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मिशन लव बर्ड्ज : दो दुखी प्रेमियों का क्या हो पाया मिलन

हम ने अपने दरवाजे के सामने खड़े अजनबी युवक और युवती की ओर देखा. दोनों के सुंदर चेहरों पर परेशानी नाच रही थी. होंठ सूखे और आंखों में वीरानी थी.

‘‘कहिए?’’ हम ने पूछा.

‘‘जी, आप के पास पेन और कागज मिलेगा?’’ लड़के ने थूक निगल कर हम से पूछा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं. मगर आप कुछ परेशान से लग रहे हैं. जो कुछ लिखना है अंदर आ कर आराम से बैठ कर लिखो,’’ हम ने कहा.

दोनों कमरे में आ कर मेज के पास सोफे पर बैठ गए.

‘‘सर, हम आत्महत्या करने जा रहे हैं और हमें आखिरी पत्र लिखना है ताकि हमारी मौत के लिए किसी को जिम्मेदार न ठहराया जाए,’’ लड़की ने निराशा भरे स्वर में बताया.

‘‘बड़ी समझदारी की बात है,’’ हमारे मुंह से निकला…फिर हम चौंक पडे़, ‘‘तुम दोनों आत्महत्या करने जा रहे हो… पर क्यों?’’

‘‘सर, हम आपस में प्रेम करते हैं और एकदूसरे के बिना जी नहीं सकते. मगर हमारे मातापिता हमारी शादी कराने पर किसी तरह राजी नहीं हैं,’’ लड़के ने बताया.

‘‘और इसीलिए हम यह कदम उठाने पर मजबूर हैं,’’ लड़की निगाह झुका कर  फुसफुसाई.

‘‘तुम दोनों एकदूसरे को इतना चाहते हो तो फिर ब्याह क्यों नहीं कर लेते? कुछ समय बाद तुम्हारे मांबाप भी इस रिश्ते को स्वीकार कर  लेंगे.’’

‘‘नहीं, सर, हमारे मातापिता को आप नहीं जानते. वे हम दोनों का जीवन भर मुंह न देखेंगे और यह भी हो सकता है कि हमें जान से ही मार डालें,’’ लड़के ने आह भरी.

‘‘हम अपनी जान दे देंगे मगर अपने मातापिता के नाम पर, अपने परिवार की इज्जत पर कीचड़ न उछलने देंगे,’’ लड़की की आंखों में आंसू झिलमिला उठे थे.

‘‘अच्छा, ऐसा करते हैं…मैं तुम दोनों के मातापिता से मिल कर उन्हें समझाऊंगा और मुझे भरोसा है कि इस मिशन में मैं जरूर कामयाब हो जाऊंगा. तुम मुझे अपनेअपने मांबाप का नामपता बताओ, मैं अभी आटो कर के उन के पास जाता हूं. तब तक तुम दोनों यहीं बैठो और वचन दो कि जब तक मैं लौट कर न आ जाऊं तुम दोनों आत्महत्या करने के विचार को पास न फटकने दोगे.’’

लड़के ने उस कागज पर अपने और अपनी प्रेमिका के पिता का नाम लिखा और पते नोट कर दिए.

हम ने कागज पर नाम पढ़े.

‘‘मेरे पिताजी का नाम ‘जी. प्रसाद’ यानी गंगा प्रसाद और इस के पिताजी ‘जे. प्रसाद’ यानी जमुना प्रसाद,’’ लड़के ने बताया.

‘‘और तुम्हारे नाम?’’ हम ने पूछा.

‘‘मैं राजेश और इस का नाम संगीता है.’’

राजेश ने अपनी जेब से पर्स निकाला और उस में से 500 का नोट निकाल कर हमारे हाथ पर रख दिया.

‘‘यह क्या है?’’ हम ने प्रश्न किया.

‘‘सर, यह आटो का भाड़ा.’’

‘‘नहींनहीं. रहने दो,’’ हम ने नोट लौटाते हुए कहा.

‘‘नहीं सर, यह नोट तो आप को लेना ही पड़ेगा. यही क्या कम है कि आप हमारे मम्मीडैडी से मिल कर उन्हें समझाबुझा कर राह पर लाएंगे,’’ लड़की यानी संगीता ने आशा भरी नजरों से हमारी आंखों में झांका.

हम ने नामपते वाला कागज व 500 रुपए का नोट जेब में रखा और घर के बाहर आ गए.

आटो में बैठेबैठे रास्ते भर हम राजेश और संगीता के मांबाप को समझाने का तानाबाना बुनते रहे थे.

उस कालोनी की एक गली में हमारा आटो धीरेधीरे बढ़ रहा था. सड़क के दोनों तरफ के मकानों पर लगी नेम प्लेटों और लेटर बाक्सों पर लिखे नाम हम पढ़ते जा रहे थे.

एक घर के दरवाजे पर ‘जी. प्रसाद’ की नेम प्लेट देख कर हम ने आटो रुकवाया.

‘‘जी. प्रसाद यानी गंगा प्रसाद… राजेश के डैडी का घर,’’ हम ने धीरे से कहा.

‘काल बैल’ के जवाब में एक 55-60 वर्ष के आदमी ने दरवाजा खोला. उन के पीछे रूखे बालों वाली एक स्त्री थी. दोनों काफी परेशान दिखाई दे रहे थे.

‘‘मैं आप लोगों से बहुत नाजुक मामले पर बात करने वाला हूं,’’ हम ने कहना शुरू किया, ‘‘क्या आप मुझे अंदर आने को नहीं कहेंगे?’’

दंपती ने एकदूसरे की ओर देखा, फिर हमें स्त्री ने अंदर आने का इशारा किया और मुड़ गई.

‘‘देखिए, श्रीमानजी, आप की सारी परेशानी की जड़ आप की हठधर्मी है,’’ हम ने कमरे में कदम रखते ही कहना शुरू किया, ‘‘अरे, अगर आप का बेटा राजेश अपनी इच्छा से किसी लड़की को जीवन साथी बनाना चाहता है तो आप उस के फटे में अपनी टांग क्यों अड़ा रहे हैं?’’

‘‘मगर मेरा बेटा…’’ अधेड़ व्यक्ति ने कहना चाहा.

‘‘आप यही कहेंगे न कि अगर आप का बेटा आप के कहे से बाहर गया तो आप उसे गोली मार देंगे,’’ हम ने बीच में उन्हें टोका, ‘‘आप को तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं. आप का बेटा और उस की प्रेमिका आत्महत्या कर के, खुद ही आप के मानसम्मान की पताका फहराने जा रहे हैं.’’

‘‘मगर भाई साहब, हमारा कोई बेटा नहीं है,’’ रूखे बालों वाली स्त्री ने रूखे स्वर में कहा.

‘‘मुझे मालूम है. आप गुस्से के कारण ऐसा बोल रही हैं,’’ हम ने महिला से कहा और फिर राजेश के डैडी की ओर मुखातिब हुए, ‘‘मगर जब आप अपने जवान बेटे की लाश को कंधा देंगे…’’

‘‘नहींनहीं, ऐसा हरगिज न होगा… मुझे मेरे बेटे के पास ले चलो.. मैं उस की हर बात मानूंगा,’’ अधेड़ आदमी ने हमारा हाथ पकड़ा, ‘‘मैं उस की शादी उस की पसंद की लड़की से करा दूंगा.’’

‘‘जरा रुकिए, मैं भी आप के साथ चलूंगी,’’ रूखे बालों वाली स्त्री बिलख पड़ी, ‘‘आप अंदर अपने कमरे में जा कर कपड़े बदल आएं.’’

पति ने वीरान नजरों से अपनी पत्नी की ओर देखा फिर दूसरे कमरे में चला गया.

पतिपत्नी पर अपने शब्दों का जादू देख कर हम मन ही मन झूम पड़े.

‘सुनिए भैयाजी,’’ महिला ने हम से कहा, ‘‘सच ही हमारा कोई बेटीबेटा नहीं है. 30 वर्षों के ब्याहता जीवन में हम संतान के सुख को तरसते रहे. हम ने अपनेअपने सगेसंबंधियों में से किसी के बच्चे को गोद लेना चाहा मगर सभी ने कन्नी काट ली. सभी का एक ही खयाल था कि हमारे घर पर किसी डायन का साया है जो हमारे आंगन से उठने वाली बच्चे की किलकारियों का गला घोंट देगी.’’

‘‘आप सच कह रही हैं? हमें विश्वास नहीं हो रहा था.’’

महिला ने सौगंध खाते हुए अपने गले को छुआ और बोली, ‘‘इस  सब से मेरे पति का दिमागी संतुलन गड़बड़ा गया है. पता नहीं कब किस को मारने दौड़ पड़ें.’’

उधर दूसरे कमरे से चीजों के उलटनेपलटने की आवाजें आने लगीं.

‘‘अरे, तुम  ने मेरा रिवाल्वर कहां छिपा दिया?’’ मर्द की दहाड़ सुनाई दी, ‘‘मुझ से मजाक करने आया है…जाने न देना…मैं इस बदमाश की खोपड़ी उड़ा दूंगा.’’

हम ने सिर पर पांव रखने के बजाय सिर पर दोनों हाथ रख बाहर के दरवाजे की ओर दौड़ लगाई और सड़क पर खड़े आटो की सीट पर आ गिरे.

आटो एक झटके से आगे बढ़ा. यह भी अच्छा ही हुआ कि हम ने आटोरिकशा को वापस न किया था.

दूसरी सड़क पर आटो धीमी गति से बढ़ रहा था.

एक मकान पर जे. प्रसाद की पट्टी देख हम ने आटो रुकवाया.

‘‘जमुना प्रसादजी?’’ हम ने काल बैल के जवाब में द्वार खोलने वाले लंबेतगड़े मर्द से पूछा. उस के होंठ पर तलवार मार्का मूंछें और लंबीलंबी कलमें थीं.

‘‘जी,’’ उस ने कहा और हां में सिर हिलाया.

‘‘आप की बेटी का नाम संगीता है?’’

‘‘हां जी, मगर बात क्या है?’’ मर्द ने बेचैनी से तलवार मार्का मूंछों क ो लहराया.

‘‘क्या आप गली में अपनी बदनामी के डंके बजवाना चाहते हैं? मुझे अंदर आने दीजिए.’’

‘‘आओ,’’ लंबातगड़ा मर्द मुड़ा.

ड्राइंगरूम में एक सोफे पर एक दुबलीपतली सुंदर महिला बैठी टेलीविजन देख रही थी. हमें आया देख उस ने टीवी की आवाज कम कर दी.

‘‘कहो,’’ वह सज्जन बोले.

हमें संगीता के पिता पर क्रोध आ रहा था. अत: तमक कर बोले, ‘‘अपनी बेटी के सुखों को आग दिखा कर खुश हो रहे हो? अरे, जब बेटी ही न रहेगी तो खानदान की मानमर्यादा को क्या शहद लगा कर चाटोगे?’’

‘‘क्या अनापशनाप बोले जा रहे हो,’’ उस स्त्री ने टीवी बंद कर दिया.

‘‘आप दोनों पतिपत्नी अपनी बेटी संगीता और राजेश के आपसी विवाह के खिलाफ क्यों हैं. वे एकदूसरे से प्यार करते हैं, दोनों जवान हैं, समझदार हैं फिर वे आप की इज्जत को बचाने के लिए अपनी जान न्योछावर करने को भी तैयार हैं.’’

‘‘ए… जबान को लगाम दो. हमारी बेटी के बारे में क्या अनापशनाप बके जा रहे हो?’’ मर्द चिल्लाया.

‘‘सच्ची बात कड़वी लगती है. मेरे घर में तुम्हारी बेटी संगीता अपने प्रेमी के कांधे पर सिर रखे सिसकियां भर रही है. अगर मैं न रोकता तो अभी तक उन दोनों की लाशें किसी रेलवे लाइन पर कुचली मिलतीं.’’

‘‘ओ…यू फूल…शटअप,’’ मर्द ने हमारा कालर पकड़ लिया.

‘‘हमारी बेटी घर में सो रही है,’’ उस महिला ने कहा.

‘‘हर मां अपनी औलाद के कारनामों पर परदा डालने की कोशिश करती है और पिता की आंखों में धूल झोंकती है. लाइए अपनी बेटी संगीता को, मैं भी तो देखूं,’’ हम ने अपना कालर छुड़ाया.

सुंदर स्त्री सोफे से उठ कर दूसरे कमरे में चली गई और फिर थोड़ी देर बाद एक 8-9 साल की बच्ची की बांह पकड़े ड्राइंगरूम में लौटी. बच्ची की अधखुली आंखें नींद से बोझिल हो रही थीं.

‘‘यह आप की बेटी संगीता है?’’ हम ने फंसेफंसे स्वर में पूछा.

‘‘हां,’’ तलवार मार्का मूंछें हम पर टूट पड़ने को तैयार थीं.

‘‘और आप के घर का दरवाजा?’’ हमारे मुंह से निकला.

‘‘यह,’’ इतना कह कर लंबेतगडे़ मर्द ने हमें दरवाजे की ओर इस जोर से धकेला कि हम बाहर सड़क पर खड़े आटो की पिछली सीट पर उड़ते हुए जा गिरे.

कालोनी की बाकी गलियां हम खंगालते रहे. कालोनी की आखिरी गली के आखिरी मकान पर गंगा प्रसाद की नेम प्लेट देख हम ने आटो रुकवाया.

‘‘किस से मिलना है?’’ 10-12 वर्ष के लड़के ने थोड़ा सा दरवाजा खोल हम से पूछा.

‘‘राजेश के मम्मीपापा से,’’ हम ने छोटा सा उत्तर दिया.

‘‘आओ,’’ लड़के ने कहा.

ड्राइंगरूम में 60-65 वर्ष का मर्द पैंटकमीज पहने एक सोफे पर बैठा था. एक दूसरे सोफे पर सूट पहने, टाई बांधे एक और सज्जन विराजमान थे. उन के पास रखे बड़े सोफे पर 20-22 साल की सुंदर लड़की सजीधजी बैठी थी. उस के बगल में एक अधेड़ स्त्री और दूसरी ओर  एक ब्याहता युवती बैठी थी. इन सभी के चेहरों पर खुशी की किरणें जगमगा रही थीं. सभी खूब सजेसंवरे थे.

पैंटकमीज वाले सज्जन के चेहरे पर गिलहरी की दुम जैसी मूंछें थीं. सभी हंसहंस कर बातें कर रहे थे, केवल वह सजीधजी लड़की ही पलकें झुकाए बैठी थी.

‘‘पापा, यह आप से मिलने आए हैं,’’ लड़के ने गिलहरी की दुम जैसी मूंछों वाले से कहा.

सामने दरवाजे से 50-55 साल की भद्र महिला हाथों में चायमिठाई की टे्र ले कर आई और उस ने सेंटर टेबल पर टे्र टिका दी.

‘‘आप राजेश के पापा हैं?’’

‘‘हां, और यह राजेश के होने वाले सासससुर और उन की बेटी, यानी राजेश की होने वाली पत्नी…हमारी होने वाली बहू और साथ में…’’ गिलहरी की दुम जैसी मूंछों तले लंबी मुसकराहट नाच रही थी.

‘‘आप राजेश के पापा नहीं… जल्लाद हैं,’’ राजेश की मंगनी की बात सुन कर हमारा खून खौल उठा, ‘‘यह जानते हुए कि राजेश किसी और लड़की को दिल से चाहता है, आप उस की शादी किसी और से करना चाहते हैं? आप राजेश के सिर पर सेहरा देखने के सपने संजो रहे हैं और वह सिर पर कफन लपेटे अपनी प्रेमिका संगीता के गले में बांहें डाले किसी टे्रन के नीचे कट मरने या नदी में कूद कर आत्महत्या करने जा रहा है.’’

‘‘क्या बक रहे हो?’’ राजेश के पापा का चेहरा क्रोध से काला पड़ गया.

‘‘जानबूझ कर अनजान मत बनो,’’ हम ने राजेश के पापा को कड़े शब्दों में जताया, ‘‘राजेश ने आप को सब बता रखा है कि वह संगीता से प्यार करता है और उस के सिवा किसी और लड़की को गले लगाने के बजाय मौत को गले लगा लेगा,’’ हम बिना रुके बोलते गए, ‘‘मगर आप की आंखों पर तो लाखों के दहेज की पट्टी बंधी हुई है.’’

हम थोड़ा दम लेने को रुके.

‘‘और आप,’’ हम राजेश के होने वाले ससुर की ओर पलटे, ‘‘धन का ढेर लगा कर क्या आप अपनी बेटी के लिए दूल्हा खरीदने आए हैं? आप की यह बेटी जिसे आप सुर्ख जोड़े और लाल चूड़े में देखने के सपने सजाए बैठे हैं, विधवा की सफेद साड़ी में लिपटी होगी.’’

‘‘भाई साहब, यह सब क्या है?’’ लड़की की मां ने राजेश के पापा से पूछा.

‘‘यह…यह…कोरी बकवास..कर रहा है,’’ राजेश के पापा ने होने वाली समधन से कहा.

‘‘हांहां… हमारा राजेश हरगिज ऐसा नहीं है…मैं अपने बेटे को अच्छी तरह जानती हूं,’’ चाय की टे्र लाने वाली महिला बोली, ‘‘यह आदमी झूठा है, मक्कार है.’’

‘‘आप लोग मेरे घर चल कर राजेश से स्वयं पूछ लें,’’ हम ने लड़की की मां से कहा फिर उस के पति की ओर देखा, ‘‘आप लोगों को पता चल जाएगा कि मैं झूठा हूं, मक्कार हूं या ये लोग रंगे सियार हैं.’’

‘‘राजेश तुम्हारे घर में है?’’ लड़की के डैडी ने पूछा.

‘‘जी हां,’’ हम ने गला साफ किया, ‘‘वह अपनी प्रेमिका संगीता के साथ आत्महत्या करने जा रहा था कि मैं ने उन्हें अपने घर में बिठा कर इन को समझाने चला आया.’’

‘‘मगर राजेश तो इस समय अपने कमरे में है,’’ राजेश के पिता ने अपने समधीसमधन को बताया.

‘‘बुलाइए…अभी दूध का दूध पानी का पानी हो जाता है,’’ हम ने राजेश के डैडी को चैलेंज किया.

‘‘राजेश,’’ राजेश के डैडी चिल्लाए.

‘‘और जोर से पुकारिए…आप की आवाज मेरे घर तक न पहुंच पाएगी,’’ हम ने व्यंग्य भरी आवाज में कहा.

‘‘क्या हुआ, डैडी?’’ पिछले दरवाजे की ओर से स्वर गूंजा.

एक 27-28 वर्ष का युवक, सूट पहने, एक जूता पांव में और दूसरा हाथ में ले कर भागता हुआ कमरे में आया.

‘‘आप इतने गुस्से में क्यों हैं, डैडी?’’ युवक ने पूछा.

‘‘राजेश, देखो यह बदमाश क्या बक रहा है?’’

‘‘क्या बात है?’’ नौजवान ने कड़े शब्दों में हम से पूछा.

‘‘त…तुम… राजेश?’’ हम ने हकला कर पूछा, ‘‘और यह तुम्हारे डैडी?’’

‘‘हां.’’

‘‘फिर उस राजेश के डैडी कौन हैं?’’  हमारे मुंह से निकला.

और फिर हम पलट कर बाहर वाले दरवाजे की ओर सरपट भागे.

‘‘पकड़ो इस बदमाश को,’’ राजेश के डैडी चिंघाड़े.

‘‘जाने न पाए,’’ राजेश के होने वाले ससुर ने अपने होने वाले दामाद को दुत्कारा.

राजेश एक पांव में जूता होने के कारण दुलकी चाल से हमारे पीछे लपका.

हम दरवाजे से सड़क पर कूदे और दूसरी छलांग में आटोरिकशा में थे.

आटो चालक शायद मामले को भांप गया था और दूसरे पल आटो धूल उड़ाता उस गली को पार कर रहा था.

अपने घर से कुछ दूर हम ने आटोरिकशा छोड़ दिया. हम ने 500 रुपए का नोट आटो ड्राइवर को दे दिया था. कुछ रुपए तो आटो के भाड़े में और बाकी की रकम 3 स्थानों पर जान पर आए खतरों से हमें बचाने का इनाम था.

हम भारी कदमों से अपने घर के दरवाजे पर पहुंचे. पूरा रास्ता हम राजेश और संगीता को अपने मिशन की नाकामी की दास्तान सुनाने के लिए उपयुक्त शब्द ढूंढ़ते आए थे. हमें डर था कि इतनी देर तक इंतजार की ताव न ला कर उन ‘लव बर्ड्ज’ ने आत्महत्या न कर ली हो.

धड़कते दिल से हम घर के बंद दरवाजे के सामने खड़े हो कर अंदर की आहट लेते रहे.

घर के अंदर से कोई आवाज नहीं आ रही थी. मौत की सी खामोशी थी. जरूर उन प्रेम पंछियों को हमारी असफलता का भरोसा हो गया था और उन्होंने मौत को गले लगा लिया होगा.

धड़कते दिल से काल बेल का बटन पुश करने के बाद भी जब दरवाजा नहीं खुला तो हम ने दरवाजे पर जोरदार टक्कर मारी और फिर औंधे मुंह हम कमरे में जा पड़े.

दरवाजा बंद न था.

हम ने उस प्रेमी जोड़े की तलाश में इधरउधर नजरें दौड़ाईं. मगर वे दोनों गायब थे. साथ ही गायब था हमारा नया टेलीविजन, वी.सी.आर. और म्यूजिक सिस्टम.

हम जल्दी से उठ खडे़ हुए और स्टील की अलमारी की ओर लपके. अलमारी का लाकर खुला हुआ था और उस में रखी हाउस लोन की पहली किस्त की पूरी रकम गायब थी…

हमारी आंखों तले अंधेरा छा गया. जरूर वह ठगठगनी जोड़ी बैंक से ही हमारे पीछे लग गई थी.

उस प्रेमी युगल की गृहस्थी बसातेबसाते हमें अपनी गृहस्थी उजड़ती नजर आ रही थी क्योंकि आज शाम की गाड़ी से हमारे नए मकान के निर्माण का सुपरविजन करवाने को लीना अपने बलदेव भैया को साथ ले कर आ रही थी.

स्वर्ग : अपराधबोध से आजादी

‘स्वर्ग’ के एयरपोर्ट से निकलते ही चारों तरफ बिखरी बर्फ ने मन मोह लेने वाला स्वागत किया. यदि मेरी जगह कोई और होता तो जरूर उस के मुख से विस्मय की चीख निकलती और वह इन नजारों को देख हतप्रभ रह जाता. लेकिन अफसोस, मेरी जगह मैं ही था और मेरे लिए इस जगह के माने कुछ और ही थे. मैं ने पहले ही हर विस्मित करने वाले दृश्य को सिरे से नकारने का फैसला कर लिया था.

कुछ जगहों की अप्रतिम सुंदरता भी वहां हुई दुर्घटनाओं को कभी ढक नहीं सकती.

हालांकि निश्चय तो मैं ने यह भी किया था कि कभी दोबारा कश्मीर नहीं आऊंगा पर मां की इच्छा थी कि फिर से कश्मीर देखना है. उन्होंने जब पहली बार यह बात कही तो मैं चौंक गया था और देर तक उन के चेहरे को पढ़ता रहा था. मुझे यकीन था कि इस बात का जिक्र करते वक्त मैं ने उन की आंखों में एक क्षणिक चमक देती थी, ऐसी चमक जो अवश्य किसी ऐसे कैदी की आंखों में होती होगी जिसे बीते कई अरसों से कोई बंधन जकड़े हो और बहुत जद्दोजेहद के बाद वह कैदी अपनी बेडिय़ां तोड़ आजाद होने को तैयार हुआ हो.

जिस जगह के नाम से हम इतने सालों बचते रहे और जिस का कोई जिक्र भी करे तो हम सब कांप जाते, उस जगह का नाम यों बेबाकी से, बिना विचलित हुए उन्हें लेते देख पूरे शरीर में एक बिजली सी कौंध गई थी. पर मां के सामने विरोध करने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाया पाया था.

वजह शायद यह कि इसे हम बीते काफी समय में मां द्वारा प्रकट की गई पहली इच्छा कहें तो गलत नहीं होगा क्योंकि मां ने पिताजी की मौत के बाद अपनी डिमांड रखना बंद कर दिया था, जोकि पहले उन की क्षमता का मानक और पिताजी के लिए उन का पूर्ण समर्पित प्रेम लगता था, पर समय के साथसाथ पहले यह उन को पहुंचे सदमे का संघर्ष, और फिर हम पांच भाईबहनों को अपनी विफलता नजर आने लगी.

सब से बड़ा बेटा होने के कारण मेरी जिम्मेदारियों का चोगा कुछ अधिक लंबा था, इसलिए मेरी नजर में यह भी था कि धीरेधीरे मां इंसान से अधिक हाड़मांस का बना एक व्यवस्थित और संतुलित पुतला नजर आने लगी हैं. उन के सारे भाव सतही होने लगे थे जिस बात से केवल मैं अनभिज्ञ नहीं था. घर के बाकी सभी सदस्य अब इस बाबत खुश थे कि मां ने आखिरकार अपनी कोई दिली ख्वाहिश जाहिर की थी. और क्योंकि मां की यह भी शर्त थी कि सफर में सिर्फ मां और मैं जाएंगे, इसलिए सभी मुझे बहलाफुसला कर मां के साथ जाने के लिए तैयार कर रहे थे. कौनकौन सी जगहें हैं जिन्हें हम देखेंगे, यह सब मां ने पहले ही सुयोजित कर लिया था.

हम एयरपोर्ट से सीधे पहलगाम गए, फिर वहां से सोनमर्ग. दिसंबर का महीना था. हर जगह ताजी बर्फ बिखरी थी. सफेदी में नहाए कश्मीर के जादू से मंत्रमुग्ध न होने वाले मेरे जैसे कोई बिरले ही होते होंगे.

हम ने दोनों ही जगहों पर केवल 2 काम किए थे- पहला, एक बैंच ढूंढना और उस पर बैठ पूरे दिन पहाड़ों को देखना हालांकि जैसे ही मुझे लगता कि नजारों की खूबसूरती मुझे चकाचौंध कर रही है, मैं अपने जेहन में पुरानी घटना को ताजा कर लेता. दूसरा, अपने आसपास तरहतरह के सैलानियों के झुरमुट को घोड़े वालों को स्लेजवालों से भावतोल करते देखना और उन की जिंदगियों के बारे में अनुमान लगाना. हां, मैं ने एक तीसरा काम भी किया था, दूर पहाड़ों के शून्य में देखतेदेखते कभी मैं यह भी अनुमान लगाने की कोशिश करता कि मां इस वक्त क्या सोच रही होगी, क्या वजह होगी कि वह कश्मीर आना चाहती थी, कहीं वह पिताजी की याद में यहां से…?

नहीं, मैं ने खुद को झकझोरा, मां यों हम सब को छोड़ कर थोड़ी… तीसरा और आखिरी दिन गुलमर्ग जाने का था. मैं ने तय किया कि मन में कुलबुला रहे सवाल को आज आवाज दी जानी चाहिए. सोनमर्ग से गुलमर्ग जाने का रास्ता लगभग साढ़े 3 घंटे का था. बीते दिनों की तरह गाड़ी में बैठ पहला आधा घंटा मां और मैं तरहतरह की बातें करते रहे. मां अपने बचपन के, परिवार के, पिताजी के कई किस्से सुनाती और फिर जब थक जाती तो खिडक़ी से बाहर चलते नजारों को देखने लगती. आज भी यही हुआ.

पर मैं सवाल करने के लिए सही मौके की तलाश में था. जरा हिम्मत होती तो शब्द जैसे भीतर ही जमे रह जाते. मैं मां को देखता तो अचानक एक रुलाई अंदर उमड़ती, बिना किसी कारणवश.

मैं सोचता रहा और हम गुलमर्ग पहुंच गए.

‘‘यहां हम केवल बैंच पर नहीं बैठेंगे, फेज टू तक का गोंडोला भी करेंगे,’’ मां ने कहा.

मैं आतंकित हो उठा. शायद मुझे जिस बात का संदेह था… मैं मां से इनकार करता कि मां ने फिर कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो.’’

जैसे मां जानती थी मैं क्या सोच रहा हूं. वह सब कुछ जो मेरे भीतर चल रहा था, सारी ऊहापोह वह मेरे आरपार देख सकती थी जैसे मैं पारदर्शी था.

मां की इच्छा रखनी थी और अगले ही क्षण मैं ने खुद को गोंडोला में पाया.

फेज 2 तक का सफर बहुत हसीं था. स्वर्ग (जिस की कल्पना हम सब करते हैं) का नूर यहां बरसता था. मगर मेरे लिए नहीं.

नहीं, मैं ने नजारों को ललकारा- देखो, मैं तुम से प्रभावित नहीं हूं. मेरे लिए तुम स्वर्ग नहीं, नरक (जिस की कल्पना हम सब जैसी भी करते हैं) हो.

फेज 2 पर उतर कर अब मैं और मां फिर उस गहरी घाटी के आमनेसामने थे. इतना साहस मुझ में नहीं था कि मैं फिर वहीं कदम रखूं. वहीं जहां वह हृदयविदारक घटना हुई थी.

पर मां मेरा हाथ पकड़ मुझे वहां ले गई और कुछ पन्ने मुझे देने लगी. मां की आंखों में फिर वह चमक थी.

‘‘ये कमलजीत की अस्थियां हैं. इन्हें यहीं से घाटी की फिजाओं के सुपुर्द कर दो.’’

मैं नहीं समझा, मां का क्या मतलब था और इस से पहले कि मैं कोई सवाल करता, उन के फिर कहने पर मैं ने उन पन्नों को पढऩा शुरू किया.

‘‘मैं नहीं जानता तुम्हें यह खत कब मिलेगा, पर जब भी तुम इसे ढूंढ लो, तो पढऩे के बाद इस का क्या करना है, यह निर्णय मैं तुम पर छोड़ता हूं.

“कोई खास तनाव नहीं है. वही रोजमर्रा की परेशानियां जो अमूमन सभी को झेलनी पड़ती हैं. पर एक बोझ है जिस का वजन इतने सालों उठा कर मेरे कंधे उक्ता गए हैं. हां, लेकिन खुशियां बहुत हैं. गिनूं तो शायद उंगलियां कम पड़ जाएं. शायद तुम हंसो कि यह कैसा सिरफिरापन है,

कोई अनगिनत खुशियों के कारण थोड़ी अपनी इच्छा से दुनिया छोड़ता है. पर तुम जानती हो मुझे हमेशा से इस बात से नफरत रही कि आत्महत्या को केवल दुनिया से हारे गुए लोगों से जोड़ा जाता है. देखो, मैं यह बात बदलने वाला हूं, ऐसा व्यक्ति और जी कर क्या करेगा जिस ने वह सब पा लिया हो जितना वह पा सकता है.

“और कहूंगा कि दुनिया में मुझ से बड़े सनकी भरे हैं. हां, चलो, तुम इसलिए तो मुसकराई कि मैं ने यह माना की मैं सनकी हूं.

“जब जिंदगी इतनी भरीपूरी रही हो, कामयाबी के उच्चतम शिखर पर मां ने मुझे देखा हो, कदम से कदम मिला कर चलने वाली पत्नी हो, 5 ऊंचे ओहदों पर पहुंची औलादें हों, उन की अपनी स्वस्थ औलादें हों तो दुनिया को हराने का पागलपन तो भीतर आ ही जाएगा.

“देखो, मैं ने फिर फुजूल बातें शुरू कर दीं. तुम्हारे सामने ये सब बातें दोहराना फुजूल ही तो है. तुम ने तो ये सारे दिन मेरे साथ देखे हैं, जिए हैं.

“पर अब जो मैं चला जाऊंगा, एक बात है जो मैं कन्फैस करना चाहता हूं. मुझे पता है, तुम्हें कई बार शक हुआ और शायद वह शक यकीन में भी बदला हो, पर तुम ने मुझ से कोई सवाल नहीं किया. मैं ने कई दफा सोचा था कि यदि तुम मुझ से पूछोगी तो मैं क्या जवाब दूंगा, कैसे अपनी मजबूरियां गिनाऊंगा, गिड़गिड़ाऊंगा, कितनी मिन्नतें करूंगा. पर तुम ने मुझे यह मौका नहीं दिया. मुझे इस बात का अंदाजा था कि तुम्हें लगता रहा कि सवाल के जवाब में मैं तुम्हें छोड़ दूंगा. पर नहीं, तुम मुझे इस से बेहतर जानती हो. मैं तुम्हें जीतेजी कभी नहीं छोड़ सकता था. पत्नी का दर्जा प्रेमिका से ऊंचा रहता है.

“और अब तुम्हारे सवाल न करने के बावजूद मैं तुम्हें जवाब देना चाहता हूं. परिवार, बच्चों, घरबार से परे केवल हम दोनों के हिस्से का जवाब.

तुम में कोई कमी नहीं है. कोई ऐसी बात नहीं जिस पर मैं उंगली रख सकूं और कहूं कि इस कारण मैं किसी दूसरी औरत के चक्कर में पड़ा.

तुम ने मुझे अपना परमेश्वर माना और मुझ से बेइन्तहा निश्च्छल प्रेम किया. यहां तक कि मुझे हैरत होती है कि  मेरी जिंदगी में तुम कैसे लिखी गईं. सब हमें देखते और रश्क करते कि शादी तो इन की तरह निभाई जाती है. और मुझे लगता, मैं भी उन देखने वालों का हिस्सा हूं और सिर्फ तुम से कह रहा हूं कि शादी तो इन की तरह निभाई जाती है.

“पर तुम जानती हो कि हम इतने सालों एक झूठ जीते रहे. मेरा झूठ. जिस ने तुम्हारे सच को भी मैला कर दिया. इस बोझ ने मेरे अंदर इतनी ग्लानि भर दी है कि मैं इस घाव को रोज कुरेदता रहा हूं और इस का खुरंट खुद पर मलता रहा.

“लेकिन अब मैं तुम्हें खुद से आजादी देना चाहता हूं, यह भी शायद मेरा ही स्वार्थ है और मैं तुम्हें नहीं, खुद को एक अपराधबोध से आजाद कर रहा हूं.

“पत्नी के रूप में मैं ने हमेशा तुम से प्रेम किया. और मैं हर जन्म में तुम सी पत्नी मांगा करता था, पर यह तुम्हारे साथ अन्याय है.

“इसलिए अब मैं अपनी आखिरी इच्छा में मांगता हूं. हर जन्म में तुम्हारे लिए ऐसा हमसफर जो तुम से इतना ही प्यार करे जितना तुम मुझ से करती हो, और सिर्फ तुम से ही प्यार करे.”

“मां, यह खत आप को कब और कहां मिला?

“आप और पिताजी तो एकसाथ हमेशा इतने खुश थे…

“यह दूसरी औरत…?”

ये सवाल बेमानी लगते हुए मेरे भीतर ही घुट गए और अचानक सबकुछ खुदबखुद सैंस बनाने लगा.

मेरे दिमाग ने मेरे साथ खेल किया और पुरानी यादें किसी चलचित्र की भांति सामने चलने लगीं.

लेकिन यह क्या? स्मृति कुछ उलट थी और मेरी आंखें मुझे धोखा दे रही थीं. पिताजी मेरे साथ बैठे थे पर मां कहीं नहीं थी जबकि आसपास के लोग चिल्ला रहे थे.

‘अरे, मैडम का पैर फिसल गया. बचाओ मैडम को. अरे, मैडम खाई में गिर रही है.’

मैं ने डर के कारण अपनी आंखें भींच लीं. और मां को अपना हाथ पकड़ते महसूस किया.

लेखिका – जूही

सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की होड़ में यूट्यूब पर अश्लील भोजपुरी गाने परोसते गायक

यूट्यूब पर भोजपुरी गानों में अश्लीलता परोसने वाले अगर गायकों और गीत के बोल की बात करें तो खेसारी लाल यादव का गीत निम्बू खरबूजा भईल, पलंग सागवान के और गायक पवन सिंह अपने गीतों छलकत ‘हमरो ई जवनिया राजा’, ‘चाची के बाची सपनवां में आती है’, ‘राते दिया बुता के पिया क्या क्या किया’ भोजपुरी गाने के लिए यूजर्स के निशाने पर आ चुके हैं और ट्रोल भी हो चुके हैं.

इसी लिस्ट में गायक राकेश मिश्रा अपने सुपरहिट गीत ‘राजा तनी जाई न बहरिया’ के लिए उन्हें ट्रोल किया गया और कहा गया था कि इस गाने के बोल अश्लील हैं.

गायिकाओं की बात करें तो अंतरा सिंह, प्रियंका की गिनती भी भोजपुरी इंडस्ट्री में अश्लील गाना गाने वाले लोगों में होती है और वह भी कई बार उन के गाने के बोल को ले कर ट्रोल हो चुकी हैं.

भोजपुरी युवा दिलों पर राज करने वाले सिंगर व एक्टर अरविंद अकेला कल्लू भी ‘गली में आज चांद नहीं माल आईल बा’ भी इसी लिस्ट का हिस्सा है.

इन अश्लील भोजपुरी गीतों को पसंद करने वालों में सब से नंबर वन पर ट्रक और ट्रैक्टर के ड्राइवर रहते हैं. ड्राइवर ऐसे गाने को खुद तो सुनते ही हैं. ट्रक-ट्रैक्टर पर लगे स्पीकर को तेज आवाज में बजा कर दूसरे को भी सुनाते हैं. इन की हरकतों से सब से अधिक महिलाएं और लड़कियां परेशान होती हैं. कई बार तो आटो वाले भी कम नहीं होते. वह भी महिला यात्रियों को देख गंदे गाने बजाने लगते हैं.

ऐसे ही होली के मौके पर अश्लील भोजपुरी गानों की यूट्यूब पर भरमार है. और तो और सिंगर खुद इन गीतों के लिंक लोगों के साथ शेयर कर रहे हैं. ये गायक भाभी से ले कर साली तक को जोड़ कर अश्लील गाना बनाते हैं. इन्हीं गानों के चलते भाभी और साली को सैक्सुअलाइज कर दिया गया है. इन्होंने जैसे परमिशन दे दी है कि कोई किसी की साली है या भाभी है तो उसे छेड़छाड़ करने का फ्री पास है.

कई गीतों के तो ऐसेऐसे बोल हैं कि सुन कर किसी का भी दिमाग चकरा जाए – जैसे ‘पटक के * देम’, ‘करुआ तेल’, ‘आग लग जाता * में’, ‘चाटा तो चाटा * से न काटा’. पुरुष सिंगर तो अश्लील गीत गाने में शुरू से ही आगे रहे हैं लेकिन अब महिला सिंगर भी पीछे नहीं हैं और वे भी जम कर अश्लील भोजपुरी गीत गा रही हैं. इन के गाने अकसर महिलाओं के गुप्तांगों पर केंद्रित होते हैं. गाने जिस में डोढ़ी, कमर, गाल, होंट, ब्लाउज, पेटीकोट, जांघ इत्यादि आते ही हैं. भाभी और साली के रिश्ते ऐसे घसीटे जाते हैं जैसे ये रिश्ते इसीलिए बने हैं.

दोषी सिर्फ निचला वर्ग नहीं

इन अश्लील गीतों को बढ़ावा देने में सिर्फ निचले वर्ग को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि इन गीतों को समाज का हर तबका देख रहा है. जैसे नम्रता मल्ला का गाना ‘चढ़ल जवानी रसगुल्ला’ को 19 करोड़ लोगों ने यूट्यूब पर देखा है. शिवानी सिंह और पारुल यादव का ‘सेंट गमकउआ’ गाने को लगभग 35 करोड़ लोगों ने देखा है. अब ये गाने हर कोई देख रहा है.

निचला तबका इन अश्लील गीतों को देखने के लिए सिर्फ इसलिए बदनाम होता है क्योंकि इन गीतों को वह सब के सामने खुलेपन में सुनता है लेकिन यूट्यूब पर इन फूहड़ और अश्लील भोजपुरी गीतों को करोड़ों की संख्या में लोग देखते हैं.

लोगों की पसंद हैं ये अश्लील गीत

भोजपुरी गीतों के अश्लील होने के पीछे पहला कारण है इसे सुनने वाला तबका, दूसरा ऐसे गीतों का चुनाव करने वाले लोगों की समझ. ऐसे गीतों को देखने वालों में ज्यादातर वे नौजवान होते हैं जो अनपढ़ या फिर कम पढ़ेलिखे होते हैं और जो ज्यादातर मजदूर श्रेणी का काम करते हैं, उन्हे गीतों के बोल से कोई भी मतलब नहीं होता. उन्हें बस कोई ऐसा गीत चाहिए होता है जिसे देख कर उन की सैक्स की भूख शांत हो जाए और वे अपने दिन भर की थकान भूल जाएं.

ये दर्शक तड़कतेभड़कते गीतों को शालीन गीतों के मुकाबले ज्यादा महत्व देते हैं. ऐसे गीतों की रचना करने वाले भी ऐसे ही तरह के गीत बनाते हैं जो इस कैटेगरी के लोगों को पसंद आए.

टैक्नोलौजी भी है दोषी

भोजपुरी सिंगर्स की इन दिनों हर रोज कोई नई एलबम रिलीज हो रही है और इस में उन की मदद करता है औटोट्यून सौफ्टवेयर. इस तकनीक में कंप्यूटर में पहले से ट्रैक के हिसाब से अश्लील और फूहड़ शब्दों को ले कर कुछ ही घंटे में गाना लिख दिया जाता है और औटोट्यून सौफ्टवेयर उसे ठीक कर देता है. इसी वजह से रोज स्टूडियो में 1000-2000 रुपए में दर्जनों गाने रिकौर्ड हो रहे हैं और इन का प्रचारप्रसार खुद बड़ेबड़े भोजपुरी के सिंगर कर रहे हैं और अपने अश्लील गानों को लोगों से अधिक से अधिक देखने और शेयर करने की भी अपील कर रहे हैं.

डबल मीनिंग, सैक्सिज़्म और हाइपर सैक्शुएलिटी परोसते गीत

ये अश्लील गाने भोजपुरी भाषा की गरिमा बिगाड़ रहे हैं और जब से देश में सस्ता इंटरनेट लोगों तक पहुंच गया है, तब से ऐसे फूहड़पने वाले गानों के यूट्यूब पर मिलियंस में व्यूज होते हैं. डबल मीनिंग, सेक्सिज़्म और हाइपर सैक्सुएलिटी वाले ये गीत लोगों की पसंद बन रहे हैं.

इन बेहूदा अश्लील भोजपुरी गीतों को बनाने वाले भोजपुरी गायक व्यूज पाने के लिए इस प्रकार के गाने रिलीज कर खुद तो पैसा बना लेते हैं लेकिन दर्शकों के मन में गंदे, काम वासना से भरे विचार दे देते हैं और आपराधिक घटनाओं को जन्म देते हैं. हालात तो ऐसे हैं कि हर आटो वाले, दुकान वाले इन गानों को धड़ल्ले से बजाते हैं.

गाने के बोलों को तो छोड़िये, गाने में दिखाए जाने वाले दृश्य तो फूहड़पने को पराकाष्ठा तक पंहुचा देते हैं. इन गीतों में साफ तौर पर अश्लीलता परोसी जाती है. ऐसे घटिया गानों ने महिलाओं को एक भोग-विलास की वस्तु के रूप में प्रकट कर के रख दिया है. आलम तो ये है कि लोग बड़े शौक से “लौलीपौप लागे लू” जैसे गाने अपनी शादीब्याह के कार्यक्रमों में भी बजवाने लगे हैं.Community-verified icon

सिरफिरे बौयफ्रेंड ने पिता को धमकी दे कर किया बेटी का कत्ल

प्रियंका और कृष्णा प्यार की पींगें भर रहे थे. दोनों का प्यार दोस्तों के बीच चर्चा का विषय बन गया था. कृष्णा तिवारी की उम्र जहां 25 वर्ष थी, वहीं प्रियंका श्रीवास 21 साल की थी. दोनों अकसर छत्तीसगढ़ के बिलासपुर शहर की सड़कों पर एकदूसरे का हाथ थामे घूमते हुए दिख जाते.  कृष्णा उसे अपनी बुलेट मोटरसाइकिल पर भी घुमाता था. दोनों का प्रेम परवान चढ़ रहा था.

कृष्णा तिवारी उर्फ डब्बू मूलत: कोनी, बिलासपुर का रहने वाला था और प्रियंका पास के ही बिल्हा शहर के मुढ़ीपार गांव की थी. वह बिलासपुर में अपने मौसा जोगीराम के यहां रह कर बीए फाइनल की पढ़ाई कर रही थी.

एक दिन कृष्णा ने शहर के विवेकानंद गार्डन में घूमतेघूमते प्रियंका से कहा, ‘‘प्रियंका, आज मैं तुम से एक बहुत खास बात कहने जा रहा हूं,जिस का शायद तुम्हें बहुत समय से इंतजार होगा.’’

‘‘क्या?’’ प्रियंका ने स्वाभाविक रूप से कहा.   ‘‘मैं तुम से शादी करना चाहता हूं,’’ कृष्णा बोला, ‘‘मैं चाहता हूं कि हम दोनों शादी कर लें या फिर घरपरिवार से कहीं दूर भाग चलें.’’

‘‘नहींनहीं, मैं भाग कर शादी नहीं कर सकती, वैसे भी अभी मैं पढ़ रही हूं. शादी होगी तो मेरे मातापिता की सहमति से ही होगी.’’

‘‘तब तो प्यार भी तुम्हें मम्मीपापा की आज्ञा ले कर करना चाहिए था.’’ कृष्णा ने उस की खिल्ली उड़ाते हुए मीठे स्वर में कहा.

‘‘देखो, प्यार और शादी में बहुत बड़ा फर्क है. तुम मुझे अच्छे लगे तो तुम से दोस्ती हो गई और फिर प्यार हो गया.’’ प्रियंका ने सफाई दी.

‘‘अच्छा, यह तो बड़ी कृपा की आप ने हुजूर.’’ कृष्णा ने विनम्र भाव से कहा, ‘‘अब कुछ और कृपा बरसाओ, मेरी यह इच्छा भी पूरी करो.’’

‘‘देखो डब्बू, तुम मेरे पापा को नहीं जानते. वह बड़े ही गुस्से वाले हैं. मैं मां को तो मना लूंगी मगर पापा के सामने तो बोल तक नहीं सकती. वो तो अरे बाप रे…’’ कहतेकहते प्रियंका की आंखें फैल गईं और चेहरा सुर्ख हो उठा.

‘‘प्रियंका, तुम कहो तो मैं पापा से बात करूं या फिर उन के पास अपने पापा को भेज दूं. मुझे यकीन है कि हमारे खानदान, रुतबे को देख कर तुम्हारे पापा जरूर हां कह देंगे. बस, तुम अड़ जाना.’’ कृष्णा ने समझाया.

‘‘देखो कृष्णा, हमारे घर के हालात, माहौल बिलकुल अलग हैं. मैं किसी भी हाल में पापा से बहस या सामना नहीं कर सकती. तुम अपने पापा को भेज दो, हो सकता है बात बन जाए.’’ प्रियंका बोली.

‘‘और अगर नहीं बनी तो?’’ कृष्णा ने गंभीर होते हुए कहा.

‘‘नहीं बनी तो हमारे रास्ते अलग हो जाएंगे. इस में मैं क्या कर सकती हूं.’’ प्रियंका ने जवाब दिया.

एक दिन कृष्णा तिवारी के पिता लक्ष्मी प्रसाद तिवारी प्रियंका श्रीवास के पिता नारद श्रीवास से मिलने उन के घर पहुंच गए. नारद श्रीवास का एक बेटा और 2 बेटियां थीं. वह किराने की एक दुकान चलाते थे.

लक्ष्मी प्रसाद ने विनम्रतापूर्वक अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘भाईसाहब, मैं आप से मिलने बिलासपुर से आया हूं. आप से कुछ महत्त्वपूर्ण बातचीत करना चाहता हूं.’’

कृष्णा के पिता ने की कोशिश 

नारद श्रीवास ने उन्हें ससम्मान घर में बिठाया और खुद सामने बैठ गए. लक्ष्मी प्रसाद तिवारी हाथ जोड़ कर बोले, ‘‘मैं आप के यहां आप की बड़ी बेटी प्रियंका का अपने बेटे कृष्णा के लिए हाथ मांगने आया हूं.’’

यह सुन कर नारद श्रीवास आश्चर्यचकित हो कर लक्ष्मी प्रसाद की ओर ताकते रह गए. उन के मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे. तब लक्ष्मी प्रसाद बोले, ‘‘भाईसाहब, मेरे बेटे कृष्णा को आप की बिटिया पसंद है. हालांकि हम लोग जाति से ब्राह्मण हैं, मगर बेटे की इच्छा को ध्यान में रखते हुए आप के पास चले आए. आशा है आप इनकार नहीं करेंगे.’’

यह सुन कर नारद श्रीवास के चेहरे का रंग बदलने लगा. उन्होंने लक्ष्मी प्रसाद से कहा, ‘‘देखो तिवारीजी, आप मेरे घर आए हैं, ठीक है. मगर मैं अपनी बिटिया का हाथ किसी गैरजातीय लड़के को नहीं दे सकता.’’

‘‘मगर भाईसाहब, अब समय बदल गया है. मेरा आग्रह है कि आप घर में चर्चा कर लें. बच्चों की खुशी को देखते हुए अगर आप हां कर देंगे तो यह बड़ी अच्छी बात होगी.’’ लक्ष्मी प्रसाद ने सलाह दी.

‘‘देखिए पंडितजी, मैं समाज के बाहर बिलकुल नहीं जा सकता. फिर प्रियंका के लिए मेरे पास एक रिश्ता आ चुका है. वे लोग प्रियंका को पसंद कर चुके हैं. मैं हाथ जोड़ता हूं, आप जा सकते हैं.’’ नारद श्रीवास ने विनम्रता से कहा तो लक्ष्मी प्रसाद तिवारी अपने घर लौट गए.

घर लौट कर उन्होंने जब बात न बनने की जानकारी दी तो कृष्णा को गहरा धक्का लगा. अगले दिन कृष्णा ने अपनी बुलेट निकाली और नारद श्रीवास की दुकान पर पहुंच गया. उस समय नारद ग्राहकों को सामान दे रहे थे. दुकान के बाहर खड़ा कृष्णा नारद श्रीवास को घूरघूर कर देख रहा था. जब वह ग्राहकों से फारिग हुए तो उन्होंने कृष्णा की ओर मुखातिब होते हुए कहा, ‘‘हां, क्या चाहिए?’’

कृष्णा ने उन से बिना किसी डर के अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘कल मेरे पापा आप के पास आए थे.’’

यह सुनते ही नारद श्रीवास के दिलोदिमाग में बीते कल का सारा वाकया साकार हो उठा, जिसे लगभग वह भुला चुके थे. उन्होंने कहा, ‘‘हां, तो?’’

कृष्णा तिवारी ने कहा, ‘‘आप ने मना कर दिया. मैं इसलिए आया हूं कि एक बार आप से मिल कर अपनी बात कहूं.’’

‘‘देखो, तुम चले जाओ. मैं ने तुम्हारे पिताजी को सब कुछ बता दिया है और इस बारे में अब मैं कोई बात नहीं करूंगा.’’

कृष्णा ने अपनी आंखें घुमाते हुए अधिकारपूर्वक कहा, ‘‘आप से कह रहा हूं, आप मान जाइए नहीं तो एक दिन आप खून के आंसू रोएंगे.’’

‘‘तो क्या तुम मुझे धमकाने आए हो?’’ नारद श्रीवास का पारा चढ़ गया.

‘‘धमकाने भी और चेतावनी देने भी. आप नहीं मानोगे तो अंजाम बुरा होगा.’’ कहने के बाद कृष्णा तिवारी बुलेट से घर वापस लौट गया.

नारद श्रीवास कृष्णा के तेवर देख कर अवाक रह गए. उन्होंने सोचा कि यह लड़का एक नंबर का बदमाश जान पड़ता है. मैं ने अच्छा किया कि इस के पिता की बात नहीं मानी.

उन्होंने उसी दिन अपने साढ़ू भाई जोगीराम श्रीवास को फोन कर के सारी बात बता दी. उन्होंने उन से प्रियंका पर विशेष नजर रखने की बात कही, क्योंकि प्रियंका उन्हीं के घर रह कर पढ़ रही थी.

नारद की बातें सुन कर जोगीराम ने उन से कहा, ‘‘आप बिलकुल चिंता मत करो. मैं खुद प्रियंका से बात कर के देखता हूं और आप लोग भी बात करो. इस के अलावा आप धमकी देने वाले कृष्णा के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दो.’’

‘‘नहींनहीं, पुलिस में जाने से हमारी ही बदनामी होगी. मैं अब जल्द ही प्रियंका की सगाई, शादी की बात फाइनल करता हूं.’’ नारद बोले.

21 अगस्त, 2019 डब्बू उर्फ कृष्णा ने प्रियंका को सुबहसुबह लवली मौर्निंग का वाट्सऐप मैसेज भेजा और लिखा, ‘‘प्रियंका हो सके तो मुझ से मिलो, कुछ जरूरी बातें करनी हैं. जाने क्यों रात भर तुम्हारी याद आती रही, इस वजह से मुझे नींद भी नहीं आ सकी.’’

प्रियंका ने मैसेज का प्रत्युत्तर हमेशा की तरह दिया, ‘‘ठीक है, ओके.’’  मौसी ने समझाया था प्रियंका को

प्रियंका रोजाना की तरह उस दिन भी तैयार हो कर कालेज के लिए निकलने लगी तो मौसा और मौसी ने उसे बताया कि वह घरपरिवार की मर्यादा को ध्यान में रखे. कृष्णा से मेलमुलाकात उस के पापा को पसंद नहीं है. तुम्हें शायद यह पता नहीं कि कृष्णा ने मुढ़ीपार पहुंच कर धमकी तक दे डाली है. यह अच्छी बात नहीं है. अगर इस में तुम्हारी शह न होती तो क्या उस की इतनी हिम्मत हो पाती?

मौसी की बातें सुन कर प्रियंका मुसकराई. वह जल्दजल्द चाय पीते हुए बोली, ‘‘मौसी, आप जरा भी चिंता मत करना. मैं घरपरिवार की नाक नहीं कटने दूंगी. जब पापा मुझ पर भरोसा करते हैं, उन्होंने मुझे पढ़ने भेजा है, मेरी हर बात मानते हैं तो मैं भला उन की इच्छा के बगैर कोई कदम कैसे उठाऊंगी. आप एकदम निश्चिंत रहिए.’’

मौसी सीमा ने उसे बताया कि जल्द ही उस की सगाई एक इंजीनियर लड़के से होने वाली है, इसलिए वह कृष्णा से दूर ही रहे.

हंसतीबतियाती प्रियंका रोज की तरह सीपत रोड स्थित शबरी माता नवीन महाविद्यालय की ओर चली गई. वह बीए अंतिम वर्ष की पढ़ाई कर रही थी.

कालेज में पढ़ाई के बाद प्रियंका क्लास से बाहर आई तो कृष्णा का फोन आ गया. दोनों में बातचीत हुई तो प्रियंका ने कहा, ‘‘मैं कालेज से निकल रही हूं और थोड़ी देर में तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगी.’’

प्रियंका राजस्व कालोनी स्थित कृष्णा के किराए के मकान में जाती रहती थी. वह मकान बौयज हौस्टल जैसा था. कृष्णा और प्रियंका वहां बैठ कर अपने दुखदर्द बांटा करते थे. प्रियंका ने उस से वहां पहुंचने की बात कही तो कृष्णा खुश हो गया.

कृष्णा घर का बिगड़ैल लड़का था. आवारागर्दी और घरपरिवार से बेहतर संबंध नहीं होने के कारण पिता ने एक तरह से उसे घर से निकाल दिया था. कृष्णा किराए का मकान ले कर रहता था. उस मकान में पढ़ाई करने वाले और भी लड़के रहते थे. उस के पास एक बुलेट थी. अपने खर्चे पूरे करने के लिए वह पार्टटाइम कार वाशिंग का काम करता था.

काफी समय बाद भी प्रियंका कृष्णा के कमरे पर नहीं पहुंची तो वह परेशान हो गया. वह झल्ला कर कमरे से निकला और प्रियंका को फोन किया. प्रियंका ने उसे बताया कि वह अपनी फ्रैंड के साथ है और उस के पास पहुंचने में कुछ समय लगेगा.

कृष्णा उस से मिलने के लिए उतावला था. काफी देर बाद भी जब वह नहीं पहुंची तो उस ने प्रियंका को फिर फोन किया. प्रियंका बोली, ‘‘आ रही हूं यार. मैं अशोक नगर पहुंच चुकी हूं.’’

इस पर कृष्णा ने झल्ला कर कहा, ‘‘मैं वहीं आ रहा हूं. तुम रुको, मैं पास में ही हूं’’  कृष्णा थोड़ी ही देर में अशोक नगर जा पहुंचा. प्रियंका वहां 2 सहेलियों के साथ खड़ी थी.

प्रियंका की बातों से कृष्णा को लगा कि आज उस का रंग कुछ बदलाबदला सा है. मगर उस ने धैर्य से काम लिया. प्रियंका को देख वह स्वाभाविक रूप से मुसकराते हुए बोला, ‘‘प्रियंका, तुम मुझे मार डालोगी क्या? तुम से मिलने के लिए सुबह से बेताब हूं और तुम कह रही हो कि आ रही हूं…आ रही हूं.’’

‘‘तो क्या कालेज भी न जाऊं? पढ़ाई छोड़ दूं, जिस के लिए मैं गांव से यहां आई हूं?’’ प्रियंका ने तल्ख स्वर में कहा.

‘‘मैं ऐसा कहां कह रहा हूं, मगर कालेज से सीधे आना था. 2 घंटे हो गए तुम्हारा इंतजार करते हुए. कम से कम मेरी हालत पर तो तरस खाना चाहिए तुम्हें.’’

‘‘और तुम्हें मेरे घर जा कर हंगामा करना चाहिए. पापा से क्या कहा है तुम ने, तुम ऐसा कैसे कह सकते हो?’’ प्रियंका ने रोष भरे स्वर में कहा.

प्रियंका को गुस्से में देख कर कृष्णा को भी गुस्सा आ गया. दोनों की अशोक नगर चौक पर ही नोकझोंक होने लगी, जिस से वहां लोगों का हुजूम जमा हो गया. तभी एक स्थानीय नेता प्रशांत तिवारी जो कृष्णा और प्रियंका से वाकिफ थे, वहां पहुंचे और उन्होंने दोनों को समझाबुझा कर शांत कराया.

कृष्णा प्रियंका को ले आया अपने कमरे पर  दोनों शांत हो गए. कृष्णा ने प्रियंका को बुलेट पर बिठाया और अपने कमरे की ओर चल दिया. रास्ते में दोनों ही सामान्य रहे. अपने कमरे पर पहुंच कर कृष्णा ने कहा, ‘‘प्रियंका, अब दिमाग शांत करो. मैं तुम्हारे लिए बढि़या चाय बनाता हूं.’’

यह सुन कर प्रियंका मुसकराई, ‘‘यार, मुझे भूख लग रही है और तुम बस चाय बना रहे हो.’’ इस के बाद कृष्णा पास के एक होटल से नाश्ता ले आया. दोनों प्रेम भाव से बातचीत करतेकरते कब फिर से तनाव में आ गए, पता ही नहीं चला. कृष्णा ने कहा, ‘‘तुम मुझ से शादी करोगी कि नहीं, आज मुझे साफसाफ बता दो.’’

प्रियंका ने स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘‘नहीं, मैं शादी घर वालों की मरजी से ही करूंगी.’’ हत्या कर कृष्णा हो गया फरार  दोनों में बहस होने लगी. उसी दौरान बात बढ़ने पर कृष्णा ने चाकू निकाला और प्रियंका पर कई वार कर उसे गंभीर रूप से घायल कर दिया. खून से लथपथ प्रियंका को मरणासन्न छोड़ कर वह वहां से भाग खड़ा हुआ. घायल प्रियंका कराहती रही और वहीं बेहोश हो गई.

हौस्टल के राकेश वर्मा नाम के एक लड़के ने प्रियंका के कराहने की आवाज सुनी तो वह कमरे में आ गया. उस ने गंभीर रूप से घायल प्रियंका को बिस्तर पर पड़े देखा तो तुरंत स्थानीय सरकंडा थाने में फोन कर के यह जानकारी थानाप्रभारी जयप्रकाश गुप्ता को दे दी.

जानकारी मिलते ही थानाप्रभारी जयप्रकाश गुप्ता कुछ पुलिसकर्मियों को साथ ले कर राजस्व कालोनी के हौस्टल पहुंच गए. उन्होंने कमरे के बिस्तर पर खून से लथपथ एक युवती देखी, जिस की मौत हो चुकी थी.

थानाप्रभारी ने यह जानकारी अपने उच्चाधिकारियों को भी दे दी. एडीशनल एसपी ओ.पी. शर्मा एवं एसपी (सिटी) विश्वदीपक त्रिपाठी भी मौके पर पहुंच गए. दोनों पुलिस अधिकारियों ने मौकामुआयना करने के बाद उस की लाश पोस्टमार्टम के लिए भेजने के आदेश दिए.

अधिकारियों के जाने के बाद थानाप्रभारी ने प्रियंका की लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी. हौस्टल के लड़कों से पता चला कि जिस कमरे में प्रियंका की हत्या हुई थी, वह कृष्णा का है. प्रियंका के फोन से पुलिस को उस की मौसी व पिता के फोन नंबर मिल गए थे, लिहाजा पुलिस ने फोन कर के उन्हें अस्पताल में बुला लिया.

प्रियंका के मौसामौसी और मातापिता ने अस्पताल पहुंच कर लाश की शिनाख्त प्रियंका के रूप में कर दी. उन्होंने हत्या का आरोप बिलासपुर निवासी कृष्णा उर्फ डब्बू पर लगाया. पुलिस ने कृष्णा के खिलाफ हत्या की रिपोर्ट दर्ज कर उस की खोजबीन शुरू कर दी. उस का मोबाइल फोन स्विच्ड औफ था. पुलिस को पता चला कि वह रायपुर से नागपुर भाग गया है.

पकड़ा गया कृष्णा 

थानाप्रभारी जयप्रकाश गुप्ता व महिला एसआई गायत्री सिंह की टीम आरोपी को संभावित स्थानों पर तलाशने लगी. पुलिस ने कृष्णा के फोटो नजदीकी जिलों के सभी थानों में भी भेज दिए थे.

सरकंडा से करीब 25 किलोमीटर दूर स्थित मुंगेली जिले के थाना सरगांव के एक सिपाही को 23 अगस्त, 2019 को कृष्णा तिवारी सरगांव चौक पर दिख गया. उस सिपाही का गांव आरोपी कृष्णा तिवारी के गांव के नजदीक ही था. इसलिए सिपाही को यह जानकारी थी कि कृष्णा मर्डर का आरोपी है और पुलिस से छिपा घूम रहा है.

लिहाजा वह सिपाही कृष्णा तिवारी को हिरासत में ले कर थाना सरगांव ले आया. सरगांव पुलिस ने कृष्णा तिवारी को गिरफ्तार करने की जानकारी सरकंडा के थानाप्रभारी जयप्रकाश गुप्ता को दे दी.

उसी शाम सरकंडा थानाप्रभारी कृष्णा तिवारी को सरगांव से सरकंडा ले आए. उस से पूछताछ की गई तो उस ने प्रियंका की हत्या करने का अपराध स्वीकार कर लिया. उस की निशानदेही पर पुलिस ने घटनास्थल से एक चाकू भी बरामद किया, जो 3 टुकड़ों में था.

कृष्णा ने बताया कि हत्या करने के बाद वह बुलेट से सीधा रेलवे स्टेशन की तरफ गया. उस समय उस के कपड़ों पर खून के धब्बे लगे थे. उस के पास पैसे भी नहीं थे. स्टेशन के पास अनुराग मानिकपुरी नाम के दोस्त से उस ने 500 रुपए उधार लिए और रायपुर की तरफ निकल गया.

कृष्णा तिवारी उर्फ दब्बू से पूछताछ कर पुलिस ने उसे 24 अगस्त, 2019 को मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी, बिलासपुर के समक्ष पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

कूड़े का ढेर हो गया है सोशल मीडिया

हमारे समाज में मुफ्त की सलाह देने वालों की कमी नहीं रही है. घर, चौपालों में इस तरह की सलाह कई बार बेहद घातक होती है. जीवन ले लेती है. 48 साल की बबिता को पेट में दर्द था. उस की माहवारी बंद हो चुकी थी. उस ने अपनी सास से यह बात बताई. सास ने कहा जब माहवारी बंद होने वाली होती है तो ऐसे ही होता है. परेशान न हो दर्द धीरेधीरे ठीक हो जाएगा. बबिता ने किसी डाक्टर से न सलाह ली न कोइ जांच कराई. धीरेधीरे 2 साल बीत गए. बबिता की माहवारी बंद हो गई. पेट में भारीपन और हल्का दर्द बना रहता था.

एक दिन अचानक उसे तेज माहवारी हुई. फिर लोगों ने समझाया कि कई बार बंद होने यानि मेनोपौज के पहले ऐसा एक दो बार हो जाता है. बबिता को रूकरूक कर माहवारी चल रही थी. 5वें दिन माहवारी इतनी बढ़ गई कि उस को संभालना कठिन हो गया. इमरजैंसी में परिवार के लोग बबिता को अस्पताल ले गए. जांच हुई तो पता चला कि बबिता को गर्भाशय का कैंसर है. अब इस की चौथी स्टेज है. 2 माह से अधिक का समय उस के पास नहीं है. अगर 2 साल पहले जांच और इलाज हो जाता तो बबिता को बचाया जा सकता था.

हमारे समाज में इस तरह का ज्ञान अब चैपाल के अलावा सोशल मीडिया पर भी मिलने लगा है. किसी भी विषय पर हजारोंलाखों लोग अपने सोशल मीडिया पर ज्ञान परोसते रहते हैं. इस बहाने यह लोग अपने फौलोवर्स और सब्सक्राइबर बढ़ाने का काम करते हैं. यह पूरी एक कड़ी है. जिस की कमान सोशल मीडिया साइट बनाने वालों के पास होती है. मुख्यतौर से कमाई वह करते हैं. कंटैंट क्रिएटर और इनफ्लूंएसर्स बन कर तमाम लोग पैसे मिलने की चाह में उन का काम कर रहे हैं. सोशल मीडिया पर काम कर रहे 10 फीसदी लोग ही मेहनत के बराबर कमाई कर रहे हैं. बाकी लोग कमाई की अंधी दौड़ में भाग रहे हैं. उन को लगता है कि अब पैसा मिलने वाला है. लेकिन यह मिलता नहीं है.

एक से बढ़ कर एक सलाह

इंस्टाग्राम पर आनेस्ट आयुर्वेदा नाम के एकाउंट में स्टाफेनिया नामक एक पौधे को दिखाते हुए समझाया गया है कि यह पौधा हजारों साल रहता है. यह घर को हराभरा करने के लिए लगाया जाता है. इस का खास महत्व यह बताया गया है कि इस को घर में लगाने से लंबी आयु और बढ़ी हुई कृपा मिलती है. इस का रखरखाव आसान है. अब लोग इस को लंबी आयु और बढ़ी हुई कृपा के लिए ढूंढ रहे हैं.

बेस्ट किचन लाइट की सोशल मीडिया साइट पर फोल्डिंग फर्नीचर बहुत ही अच्छी तरह से दिखाए गए हैं, जिस में बेड दीवार के सहारे खड़ा हो जाता है. उस के कुछ हिस्से को बाहर निकाल कर अलमारी बना लिया जाता है. ऐसे कई प्रयोग हैं जिन को एक हाथ से उठा कर प्रयोग किया जा सकता है. फोल्डिंग फर्नीचर जब घर में आते हैं तो उन का प्रयोग उतना सरल नहीं होता जितना दिखाया जाता है.

एमपी औनलाइन न्यूज के इंस्टाग्राम पर एक खबर में बताया गया है कि एक महिला के जुड़वा बच्चे हुए. दोनों के डीएनए अलगअलग थे. क्योंकि महिला ने एक ही रात दो लोगों के साथ सैक्स किया था. ऐसे में बच्चों के पिता अलगअलग निकले. विज्ञान की नजर से यह पूरी तरह से गलत है. जब गर्भ में एक बार अंडाणु और शुक्राणु का निषेचन हो जाता है तो गर्भाशय इस के बाद के शुक्राणु को प्रवेश नहीं देता है. अगर 2 पुरूषों के शुक्राणु मिला कर अंडाणुओं के साथ मिला कर निषेचित किए जाएं तो अंडाणु उस को स्वीकार नहीं करता.

बांके बिहारी शास्त्रीजी महाराज के सोशल मीडिया साइट पर बताया गया है कि दोपहर के बाद नहाने वाले का जीवन खराब हो जाता है. उस के जीवन में दुख आते हैं. इन का प्रभाव उस के पिता और पुत्र पर पड़ता है. आज के दौर में कितने ही लोग दोपहर क्या रात तक नहाते हैं. ऐसे में इस तरह के वीडियोज कूड़े के जैसे हैं और केवल भ्रामक सूचना देने का काम करते हैं.

आई एम प्रिया सिन्हा अपने इंस्ट्राग्राम पर बताती है कि रोज नहाना हैल्थ के लिए ठीक नहीं होता है. ऐसे में आप के मातापिता या प्रेमिका कितना भी रोज नहाने के लिए कहें आप को रोज नहीं नहाना है. इस से गुड वैक्टीरिया मर जाते हैं. आप की बौडी की एंटीबाइटिक क्षमता खत्म हो जाती है. गरम पानी से नहाने पर यह और भी तेजी से प्रभावित होते हैं.

गिफ्ट बेबी इन के सोशल मीडिया साइट पर अखंड ज्योति दीये का प्रचार करते बताया गया है कि यह 9 से 11 दिन एक ही बाती से जल सकता है. इस के अंदर एक लंबी बाती होती है जो घर के कटोरे में डूबी होती है. इस को एक पीतल के छेद से उपर ले जा कर जला दिया जाता है. जलती बाती को बिना बुझाए स्क्रूपेच के द्वारा ऊपर खिसकाया जा सकता है. ऐसे में अंखड ज्योति का लाभ तब मिलेगा जब एक ही बाती 9 दिन या 11 दिन तक लगातार जल सके.

आमतौर पर महिलाएं आपने सामने के दो दांतों में गैप होने पर परेशान होती है. उन को लगता है कि इस से उन की मुसकान सुंदर नहीं होती है. यह इस गैप को बंद कराने के लिए डैंटिस्ट के पास जाती है. मेधा 3267 इंस्ट्राग्राम एकाउंट पर बताया जा रहा है कि जिन महिलाओं के दांतों में गैप होता है वह काफी समझदार और मुश्किलों को चुटकियों में सुलझाने वाली होती हैं. ऐसी भाग्यशाली महिलाएं 100 में से एक होती है. अब जनता डैंटिस्ट की बात माने या मेघा की.

लोग हो रहे सजग:

सोशल मीडिया गलत जानकारी देने का सब से बड़ा माध्यम बन गया है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि यहां कोई संपादक नहीं है. जिस का जो मन कर रहा है वह अपने वीडियोज में बोल रहा है. ज्यादातर लोग इधरउधर से सामाग्री ले कर वीडियो बना लेते हैं. इस के पीछे उन की अपनी मेहनत नहीं होती है. पहले लिखने के लिए लोग रिसर्च करते थे. पुस्तकालय जा कर किताबें पढ़ते थे. जिस विषय पर लिखना और बोलना होता था उस को पूरी तैयारी से लिखते थे. टीवी और रेडियो पर बोलने के लिए स्क्रिप्ट लिखते थे. जितने समय के लिए बोलना होता था उस के हिसाब से लिखते थे.

अब सोशल मीडिया पर लिखने के लिए यह जरूरी नहीं रह गया है. सोशल मीडिया सही और गलत का फर्क नहीं कर पाता है. सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर कुछ ऐसे नियम हैं उस के टूल्स पर कुछ शब्द पकड़ में आ जाता है. जैसे हिंसा, कत्ल, मारपीट, मर्डर, इन शब्दों का प्रयोग करने पर वह चेतावनी दे देता है. जिन के नियम तोड़ने पर सोशल मीडिया एकाउंट बंद हो जाता है. इस से भी कंटैंट क्रिएट करने वाले इनफ्लूएंसर्स को नुकसान होता है. बड़ी मेहनत से अगर अच्छे फौलोवर्स और सब्सक्राइबर्स बने तो एक ही झटके में वह खत्म भी हो सकते हैं.

सोशल मीडिया पर लग रहा प्रतिबंध

सोशल मीडिया का नुकसान केवल आंखों और सेहत पर हर नहीं पड़ रहा है. समाज की सेहत भी इस से बिगड़ रही है. कई देशों में इन पर प्रतिबंध लग रहा है. ब्राजील में सोशल मीडिया ‘एक्स’ को बंद कर दिया है. यूरोप के कई देश ‘टेलीग्राम’ को बंद करने का विचार कर रहे हैं. दुनिया भर में सोशल मीडिया को ले कर सेंसरशिप के मामले बढ़ते जा रहे हैं.

2015 से अब तक 62 देश किसी न किसी मुद्दे पर इस तरह का बैन लगा चुके हैं. एशिया के 48 में से 27 देशों में इंटरनेट या सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर सख्ती बढ़ी है. पिछले 5 साल में 62 देश ऐसे रहे हैं जिन्होंने इंटरनेट और सोशल मीडिया पर सब से ज्यादा सख्ती दिखाई है. ऐसे देशों में इन की कुल हिस्सेदारी 30 फीसदी से ज्यादा है. इन में सब से ज्यादा सख्ती चीन, उत्तर कोरिया, ईरान, कतर जैसे देशों ने दिखाई है. चीन में तो विदेशी सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर पूरी तरह रोक है. उस ने इस के लिए अपनी व्यवस्था बना रखी है.

2019 में इंटरनेट पर 121 बार बैन लगा कर भारत दुनिया में अव्वल रहा. जम्मू-कश्मीर से जुड़े अनुच्छेद 370 पर फैसले के बाद अगस्त 2019 में भारत में इंटरनेट पर दूसरा सब से लम्बा बैन लगाया गया था. इस के बाद जून 2020 में टिकटौक समेत चीन के 59 एप पर रोक लगाई गई. 2 साल में इंटरनेट और सोशल मीडिया पर सब से लम्बा बैन अफ्रीकी देश चाड में रहा. यहां 2018 और 2019 के दौरान 472 दिन तक यह बैन लगा रहा, यानी लगभग हर दूसरे दिन. ऐसा इसलिए किया गया ताकि 1990 से राष्ट्रपति पद पर काबिज इदरिस डेबी 2033 तक इस पद पर बने रह सकें.

अलगअलग देशों ने इंटरनेट या सोशल मीडिया पर बैन लगाने के पीछे कई तरह की दलीलें दीं. इन में खास तौर पर परीक्षा के दौरान पेपर लीक होने का डर, सुरक्षा को खतरा, चुनाव और नेताओं के वीडियो वायरल होने से रोकने जैसी वजह बताई गई हैं. ज्यादातर सरकारों ने सुरक्षा का हवाला दे कर विरोधियों को रोकने के लिए ऐसा किया. अब कई देश इस तरह के प्रतिबंध ले कर आ रहे हैं कि सोशल मीडिया का प्रयोग किस उम्र तक के लोग कर सकते हैं. बच्चों को ले कर जल्द गाइडलाइन और कानून बनने वाला है.

बेहद खास है सोशल मीडिया का एल्गोरिदम

सोशल मीडिया पर गलत सूचनाएं जो वास्तविक लगती है लेकिन होती नहीं है. यह सोशल मीडिया के माध्यम से तेजी से प्रसारित होती है. जिस से समस्या और भी बदतर होती जाती है. 15 से 35 वर्ष के युवाओं के बीच, सोशल मीडिया सब से ज्यादा प्रचलित है. देश में 53 फीसदी लोग ऐसे हैं जो खबरों के लिए सोशल मीडिया पर निर्भर होते हैं. अब एक्स, फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब समाचार के साधन बन गए हैं.

सोशल मीडिया के चलते अब कोई भी पत्रकार बन सकता है. एक रिसर्च के अनुसार सोशल मीडिया पर सच्ची रिपोर्टिंग की तुलना में फर्जी खबरें 10 गुना तेजी से फैल सकती हैं. विस्फोटक, गलत सूचना देने वाली पोस्ट वायरल हो जाती हैं. सोशल मीडिया का एल्गोरिदम कंटैंट को क्यूरेट करता है. एल्गोरिदम का काम देखने वाले को यथासंभव लंबे समय तक औनलाइन रखना होता है. इस से सोशल मीडिया को चलाने वाले लाभ कमाते हैं.

एल्गोरिदम के चलते ही सोशल मीडिया यह तय कर लेता है कि देखने वाले को आगे क्या दिखाया जाए ? यदि देखने वाला किसी पोस्ट को पसंद करते हैं या साझा करते हैं, तो उस के जैसे और भी पोस्ट दिखाई देंगीं. एल्गोरिदम उन लोगों की पोस्ट को अधिक संख्या में सोशल फीड करते हैं, जिस से उन्हें अधिक व्यूज, लाइक, कमेंट और शेयर मिलते हैं.

सोशल मीडिया पर आने वाली पोस्ट कूड़े के ढेर की तरह से होती हैं. जिस तरह से कूड़े के ढेर से अपने मतलब की चीज निकालने की मेहनत करनी होती है. वैसे ही सोशल मीडिया पर भी अपने मतलब की चीज पाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है. मेहनत से ही अपने मतलब की पोस्ट तक जा सकते हैं. हर पोस्ट को ज्ञान का खजाना समझ कर उस पर भरोसा करने वाले को धोखा ही मिलता है.

पत्नी के नाजायज संबंधों ने ली पति की जान

उत्तर प्रदेश के बदायूं शहर के सिविल लाइंस इलाके में एक स्कूल है होली चाइल्ड. निशा इसी स्कूल में पढ़ाती थी. उस का पति राजकुमार पादरी था और उस की पोस्टिंग बदायूं जिला मुख्यालय से लगभग 23 किलोमीटर दूर वजीरगंज की एक चर्च में थी. चर्च में जब ज्यादा काम रहता था तो राजकुमार रात में वहीं रुक जाता था.

निशा को स्कूल की बिल्डिंग में ही रहने के लिए कमरा मिला हुआ था, जहां पर वह पति राजकुमार और 2 बेटियों रागिनी व तमन्ना के साथ रहती थी. राजकुमार और निशा की मुलाकात लखनऊ में पादरी के काम की ट्रेनिंग के दौरान हुई थी, जोकि वीसीसीआई संस्था द्वारा अपने धर्म प्रचारकों को दी जाती है. कुछ मुलाकातों के बाद दोनों एकदूसरे को पसंद करने लगे.

निशा मूलरूप से गोरखपुर जिले की रहने वाली थी. उस के पिता दयाशंकर पादरी थे. निशा की बड़ी बहन शारदा की शादी बरेली निवासी रघुवीर मसीह के बेटे दिलीप के साथ हुई थी. इसी के चलते बहन के देवर राजकुमार से निशा की नजदीकियां बढ़ने लगीं. दोनों जानते थे कि घर वालों को इस रिश्ते से कोई ऐतराज नहीं होगा, अत: दोनों ने अपनी पसंद की बात अपने परिवार वालों को बता दी थी.

राजकुमार ने लखनऊ में अपनी ट्रेनिंग पूरी कर ली लेकिन किन्हीं कारणों से निशा को ट्रेनिंग बीच में ही छोड़ देनी पड़ी. राजकुमार बरेली निवासी रघुवीर मसीह का बेटा था. रघुवीर मसीह पुलिस विभाग में वायरलैस मैसेंजर के पद पर बदायूं में तैनात था.

सन 2014 में पारिवारिक सहमति से राजकुमार और निशा का विवाह हो गया. रघुवीर मसीह के 4 बेटे और 2 बेटियां थीं. सब से बड़ा बेटा रवि था, जिस की शादी बाराबंकी निवासी अनुराधा से हुई थी. दूसरा दिलीप था, जिस की शादी निशा की बड़ी बहन शारदा से हुई थी. उस से छोटा राजकुमार था और सब से छोटा राहुल.

राजकुमार की पहली पोस्टिंग कासगंज जिले के सोरों कस्बे में नवनिर्मित चर्च में हुई थी. इसी बीच राजकुमार की शादी हो गई और रघुवीर मसीह ने कोशिश कर के राजकुमार का तबादला कासगंज से वजीरगंज करवा दिया.

शादी के बाद कुछ समय तो अच्छा कटा. राजकुमार की मां आशा मसीह ने नवविवाहिता बहू निशा को हाथोंहाथ लिया, पर निशा को राजकुमार के घर का माहौल रास नहीं आया. इसलिए उस ने पति से कहा कि वह घर में बैठ कर वक्त बरबाद नहीं करना चाहती.

निशा इंटरमीडिएट पास थी और उस की अंगरेजी भाषा पर अच्छी पकड़ थी. वह सोचती थी कि किसी भी इंग्लिश स्कूल में उसे नौकरी मिल सकती है.

नौकरी करने वाली बात निशा ने पति और सासससुर से बताई तो उन्हें इस पर कोई ऐतराज नहीं हुआ. निशा को इजाजत मिल गई और थोड़ी कोशिश से निशा को होली चाइल्ड स्कूल में नौकरी मिल गई.

कालांतर में निशा 2 बेटियों की मां बनी, जिन के नाम रागिनी और तमन्ना रखे गए. अब उन का छोटा सा खुशहाल परिवार था. वे स्कूल परिसर में स्थित कमरे में रहते थे. राजकुमार और निशा का दांपत्य जीवन काफी सुखद था. किन्हीं खास मौकों पर वे लोग बरेली चले जाते थे.

बदलने लगी निशा की सोच 

सब कुछ ठीक चल रहा था, पर वक्त कब करवट ले लेगा, इस का आभास किसी को नहीं था. स्कूल की नौकरी करतेकरते निशा को लगने लगा था कि राजकुमार से शादी करना उस के जीवन की सब से बड़ी भूल थी. वह अच्छाखासा कमा लेती है. अगर उस ने शादी की जल्दबाजी न की होती तो उसे कोई पढ़ालिखा अच्छा पति मिलता और वह ऐश करती.

ऐसे विचार मन में आते ही उस का दिल बेचैन होने लगा. जितना उसे मिला था, उस से उसे संतोष नहीं था. उस की कुछ ज्यादा पाने की चाहत बढ़ रही थी.  कहते हैं, अकसर ज्यादा पाने की चाह में लोग बहुत कुछ गंवा देते हैं. निशा का भी यही हाल था. अब धीरेधीरे राजकुमार और निशा के जीवन में तल्खियां बढ़ने लगीं. निशा छोटीछोटी बातों को ले कर मीनमेख निकालती और उस से झगड़ा करने की कोशिश करती.

सीधेसादे राजकुमार को हैरानी होती थी कि निशा को आखिर हो क्या गया है. एक दिन निशा ने कहा, ‘‘तुम क्या थोड़ी और पढ़ाई नहीं कर सकते थे? कम से कम मेरी तरह इंटर तो पास कर लेते. पढ़ेलिखे होते तो तुम्हारा दिमाग भी खुला होता.’’

‘‘मैं ज्यादा पढ़ालिखा न सही, पर अपने काम में तो परफैक्ट हूं. लोगों को अपने धर्म का ज्ञान बेहतर तरीके से देता हूं. हालांकि मैं केवल हाईस्कूल पास हूं लेकिन मैं ने यह ठान लिया है कि अपनी बेटियों को खूब पढ़ाऊंगा.’’ राजकुमार बोला.

‘‘बेटियों की फिक्र तुम छोड़ो. यह सब मुझे सोचना है कि उन के लिए क्या करना है.’’ निशा ने पति की बात काटते हुए कहा. राजकुमार तर्क कर के बात बढ़ाना नहीं चाहता था. इसलिए वह पत्नी के पास से उठ गया. दोनों बेटियों को साथ ले कर वह यह सोच कर घर से बाहर निकल गया कि थोड़ी देर में निशा का गुस्सा शांत हो जाएगा.

थोड़ी देर बाद जब वह घर पहुंचा तो निशा नार्मल हो चुकी थी. राजकुमार ने राहत की सांस ली. निशा ने राजकुमार का खाना लगा दिया, तभी स्कूल का चपरासी 20 वर्षीय अर्जुन आया और वह निशा को चाबियां देते हुए बोला, ‘‘मैडम, मैं ने बाकी ताले बंद कर दिए हैं. आप केवल बाहरी गेट का ताला लगा लेना, मैं घर जा रहा हूं.’’

‘‘अर्जुन, बैठो, चाय पी कर जाना.’’ निशा ने कहा.  निशा के कई बार कहने पर अर्जुन कुरसी पर बैठ गया. अर्जुन बाबा कालोनी निवासी ओमेंद्र सिंह का बेटा था. वह स्कूल में चपरासी था और उस का छोटा भाई किरनेश स्कूल के प्रिंसिपल के घर का नौकर था.

कुछ देर में निशा चाय बना कर ले आई. चाय पी कर अर्जुन चला गया. लेकिन राजकुमार के दिल में कुछ खटकने लगा. उस ने निशा से कहा, ‘‘मुझे इस अर्जुन की आदतें कुछ अच्छी नहीं लगतीं. वैसे भी ये स्कूल का चपरासी है और तुम टीचर, तुम्हें अपने स्टैंडर्ड का ध्यान रखना चाहिए.’’

निशा ने तुनक कर कहा, ‘‘मैं ने ऐसा क्या कर दिया जो तुम मेरे स्टैंडर्ड को कुरेद रहे हो.’’

राजकुमार ने कोई जवाब नहीं दिया. वह बात को बढ़ाना नहीं चाहता था. लेकिन उस दिन के बाद निशा का ध्यान अर्जुन पर टिक गया. जब वह अकेली होती तो अचानक अर्जुन उस के जेहन में आ बैठता.

निशा के दिल के दरवाजे पर दस्तक दी अर्जुन ने 

कुछ दिनों बाद राजकुमार की तबीयत खराब हो गई. वह कभीकभी 2 दिन तक चर्च में ही रुक जाता और बदायूं नहीं आ पाता था. इस अकेलेपन ने निशा को गुमराह कर दिया. अर्जुन एक स्वस्थ और स्मार्ट युवक था. वैसे भी निशा के साथ वह घुलनेमिलने लगा था. अब राजकुमार की गैरमौजूदगी में वह निशा के कमरे में आ जाता और उस की बेटियों के लिए खानेपीने की चीजें ले आता था.

निशा के मन में अर्जुन अपनी जगह बनाने लगा था. निशा भी अर्जुन के बारे में सोचती रहती थी. वह उस की मजबूत बांहों में समाने के लिए बेताब रहने लगी थी. उधर अर्जुन निशा को चाहता तो था लेकिन निशा के पति की वजह से पहल करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था.

कहा जाता है कि फिसलन की ओर बढ़ने वाले कदम आसानी से दलदल तक पहुंच जाते हैं. यही निशा के साथ हुआ. एक दिन शाम को निशा के पास राजकुमार का फोन आया. उस ने कहा कि वह आज रात को घर नहीं आ पाएगा. इस फोन काल ने निशा के दिल में हलचल मचा दी. उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

निशा के दिमाग में अर्जुन घूम रहा था. उस ने कमरे से बाहर निकल कर देखा तो उस समय अर्जुन स्कूल के अपने काम निपटा कर घर जाने की तैयारी कर रहा था. तभी निशा ने उसे आवाज दे कर बुलाया, ‘‘अर्जुन, तुम कमरे में आओ, कुछ बात करनी है.’’

अर्जुन कमरे में आ गया. निशा उस के लिए चाय बना कर ले आई. निशा ने चाय का प्याला उस की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘अर्जुन, आज रात राजकुमार घर नहीं आएगा. अकेले में मुझे डर लगेगा, तुम आज रात यहीं रुक जाओ, जिस से मेरा भी मन लगा रहेगा.’’

अर्जुन ने गहरी नजर से निशा को देखा. उसे निशा का अंदाज कुछ अजीब सा लगा. उस की चुप्पी देख कर निशा ने पूछा, ‘‘कुछ परेशानी है क्या?’’

‘‘नहीं मैडम, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं सोच रहा हूं कि अगर साहब को पता चला तो पता नहीं वो मेरे बारे में क्या सोचेंगे, वह तो वैसे भी मुझे पसंद नहीं करते.’’

‘‘तुम उन की चिंता मत करो. तुम्हें मैं तो पसंद करती हूं न.’’ निशा ने मुसकराते हुए कहा तो अर्जुन की भावनाओं में जैसे तूफान उठने लगा. उस ने उसी समय जेब से मोबाइल निकाला और अपने घर फोन कर के बता दिया कि स्कूल में कुछ काम होने की वजह से वह आज घर नहीं आ पाएगा.

इस के बाद अर्जुन उस के कमरे में बैठ गया. निशा ने खाना बनाने की तैयारी शुरू कर दी. तब तक अर्जुन उस के दोनों बच्चों के साथ खेलने लगा. खाना बनने के बाद निशा ने बच्चों को पहले खाना खिलाया और उन्हें सुला दिया.

फिर निशा ने अपना और अर्जुन का खाना लगाया. खाना खातेखाते अर्जुन उस के खाने की तारीफ करते हुए बोला, ‘‘मैडम, आप खाना बहुत अच्छा बनाती हैं.’’

‘‘खाना बनाना ही नहीं, मैं बहुत से काम बहुत अच्छे से करती हूं.’’ कह कर निशा हंसने लगी. फिर उस ने एक प्रश्न किया, ‘‘अर्जुन, तुम ने अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’

अर्जुन निशा को गौर से देखते हुए बोला, ‘‘रिश्ते तो कई आए थे मैडम, लेकिन जब से आप को देखा है मेरा इरादा बदल गया है.’’

‘‘क्या मतलब?’’ निशा ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘मतलब यह कि मुझे आप जैसी स्मार्ट जीवनसाथी की जरूरत है.’’

निशा की चाहत बन गया अर्जुन 

अर्जुन की बात सुन कर निशा मन ही मन खुश हुई कि इस का मतलब वह उसे पहले से ही चाहता है. निशा कुछ नहीं बोली बल्कि मुसकराने लगी. खाना खाते हुए दोनों इसी तरह की बातें करते रहे.

खाना खाने के बाद निशा ने अर्जुन का बिस्तर जमीन पर लगाते हुए कहा कि वह यहां आराम कर सकता है. इस के बाद रसोई का काम खत्म कर के वह भी आ गई. उस ने चटाई बिछा कर अपना बिस्तर भी जमीन पर लगा लिया. धीरेधीरे रात गहराती जा रही थी और वहां भी कुछ ऐसा होने वाला था, जो किसी के लिए बरबादी ला सकता था.

निशा की आंखों में नींद नहीं थी. उस ने अर्जुन की तरफ देखा तो वह भी करवटें बदल रहा था. उस ने पूछा, ‘‘अर्जुन, नींद नहीं आ रही क्या?’’  ‘‘हां, नींद नहीं आ रही. पर सोच रहा हूं कि आप के पति तो अकसर वजीरगंज में ही रुक जाते हैं, फिर आप ने आज मुझे यहां क्यों रोका है?’’

निशा ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम क्या सचमुच अनाड़ी हो या अनजान बनने का नाटक कर रहे हो. मैं ने तुम्हारी आंखों में कुछ खास देखा था, वही पिछले कई दिनों से मुझे परेशान कर रहा है. अर्जुन भूख अकसर 2 लोगों को एकदूसरे के करीब ले आती है.’’

‘‘यह क्या कह रही हैं आप?’’ अर्जुन बोला.  ‘‘ठीक ही कह रही हूं. मैं तुम से प्यार करने लगी हूं अर्जुन.’’

अर्जुन को जैसे करंट सा लगा, पर उसे विश्वास नहीं हो रहा था. निशा ने आगे बढ़ कर अर्जुन का हाथ पकड़ा और कहा, ‘‘डरो मत अर्जुन, मैं सचमुच तुम्हें चाहती हूं और यह कोई गुनाह नहीं है. मैं अपने पति से तंग आ चुकी हूं.’’

अर्जुन फिसलन की कगार पर खड़ा था. निशा के स्पर्श से वह दलदल में जा गिरा. शादीशुदा और 2 बच्चों की मां ने उसे एक ऐसे दलदल में खींच लिया, जिस के अंदर जाना तो आसान था पर बाहर आने का कोई रास्ता नहीं था.

उस दिन के बाद रिश्तों की दिशा और दशा ही बदल गई. अपनी तबाही से बेखबर राजकुमार अगले दिन घर आ गया. राजकुमार की बरबादी की नींव रखी जा चुकी थी. बीवी ने बेवफाई करने के लिए कमर कस ली थी. अब आए दिन वह पति से झगड़ने लगी. राजकुमार भी महसूस कर रहा था कि स्कूल का चपरासी अर्जुन अब पहले की तरह उस की इज्जत नहीं करता.

एक दिन वह जब वजीरगंज से लौटा तो उस ने अर्जुन को कमरे में चारपाई पर पसरा हुआ देखा. यह देख कर राजकुमार का माथा गरम हो गया. वह बोला, ‘‘अर्जुन, तुम यहां क्या कर रहे हो? लगता है, तुम अपनी औकात भूल रहे हो. मेरी गैरमौजूदगी में तुम्हें यहां आने की जरूरत नहीं है.’’

उस समय तो अर्जुन वहां से चला गया. उस ने खुद को अपमानित महसूस किया और तय किया कि राजकुमार को सबक सिखाएगा.  राजकुमार के तेवर देख कर निशा भी डर गई थी. राजकुमार ने कहा, ‘‘निशा, यह अर्जुन मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं है. तुम इस से दूर ही रहो. देखो, मैं सोच रहा हूं कि अपना तबादला बरेली में ही करा लूं. पापा भी रिटायर हो गए हैं, अपना मकान भी उन्होंने बना लिया है. फिर तुम्हें भी बरेली में कहीं नौकरी मिल ही जाएगी.’’

‘‘देखो, अर्जुन इसी स्कूल में काम करता है. तुम्हारे जाने के बाद वह मार्केट से घर की जरूरत का सामान भी ला देता है. तुम खामख्वाह उस पर गरम हो रहे थे. देखो, हमें यहां कमरा मिला हुआ है. यहां कोई परेशानी भी नहीं है. और फिर यह बात तुम जानते हो कि मैं जौइंट फैमिली में नहीं रह सकती.’’ निशा ने पति को समझाया.

‘‘इस मामले में मैं घर वालों से बात करूंगा.’’ कह कर राजकुमार बाथरूम चला गया.

राजकुमार अनभिज्ञ था पत्नी के संबंधों से राजकुमार को अभी तक यह पता नहीं था कि अर्जुन और उस की पत्नी निशा के बीच किस तरह के संबंध हैं. पिछले 6 महीने से वह महसूस कर रहा था कि निशा बदल रही है.  कहते हैं कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपता. निशा और अर्जुन के संबंधों की असलियत भी सामने आ ही गई. उस दिन अर्जुन घर जाने ही वाला था कि राजकुमार का पत्नी के पास फोन आ गया कि वह आज रात को घर नहीं आएगा.

यह खबर सुन कर निशा खुश हुई. उस ने अर्जुन को बुला कर कहा, ‘‘आज रात फिर अपनी ही है क्योंकि राजकुमार आज भी नहीं आएगा. ऐसा करो कि तुम नहाधो कर फ्रैश हो जाओ. तब तक मैं तुम्हारे लिए चाय बनाती हूं.’’

निशा ने गैस पर चाय चढ़ा दी. अर्जुन भी फ्रैश होने के लिए बाथरूम में घुस गया. फ्रैश होने के बाद वह निशा के साथसाथ चाय पीने लगा. चाय की चुस्कियां लेते हुए वह बोला, ‘‘ऐसा आखिर कब तक चलेगा, हमें कुछ करना ही होगा.’’

‘‘हां करेंगे.’’ कहते हुए निशा ने कहा, ‘‘अभी तो इन पलों को जिओ, जो हमें मिल रहे हैं.’’  इस के बाद दोनों मौजमस्ती में लीन हो गए. अर्जुन इस बात से बेखबर था कि उस ने बाहरी गेट बंद नहीं किया था. तभी अचानक दबेपांव राजकुमार वहां आ गया. बीवी को अर्जुन की बाहों में देख कर वह आगबबूला हो गया. उस ने अर्जुन की टांग पकड़ कर खींची और उसे कई तमाचे जड़ दिए.

किसी तरह अर्जुन उस के चंगुल से निकल कर भाग गया. तभी राजकुमार ने कहा कि वह इस की शिकायत स्कूल से करेगा.

अर्जुन के चले जाने के बाद राजकुमार ने निशा को जम कर लताड़ा. निशा उस के पैरों में गिर कर अपनी गलती की माफी मांगने लगी, पर राजकुमार के तेवर सख्त थे. उस ने  कह दिया कि अब हम यहां नहीं रहेंगे. राजकुमार ने पिता को फोन पर सारी बातें बता दीं और कहा कि अब हम बरेली में नेकपुर स्थित अपने घर में रहेंगे.

पति का फैसला सुन कर निशा परेशान हो गई. वह किसी भी हालत में बदायूं को छोड़ना नहीं चाहती थी. अत: उस ने तय कर लिया कि वह पति नाम के इस कांटे को अपनी जिंदगी से उखाड़ फेंकेगी.

अगले दिन राजकुमार वजीरगंज चला गया. निशा ने मौका मिलते ही अर्जुन को एकांत में बुला कर कहा, ‘‘अगर मुझे चाहते हो तो तुम्हें राजकुमार को रास्ते से हटाना होगा.’’

अर्जुन का दिल तेजी से धड़कने लगा क्योंकि ऐसा तो उस ने कभी सोचा ही नहीं था.  उसे चुप देख निशा बोली, ‘‘हां, मैं ठीक ही कह रही हूं. आज राजकुमार जब घर आएगा तो तुम घर आ कर उस से अपनी गलती की माफी मांगना और उस का विश्वास जीतना. इस के आगे क्या करना है, मैं बाद में बताऊंगी.’’

अर्जुन ने ऐसा ही किया. राजकुमार जब घर पहुंचा तो अर्जुन उस के घर चला गया. उसे देखते ही राजकुमार उस पर भड़का तो अर्जुन ने उस से अपनी गलती पर अफसोस जताते हुए माफी मांग ली. सीधेसादे राजकुमार ने उसे माफ कर दिया और कहा कि अब वैसे भी हमें यहां नहीं रहना है.

माफी मांग कर काट दी जीवन की डोर 

पर अर्जुन के दिल में राजकुमार के प्रति क्या था, यह बात राजकुमार नहीं जानता था. राजकुमार मौत की दस्तक को सुन ही नहीं पाया था. 15 जून, 2019 को अपनी योजना के मुताबिक अर्जुन अपनी बाइक पर आया. उस ने राजकुमार से कहा, ‘‘चलिए, मछली लेने चलते हैं.’’

राजकुमार भी माहौल का तनाव कम करना चाहता था. वह अर्जुन को माफ कर चुका था.  साजिश से अनजान राजकुमार अर्जुन के साथ बाइक पर बैठ गया. अर्जुन बाइक को इधरउधर घुमाता रहा. फिर बाइक मझिया गांव के सुनसान इलाके में ले गया और बोला, ‘‘अब बाइक आप चलाओ, मैं पीछे बैठता हूं.’’

राजकुमार ने ड्राइविंग सीट संभाली. दोनों शर्की रेलवे स्टेशन से कुछ ही दूरी पर पहुंचे थे कि बाइक पर पीछे बैठे अर्जुन ने जेब से तमंचा निकाला और राजकुमार के सिर पर गोली मार दी. राजकुमार का बैलेंस बिगड़ा और वह बाइक समेत जमीन पर गिर गया. राजकुमार खून से लथपथ था. अब योजना के मुताबिक राजकुमार को रेलवे ट्रैक पर डालना था ताकि उस की मौत ट्रेन एक्सीडेंट लगे.

अर्जुन चाहता था ट्रेन एक्सीडेंट समझा जाए  खून से लथपथ राजकुमार को अर्जुन ने रेलवे ट्रैक पर डाल दिया. उस के कपडे़ भी खून से लथपथ थे. रेलवे लाइन पर पड़ा राजकुमार तड़प रहा था. वह अभी जिंदा था पर अर्जुन ने जो सोचा था, हो नहीं सका. कासगंज से बरेली जाने वाली ट्रेन तब तक गुजर गई थी. अब सुबह 5 बजे से पहले वहां से कोई गाड़ी निकलने वाली नहीं थी.

अर्जुन ने बाइक स्टार्ट की और घर आ गया. उस ने खून सने कपड़े उतारे. कपड़ों पर लगा खून देख कर घर वाले सन्न रह गए. उन्होंने अर्जुन से जब सख्ती से पूछताछ की तो पता चला कि अर्जुन ने राजकुमार का कत्ल कर दिया है.

अर्जुन ने अपने कपड़े धो डाले और घर वालों से सख्त लहजे में कहा कि कोई भी अपना मुंह नहीं खोलेगा. उस ने निशा को काम हो जाने की खबर फोन पर दे दी.

रात जैसेतैसे गुजर गई. सुबह मार्निंग वाक पर निकले लोगों ने रेलवे ट्रैक पर लाश देखी तो किसी ने इस की सूचना रेलवे पुलिस को दे दी. पुलिस वहां आ गई और लोगों से लाश की शिनाख्त कराने की कोशिश की. पर उस की शिनाख्त नहीं हो पाई. सिविल लाइंस थाने की पुलिस भी वहां पहुंच गई.

उधर राजकुमार को 15 जून को बरेली जाना था, यह बात उस ने फोन पर अपने पिता रघुवीर को बता दी थी, लेकिन वह रात में घर नहीं पहुंचा तो घर वाले परेशान हो गए.  इधर थाना सिविल लाइंस के थानाप्रभारी ओ.पी. गौतम, सीओ राघवेंद्र सिंह राठौर और एसपी (सिटी) जितेंद्र कुमार श्रीवास्तव भी मौके पर पहुंच गए थे. फोरैंसिक टीम भी जांच के लिए पहुंच गई थी. जांच में पुलिस को मृतक की जेब से 100 रुपए का एक नोट और एक परची मिली. पुलिस ने जरूरी काररवाई कर के लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी.  17 जून को लाश का फोटो अखबारों में छपा तो रघुवीर के एक रिश्तेदार जे.पी. मसीह ने उन्हें फोन कर के पूछा कि राजकुमार कहां है? रघुवीर ने कहा कि राजकुमार को बरेली आना था, पर आया नहीं है.

सब जगह फोन कर लिया, पर उस का कुछ पता नहीं है. तब जे.पी. मसीह अखबार ले कर रघुवीर के घर पहुंच गए और उन्हें अखबार दिखाया. अखबार में अपने बेटे की लाश का फोटो देख कर रघुवीर की आंखों से आंसू निकल आए. वह परेशान हो गए तभी उन के पास पुलिस कंट्रोल रूम से भी फोन आ गया.

रघुवीर अपने रिश्तेदारों के साथ पोस्टमार्टम हाउस पहुंच गए और लाश की शिनाख्त बेटे राजकुमार के रूप में कर दी. निशा भी किसी से खबर पा कर घडि़याली आंसू बहाती हुई पोस्टमार्टम हाउस पहुंची. वह वहां इस तरह से रो रही थी, जैसे उस का सब कुछ लुट गया हो.

पोस्टमार्टम के बाद लाश बरेली ला कर उस का अंतिम संस्कार कर दिया गया. निशा के हावभाव देख कर रघुवीर की समझ में कुछकुछ आ रहा था. उन्हें शक था कि उन के बेटे की हत्या निशा ने कराई होगी. क्योंकि उसे रंगेहाथ पकड़ने पर राजकुमार ने उस की शिकायत अपने पिता से कर दी थी.

रघुवीर ने जांच अधिकारी के सामने अपनी पुत्रवधू और अर्जुन के नाजायज संबंधों का खुलासा कर दिया था. पुलिस ने अर्जुन को हिरासत में ले लिया. अर्जुन ने अपने हाथ पर ब्लेड से निशा का नाम लिख रखा था.

पुलिस ने निशा और अर्जुन को आमनेसामने बैठा कर पूछताछ की तो दोनों एकदूसरे पर इलजाम लगाने लगे. उन की दीवानेपन आशिकी की हवा निकल चुकी थी. दोनों ने ही अपना जुर्म स्वीकार कर लिया. अब दोनों को जेल जाने का डर सता रहा था.

पुलिस ने भादंवि की धारा 302, 201 के तहम मुकदमा दर्ज कर के उन से विस्तार से पूछताछ की और कोर्ट में पेश कर जेल भेज दिया.  रागिनी और तमन्ना ने मांबाप दोनों को खो दिया था. राजकुमार की मां आशा मसीह ने कहा कि उसे तो विश्वास ही नहीं हो रहा कि उन की बहू उन के सीधेसादे बेटे को मरवा सकती है. अब इस उम्र में उन्हें अपने बेटे की बच्चियों की परवरिश के लिए जीना होगा.

निशा के पिता दयाशंकर और मां गीता को बेटी के इस गुनाह पर अफसोस होता है. उन्होंने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि निशा ऐसा भी कर सकती है. काश, राजकुमार मौत की दस्तक को सुन पाता तो उसे अपनी जान से हाथ न धोना पड़ता.

राज को राज रहने दो : अब हम भी ये गाना गुनगुनाते हैं

आज का युग घोटाले, फिक्सिंग, ठगी, बाबागीरी और भ्रष्टाचार की ओर तेजी से बढ़ता नजर आ रहा है. ऊपर से जब से मेरे दिलोदिमाग में क्रिकेट में होने वाले स्पौट फिक्सिंग का मामला घुसा है, मुझे तो बारबार गांधीजी का यह कथन याद आए बिना चैन ही नहीं मिल रहा, ‘‘हमारी धरती प्रत्येक मनुष्य की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन प्रत्येक मनुष्य के लालच को कभी पूरा नहीं कर सकती.’’ इशारों से खेलों में होने वाला भ्रष्टाचार अब सभी के सामने खुल कर आ चुका है. खेलों में तरहतरह के डोपिंग, स्कैंडल और मैच फिक्सिंग की खबरें आएदिन आती रहती हैं. यहां पर यह कहना भी उचित होगा कि जब लोगों के पास ज्यादा रुपया आता है तो उन के अंदर इस को और अधिक पाने की ललक अनायास ही पैदा हो जाती है. कुछ ही लोग होते हैं जो खुद को संयमित रख पाते हैं. तेज बुखार को पैरासिटामौल यानी बुखार नियंत्रक दवा खा कर नियंत्रित किया जा सकता है मगर किसी व्यक्ति के दिमाग में यदि रुपया कमाने का फुतूर चढ़ जाए तो वह अकसर कारागार की सलाखों के पीछे जा कर ही नियंत्रित होता हुआ देखा

गया है. कहते हैं कि अति तो किसी भी चीज की हो, बुरी ही होती है. फिर भी लोग मानते नहीं. नएनए तरीके निकाल ही लेते हैं घोटाले, फिक्सिंग और भ्रष्टाचार करने के. चलना भी नियति का नियम है, सो, हमारे क्रिकेट खिलाड़ी भी चल दिए फिक्सिंग जैसी राह पर और खेल के मध्य ही इशारेबाजी कर बैठे. वैसे देखा जाए तो क्रिकेट के इतिहास में इशारों का संबंध बहुत पुराना रहा है, क्योंकि क्रिकेट के अंपायर इस कला में माहिर होते थे. उन के एक इशारे पर पूरी की पूरी टीम आउट घोषित कर दी जाती थी यानी पूरी टीम की हारजीत व नोबौल का निर्णय हो जाता था.

लेकिन आजकल अंपायर का काम इलैक्ट्रौनिक कैमरों ने भलीभांति संभाल लिया है, इसलिए इस से बच कर अब कुछ नया करने और पाने की चाह में हमारे क्रिकेट खिलाड़ी खुद ही इशारों की कला में पारंगत होना चाहते हैं और लोगों की आंखों में धूल झोंक कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं. वैसे, इशारा कर के सामने वाले को प्रभावित करना व उचित मार्गदर्शन देना किसी ऐरेगैरे नत्थूखैरे के वश की बात भी नहीं है. जरूरत से ज्यादा समझदार लोग ही इस कला में पारंगत हो पाते हैं.

आजकल ‘आसमान से गिरे खजूर पर अटके’ वाला दौर नहीं है. अब तो है परछाईं देख आसमान में पहुंच जाने का युग. यदि इस धरती पर कहीं रुपयों के वृक्ष का बीज होता तो उसे भी बड़ी मेहनत से ही लगाया जाता. उसे लगाने, अंकुरित हो कर वृक्ष बनने तथा उस में रुपया लद कर आने में समय लगता. परिणामस्वरूप उस की भी जबरदस्त सुरक्षा करनी पड़ती. वहां भी कोई चमत्कार नहीं हो जाता कि इशारा किया और रुपयों का वृक्ष लद गया ढेर सारे रुपयों से. मगर जब आजकल खेलखेल में खेलों के अंदर इशारों से ही धनवर्षा हो रही हो तो इस से बेहतर और आसान बात कोई हो ही नहीं सकती. भला ऐसे में कौन ‘इशारा’ करने से वंचित रहना चाहेगा. जो पीछे रह जाएगा वह आखिर में पश्चात्ताप ही करेगा और सोचेगा कि यदि किसी ने मेरे इशारे भी समझ लिए होते या मुझे भी एक इशारा करने का मौका दिया जाता तो मैं भी मालामाल हो जाता, लेकिन छप्परफाड़ कर धनवर्षा सभी के यहां नहीं होती है, इसलिए मन मार कर संतुष्ट होना ही पड़ता है.

आजकल क्रिकेट में भी लोगों ने जाना कि खिलाडि़यों के एक इशारे पर अब रनवर्षा की जगह धनवर्षा भी होती है. इसलिए अब मेरी रायनुसार ‘इंडियन प्रीमियर लीग’ का नाम बदल कर ‘स्पौट फिक्सिंग मनी गारंटी क्रिकेट मैच’ यानी एसएफएमजीसीएम रख दिया जाना चाहिए. इस प्रकार के मनी गारंटी क्रिकेट खेल के लिए दिशाओं में बैटबौल घुमाने से ज्यादा, खिलाडि़यों को इशारा करने और इशारे पहचानने की ट्रेनिंग दिए जाने की जरूरत पड़ेगी यानी जम कर धन पाने की तैयारी के लिए उन्हें नएनए इशारों द्वारा हार कर भी शानदार से शानदार कहे जाने वाले नतीजे सामने लाने में योग्य होना पड़ेगा. माना कि लालच बुरी बला होती है मगर धनवर्षा के समय तो सभी भूल जाते हैं कि ज्यादा धनवर्षा की लूटखसोट में सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने का डर भी बना रहता है. फिर भी इस एसएफएमजीसीएम खेल में यही कहा जाएगा, ‘इशारों को अगर समझो तो राज को राज रहने दो…’ और इस से अधिक कुछ नहीं.

कभीकभी इशारे भी खतरनाक सिद्ध होते हैं. इस बात को हम अपने जीवन में भुगत चुके हैं. यहां आपबीती के तौर पर आप को बता रहे हैं. दरअसल, अपनी जवानी में अपने घर के सामने वाली बिल्ंिडग में रहने वाली रंजना को अपना दिल दे बैठे थे और हम ने उसे समझा रखा था कि जब भी घर में तुम्हारे मम्मीपापा न हों तो अपनी बालकनी में लाल रंग का रूमाल टांग दिया करना तो उसे देख कर मैं समझ जाया करूंगा कि तुम्हारे मम्मीपापा घर पर नहीं हैं. बस, तुम ही घर पर अकेली हो. और मैं तुम से मिलने तुम्हारे घर बेधड़क आ जाया करूंगा.

कई बार ऐसा हुआ. लेकिन एक बार मुझे उस की बालकनी में एक लाल रंग के रूमाल की जगह तौलिया टंगा दिखा तो भी रंजना के प्यार में अंधे हो चुके मेरे दीवाने दिल को वह लाल रूमाल ही लगा और प्यार में दीवाना हो कर मैं ने जैसे ही उस के घर की घंटी बजाई, दरवाजा खुलते ही मुझे सामने उस के पिताजी दिखाई दिए और मुझे देख कर वे तेज आवाज में बोले, ‘‘कमबख्त, कई दिनों से देख रहा हूं कि तुम अपने घर से मेरे घर की बालकनी में ही टकटकी लगाए हुए देखते रहते हो और अब तुम्हारी यह हिम्मत कि मेरे घर पर ही आ धमके. अभी लो, पुलिस को बुला कर तुम्हारा हुलिया ठीक करवा देता हूं.’’ उन का तेजतर्रार चेहरा व बातें सुन कर मैं एकदम उन के पैरों में गिर पड़ा और बोला, ‘‘अंकलजी, गलती हो गई. अब कभी ऐसा नहीं करूंगा. मुझे माफ कर दें.’’ मेरे माफी मांगने और गिड़गिड़ाने के संपूर्ण कार्यक्रम को रंजना भी अपने पिताजी के पीछे खड़ी हो कर देख रही थी. परिणामस्वरूप उस ने मेरे डरपोक किस्म के मूल स्वभाव को अच्छी तरह से पहचान लिया. इसलिए फिर उस ने कभी भी लाल रूमाल अपनी बालकनी में नहीं टांगा और मैं ने भी कभी अपनी बदनामी व पिटाई के डर से उस के घर के अंदर दौड़ कर जाने व अपने प्यार की पेंगें बढ़ाने की हिम्मत फिर कभी नहीं जुटा पाई.

कुल मिला कर प्रेम हो, खेल हो या कोई और क्षेत्र, इशारे तो सभी क्षेत्र की जान होते हैं. कोई इन इशारों से सफल होता है, तो कोई असफल. किसी को यश मिलता है, तो किसी को अपयश. फिर भी इशारों का अस्तित्व होता है और सदा रहेगा. जिन लोगों को लगता है कि इशारों का गणित समझना जरूरी है और वे भविष्य में इशारों की कला में पारंगत होना चाहते हैं, उन्हें इशारों का गणित समझाने वाले गुरु की तलाश करनी चाहिए ताकि अगली बार कलाईबैंड घुमाने, बालकनी में लाल रूमाल टांगने या तौलिया लटकाने या फिर खेल के मैदान में अपनी कमीज उतार कर बारबार लहराने जैसे इशारों पर किसी थानेदार की सख्त व बुरी नजर न पड़ सके.

 

कल्लो : कैसे बचाई उस रात कल्लो ने अपनी इज्ज्त

उस पूरे इलाके में पीली कोठी के नाम से उन का घर जाना जाता था. रायसाहब अपने परिवार के साथ बाहर रहते थे. दिल्ली, लखनऊ, जयपुर, पटना वगैरह बड़ेबड़े शहरों में उन की बड़ीबड़ी कोठियां थीं. बाहरी लोग उन्हें ‘डीआईजी साहब’ के नाम से जानते थे.

वे गरमी की छुट्टियां हमेशा गांव में ही बिताते थे. अम्मां और बाबूजी की वजह से गांव में आना उन की मजबूरी थी.

पुलिस महकमे में डीआईजी के पद पर पहुंचतेपहुंचते नामचीन साहित्यकारों में रायसाहब की एक खास पहचान बन चुकी थी.

रायसाहब के गांव आने पर कोठी की रंगत ही बदल जाती. 10-20 लोगों का जमावड़ा हमेशा ही लगा रहता. उन दिनों नौकर रामभरोसे की बात ही कुछ और होती. वह सुबहशाम का अपना कामधाम जल्दीजल्दी निबटाता और लकधक हो कर रायसाहब की खुशामद में लग जाता.

कोठी के ठीक पीछे रामभरोसे का अपना एक छोटा सा घर था. उस की 2 बेटियां थीं, जिन में वह बड़ी बेटी की शादी कर चुका था और छोटी बेटी कल्लो ने पिछले साल 12वीं जमात पास की थी.

कोठी में झाड़ूपोंछा लगाना, खाना पकाना, दूधदही के काम सुखिया और कल्लो के जिम्मे थे, जबकि खेतीबारी जैसे बाहरी काम रामभरोसे के जिम्मे था. इस की एवज में उसे बचाखुचा खाना मिल जाता था.

रायसाहब साल में 2-4 हजार रुपए की माली मदद भी उसे दे देते थे. कुछ पुराने कपड़े दे जाते, जिन्हें सुखिया, कल्लो और रामभरोसे सालभर पहनते, जो उन के लिए हमेशा नए होते थे.

रायसाहब के बाबूजी और अम्मां को कभीकभी बड़ी जलन होती और वे कल्लो, सुखिया और रामभरोसे को उलटासीधा कहने लगते.

रायसाहब अकेले में बैठ कर अम्मांबाबूजी को समझाते, ‘‘मैं यहां रहता नहीं हूं और रह भी नहीं सकता. आप की देखभाल के लिए वही तो हैं. हारीबीमारी, हाटबाजार के पचासों काम होते हैं घर के. इतना भरोसेमंद और सस्ता नौकर कहां मिलेगा.’’

हर साल की तरह इस साल भी रायसाहब गरमी की छुट्टियां बिताने

गांव आए थे. अब की बार उन का बेटा कौशल और बेटी रचना भी साथ में थे. कौशल कहीं विदेश में पढ़ाई कर रहा था, जबकि रचना देशी यूनिवर्सिटी में ही पढ़ रही थी. उन की पत्नी तारिका देवी को इस उम्र में भी कोई 40 साल से ऊपर की नहीं कह सकता था.

जून का महीना था. तारिका देवी और रायसाहब दोनों बगीचे में बैठे बातचीत कर रहे थे. दोनों के बीच में एक मेज रखी थी. उन के हाथ एकदूसरे से दूर थे, लेकिन मेज के नीचे से दोनों के पैर आपस में अठखेलियां कर रहे थे. रचना और कौशल किसी बहस में मसरूफ थे.

रायसाहब की चाय का समय हो गया था. कल्लो ने धीरे से दरवाजा खोला. उस ने दहलीज पर पैर रखा ही था कि कौशल बोल उठा, ‘‘ओ हो, हाऊ आर यू कल्लो?’’

कल्लो ने मुड़ कर देखा और चुपचाप वहीं खड़ी हो गई.

कौशल रचना की ओर देख कर हंस दिया, फिर बोला, ‘‘डू यू अंडरस्टैंड, मेरा मतलब…’’

‘‘हां, समझ गई,’’ कल्लो ने बीच में ही बात काटते हुए कहा.

‘‘ह्वाट?’’

‘‘यही कि आप इंडियन हैं और मैं हिंदुस्तानी,’’ इतना कह कर कल्लो हंसते हुए रसोईघर की ओर चली गई.

इतना सादगी भरा और तीखा मजाक सुन कर रायसाहब के कान खड़े हो गए. इस ने बात करने का यह ढंग कहां से सीखा?

सुबह के 8 बजे कल्लो चाय लिए खड़ी थी.

रायसाहब ने चाय का कप हाथ में ले कर कल्लो को सामने सोफे पर बैठने का इशारा किया.

कल्लो अभी भी खड़ी थी. रायसाहब ने फिर कहा, ‘‘बैठ जाओ.’’

कल्लो बैठ गई. उन्होंने चाय पीते हुए कल्लो से पूछा, ‘‘तुम किस क्लास में पढ़ती हो?’’

‘‘अब नहीं पढ़ती.’’

‘‘क्यों?’’

कल्लो कोई जवाब न दे सकी और आंखें नीचे किए बैठी रही.

उन्होंने फिर पूछा, ‘‘क्या हाईस्कूल पास कर लिया?’’

‘‘जी सर…’’ कुछ रुक कर वह बोली, ‘‘मैं ने पिछले साल इंटर पास किया है,’’ इतना कह कर वह बिना इजाजत लिए ही कमरे से बाहर

निकल गई.

शाम को रायसाहब ने रामभरोसे को अपनी बैठक में बुलाया. दरवाजे के ठीक सामने रायसाहब तकिया लगाए शाही अंदाज में बैठे थे. सामने सोफे पर रचना और कौशल बैठे थे.

रायसाहब ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप की लड़की बहुत चतुरचालाक है भरोसे भैया.’’

‘‘यह सब आप की मेहरबानी है साहब.’’

‘‘लड़की पढ़ने में बहुत तेज है. उसे और आगे पढ़ाना चाहिए था आप को.’’

‘‘साहब…’’

‘‘आगे सोच लो, लड़की होनहार है,’’ कहते हुए रायसाहब के चेहरे पर एक हलकी सी मुसकान आई और वे बोले, ‘‘कल्लो ही है न उस का नाम?’’

‘‘नहीं साहब, कागजों में उस का नाम कृष्ण कली है.’’

‘‘वाह, कितना अच्छा नाम है.’’

एक पल के लिए उन्हें शेक्सपीयर की कविता ‘ब्लैक रोज’ याद हो आई, फिर वे बोले, ‘‘इसे हमारे साथ भेज देना. मैं वहीं पर दाखिला दिलवा दूंगा.’’

रचना की ओर देखते हुए वे बोले, ‘‘क्यों रचना?’’

‘‘बहुत अच्छा रहेगा,’’ कौशल ने जवाब दिया, जैसे वह पहले से ही इसी इंतजार में बैठा हो.

‘‘अच्छी बात है साहब. उस की मां से पूछ लें, तब बताएंगे.’’

छप्पर के आगे रामभरोसे खटिया डाले बैठा था. उसी के आगे जमीन पर सुखिया बैठी थी. कल्लो छत पर थी.

रामभरोसे ने सुखिया से कहा, ‘‘साहब कह रहे थे कि कल्लो को उन के साथ भेज दो…’’

सुखिया ने बीच में ही बात काटते हुए कहा, ‘‘सयानी बेटी को हम किसी के साथ नहीं भेजेंगे.’’

‘‘साहब के बारे में ऐसा सोचना भी पाप है. वे हमें बहुत चाहते हैं,’’ रामभरोसे ने सुखिया को डांटते हुए कहा.

‘‘हम ने सब सुन लिया. बड़े आदमी की बातें बड़ी होती हैं. इन के चरित्र को हम खूब जानते हैं. बराबर का लड़का है घर में.’’

‘‘वह तो विदेश में पढ़ता है.’’

‘‘तो…’’

‘‘बराबर की लड़की भी तो है घर में… ऐसे कुछ नहीं होता,’’ रामभरोसे ने एक बार फिर झिड़कते हुए कहा.

सुखिया ने भी उसी तेवर में जवाब दिया, ‘‘क्या तुम नहीं जानते कि औरत और दौलत दुनिया में कोई नहीं छोड़ता?’’

‘‘सवेरे तुम ही साहब से मना कर देना. मैं तो नहीं कर सकता,’’ रामभरोसे ने खिसिया कर कहा.

सुबह रामभरोसे ने कल्लो को रायसाहब के साथ जाने के लिए कह दिया गया.

इधर कल्लो जाने की भी तैयारी करती जा रही थी, उधर उस के दिमाग में चल रहा था कि बड़े लोग हैं, इन के साथ कैसे निभेगी? बापू की हालत को देख कर वह मना भी नहीं कर सकती थी. जब वह गाड़ी में बैठने लगी, तो उस की आंखें छलक आईं.

रामभरोसे के हाथ रायसाहब के सामने जुड़ गए. उस ने भरे गले से कहा, ‘‘साहब…’’ वह इतना ही कह सका. सुखिया रामभरोसे के पीछे खड़ी सिसक रही थी.

रायसाहब ने रामभरोसे को अपने कंधे से लगा कर भरोसा दिलाया, कुछ रुपए उस के हाथ में दबा कर वे कार में बैठ गए.

कौशल ने एक नजर पीछे सीट पर बैठी कल्लो पर डाली और कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी. कल्लो शीशे से अपने अम्मांबापू को देखते रही.

10-15 दिन सबकुछ ठीकठाक चलता रहा. इस दौरान कल्लो का दाखिला हो चुका था. उस की पढ़ाईलिखाई का पूरा इंतजाम कर दिया गया था. कौशल भी 2-4 दिन रुक कर विदेश जा चुका था.

तारिका देवी ने एक दिन झाड़ूपोंछा करने वाली का हिसाब कर दिया. कुछ दिनों बाद खाना बनाने वाली की भी छुट्टी कर दी.

कल्लो झाड़ूपोंछा करती और दोनों वक्त का खाना, नाश्ता वगैरह बनाती. उसे इस में कोई तकलीफ नहीं हुई. इतना सब करने के बाद भी वह पढ़ाई के लिए पूरा समय निकाल लेती थी.

एक दिन रायसाहब तारिका देवी से अचानक पूछ बैठे, ‘‘झाड़ूपोंछा वाली और महाराजिन क्यों नहीं आतीं?’’

‘‘मैं ने उन की छुट्टी कर दी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘काम ही क्या है. बच्चियों को भी तो सीखने दो. कल के दिन पराए घर जाएंगी, पता नहीं कौन कैसा मिलेगा. किसी को पत्नी के हाथ का खाना पसंद हो तब?’’ सवाल के लहजे में तारिका देवी ने जवाब दिया.

‘‘फिर भी…’’ रायसाहब आगे कुछ कह पाते, इस से पहले ही तारिका देवी तड़प उठीं, ‘‘फिर क्या, चार रोटियां सुबह, चार शाम को बनानी हैं…’’

रायसाहब कुछ कह न पाए, इसलिए तारिका देवी ने अपनी बात को सही ठहराने के लिए बात कहना जारी रखा, ‘‘अपनी याद करो. जब मैं इस घर में आई थी, तुम्हीं कहते थे कि जब तक तुम्हारे हाथ की बनाई रोटी नहीं खा लेता, तब तक पेट नहीं भरता.’’

रचना और कल्लो उन्हीं की ओर चली आ रही थीं. रायसाहब मुसकराए और अपने स्टडीरूम की ओर चले गए.

धीरेधीरे कल्लो का बैडरूम और बाथरूम सबकुछ अलग कर दिया गया. वह अच्छी तरह समझ रही थी कि उसे उस की हैसियत का एहसास कराया जा रहा है. उसे इस में उलझन तो हुई, लेकिन इस बात की तसल्ली थी कि रात को तो वह चैन से सो सकेगी.

कल्लो घर का सारा काम करती और खूब मन लगा कर पढ़ती. धीरेधीरे उस का काम और बढ़ गया. सब के कपड़े धोना और उन पर इस्तिरी करना उस के काम में और जुड़ गए थे.

रचना ने एक बार इस का विरोध करते हुए अपनी मां से कहा था, ‘‘मम्मी उसे घरेलू नौकर समझना आप की सब से बड़ी भूल होगी.’’

‘‘काम करना बुरा नहीं होता, काम की आदत डालना अच्छी बात है.’’

‘‘जब मैं उस के साथ काम करती हूं, तो आप मुझे क्यों रोकती हैं?’’

‘‘तू अपनी तुलना उस से करेगी?’’ इतना कह कर तारिका देवी वहां से चली गईं.

दिसंबर का महीना था. कौशल घर आया हुआ था. एक दिन कल्लो बाथरूम में नहा रही थी. बाथरूम का दरवाजा अंदर से बंद नहीं होता था. उस की सिटकनी टूट गई थी.

कौशल ने दरवाजे को धक्का दिया. कल्लो ने अंदर से दरवाजा लगाना चाहा, लेकिन तब तक कौशल ने उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया था.

कल्लो ने पूरी ताकत से उसे बाहर धकेल कर एक जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर जड़ दिया.

कौशल की मर्दानगी काफूर हो चुकी थी. वह गालियां बकता हुआ अपने कमरे की ओर चला गया.

तारिका देवी भी अपने बेटे का साथ देते हुए गालियां बकने लगीं, ‘‘गटर के कीड़े को वहीं पड़ा रहने देते. इस ने हमारे घर को भी गंदा कर दिया.’’

कल्लो को दौरा सा पड़ गया. वह अपने कमरे में टूटी शाख की तरह औंधे मुंह गिर पड़ी. सारा दिन वह कमरे से नहीं निकली थी.

रायसाहब आज सुबह से ही कहीं पार्टी में गए हुए थे. रात को तकरीबन 10-11 बजे लौट कर आए. कार खड़ी की और सीधा अपने बैडरूम की ओर बढ़ गए.

रायसाहब अभी कपड़े भी नहीं बदल पाए थे कि तारिका देवी और कौशल ने नमकमिर्च लगा कर सारी कहानी बयां कर दी.

रचना बैठी चुपचाप सुनती रही. उस के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था. जो कुछ हुआ, उस के लिए वह कल्लो को कुसूरवार मानने के लिए तैयार नहीं थी. उस के दिमाग में एक ही सवाल बारबार उठता था कि आखिर कौशल वहां गया ही क्यों था?

रायसाहब ने उन्हें समझाबुझा कर वापस भेज दिया.

कुछ देर बाद रायसाहब कल्लो के कमरे की ओर गए. कमरा खुला था. कल्लो अभी भी औंधे मुंह बिस्तर पर पड़ी थी. आहट सुन कर वह हड़बड़ा कर खड़ी हुई और कमरे का दरवाजा बंद करने लगी.

रायसाहब ने छड़ी से इशारा करते हुए उसे अपने साथ आने को कहा.

रायसाहब के बैडरूम की ओर जाते हुए कल्लो के पैर कांप रहे थे. कमरे में दूधिया रोशनी फैली हुई थी. रायसाहब बिस्तर पर बैठे हुए थे. कल्लो जा कर उन के सामने खड़ी हो गई.

रायसाहब ने अपनी बगल में उसे बैठा कर कहा, ‘‘क्या बात थी?’’

कल्लो चुपचाप बैठी रही. रायसाहब ने जैसे ही उस का सिर अपनी गोद में रखा, वह फफक पड़ी.

रायसाहब काफी देर तक सिर पर हाथ फेरते हुए उसे तसल्ली देते रहे. वह भी गोद में पड़ीपड़ी सिसकती रही.

धीरेधीरे रायसाहब के हाथों का दबाव उस के बदन पर बढ़ने लगा. यह देख कर अचानक कल्लो का सिसकना बंद हो गया. उस ने जैसे ही छूटने की कोशिश की, वैसे ही रायसाहब ने दबोच कर उस की छाती पर दांत गड़ा दिए.

कल्लो पूरा जोर लगा कर खड़ी हुई और उन्हें एक ओर धकेल दिया. अभी वह संभल भी न पाई थी कि रायसाहब उस पर कामुक सांड़ की तरह टूट पड़े. जब तक रायसाहब उसे पकड़ते, रैक पर रखी उन की पिस्तौल कल्लो के हाथ में थी.

शोर सुन कर तारिका देवी, रचना और कौशल सभी अपनेअपने कमरों से निकल कर आ गए थे. सभी अपनेअपने तरीके से उसे गालियां देने लगे.

कल्लो को ले कर भी रचना के दिमाग में वही सवाल उठा, जो कौशल को ले कर उठा था. इतनी रात को यह पापा के कमरे में क्यों आई?

रचना के माथे पर बल पड़ने लगे. उस के दिमाग के तार झनझना उठे. उस ने कल्लो को डांटते हुए कहा, ‘‘जवानी के नशे में यह तो देख लिया होता कि कौन किस उम्र का है. बदमिजाज कहीं की…’’

कल्लो चिल्ला पड़ी, ‘‘हां, मैं बदमिजाज हूं…’’ कह कर उस ने अपना कुरता फाड़ डाला और रचना का हाथ पकड़ कर अपनी छाती पर रखा और बोली, ‘‘देखो.’’

सब चुप रहे, तो कल्लो बिफर पड़ी, ‘‘अब तक मैं अच्छी तरह जान चुकी हूं कि आप लोगों की उदारता के पीछे धूर्तता और मक्कारी कूटकूट कर भरी होती है.’’

रचना ने गुस्से में आ कर रायसाहब की ओर सवालिया नजरों से देखा, फिर पलट कर कौशल और तारिका देवी की ओर देखा. सब की नजरें झुकी हुई थीं.

रचना ने कल्लो की बांह पकड़ी और मुख्य दरवाजे की ओर चल पड़ी. अभी उस ने दरवाजा खोला ही था कि रायसाहब लड़खड़ाते हुए कमरे से निकले और चिल्ला पड़े, ‘‘बेटी, कहां जा रही है इतनी रात को. गुंडेमवाली…’’

रचना गरज उठी, ‘‘खामोश जो दोबारा इस जबान से बेटी कहा. घटिया लोगों की कोई मां, बहन, बेटी नहीं होती. हो सकता है, गुंडेमवालियों में कोई प्यार करने वाला ही मिल जाए.’’

कल्लो ने पिस्तौल रायसाहब की ओर फेंक दी और वे दोनों बाहर निकल गईं.

रात के सन्नाटे में सिर्फ कुत्तों के भूंकने की आवाजें सुनाई दे रही थीं.

 

चौपाल : चौधरी साहब की चौपाल ने क्या फैसला सुनाया

चौधरी नत्था सिंह के घर एक बैठक चल रही थी. एक मैनेजर और कई दूसरे लोग चौधरी नत्था सिंह के ड्राइंगरूम में बैठे सलाहमशवरा कर रहे थे. चौधरी नत्था सिंह जिले के गांवों के चमड़े के ठेकेदार थे. मरे हुए जानवरों का चमड़ा निकलवा कर और उन के अंगों का कारोबारी इस्तेमाल कर के चौधरी साहब करोड़ों रुपए सालाना कमाते थे. हैरत की बात यह थी कि वे खुद कुछ नहीं करते थे. सभी गांवों में उन के द्वारा बहाल 10-20 दलित तबके के लोग अपने गांवों के मरे हुए जानवरों की लाश उठाते थे और उन का चमड़ा, सींग, चरबी वाला मांस वगैरह चौधरी साहब के गोदाम में भेज देते थे. महीने में 2 बार उन को उन के काम का नकद भुगतान कर दिया जाता था.

चौधरी साहब के पास 2 ट्रैक्टरट्रौली समेत एक जीप और एक दूसरी शानदार कार थी. उन के 6-6 फुट के 2 नौजवान भतीजे लाइसैंसी रायफल ले कर हमेशा उन के साथ रहते थे. चौधरी साहब की गांवों के दलितों पर इतनी मजबूत पकड़ थी कि पूरे जिले के सांसद, विधायक, डीएम, एसपी उन के साथ अदब और इज्जत के साथ पेश आते थे. वे शहर में एक बड़ी सी कोठी में शान से रहते थे. गांव में उन का 5 बीघे का गोदाम है और तकरीबन 50 बीघा खेती की जमीन वे अपने ही तबके के दूसरे किसानों से खरीद चुके थे.

चौधरी साहब के ज्यादातर दलितों पर सैकड़ों एहसान थे. दवादारू से ले कर पुलिस केसों में उन की मदद करना और शादी में हजारों रुपए की मदद करना उन का शौक ही नहीं, रोजमर्रा का काम था. किसी से न डरने वाले चौधरी साहब के पास खबर आई कि उन के 2 कामगार जब गाय का चमड़ा निकाल रहे थे, तब कुछ ऊंची जाति वालों ने, जो अपने को गौरक्षक कहते थे, उन्हें बुरी तरह से मारा था. उन में से एक की अस्पताल में मौत हो गई थी.

इलाके के सभी दलित गुस्से में थे. डीएम और एसपी चौधरी साहब से तुरंत मिलना चाहते थे. चौधरी साहब को याद आई वह पंचायत, जो आजादी के 2 साल बाद ही उन के गांव में दलितों की चौपाल पर हुई थी. तब वे तकरीबन 6 साल के थे. जाट जमींदारों के जोरजुल्मों से तंग आ कर दलितों ने लाठीभाले उठा लिए थे, उन के खेतों में काम करना बंद कर दिया था. आखिर में जाटों द्वारा माफी मांगने पर ही दलितों ने काम करना शुरू किया था.

आज शाम 5 बजे दलितों की चौपाल पर ही इस बात का फैसला होगा… चौधरी साहब ने मजबूती से अपनी बात कही और डीएम व एसपी को संदेश भिजवा दिया. शाम को उन के गांव में माहौल बहुत गरम था. 51 गांवों के दलित लाठीभाले ले कर दलितों की चौपाल पर

डटे थे. सैकड़ों की तादाद में हथियारबंद दलित चौपाल के आसपास पूरे महल्ले और घरों की छतों पर मौजूद थे. हवा में इतना जहर घुला था कि कोई भी छोटी सी चिनगारी बड़ा दंगा करा सकती थी. गांव के समझदार लोग चौधरी नत्था सिंह का इंतजार कर रहे थे. ‘जय भीम’ के नारे साथ ही चौधरी नत्था सिंह चौपाल पर पहुंचे थे. डीएम, एमपी, स्कूल के हैडमास्टर निर्मल सिंह, गांव के प्रधान पंडित जयप्रकाश सभी मौजूद थे.

सभी दलित खतरनाक नारे लगाने लगे ‘खून का बदला खून…’ पंचायत में मौजूद लोगों को पसीना आ रहा था. पुलिस के 50-60 जवान अपनी जगह मुस्तैद थे. अचानक चौधरी नत्था सिंह खड़े हुए. उन की बुलंद आवाज बिना माइक के गूंज उठी, ‘‘गाय का दूध पी कर, घी खा कर, ताकत हासिल करने वाले गौरक्षको सुनो, आज से अपनी मरी हुई गौमाता का अंतिम संस्कार हम नहीं करेंगे. जिस मां का दूध पी कर तुम हम पर जोरजुल्म करते हो, उस के मरने के बाद उस की खाल भी तुम्हीं निकालोगे. कोई भी दलित आज से गौमाता की खाल नहीं निकालेगा, न ही उस की लाश उठाएगा.’’

यह सुन कर ऊंची जाति वालों को जैसे सांप सूघ गया. 2 दिन बाद ही सब ने देखा कि पंडित जयप्रकाश अपने बेटे के साथ मिल कर अपने घेर में एक कब्र खोद रहे थे… अपनी मरी हुई गौमाता का अंतिम संस्कार करने के लिए.

एक खंडित प्रेमकथा : जरूरी है शोखियों की कारगुजारियां

“शुचि, ‘सा’ निकल रहा है, ‘सा’ क्यों छूटता है तुम्हारा, ऊपर, थोड़ा और ऊपर लो. ‘सा’ को पकड़ो, तो सारे सुर अपनेआप पास रहेंगे.”

संगीत क्लास में मेहुल के 18 वर्षीया छात्रा शुचि से यह कहते ही पास के कमरे से एक तीखा व्यंग्य तीर की तरह आ कर इन के पूरे क्लास को धुआंधुआं कर गया– ‘सा’ जिस का निकला जा रहा उसे तो अपना होश नहीं, किसी और का ‘सा’ पकड़ने चले हैं.”

थोड़ी देर के लिए एक विकृत मौन पसर गया. मेहुल ने स्थिति संभाली- “राजन और दिव्या, तुम लोग शुचि के सम से अंतरा लो.”

किसी के दिल में आग लगी थी. जन्नत से लटकती रोशनियों के गुच्छों से जैसे चिनगारियां फूटी पड़ती थीं. सांभवी कमरा समेटना छोड़ मुंह ढांप बिस्तर पर पड़ गई.

मन ही मन ढेरों उलाहने दिए, हजार ताने मारे, जी न भरा तो अपना फोन उठा लिया और  स्वप्निल को टैक्स्ट मैसेज किया- ‘एक नई कहानी लिखना चाहती हूं, प्लौट दे रही हूं, बताएं.’ यही सूत्र था प्रख्यात मैगजीन एडिटर स्वप्निल सागर से जुड़े रहने का. और कैसे जिया जाए, कैसे जिया भरमाया जाए, कैसे भुलाए वह अपनी परेशानियों को?

टैक्स्ट देखापढ़ा जा चुका था, जवाब आया, ‘भेजो.’

लिखना शुरू किया उस ने. निसंदेह आज के समय की कमाल की लेखिका है वह.

कल्पना, भाषा, विचार और कहानियों की बुनावट में असाधारण सृजन करने की कला. पल में प्लौट  भेजा और ओके होते ही लिखना शुरू.

सांभवी – 5 फुट हाइट, सांवलीसलोनी, हीरे कट का चेहरा, शार्प और स्मार्ट. उम्र करीब 28 वर्ष.

मेहुल को सोचते हुए उस के अंदर आग सी भड़क उठी, ‘वही मेहुल, वही आत्मकेंद्रित संगीतकार और वही उस के सिमटेसकुचे चेहरे की अष्टवक्र मुद्राएं, तनी  हुई भौंहों और होंठों के बंद कपाट में फंसे  हुए कभी न दिखने वाले दांत. मन तो हो रहा था उठ कर जाए और विद्द्यार्थियों के सामने ही वह मेहुल की पीठ पर कस कर एक मुक्का जमा आए.  वह उठ कर गई मगर उस कमरे के बगल से निकल कर रसोई में जा कर चाय के बरतन पटकने लगी, यानी चाय बनाने का यत्न करते हुए गुस्सा निकालने की सुचना देने लगी किसी को.

हद होती है सहने की. महीनों से उस ने अपनी इच्छा जता रखी है कि मेहुल कहीं भी हो मगर उस के साथ चले, उस के साथ कुछ रूमानी पल बिताए, एक शाम  सिर्फ ऐसा हो जो सिर्फ उन दोनों के लिए हो, दैनिक चालीसा से हट कर हो.

जब इतने दिनों तक यथार्थ के देवता से इतना भी न हुआ तो कम से कम बाजार ही साथ चले. इसी  बहाने सही वह अपने  लिए कुछ महक गुलाब के निचोड़ ही लेगी, अलमारी खुलेगी, ड्रैस निकलेंगे- कुछ वह सजेगी तो कुछ मेहुल संवेरगा, दोनों बहुत दिनों बाद एकदूसरे पर कुछ पल अपलक नजर रखेंगे.  और सांभवी अब तक नकचढ़ी इमोशन के गुबारों को समर्पण की सूइयों से छेद कर उस के गले से लिपट जाएगी थोड़ी शरमा कर और थोड़ी बेहया सी.

इज्जत ताक पर रख सांभवी सुबह से 4 बार मेहुल को याद दिला चुकी थी कि आज क्लास की छुट्टी कर देना, बाजार चलना है. दरअसल सांभवी के लिए यह बड़ी बात थी कि आगे बढ़ कर वह अपनी ख़ुशी के लिए किसी से कुछ मांगे, क्यों ही न वह मेहुल हो.

मगर मेहुल, स्कूल से आ कर वही रैगुलर रूटीन में बच्चों को ले कर संगीत क्लास में बैठा है. एक दिन की चाय भी सांभवी  को मेहुल के साथ नसीब नहीं होती. वह हड़बड़ी में  चाय बना कर देती है और वह अपने चायनाश्ते की प्लेट ले कर क्लास में घुस बैठता है. हां, बच्चों के लिए अलग से बीचबीच  में नाश्ता भिजवाने की मांग करते समय हक देखते ही बनता है उस का. चिढ़े न भला क्यों सांभवी.

चार वर्षों में कहीं घूमने तो क्या, जिंदगी की सब से हसीं याद भी उस के पास नहीं है. हां, हनीमून की हसीन याद जिस के बिना वैवाहिक जीवन जैसे पानी के बिना सूखा ताल. कैसे होता उस का हनीमून, उस वक्त तो बच्चों के संगीत की वार्षिक परीक्षाएं चल रही थीं.

उस ने अपनी चाय बनाई और वापस अपने कमरे में आ गई. चाय और कलम की जुगलबंदी रात 8 बजे तक चलती रही.

क्लास खत्म कर के मेहुल बैडरूम में आ कर उस के सामने खड़ा हो गया.

“अब तो देर हो गई है, दुकानें तो बंद ही हो रही होंगी, क्या सामान लाना है बता दो, जल्द पास ही से कहीं से ले आऊंगा.”

कलम छोड़ सांभवी ने मेहुल को देखा. उस की नीरस, निर्लिप्त आंखों को देख घायल सर्पिणी की तरह सांभवी तड़प उठी, क्रोध ने उसे कुछ देर मौन कर दिया-

कैसा इंसान है, एक तो  इसे साथी के क्रोध से कुछ लेना है न देना, न ही साथी के प्रेमनिवेदन से कोई वास्ता, न उसे  साथी से मानमनौवल आता है, न साथी में डूब कर दुनिया में जीने का सुख लेना, कब्र से निकला मुर्दा कहीं का.

इस मौन में दिल की लगी बुझा लेने के बाद उस ने मेहुल से कहा, “तुम्हें जल्दी होगी, मुझे कोई जल्दी नहीं. अब तुम खाना खा कर सो जाना, सामान लाना हुआ तो मैं ही कल ले आऊंगी.”

“ठीक है,” सपाट सा उत्तर दे कर मेहुल ड्राइंगरूम में न्यूजपेपर पढ़ने चला गया और  सांभवी कहानी में डूबने की कोशिश के बावजूद सतह पर ही उतराती रह गई.

एक चेहरा रहरह उस की आंखों में घूम रहा था. वह चेहरा था स्वप्निल सागर का. वे तब सब एडिटर थे जब सांभवी ने इस मैगजीन में लिखना शुरू किया था.

उस वक्त वह 21 साल की थी और ग्रेजुएशन के बाद पत्रकारिता व एमए में दाखिला लिया था. मुलाक़ात भी बड़ी रोचक ही कही जाएगी उन दोनों की.

एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के लिए वह जाना चाहती थी लेकिन मैटर पहले संपादक से अप्रूव हो जाए तो छपने की कुछ गारंटी रहे, ऐसा सोच उस ने संपादक को फोन किया. इस वक्त तक वह मैगजीन में अपनी रचनाएं  डाक द्वारा भेजा करती थी, कभी रूबरू नहीं हुई थी. इस बार इंटरव्यू के लिए परमिशन मिले तो तैयार मैटर ले वह खुद जाए, इसी मंशा से सांभवी ने फोन पर मिलने का समय निर्धारित कर लिया.

कुछ दिनों में तैयार मैटर ले कर मैगजीन के औफिस पहुंची. कहानी और आलेख सैक्शन संभालने वाले संपादक स्वप्निल से मिलने की कोशिश करने लगी.

केबिन में पहुंची तो स्वप्निल नहीं थे. वह इंतजार करती रही. जब स्वप्निल आए तो बहुत हड़बड़ी में थे. सांभवी को  देख एक पल ठिठक तो गए लेकिन तुरंत ही कहा, ‘आज तो मैं समय नहीं दे पाऊंगा, क्या आप  लिखने के सिलसिले में आई हैं?’

‘जी, मैं सांभवी, आप से फोन पर बात हुई थी, मैं जिस इंटरव्यू…’

‘मतलब, अब तक हमारी मैगजीन की सब से छपने वाली राइटर. साहित्य दर्शन और विचारों पर आप की पकड़ देख मैं तो आप को 50 से ऊपर की कोई महिला समझता था. तो आप हैं वो सांभवी.’ अब तक जाने की हड़बड़ी में खड़ा सा शख्स अपनी कुरसी पर जा बैठा था. उस ने सांभवी का  लिखा हुआ मैटर लिया और एक सरसरी निगाह डाल अपनी मेज की डैस्क में रख कर कहा, ‘पहले की तरह असरदार.’

इस बीच सांभवी ने उस की आंखों में देखा और देखती ही रह गई. गजब की रोमानी और बोलती आंखें, चेहरे पर नटखटपन और घनी सी छोटी मूंछ अल्हड़ से पौरुष की गवाही देती. सांभवी ने अनुमान लगाया 30 से ऊपर के होंगे.

स्वप्निल उठ खड़े हुए. भागती सी लेकिन बड़ी गहरी नजर डाल सांभवी से कहा, ‘सांभवी आज मैं जरा जल्दी में हूं, लेकिन जल्दी ही आप से लंबी बातचीत का दौर निकालूंगा.’

स्वप्निल निकल तो गए लेकिन सांभवी के लिए पीछे एक अदृश्य डोर छोड़ गए. पता नहीं कब क्यों वह उस अदृश्य डोर को पकड़े स्वप्निल के पीछे चलने लगी थी. खुशगवार लेकिन गरमी की उमसभरी शाम को जैसे अचानक ठंडी हवा के झोंके सी.

इस बीच, वह कई बार स्वप्निल से मिली. स्वप्निल के व्यस्तताभरे समय से उसे जो भी पल मिले वे किसी फूल के मध्यभाग की खुशबू से कम नहीं थे.

दो महीने के अंदर उस ने न जाने कितनी ही रचनाएं लिख  डाली थीं और न जाने कितनी बार वह स्वप्निल के दफ्तर जा चुकी थी.

इस बार जब वह गई तो दफ्तर में अलग तरह की गहमागहमी थी. सारे लोग काम के बीच काफी मस्तीभरे मूड में थे. पता चला आज स्वप्निल कोर्ट मैरिज कर रहे हैं. लड़की से प्रेम इसी दफ्तर में हुआ था. वह यहां आर्टिकल आदि लिखती थी और इंजीनियरिंग की पढाई  भी साथ ही कर रही थी.

लोग खुश थे, बहुत खुश, इतने कि खुद के खर्चे पर मिठाई बांट रहे थे. लेकिन जाने क्यों सांभवी के अंदर क्याक्या चनक गया. ईर्ष्या, अभिमान, संताप आंसू बन कर आंखों  के कोरों में जमा होने की जिद करने लगे और वह वहां से चुपचाप निकल आई. किस पर जताए अभिमान, संताप? कोई वजूद तो नहीं उस सूरत का, कोई निशान भी नहीं उस मूरत का दिल में.

इस बीच ऊंची  डिग्री लेते 4 साल और गुजरे. सांभवी के घर में अब सभी फ़िक्रमंद थे सांभवी की शादी को ले कर. वह भी किस का बाट जोहे? स्वप्निल सागर अब पूरे मैगजीन के एडिटर बन चुके थे, अपने पारिवारिक जीवन और करियर में पूरी तरह व्यस्त. सांभवी कौन थी- सिवा एक लेखिका के.

मुलाक़ात करवाई गई  मेहुल से उस की. पांचxनौ फुट की अच्छी  हाइट में शांत, शिष्ट, भला सा नौजवान, और आंखों में गहरी कोई बात. दोनों ने आंखें मिलाईं और जैसे गहरी एक संधि हो गई अनकहे संवाद में.

सांभवी को नया संसार मिला, रचनेगढ़ने को नया रिश्ता मिला, एक सखा मिला प्रेमपुष्प से सजाने को.

मेहुल की बात लेकिन कुछ अजीब रही.

मेहुल एक पब्लिक स्कूल में संगीत शिक्षक था, घरवापसी उस की 5 बजे होती.

कुछ चायनाश्ता, जो अब सांभवी बनाने लगी थी, के बाद शाम 6 बजे से 8 बजे तक संगीत क्लास में बच्चों के साथ बैठता. रविवार छुट्टी के माहौल का भी ऐसा नक्शा था कि सांभवी के सब्र की इंतहा हो जाती. इस दिन वह किसी न किसी संगीत की महफ़िल का हिस्सा होता या कहीं स्टेज प्रोग्राम कर रहा होता.

सांभवी एक बंधेबंधाए मशीन के पुर्जे  में आ फंसी थी और इस पूरे कारखाने को उखाड़  फेंकने की कोई सूरत उसे नजर नहीं आती  थी.

संगीत में नित नए धुन रचे जाते, नए सुरों का संगम होता.  लेकिन सांभवी के लिए इस में अकेलेपन का बेसुरा आलाप ही था, किसी अलग हवा, अलग रोशनी, अलग मेघ ले कर वह इस  मेहुल नाम के बिन दरवाजे के किले  में कैसे प्रवेश करे?

रात का अंधेरा कुछ पल को प्यार की रश्मियों के लिए भले अवसर रचता लेकिन ज्यादातर वह भी या तो मेहुल के सांसारिक कर्मों के लेखेजोखे में या सांभवी के शरीर की ऊष्मा नापने में ही बीत जाता. रागअनुराग, खेलीअठखेली, मानमनुहार, प्रेम के इन श्रृंगारों से अछूते ही रह जा रहे थे सांभवी के यौवन के सपने.

34 साल के मेहुल का पतझर सा निर्मोही रूप सांभवी के कुम्हलाते जाने का सबब बन गया था. 4 साल से ऊपर हो गए थे मेहुल से शादी को लेकिन अब तक ऐसी कोई सूरत नहीं बन पाई  कि सांभवी स्वप्निल को अपनी काल्पनिक दुनिया से पूरी तरह  मिटा पाए.

मेहुल को अपनी दुनिया में डूबा देख वह भी खुद को लगातार लेखन में व्यस्त रखती और  स्वप्निल उस के जेहन से ले कर कागज़  के पन्नों  तक लगातार फ़ैल रहा था.

वह नहीं जानती थी कि स्वप्निल अपनी बीवी से कितना प्यार करता था, शायद बहुत, तभी तो ज़माने की परवा न करते हुए उस ने विजातीय विवाह किया. वह यह भी नहीं जानती कि स्वप्निल अपने बेटे से कितना प्यार करता है, पर हां, आज की तिथि में वह ये बातें जानना भी नहीं चाहती. वह अपनी यात्रा में खुश है.

अच्छा लगता है सांभवी को स्वप्निल के बारे में सोचना. अगर मेहुल इन 4 सालों में उस की परवा को मोल देता, तो शायद यह न होता. उस के रार ठानने, तकरार करने को बचकानी हरकत कह कर नजरअंदाज नहीं करता, उस के प्रेमविलास को अनावश्यक मान कर उस की अनदेखी न करता तब शायद सांभवी स्वप्निल की दुनिया को वास्तव तक न ले आती.

अब मेहुल के आगे झोली नहीं फैलाएगी सांभवी. मेहुल अगर उस के बिना दुरुस्त है तो वह भी सामाजिक दायित्व निभा कर खुद के सपनों को सींचेगी.

कहानी के नए प्लौट पर विचारते हुए शाम को सांभवी मार्केट से घर आई तो मेहुल का क्लास चल रहा था. उस की नजर उठी उधर और वह परेशान व  हैरान रह गई.

सारे बच्चे दूर से मेहुल को घेरे हुए थे, मेहुल अपनी कौपी  में उन्हें कुछ दिखा रहा था लेकिन शुचि… उस की हिम्मत देख सांभवी अवाक् रह गई. मेहुल भी कुछ नहीं कहता, क्या इस में  खुद उस की शह नहीं? अगर ऐसा नहीं होता तो 18  साल की इस लड़की की सब के सामने इतनी हिम्मत कैसे होती?

सांभवी कोफ़्त से भर उठी. कहीं इसलिए तो मेहुल उस की तरफ से उदासीन नहीं, कहीं यही तो कारण नहीं  कि वह क्लास की छुट्टी कर कभी उस के साथ घूमने नहीं जाता?

शुचि मेहुल के शरीर पर पूरी तरह लदी हुई उस से ताल समझ रही थी. यहां  बाकी सारे बच्चे भी हैं जो वही ताल समझ रहे हैं, फिर शुचि को मेहुल के शरीर पर ढुलकने की क्या जरूरत पड़ी?

उसे याद आया, बिस्तर पर मेहुल कैसे उसे पल में रौंद  कर पीछे घूम जाता है. प्रेम से ज्यादा देह में विचरण करने वाला कहीं शुचि के नरम, नाजुक, कोमल, किशोर शरीर पर…छिछि.

फिर से स्वप्निल सागर में डूबने की तैयारी कर ली उस ने. वह स्वप्निल को संदेश लिखने लगी थी.

अब उसे स्वप्निल से  बातें करने के लिए यह कहने की जरूरत नहीं पड़ती कि कहानी का  प्लौट दे रही हूं. अब सागर के किनारों की बंदिशें उस ने भेद ली हैं. 

“आहत हूं बहुत.” व्हाट्सऐप में टैक्स्ट किया. दो पल में सीन हो कर प्रत्युत्तर आया, “क्यों, क्या हुआ? तुम्हारी 2 कहानियां आ रही हैं अगले महीने.”

“बस, कहानी ही बन गई  है  जिंदगी मेरी.” उधर एक प्रश्नसूचक चुप्पी लेकिन सहानुभूति का स्पर्श पा रही थी सांभवी, लिखा, “18 साल की एक लड़की से बहुत क्लोज हो रहा है मेहुल.” लहजा शिकायती होने के साथ सागर को करीब पाने की छटपटाहट कम न थी.

“सांभवी, तब तो मेरी पत्नी को भी तुम से गुस्सा होना चाहिए, काम के सिलसिले में पुरुषों के लिए यह नई बात नहीं.”

सांभवी की ओर से सन्नाटा, विद्रूप और पश्चात्ताप के निशब्द पदचाप स्वप्निल को सुनते देर नहीं लगी, तुरंत उस ने बात संभाली, कहा, “अपने यौवन, सौंदर्य और टैलेंट की कद्र करो, जैसे मैं करता हूं तुम्हारी. तुम मेरी लकी चार्म हो. बी हैप्पी. मैं हूं न तुम्हारे साथ.”

टूटते हुए को फिर भी दिलासा हुई, गरम रेत पर स्वप्निल मेघ सा बरस गया था. मेहुल के रवैए की वजह से स्वप्निल के निकट जाने की उत्कंठा पर अब  उसे कोई शिकवा नहीं.

रविवार को मेहुल का स्टेज प्रोग्राम था. मेहुल ने खुद आगे बढ़ सांभवी को अपने प्रोग्राम में साथ चलने को कहा था. यह दिन उस के लिए ख़ास था. वह भी तो रहना चाहती है उस के संग, चाहती तो है कि मेहुल के संगीत में उस की खुशबू रहे और उस के साहित्य में मेहुल की.

सांभवी की चपल काया में इंडोवैस्टर्न ड्रैस खूब फब रही थी. सब की नजर उस की ओर अनायास ही उठ रही थी. प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद सांभवी ग्रीनरूम में मेहुल के पास पहुंची.

अब यह तो उम्मीद न थी. उसे बेहद बुरा लगा, जैसे कि अभी एक बच्चे की तरह सांभवी जोरजोर से रो पड़े.

यहां भी शुचि पहले से मौजूद. मेहुल के आगेपीछे वह यहां क्या कर रही है?

घृणा और कोफ़्त से भर गई सांभवी. मेहुल ने देखा सांभवी को, एक सहज दृष्टि, न प्रशंसा के भाव न संकोच का. कैसा छिपा रुस्तम है यह मेहुल. सांभवी के मन में लगातार मंथन चल रहा था .

“आओ चलेंगे, बाहर आयोजकों ने गाड़ी  तैयार रखी है, आओ शुचि,” सांभवी की ओर बढ़ते हुए मेहुल ने शुचि को साथ चलने का इशारा करते हुए कहा.

यह क्या, मतलब शुचि हमारे साथ? क्रोध ने सांभवी को मन ही मन जड़ कर दिया था. सबकुछ भूल कर एक बार फिर कोशिश करने का मन जो हुआ था उस का, उस पर  क्यों मिटटी डाल  रहा है, मेहुल. रोना आ रहा है सांभवी को, काश, यहां एक बिस्तर मिल जाता और वह उलटेमुंह धम्म से गिर कर जोर से रो पड़ती.

काफी मशक्कत के बाद इतना बोल पाई सांभवी, “ये हमारे साथ?”

“हां, तो इसे अकेली कैसे छोडूं? यह तो मेरा ही प्रोग्राम सुनने आई है, अकेली इतनी दूर से?”

“तो आई कैसे थी?” प्रश्न पूछ लेना भी उसे कचोट रहा था लेकिन खुद को रोक भी तो नहीं पाई वह. आखिर मेहुल इतना भी निर्लज्ज कैसे हो सकता है.

“वह आई थी अकेले औटो से, तब दिन था मगर अब इतनी रात गए उसे अकेले कैसे छोड़ दूं? मेहुल जैसे आंखें तरेर रहा हो कि आगे और कोई सवाल नहीं.

सांभवी ने खूब समझा था. अपने पति की दिल की बात क्या सांभवी न समझे.

ठीक है मेहुल, तुम्हें पतिपत्नी के रिश्ते की गरिमा और अनुभूतियां  समझ नहीं आतीं तो मैं भी हूं चपला प्रेम कामिनी, मुझे रोक न सकोगे. जब मैं स्वयं सलीके से जीना चाहती हूं तो तुम भटक जाना चाहते हो. फिर यही सही, मेहुल. सांभवी विस्फोट के मुहाने पर खुद को दबाए खड़ी थी.

गाड़ी में 2 लोग और थे जिन के उतरने के बाद पिछली सीट पर बीच में मेहुल के साथ अगलबगल शुचि और सांभवी हो गए थे. अब शुरू थी शुचि की प्रश्नलीला- सरसर करते दुनियाभर के सवाल. “आप ने इस में कोमल गांधार के साथ तीव्र ‘म’ लगाया, तार सप्तक पर जा कर पंचम को बीच में क्यों छोड़ दिया, हमें इस तरह तो नहीं बताया था?” सांभवी समझ रही थी सब. जायज सवालों के जरिए नाजायज अधिकार जता  रही थी शुचि.

सांभवी को तीव्र वेदना ने आ घेरा और वह माइग्रेन की शिकार हो गई.

शुचि का घर गली के अंदर था, बाहर ही जीप रुकी और मेहुल शुचि को घर तक छोड़ने गया.

बेहयाई की हद नहीं कोई. अब अकेले अंधेरे  में इतना सारा रास्ता उस बेशर्म लड़की के साथ. पता नहीं अकेले में  क्याक्या गुल खिला दें दोनों.

याद आता है शादी का वह शुरुआती दौर. अपना बनाने के लिए सांभवी ने मेहुल को ले कर क्याक्या यत्न किए थे. कोई उत्सव या अवसर हो, तो विशेष उपहार विशेष तरीके से देती, चुहल, हंसी, गुदगुदी, ठिठोली, खेलखेल में प्रेमनिवेदन, आंखों में मस्ती की भाषा आदि क्या कुछ न करती वह ताकि मेहुल के साथ अपनापन बढ़े, जीवंत अनुभूतियां  दिनोंदिन फलेफूलें.

मेहुल शांत रहता, जैसे जमी हुई बर्फीली नदी. कितने ही कंकड़ फेंकों, कोई हलचल नहीं. ऐसे शांत रहता जैसे सांभवी के मानसिक विकास पर उसे कोई शक हो, जैसे कि पतिपत्नी के बीच  इन बातों का कोई महत्त्व ही नहीं. ये बातें बचकाना हरकत थीं मेहुल के लिए.

अब तो मेहुल के प्रति वाकई उस के मन में घृणा की कठोर काई जम गई है.

मेहुल शुचि को घर तक छोड़ वापस सांभवी के पास बैठ गया और ड्राइवर  को रास्ते का निर्देश दे सांभवी की ओर देखा. वह आंखें बंद किए हुए माइग्रेन से जूझने की भरसक कोशिश में थी.

मेहुल ने पूछा, “कैसा लगा प्रोग्राम?”

“कौन सा प्रोग्राम? शुचि वाला या स्टेज वाला?”

“क्या कह रही हो, समझा कर कहो?” मेहुल का स्वर गंभीर हो गया था.

“क्या इस लड़की का तुम्हारे बदन में लोटपोट होना जरूरी है? क्या बाकी बच्चे नहीं सीख रहे हैं तुम से? तुम मना नहीं कर सकते हो? पर मना करने के लिए तुम्हें भी तो उस की यह हरकत गलत लगनी चाहिए.”

सांभवी को उम्मीद थी कि मेहुल उसे डांट कर चुप करा देगा जैसा कि अकसर लोग अपनी गलतियां  छिपाने के लिए करते हैं.

मेहुल एक कठोर मौन साध गया. घर जा कर भी चुप और फिर सुबह स्कूल जाने तक, बस, चुप ही.

सुबह मेहुल के स्कूल चले जाने के बाद सांभवी  ने स्वप्निल को फोन लगा दिया.

शायद, अब बांध टूट ही जाना था. परवा नहीं कि साथ में क्याक्या बह जाएंगे.

“स्वप्निल,” एक कांपती, तरसती, दर्दभरी आवाज स्वप्निल पहली बार सुन रहे थे जिस में ‘जी’ के बिना एक अनकही निकटता पैदा हो गई थी.

“अरे, क्या हुआ?” उधर से चिंतित स्वर.

“अभी कहूं?”

“हां, कहो, मैं औफिस के लिए निकलने वाला था, रानू निकल गई है, बोलो?”

सांभवी स्वप्निल की पत्नी रानू की अनुपस्थिति की सुचना से कुछ आस्वश्त हुई और बोली, “स्वप्निल.”

“कहो सांभवी.”

“मैं आप को देखना चाहती हूं, स्वप्निल. बहुत साल हो गए. मैं और कुछ नहीं सुनना चाहती.”

“मेहुल ने सताया,” स्वप्निल  ठिठोली करते हुए सांभवी  को शायद सचाई का आईना दिखाना चाहते हों, लेकिन सांभवी अपने मन के बिखरे कांच को इस वक्त अलगअलग नाम देने में समर्थ  नहीं थी. उस ने शिद्दत से कहा, “स्वप्निल, मैं आप से मिलने को कह रही हूं. मेहुल की बात मत करो.”

“अच्छा, ठीक है. तुम्हारे शहर आऊंगा अगले महीने, एक साहित्यिक पत्रिका का उदघाटन समारोह है. होटल ड्रीम टावर में ठहरूंगा, वहीं मिलेंगे हम. मैं वक्त पर सारा डिटेल दे दूंगा तुम्हें.”

“नहीं जानती यह महीना कैसे बीतेगा लेकिन इंतजार करूंगी, स्वप्निल.”

स्वप्निल ने फोन रख दिया था और सांभवी दर्दभरे ग्लेशियर से फिसलतीबहती जाने कहां  गिरती जा रही थी. उससे रहा नहीं गया, दोबारा फोन किया, कहा, “मैं क्यों टूटी जा रही हूं, स्वप्निल? क्या आप सुनना नहीं चाहेंगे? मैं आप से अपना दिल साझा करना चाहती हूं.”

स्वप्निल सांभवी को टटोल चुके थे, कहा, “डियरैस्ट, तुम एक राइटर हो, जो झेल रही हो उसे तुम एक बार खुद क्रिएट करो. वह राइटर खुशनसीब होता है जो संघर्ष झेल कर, आग से गुजर कर  कुछ नया रचता है. अब जो लिखोगी वह बेहतरीन होगा. प्लीज, इसी वक्त तुम प्लौट तैयार करो. तुम अपनी इसी मानसिक दशा को पकड़ो. जरूरत पड़े तो मुझे अपनी चाहतों में ढालो, तुम स्वतंत्र हो. मगर अभीअभी क्रिएट करो.

सारे दर्द, सारी सुप्त वासनाओं में रंग भरो. पूरी आजादी के साथ. अभी कई सारी बेहतरीन कहानियां चाहिए मुझे. और मैं जब आऊंगा तो तुम्हारे अंदर और कई कहानियां पैदा कर जाऊंगा.

“बी अ स्मार्ट प्लेयर, अ डांसिंग प्लेयर. समझ गई न मेरी बात, डियरैस्ट.”

सम्मोहित सी सांभवी ने कलम पकड़ लिया. कहानियों के रूप में मन के उथलपुथल जिंदा होने लगे. एक के बाद एक, लगातार कई दिन, कई कहानियां- ‘जिंदा आग’, ‘बर्फ का अंटार्टिक’, ‘ज्वलंत प्रश्न’, ‘जागृत कामनाएं’.

यहीयही चाहिए था स्वप्निल को लेकिन सांभवी को?

कहानी दे कर सांभवी ने संदेश भेजा स्वप्निल को- “मैं आप को खुश कर पाई न, स्वप्निल?”

“हां, बेहद.”

“हया की दीवारों ने मुझे मरोड़ रखा है, स्वप्निल. मेरा दम घुट रहा है. मैं तब से क्याक्या कहना चाहती थी आप से जब हमारी पहली मुलाक़ात थी.”

“क्या बात, कभी बताया नहीं. खामखां कितना ही वक्त बरबाद हुआ. चलो फिर भी जिंदगी नहीं गुजार दी कहने से पहले. शुरू होगी अब एक नई कहानियों की श्रृंखला. गुजर कर दरिया ए फना से. क्यों, है न?

“मुहब्बत में तो मौत का दरिया भी बाग़ ए बहारां हो जाता है. कहानियां क्या जबरदस्त होंगी सांभवी. मैं तुम से मिलने को उत्सुक हूं, सच.”

“सिर्फ कहानियों के लिए?”

“किस ने कहा?”

“तुम से ही तो मेरी कहानियां हैं. तुम तो मेरे लिए सब से महत्त्वपूर्ण हो. क्या मैं जिसतिस से यह बात कह सकता हूं?” स्वप्निल डुबा ले जा रहा था सांभवी को.

तीन रातों से मेहुल पास बर्फ सा पड़ा रहता है. वह तड़पती है बगल में आग सी. तीन रातों से लगातार वह स्वप्न देखती है. आज भी देख रही है. बंद पलकों से दर्द उछल कर बाहर आ रहा है. वह चिंहुकती है. मेहुल उसे धीरे से छूता है. उस के ललाट पर अपना हाथ रखता है. वह अचानक चीख उठती है, “स्वप्निल, नहींनहीं, आह, बचो, उफ़, चला दिया उस ने ट्रक तुम्हारे ऊपर. मार डाला मेहुल ने तुम्हें. आह, मैं तुम्हें बचा नहीं पाई. एक बार तुम से मिल नहीं पाई. प्यासी बंदिनी मैं. न प्रेम दिया उस ने, न करने ही दिया.”

मेहुल उठ कर बैठ गया था. पास आ कर उस के सिर को सहलाते हुए उस ने धीरेधीरे बुलाया, “सांभवी, उठो. तुम ठीक हो. घबराओ नहीं, सब ठीक है. किसी को कुछ नहीं हुआ.”

उस ने आंखें खोलीं जो खुली ही रह गईं, सामने साक्षात मेहुल. सुबह की लाली  फूटने को थी. मेहुल को देख अफ़सोस और क्रोध से वह टूटी जा रही थी. वह पीछे घूम मुंह फेर कर लेट गई. उसे बुखार था. पीछे मेहुल लेट गया.

एक मौन पश्चात्ताप का सागर दोनों के बीच  बह रहा था. दोनों डूबे पड़े थे उस में. लेकिन निकलने की कोशिश किसी में नहीं थी.

सुबह के 8 बज रहे थे. कोई हलचल नहीं दिखी सांभवी में, तो मेहुल चाय बना लाया. हौले से पुकारा उसे जैसे खुद की ख़ुशी के लिए अपने दर्द को भुला कर सांभवी को माफ़ कर देना चाहता है वह.

सूरज की तेज रोशनी जैसे अब सब स्पष्ट कर देने पर आमादा थी.

“क्या तुम स्वप्निल के पास जाना चाहती हो?”

“क्या तुम मुझे जाने के लिए कहना चाहते हो?”

“सांभवी…”

“ताकि शुचि…”

“सांभवी?” इस बार मेहुल का स्वर काफी तीक्ष्ण था.

“क्या हुआ?” सांभवी के चेहरे पर व्यथा और विद्रूप के मिश्रित भाव उभर आए थे, “बहुत प्यारा नाम है न, उस के बारे में कोई बात अच्छी कैसे लगेगी?”

“तुम से इतनी नीचता की आशा मैं ने कभी नहीं की थी. तुम ने अगर पहले ही पूछा होता, मैं बता देता अब तक लेकिन लगातार तुम ने बिना समझे व्यंग्य और आघात का सहारा लिया. जानने की कोशिश किए बिना ही सब समझ चुकी थी तुम.

“शुचि के पिता की सालभर पहले कैंसर से मौत हुई. वे मेरे बहुत अच्छे दोस्त थे. हम से 3 साल बड़े थे. गांव से शहर  हम एकसाथ स्कूल आते थे.

फिर मैं शहर आ गया  और वे गांव में ही खेतीकिसानी करते रहे. शुचि की मां  की अचानक मृत्यु के बाद शुचि को उन्होंने  इस शहर में अपने  छोटे भाई के परिवार में भेज दिया और मुझे शुचि के एडमिशन से ले कर पढ़ाई व संगीत सिखाने का दायित्व दिया. सालभर पहले एक बार मैं गांव गया था, तुम्हें याद होगा, उस वक्त शुचि  मेरे साथ ही गई थी क्योंकि मेरा दोस्त और उस के पापा मौत के कगार पर खड़े हम दोनों को साथ बुला रहे थे. मेरे जाते ही शुचि को मेरे हाथ में सौंप कर कहा, ‘अब से ये तेरी बेटी, भले तेरा अपना घरपरिवार रहे, तू पिता भी बने, यह अपने चाचा के पास रहे. लेकिन अब से यह तेरी बेटी हुई.”

मैं ने  दोस्त की ओर देख कहा, ‘शुचि मेरी बेटी और मेरी ही बेटी है.” दोस्त ने आंखें मूंद लीं.”

सांभवी को अपने व्यवहार पर अफ़सोस तो खूब हुआ लेकिन जरा अहं आड़े आ गया, कहा, “जब ऐसी बात थी तो इतनी चुप्पी की क्या जरूरत थी? पहले ही कह देते.”

“चलो, अब कह देता हूं. तुम स्वप्निल के पास जाना चाहती हो तो आजाद हो.”

पिघलती सी सांभवी फिर से अचानक जम गई. मेहुल क्या वाकई उसे नहीं चाहता, चाहता तो सुधरती हुई बात को बिगाड़ता क्यों भला? वह उठ कर चली गई.

सांभवी ने मेहुल को चुभोने के लिए स्वप्निल को मेहुल के सामने ही फोन किया, “स्वप्निल, क्या मैं ही आ जाऊं तुम्हारे पास हमेशा के लिए?”

“डियरैस्ट, कुछ अच्छा पाने के लिए सब्र की जरूरत होती है. तुम क्यों नहीं  तब तक अपने लेखन पर ध्यान लगाती?”

सांभवी को दिमाग में दर्द के गरम शीशे पिघलते से लगे. कई तरह की भावनाओं के जोड़घटाव, गुणाभाग में उलझ कर वह पस्त हो गई और बिस्तर पर निढाल पड़ गई.

दो दिनों तक मेहुल और सांभवी पतझर से बिखरे रहे.

तीसरे दिन मेहुल आ कर सोफे पर सांभवी के पास बैठ गया. वह दीवारों को  ताकती शून्य सी बैठी थी.

“तो क्या सोचा, कब जा रही  हो स्वप्निल के पास?”

“क्या बात क्या है? जाना जरूरी है क्या?”

“क्यों नहीं, मेरे पास रह कर तो तुम प्यासी बंदिनी हो.”

“हां, हूं. उस से ज्यादा क्या हूं? तुम ने जाना है कभी खुद को?”

“मैं बुरा हूं, तो तुम किसी के पास भी चली जाओगी?”

“तुम कैसे जानते हो वह कैसा है?  सोनोग्राफी करवाई उस के आंत की?”

“हां  करवाई.”

“क्यों, तुम उस के पास जाना चाहती हो इसलिए.”

“क्यों, तुम्हें क्या?”

‘क्यों नहीं, उसे बिना परखे कैसे जाने दूं तुम्हें?”

“क्यों, बताओ?”

“क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम ऐसे हाथ में पड़ो जहां तुम्हारी कद्र नहीं. वह अपने परिवार और बच्चे के आगे तुम्हारा मोल कौड़ी का भी नहीं रखता. उस के लिए तुम कहानियों की एक मशीन हो, बस. क्या तुम कुछ भी नहीं समझती? उस के लिए उस की बीबी सबकुछ है, तुम नशे की हालत में हो.”

“जहन्नुम में जाने दो मुझे, मैं ने खुद को तुम पर थोप कर देख लिया बहुत.”

“नहीं” मेहुल लिपट गया उस से. सांभवी का चेहरा उस के हाथों में था. मेहुल के होंठ सांभवी की आंखों के उन भारी  पलकों पर आ कर रुक गए थे जहां जाने किन सदियों से अभिमान के घने मेघ जमे थे.

सांभवी ने मेहुल के कंधे पर सिर रख दिया.

पूरी तरह निढाल हो कर वह जैसे पहली बार सुकून की सांस  लेने लगी. और शोख हवाओं को अभी ही मस्ती सूझ पड़ी. इन के गुदगुदाते स्पर्श ने उन्हें इस कदर बेकाबू कर दिया कि वे दोनों हरसिंगार के फूलों की तरह एकदूसरे पर बिछबिछ गए.

अब मेहुल समझ रहा था कि पतिपत्नी बन जाने के बाद भी शोखियों की कारगुजारियां कितनी मदमस्त और जिंदादिल होती हैं और रिश्तों की मजबूत बुनावट के लिए कितना जरूरी भी.

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