‘‘निधि, यह स्टौल ले ले...’’ आरती की नजरें निधि के चुस्त टौप पर जमी थीं. और निधि के चेहरे पर झुंझलाहट थी.

‘‘रख लो, बाद में अपने बैग में डाल लेना.’’

‘‘ऊफ, बैग में क्या और सामान कम है जो इसे भी ढोती फिरूं.’’

‘‘यहां से निकलते वक्त थोड़ा सा ध्यान रखा करो, बाहर चाय की दुकान पर खड़े वे लफंगे...’’

‘‘अब क्या मैं मनमरजी के कपड़े भी नहीं पहन सकती हूं? और वैसे भी आज तक उन लोगों ने न कुछ कहा है, न कोई ऐसा व्यवहार किया है जिस से मुझे कोई परेशानी हो. और तो और, उस दिन मेरी स्कूटी स्टार्ट नहीं हो रही थी तो उन लड़कों ने ही ठीक कर दी थी वरना मेरा एग्जाम भी मिस हो जाता.’’

‘‘बेवकूफ है तू. जरा अपने सैंसेज को जगा कर रखा कर. सामने वाले हिमेशजी की बेटी को देख, कैसे ढंग के कपड़े पहनती है और आज तक उस ने...’’

‘‘मम्मी, प्लीज...मुझे किसी से कंपेयर मत करो,’’ कहती हुई निधि इतनी तेजी से भागी कि आरती उसे स्टौल पकड़ा ही नहीं पाई.

मांबेटी का लगभग रोज का विवाद और चिकचिक हरीश को अच्छी नहीं लगी, सो बोल उठे, ‘‘तुम क्यों मन खराब करती हो. किसी और की वजह से निधि पर इतनी रोकटोक ठीक नहीं है. महल्ले वालों की वजह से क्या वह अपनी मनमरजी से पहनओढ़ भी नहीं सकती?’’ ‘‘महल्ले वालों की परवा नहीं है, हरीश, मेरा मन तो उस चाय की गुमटी पर खड़े लड़कों को देख कर खराब होता है.’’

‘‘अरे, सुबहशाम ही तो चाय पीने का समय होता है, तुम तो ऐसे बोल रही हो जैसे ये लड़के दिनभर वहीं खड़े रहते हैं.’’ ‘‘दिनभर खड़े रहें तो ठीक है, पर उसी वक्त क्यों खड़े होते हैं जब अपनी निधि कालेज जाती और आती है.’’ आरती के तर्क का जवाब देना हरीश के बस में नहीं था.

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