वह एक हृष्ट-पुष्ट किशोर थे, जिनका स्तन बिल्कुल सामान्य था. हर कोई उनसे यही कहता था कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनकी देह भी दुरुस्त होती जाएगी. लिहाजा उन्होंने अपने शरीर पर ध्यान नहीं दिया. यही अनदेखी 45 वर्षीय संजय गोयल के लिए भारी पड़ी. अपने मांसल देह में उभरे उन लक्षणों को वह नहीं पकड़ पाए, जो बाद में एक पूर्ण विकसित स्तन कैंसर के कारण बने. ‘इसके लक्षण मुझे हमेशा से दिखे. 24 वर्ष की उम्र में मैंने महसूस किया कि मेरे दाहिने स्तन से कोई द्रव निकल रहा है, जबकि 30 की उम्र आते-आते उसमें गांठ दिखने लगी थी. मगर मैं तब डॉक्टर के पास गया, जब मेरे स्तन से खून निकलने लगा.’ यह कहना है संजय का, जो पेशे से दूरसंचार विभाग में इंजीनियर हैं.
दुर्भाग्य से संजय के डॉक्टर भी लक्षणों को नहीं पढ़ पाए और उन्हें एंटीबायोटिक्स खाने की सलाह दी. संजय बताते हैं कि ‘एंटीबायोटिक्स खाने के बाद तमाम लक्षण खत्म से हो गए, मगर करीब एक साल के बाद फिर से वे उभर आए. डॉक्टर ने मुझे दोबारा वही दवाई खाने को कहा. मगर जब मेरी छाती में दर्द बढ़ने लगा, तो मैंने दूसरे डॉक्टर के पास जाने का फैसला किया.’ संजय ने एक पारिवारिक मित्र की सलाह ली, जो पेशे से सजर्न हैं. संजय बताते हैं, ‘जब मैंने उन्हें बताया, तो उन्होंने मेरे स्तन को देखकर चिंता जाहिर की. मुझे एक खास टेस्ट- फाइन नीडल ऐस्परेशन साइटोलॉजी (एफएनएसी) कराने को कहा. इस टेस्ट की रिपोर्ट पॉजिटिव आई, जो कैंसर के होने का सूचक था. यानी अब मुझे ऑपरेशन कराना था.’
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बाइऑप्सी से पता चला कि संजय को स्टेज-दो का कैंसर है. इससे चिंता बढ़नी स्वाभाविक थी. वह बताते हैं, ‘मैं तो यही समझता था कि कैंसर का मतलब है, मौत. इसलिए जब मैंने अपनी रिपोर्ट देखी, तो कुछ घंटों तक मैं और मेरी पत्नी बिल्कुल सन्न रह गए. हम बिना एक शब्द बोले, चुपचाप बैठे रहे. मेरे लिए यह कबूल करना कठिन था कि इतनी स्वस्थ जीवन शैली जीने के बाद भी आखिर कैसे मुझे कैंसर हो सकता है? मैं काफी देर तक योग-अभ्यास किया करता था, इसलिए रिपोर्ट से मैं काफी चकित था.’ कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी के बाद संजय को हॉरमोनथेरेपी भी करवानी पड़ी, जो अब भी जारी है.
असल में, पुरुषों में स्तन कैंसर एक ऐसी बीमारी है, जिसे पुरुष आसानी से नहीं पकड़ पाते या उसके बारे में सहज तौर पर बात करने से कतराते हैं. मुंबई के डॉ एलएच हीरानंदानी अस्पताल के वरिष्ठ कैंसर रोग विशेषज्ञ डॉ आशीष बक्षी कहते हैं, ‘मेरे पास पुरुषों में स्तन कैंसर के मामले तीन महीनों में एक से ज्यादा शायद ही आते हैं, पर वे ऐसे मामले होते हैं, जिनमें देर से इलाज शुरू किया गया होता है. यानी रोग गंभीर स्थिति में होता है.’ विशेषज्ञ भी मानते हैं कि महिलाओं में स्तन कैंसर भले ही सामान्य है, पर पुरुषों में होने वाले कैंसर में स्तन कैंसर के मामले महज दो प्रतिशत हैं. इतना ही नहीं, 35 वर्ष से कम उम्र के पुरुषों में यह रोग शायद ही होता है, पर यदि परिवार में किसी महिला सदस्य का स्तन कैंसर का इतिहास है, तो पुरुषों को भी सचेत रहना चाहिए.
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डॉ बक्षी बताते हैं, ‘टेस्टोस्टेरोन और एस्ट्रोजन के स्तर में असंतुलन की वजह से यदि कोई पुरुष गायनेकोमास्टिया यानी स्तन में वृद्धि का शिकार है, तो उसे यह बार-बार देखते रहना चाहिए कि उसके निपल से कोई द्रव तो नहीं निकल रहा या उसमें गांठ तो नहीं बन रही? ये दरअसल, कैंसर के शुरुआती लक्षण हो सकते हैं.’हीरानंदानी अस्पताल के प्लास्टिक ऐंड कॉस्मेटिक सजर्न डॉ विनोद विज बताते हैं कि चूंकि स्तन के आस-पास ऐसे किसी रोग की आशंका पुरुषों में बहुत कम होती है, इसलिए वे शुरुआती अवस्था में गांठ पर ध्यान नहीं दे पाते. हालांकि ट्यूमर का छोटा आकार होने से भले ही पुरुषों के लिए कैंसर का पता लगा पाना मुश्किल होता हो, पर वह ट्यूमर शरीर के बाकी हिस्सों में तेजी से फैल सकता है. वैसे डॉ विज के ही शब्दों में कहें, तो राहत की बात यह कि ‘महिलाओं की तुलना में पुरुषों में इसके इलाज का असर कहीं सुखद दिखा है, खासतौर से हॉरमोनथेरेपी का. इसीलिए पुरुषों को इसे लेकर कोई द्वंद्व नहीं पालना चाहिए कि उन्हें अपने स्तन पर गांठ महसूस हुई है और इसके बारे में उन्हें परिवार या करीबी मित्रों को बताना चाहिए.’ अगर समय पर डॉक्टर से सलाह ले ली जाए, तो स्तन कैंसर का कहीं बेहतर इलाज संभव है.
नई दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में कार्यरत वरिष्ठ कैंसर सजर्न डॉ समीर कौल कहते हैं कि ‘आमतौर पर कैंसर के विशेषज्ञ डॉक्टरों के पास 60 फीसदी से अधिक ऐसे मामले आते हैं, जिसमें मरीज को तीसरे या चौथे चरण का कैंसर होता है, और इस अवस्था में उसके ठीक होने की संभावना 14-49 फीसदी तक ही होती है. यह निराश करने वाली तस्वीर है.’ डॉक्टर बार-बार यही बताते हैं कि यदि शुरुआती अवस्था यानी पहले या दूसरे चरण में कैंसर का पता लग जाए, तो उसके ठीक होने की संभावना 95 फीसदी तक होती है. इतना ही नहीं, शुरू में पता चल जाने पर ज्यादातर मामलों में स्तन काटने की नौबत नहीं आती. भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) द्वारा तैयार समेकित कैंसर रजिस्ट्री के आंकड़े बताते हैं कि साल 2016 में भारत में 14.5 लाख कैंसर के नए मामले सामने आए थे, जिनमें से 7.36 लाख पीड़ितों की मौत हो गई, क्योंकि 12.5 फीसदी मामलों में ही इलाज समय पर शुरू हो सका था. इससे पहले इस रजिस्ट्री के आंकड़े 2011 में सामने आए थे. दोनों आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन बताता है कि हर साल कैंसर के नए मामलों में 3.5 लाख की वृद्धि हो रही है. साफ है कि कैंसर महामारी की तरह हमारे देश में फैल रहा है. अगर रफ्तार यूं ही बनी रही, तो आशंका है कि साल 2020 तक देश में कैंसर के सालाना 17.3 लाख नए मामले सामने आएंगे. यह इस अनुमान को सच साबित करता दिखता है कि भारत में अगले पांच वर्षो में गैर-संक्रामक रोगों में सबसे अधिक मामले कैंसर के सामने आएंगे.
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यह देखा गया है कि पुरुषों में मुंह और फेफड़े के कैंसर अधिक होते हैं, जबकि महिलाओं में स्तन और गर्भाशय के कैंसर. इन सबमें स्तन कैंसर सबसे ज्यादा उपचार योग्य कैंसर माना जाता है, क्योंकि इसके इलाज की तकनीक लगातार विकसित हो रही है. लिहाजा इसके ठीक होने के मामले भी बढ़ रहे हैं.डॉ कौल बताते हैं, ‘स्तन कैंसर के बेहतर इलाज की एक वजह निश्चित तौर पर जीन टेस्टिंग है, क्योंकि यह बताती है कि दवा असर दिखाएगी अथवा नहीं, कैंसर किस तरह का है और ट्यूमर के कैंसर बनने की कितनी आशंका है? इससे इलाज की दिशा को तय करना आसान हो जाता है. मगर सच यह भी है कि ऐसी कोई जांच काफी खर्चीली होती है. यह 30 हजार रुपये से लेकर 3.5 लाख रुपये तक की हो सकती है.’ हालांकि डॉक्टरों का एक वर्ग ऐसा भी है, जो मानता है कि स्तन और गर्भाशय कैंसर के लिए होने वाली बीआरसीए-1 और बीआरसीए 2 जैसी जीन प्रोफाइलिंग डॉक्टरों को समझ-बूझकर करानी चाहिए.
दिल्ली में एम्स के एक वरिष्ठ डॉक्टर बताते हैं कि हमें ऐसी किसी जांच का इस्तेमाल कैंसर से लड़ने के लिए करना चाहिए, न कि मरीजों में डर या आशंका बढ़ाने के औजार के रूप में. खासतौर से सरकारी अस्पतालों में आने वाले मरीजों के लिए ये टेस्ट संभव नहीं हैं. एम्स के एक अन्य वरिष्ठ कैंसर विशेषज्ञ बताते हैं, ‘हमारे पास ऐसे-ऐसे गरीब मरीज आते हैं, जिनके लिए कुछ सौ रुपये इकट्ठे चुकाना भी मुश्किल होता है. मगर हम नियमित तौर पर ली जाने वाली दवाइयों के सहारे भी बेहतर इलाज कर सकते हैं, पर इसके लिए जरूरी है कि मरीज समय पर हमारे पास आएं.’
जाहिर है, अब कैंसर मौत का पैगाम नहीं है, जैसा कि पहले माना जाता था. संजय गोयल के शब्दों में ही कहें, तो ‘कैंसर के बाद भी जीवन संभव है, और इसका मैं एक बड़ा उदाहरण हूं. शुरू में मुङो लगता था कि मैं बस वक्त बीता रहा हूं, मगर अब मैं अपना जीवन जी रहा हूं. मैं जहां-तहां घूमने जाता हूं, योगाभ्यास करता हूं और वे सब चीजें करता हूं, जो पहले नहीं करता था. मैंने और मेरी पत्नी ने एक बच्ची को गोद भी लिया है. मैं अब जीवन के भरपूर मजे ले रहा हूं.’