17 वर्ष का मोहसिन मुंबई में अपनी मां और बहन के साथ अपने मामा के घर में रहता है. जब घर पर कोई नहीं होता तो वह बहन के कपड़े और अंडरगारमैंट्स चुपके से ले कर पहनता और घर में ठुमके लगाया करता था. वह मां की हाईहील सैंडल पहन कर भी घूमता था. उस की इस आदत को पड़ोसी देख कर उस की मां से शिकायत किया करते थे. मां को गुस्सा आ जाता था और वे उसे पीटती थीं, पर उस में सुधार नहीं आया.

ऐसा कई सालों तक चलता रहा. मां को पता था कि उन का बेटा ऐसा है. लेकिन करें तो क्या करें? परेशान हो कर वे मुंबई के सायन अस्पताल में असिस्टैंट प्रोफैसर व मनोरोग चिकित्सक, डा. गुरविंदर कालरा से मिलीं. वे डाक्टर से कहती रहीं कि यह बिगड़ चुका है, इसे सुधारने की आवश्यकता है.

दरअसल, मां को लगता था कि उन के बेटे का दिमागी संतुलन ठीक नहीं है जिस की वजह से वह लड़का होते हुए भी लड़कियों के कपड़े पहन कर नाचता है.

डा. कालरा का कहना था कि यह लड़का किसी भी रूप में बीमार नहीं है. उस के अंदर ‘जैंडर डिसऔर्डर’ है जिसे चाहें तो आप ठीक कर सकते हैं या फिर उसे वैसे ही रहने दे सकते हैं.

डा. कालरा आगे कहते हैं कि मोहसिन को ‘जैंडर डिस्फोरिया’ या ‘जैंडर डिसऔर्डर’ काफी समय से है. इस में व्यक्ति को खुद की शारीरिक बनावट और मानसिक बनावट में अंतर दिखाई पड़ता है. व्यक्ति लड़की या लड़का पूरी तरह से बनना नहीं चाहता, उसे अपनी शारीरिक संरचना पसंद है पर उस का मानसिक स्तर लड़की जैसा है. अधिकतर किन्नर इसी के शिकार होते हैं जो शारीरिक रूप से लड़के होते हैं पर वे मानसिक रूप से लड़कियों जैसा व्यवहार करते हैं.

एक अध्ययन में पाया गया कि अगर कोई व्यक्ति ‘जैंडर आइडैंटिटी डिसऔर्डर’ का शिकार हो तो वह किन्नर ही बने, यह सोचना ठीक नहीं.

सायन अस्पताल के मनोरोग प्रमुख डा. निलेश शाह कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति अपना सैक्स बदलने के लिए सर्जरी करवा सकता है. तकरीबन 50 किन्नरों से बात करने पर पता चला कि 84 प्रतिशत किन्नर ‘जैंडर आईडैंटिटी डिसऔर्डर के शिकार हैं. उन की इस मनोदशा को शुरुआती अवस्था में ही इलाज द्वारा सुधारा जा सकता है. असल में किन्नर ‘थर्ड जैंडर’ में आते हैं जबकि ‘जैंडर डिस्फोरिया’ में व्यक्ति सिंगल जैंडर का होता है.

यूएस के अटलांटा में पिछले वर्ष वर्ल्ड प्रोफैशनल एसोसिएशन फौर ट्रांसजैंडर हैल्थ द्वारा विचारगोष्ठी का आयोजन किया गया था जिस में डा. गुरविंदर कालरा ने इस विषय पर अपनी स्टडी प्रस्तुत की. इसे सभी ने सराहा और अधिक से अधिक लोगों ने इस विषय की जानकारी प्राप्त की. इस पर बातचीत भी हुई. इस तरह के अध्ययन पश्चिमी देशों में अधिक हुए हैं.

न करें मारपीट

डा. कालरा कहते हैं कि इस तरह की अव्यवस्था या गड़बड़ी बच्चे को ढाई या 3 साल की अवस्था से शुरू हो जाती है. जब बच्चा अपने लिंग की पहचान कर पाता है. ऐसे बच्चे समलैंगिक नहीं होते. ये अधिकतर लड़कियों के बीच में खेलते या फिर लड़कियां लड़कों के बीच में खेलना, उन की जैसी हरकतें करना वगैरा करते हैं. ऐसे में समाज उन की हंसी उड़ाया करता है. परेशान हो कर मातापिता उस से मारपीट करते हैं जो ठीक नहीं.

यह अव्यवस्था बच्चे को जन्म से ही होती है. लेकिन कई बार कुछ विडंबना या घटना भी इसे जन्म दे सकती है, जैसे कि पिता का घर से दूर रहना, पिता का मर जाना आदि. इस तरह के बच्चे बहुत कम डाक्टर तक पहुंच पाते हैं.

मुंबई के फोर्टिस अस्पताल की मनोरोग चिकित्सक डा. पारुल टांक कहती हैं कि बचपन से ही बच्चे की आदत को सुधारना जरूरी है. कई बार मातापिता लड़की को लड़कों के कपड़े पहना देते हैं क्योंकि घर में लड़का नहीं है. ऐसे में बच्चे के कुछ हावभाव लड़कों जैसे हो जाते हैं, जैसा कि उन के पास आई एक लड़की का हुआ जो अपने पिता की मौत के बाद अपनेआप को लड़का समझने लगी और बाद में अपना ‘सैक्स’ भी चैंज करवा डाला.

यह सर्जरी हमारे देश में काफी लंबी है और उम्रभर हार्माेन देना पड़ता है क्योंकि उन में स्वाभाविक तौर पर हार्मोन नहीं होता.

मजाक न उड़ाएं

जब लड़की या लड़का अपनेआप को विपरीत लिंग के समझने लगते हैं तो सब से पहले पड़ोसी, दोस्त वगैरा उस का मजाक उड़ाते हैं जिस से बच्चे को तनाव, उदासीनता, घबराहट आदि होने लगती है इसलिए बड़े हो कर वे बच्चे ‘सैक्स चैंज’ की लंबी प्रक्रिया को भी अपनाने के लिए तैयार हो जाते हैं.  समय रहते अगर मातापिता मनोरोग चिकित्सक के पास जाएं तो बच्चे को इस समस्या से निकालने का प्रयास किया जा सकता है.

इस में यह भी देखना होता है कि कहीं यह अव्यवस्था उस में पागलपन की वजह से तो नहीं है. अगर ऐसा नहीं है तो यह बीमारी नहीं है. इस का इलाज किया जा सकता है. मातापिता समाज या परिवार से डरें नहीं बल्कि आगे आ कर बच्चे को इस समस्या से नजात दिलाने का प्रयास करें.

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