नकुल सामान्य परिवार का युवक था. उस के मातापिता ने बड़ी मेहनत और आर्थिक तंगी में उसे अच्छे कालेज में पढ़ाया था. पैसों के इंतजाम में उस के परिवार के ऊपर कर्ज भी हो गया था. नकुल के मातापिता सोचते थे कि बेटे की जौब लग जाएगी. उस की अच्छी सैलरी होगी तो एकदो साल में सब ठीक हो जाएगा. नकुल मातापिता की जरूरतों को समझता था. उस के मन में था कि जो सैलरी मिलेगी उस से मातापिता की मदद करेगा, उन को खुश रखेगा. अच्छी यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने के बाद उसे एक कंपनी में नौकरी मिल गई. सैलरी जैसी सोची थी वैसी तो नहीं थी पर सामान्य से बेहतर थी.
जैसी कंपनी थी वैसा ही रहनसहन वहां रखना था. कार, अच्छा फ्लैट, मोबाइल, कपड़े, परफ्यूम आदि वहां की जरूरत के मुताबिक करना था. महंगा शहर था. ऐसे में उस की सैलरी का एक बड़ा हिस्सा इसी में खर्च हो रहा था. उस के पास बचत नहीं हो पाती थी. दूसरी तरफ, उस के मातापिता सोचते थे कि अब नकुल घर पैसे भेजे. वे कहने में संकोच करते थे. नकुल बीचबीच में थोड़ेबहुत पैसे भेज भी देता था पर उस से कुछ होता नहीं था.
नकुल के साथ काम करने वाले अमीर घरों के थे. वे पूरी सैलरी खर्च कर देते थे. उन को घर भेजना नहीं था. ऐसे में समान वेतन पाने के बाद भी नकुल गरीब सा लगता था. दूसरे अमीर से दिखते थे. जिस माह नकुल घर पैसे भेज देता उस पूरे माह कोई फुजूलखर्ची नहीं करता था. अपने साथियों को खर्च करते देख कर वह डिप्रैशन का शिकार होता था. धीरेधीरे वह अपने दोस्तों से दूर रहने लगा. उस पर अकेलापन हावी होने लगा. अच्छा वेतन पाने के बाद भी वह दूसरों की अमीरी देख कर परेशान था.
सोशल मीडिया का प्रभाव
आज के दौर में सोशल मीडिया का प्रयोग हर कोई कर रहा है. नकुल भी देखता था कि उस के दोस्त अपने मातापिता को कितना खुश रखते थे. उन को उपहार दिलाते थे, उन की पोस्ट सोशल मीडिया पर डालते थे. नकुल ऐसा कुछ नहीं कर पा रहा था. उस के मातापिता गांव के थे. उन का रहनसहन अलग था. सोशल मीडिया की तरह से हाईफाई नहीं थे. वह बहुत परेशान रहता था. एक बार वह छुट्टी ले कर गांव गया तो उस ने पिता से ये बातें कहीं.
वे बोले, ‘बेटा, हमें कुछ नहीं चाहिए. तुम्हारे साथी अमीर हैं, संपन्न घरों के हैं. ऐसे में उन से तुलना न करो. हमेशा अपने से नीचे वाले को देखो, उस के संघर्ष को देखोगे तो तुम खुश रहोगे. जितना अमीर लोगों को देख कर उन से मुकाबला करोगे, दुखी और परेशान रहोगे. संपन्नता से ही खुशी नहीं मिलती. खुशी आपसी प्यार, सहयोग और एकदूसरे के सुखदुख में शामिल होने से मिलती है.’
जल्द अमीर होने की चाहत
इंटरनैशनल इमेज कल्संटेंट की प्रमुख निधि शर्मा कहती हैं, “जल्द से जल्द सबकुछ पा लेने की चाहत डिप्रैशन में डाल देती है, खासकर, जब हम अपनी तुलना अमीर या सफल आदमी से करने लगते हैं. सफल आदमी के जीवन और संघर्ष को देखें तो पता चलेगा कि उस ने भी बहुत स्ट्रगल किया है. अब स्कूल के दिनों से ही बच्चों के सोचने का तरीका बदल गया है. क्लास में पढ़ने वाले हर बच्चे के नंबर एकजैसे नहीं होते. किसी के कम, किसी के ज्यादा होते हैं. एकदूसरे से तुलना यहीं से होने लगती है, जो बाद में अमीरी तक पहुंच जाती है. अमीरी को सफलता से जोड़ दिया जाता है.”
भारत तेजी से उन देशों में शामिल हो रहा है जहां युवाओं में डिप्रैशन की बीमारी बढ़ती जा रही है. इस की बहुत सी वजहें हैं. इन में प्रमुख वजह खुद को दूसरों के मुकाबले कमतर समझना है. कभी मातापिता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरने से कुछ लोग डिप्रैशन में चले जाते हैं तो कभी पढ़ाई और नौकरी के बढ़ते दबाव से. अस्पतालों और मनोविज्ञानियों से बात करने पर पता चला कि हर 4 में से 1 किशोर डिप्रैशन का शिकार हो रहा है. पहले जहां 25 से 30 साल के बीच डिप्रैशन आता था वहां अब 16-17 साल की उम्र से ही शुरू हो जा रहा है.
कभी पढ़ाई और नौकरी के बढ़ते दबाव से डिप्रैशन हो रहा है तो कुछ लोगों का परिवार तो कुछ के टूटे रिश्ते इस की वजह बनते हैं. वहीं कुछ युवाओं के लिए उन का लुक या अकेलापन डिप्रैशन का कारण बन जाता है. आंकड़ों के अनुसार 13 से 15 साल के बीच का हर 4 में से 1 किशोर डिप्रैशन का शिकार होता है. डिप्रैशन के शिकार किशोर खुद को हमेशा अकेला पाते हैं. उन्हें लगता है जैसे पूरी भीड़ उन्हें ही देख रही है और उन पर हंस रही है.
खुद की कीमत को पहचानें
भारत में ऐसे आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं. जैसेजैसे लोग इस बीमारी के चपेट में आने लगते हैं उन में जीने के इच्छा खत्म होने लगती है. दिमाग पर बढ़ते दबाव से पूरे समय शरीर बेचैन रहता है. कम उम्र में ही इन किशोरों में जिंदगी खत्म करने जैसी फीलिंग आने लगती है. डिप्रैशन में हमेशा नकरात्मक विचार ही आते हैं और धीरेधीरे ये भयानक रूप ले लेते हैं. डिप्रैशन में किसी भी एक चीज पर ध्यान लगाना मुश्किल हो जाता है और हमेशा थकान सी रहती है. जहां कुछ टीनएज इस बीमारी से पूरी तरह टूट जाते हैं वहीं कुछ पूरी हिम्मत के साथ इस का मुकाबला करते हैं, सफल होते हैं.
निधि शर्मा कहती हैं, “युवा लाइफस्टाइल में कुछ बदलाव कर के अपनी मैंटल हैल्थ को सुधार सकते हैं. गैजेट्स और सोशल मीडिया से दूरी बनाएं. सोशल मीडिया का लंबे समय तक इस्तेमाल आप में उदासी, अकेलापन, ईष्या, चिंता और असंतोष जैसी भावनाएं पैदा कर सकता है. इस से बचने के लिए आप ‘सोशल मीडिया डिटौक्स’ कर सकते हैं. हमें परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताते वक्त भी अपने फोन से दूरी रखनी चाहिए, जैसा कि आप किसी कौर्पोरेट मीटिंग के समय करते हैं. रात में सोते समय फोन से दूरी आप की नींद की क्वालिटी को बढ़ाती है और सुबह फ्रैश उठते भी हैं.”
आप को ऐसा लग सकता है कि औफिस और घर में होना वाला स्ट्रैस आप के कंट्रोल में नहीं है, लेकिन अपने स्ट्रैस को कम करने के लिए आप कभी भी स्थिति को अपने हाथ में ले सकते हैं. इफैक्टिव स्ट्रैस मैनेजमैंट आप को जीवन में तनाव कम करने में मदद करता है. अगर आप जान जाएं कि जिंदगी का हर दिन एक गिफ्ट है तो आप अपनी जिंदगी को गंभीरता से जिएंगे. हम कभीकभी यह भूल जाते हैं कि जीवन कितना क्षणभंगुर है और हम कितने कीमती हैं. केवल आप को पता है कि आप ने कितनी कठिनाइयों का सामना किया है. आप का दिल जानता है कि आप ने कितनी बहादुरी दिखाई है. चिंता और अवसाद को रोकने के लिए आप को यह भी जानना चाहिए कि आप कितने अनमोल हैं.
हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में राजधानी एक्सप्रैस की स्पीड से भाग रहे हैं और हर किसी पर किसी न किसी से आगे निकलने का बहुत दबाव है. प्रतिस्पर्धा अच्छी है, लेकिन कभीकभी खुद को धीमा करने से खुद का मैंटल हैल्थ ठीक होता है तो आराम कर लें. इस से मैंटल हैल्थ ठीक होगी, डिप्रैशन दूर हो सकेगा.