हमारे देश में मंडी कानून लागू हैं, जिन के तहत किसानों को अपनी उपज मंडी में ही बेचनी होती है. मंडियों में उन आढ़तियों की दुकानें होती हैं, जिन्हें मंडी कमेटी लाइसेंस देती है और हर सौदे पर उन से टैक्स लेती है. मंडियां करोड़ों में खेलती हैं, गरीब किसानों से उन की खूब आमदनी होती है. इन मंडियों का संचालन करने वाली कमेटियां कहींकहीं चुनावों से बनती हैं, पर ज्यादातर राज्य सरकारें मंडियों में अपनी मरजी के लोग तैनात करती हैं.

नेताओं के घरों पर आज किसान टाइप के लोगों की जो भीड़ होती है उन में से ज्यादातर मंडी कमेटी में सदस्य बनने की सिफारिश के लिए आए होते हैं. सदस्य बनने के बाद इलाके में उन का विधायक सा रोब हो जाता है और दुकानदार, आढ़़ती, किसान जीहुजूरी करने पर मजबूर हो जाते हैं. नोटबंदी के बाद आढ़तियों को जम कर लाभ हुआ है, क्योंकि उन्होंने अनाज तो ले लिया पर ‘नोट नहीं हैं’ कह कर भुगतान नहीं किया. कहींकहीं चैक पकड़ा दिए, जो निर्धारित सीमा के कारण हाथों पर कागजी पुरजा बन कर रह गए.

इन मंडियों में तैनाती के मामले अकसर अदालतों में जाते रहते हैं कि राज्य सरकार मनमानी कर रही है. कानून की बारीकी का लाभ उठा कर अदालत अगर मंडी कमेटी के सदस्यों, आढ़तियों, किसानों, उत्पादकों को कोई छूट दे भी दे तो राज्य सरकार तुरंत अध्यादेश जारी कर के उस फैसले को बदल देती है, ताकि मंडियों में पैदा होने वाले कालेधन की उपज में कहीं कमी न हो. नरेंद्र मोदी ही नहीं, सभी मुख्यमंत्री इस कालेधन की भरपूर फसल को रोकने की कोशिश नहीं कर रहे. उलटे, न्यायालयों के साथ मिल कर उस जमीन को खूब खादपानी दिया जा रहा है, क्योंकि ये मंडियां अफीम के उत्पादन से भी ज्यादा लाभकारी हैं.

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