सफर कितना खूबसूरत होता है, यह तो उस पर जा कर ही जान सकते हैं. बात कुछ महीने पहले की ही है जब यों ही गपशप लगाते हुए पता नहीं कैसे कहीं घूमने जाने की बात निकल आई. फिर क्या था, हिमाचल जाने से शुरू हुई बातचीत उदयपुर जाने पर आ कर रुकी. बातें तो मैं ने और मेरे दोस्तों ने ऐसे कीं कि मानो दिल्ली में बैठेबैठे ही हम उदयपुर घूम आए हों.

हम ने हर दिन तारीखों पर लड़ाई की, कब जाना है, कहां जाना है और कैसे जाना है जैसी चीजों पर चर्चाएं शुरू हो गईं. जाने में एक हफ्ता ही बचा था जब सब ने एकएक कर अपनेअपने कारणों से ट्रिप पर जाने से मना कर दिया. आखिर में फैसला मेरे हाथ में था कि मैं जाना चाहता हूं या नहीं. मैं ने लंबी सांस ली, अपने बचपन के दोस्त राहुल से पूछा, उस ने हां कहा और हम निकल पड़े उदयपुर के सुहाने सफर पर अपने सपनों की पोटली लिए अपनी पीठ पर.

ट्रेन से रात का सफर मैं और राहुल पहली बार करने वाले थे. ट्रेन अपने समय से 5 मिनट पहले ही स्टेशन पर आ कर खड़ी हो गई मानो उसे हम से ज्यादा जल्दी थी दिल्ली से निकलने की. नवंबर की सर्दी थी तो ठिठुरन में ही रात निकल रही थी. हालांकि गर्मजोशी भी हम में कुछ कम नहीं थी लेकिन दिल्ली में मोटीमोटी रजाइयां ले कर सोने वाले हम, ट्रेन के कंबलों में कंपकपाने से खुद को नहीं रोक पाए.

इसी बीच सामने वाली सीट पर बैठे अंकल से उन का मोबाइल सीट की साइड वाली दरार में गिर गया. उस फोन को ढूंढ़ने में पूरी बोगी के लोग लग गए. कोई छड़ी ले कर आया तो कोई सैल्फी स्टिक, लेकिन फोन किसी से नहीं निकला. कुछ देर मेहनतमशक्कत करने के बाद थकहार कर आरपीएफ कौंस्टेबल को बुलाया गया तो उन्होंने ट्रेन के रुकने पर फोन ढूंढ़ने का सु?ाव दिया. उन अंकल की शक्ल तो ऐसी हो रखी थी जैसे किसी ने उन्हें आधे घंटे अपनी दोनों किडनियों के बिना जीने के लिए कह दिया हो.

अगले सिग्नल पर ट्रेन रुकी तब जा कर उन अंकल को अपने जिगर के टुकड़े समान फोन मिला तो उन के साथसाथ हम सभी ने चैन की सांस ली. खैर, फोन तो हमारा नहीं था लेकिन फोन के खोने का दर्द अपनाअपना सा लगा.

एक चाचा बैठे थे दूसरी सीट पर. उन्होंने मु?ा से और राहुल से पूछा, ‘‘बेटा कहां से आए हो, दोनों इंजीनियर से लगते हो.’’ यह सुन कर हम दोनों अपनी हंसी नहीं रोक पाए. उन चाचा ने जरा नजर हटाई तो मैं ने राहुल से पूछ लिया, ‘‘यार, हमारी शक्ल पर दिखने लगा है क्या कि हम सिंगल हैं?’’ मतलब मैं सम?ा देता हूं, अकसर हम यानी दिल्ली के विद्यार्थी शायद देशभर के विद्यार्थी इंजीनियर को सिंगल ही सम?ाते हैं तो सिंगल का पर्यायवाची इंजीनियर को कह सकते हैं तो उन चाचा का हमें इंजीनियर कहने का अर्थ हमें यही लगा कि वे हमें सिंगल कह रहे हैं.

सुबह की पहली किरण हम ने उदयपुर में देखी. स्टेशन से बाहर निकले तो औटो वालों ने हमें ऐसे घेर लिया जैसे वाइवा दे कर आए पहले बच्चे को बाकी विद्यार्थी घेरते हैं. सब हमें उदयपुर घुमाने के अलगअलग औफर दे रहे थे लेकिन हमें पहले से ही पता था कि हमें कहां जाना है और कैसे. हम पैदल ही बातें करते हुए अपने बुक किए गए होटल पर पहुंच गए. वहां जा कर हम ने कुछ देर आराम किया.

सिटी पैलेस की सैर

12 बजे के करीब हम अपने होटल से सिटी पैलेस देखने निकल गए. सिटी पैलेस उदयपुर के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है. सिटी पैलेस पर हमें हमारे गाइड मिले, रतनजी. उन की बड़ीबड़ी मूंछों और सिर पर पहनी पगड़ी ने हमारा ध्यान अपनी ओर खींच लिया. उन्होंने हमें सिटी पैलेस के विषय में ढेरों जानकारियां दीं. किसी बात पर वे कहते ‘काश हम ऐसे राजाओं के घर ही पैदा हो जाते जहां के चम्मच भी सोने के होते.’ उन की बात सुन कर हंसी आने लगी.

सिटी पैलेस राजस्थान के विशाल महलों में से एक है जिस का निर्माण महाराणा उदय सिंह द्वितीय के समय में हुआ था. इस महल को देख कर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह अभी इतना खूबसूरत है तो जिस समय बना था तब कितना सुंदर रहा होगा.

इस पैलेस की चमक आज भी बरकरार है. लेक पिछोला के तट पर स्थित इस पैलेस के अंदर भी अनेक छोटी इमारतें बनी हुई हैं. सिटी पैलेस के अंदर दरबार हाल, दिलखुश महल, छोटी चित्रशाली, चीनी चित्रशाली, कृष्णा विलास, लक्ष्मी विलास चौक, मानक महल, रंग भवन, मोर चौक, शीश महल, अमर विलास, बड़ी महल, भीम विलास फतेहप्रकाश पैलेस और म्यूजियम हैं.

इन सभी स्थानों पर एक से बढ़ कर एक कलाकृतियां हैं जिन्हें देख कर राजस्थान की सभ्यता और संस्कृति का ज्ञान होता है. हैरत की बात नहीं कि यहां इतने टूरिस्टों का जमावड़ा क्यों लगा रहता है. वहां 4 घंटे घूम कर हम लेक पिछोला जा कर बोटिंग करने लगे. ऐसा लग रहा था जैसे हम इंडिया में न हो कर किसी और देश में पहुंच गए हों. सूरज की किरणें ?ाल में उतर रही थीं और सीधा हमारी आंखों में पड़ रही थीं. हवा तो इतनी ठंडीठंडी चल रही थी मानो सीधा स्विट्जरलैंड से आ रही हो.

परी नगर उदयपुर

?ालों के नगर या कहें परी नगर में खाना इतना लाजवाब मिलता है कि दिल्ली के बड़े से बड़े रैस्तरां भी इस के आगे फेल हैं. हम लेक पिछोला से निकल कर पास के एक छोटे कैफे में जा बैठे. वह कैफे अपने स्वादिष्ठ राजस्थानी खाने के लिए फेमस था. वहां के मेनू को देखने से ही मेरे मुंह में पानी आ गया.

गट्टे की सब्जी, दाल बाटी चूरमा, लाल मांस, घेवर, मावा कचोरी, चूरमा लड्डू, बादाम का हलवा और जाने क्याक्या ही नहीं था उस मेनू में. देख कर लगा तो यह था कि ये सब खाना तो मेरे दाएं हाथ का खेल है, वह अलग बात है कि चार रोटी, गट्टे की सब्जी और घेवर खा कर ही मैं ढेर हो गया. वहीं दूसरी तरफ राहुल सब खाना ऐसे ठूंस रहा था मानो सदियों का भूखा हो.

शाम होते ही हम उदयपुर में होने वाले डांसिंग शो को देखने चले गए. टिकट लिया तो पता चला शो को शुरू होने में एक घंटे का समय है. सो हम आसपास टहलने निकल गए. जो खुशी, जो अपनापन और जो ताजगी मैं वहां महसूस कर रहा था वह शायद ही कभी मैं ने दिल्ली में महसूस की हो. वापस शो में आए तो अलगअलग नृतक वहां अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे. कुछ गायकों ने ‘केसरिया बालम आवो ने पधारो ने मारो देस, देस रे…’ गाया तो लगा मेरे लिए ही गा रहे हों. मैं तो मंत्रमुग्ध हो कर रह गया.

अगले दिन की सुबह दालबाटीचूरमा से हुई. आज हम बड़ी लेक, बाहुबली हिल्स और मानसून पैलेस घूमने वाले थे. हम ने बाहुबली हिल्स जाने के लिए औटो लिया तो औटो वाले भैया ने बकबक करना शुरू कर दिया. उन्होंने हमारे बिना पूछे ही अपनी लवस्टोरी जो सुनानी शुरू की तो फिर रुके ही नहीं.

उन्होंने बताया कैसे एक ही बार मिलने पर उन्हें उस लड़की से प्यार हो गया और उस लड़की को उन से. कैसे वे उसे खत लिखा करते थे और कैसे छिपछिप कर मिला करते थे और फिर किस तरह आज वे शादी कर के खुशहाल जिंदगी बिता रहे हैं. यह सब सुन कर पहले तो थोड़ी लानत महसूस हुई खुद पर (जन्म से सिंगल जो ठहरे) और फिर एहसास भी हुआ कि कैसे चिट्ठी और खत वाला प्रेम चैटिंग बन कर रह गया है.

बातें करतेकरते हम बाहुबली हिल्स पहुंच गए. वहां ऊंचाई पर पहुंच कर लगा मानो जिंदगी अब खत्म भी हो जाए तो गम नहीं. हम ने कुछ फोटो लीं ताकि बुढ़ापे में उन्हें देखदेख कर इस दिन को याद कर सकें. बाहुबली हिल्स से उतरे तो सामने बाड़ी लेक थी. बाड़ी लेक में हमें बिलकुल दिल्ली जैसा नजारा दिखा, जैसे दिल्ली के पार्कों में सिक्योरिटी गार्ड प्रेमियों को भगाते हैं वैसे ही एक गार्ड अंकल वहां कपल्स को भगा रहे थे. वे कपल्स भी कुछ कम ढीठ नहीं थे एक जगह से उठते तो दूसरी जगह पहुंच जाते.

कुछ देर वहां आराम करने के बाद हम मानसून लेक की तरफ चल दिए. मानसून लेक पर पहुंच कर उदयपुर का जो मनमोहक दृश्य दिखा उसे शब्दों में पिरोना आसान नहीं. वहां से आए तो हम घाट किनारे चल दिए. वहां कुछ स्टूडैंट्स दिखे जो मस्तीमजा कर रहे थे. एक ने गाना गुनगुनाना शुरू कर दिया तो समां थोड़ा रोमांटिक होने लगा. मु?ो इस रोमांटिक माहौल में अपनी वह गर्लफ्रैंड याद आने लगी जो असल में कभी गर्लफ्रैंड बनी ही नहीं (सिंगल होने के कुछ साइड इफैक्ट्स).

कुछ देर बार खाना खाने गए और लौटते हुए सोचा चलतेचलते ही होटल पहुंचा जाए. बाजार बड़ेबड़े बल्बों से सजा हुआ था. दुकानों के बाहर रंगबिरंगे दुपट्टे टंगे हुए थे. खाने की खुशबू हर ओर से आ रही थी. जूतियां, बैग, खिलौने और जाने क्याक्या ही बाजार की शोभा बढ़ा रहे थे. मन में आया कि कुछ चूडि़यां मैं भी खरीद लूं लेकिन राहुल ने कहा, ‘‘भाई ले तो लेगा पर देगा किस को?’’ तो उन चूडि़यों को खरीदने का खयाल भी मन से निकल गया.

इसी के साथ खत्म हुआ हमारा 2 दिनों का सफर. उदयपुर मेरी मंजिल नहीं थी, न ही वापस दिल्ली आना मेरी मंजिल है. असल में मु?ो पता ही नहीं है मेरी मंजिल क्या है. उदयपुर से दिल्ली, दिल्ली से गोवा, गोवा से हिमाचल और हिमाचल से उत्तराखंड जाना भी मेरी मंजिल नहीं था. सब सफर था या कहूं कि सफर है.

अगला सफर शायद इंडिया से बाहर का भी होगा. लेकिन मेरी मंजिल क्या है, मु?ो पता नहीं. सफर में मिलने वाले लोग, यादें, अलगअलग संस्कृति और सभ्यताओं से परिचय, ढेरों बातें और ढेर सारे अनुभव ही सफर को यादगार बनाते हैं. आखिर में बस, इतना ही कहूंगा, ‘मैं उड़ना चाहता हूं, दौड़ना चाहता हूं, गिरना भी चाहता हूं… बस, रुकना नहीं चाहता.’

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