देश के सारे शहर पटरियों पर लगने वाली दुकानों और खाने के ढाबों से परेशान हैं. कुछ शहरों में तो बेहद भीड़भाड़ वाले इलाके में पहले तो दुकानदार अपना सामान दुकान से निकाल कर 5-7 फुट तक पटरी पर सजा देते हैं और फिर उस के आगे जगह बचती है तो असली पटरी वाले दुकानें लगा लेते हैं. कहीं भी एक बार दुकान लग गई और 4-5 दिन चल गई तो इस जगह पर परमानैंट कब्जा समझिए, चाहे उस से गंद फैले, ट्रैफिक रुके, सड़क पर चलने को मजबूर होना पड़े.

आम संभ्रांत मध्यवर्गीय शहरी इन पटरी वालों को जम कर कोसता है और इन्हें राजनीतिबाजों और पुलिस वालों की देन समझता है. औरत किट्टी पार्टियों में और आदमी ग्रुपों में इन पर हल्ला मचाते रहते हैं और लगता है कि मानो इतने विरोध के बावजूद सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती.

सरकार सुने या न सुने, पहली बात तो यह समझ लेनी चाहिए कि पटरी की दुकानें चलती तभी हैं जब वहां बिक्री हो. इसलिए दोषी दुकानदार नहीं, खरीददार हैं, जो इन से सामान खरीदते हैं और इन्हें दानापानी देते हैं. लंबी गाडि़यों में चलने वाले अकसर इन पटरी दुकानों से ड्राइव इन शौपिंग करते नजर आ सकते हैं और इस दौरान जहां वे दुकानदार से ज्यादा पैसे दे कर सामान खरीदते हैं, क्योंकि यह सुविधाजनक है, वहीं वे सड़क पर ट्रैफिक रोकते समय यह भूल जाते हैं कि चाय की चुसकियों के समय वे ही पौलीटिशियनों और अफसरों को गालियां देते हैं.

पटरियों पर दुकानें इस वजह से भी पनप रही हैं कि हर शहर में गांवोंकसबों से आने वाले फटेहाल से लोगों की गिनती बढ़ रही है, जिन्हें बड़ी दुकानों और एअरकंडीशंड मौलों में जाने में हिचक होती है.

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