बाहर महल्ले में कतारबद्ध दीयों की टिमटिमाती रोशनी और पटाखों का शोर सुन अंकुश रहरह कर अधीर हो उठता है. अपने होस्टल की खिड़की से जाने कब से वह इन रोशनी की लडि़यों को एकटक देखे जा रहा है. मायूसी के आलम में खुद को बारबार कोस रहा है कि काश, वह इन त्योहारों में घर क्यों नहीं चला गया. उस की वेदना मुखर हो उठती है. यह तनहाई और अकेलेपन का दर्द सिर्फ अंकुश जैसे छात्रों तक ही नहीं सिमटा है बल्कि सुदूर ग्रामीण इलाकों से आए मजदूर, कामगार छात्र और नौकरीपेशा लोग भी इस एकाकीपन का शिकार हैं. त्योहारों का सिलसिला शुरू होते ही घरपरिवार से दूर पढ़ाई या काम के सिलसिले में शहर से दूर बैठे युवाओं को एकाकीपन से दोचार होना ही पड़ता है.

ये एकाकीपन वाकई सालता है और तनहाइयां कचोटती हैं और ऐसे लोगों को अकसर मन में यह कोफ्त होती है कि अगर सिर पर पढ़ाई या नौकरी का बोझ न होता तो वे तीजत्योहारों की उमंगों को अपनों के साथ तो बांट पाते. भागतीदौड़ती जिंदगी में जैसे सबकुछ सिमट कर रह गया हो. त्योहार कब आए और कब चले गए इस का पता भी नहीं चलता. कहते हैं तीजत्योहार बेतहाशा भागती हमारी जिंदगी में, सुकूनभरे ठहराव के कुछ पल साथ ले कर आते हैं. वे हमारी बोझिल व उबाऊ दिनचर्या में ताजगी और खुशियों के नए रंग भरते हैं. दरअसल, त्योहारों की प्रासंगिकता भी इसलिए है कि एक नियत ढर्रे पर दौड़ रही जिंदगी की रफ्तार में उल्लास के बे्रक लगाए जाएं. त्योहारों की प्राचीन अवधारणा इस तथ्य की बखूबी पुष्टि करती है. पर उन का क्या जिन पर न तो होली के रंग चढ़ पाते हैं और न दीवाली की रोशनी प्रतिबिंबित हो पाती है. आज लाखों की तादाद में ऐसे युवा हैं जो अपनी मिट्टी से दूर तनहाइयों में अपनी दीवाली या ईद सैलिब्रेट कर रहे हैं. इसे उन की लाचारी कहें या मजबूरी जिस ने उन्हें मां के आंचल व बड़ेबूढ़ों के प्यारदुलार से वंचित रखा है. जेएनयू छात्रावास में रहने वाले छात्रों से जब इस बाबत बात की गई तो उन्होंने अपने एकाकीपन के अनुभव कुछ इस तरह बयां किए :

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