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‘‘तुम जानो, तुम्हारा काम जाने, मैं तो चला. हां, यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हारे साथ डाक्टर रमेश के नर्सिंगहोम तक चल सकता हूं. ज्यादा समय नहीं लगेगा शाम तक फारिग हो कर घर आ जाओगी, और फिर अब तो गर्भपात वैध भी हो गया है,’’ सार्थक ने दुष्टता से मुसकराते हुए कहा और चला गया.

वह सोच में डूब गई, क्या करे क्या न करे, जो कुछ भी हुआ उस में इस बच्चे का क्या दोष. क्या वह भ्रूण हत्या का पाप भी अपने सिर पर ले. सार्थक तो पल्ला झाड़ कर किनारे हो गया. फंसी तो वह थी. यदि मातापिता की बात मान कर शादी कर ली होती, तो आज गर्व से सिर ऊंचा कर के रहती. वैसे भी सोसायटी में सब उसे अजीब नजरों से देखते थे. यों तो दिल्ली में यह कोई नई बात नहीं थी, लेकिन फिर भी अड़ोसपड़ोस में किसी से उस की बात शुरू से नहीं होती थी. फिर भी उस ने सामने वाले फ्लैट में रहने वाली मिसेज सुनीता से बातचीत करनी चाही, लेकिन उन्होंने एक अव्यक्त रुखाई का ही परिचय दिया और उसे ज्यादा तवज्जो नहीं दी. वह दिल्ली के मुकाबले कानपुर जैसे छोटे शहर से आई थी. वह भी सब से घुलमिल कर रहना चाहती थी, लेकिन निराशा ही हाथ लगी और वह धीरेधीरे हीनता का शिकार होती गई, अब यदि उस की इस अवस्था की भनक किसी को लग गई तो क्या होगा? वह गहन सोच में डूब गई थी.

शाम को दोनों ने एकसाथ औफिस छोड़ा तो सार्थक ने थोड़ा शांत लहजे में कहा, ‘‘देखो ऋतु, अब भी समय है, मेरी बात मान लो, मैं डाक्टर से बात कर लूंगा. किसी को कानोंकान खबर तक न होगी और फिर सबकुछ यथावत हो जाएगा,’’ बहुत सोचविचार कर उस ने हामी भर दी. दूसरे दिन दोनों ने छुट्टी ले ली. सार्थक उसे नर्सिंगहोम ले गया. 3-4 घंटे की प्रक्रिया के बाद वह उसे ले कर घर आ गया. ऋतु का चेहरा एकदम पीला पड़ गया था, ग्लानि से उस का हृदय भरा हुआ था, सार्थक ने उसे गरम कौफी पिलाई, जब वह उठने लगी तो बोला, ‘लेटी रहो, खाना बाहर से ले आता हूं,’ और वह चला गया.

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