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तनहाइयां

दिल की तनहाइयों में उतरे तो
जाना कितने तनहा हैं हम
यूं तो चलते रहे दुनिया के
रेले में वक्त के साथ
पर तनहा दिल घुटता ही गया
यूं कहें उसे अकेला छोड़ते गए हम

जो कहा, किया, वो दिल को न भाया
कुछ अनकही रही, कुछ अनसुनी रही
कुछ वक्त के साथ छूटी, कुछ मजबूरी में
कुछ पास आ के नहीं आई
कुछ गई दूरी में

कुछ समझा गलत, तो कुछ माना गलत
कुछ हासिल हुआ, कुछ बिसरा भी
कुछ संजोया तो कुछ बिखरा भी
कुछ कहा, तो रहा कुछ अनकहा भी

कुछ को दिल न माना
तो रही कुछ से शिकायतें
और कुछ को अपना
न कह सका ये दिल

बस यूं कहें कि बहुतकुछ रहा ऐसा
कि दिल पर बोझ बढ़ता ही गया
न बोल सका कुछ, न ही कुछ कर सका
अकेला, बस, अकेला होता चला गया

जब दिल की गहराइयों में उतरे तो
जाना कितने तनहा हैं हम.
– नीतू

VIDEO : कलर स्प्लैश नेल आर्ट

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भारतीय जनता पार्टी की दलित उलझन

भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के अपने अभूतपूर्व वोटरों को बचाने के लिए जिस दलित पैतरे को अपनाया है वह उस पर भारी पड़ेगा. अपने विरोधियों को मिलाना हमारी हिंदू परंपरा रही है पर विरोधियों को मिलाने के बाद उन्हें हमेशा नीचा स्थान दिया गया और इस्तेमाल कर के छोड़ दिया गया. 2014 में ‘सब का साथ’ का नारा लगा कर दलितों और पिछड़ों को पटाया गया पर फिर छोड़ दिया गया. अब समाजवादी पार्टी से उत्तर प्रदेश में फूलपुर और गोरखपुर सीटों पर हुए लोकसभा उपचुनावों में पटखनी खाने के बाद भाजपा को दलित फिर याद आए हैं और जोरशोर से वह भीमराव अंबेडकर को याद कर रही है हालांकि वह मन से उन की जघन्य विरोधी रही है.

भाजपा जो उलटपलट करती है वह असल में उस की पौराणिक मानसिकता है. अमृत मंथन में देवताओं, जिन्हें भाजपा अपना मानती है, ने समुद्र मथने में असुरों को, जिन्हें भाजपा विदेशी मानती है, मिलाया पर अमृत मिलते ही विष्णु की मोहिनी अवतार के लटकेझटकों से उसे छीन लिया और असुरों को हिस्सा नहीं दिया. यही 2014 के आमचुनाव के बाद सरकार के गठन में किया गया जब सारे मलाईदार मंत्रालय ऊंचों ने अपने पास रख लिए. अब दलित हल्ला मचा रहे हैं तो फिर राम की युद्ध की तैयारी सी की जा रही है और वानरों आदि को फिर फुसलाया जा रहा है. कठिनाई यह है कि अब पौराणिक चालें पूरी तरह हिट नहीं हो रहीं. दलितों को खुश करने के लिए यदि एससी कानून में या आरक्षण प्रक्रिया में कुछ बदलाव लाया गया तो ऊंची सवर्ण जातियां विद्रोह कर जाएंगी. यह न भूलें कि यही जातियां पश्चिम बंगाल, केरल, त्रिपुरा में कम्युनिस्टों तक के साथ जुड़ गई थीं ताकि मजदूरों को लाल झंडे के नीचे पटा कर इस्तेमाल किया जा सके. आज ये जातियां भाजपा में जाने की इच्छुक हैं पर वहां यदि सब मालपुआ दलितों में बंट गया तो फिर उन्हें क्या लाभ होगा?

भारतीय जनता पार्टी में आंतरिक विद्रोह की जो सुगबुगाहट सुनाई दे रही है उस का एक कारण यही है कि पिछले कुछ महीनों से भगवा दुपट्टा अपना रंग छोड़ने लगा है. यह अब मनमरजी करने का पासपोर्ट नहीं रह गया. सवर्ण जातियां यदि तिलक, जनेऊ व भगवा गमछे का लाभ न उठा पाईं तो फिर भाजपा में रहने का उन्हें क्या लाभ होगा? हाल के चुनावों में कुछ ऐसा ही देखने को मिला है. 2 अप्रैल को भारत बंद पर दिखा, उन्नाव व कठुआ में बलात्कारों पर दिखा. यदि भगवा कवच काम का नहीं, तो फिर रामबाण या गांडीव को पाने की लालसा का क्या लाभ? भारतीय जनता पार्टी को ऊंची जातियों पर ही निर्भर रहना होगा क्योंकि उन्हीं की निष्ठा मजबूत है. उन्हें नाराज किया तो कांग्रेसी महल की तरह भाजपा का घर लाक्षागृह बन जाएगा.

भाजपा को जो अंधसमर्थन ऊंची जातियों का मिल रहा है वह दलितों व पिछड़ों का दमन करने की सामाजिक मान्यता को, 21वीं सदी में भी, सही साबित करने के लिए मिल रहा है. इस दमन का न जन्मजात संबंध है न यह उत्पादन के लिए ठीक है. यह पूरे देश और समाज के हाथपैरों में आई सूजन है जिसे हम कम कर नहीं पाते बल्कि पौष्टिकता समझ कर अपनाते फिरते हैं.

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हरियाणा की गोल्डन गर्ल

राष्ट्रमंडल खेल 2018 में निशानेबाजी में स्वर्ण पदक विजेता मनु भाकर ने महज 16 साल की उम्र में यह कारनामा कर दिखाया. हरियाणा के झज्जर जिले की इस होनहार युवती का मानना है कि सोने का तमगा जीतने से ज्यादा खुशी अपने राष्ट्रगान की धुन कानों में पड़ने से मिलती है.

मनु 12वीं कक्षा की छात्रा हैं और मैडिकल की तैयारी कर रही हैं. ऐसा नहीं है कि मनु बहुत नामीगिरामी स्कूल में पढ़ती हैं बल्कि वे साधारण स्कूल में पढ़ती हैं. मनु के पिता रामकिशन भाकर का मानना है कि अकसर अभिभावक बच्चों को महंगे स्कूलों में पढ़ाने की बात करते हैं और उन्हें लगता है कि महंगे स्कूलों में पढ़ाने से सफलता की गारंटी पक्की है पर ऐसा नहीं है. कम फीस वाले स्कूलों से भी बेहतर प्रतिभाएं निकलती हैं और मनु ने यह साबित कर दिखाया है. यह उन मातापिता के लिए भी संदेश है जिन्होंने मन में इस तरह की गलत धारणा पाल रखी है.

मनु की मां सुमेधा भी इस बात पर जोर दे कर कहती हैं कि हर बच्चे में प्रतिभा होती है. लेकिन आजकल मातापिता नंबरों की होड़ में बच्चों पर प्रैशर बनाते हैं और बच्चा अगर इंजीनियर बनना चाहता है तो उसे डाक्टर बनने के लिए कहते हैं, खिलाड़ी बनना चाहता है तो सिंगर बनने के लिए उस पर दबाव डाला जाता है. ऐसे उदाहरण आप को पासपड़ोस में मिल जाएंगे या स्वयं को ही इन उदाहरणों में पा सकते हैं. इसलिए बच्चों पर दबाव नहीं डालना चाहिए. हां, उसे सहीगलत का रास्ता दिखाएं न कि उसे उस के विरुद्ध कार्य करने के लिए कहें.

मनु के मातापिता उन मातापिताओं के आदर्श हो सकते हैं जो अपने बच्चों पर बोझ डालते हैं. मनु के मातापिता ने मनु की प्रतिभा को समझ कर पूरा साथ दिया, हर जरूरत को पूरा किया. और अब मनु की मेहनत का फल सिर्फ मनु को ही नहीं, बल्कि पूरे देश को मिल रहा है.

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भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में पारदर्शिता जरूरी

विधि आयोग ने सरकार से कहा है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई को सूचना का अधिकार कानून के तहत लाना चाहिए. यह अच्छी बात है पर सरकार इसे मानेगी, ऐसा लगता नहीं क्योंकि अब तक किसी सरकार ने शायद ही बीसीसीआई पर ऐसा कोई कदम उठाया हो.

बीसीसीआई हमेशा से राजनेताओं और उद्योगपतियों की जागीर रही है. इन लोगों ने बीसीसीआई को कमाऊ संस्था बना कर रखा हुआ है. लोढ़ा समिति की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट को सख्त रवैया अपनाना पड़ा था.

सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2016 में आयोग से इस बारे में सिफारिश करने के लिए कहा था कि क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को आरटीआई के तहत लाया जा सकता है या नहीं? वैसे, बीसीसीआई को आरटीआई के तहत लाने की मांग लंबे समय से हो रही है. अब विधि आयोग ने कहा है कि बीसीसीआई को संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत किसी भी संस्था के सरकारी संस्था होने के लिए जो मानदंड निर्धारित हैं, बीसीसीआई उन पर पूरी तरह से खरा उतरता है. आयोग ने कहा है कि बीसीसीआई सार्वजनिक प्राधिकरण के तहत काम करता है जिसे सरकार से वित्तीय मदद मिलती है.

लोढ़ा समिति ने सब से ज्यादा जोर बोर्ड की चुनाव प्रक्रिया में सुधार और पारदर्शिता पर दिया था, पर लोढ़ा समिति की सिफारिशों को लागू करने में कुंडली मार कर बैठे लोगों को नानी याद आ गई. खूब दांवपेंच लगाए गए, गुटबाजी की गई पर सुप्रीम कोर्ट के सख्त रवैए के कारण ये लोग तिलमिलाए हुए हैं.

अब विधि आयोग की सिफारिश से इन लोगों की नींद उड़ी हुई है कि यदि बीसीसीआई आरटीआई एक्ट के दायरे में आ जाता है तो सब नंगे हो जाएंगे. कोई भी कभी भी आरटीआई एक्ट के तहत सूचना मांग सकता है और बीसीसीआई को इस का जवाब देना होगा.

अब बोर्ड के अधिकारी भी दबी जबान कह रहे हैं कि बोर्ड ने सभी विकल्पों को खुला  रखा है. हालांकि बीसीसीआई टीम चयन को इस के अंतर्गत लाने के पक्ष में नहीं दिख रहा है. बोर्ड के पदाधिकारी इस पर भी जोड़तोड़ निकालने में कोई कोरकसर छोड़ने वाले नहीं हैं. अब वक्त ही बताएगा कि बीसीसीआई आरटीआई एक्ट के तहत आता है या नहीं?

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कुशीनगर हादसा : प्रशासन ही नहीं सरकार भी दोषी

कुशीनगर में महात्मा गौतमबुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ था. पर्यटन के लिहाज से कुशीनगर पूरी दुनिया में मशहूर है. महात्मा बुद्ध के तमाम अनुयायी पूरे विश्व से यहां आते हैं. यह बौद्ध परिपथ के नाम से मशहूर

है. सारनाथ और लुंबनी यहां से करीब हैं. कुशीनगर की गोरखपुर से दूरी 50 किलोमीटर है. गोरखपुर गोरक्षा पीठ के महंत योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं. ऐसे में यहां की हर घटना असाधारण हो जाती है.

यही वजह है कि कुशीनगर में स्कूल वैन हादसे की खबर का पता चलते ही मुख्यमंत्री अपने अमरोहा दौरा से पहले कुशीनगर गए. उन्होंने जनता के आक्रोश को ‘नौटंकी’ कह कर पूरे मामले को विवादों में ला दिया. मुख्यमंत्री ने शिक्षा और परिवहन विभाग के निम्न कर्मचारियों के खिलाफ तो कड़े कदम उठाने की बात कही पर मंत्री व शीर्ष स्तर पर बैठे जिम्मेदार लोगों को सजा न दे कर एकपक्षीय न्याय किया.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ संत हैं. हर काम की शुरुआतपूजापाठ से करते हैं. यह बात और है कि इस के बाद भी उन की मुसीबतें कम होती नहीं दिख रही हैं. पिछले साल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अपने ही जिले गोरखपुर के बीआरडी यानी बाबा राधव दास अस्पताल में औक्सीजन की कमी से कई बच्चों की मौत हो गई थी. सरकार ने इस का ठीकरा अस्पताल के डाक्टर कफील अहमद पर फोड़ कर खुद को किनारे कर लिया. हाईकोर्ट ने डाक्टर कफील को जमानत पर छोड़ दिया है.

औक्सीजन की कमी से बच्चों की मौत का जिम्मेदार कौन है, यह साबित करना कठिन काम है. आम आदमी हादसों को जल्द भूल जाता है. दूसरा हादसा होने पर फिर से तेजी आती है.

एक साल के अंदर ही गोरखपुर के पास कुशीनगर में स्कूली वैन रेलगाड़ी की चपेट में आ गई. इस में 13 बच्चों की मौत हो गई. 4 बच्चे गंभीर रूप से घायल हो गए. यह घटना 26 अप्रैल को घटी. औक्सीजनकांड की तरह एक बार फिर सरकार ने स्कूल के प्रबंधक करीम जहान खान के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर उसे जेल भेज दिया. इस के साथसाथ, शिक्षा विभाग और परिवहन विभाग के कुछ कर्मचारियों के खिलाफ कार्यवाही की. पूरे मामले में शिक्षा और परिवहन विभाग के कर्मचारियों के साथसाथ, इस विभाग के मंत्री भी जिम्मेदार हैं. ऐसे में मंत्रियों व उच्च अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही न कर सरकार ने एकपक्षीय काम किया है.

प्रदेश में बहुत सारे स्कूल बिना मान्यता के चल रहे हैं. यह बात सभी को पता है. शिक्षा विभाग के आलाअफसर और मंत्री खामोश क्यों हैं? मुख्यमंत्री को खुद भी अपनी गलती माननी चाहिए.

ऐसे में जब तक मंत्री स्तर तक सजा नहीं दी जाएगी तब तक सुधार शुरू नहीं होगा. शिक्षा विभाग के साथसाथ परिवहन विभाग के मंत्री की लापरवाही क्यों नहीं दिख रही? मुख्यमंत्री का क्षेत्र होने के कारण गोरखपुर और कुशीनगर की दुर्घटना अहम हो जाती है. यह उसी तरह खास है जैसे गोरखपुर लोकसभा के उपचुनाव में हार के बाद भाजपा स्तब्ध रह गई थी.

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जिस तरह से मुख्यमंत्री का क्षेत्र एक के बाद एक वजह से चर्चा में है उस से उन की प्रशासनिक क्षमता पर भी सवाल उठ रहे हैं. मंत्रिमंडल में मुख्यमंत्री को पूरा सहयोग नहीं मिल रहा. वहां की खेमाबंदी राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय है.

एक साल के अंदर ये तीनों ही घटनाएं मुख्यमंत्री के सामने किसी चुनौती से कम नहीं हैं. उन की प्रशासनिक क्षमता पर सवालिया निशान लग रहा है. जिस तरह से मुख्यमंत्री अपना आपा खोते नजर आ रहे हैं उस से साफ है कि वे खुद अपनी कमजोरी को समझ रहे हैं.

कुशीनगर दुर्घटना के बाद जब जनता ने मुख्यमंत्री के खिलाफ नारेबाजी करते हुए अपने आक्रोश को जताया तब मुख्यमंत्री ने उसे ‘नौटंकी’ बता कर बंद करने को कहा. मुख्यमंत्री के इस व्यवहार की आलोचना केवल विपक्षी ही नहीं, खुद भाजपा में भी अंदरखाने हो रही है. मुख्यमंत्री का क्षेत्र काफी संवेनशील होता है. ऐसे में वहां का असर पूरे प्रदेश पर पड़ता है.

मासूमों की मौत

गुरुवार 26 अप्रैल की सुबह का समय था. उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले के दुदही रेलवे स्टेशन से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर बहरपुरवा रेलवे क्रौसिंग पर सुबह 6 बजकर 50 मिनट पर सीवानगोरखपुर पैसेंजर ट्रेन पास हुई. ठीक इसी समय डिवाइन पब्लिक स्कूल के बच्चे वैन से स्कूल जाने के लिए क्रौसिंग पार कर रहे थे. बहरपुरवा रेलवे क्रौसिंग पर कोई बैरियर नहीं लगा था. स्कूल वैन के ड्राइवर ने रेलगाड़ी को नहीं देखा और वैन रेलगाड़ी के सामने आ गई, जिस में 11 बच्चों की घटनास्थल पर ही मौत हो गई. जबकि 2 बच्चों की मौत अस्पताल जाते समय रास्ते में हुई. 8 बच्चों की क्षमता वाली वैन में 17 बच्चे सवार थे.

घटना के बाद सरकार का काम शुरू हो गया. मुआवजा, जांच, कुछ लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो गई. कुछ दिन लोग जेल में रहेंगे, फिर बाहर आएंगे. कब किस को क्या सजा मिलेगी, पता नहीं. कुछ दिन में सबकुछ सामान्य हो जाएगा. जिन घरों के चिराग बुझ गए उन का गम कभी दूर नहीं होगा.

दुर्घटना के लिए सब से अधिक जिम्मेदार वैन ड्राइवर था जो इयरफोन लगा कर वैन चला रहा था. उस ने रेलवेलाइन पर बिना ध्यान दिए वैन को क्रौस कराने की गलती की. केवल पूर्वोत्तर रेलवे की बात करें तो 5 सालों में 450 से अधिक दुर्घटनाएं मानवरहित रेलवे क्रौसिंग्स पर हो चुकी हैं, जिन में 325 से अधिक जानें जा चुकी हैं.

पूर्वोत्तर रेलवे में 625 मानवरहित रेलवे क्रौसिंग हैं. दुर्घटना होने के बाद बहुत सारी चर्चाएं होती हैं. इस के बाद किसी नए हादसे के इंतजार में फिर सबकुछ सामान्य हो जाता है. जिस देश में बुलेट ट्रेन की बात हो रही हो वहां आज भी ऐसे हादसे बताते हैं कि देश में बुलेट ट्रेन चलाने से पहले रेलवे के मूलभूत ढांचे में बदलाव की जरूरत है. मानवरहित क्रौसिंग एक बड़ी समस्या है.

लापरवाह शिक्षा विभाग

कुशीनगर दुर्घटना का दूसरा पक्ष शिक्षा विभाग है. यह बात केवल कुशीनगर के स्कूल में ही नहीं चल रही, पूरे प्रदेश में यही हाल है. कुशीनगर में दुर्घटना होने के बाद मामला खुल गया, पर इस के बाद भी शिक्षा विभाग अपने कामों में सुधार नहीं करेगा. ग्रामीण भी अब अपने बच्चों को बस से स्कूल पढ़ने के लिए भेजना चाहते हैं.

शिक्षा विभाग प्राइवेट स्कूलों को मान्यता देने के नाम पर बड़ीबड़ी वसूली करता है. इस का हिस्सा शिक्षा विभाग में छोटे कर्मचारी से ले कर मंत्री तक पहुंचता है. मान्यता देने के लिए सालोंसाल स्कूल प्रबंधन को दौड़ाया जाता है. डिवाइन पब्लिक स्कूल को भी मान्यता नहीं मिली थी. ऐसे में उस के यहां पढ़ रहे बच्चों को सेठ बंशीधर विद्यालय से टीसी देने की व्यवस्था होती थी.

स्कूल को सरकारी मान्यता नहीं मिली है, यह बात बहुत सारे पेरैंट्स को पता ही नहीं थी. कुशीनगर के दुदही ब्लौक के मिश्रौली गांव की प्रधान किरन देवी ने अपने 9 साल के इकलौते बेटे रवि और 2 बेटियों 7 साल की सुंदरी और 5 साल की रागिनी का दखिला डिवाइन स्कूल में करा दिया था. किरन देवी के पति अमरजीत पहले प्रधान थे. 750 रुपए प्रति बच्चा फीस दे कर वे अपने 3 बच्चे वैन से स्कूल भेज रहे थे.

जहीर बताते हैं कि उन का बेटा अरशद गांव के स्कूल में पढ़ने नहीं जाता था. उसे शौक था कि वह भी वैन वाले स्कूल में पढ़ने जाएगा. जब से उस का एडमिशन यहां हुआ था वह रोज स्कूल जा रहा था. उत्तर प्रदेश के हर कसबे और गांव में प्राइवेट स्कूल खुल गए हैं. ये स्कूल मान्यता के लिए शिक्षा विभाग के पास भटक रहे हैं पर शिक्षा विभाग इन को मान्यता नहीं दे रहा. शिक्षा विभाग की मिलीभगत से ही ये अपने यहां के बच्चों को किसी मान्यता वाले विद्यालय से प्रमाणपत्र दिला देते हैं. शिक्षा विभाग में रिश्वत की आड़ में यह खेल कई वर्षों से चल रहा है.

सबक सीखने को तैयार नहीं

प्रदेशभर में वाहन चलाते ऐसे तमाम लोग मिल जाएंगे जो कानों में इयरफोन लगा कर ड्राइव करते हैं. बिना हैलमेट के और सीटबैल्ट लगाए बगैर भी लोग खूब ड्राइव करते हैं. रौंग साइड गाडि़यां खूब चलती हैं. हर स्कूलवाहन पूरी तरह से दुरुस्त नहीं होता. जरूरत से ज्यादा सवारी वाहनों में ठूंसी जाती हैं. ट्रैफिक नियम तोड़ कर चलना शान समझा जाता है, जिस में सब से अधिक सत्तापक्ष के लोग होते है. जब जिस की सरकार होती है उस के लोग शान से नियम तोड़ कर चलते हैं. पुलिस और परिवहन विभाग की लापरवाही साफ दिखती है.

अभी तक वैन वाले स्कूल केवल शहरों में ही होते थे. अब गांवों में भी वैन वाले स्कूल होने लगे हैं. गांव, कसबों और छोटे शहरों में किसी भी तरह की ट्रैफिक व्यवस्था नहीं है. वहां स्कूल वाहनों को चैक करने का कोई ढांचा नहीं हैं. वैन चलाने वाले ज्यादातर चालक लाइसैंसधारी नहीं होते. लाइसैंस बनाने के नाम पर आरटीओ औफिस लूट करता है और जम कर रिश्वत ली जाती है.

कुशीनगर की घटना के बाद चेते परिवहन विभाग ने राजधानी लखनऊ में स्कूल वैन चालकों के लाइसैंस चैक किए. कई चालकों को बिना लाइसैंस पकड़ा गया. परिवहन विभाग के कर्मचारी कहते हैं कि हमारे पास पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं जो इस तरह की चैकिंग नियमितकर सकें.

नियम कहता है कि गाड़ी चलाते समय मोबाइल पर बात करना, नशे में वाहन चलाना, तेज रफ्तार वाहन चलाना, सीटिंग क्षमता से अधिक लोगों को बैठाना, रैड लाइट जंप करना कानून तोड़ना माना जाता है. इस की सजा के रूप में वाहन चलाने वाले ड्राइवर का लाइसैंस 5 माह के लिए रद्द करने का प्रावधान है.

आंकडे़ बताते हैं कि पकडे़ जाने के बाद भी ऐसी कड़ी कार्यवाही नहीं की जाती है.केवल स्कूली वाहनों की बात नहीं है, सड़क पर नियमों की लापरवाही के तमाम उदाहरण मिलते हैं. जब तक लापरवाही पर अंकुश नहीं लगाया जाएगा, तब तक सुधार नहीं होगा.

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क्या यही धर्म है : शेयर मार्केट के जैसा धर्म का कारोबार

धर्म अब एक संस्थागत व्यापार हो गया है. देश में बनने वाले मंदिरों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. एक समय शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने शिरडी के साईंबाबा के मंदिर बनाए जाने पर आपत्ति जताई थी कि वे भगवान नहीं, बाबा हैं. इसलिए हिंदू धर्म के अनुसार एक मुसलिम बाबा का मंदिर बनाना सर्वथा गलत है. इस पर देशभर में बवाल खड़ा हो गया. साईंबाबा के समर्थकों ने उन्हें भलाबुरा भी कहा. पर वे डटे रहे. साईंबाबा फकीर थे और फकीर की तरह रहे पर अब उन के स्वर्णमय मंदिर बन रहे हैं.

एक और देवता इन दिनों हावी हैं, शनिदेव, जहां देखें वहां शनि मंदिरों का निर्माण हो रहा है. बड़ी भीड़ है. शनिग्रह से सभी भयग्रस्त हैं. मध्य प्रदेश के एक मुख्यमंत्री ने उन पर 111 घड़े सरसों का तेल चढ़ाया था, पर कुरसी छिन गई. इन मंदिरों पर चढ़ावे के अतिरिक्त जो तेल चढ़ता है,  वह आय का बड़ा साधन है. चढ़ाए गए तेल को साफ कर के फिर दुकानों पर बेच दिया जाता है और वही तेल फिर शनिदेव पर शीशियों में भर कर भक्तों को बेच दिया जाता है. यही नहीं, ठेले पर बिकने वाले कई चाटसमोसे उसी तेल से तले जाते हैं. यह रिसाइक्लिंग औयल भारत में ही संभव है.

मंदिरों का बोलबाला

धर्म लालच और भय 2 खंभों पर टिका होता है. शनि की दशा से सभी भयभीत हैं. मजे की बात यह है कि युगों से स्थापित देवता राम और कृष्ण के मंदिर अब सूने पड़े हैं. हां, पुराने भक्त वहां भी हैं, पर साईंबाबा और शनिदेव के मंदिर भक्तों से बहुत ही गुलजार हैं.

एक बात और, इन मंदिरों को बनाने के लिए भूमि या धन की आवश्यकता नहीं है. कोई संकल्प कर ले, मंदिर बनाना है. भूमि और धन स्वयं आ ही जाएगा. जानना चाहेंगे, कैसे… तो जानिए, किसी भी सड़क व हाईवे के किनारे खाली जगह तलाश लीजिए, न हो तो नगरपालिका या निगम का कोई पार्क देख लीजिए या कोई चौराहा पकड़ लीजिए. भूमि की समस्या हल हो गई. इस काम के लिए किसी एसडीओ या नागरिक संस्था के अधिकारी से अनुमति लेने की भूल न करिए. बस, शुरू हो जाइए. एक छोटा सा चबूतरा बना कर रातोंरात मूर्ति स्थापित कर दें, फिर चंदा देने वाले स्वयं आ जाएंगे और विशाल मंदिर बन जाएगा. आप, बस, दानपेटी पर ताला अपना ही लगा कर रखिए. कुछ समय के लिए हर गुरुवारशनिवार को भंडारा शुरू कर दें और प्लेटगिलास सड़क पर फेंक कर चल दें. सुबह सफाई हो जाएगी. नगरपालिका पानी का टैंकर भी फ्री दे देगी. अब और क्या चाहिए, बेरोजगारी समाप्त हो जाएगी. नेतागीरी भी जम सकती है. बाबा की कृपा से संभावनाएं अनंत हैं. इस से ट्रैफिक की समस्या हो तो हो, या सुप्रीम कोर्ट कुछ भी कहता रहे, नजरअंदाज करिए.

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क्या यह आजादी है

मुझे पोलैंड की एक महिला टूरिस्ट की बात बड़ी अच्छी लगी जो संयोगवश मैसूर में हुए शांति सम्मेलन में मुझे मिली थीं. उन्होंने कहा, ‘‘वाकई भारत में बड़ी फ्रीडम है, ऐसी कहीं और नहीं.’’

मैं बड़ा प्रसन्न हुआ. पूछा, ‘‘कैसे?’’ वे बोलीं, ‘‘यहां इतनी फ्रीडम है कि जहां मन चाहे वहां दुकान लगा लो, मंदिर बना लो या मजार, कोई बाधा नहीं है. यहां तक कि जहां इच्छा हो वहां खड़े हो जाओ, कोई बोलेगा नहीं. ऐसी फ्रीडम, मैं ने कहीं नहीं देखी.’’

जब मैं अपने शहर से नागपुर जाता था तो मार्ग के किनारे एक मढि़या बंजारी माई की पड़ती थी. सुनसान जंगल में वह मढि़या सूनीसूनी सी थी. अब वहां बड़ा मंदिर बन गया है. आगे बढ़तेबढ़ते हर जगह हाईवे के किनारे अनेक मजारें भी दिखने लगी हैं. इस घनघोर जंगल में इन्हें कौन और क्यों दफनाने आता है, सोचता हूं. लगता है, एक प्रतियोगिता चल रही है. हाईवे पर चलने वाले ट्रैफिक पर इस से क्या बाधा पड़ती है, कोई सोचता है? नवरात्रि पर रातभर देवी जागरण से छात्रों और बीमारों पर क्या बीतती है?

पर्व आने पर शहर में सड़क पर टेबल रख कर लंगर बांटने से राहगीरों को होने वाली असुविधा के बारे में कोई बोलता नहीं है. क्या धार्मिकता बढ़ रही है? तो फिर अपराधों की, बलात्कारों की संख्या में इतनी वृद्धि क्यों हो रही है? प्रतिमाह जगहजगह भागवत कथाएं हो रही हैं पर नैतिकता का स्तर गिरता ही जा रहा है. कुछ समझदार व्यक्ति सड़क के किनारे मंदिर बना लेते हैं, फिर उस की आड़ में अपनी दुकान लगा लेते हैं. अब अगर कोई शासकीय अधिकारी इन्हें हटाने को पहुंचता है तो बड़ी भीड़ इकट्ठा हो जाती है. शहरों में सड़कों के दोनों ओर दुकानें लगी हैं, चलना मुश्किल है. ट्रैफिक सिग्नल हैं नहीं, अगर हैं तो बंद पड़े हैं. सिग्नल पर नौजवान बीच से निकल जाते हैं. सर्वाधिक कठिनाई में हैं बच्चे, महिला और बुजुर्ग. वे जान हथेली पर रख कर सड़क पार करते हैं, रोज कितने ही शहीद हो जाते हैं.

धर्मस्थल मालामाल

मंदिरों में देश की एक वर्ष की जीडीपी से अधिक मूल्य का सिर्फ सोना ही पड़ा है. तहखानों में पड़ा सोना धीरेधीरे गायब हो जाता है. मंदिरों में सफाई का हाल देखिए, मंदिर के बाहर मालाएं, फूल, पौलिथीन बिखरे पड़े रहते हैं. क्या भारत का स्वच्छता अभियान यहां नहीं है. पर्व पर मंदिर परिसर में ऐसी भीड़ मचती है जैसे लूट हो रही हो.

तीर्थस्थान चाहे गया हो, इलाहाबाद या अन्य स्थल, वहां अव्यवस्था और अजीब खींचतान है. हमारे स्वनामधन्य हर बार होने वाले कुंभ मेले में बैठ कर श्रद्धालुओं की सुविधा की बात क्यों नहीं करते? क्या माथे पर बड़ेबड़े त्रिपुंड लगा कर रेशमी गद्दों पर बैठ कर प्रवचन देने से धर्म का उद्धार हो जाएगा. जिन छोटे, गरीब लोगों का धर्मांतरण यदाकदा कराया जा रहा है, उस में जातिप्रभा, ऊंचनीच आदि बातों पर चर्चा कर उसे रोकने के लिए गरीब, छोटे तबकों को मुख्यधारा में लाने की चर्चा आखिर यह धर्मसंसद क्यों नहीं करती?

चोर को खांसी, साधु को दासी बिगाड़ ही देती है. ऐसे साधु उक्त कारण से कारावास में पड़े हैं. धर्मस्थलों, महंतों, मजारों, झाड़फूंक के बहाने इलाज करने वालों को देख कर एक बार फिर दुष्यंत याद आ जाते हैं, ‘कैसेकैसे मंजर सामने आने लगे हैं…’

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औषधीय नर्सरी : महिलाओं के लिए आय का जरिया

बदलते जमाने में औषधीय पौधों की मांग दुनियाभर में तेजी से बढ़ रही है. महिलाएं छोटी सी जगह पर औषधीय पौधों की खेती कर अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हैं. वे औषधीय पौधों की नर्सरी लगा कर खासा मुनाफा कमा सकती है. इन पौधों की खासीयत यह है कि ये बंजर और अकसर जलजमाव वाले इलाकों में खूब पनपते हैं. स्टीविया, गुग्गुल, खस, बेल, तुलसी, गुडची, पचौली, एलोवेरा, सतावर, सिट्रोनेला, लेमनग्रास, सर्पगंधा, जेट्रोफा, मेंथा, कलिहारी, ब्राह्मी, बच, आंवला आदि औषधीय पौधों की खेती कर या नर्सरी लगा कर महिलाएं खुद का कारोबार शुरू कर सकती हैं. इन की खेती से प्रति हैक्टेयर 50 हजार से 2 लाख रुपए तक की आमदनी हो सकती है.

ग्रामीण और शहरी महिलाएं थोड़ी सी ट्रेनिंग ले कर आसानी से औषधीय पौधों की नर्सरी का कारोबार शुरू कर सकती हैं. इस से जहां वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हैं वहीं वे परिवार की आमदनी भी बढ़ा सकती हैं. महिलाओं को नर्सरी लगाने के लिए प्रेरित करने वाली मोहम्मद कलाम तिब्बी बगीचा की संचालिका रजिया सुल्तान बताती हैं, ‘‘नर्सरी लगाने व चलाने में विशेष रकम व मेहनत की जरूरत नहीं होती है. जो महिलाएं नर्सरी लगाना चाहती हैं वे सब से पहले इस बारे में जानकारी हासिल करें. कृषि विभाग से लाइसैंस ले कर विधिवत ट्रेनिंग लेने के बाद काम शुरू करें. इस के लिए सरकार अनुदान भी देती है. इस का प्रपोजल बना कर आप अपने जिला कृषि पदाधिकारी के कार्यालय में जमा कर सकते हैं. जिन के पास कम जमीन है उन के लिए नर्सरी का कारोबार काफी फायदेमंद है.’’

रजिया कहती हैं, ‘‘एक मिर्च में 50 बीज होते हैं और उन बीजों से कम से कम 30 पौधे उगते हैं. बाजार में मिर्च के एक पौधे की कीमत 1 रुपया है. इस तरह एक मिर्च से कम से कम 30 रुपए की कमाई होती है, जिस में से 15 रुपए नैट प्रौफिट होता है. इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि नर्सरी लगाने का काम कितना फायदेमंद है.’’

देश के कई राज्यों समेत बिहार के मधुबनी, वैशाली, भागलपुर, सीवान शहरों में खस की काफी उम्दा खेती की जा सकती है. बंजर और बाढ़ग्रस्त इलाकों में भी खस की कामयाब खेती की जा सकती है. खस और पचौली इत्र बनाने के काम आते हैं और बाजार में खस की कीमत 25 से 30 हजार रुपए प्रति किलो है. शरबत और सुगंधित साबुन बनाने में भी इस का उपयोग होता है. इस के अलावा पटना, नालंदा और भोलपुर जिले की मिट्टी एलोवेरा की खेती के लिए काफी लाभकारी है. एलोवेरा के साथ आंवला की अंतरवर्ती खेती करने से कमाई को दोगुना किया जा सकता है.

एलोवेरा की खेती करने वाले असलम परवेज कहते हैं, ‘‘मैं बिहार के मसौढ़ी प्रखंड के कटका गांव में एलोवेरा की खेती 6 वर्षों से कर रहा हूं और हर साल खासा मुनाफा कमा रहा हूं.’’

हैरत की बात यह है कि लाखोंकरोड़ों रुपए खर्च कर औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देने और किसानों को इन के प्रति जागरूक करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, पर इस की जानकारी ज्यादातर किसानों को नहीं है. महिलाएं और किसान औषधीय खेती के बारे में पूरी जानकारी जुटा कर इस की नर्सरी लगाएं या खेती करें तो वे अपनी मेहनत और पूंजी का कई गुना ज्यादा फायदा उठा सकते हैं.

बच, ब्राह्मी, कालामेघ, सतावर, सफेद मुसली, आंवला, गुड़मार, तुलसी, अश्वगंधा, दालचीनी आदि की खेती के लिए केंद्र सरकार 20 प्रतिशत और राज्य सरकार 70 प्रतिशत का अनुदान दे रही हैं. इस के अलावा बेग, सर्पगंधा, कलिहारी, चित्रक की खेती के लिए सरकार 50 फीसदी और राज्य सरकार 40 फीसदी अनुदान देती हैं. गुग्गुल की खेती पर केंद्र सरकार 75 फीसदी और राज्य सरकार 15 फीसदी तक अनुदान देती हैं.

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सोचसमझ कर लें जौब छोड़ने का निर्णय

आज लड़कियां ऊंची डिगरियां हासिल कर रही हैं. शादी से पूर्व ही वे जौब करने लगती हैं. शादी के बाद भी वे जौब जारी रखना चाहती हैं. पति या ससुराल के अन्य लोगों को भी इस में कोई आपत्ति नहीं होती, क्योंकि आज लड़के भी कामकाजी पत्नी चाहते हैं ताकि दोनों की आमदनी से अपनी गृहस्थी को चला सकें. लेकिन उन की लाइफ में नया मोड़ तब आता है जब उन के बच्चा होता है. जब तक वह स्कूल जाने नहीं लगता तब तक उसे अपनी मां की जरूरत होती है. ऐसे में उसे अपने बच्चे की परवरिश के लिए जौब छोड़ने पर मजबूर होना पड़ता है, क्योंकि उस के पास 2 ही विकल्प होते हैं कि या तो वह जौब कर ले या फिर बच्चे की परवरिश. वह शिशु की परवरिश की खातिर जौब छोड़ने का विकल्प चुनती है.

बच्चा मां पर निर्भर

आजकल एकाकी परिवारों का जमाना है. ऐसे में सासससुर या देवरानीजेठानी साथ नहीं रहतीं. प्रसव के बाद यदि प्रसूता अपनी मां या सास को बुलाती भी है तो वे कुछ दिन रह कर वापस चली जाती हैं. वे 4-5 साल तक साथ नहीं रह सकतीं. पति को भी अपने काम से इतना समय नहीं मिलता कि वह बच्चे की परवरिश में अपनी पत्नी का हाथ बंटाए. फिर वैसे भी बच्चे को पिता से ज्यादा मां की जरूरत होती है. मां की गोद में आ कर ही उसे सुरक्षा का एहसास होता है. कुछ बच्चे तो मां के बगैर 1 घंटा भी नहीं रहते. मां थोड़ी देर भी न दिखे तो रोरो कर बुरा हाल कर लेते हैं.

य-पि कामकाजी महिलाओं को प्रसव अवकाश मिलता है, लेकिन उस की भी एक सीमा है. कुछ महिलाएं गर्भावस्था में ही मातृत्व अवकाश लेना शुरू कर देती हैं, जो प्रसव के बाद समाप्त हो जाता है. जन्म के बाद शिशु पूरी तरह अपनी मां के दूध पर निर्भर करता है. शुरू के 6 महीने तक तो वह मां के दूध के अलावा पानी तक नहीं पीता. इस के बाद ही वह मां का दूध छोड़ कर अन्य खा- ग्रहण करने लगता है. शिशु स्तनपान की जरूरत को पूरा करने के लिए मां का घर पर रहना जरूरी है. इसलिए भी वह जौब छोड़ देती है.

कुछ दशक पहले तक जब महिलाएं कामकाजी नहीं होती थीं, बच्चे की परवरिश के लिए उन का जौब छोड़ने का प्रश्न ही नहीं था, लेकिन अब जबकि वे कामकाजी हैं, लगीलगाई जौब को छोड़ना उन्हें अखरता है. एक बार जौब छोड़ने के बाद यदि लंबा अंतराल हो जाता है, तो फिर न तो पुन: जौब करने का मन होता है और न ही जौब आसानी से मिलती है. जौब छोड़ने से उन की आर्थिक स्थिति यानी आमदनी पर प्रभाव पड़ता है. परेशानी यह है कि बच्चा होने से खर्च बढ़ते हैं और जौब छोड़ने से आय घटती है. ऐसे में आमदनी और खर्च के बीच तालमेल बैठाना मुश्किल हो जाता है.

बच्चे की खातिर जब जौब छोड़नी पड़ती है तो उन की पढ़ाईलिखाई बेकार चली जाती है. उन्हें इस बात का मलाल होता है. इसलिए यदि आप भी अपने बच्चे की खातिर नौकरी छोड़ रही हैं तो किसी तरह का मलाल नहीं पालें और न ही पछताएं. याद रहे, जौब के लिए तो सारी उम्र पड़ी है, लेकिन अभी आप की जिम्मेदारी अपने बच्चे के प्रति है, जिसे आप ने अपनी कोख से जन्म दिया है.

प्राथमिकता समझें

नौकर या आया के भरोसे बच्चे पल सकते हैं, लेकिन उन में वे संस्कार कहां से आएंगे जो आप दे सकती हैं? यदि आप अपनी मां, बहन, भाभी को बुला कर उन के भरोसे बच्चे को छोड़ कर जौब पर जाती हैं तो यह भी गलत है. उन का अपना घरपरिवार है, जिस के प्रति उन की जिम्मेदारी है. उन्हें परेशानी में डाल कर आप जौब पर चली जाएं, यह कोई बात नहीं हुई.

यदि आप किसी भी कीमत पर जौब छोड़ना नहीं चाहती थीं तो आप को संयुक्त परिवार में शादी करनी चाहिए थी. वहां इतने लोग होते हैं कि बच्चे को मां की जरूरत केवल स्तनपान के समय ही पड़ती है. उस की परवरिश के लिए दादादादी, चाचा, ताऊ, चाची, ताई, बूआ आदि होते ही हैं. ऐसे में आप कुछ महीनों का मातृत्व अवकाश ले कर फिर से जौब पर जा सकती हैं.

मातृत्व अवकाश के बाद काम पर लौटने या न लौटने का फैसला आप को सोचसमझ कर लेना चाहिए. हालांकि इसे ले कर आप दुविधा में हो सकती हैं. पर निर्णय तो लेना ही होगा. यदि आप नौकरी छोड़ने का निर्णय लेती हैं तो इस बात पर भी विचार कर लें कि आप सक्रिय कैसे रहेंगी, क्योंकि जैसेजैसे बच्चा बड़ा होने लगता है उसे आप की जरूरत कम होती जाती है. इसलिए आप नौकरी भले ही छोड़ दें, पर अपनेआप को व्यस्त रखने का कोई उपाय अवश्य ढूंढ़ लें ताकि आप की बुद्धि, योग्यता और प्रतिभा कुंठित न हो.

यदि आप के पति की आमदनी बहुत कम है तो फिर आप को नौकरी न छोड़ने का फैसला लेना पड़ेगा. इस के लिए कुछ समय तक अवैतनिक अवकाश भी लेना पड़े तो लें. हालांकि इस का असर प्रमोशन और कुल सेवा अवधि की गणना पर पड़ेगा, पर नौकरी तो कायम रहेगी.

आपको नौकरी जारी रखने, छोड़ने या ब्रेक लेने का फैसला पति और परिजनों की सहमति से ही लेना चाहिए अन्यथा वे दोष आप को ही देंगे. यदि नौकरी छोड़ती हैं तो क्यों छोड़ी और यदि नहीं छोड़ती हैं, तो क्यों नहीं छोड़ी, के ताने आप को ही सुनने पड़ेंगे. इसलिए इस का निर्णय जल्दबाजी में नहीं लें. इस के दूरगामी परिणाम होते हैं.

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ड्रैसिंग टिप्स : यंग लुक के लिए यों चुनें ड्रैस

श्वेता और प्रियंका फिल्म देखने गई थीं. फिल्म देख कर घर लौटते वक्त श्वेता बोली, ‘‘हीरोइन कितनी सुंदर लग रही थी. उस की ड्रैसेज भी कितनी अच्छी थीं. काश, मैं भी पहन पाती वैसे कपड़े.’’

श्वेता की बात सुन कर प्रियंका चुटकी लेते हुए बोली, ‘‘तो पहनो न. तुम्हें किस ने रोका है.’’

‘‘रोका तो किसी ने नहीं, लेकिन मेरी उम्र भी तो देखो. इस उम्र में वैसे कपड़े पहनूंगी तो लोग मुझ पर हसेंगे नहीं? कहां 20-22 वर्षीय हीरोइन और कहां मैं,’’  श्वेता ने जवाब दिया.

‘‘इस में हंसने वाली क्या बात है? हर इंसान की अपनी चौइस होती है. बस थोड़ी ड्रैसिंग सैंस अच्छी होनी चाहिए. फिर मजे से अपनी पसंद के कपड़े पहनो और जवां दिखो.’’

बात सही है. ड्रैसिंग सैंस अच्छी हो तो आप हर तरह के कपड़े पहन सकती हैं.

एफ सैलून की ओनर पारुल शर्मा से जब मैं ने पूछा कि अपनी उम्र से कम दिखने में क्या पहने गए कपड़ों की कोई भूमिका होती है? तो वे कहने लगीं, ‘‘औफकोर्स होती है, सभी महिलाएं अपनी उम्र से कम दिखना चाहती हैं. इसलिए वे तरहतरह के घरेलू उपाय अपनाती हैं. लेकिन इन सब के अलावा उम्र कम दिखाने में पहने गए कपड़ों की भी अहम भूमिका होती है. अपने शरीर व पसंद के अनुरूप कपड़ों का चयन आप को जवां दिखाने में बहुत मददगार होता है.’’

मैं ने जब पूछा कि कई महिलाएं अपनी टीनऐजर्स बेटियों के जैसे फैशन के कपड़े पहनती हैं, उस बारे में क्या कहना है आप का? एक 40 वर्षीय महिला ऐसे कपड़े पहने तो भद्दी नहीं लगेगी? तो इस पर उन्होंने कहा, ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं. बशर्ते महिला को वैसी ड्रैस पहनना पसंद हो और मालूम हो कि वह उस ड्रैस को कैसे कैरी करे.’’

वैसे यह कोई जरूरी भी नहीं है कि जो टीनऐजर यंग दिखने के लिए पहने वही कपड़े 40 वर्षीय महिला भी पहने. लेकिन हां, उस ट्रैंड के हिसाब से मिलतेजुलते और ज्यादा सौफिस्टिकेटेड पैटर्न पहन सकती है.

क्या जवां दिखने के लिए छोटे और बौडी हगिंग टाइट कपड़े पहनने चाहिए? पूछने पर भी उन का जवाब था, ‘‘यदि किसी को पसंद हैं तो जरूर पहने. बस अपनेआप पर विश्वास होना चाहिए कि अच्छी दिख रही हूं. मैं यह भी कहूंगी कि जरूरी नहीं कि आप छोटे, पारदर्शी या टाइट कपड़े पहनें तो ही जवां दिखेंगी. ट्रैंडी रहें, तो यकीनन आप अपनी उम्र से कम दिखेंगी. कपड़े सलीके से पहनें. यदि ड्रैस पहनने का सलीका न हो तो आप जवां दिखने के बजाय फूहड़ भी दिख सकती हैं.’’

ट्रैंड्स की जानकारी कहां से लें? के उत्तर में उन का कहना था, ‘‘लेटैस्ट ट्रैंड्स की वैबसाइट्स और अच्छे फैशन कैटेलौग्स देखें. मैं स्वयं उन्हें देखती हूं और सर्च करती हूं कि क्या ट्रैंड चल रहा है, कैसा फैब्रिक और पैटर्न फैशन में है वगैरा.’’

फिटनैस संग चेहरे पर भी आता है निखार

मेरी सहेली जिया कहती हैं, ‘‘मुझे फैशनेबल कपड़े पहनना बहुत पसंद है. इसीलिए जिम में वर्कआउट कर के अपनेआप को फिट रखती हूं. जिम का एक फायदा यह भी है कि ऐक्टिव रहने से शरीर में ऐंडोर्फिन हारमोन रिलीज होता है, जिसे हैप्पीनैस हारमोन भी कहते हैं. अगर आप खुश महसूस करेंगी तो इस से चेहरे पर भी निखार आएगा. जब चेहरा निखरा दिखेगा तो यकीनन आप जवां दिखेंगी. अत: मनपसंद कपड़े पहनो, खुश रहो और जवां दिखो.’’

मेरी एक और सहेली इशा, जो सौफ्टवेयर इंजीनियर है, कुछ महीनों पहले ही आस्ट्रेलिया से लौटी है, वह कहती है, ‘‘मुझे वैस्टर्न कपड़े पहनना बहुत अच्छा लगता है और उन में मैं कंफर्टेबल भी फील करती हूं. वैस्टर्न के साथ सिर पर हैट पहनना भी बहुत सूट करता है. मैं रोज बाहर आतेजाते हैट पहनती हूं. सूर्य की तेज किरणें जब चेहरे और सिर पर पड़ती हैं तो त्वचा की रंगत काली और बेजान सी हो जाती है. बाल भी रूखे से होने लगते हैं. अत: हैट पहनने से मेरा शौक तो पूरा होता ही है, साथ ही सूर्य की हानिकारक किरणों से मेरी त्वचा व बालों का भी बचाव होता है. इस से स्किन ऐजिंग नहीं होती. यह मुझे अपनी उम्र से कम दिखने में मददगार साबित होता है.’’

ट्रैंडी दिखने के कुछ टिप्स

मुझे अपने कालेज के समय से ही ट्रैंडी कपड़े पहनने का बहुत शौक था. जवां दिखने के लिए कई महिलाएं सिर्फ ब्यूटी प्रोडक्ट्स का सहारा लेती हैं. मगर ब्यूटी प्रोडक्ट्स के साथ यदि आप अपने पहनावे पर भी ध्यान दें तो यकीनन आप जवां दिखेंगी.

अपनी जीवनशैली को नियमित रूप से जांचिए. नींद पूरी रखें, खाने में बैलेंस्ड डाइट लें. रोज व्यायाम कर अपनेआप को फिट रखें. यदि आप फिट हैं तो सभी तरह के कपड़े आप पर दूसरों से ज्यादा अच्छे लगेंगे.

यदि मनपसंद कपड़े पहनना चाहती हैं तो कपड़े खरीदते समय उन की स्टिचिंग पर भी ध्यान दें. यदि वे अच्छी तरह से डिजाइन्ड होंगे तो आप ज्यादा आकर्षक दिखेंगी. वर्टिकल स्ट्रीम लाइन्ड ड्रैस आप को जवां दिखाएगी. कई बार 3-4 तरह के ट्रैंड्स एक ही ड्रैस में एकसाथ डाल दिए जाते हैं, जैसे ट्रैडिशनल कुरतों में ऐंब्रौयडरी, फुलस्लीव्ज के साथ कफ व बटन ताकि स्लीव्ज फोल्ड भी की जा सकें. मगर सच मानिए ये बिलकुल अच्छे नहीं लगते.

– जब आप कपड़े खरीदती हैं तो उन के साथ ही मैचिंग बैग्स, जूते, ज्वैलरी आदि भी खरीद लें. कई बार ड्रैस व फुटवियर का स्टाइल यदि मैच न करे तो ट्रैंडी और नए फैशन के कपड़ों का मजा नहीं आता. उसी ड्रैस के साथ यदि अपनी ऐक्सैसरीज व फेस मेकअप पर भी ध्यान दें तो झट से आप उम्र में 10 वर्ष कम नजर आने लगेंगी. जैसे आप जींस पहन रही हैं, तो पैंसिल हील्स के सैंडल न पहन कर प्लैटफौर्म हील्स पहनें, साड़ी के साथ पैंसिल हील्स पहनने से आप में ज्यादा डैलीकेसी नजर आएगी और आप यंग दिखेंगी.

– कई महिलाएं शौर्ट स्कर्ट पहन लेती हैं और साथ में बिंदी भी लगा लेती हैं तो सच मानिए देखने वालों को साफ समझ आता है कि उन्हें मैचिंग का नौलेज नहीं. अत: ऐसा करने से बचें.

– यदि आप को शौर्ट स्कर्ट पहनने का शौक है तो जरूर पहनें. यदि आप की उम्र ज्यादा है, तो आप बहुत फ्लेयर वाली स्कर्ट न पहन कर स्ट्रेट कट पहनें, साथ में फ्लैट या हील्स जिस में भी आप कंफर्टेबल हों पहनें. इस से आप स्लिम व ऐक्टिव नजर आएंगी.

फेस मेकअप है पहनावे का हिस्सा

इन सब के बाद यदि आप को फेस मेकअप पसंद है तो जरूर करें. वह भी आप के पहनावे का एक अहम हिस्सा है. आईशैडो यदि ड्रैस के मैचिंग के चक्कर में गहरे रंग का लगाएंगी तो बहुत नाटकीय लगेंगी. इस के बजाय हलके रंग का नैचुरल सा दिखने वाला आईशैडो लगाएं और लिपस्टिक भी सौफ्ट कलर की. या फिर सिर्फ लिपग्लौस भी लगा सकती हैं, जो आप के होंठों को मौइश्चराइज्ड करने के साथ ही चमकदार भी रखेगा. इन सब से आप भड़कीली नहीं जवां और फ्रैश दिखेंगी.

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बातूनी बच्चों से कैसे निबटें, आप भी जानिए

कानपुर के मालरोड पर बने एक पब्लिक स्कूल की बात है. कक्षा 4 में पढ़ने वाला छात्र प्रदीप हमेशा किसी न किसी से बात करता रहता था. ऐसे में स्कूल के बच्चे परेशान रहते थे. कई बार तो वह टीचर से भी ऐसे सवाल करता था कि टीचर को समझ में नहीं आता था कि वह उसे कैसे समझाए.

एक दिन स्कूल में प्रार्थना के दौरान प्रदीप ने अध्यापकों से प्रार्थना को ले कर कई सवाल कर डाले. इस से उस के दोस्त और टीचर के साथ प्रिसिंपल भी परेशान हो गए. जब प्रदीप के सवाल खत्म नहीं हुए तो प्रिसिंपल ने टीचर से कहा कि प्रदीप के मुंह पर टेप चिपका दो. टीचर ने प्रदीप के मुंह पर भूरे रंग की टेप चिपका दी. इस के बाद वह क्लास में गया तो वहां सभी बच्चे उस का मजाक उड़ाने लगे. परेशान हो कर प्रदीप वहां से बाहर चला आया.

इसी स्कूल में उस की मां क्षमा टीचर थी. दूसरे पीरियड की घंटी बजी तो प्रदीप मां के पास गया. मां ने पहले उस के मुंह पर से टेप हटाई और उस से इस के बारे में पूछा तो उस ने घटना की जानकारी दी. क्षमा ने प्रिसिंपल से बात की. प्रिंसिपल ने कहा कि प्रदीप बहुत बातूनी बच्चा है,

ऐसे में उस की वजह से पूरी क्लास और स्कूल डिस्टर्ब होता है. काफी समझानेबुझाने पर मामला सुलझा. प्रिंसिपल उसे क्लास में लेने को तैयार नहीं थे तो क्षमा ने पिं्रसिपल और टीचर के खिलाफ बच्चे के साथ मारपीट का मुकदमा दायर करने की धमकी दे दी.

हंगामा भी करते हैं बातूनी बच्चे

प्रदीप जैसे बातूनी बच्चे होना कोई नई बात नहीं है. बहुत से बच्चे ऐसे सवाल करते हैं कि उन के जवाब देने मुश्किल हो जाते हैं. ऐसे बातूनी बच्चे केवल बातें ही नहीं बनाते बल्कि कई बार ये अजबगजब शरारतें भी करते हैं, जिस की वजह से बड़ी परेशानी खड़ी हो जाती है.

नेहा को शिकायत है कि वह अपने बच्चे को जब भी किसी होटल में ले जाती है, वह वहां खाने की चीजों को ले कर बहुत सवाल करता है. इस के बाद कई खाने वाली चीजें मंगा लेता है और थोड़ाथोड़ा खा कर छोड़ देता है.

नेहा कहती है कि वह हद से ज्यादा बातें तो बनाता ही है, कई बार होटल में प्लेट और गिलास भी तोड़ देता है, जिस वजह से कई बार न चाहते हुए भी नेहा को बच्चे पर हाथ उठाना पड़ता है. बातूनी बच्चे केवल छोटी उम्र में ही परेशान नहीं करते, बड़े हो कर भी वे अपनी बातों से लोगों को परेशान करते हैं.

अनीता के जुड़वां बच्चे हैं. मजेदार बात यह है कि दोनों ही बहुत बातूनी हैं. स्कूल से ले कर घर तक दोनों की बातें चलती रहती हैं. बातों के चक्कर में वे स्कूल का होमवर्क भी नहीं करते. इस की वजह से स्कूल में रोज उन को सजा मिलती है. अनीता को समझ में नहीं आता कि वह कैसे अपने बच्चों को समझाए.

कई बार बच्चों का तनाव पति और घर के दूसरे सदस्यों पर निकल जाता है, उन से झगड़ा हो जाता है. बच्चों का तनाव घरपरिवार के संबंधों से ले कर दोस्तों तक पर भारी पड़ता है. अनीता कहती है कि उस ने अपने बच्चों की देखभाल के लिए नौकरानी रखी थी. बच्चों ने उसे इतना परेशान किया कि वह नौकरी छोड़ कर चली गई. वह बोली, ‘दीदी, आप के बच्चों को संभालना बहुत ही मुश्किल काम है.’

प्यार से संभालिए ऐसे बच्चे

बातूनी बच्चों को तनाव या गुस्से से मत संभालिए. उन्हें प्यार से संभालें. कई बार ऐसे बच्चों की हरकतों पर लोग गुस्सा हो जाते हैं और बच्चों के साथ मारपीट या सजा देने लगते हैं.

फिजियोथेरैपिस्ट और पेरैंट्स कोच नेहा आनंद कहती हैं, ‘‘बच्चों का ज्यादा बात करना, उन के द्वारा तरहतरह के सवाल किए जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है. कई बार पेरैंट्स, बड़े भाईबहन, रिश्तेदार या टीचर इन सवालों को ठीक से जवाब नहीं देना चाहते. वे बच्चे को बिना ठीक से समझाए उस का मुंह बंद कराने के लिए चुप करा देते हैं. कई बार डांटडपट देते हैं. जब इस से भी बात नहीं बनती तो वे मारपीट या सजा देने तक पहुंच जाते हैं.’’

नेहा आनंद आगे बताती हैं, ‘‘जब बच्चा सवाल करे तो उसे धैर्यपूर्वक सुनें. सवाल गलत हो तो भी उस को प्यार से समझाएं. बच्चे की जिज्ञासा जब पूरी हो जाएगी तो वह संतुष्ट हो जाएगा. अगर सही से बच्चे को समझाया नहीं गया तो उस के मन में गलत बात घर कर जाएगी. ऐसे में कई बार बच्चों का मानसिक विकास रुक जाता है. यही वजह है कि आज बच्चों की शिक्षा में ऐसे तमाम सब्जैक्ट जोड़े गए हैं, जहां उन को सवाल करने की पूरी आजादी दी जाती है. सही जवाब न मिलने से बच्चा कुंठित हो जाता है, वह अपने सवालों के जवाब के लिए दूसरे लोगों के पास जा सकता है, जो हो सकता है कि सवाल के जवाब तो गलत दें ही, उस को गुमराह भी कर बैठें. पेरैंट्स को बच्चों के ये सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं लगते. सही मानो में देखें तो बच्चों के लिए ये सवाल बड़े उपयोगी होते हैं.’’

सवाल दर सवाल

बातूनी बच्चे असल में एनर्जी से भरपूर और ऐक्टिव होते हैं. जब ऐसे बच्चों के साथ सही व्यवहार नहीं होता तो वे चिड़चिड़े और जिद्दी हो जाते हैं. अगर इन बच्चों को सही तरह से संभाल लिया जाए तो ये बहुत इंटैलिजैंट और जीनियस हो जाते हैं. सवाल करने के समय यदि इन बच्चों को रोका जाता है या इन्हें सही जवाब नहीं दिया जाता तो ये दब्बू बन जाते हैं. इन की सवाल करने की आदत खत्म हो जाती है. इस से उन का स्वाभाविक विकास प्रभावित होता है. इसलिए जरूरी है कि बच्चों की बातों को ठीक से सुना जाए और सही तरीके से उस का जवाब दिया जाए. यह बच्चों के स्वाभाविक विकास में सहायक होता है. बच्चे जिज्ञासू स्वभाव के होते हैं. वे अपने आसपास की चीजों को समझना चाहते हैं. जो बच्चे बातूनी होते हैं उन को एक्सट्रोवर्ट कहा जाता है. उन से किसी भी विषय पर बात करना अच्छा लगता है.

ऐसे बच्चों के सवालों के जवाब देने चाहिए. उन को हतोत्साहित नहीं करना चाहिए. ऐसे बच्चों को संभालना थोड़ा चुनौतीपूर्ण हो सकता है पर संयम से बात कर के संभाला जा सकता है.

ऐसे बच्चों से स्नेहपूर्वक बात करनी चाहिए. इस से ये अपनी बात को सरलता से कह लेते हैं. ऐसे बच्चों को जब संभाल लेंगे तो उन को सजा देने की जरूरत नहीं होगी. बच्चे भी अपने सवाल कर के आगे बढ़ सकेंगे. पेरैंट्स के साथसाथ ऐसे बच्चों को टीचर को भी सही तरीके से संभालना चाहिए, तभी इन का पूर्ण विकास हो सकेगा.

थोड़ा प्यार, थोड़ी समझ से संभालें अपने लाड़लों को

बातूनी यानी एक्सट्रोवर्ट बच्चों को संभालने के लिए सावधानीपूर्वक प्रयास करने चाहिए. कुछ टिप्स के सहारे यह काम सरल हो सकता है. इन टिप्स को धीरेधीरे बच्चों के साथ व्यवहार में ढाल लेंगे तो बातूनी बच्चों को सुधारा जा सकेगा :

–    बच्चों को बात करने पर कभी हतोत्साहित न करें. बच्चे बातों के जरिए ही अपनी फीलिंग्स और इमोशंस को जाहिर करते हैं.

–    कई बार वे आप का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ऐसे समय सवाल करते हैं जब आप व्यस्त होते हैं. इस दौरान भी बच्चों को झिड़कने के बजाय सही तरह से जवाब दें.

–    ऐसे बच्चों को संभालने के लिए घर में 10 से 15 मिनट का खेल खेलें, उस में उन्हें शामिल करें और उन्हें भी अपने साथ उतनी देर चुप रहने को कहें.

–    बच्चों की बातों को ध्यानपूर्वक सुनना शुरू करेंगे तो वे भी आप की बातें सुनेंगे. बच्चों के साथ बात करने से आपस में सामंजस्य बैठाना सरल होगा.

–    बच्चे एनर्जी का पावरहाउस होते हैं. उन की एनर्जी को सही दिशा में लगाना जरूरी होता है. आर्ट, क्राफ्ट, पेंटिंग और डांस जैसी गतिविधियों में उन को लगा कर उन की एनर्जी को सही दिशा में ले जा सकते हैं.

–    बच्चों को किताबें पढ़ना अच्छा लगता है. आप उन को किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित करें. इस से वे अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकेंगे, हर वक्त आप से सवाल नहीं करेंगे.

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