कांगे्रसियों का राहुल गांधी पर निर्भर रहना एक अजीब अजूबा नजर आता है. 1998 में जब कांगे्रसी सोनिया गांधी को खींचखांच कर लाए थे तब कांगे्रस मृतप्राय थी और सोनिया गांधी के खिलाफ केवल उन की त्वचा का रंग था. सोनिया गांधी ने न केवल एक उदार, दूरदर्शी, शिक्षित नेता का रोल अदा किया था, बल्कि बिना फौज व लावलश्कर के देशभर में दौरे कर के 2004 में कांगे्रस को जिताया भी था. गांधी परिवार के निकटस्थ को तब लाना कांगे्रस के लिए बिना नुकसान का सौदा था.

आज की परिस्थिति में गांधी परिवार के राहुल गांधी कांगे्रस को कुछ दे सकेंगे, इस में संदेह है. कांगे्रसियों की तो हालत यह है कि जब महल में आग लग जाए तो इंद्र देवता के लिए यज्ञ करने लगें कि बारिश हो ताकि आग बुझ जाए. कांगे्रसी नेता और कार्यकर्ता सब इंतजार कर रहे हैं कि राहुल गांधी जैसा कोई देवता उन के दुखों को दूर कर दे. उन की हालत उन पौराणिक देवताओं की तरह लग रही है जो हर मुसीबत में इंद्र या ब्रह्मा की ओर दौड़ते थे कि कुछ करो, दस्युओं से बचाओ, आर्य धर्म की स्थापना करो.

राहुल नाकाम और निकम्मे साबित हो चुके हैं. उन में न तो नेता की प्रतिभा है न उन में कार्यकर्ताओं की निष्ठा. इस पर आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए. राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री पद का कोई मतलब नहीं रह गया है. वे तो पहले दिन से ही प्रधानमंत्री रहे हैं. उन्हें न कोई अपनी निजी नीतियां लागू करानी हैं न सत्ता का सुख भोगने की लालसा है उन में.

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