कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

‘‘ऋतु, आज नाश्ते में क्या बनाया है?’’ सार्थक ने अपनी शेविंग किट बंद करते हुए पूछा.

‘‘ब्रैड, बटर, जैम तथा उबले अंडे हैं,’’ ऋतु ने तनिक ठंडे स्वर में कहा.

‘‘क्या? आज फिर वही नाश्ता, कुछ ताजा भी बना लिया करो कभीकभी,’’ सार्थक ने मुंह बनाते हुए कहा.

ऋतु का पारा चढ़ गया, ‘‘हुंह, रोब तो जनाब ऐसे मारते हैं मानो मुझे ब्याह कर लाए हों. मैं कोई तुम्हारी ब्याहता तो हूं नहीं कि दिनरात तुम्हारी सेवा में लगी रहूं. तुम तो 8 बजे से पहले उठते नहीं हो और उठते ही चाय की गुहार लगाने लगते हो. बालकनी में बैठ कर चाय पीते हुए पेपर पढ़ते हो जबकि मुझे तो काम करते हुए ही चाय पीनी पड़ती है. थोड़ी मदद कर दिया करो तो तुम्हें रोज ही मनचाहा नाश्ता मिले,’’ ऋतु ने भी झल्लाते हुए कहा.

‘‘हांहां, यही तो रह गया है, मैं भी कोई तुम्हारा पति तो हूं नहीं जो जर खरीद गुलाम बन जाऊं और तुम्हारे हुक्म की तामील करूं,’’ सार्थक ने मुंह बनाते हुए कहा और तौलिया उठा कर बाथरूम में नहाने चला गया. ऋतु ने जल्दीजल्दी कमरे को ठीक किया. अपना बैड वह उठते ही सैट कर लेती थी, लेकिन सार्थक का बैड तो बेतरतीब पड़ा हुआ था. जरा भी काम का ढंग नहीं था. सफाई की तो वह परवा ही नहीं करता था. अभी तक मेड भी नहीं आई थी. आखिर वह कितना काम करे, शादी न करने का मन बना कर कहीं उस ने गलती तो नहीं की थी. अब बिना शादी किए ही उसे गृहस्थी चलानी पड़ रही है. फिर मातापिता की ही बात मान ली होती, कम से कम अपना घरपरिवार तो होता. तब तो आधुनिकता का भूत सवार था, जिम्मेदारियां नहीं उठाना चाहती थी, परिवार जैसी संस्था से उस का विश्वास ही उठ गया था.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...