इतिहास में मामूली दिलचस्पी रखने वाला भी जानता है कि सिख धर्म मुगलों से हिंदुओं की हिफाजत के लिए बना था. ये सिख भी अधिकतर दलित हिंदू ही थे जिन्हें गुरुगोविंद सिंह ने हिम्मत और अन्याय से लड़ने का जज्बा दिया जिसे अमृत छकाना (पंच ककार धारण करना) कहा जाता है. लेकिन एक हकीकत कम ही सनातनी जानते हैं और जो जानते भी हैं तो वे उसे स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते कि गुरुनानक का एक अहम मकसद तत्कालीन हिंदू समाज में फैली रूढ़ियों, भेदभाव, कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाना भी था. खालसा पंथ के संविधान में से तो जातपांत नाम का अनुच्छेद ही डिलीट कर दिया गया था.

कनाडा की ताजी सिखहिंदू हिंसा के मद्देनजर कनाडा में भी जो हिंदू भारत के सनातनियों की तर्ज पर ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का जुमला बुलंद कर रहे हैं उन्हें यह सबक इतिहास और सिख धर्म की स्थापना से ले ही लेना चाहिए कि एकता के लिए जरूरी यह है कि जातपांत, भेदभाव और छुआछूत फैलाने का निर्देश और आदेश देने वाले अप्रांसगिक हो चुके धर्मग्रंथों से वक्त रहते किनारा कर लिया जाए. नहीं तो कटते रहना हिंदुओं की नियति थी और आगे भी रहेगी और इस का जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि वे सवर्ण हिंदू ही होंगे जो रामायण, गीता और मनुस्मृति जैसे भेदभाव व नफरत फैलाते ग्रंथों को सीने से लगाए अवर्ण हिंदुओं को लतियाते और बहिष्कृत करते रहते हैं (हालांकि किसी भी दौर में ये ब्राह्मणवादी धर्मग्रंथ प्रासंगिक नहीं थे). गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी और गुरुनानक जैसे चिंतकों ने बिना इन्हें नष्ट किए या जलाए बगैर अलग संप्रदाय खड़े करने में बेहतरी समझी जो आज क्रमश बौद्ध, जैन और सिख धर्म के नाम से जाने व पहचाने जाते हैं. अब यह और बात है कि इन धर्मों के अनुयायी भी इन रोगों की चपेट में, आंशिक रूप से ही सही, आने लगे हैं.

नवंबर महीने की शुरुआत से ही कनाडा में हिंदूसिख तनातनी की खबरें आने लगी थीं जो आखिरकार हिंसा में तबदील हो गईं. खालिस्तान समर्थक सिखों ने 2 हिंदू मंदिरों पर धावा बोला और हिंसा भी की. पहली वारदात टोरंटो के ब्रेम्पटन स्थित हिंदू सभा मंदिर में हुई जहां खालिस्तानियों ने मंदिर के अंदर घुस कर मारपीट की.

हमलावर खालिस्तानियों की भीड़ में शामिल लोगों के हाथ में पीले खालिस्तानी झंडे थे. उपद्रव और शांति भंग के आरोप में पुलिस ने 3 लोगों को गिरफ्तार किया. कनाडा में हिंदू मंदिरों पर हमले की यह कोई पहली वारदात नहीं थी. इस के पहले भी ब्रिटिश कोलंबिया और ग्रेटर टोरंटो सहित दूसरी जगहों पर भी हिंदू मंदिरों पर हमले हो चुके थे. इन का इतिहास लंबा है और पुराना भी. 1984 के सिख दंगों के बाद से ही कनाडा के सिखों ने वहां के हिंदुओं को निशाने पर ले रखा है. वे आएदिन हिंदू मंदिरों पर हमले बोला करते हैं और ‘हिंदुओं भारत वापस जाओ’ का नारा भी लगाते रहते हैं.

कनाडा में सिखहिंदुओं की नफरत का खमियाजा अकसर मंदिरों पर गिरता है. ताजी वारदातों में एक अहम वारदात बीती जुलाई में देखने को आई थी जब एड्मोर्टन के बीएपीएस मंदिर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इकलौते कनाडाई हिंदू सांसद चंद्र आर्य को हिंदू आतंकवादी बताते मंदिर के भित्तिचित्रों के साथ तोड़फोड़ की गई थी.

अक्तूबर 2023 में तो ओंटारियों में एकसाथ 6 हिंदू मंदिरों में सेंध लगाई गई थी. इन मंदिरों में चितपूर्णी मंदिर, केलेनडन में रामेश्वर मंदिर, मिसीसागा में हिंदू हैरिटेज सैंटर, पिकरिंग में देवी मंदिर और अजाक्स का संकट मोचन मंदिर शामिल हैं. इस से पहले अगस्त 2023 में सरे में लक्ष्मीनारायण मंदिर में तोड़फोड़ की गई थी और फ्रंट गेट व पिछली दीवार पर भारत विरोधी और खालिस्तान समर्थक पोस्टर चस्पां किए गए थे.

इसे भारतकनाडा विवाद से भी जोड़ कर देखने की कोशिश की गई जो अभी तक जारी है. इस की शुरुआत बीती 18 सितंबर को हुई थी. उस दिन कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने भारत पर निज्जर की हत्या का आरोप लगाते भारत के एक सीनियर डिप्लोमैट को बाहर का रास्ता दिखला दिया था.

गौरतलब है कि 18 जून, 2023 को खालिस्तानी समर्थक और वैंकूवर स्थित गुरुनानक सिख गुरुद्वारा के अध्यक्ष हरदीप सिंह निज्जर की गुरुद्वारे की पार्किंग में गोली मार कर हत्या कर दी गई थी. गौरतलब यह भी है कि निज्जर खालिस्तान टाइगर फोर्स के भी मुखिया थे.

इस के दूसरे दिन यानी 19 सितंबर को ही भारत सरकार ने कनाडा में रह रहे भारतीयों के लिए एक एडवायजरी जारी करते उन से यानी भारत विरोधी गतिविधियों से सतर्क रहने की अपील की थी. 21 सितंबर को और आक्रामक होते भारत ने कनाडा के लोगों के लिए वीजा सेवाएं सस्पैंड कर दीं. इस संबंध में विदेश मंत्रालय ने कहा था कि हमारे डिप्लोमैट्स को लगातार धमकियां मिल रही हैं. 13 अक्तूबर को कनाडा सरकार ने भारत को एक चिट्ठी भेजी जिस में हाई कमिश्नर संजय वर्मा सहित दूसरे डिप्लोमैट्स को एक मामले में संदिग्ध करार दिया गया था. एवज में 14 अक्तूबर को ही भारत ने इन लोगों को वापस बुला लिया.

जाहिर है, बात बिगड़ चुकी थी और अभी तक सिखों या हिंदुओं का इस से घोषित तौर पर कोई सीधे लेनादेना नहीं था. लेकिन वक्त बीतते जस्टिस ट्रूडो इस मामले को ले कर भारत पर सख्त होते गए और उन्होंने निज्जर के कातिलों को कनाडा की संसद में भारत सरकार का एजेंट बता डाला जिस का भारत ने तुरंत खंडन किया. कनाडा ने यह आरोप भी लगाया कि भारतीय डिप्लोमैट्स अपने पद का बेजा इस्तेमाल करते हुए भारत सरकार के लिए जानकारियां जुटा रहे हैं जिन का इस्तेमाल दक्षिणएशियाई लोगों को निशाना बनाने में किया जाता है. जेल में बंद लौरेंस विश्नोई से भी कनाडा ने हिंसा के तार जोड़ते बयान दिए थे. निज्जर के हत्यारों के बारे में जांच में पता चला कि तीनों युवा आरोपी करण बराड़, करणप्रीत और कमलप्रीत पंजाब के रहने वाले हैं और खातेपीते परिवारों से हैं.

यह मसला सुलझ पाता, इस के पहले ही मंदिर पर हमलों ने तूल पकड़ लिया. इस के भी पहले एक सनसनीखेज बयान में कनाडा ने गृहमंत्री अमित शाह पर अमेरिकी मीडिया हाउस वाशिंगटन पोस्ट के हवाले से कनाडा में तोड़फोड़ का आरोप लगाया था. इस को भी बेतुका बताते भारत ने खंडन किया था. भारत का आरोप यह है कि कनाडा सरकार और ट्रूडो भारत विरोधी गतिविधियों को शह दे रहे हैं.

इधर, दीवाली के बाद कनाडाई हिंदुओं ने भी विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. उन्होंने इस के लिए जय श्रीराम और हरहर महादेव के नारों का सहारा लिया. 5 नवंबर को ब्रेम्पटन शहर में हजारों हिंदुओं ने प्रदर्शन किया. इन के हाथ में तिरंगा और भगवा झंडों के अलावा कनाडा का राष्ट्रीय ध्वज भी था. इस मार्च का आयोजन ‘कोलिशन औफ हिंदूज इन नौर्थ अमेरिका’ ने किया था. इन प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को भी कोसा और हिंदू फोबिया पर भी सख्त कार्रवाई करने की मांग की. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्रूडो को कूटनीतिक भाषा में हड़काने की रस्म पहले ही अदा कर थी तो विदेश मंत्री जयशंकर ने भी उन का अनुसरण किया.

5 नवंबर के प्रदर्शन में हिंदू भड़काऊ बातें करते नजर आए, मसलन यह कहना कि जो कोई भी हिंदुओं का विरोध करेगा तो उसे छोड़ेंगे नहीं बल्कि तोड़ेंगे. हिंदू सभा मंदिर विवाद में भी हिंदुओं ने भड़काऊ नारे लगाए थे जिन का मकसद सिखों को उकसाना और भड़काना ही था. 5 नवंबर को ही हिंदू सभा मंदिर के पंडित राजेंद्र प्रसाद को सिखों के खिलाफ हिंसक बयानबाजी करने के आरोप में हिंदू सभा मंदिर के अध्यक्ष मधुसूदन लामा ने निलंबित करते हुए बाहर का रास्ता दिखाने को मजबूर होना पड़ा था.

ब्रेम्पटन के मेयर पैट्रिक ब्राउन ने इस पुजारी की करतूत की निंदा सोशल मीडिया पर करते हुए यह भी लिखा था कि अधिकांश कनाडाई सिख और कनाडाई हिंदू सद्भाव में रहना चाहते हैं और हिंसा बरदाश्त नहीं करते हैं. पंडित राजेंद्र प्रसाद के निलंबन से साफ लगा था कि हिंदू सारा दोष सिखों के सिर मढ़ कर पाकसाफ दिखना चाहते हैं.

इधर, भारत में सिखों ने समझदारी का परिचय देते हुए कनाडा की हिंसा के विरोध में जगहजगह विरोध प्रदर्शन करते कनाडा सरकार पर खालिस्तानियों को संरक्षण देने के खिलाफ नारेबाजी की. भोपाल के रोशनपुरा चौराहे पर ऐसे ही एक प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे मध्य प्रदेश के प्रमुख भाजपाई सिख नेता और गुरुद्वारा सिख सभा के संरक्षक जसपाल अरोरा ने कनाडा सरकार को कोसते हुए यह भी कहा कि हिंदू सनातन धर्म का सब से मजबूत पंथ सिख पंथ है जिस के कुछ लोगों को भड़का कर उन्हें खालिस्तानी नाम दे कर उन के द्वारा कनाडा में एक तथाकथित आंदोलन चलाया जा रहा है.

जल्द ही इस मामले में राजनीति भी शामिल कर ली गई, जब भारतीय मीडिया ने यह कहना शुरू किया कि ट्रूडो के लिए सिख वोट अहम हैं क्योंकि अगले साल कनाडा में आम चुनाव हैं और ट्रूडो एक बार फिर इन्हीं के सहारे प्रधानमंत्री बन जाना चाहते हैं. कोई 4 करोड़ की आबादी वाले में कनाडा में लगभग 9 लाख सिख हैं हालांकि हिंदुओं की तादाद सिखों से थोड़ी ज्यादा है लेकिन वे वहां वोटर नहीं हैं. कनाडा की संसद में 15 सिख सांसद हैं और ट्रूडो मंत्रिमंडल में 4 सिख हैं. जबकि इकलौते हिंदू सांसद चंद्र आर्य हैं. सिखों से ज्यादा आबादी वाले हिंदुओं की संसद में तादाद कम क्यों है, इस का चिंतनमंथन कनाडा के हिंदुओं को करना चाहिए जो वहां भी जातिवाद के शिकार हैं. सिखों की कनाडा में छोटीमोटी कई राजनातिक पार्टियां हैं जिन में प्रमुख लिबरल पार्टी औफ कनाडा, कंजर्वेटिव पार्टी औफ कनाडा और एनडीपी यानी न्यू डैमोक्रेटिक पार्टी शामिल हैं.

इस समीकरण के मद्देनजर भारत के हिंदू नेता आरोप यह लगा रहे हैं कि खालिस्तानियों को खुश करने के लिए ट्रूडो सिखों को हिंदुओं पर हमलों की खुली छूट दे रहे हैं. हालांकि यह दलील देने वाले इस तथ्य को नजरअंदाज कर जाते हैं कि ट्रूडो सरकार में शामिल खालिस्तान समर्थक जगमीत सिंह की अगुआई वाली एनडीपी, जिस के 24 सांसद हैं, ने अपना समर्थन वापस ले लिया था जिस के चलते अल्पमत में आ गई ट्रूडो सरकार एक अक्तूबर के फ्लोरटैस्ट में जुगाड़तुगाड़ कर बहुमत साबित कर पाई थी. जगमीत सिंह से पहले एनडीपी के अध्यक्ष कनाडाई नेता ही हुआ करते थे.

विदेशी धरती पर लड़ रहे सिख और हिंदुओं का बैर और अलग खालिस्तान की मांग बहुत पुरानी है. भारत में जो हुआ उसे सब जानते हैं कि इंदिरा गांधी की हत्या कैसे और क्यों हुई और कैसे राजीव गांधी ने इसे तात्कालिक तौर पर सुलझाया था.

आमतौर पर लोग यही मानते हैं कि खालिस्तान की मांग ने 80-90 के दशकों में जन्म लिया लेकिन हकीकत में यह 95 साल पुरानी मांग है. साल 1931 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू ने जब पूर्ण स्वराज की बात कही थी तब शिरोमणि अकाली दल के मास्टर तारासिंह ने सिखों के लिए एक अलग देश बनाने की मांग की थी क्योंकि उन की चिंता वे ब्राह्मण थे जो गुरुद्वारों के पंडेपुजारी बन कर लूटखसोट तो मचा ही रहे थे, साथ ही, सिखों में भी हिंदुओं सरीखे अंधविश्वास फैला रहे थे. तारासिंह ने ही इन्हें गुरुद्वारों से खदेड़ा था. आजादी के बाद भी खालिस्तान की मांग कायम रही लेकिन कांग्रेस सरकार ने इसे हलके में ले कर टाल दिया था.

1955 में एक बार फिर अकाली दल ने भाषा के आधार पर राज्य के पुनर्गठन के लिए आंदोलन किया था. उस की मांग थी कि पंजाबी और गैरपंजाबी भाषी क्षेत्रों में विभाजित किया जाए. तब प्रमुख हिंदूवादी संगठनों आरएसएस और हिंदू महासभा ने गुरुमुखी भाषा में शिक्षा देने सहित इस का विरोध किया था. इस से उन्हें क्या हासिल हुआ, यह राम जाने.

1966 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पंजाब को 3 हिस्सों में बांट दिया था जिस के तहत हिमाचल प्रदेश और हरियाणा को नया राज्य बनाया गया और चंडीगढ़ को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया था. तब भी अकाली दल इस मांग पर अड़ गया था कि रक्षा, विदेश, संचार और मुद्रा छोड़ कर दूसरे सारे अधिकार पंजाब को दे दिए जाएं. लेकिन इंदिरा गांधी ने इस मांग को खारिज कर दिया था. 80 के दशक में एक बार फिर पृथक खालिस्तान की मांग ने जोर पकड़ा जिसे दमदम अकाली दल के मुखिया जरनैल सिंह भिंडरांवाला ने एक आंदोलन की शक्ल दे दी. इस के बाद जो भी हुआ, अप्रिय ही हुआ और खालिस्तान की मांग हौरर फिल्मों के प्रेत की तरह हर कभी सिर उठाती रही.

इस पूरे दौर और खेल में एक बात आईने की तरह साफ है और आज भी होती रहती है कि हिंदू और सिख एकसाथ सहज ढंग से नहीं रह सकते और असहज ढंग से रहने का खमियाजा अब भारत के बाहर कनाडा में भी भुगत रहे हैं जिस का दोष राजनीति या किसी ट्रूडो को देना असल मुद्दे से ध्यान भटकाने जैसी बात है. लड़ाई चूंकि धार्मिक है, इसलिए राजनीति से नहीं सुलझने वाली. जो काम इंदिरा और राजीव गांधी जैसे धुरंधर प्रधानमंत्री नहीं कर पाए उसे नरेंद्र मोदी कर दिखाएंगे, इस में शक नहीं बल्कि यकीन है कि यह काम उन के बूते का भी नहीं. हां, बातें वे भी हजार करें, यह हर्ज और गौर करने वाली भी बात नहीं. यह बात महज 9 महीने पहले 20 फरवरी को ही एक और खालिस्तानी समर्थक ‘वारिस दे पंजाब’ के स्वयंभू मुखिया अमृतपाल सिंह ने कही भी थी जिसे खडूर साहब लोकसभा क्षेत्र की जनता ने भले ही जिता कर लोकसभा भेज दिया लेकिन वह इन दिनों असम की डिब्रूगढ़ जेल में बंद है.

तो फिर समस्या का हल क्या, क्या पृथक खालिस्तान की मांग मान लेनी चाहिए? इस का जवाब है, हरगिज नहीं. जरूरत इस बात की है कि हिंदू सिखों के प्रति अपना पूर्वाग्रह छोड़ें, हिंदू राष्ट्र की बेजा मांग छोड़ें, देश को धर्मनिरपेक्ष रहने दें और याद रखें कि कैसीकैसी कुर्बानियां सिख गुरुओं ने उस सनातन हिंदू धर्म की रक्षा के लिए दी हैं जिस के मूलभूत सिद्धांतों, खासतौर से वर्ण व्यवस्था, से ही वे सहमत नहीं थे. जरूरत इस बात की भी है कि हिंदू भी कृतघ्नता छोड़ें और सिखों का मजाक बनाना व उड़ाना बंद करें, संक्षेप में याद दिला देना जरूरी है कि किसान आंदोलन के दौरान किसानों को खालिस्तानी कहा गया था. उन के आंदोलन को विदेशियों, खासतौर से पाकिस्तान, से फंडिंग होना बताया गया था.

छोटेबड़े सनातनी नेता किसान आंदोलन और सिखों को कोसते रहे लेकिन हद ऐक्ट्रैस कंगना रानौत ने कर दी जो हर कभी सिखों और किसानों को अपने बयानों के जरिए जलील करती रहती हैं. इन दिनों कंगना हिमाचल प्रदेश के मंडी लोकसभा सीट से भाजपाई सांसद हैं जो अमर्यादित आचरण को ही राजनीति समझती हैं. बडबोली कंगना ने कब, क्या कहा, इस पर एक नजर डालें तो समझ आता है कि सुंदर चेहरे वाली इस ऐक्ट्रैस का दिल कितना बदसूरत है.

नवंबर 2021 में पहली बार कंगना ने एक विवादित बयान दिया था कि किसान आंदोलन के जरिए देश को कमजोर किया जा रहा है. किसानों ने अपने हितों के लिए राष्ट्र की अनदेखी की है. दरअसल तब कंगना भाजपा में आने के लिए छटपटा रही थीं और भाजपा की ही जबान बोलती थीं. किसान आंदोलन में चूंकि पंजाब के किसान ज्यादा थे इसलिए उन का मतलब और इशारा सिखों की तरफ ही था.

इस के पहले फरवरी 2021 में कंगना किसान आंदोलन को आतंकवाद करार दे चुकी थीं. बकौल कंगना, ये किसान नहीं बल्कि आतंकवादी हैं जो भारत को विभाजित करने की कोशिश कर रहे हैं. यह वह वक्त था जब किसान आंदोलन के पक्ष में राष्ट्रीय के अलावा कई नामी अंतर्राष्ट्रीय हस्तियां भी बोल रही थीं. इन में मशहूर पौप स्टार रिहाना और ग्रेटा थानबर्ग के नाम उल्लेखनीय हैं. 2 फरवरी, 2021 को रिहाना ने सोशल मीडिया पर लिखा था कि आखिर हम इस (किसान आंदोलन) के बारे में बात क्यों नहीं कर रहे हैं. एवज में कंगना ने घटिया और पूर्वाग्रही बात कह डाली थी.

कंगना की सिख समुदाय से बैर, नफरत और भड़ास नवंबर 2021 में भी उजागर हुए थे जब उन्होंने इंस्टाग्राम पर लिखा था कि खालिस्तानी आतंकवादी आज सरकार को परेशान कर रहे हैं लेकिन हमें एक महिला को नहीं भूलना चाहिए. एकमात्र महिला प्रधानमंत्री ने इन्हें अपनी जूतियों के नीचे कुचल दिया था चाहे उन्होंने देश को कितनी तकलीफें ही क्यों न दी हों. उन्होंने अपनी जान की कीमत पर इन्हें मच्छरों की तरह कुचल दिया. लेकिन देश के टुकड़े नहीं होने दिए. इस बयान से आहत सिखों ने देशभर में कंगना का विरोध किया था लेकिन उन के कान पर जूं नहीं रेंगी और ऐसे विवादित बयानों को वे शान की बात समझने लगी थीं.

सांसद बनने के बाद भी यह बड़बोली ऐक्ट्रैस सुधरी नहीं. 25 अगस्त, 2024 को एक बार फिर उन्होंने सोशल मीडिया पर यह कहते बवाल खड़ा कर दिया कि “किसान आंदोलन के जरिए भारत में बंगलादेश जैसी स्थिति पैदा करने की तैयारी थी, जो बंगलादेश में हुआ वह यहां होने में भी देर नहीं लगती अगर हमारा शीर्ष नेतृत्व सशक्त न होता. जहां किसान आंदोलन हुए वहां पर लाशें लटकी थीं, वहां रेप हो रहे थे. किसानों की बड़ी लंबी प्लानिंग थी, जैसे बंगलादेश में हुआ इस तरह का षड्यंत्र…आपको क्या लगता है, किसानों…चीन, अमेरिका इस तरह की विदेशी शक्तियां यहां काम कर रही हैं.”

इस पर भी बवाल मचा तो भाजपा ने इस से पल्ला झाड़ लिया कि, “यह पार्टी की राय नहीं है. नीतिगत विषयों पर बोलने को ले कर कंगना रानौत को न तो अनुमति है और न ही वे बयान देने के लिए अधिकृत हैं. कंगना को निर्देशित किया गया है कि वे भविष्य में इस तरह के कोई बयान न दें.”

इस निर्देश से कंगना ने यही सीखा कि उन्हें इस तरह के ही बयान देते रहने के लिए पार्टी ने अधिकृत किया है, सो, ठीक एक महीने बाद 24 सितंबर को उन्होंने फिर रट्टू तोते की तरह कहा कि तीनों विवादास्पद कृषि कानून फिर से लागू करने चाहिए और इस की मांग खुद किसानों को करनी चाहिए. अब तक लोग उन की किसानों और सिखों के प्रति सनक, कुंठा और भड़ास के आदी हो चुके थे, इसलिए किसी ने उस पर ध्यान ही नहीं दिया.

अब हैरानी नहीं होनी चाहिए कि सनातनी रंग में रंग चुकी कंगना कनाडा की हिंसा पर भी कुछ न कुछ ऐसा बोले जो उन्हें सुर्खियां दे. हालांकि, विवादित बयानों से ज्यादा सुर्खियां उन्हें इसी साल 6 जून को मिली थीं जब दिल्ली जाते वक्त चंडीगढ़ एयरपोर्ट पर उन्हें सीआईएसएफ की एक महिला कांस्टेबल कुलविंदर कौर ने गाल पर तबीयत से थप्पड़ जड दिया था. कुलविंदर ने कुछ न छिपाते हुए बेबाकी से बता दिया था कि उस ने अभिनेत्री सांसद को थप्पड़ इसलिए मारा कि उस ने किसान आंदोलन को ले कर कमैंट किया था कि पंजाब की महिलाओं ने पैसों के लिए किसान आंदोलन में हिस्सा लिया था. इस आंदोलन में उस की मां भी शामिल थी जिन का अपमान उस से बरदाश्त न हुआ.

ऐसे माहौल में हिंदीभाषी इलाकों के सिख अगर मुसलमानों की तरह खुद को असुरक्षित, अलगथलग और उपेक्षित समझ रहे हैं तो इस की वजह बहुसंख्यक हिंदुओं का उन के प्रति वही नजरिया है जो मुसलमानों के प्रति है. इसी की प्रतिक्रिया में जगजीत सिंह भिंडरांवाला, जगमीत सिंह और अमृतपाल सिंह जैसे दर्जनों सैकड़ों नौजवान धार्मिक उन्माद का शिकार हो कर देश का माहौल बिगाड़ते हैं और इसी की भड़ास अब कनाडा में निकल रही है जहां हिंदू सिख आस्तीनें चढ़ाए आमनेसामने खड़े एकदूसरे का सिर फोड़ रहे हैं और कैथोलिक ईसाई तमाशा देख रहे हैं.

इधर सिखों को भी ध्यान रखना चाहिए कि खुदा न खास्ता खालिस्तान कभी बन भी गया तो चैन से वे भी नहीं रह पाएंगे. अफगानिस्तान के साथसाथ पाकिस्तान इस का बेहतर उदाहरण हैं जहां के फिरकापरस्त मुसलमान कठमुल्लाओं की कठपुतली बने आपस में लड़तेझगड़ते रहते हैं और हर कभी फांके करते रहते हैं. ऐसा सिर्फ कट्टरवाद की वजह से है जो विकास और तर्कों से कोई वास्ता नहीं रखता.

‘बटेंगे तो कटेंगे’ का नारा बुलंद करने वाले हिंदू किस हद तक जातिगत भेदभाव के शिकार हैं, यह उन के इस नारे देने की मजबूरी से ही पता चलता है. इसलिए नारा तो सब का यह होना चाहिए कि ‘जुड़ेंगे तो बढ़ेंगे, नहीं तो फिर पिछ्ड़ेंगे’. लेकिन सभी धर्मों के ठेकेदार और दुकानदार सभी को यह सोचने की मोहलत और मौका देंगे, ऐसा सोचने की कोई वजह नहीं.

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