्यादा मिलती है. अब तो संत मंत्री बन गए हैं, लिहाजा, उन का रुतबा और बढ़ा है. अब वे किसी घोटाले की बात नहीं कर रहे और न ही सरकार से मिलने वाली 7,500 रुपए की पगार की उन्हें दरकार है, जो उन का शायद एक मिनट का भी खर्च पूरा न कर पाए.

इन संतों को चाहिए थे अफसरों के झुके सिर और आगेपीछे हिफाजत में लगी पुलिस और यह सब इन्हें मिल रहा है तो वे आदिवासियों को हिंदू होने के फायदे भी समझाएंगे और यह भी बताएंगे कि हनुमान, शबरी, केवट, सुग्रीव और अंगद आदिवासी होते हुए भी रामभक्त थे और कैसे राम ने उन का उद्धार किया था. अब नर्मदा किनारे रोपे गए 6 करोड़ पेड़ गिनने के बजाय नर्मदा के घाटों पर पूजापाठ, यज्ञहवन और आरती व  प्रवचन होंगे, क्योंकि इन संतों का तो पेशा ही यही है. लपेटे में अगर आया तो वह गरीब आदिवासी होगा, जो हिंदू धर्म के कर्मकांडों और पाखंडों का न तो आदी है, न ही पहले कभी इस से सहमत हुआ था.

ऐसे खुली संतों की पोल

अपने भक्तों को लोभ, मोह, व्यभिचार और ईर्ष्या से दूर रहने के उपदेश पिलाते रहने वाले संतसाधु खुद कैसे इन दुर्गुणों की गिरफ्त में रहते हैं, यह 5 संतों को राज्यमंत्री का दर्जा दिए जाने के बाद तुरंत साबित हो गया. 5 अप्रैल को भोपाल में प्रदेशभर के साधुसंत इकट्ठा हुए और जम कर नए संत मंत्रियों को लताड़ते नजर आए.

साधुसंतों की सर्वोगा संस्था अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने संतों को मंत्री का दर्जा दिए जाने पर विरोध जताते तरहतरह की बातें कहीं. मसलन, साधुसंतों का दर्जा तो मंत्री से कहीं ऊपर होता है, उन्हें सरकारी प्रलोभनों में नहीं आना चाहिए, इस से समाज में साधुसंतों का सम्मान घटेगा.

दरअसल, विरोध प्रदर्शन कर रहे ये साधु खुद इस चिढ़ और ईर्ष्या का शिकार थे कि उन्हें क्यों मंत्री नहीं बनाया गया. उधर, मंत्री बने बाबा लोग भी ऊटपटांग हरकतें करते अपनी खुशी जताते रहे. कंप्यूटर बाबा सरकारी रैस्ट हाउस की छत पर धूनी रमा कर लोगों का ध्यान खींचने में लगे रहे तो एक और संत नर्मदानंद ने दावा कर डाला कि उन के यज्ञ के चलते ही भाजपा सत्ता में आ पाई थी और इस बार भी वे यज्ञ करेंगे.

दोफाड़ हो गए बाबाओं ने तो खूब धमाल किया, लेकिन मुख्यंत्री शिवराज सिंह इस बेहूदे फैसले को ले कर दिक्कतों से घिरते नजर आ रहे हैं. एक नागरिक रामबहादर वर्मा द्वारा दायर याचिका पर मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने उन से इस बाबत सफाई मांगी तो 12 अप्रैल को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी उन्हें नागपुर तलब कर खूब लताड़ लगाई कि साधुसंतों को सड़कों पर क्यों आना पड़ा.

शिवराज सिंह चौहान वाकई बधाई के पात्र हैं जिन्होंने साधुसंतों की पोल खोलने में अंजाने में ही सही, सटीक भूमिका निभाई. हालांकि मंत्री दर्जा न मिलने से खफा साधुसंत खुलेआम उन का और भाजपा का विरोध करने लगे हैं और कांग्रेस भी इन व्यथित व बेचैन संतों की महत्त्वाकांक्षाओं को खूब हवा दे रही है.

अच्छा तो यह होता कि सभी साधुसंतों को राज्यमंत्री का दर्जा दे दिया जाता. इस से सर्वधर्म समभाव का राग अलापने वाले साधुसंतों में आपस में फूट नहीं पड़ती. सरकारी खजाने पर जरूर बोझ पड़ता, जिसे आम भक्तों से वसूला जाना हर्ज की बात नहीं जो वैसे ही साधुसंतों को चढ़ावा देदे कर उन्हें करोड़पति बना चुके हैं. जल्दबाजी में शिवराज सिंह को यह ध्यान नहीं रहा कि एकाध दलित संत को भी यह दर्जा दे देते तो शायद नाराज दलितवर्ग उन की तरफ झुकता. देखना दिलचस्प होगा कि 5 संतों के आशीर्वाद पर सौपचास संतों का श्राप भारी पड़ता है या नहीं.

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पुरुषों की इन 4 बातों पर मर मिटती हैं औरतें, क्या आपको हैं मालूम?

महिलाएं या लड़कियां पुरुषों से क्या चाहती हैं? इस सवाल ने कई सालों से दुनिया को परेशान कर रखा है. कई किताबों, पेपर, ब्लॉग्स, कलाकारों के सेमिनार, फिल्मों, कला और संगीत हर एक ने अपने-अपने ढंग से इस विषय पर अपनी बात रखी है.

अगर हम पुरुषों की पत्रिकाओं पर विश्वास करें, तो महिलाओं को अपने पसंदीदा पुरुष के साथ सेक्स करना ही उनकी सबसे बड़ी चाहत है. अगर हम महिलाओं की पत्रिकाओं पर विश्वास करें, तो महिलाओं को पुरुषों में कई बातें अच्छी लगती हैं, जिनकी वें दीवानी होती हैं.

जाहिर है, विज्ञान ने भी इस सवाल के जवाब ढूंढ़ने के लिए कई प्रयास किए होंगे. कई अध्ययनों से और प्रयासों के बाद इस बात का निष्कर्ष निकला है कि आखिर महिलाओं को पुरुषों में सबसे ज्यादा क्या पसंद आता है. इन अध्ययनों से जो नतीजे निकले वे काफी चौकाने वाले रहें हैं.

बढ़ी हुई दाढ़ी या बीर्ड

पिछले साल अप्रैल में विकास और मानव व्यवहार में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि महिलाओं को बढ़ी दाढ़ी वाले पुरुष ज्यादा आकर्षित करते हैं, विशेष रूप से 10 दिन पुरानी दाढ़ी. जबकि इस अध्ययन में पुरुषों ने पूरी तरह से क्लीन सेव को अधिक रेटिंग दी, लेकिन महिलाओं को क्लीन सेव वाले पुरुष कम पसंद आए.

ऑयल, लेदर, प्रिंटर इंक

Daz नाम कि एक साबुन कंपनी बनाने वाली कंपनी ने 2,000 लोगों को शामिल कर एक सर्वेक्षण किया जिसमें यह बात सामने आई कि ब्रिटिश महिलाओं को लेदर, ऑयल, पेंट, और प्रिंटर इंक की गंध से उत्तेजना होती है. जबकि पुरुष लिपस्टिक, बेबी लोशन या की खुशबू से अधिक उत्तेजित होते हैं.

इस प्रकार का सेक्स

योनि की संवेदनशीलता पर साल 1984 में किए गये अध्ययन में कोलंबिया के शोधकर्ताओं की एक टीम ने 16 वेश्याओं और 32 आम महिलाओं पर टेस्ट किया. हैली, जो एक चिकित्सक और सेक्सोलॉजी की प्रोफेसर थी, उन्होंने यौनकर्मियों को सेक्स के साथ एक विशेष प्रकार का फ्रिक्शन दिया और मारी लाडी, जो एक मनोचिकित्सक थीं उन्होंने आम महिलाओं को सेक्स  के दौरान इस विशेष फ्रिक्शन से दूर रखा. परिणाम यह रहा कि आठ आम महिलाओं कि तुलना में तीन-चौथाई से अधिक वेश्याओं को इस फ्रिक्शन कि वजह से ऑरगम हुआ.

पुरुषों की गंध

अध्ययन के मुताबिक, महिलाओं को डियोडोरेंट लगाने वाले पुरुष आकर्षक नजर आते हैं. ऐसे में यह शोध आपके लिए मददगार साबित हो सकता है. यूनिवर्सिटी ऑफ स्टरलिंग के मनोवैज्ञानिकों ने इस अध्ययन के लिए 130 महिलाओं और पुरुषों को फोटोग्राफ्स दिखाई और उनसे इन फोटोज के आधार पर मैस्क्यलिनटी और फेमनिनिटी का अंदाजा लगाने को कहा. उसके बाद 239 पुरुषों और महिलाओं को अपोजिट सेक्स की गंध के आधार पर उन्हें जज करने को कहा गया. विशेषज्ञों ने पाया कि महिलाएं, पुरुषों की गंध के प्रति ज्यादा आकर्षित होती हैं. वहीं पुरुषों को भी सुगंध लगाने वाली महिलाएं ज्यादा भाती हैं.

बोझिल सैक्स, बोझिल रिश्ता

हर काम युवा जल्दबाजी में करना चाहते हैं. युवा ऊर्जा और जोश की यह खासीयत भी है कि गरम खून और उत्साह से भरी यह पीढ़ी हर काम को खुद करना जानती है. प्रेम भी युवा खुल कर करते हैं. समाज की सीमाओं से परे इन के रिश्ते दकियानूसी दौर को पार कर चुके हैं और सैक्स संबंधों के लिए किसी से परमिशन नहीं लेनी पड़ती. एक शोध में पाया गया कि शारीरिक संसर्ग की गुणवत्ता बोझिल होने से रिश्ते बोझ लगने लगते हैं और युवा भूल जाते हैं कि असल रोमांस क्या है. आजकल युवाओं में बढ़ती थकान, दबाव या निराशा के कारण अपनी गर्लफ्रैंड के साथ सैक्सुअल रिलेशन बोझिल होते जा रहे हैं, जिस का नकारात्मक असर उन के रिश्ते पर भी दिखता है.

युवकयुवती के बीच अगर सैक्स संबंधों में मधुरता है तो दोनों के रिश्तों में नई ऊर्जा का भी संचार होता है, लेकिन अगर सैक्स संबंध ही बोझिल हो चुके हैं तो रिश्ता भी बोझिल हुआ समझो. आइए, जानते हैं कि सैक्स संबंधों की बोझिलता दूर कर किस तरह युवा अपने रिलेशन में नई जान फूंक सकते हैं :

खुल कर करें इजहार

डौन युवाओं के बीच अगर सैक्स में डिजायर्स नहीं है तो रिश्ते में भी ऊष्मा नहीं आएगी. ज्यादातर युवतियां अपने साथी से संकोचवश सैक्स के बारे में अपनी फीलिंग्स छिपाती हैं, जिस के चलते उन्हें उस तरह का सैक्सुअल प्लेजर नहीं मिल पाता जिस की उन्हें चाहत होती है. मन की बात मन में ही रह जाती है. पार्टनर के सामने खुल न पाने के चलते सैक्स संबंध बोझिल लगने लगते हैं. अगर आप चाहते हैं कि रिश्तों में रोमांस का तड़का लगा रहे तो अपनी डिजायर्स पार्टनर से शेयर करें, जो अच्छा लग रहा है, उसे बताएं और बुरी फीलिंग्स को भी छिपाएं नहीं. अपने साथी के साथ हर बात शेयर करें और सैक्सुअल रिलेशन बनाते समय संकोच को किनारे कर उस का पूरा आनंद लें, आप पाएंगे कि रिश्तों की खोई ऊष्मा वापस आ रही है.

जराजरा टचमी… टचमी…

स्पर्श प्रेम और सैक्स का सब से अहम टूल होता है. एक स्पर्श अंगअंग में गुदगुदी भर सकता है जबकि गलत तरीके से किया गया स्पर्श मन को घृणा से भर देता है. सैक्स संबंध बनाते समय अगर अपने साथी को स्पर्श करने की कला आप को आती है तो सैक्स का आनंद कई गुणा बढ़ जाता है. सैक्स ऐक्सपर्ट मानते हैं कि स्पर्श का प्यार और सैक्स से गहरा रिश्ता है. इस के पीछे वजह है कि स्किनटूस्किन कौंटैक्ट से आप का औक्सिटोसिन लैवल बढ़ेगा. इस से आप रिलैक्स महसूस करेंगी और अपने पार्टनर के और करीब जाएंगी. थोड़ा तन से छेड़छाड़ और तन से तन का स्पर्श ही कामइच्छा को जागृत करता है. स्पर्श से कामइच्छा में इजाफा होता है और संबंधों में प्रगाढ़ता आती है. पार्टनर को प्रेमस्पर्श देना सब से कारगर तरीका है. पार्टनर का मूड बनाने के लिए कान के पीछे, आंखों पर किस भी कर सकते हैं.

शरारती बातें और चाइनीज फुसफुस

सैक्स एक कला है और इस में जितने प्रयोग किए जाएं यह उतनी निखरती है. इसलिए जब भी आप सैक्स संबंध बनाएं नए प्रयोग आजमाने से हिचकें नहीं. जब भी आप को मौका मिले पार्टनर को फोन मिलाएं और रोमांटिक तथा शरारत भरी बातें करें साथ ही उन्हें हिंट दें कि शाम को जब आप दोनों की मुलाकात होगी, तो क्या सरप्राइज मिलने वाला है. इशारा सैक्स को ले कर हो तो ज्यादा मजेदार होगा. अगर और प्लेजर खोज रहे हैं तो कान में फुसफुस वाला गेम भी खेल सकते हैं. इसे चाइनीजविस्पर गेम कहा जाता है. इस खेल को कइयों ने बचपन में खेला होगा. इस में नौटी बातों का तड़का लगा कर खेलेंगे तो मजा दोगुना हो जाएगा. जब अपने पार्टनर के साथ यह खेल खेलें तो उस के कानों में कुछ सिडक्टिव बातें कहें.

माहौल हो खुशनुमा

सैक्स कहीं भी और कभी भी करने वाली क्रिया नहीं है. जिस तरह खाना बिना भूख और स्वाद के गले नहीं उतरता, बेस्वाद लगने लगता है, ठीक उसी तरह सैक्स भी जबरन या गलत मूड और माहौल में करने से बेहद नीरस लगने लगता है. जिस से कई बार रिश्ते बोझिल लगने लगते हैं. सैक्स में माहौल और मूड जरूरी फैक्टर्स हैं. पुराने समय में तरहतरह के इत्र का इस्तेमाल होता था, क्योंकि सुगंध का सैक्स से रोचक रिश्ता है. महकता बदन और मदहोश करने वाली सुगंध से सैक्स की डिजायर और बढ़ जाती है. इसलिए अपने कमरे या जहां भी सैक्स करते हैं, वहां का माहौल खुशनुमा बना लें, कमरा सजाएं. कमरे का इंटीरियर बदलें. कमरे की लाइट डिम हो और रोमांटिक म्यूजिक चला हो, फिर दिनभर की थकान दूर करने के लिए पार्टनर की मसाज करें.

रोल प्ले और साथ में बाथ

रोजरोज एक ही काम करने से उस में बोझिलता आना स्वाभाविक है. हर रिश्ता कुछ नया और एडवैंचर्स की मांग करता है. कई बार उस के लिए खुद को बदलना भी पड़ता है. सैक्सुअल रिलेशन में इसी काम को रोल प्ले भी कहते हैं. इस में कुछ फिक्शन और नौन फिक्शन किरदारों को मिला कर एक किरदार बना लें और अपने साथी के साथ सैक्स के दौरान उस किरदार में रहें. आप पाएंगे कि आप को सैक्स की कुछ अलग अनुभूति हो रही है और नया रोमांचकारी अनुभव भी मिलेगा. पार्टनर के साथ एक रोमांटिक कहानी बनाएं, दोनों रोल बांट लें और बैडरूम में रोल प्ले करें या फिर रोल निभाएं, जो आप निभाना चाहते हैं. एकदूसरे के करीब आने का यह क्रिएटिव तरीका है. साथ ही अपनी सैक्स अपील उभारने के लिए ट्रांसपेरैंट ड्रैसेज और इरोटिक लिंजरी का सहारा लेने से भी सैक्स में तड़का लगता है. सैक्स ड्राइव बढ़ाने के लिए यह भी एक नायाब तरीका हो सकता है. बाथरूम में अच्छा परफ्यूम स्प्रे करें. बाथटब में एकसाथ बाथ लें.

स्ट्रैसफ्री सैक्स, पोर्न की लत और हैल्दी फूड

युवाओं में काम की टैंशन, नौकरी का तनाव और थकान सैक्स को बेमजा करते हैं. लिहाजा, रिश्ते भी अपना आकर्षण खोने लगते हैं. इसलिए किसी भी तरह खुद को रिलैक्स करिए तभी स्वस्थ सैक्स का मजा ले सकेंगे. जब स्ट्रैसफ्री रहेंगे तभी अपने साथी की डिजायर समझेंगे और उसे सैक्स का पूरा आनंद दे सकेंगे वरना सैक्स तो होता है, लेकिन एकतरफा और अधूरा सा रहता है, जिस में एक साथी असंतुष्ट रहता है. जिस का गुस्सा उस रिश्ते को खराब भी कर सकता है. सैक्स का स्वस्थ खाने और हैल्थ से भी कनैक्शन है. वैसे तो स्वास्थ्य के लिहाज से भी यही सलाह दी जाती है. यहां भी हम यही सुझाव देंगे. यदि आप सैक्स करना चाहते हैं तो कम खाना खाएं या फिर घंटेभर पहले खाना खा लें. इस से बैड पर आप को आलस नहीं आएगा.

पोर्न की लत को ले कर सैक्स ऐक्सपर्ट्स का कहना है कि एक सीमा तक पोर्न देखना रिलेशनशिप के लिए अच्छा है. लेकिन शोध बताते हैं कि सैक्स में आती बोझिलता के चलते रिश्तों की गर्माहट खत्म हो रही है, जिस के नतीजे ब्रेकअप के रूप में सामने आ रहे हैं.

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बाल यौन शोषण की अंधेरी दुनिया का दस्तावेज है “अमोली”

बच्चों के कमर्शियल यौन शौषण के बदसूरत व्यवसाय के बारे में चौंकाने वाले तथ्यों का खुलासा करने आ रही है “अमोली : प्राइसलेस”. कल्चर मशीन द्वारा बनाई गई इस डौक्यूमेंट्री में बच्चों के यौन शोषण के उस तरीके को सामने लाया गया है, जो बच्चों के खिलाफ हिंसा के सबसे खराब रूपों में से एक है. यह फिल्म 7 मई को रिलीज होगी.

इस फिल्म को 4 अध्यायों में बांटा गया है. मोल, माया, मंथन और मुक्ति. हर भाग दर्शकों को एक यात्रा पर ले जाता है, जो बाल यौन शोषण की अंधेरी दुनिया में गहराई से गुजरता है.

अगर हम आंकड़ों की बात करें तो भारत में चाइल्ड ट्रैफिकिंग यानि बाल तस्करी के 9,034 केस दर्ज हैं. मानव तस्करी के 60 फीसदी मामलों में पीड़ित नाबालिग होते हैं. महाराष्ट्र में बाल तस्करी के 172 केस, पश्चिम बंगाल में 3,113 केस, कर्नाटक में 332, आंध्र प्रदेश में 239 और तमिलनाडु में 434 केस दर्ज हैं. नेशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो (2016 की रिपोर्ट) से स्पष्ट है कि बाल तस्करी के सभी मामलों के लिए सजा की दर केवल 27.8% थी.

“अमोली” इन मासूम बच्चों की सच्ची कहानियों को जानने और समझने का एक प्रयास है, जो हमें ऐसे लोगों से सतर्क रहने के लिए भी प्रेरित करती है, जिन्होंने भारत को दुनिया के सबसे बड़े बाल तस्करी बाजारों में से एक बना दिया है. एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में बाल तस्करी का व्यापार 32 बिलियन डौलर का है. “अमोली” के माध्यम से ऐसे पुरुषों के लिए कठोर सजा की मांग की गई है, जो सेक्स के लिए बच्चों की मांग करते हैं. जब ऐसे लोगों को सजा का डर होगा तभी बाल तस्करी यह आपराधिक गठबंधन टूट सकता है. नेशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में वाणिज्यिक यौन शोषण के 3 मिलियन पीड़ितों में से 40 फीसदी बच्चे हैं.

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“अमोली” के बारे में कल्चर मशीन मीडिया प्राइवेट लिमिटेड के सीईओ और सह-संस्थापक समीर पिटलवाला का कहना है कि हमारी इस फिल्म का मुख्य उद्देशय मूल रूप से पुरुषों को सेक्स के लिए बच्चों को खरीदने से रोकना है. हम मानते हैं कि हमारा यह उद्देशय केवल स्पष्ट राजनीतिक प्रतिबद्धता, सक्रिय कानून प्रवर्तन और सख्त एवं त्वरित न्याय के माध्यम से ही पूरा हो सकता है. हम “अमोली” के माध्यम से इस मुद्दे पर जागरुकता बढ़ाना चाहते हैं. और इसके साथ ही हम चाहते हैं कि आम जनता इस मुद्दे को हल करने के लिए पुलिस, न्यायपालिका और सरकार से मांग करे.

राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता डौक्यूमेंट्री फिल्ममेकर जैस्मीन कौर रौय और अविनाश कौर द्वारा निर्देशित और ताजदार जुनैद द्वारा संगीतबद्ध इस 30 मिनट की फिल्म का उद्देशय लोगों के बीच इस विषय पर जागरुकता बनाए रखना है.

“अमोली” को हिंदी में शूट किया गया है, लेकिन यह फिल्म छह अन्य भाषाओं – तमिल, तेलुगु, बंगाली, मराठी, कन्नड़ और अंग्रेजी, में भी रिलीज होगी.

समीर पिटलवाला और वेंकट प्रसाद द्वारा 2013 में स्थापित, कल्चर मशीन प्राइवेट लिमिटेड ने इस फिल्म को निर्माण किया है. यह एक डिजिटल मीडिया कंपनी है जिसका उद्देशय स्टोरीटेलिंग और मीडिया ब्रांड का निर्माण करने में तकनीक का उपयोग करना तथा अच्छे कंटेट के साथ अत्याधुनिक तकनीक का संयोजन करना है. सिंगापुर स्थित पूर्ण स्वामित्व वाली कंपनी The Aleph Group, की सहायक कंपनी कल्चर मशीन, के कार्यालय भारत के प्रमुख शहरों (मुंबई, पुणे, दिल्ली, चेन्नई और हैदराबाद) में स्थापित हैं तथा इसका एक कार्यालय संयुक्त राज्य अमेरिका (डेलावेयर) में भी है.

‘अवेंजर्स : इन्फीनिटी वार’ ने तोड़े सारे रिकार्ड

पांच छह दिन पहले हमने हौलीवुड फिल्म ‘‘अवेंजर्स : इन्फीनिटी वार’’ की समीक्षा लिखते समय ही आगाह किया था कि यह फिल्म हर किसी के दिलों पर अपना कब्जा जमा लेगी. और चार दिन में ही यह बात सही साबित हो गई. 27 अप्रैल को भारतीय सिनेमाघरों में पहुंची रौबर्ट डाउनी जूनियर, क्रिस इंवास, क्रिस हेम्सवर्थ स्कारलेट जौनसन्स जैसे हौलीवुड कलाकारों के अभिनय से सजी फिल्म ‘‘अवेंजर्स : इन्फीनिटी वार’’ ने पहले ही दिन 31 करोड़ 30 लाख रूपए कमाकर नया रिकार्ड बना डाला था.

किसी भी भारतीय फिल्म को पहले दिन इतनी बड़ी ओपनिंग नही मिली. उसके बाद वीकेंड यानी कि पहले तीन दिन में इस फिल्म ने 94 करोड़ तीस लाख रूपए कमा लिए थे. चौथे दिन, सोमवार, 30 अप्रैल को इस फिल्म ने 24 करोड़ कमा लिए. इस तरह ‘अवेंजर्स : इन्फीनिटी वार’ ने महज चार दिन में 118 करोड़ रूपए से अधिक कमाए. जबकि अपने आपको सुपर स्टार कहलाने वाले मनोज बाजपेयी की फिल्म ‘मिसिंग’ की पूरी कमाई एक करोड़ रूपए भी नही पहुंची.

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इतना ही नही ‘बागी 2’ को सफलतम फिल्म बताया जा रहा है, पर ‘बागी 2’ की कमाई के आंकड़े, ‘अवेजर्स : इन्फीनिटी वार’ से काफी पीछे हैं. यहां तक कि आमिर खान की फिल्म ‘दंगल’ व ‘पीके’ और सलमान खान की ‘बजरंगी भाईजान’ भी काफी पीछे हो गई हैं. यह हालात तब हैं, जब ‘अवेंजर्स : इन्फीनिटी वार’ महज दो हजार स्क्रीन में ही प्रदर्शित हुई है. जबकि बौलीवुड के सुपर स्टारों की फिल्में एक साथ चार से पांच हजार स्क्रीन्स में प्रदर्शित होती है.

अब मंगलवार, एक मई को छुट्टी की वजह से ‘अवेंजर्स : इन्फीनिटी वार’ की कमाई के बढ़ने के पूरे आसार नजर आ रहे हैं. यदि यही हाल रहा तो इस सप्ताह की समाप्ति तक ‘अवेंजर्स : इन्फीनिटी वार’ के 180 करोड़ के करीब कमा लेने के आसार नजर आ रहे हैं.

इसकी मूल वजह यह भी है कि इस वक्त सिनेमाघरों में चल रही ‘अक्टूबर’, ‘मिंसिंग’, ‘नानू की जानू’, ‘दास देव’, ‘इश्क तेरा’ जैसी बौलीवुड फिल्मों को दर्शक देखना ही नहीं चाहता.

वरूण धवन की 13 अप्रैल को प्रदर्शित फिल्म ‘अक्टूबर’ अब तक सिर्फ 39 करोड़ रूपए ही कमा सकी है. ‘दास देव’ ने चार दिन में महज 65 लाख रूपए, ‘नानू की जानू’ चार करोड़, ‘मिसिंग’ 85 लाख तथा इरफान खान की फिल्म ‘‘ब्लैकमेल’’ की पूरी कमाई बीस करोड़ रूपए ही है.

‘अवेजर्स : इनफीनिटी वार’ ने जिस तरह से भारतीय बौक्स आफिस पर कमाई की है, उससे बौलीवुड के आमिर खान, शाहरुख खान, सलमान खान सहित सभी सुपरस्टारों की नींद हराम हो गई है. इनकी फिल्मों ने अब तक कभी इतनी कमाई नहीं की. अब सलमान खान को अपनी फिल्म ‘रेस 3’ के बौक्स औफिस की चिंता सताने लगी है. तो वहीं आमिर खान अपनी फिल्म ‘‘ठग्स आफ हिंदुस्तान’’ को लेकर चिंतित है. उधर शाहरुख खान और आनंद एल राय को भी अब अपनी फिल्म ‘जीरो’ के बौक्स औफिस की चिंता सताने लगी है.

सवाल यही है कि आखिर बौलीवुड के कलाकार व फिल्मकार कब अच्छी फिल्म बनाने के बारे में सोचेंगे?

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चुनावों के वक्त आखिर क्यों नहीं बढ़ते पेट्रोल के दाम

क्रूड के दाम में तेजी के बावजूद तेल कंपनियों ने पेट्रोल और डीजल की कीमतों को 16 से 19 अप्रैल के बीच स्थिर रखा और फिर 24 से 29 अप्रैल के बीच भी यही स्थिति रही यानि मंगलवार से रविवार के बीच दिल्‍ली में पेट्रोल 74.63 रुपए प्रति लीटर और डीजल 65.93 रुपए प्रति लीटर पर स्थिर रहा. हालांकि पेट्रो उत्‍पादों की कीमतें रोज तय होती हैं. लेकिन इस कार्रवाई पर अचानक ब्रेक का कारण क्‍या है?

विश्‍लेषकों की मानें तो इंडियन औयल, भारत पेट्रोलियम और हिन्‍दुस्‍तान पेट्रोलियम, जिनका 90 फीसदी ईंधन रिटेलिंग पर नियंत्रण है, के शेयरों में 11 अप्रैल तक 9 से 16 फीसदी की गिरावट तक दर्ज की गई क्‍योंकि इस दौरान तेल कीमतों में आग लगी हुई थी. मीडिया रिपोर्टों में दावा है कि कीमतों में संशोधन सरकार के कहने पर रोका गया. हालांकि पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान इसका खंडन कर चुके हैं. उनका कहना था कि कर्नाटक चुनाव को लेकर सरकार की ओर से पेट्रोल उत्‍पादों की कीमतों में संशोधन को रोकने के लिए कोई निर्देश नहीं जारी किया गया है. कर्नाटक में 12 मई को मतदान है.

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चार महानगरों में नहीं बढ़े दाम

एक रिपोर्ट के मुताबिक 24 से 29 अप्रैल के बीच दिल्‍ली में पेट्रोल 74.63 रुपए प्रति लीटर और डीजल 65.93 रुपए प्रति लीटर था. वहीं कोलकाता में यह क्रमश: 77.32 और 68.63 रुपए प्रति लीटर, मुंबई में 82.48 और 70.2 रुपए प्रति लीटर और चेन्‍नै में 77.43 व 69.56 रुपए प्रति लीटर था. पेट्रोल और डीजल पर से सरकारी नियंत्रण काफी पहले हट गया था लेकिन माना जा रहा है कि सरकार चुनाव के वक्‍त सरकारी कंपनियों से कीमतों में मामूली बढ़ोतरी के लिए ही कहती है. कंपनियां उस दौरान हुए घाटे की भरपाई मतदान के बाद कीमतें बढ़ाकर करती हैं. सरकारी तेल कंपनियों की कीमतों को देखकर ही रिलायंस, एस्‍सार जैसी प्राइवेट तेल कंपनियां अपनी कीमतें तय करती हैं.

गुजरात चुनाव के वक्‍त भी स्थिर हो गई थी कीमतें

पेट्रोल और डीजल की कीमतों में रोजाना संशोधन का नियम है, यानि दाम क्रूड के स्‍तर को देखकर तय होते हैं. एक खबर के मुताबिक गुजरात में विधानसभा चुनाव दिसंबर 2017 में हुए थे. दिसंबर के पहले 15 दिन इंडियन औयल ने रोजाना सिर्फ एक से तीन पैसे तक ईंधन के दाम बढ़ाए लेकिन 14 दिसंबर को मतदान के बाद कीमतें बेतहाशा बढ़ीं. तब यह कयास लगे थे सरकार के कहने पर कंपनियों ने कीमतें नहीं बढ़ाईं. हालांकि पेट्रोलियम मंत्री प्रधान ने तुरंत इसका खंडन किया था. उन्‍होंने कहा था कि हमारी तरफ से ऐसा कोई निर्देश नहीं है. उस समय कंपनियों को एक रुपए प्रति लिटर का घाटा सहना पड़ा था. आईओसी के चेयरमैन संजीव सिंह ने भी कहा था कि हमें सरकार की ओर से कोई निर्देश नहीं मिला है.

आठ साल पहले सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गया था पेट्रोल

पेट्रोल जून 2010 से सरकारी नियंत्रण से बाहर हैं. इसके बाद अक्‍टूबर 2014 में डीजल को भी इस व्‍यवस्‍था के तहत लाया गया. उसके बाद माह में दो बार कीमतों में संशोधन होने लगा था. लेकिन तेल कंपनियों ने बीते एक साल से रोजाना कीमतों में संशोधन की व्‍यवस्‍था शुरू कर दी.

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विराट ने अनुष्का को इस अंदाज में कहा हैप्पी बर्थडे

टीम इंडिया के कप्तान विराट कोहली की पत्नी और बौलीवुड अभिनेत्री अनुष्का शर्मा आज यानि 1 मई को शादी के बाद अपना पहला जन्मदिन सेलिब्रेट कर रही हैं. 1 मई 1988 को जन्मी अनुष्का शर्मा 30 साल की हो गई हैं. अनुष्का शर्मा ने शाहरुख खान के साथ 2008 में फिल्म ‘रब ने बना दी जोड़ी’ से बौलीवुड में कदम रखा था. उत्तरप्रदेश के अयोध्या में जन्मी और पली-बढ़ी अनुष्का शर्मा ने 2007 में फैशन डिजाइनर वेंडेल रौड्रिक्स के लिए एक मौडल के रूप में उन्हें पहला ब्रेक मिला और मौडलिंग में करियर बनाने के लिए वह मुंबई आ गई थीं.

विराट-अनुष्का की लव स्टोरी 2013 में एक विज्ञापन की शूटिंग के दौरान शुरू हुई थी, जो 2017 में शादी के साथ किसी परियों की कहानी की तरह पूरी हुई. 2013 में विराट कोहली और अनुष्का एक शैंपू का विज्ञापन कर रहे थे. शादी से पहले एक इंटरव्यू के दौरान विराट ने इस बात को स्वीकार भी किया था कि अनुष्का को पहली बारी स्क्रीन से अलग देखना एक सपने जैसा था. विराट ने बताया कि पहली बार उन्हें देखकर बस वह देखते ही रह गए थे.

विराट और अनुष्का की लव स्टोरी में भी कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले. 2014-15 में जहां इन दोनों की मोहब्बत की खबरें सुर्खियां बनी हुई थीं तो वहीं 2016 में इन दोनों के ब्रेकअप की खबरें भी आने लगी थीं, लेकिन अक्टूबर 2016 में विराट-अनुष्का ने युवराज सिंह शादी में एक साथ पहुंचकर ब्रेकअप की अफवाहों पर विराम लगा दिया था.

विराट कोहली ने पहली बार सोशल मीडिया पर अनुष्का शर्मा को जन्मदिन की बधाई दी है. विराट ने अनुष्का को केक खिलाते हुए एक तस्वीर शेयर की है. इस तस्वीर को शेयर करते हुए विराट ने लिखा है- हैप्पी बर्थडे माय लव… द मोस्ट पौजीटिव एंड औनेस्ट पर्सन आई नो. लव यू.

बता दें कि भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली 11 दिसंबर को बौलीवुड अभिनेत्री अनुष्का शर्मा के साथ विवाह बंधन में बंधे थे. विराट और अनुष्का ने परिजनों और करीबी दोस्तों की मौजूदगी में इटली में सात फेरे लिए थे. शादी के बाद विराट कोहली ने ट्वीट करके अपनी और अनुष्का की शादी की पुष्टि की थी.

विराट कोहली ने अपने ट्वीट के साथ एक तस्वीर साझा करते हुए लिखा था, “आज हमने एक दूसरे के प्यार में हमेशा के लिए खो जाने का वादा किया.” कोहली ने आगे लिखा, “हम यह खबर आपसे साझा करना चाहते हैं. दोस्तों, परिजनों और प्रशंसकों की दुआओं के कारण यह दिन और भी खास बन गया. हमारे सफर का अहम हिस्सा बने रहने के लिए धन्यवाद.”

जल्द ही लौन्च होने वाला है एंड्रौयड इलेक्ट्रिक स्कूटर

भारत में इलेक्ट्रिक कारों के साथ-साथ इलेक्ट्रिक टू व्हीलर्स को भी बढ़ावा मिल रहा है. दरअसल अब इलेक्ट्रिक वाहन बदल रहे हैं. वह स्पीड और स्टाइल के मामले में फ्यूल से चलने वाले वाहनों के साथ आते जा रहे हैं. इलेक्ट्रिक वाहन बनाने वाली कंपनियां भी इस पर अच्छा खासा ध्यान दे रही हैं और इसी का नतीजा है कि लोग अब इन्हें पसंद कर रहे है.

एक भारतीय स्टार्टअप भारत में अपना एक नया स्कूटर लौन्च करने जा रहा है. इस स्कूटर की सबसे खास बात है कि इसमें जो मीटर मिलेगा वो कोई आम मीटर नहीं होगा बल्कि एक टचस्क्रीन मीटर होगा. मतलब मीटर पूरी तरह से डिजिटल होगा. इसके साथ ही इसके मीटर में मैप भी मिलेगा.

यह स्टार्टअप बेंगलुरू का है. इसका नाम अथर एनर्जी है. यह स्टार्टअप अपना स्कूटर Ather S340 लौन्च करने की तैयारी कर रहा है. इस स्कूटर में एंड्रौयड आधारित टच स्क्रीन मिलेगी. इसके अलावा इसमें पुश नेविगेशन भी मिलेगा. इस स्कूटर के साथ वाटरप्रूफ चार्जर और पार्किंग असिस्ट भी मिलेगा. इस स्कूटर में एलईडी लाइट्स के अलावा मल्टिपल राइडिंग मोड्स भी मिलेंगे.

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रिपोर्ट्स के मुताबिक एथर S340 की बुकिंग जून में होगी शुरू होगी. इसे इस साल के आखिर तक लौन्च किया जा सकता है. इसकी कीमत 75 हजार रुपये के करीब हो सकती है. इस स्कूटर को कंपनी ने औटो एक्सपो 2016 में पेश किया था.

S340 को पावर देने के लिए इसमें लिथियम-आयन बैटरी पैक दिया जाएगा. यह एक बार फुल चार्ज करने पर 60 किलोमीटर की दूरी तय कर सकता है. इसकी टौप स्पीड 72 किलोमीटर प्रति घंटा होगी. इसकी सबसे खास बात कि सिर्फ 50 मिनट में इसे 80 फीसदी तक चार्ज किया जा सकेगा और इसकी बैटरी लाइफ 50,000 किलोमीटर तक बताई जा रही है. भारत में अथर S340 का मुकाबला ट्वेंटी टू मोटर्स के फ्लो से होगा. यह स्कूटर 2 घंटे में फुल चार्ज हो जाता है. एक बार फुल चार्ज होने के बाद फ्लो ई-स्कूटर को 80 किलोमीचर तक चलाया जा सकता है. इसकी टौप स्पीड 60 किलोमीटर प्रति घंटा की है.

ट्वेंटी टू मोटर्स ने औटो एक्सपो के दौरान अपना पहला इलेक्ट्रिक स्कूटर फ्लो लौन्च किया था जिसकी कीमत 74,740 रुपये रखी थी. इस स्कूटर में 2.1 किलोवाट इलेक्ट्रिक मोटर दी गई है, जो 90 न्यूटन मीटर का टौर्क जनरेट करती है.

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