कहने को ही हम भारतीय साफसफाई से परहेज नहीं करते लेकिन पुराने सामान से हमारा मोह जगजाहिर है जिस का आधार उस का उपयोगी या अनुपयोगी कतई नहीं रहता. खरीदी गई किसी भी चीज की पूरी कीमत वसूलने की मानसिकता ने हर एक घर को एक तरह से कबाड़खाना बना रखा है. रेलवे स्टेशन पर देख लें, स्टेशन से निकलते समय पानी की खाली बोतल कम ही लोग फेंकते हैं. वे उसे घर ले जाते हैं जहां धीरेधीरे वह कबाड़ की शक्ल में स्टोररूम का स्थायी हिस्सा बन जाती है. किसी भी घर का मुखिया या गृहिणी अगर ईमानदारी से अनुपयोगी सामान यानी कबाड़े की लिस्ट बनाने बैठे तो पाएगा कि घर में 40 फीसदी सामान बेकार पड़ा है. कई बेकार चीजें तो सालों से घर की शोभा बढ़ा रही हैं, बस फेंकी नहीं गईं. फिर कभी काम आएगा, यह सोच कर उसे बारबार अनुपयोगी सामान की सूची से बाहर कर घर में रख लिया जाता है. यह कबाड़ की परिभाषा भी है और उदाहरण भी कि हर दीवाली लोग सोचते हैं कि कुछ भी हो जाए, इस बार जरूर बेकार की सारी चीजें बाहर फेंक देंगे, कबाड़ी को या ओएलएक्स पर बेच देंगे लेकिन...
...लेकिन होता यह है कि जैसे ही बेकार का कोई सामान, मसलन पुराना बेकार और खराब हो गया बटन वाला मोबाइल फोन हाथ में आ जाए तो उसे बेचते या फेंकते नहीं बनता. वह फिर वापस रख लिया जाता है. घरों में पुराने अनुपयोगी सामान का भंडार इसी व्यर्थ मोह के चलते बढ़ता जाता है और दीवाली की साफसफाई के नाम पर लोग फिर पुरानी चीजों का भंडार लगा लेते हैं.