त्योहारों का मौसम बीतते ही चुनौतियों का मौसम शुरू हो जाता है, परीक्षाओं की ठंडक महसूस होने लगती है. फरवरी से अप्रैल तक होने वाली परीक्षाओं की तैयारियां नवंबर में करना एक आवश्यकता है और दीवाली खत्म और मौज खत्म समझनी चाहिए.

जिन इलाकों में उत्तर भारत की तरह ठंड नहीं पड़ती वहां भी परीक्षाओं का असर तो बराबर ही रहता है और यह वह मौसम है जब हर किशोर को दुबक कर किताबों के लिहाफ में छिपना पड़ता है. यही दिन तय करते हैं कि अगला साल और इस के आगे के साल कितने कामयाब होंगे.

परीक्षाओं को भूत या आफत मानने की अब जरूरत नहीं रह गई है, क्योंकि अब यह एहसास पहले दिन से रहता है कि यह रेस तो पूरे साल चलने वाली है, कुछ महीनों की नहीं है. इस से घबराना कैसा?

परीक्षा तो हर व्यक्ति, चाहे वह किशोर हो या बड़ा, हर रोज देता है, हर समय देता है. नेताओं के सामने हर समय अगले चुनावों का डर रहता है. आजकल कभी एक राज्य में चुनाव होते हैं तो कभी दूसरे में, कभी लोकसभा के होते हैं तो कभी पंचायतों के. हर चुनाव परीक्षा की तरह है.

व्यापारियों की हर दिन एक परीक्षा होती है. शाम तक कमाई हुई या नहीं. किसान के लिए हर फसल एक परीक्षा होती है. आज बीज बोया तो कब उस की उपज होगी, कैसी होगी. इसलिए परीक्षा का मौसम तो सब को झेलना है और जब यह चुनौती है ही तो घबराना क्या, जम कर लगो और किला फतेह करो.

परीक्षा में शौर्टकट नहीं चलता, कम से कम जीवन की परीक्षा में तो नहीं चलता. जिस परीक्षा को किशोर देने वाले हैं उस में चलता है पर उस से कोई फायदा नहीं होता. नकली मुखौटा पहनने से कोई शेर नहीं बनता. जीवन की परीक्षाओं में 2+2 हमेशा 4 होते हैं, 2+0 कभी भी 4 नहीं होते. इसलिए इस परीक्षा के मौसम को प्रकृति की तरह गंभीरता से लो, नतीजा चाहे जो भी हो, आप की तैयारी में कमी न हो.

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