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‘‘अंकल, और क्याक्या करते हैं आप?’’ नीति ने पूछा.

‘‘मेरी एक ‘बिहूटोली’ है, बिहू के समय वह घरघर जाती है, गाने गाती है, ‘बिहू’ करती है. पिछले साल फर्स्ट प्राइज भी जीता था हमारी बिहूटोली ने,’’ बड़े उत्साह से वर्णन कर रहा था वह इस बात से अनभिज्ञ कि मैं भीतर ही भीतर क्रोध से धधक रही हूं. अपने क्रोध को दबाते हुए तल्खी भरे स्वर से मैं ने पूछा, ‘‘नाचतेगाते ही हो या कुछ कामधाम भी करते हो?’’

‘‘हां दीदीजी, मैं ने इसी बरस पौलिटैक्निक की परीक्षा पास की है,’’ वह बड़ी विनम्रतापूर्वक बोला.

‘‘और तुम्हारा वह मुकुटनाथ?’’

‘‘दीदीजी, वह चाय की फैक्टरी में काम करता है, त्योहारों में ‘भाओना’ में काम करता है,’’ मेरी कड़वाहट को भांपते हुए वह धीरेधीरे सौम्यता से उत्तर दे रहा था.

‘‘भाओना क्या होता है?’’ नीति ने उत्सुकतापूर्वक पूछा.

‘‘धार्मिक नाटक होता है...’’

नीति बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘हांहां अंकल, हमारे होम टाउन में भी होती है ‘रामलीला,’ मैं ने भी देखी है.’’

यहां के लोगों के कलाप्रेमी होने के विषय में मैं जानती थी, किंतु इस वक्त संगीतवंगीत, कलावला सब व्यर्थ की चीजें जान पड़ रही थीं. एक मन हुआ कि उस का गला पकड़ कर चीखचीख कर पूछूं, ‘कहां है मेरा बच्चा? कहां ले गया तुम्हारा साथी उसे?’ क्रोध से जन्मे पागल पशु की नकेल मैं भीतर कस के पकड़े थी. किंतु रहरह कर मेरे स्वर की तल्खी बढ़ जाती.

पूरे 25 मिनट हो गए थे अवधेश को गए. खैर, मेरा संयत रहना ठीक रहा. सामने से अवधेश आ रहा था मुकुटनाथ के साथ. आंखें छलछलाने को हो गईं. फिर संयत किया स्वयं को, कैसे पब्लिक में हम सभ्य समाज के सदस्य अपने इमोशंस को दिखाएं. लोग क्या सोचेंगे, यह फिक्र पहले हो जाती है.

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