बात काफी पुरानी है. उस समय गांवकसबों में भी दैनिक जलापूर्ति नदियों और कुओं से ही की जाती थी. मेरी उम्र तब 12 साल के करीब होगी. मेरी मम्मी कुएं से पानी खींच रही थीं और मैं सिर पर पानी का हंडा भर कर घर आ रही थी. हमारा घर ऊपरी मंजिल पर था. पिताजी दरवाजे के पास बैठे अपना काम कर रहे थे. जैसे ही मैं तांबे का हंडा सिर पर रख अंदर जाने लगी, एकाएक पैर फिसला और हंडा पिताजी के सिर पर गिर पड़ा. हंडे की किनारी पिताजी के सिर पर लगी और खून की धार बहने लगी. यह देख कर मैं रोने लगी.
पिताजी बोले, ‘‘बेटा, रो मत, नीचे जा कर डाक्टर को बुला ला. यह बात अपनी मां को मत बताना.’’ संयोग से डाक्टर की डिस्पैंसरी हमारे घर के निचले हिस्से में ही थी और उन से हमारे घरेलू संबंध भी थे. डाक्टर ने पिताजी के जख्म की ड्रेसिंग की और पट्टी बांध कर दवा इत्यादि दे दी. मैं ने सारी सफाई कर दी ताकि मां को मालूम न पड़े. मां की डांट से बचाने के लिए किया गया पिताजी का त्याग मुझे अभिभूत कर गया. हालांकि बाद में मां को सबकुछ पता चल गया. अब न पिताजी रहे और न मां. मां की ममता और त्याग के उदाहरण इतिहास बना चुके हैं किंतु पिता के त्याग भी कम नहीं हैं.
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विजया शर्मा, गोगावां (म.प्र.)
- मेरे पापा एक बहुत ही नेकदिल, सच्चे व मेहनती इंसान थे. हम 5 भाई व 5 बहनें हैं. हम सभी को उच्चशिक्षा दिलाने में उन्होंने कोई भी कसर नहीं छोड़ी. रातदिन अकेले कमाते थे, लेकिन अपने लिए कभी किसी चीज की इच्छा जाहिर नहीं की. अपनी बेटियों को वे लड़कों का दरजा देते थे. जहां कहीं भी विवाह की बात करने जाते, यही कहते, ‘‘मेरी बेटियों में बेटी होने के गुणों के साथसाथ बेटे होने के भी सारे गुण हैं. मैं ने उन को बहुत काबिल बनाया है.’’
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मुझे पीएचडी करने के लिए यूजीसी की फैलोशिप मिली थी. उस का सारा पैसा मैं अपने पापा को दे देती थी. वे मेरा सारा पैसा इकट्ठा करते रहे. मेरी शादी के समय उन्होंने मेरा एक भी पैसा शादी के खर्च में नहीं लगाया. मृत्यु से पूर्व मुझे मेरे पति सहित अपने पास बुलाया और कहा, ‘‘बेटी, तेरा कमाया सारा पैसा तुझे सौंप रहा हूं. तू इसे ले जा. मैं ने जैसे और बच्चों की शादी की वैसे ही तेरी भी कर दी थी.’’ यह सुन कर मेरा दिल भर आया, सिर श्रद्धा से झुक गया. मेरा पैसा दोगुना हो कर मुझे मिल गया था.
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