देश के साथ कठिनाई यह है कि यहां गंभीर व पेचीदा मामलों पर बहस न के बराबर होती है और उन के हल निकालने के प्रयास किए ही नहीं जाते जबकि निरर्थक, निरुद्देश्य मामलों से अखबार और स्क्रीनें पटी रहती हैं. बुद्धिजीवी तक हैरान रहते हैं कि अगर प्रचार माध्यमों में गंभीर मामलों के हल को ढूंढ़ने के प्रयास न होंगे तो क्या पीपल के पेड़ के नीचे या चौराहे पर चाय की दुकानों में होंगे.
पिछले दिनों क्या सुर्खियां बनीं? आईपीएल का घोटाला और मोदीआडवाणी महाभारत. दोनों में देश के हितअहित का कोई प्रश्न नहीं. दोनों से गरीब की रोटी में कोई वृद्धि नहीं होती. दोनों का बढ़ती महंगाई, घटती कार्यकुशलता, बेकारी, कानूनी अव्यवस्था से कोई संबंध नहीं. पर देश के बुद्धिजीवी तक इन मामलों पर अपने सद्विचार देते नजर आए, मानो आईपीएल में फिक्सिंग किसी विदेशी ताकत का हमला हो और मोदीआडवाणी युद्ध धार्मिक युद्ध ही रहा हो जिस में घर जल रहे हों या निर्दोष लोगों की मौत हो रही हो.
नक्सली समस्या ने छत्तीसगढ़ में इस दौरान सिर उठाया, कांग्रेसी नेताओं की हत्याएं हुईं पर दूसरे दिन ही मामले को अखबारों के पृष्ठ 14 पर दफन कर डाला गया. यह हमारी पुरानी कमजोरी है जिस के कारण हम 2000 साल से भी ज्यादा गुलाम रहे हैं. हम अपनी हर समस्या का निदान तो किसी भगवान पर छोड़ देते हैं, यज्ञ, हवन कर लेते हैं, दिनों नहीं महीनों चर्चा करते रहते हैं.
देश की समस्याएं जस की तस हैं तो इसलिए कि उन्हें पैदा करने वाले जानते हैं कि कोई न तो समस्याओं के बारे में ज्यादा पूछताछ करेगा न यह बताएगा कि इन का हल क्या हो. अगर इन बातों को कहीं गंभीरता से लिया जाएगा तो बंद गोष्ठियों में लिया जाएगा जहां न जनप्रतिनिधि होंगे न नीति निर्धारक.
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