अरविंद केजरीवाल के दिल्ली स्थित रेल भवन के निकट कुछ पुलिस अफसरों को बरखास्त करने की मांग को ले कर ठिठुरती रातों और बरसते पानी में धरने पर बैठने को एक मुख्यमंत्री की तानाशाही कहना गलत होगा. अल्पमत में नएनवेले होने के कारण केंद्र सरकार, दिल्ली की अफसरशाही, राजनीतिक पार्टियां और यहां तक कि हुआंहुआं करने वाला टैलीविजन मीडिया इस पार्टी को एक रुई का बबूला मान कर चल रहे थे जिस ने बड़ा आकार ले लिया पर जिसे फूंक से कहीं भी सरकाया जा सकता है.
दिल्ली में 2-3 घटनाओं पर दिल्ली के नए मंत्रियों ने जब दखल दे कर पुलिस को हड़काना चाहा तो वह पुलिस, जो मंत्रियों को सलाम मारती थी, उन्हें ही डांटने लगी. उन पुलिसवालों ने अपने अफसरों और केंद्रीय गृहमंत्री से कह दिया कि वे इन नएनवेले छोकरों की नहीं सुनेंगे. कांगे्रस ही नहीं भारतीय जनता पार्टी भी यही चाहती थी कि आम आदमी पार्टी केवल दिखावटी बनी रहे और इसे कागजों की फाइलों की भूलभुलैया में घुमा कर थका दो.
अरविंद केजरीवाल ने पहले ही भांप लिया कि कांगे्रस नेतृत्व वाली केंद्र सरकार व अफसरशाही उन्हें काम न करने देंगे. उन्होंने छोटे से मामले को ले कर गृहमंत्री से अपनी मांग को मनवाने के लिए उन के दफ्तर पर धरना देने की धमकी दे डाली. केंद्र सरकार ने सोचा था कि दुनिया का जैसा दस्तूर है कि पद पाने पर हड़ताली नेता भी चुप हो जाते हैं, अरविंद केजरीवाल भी चुप हो कर अपमान सह लेंगे.
लगता है अरविंद केजरीवाल इस के लिए तैयार थे और उन्होंने पहले ही महीने में केंद्र सरकार के खिलाफ मोरचा खोल कर जता दिया कि न तो वे कांगे्रस के मुहताज हैं न पद के मोह में अंधे. उन्होंने उस महकमे यानी पुलिस के खिलाफ मोरचा लिया जिस से सारा देश परेशान है, जो विदेशी आतंकवादियों से भी ज्यादा डरावनी है.
इस मामले ने तूल पकड़ा, इस की जिम्मेदारी सीधे केंद्र सरकार की है. प्रदेश के मुख्यमंत्री के सिर्फ फोन की सिफारिश पर ही पुलिस अफसरों के खिलाफ जांच शुरू होनी चाहिए थी. आखिर मुख्यमंत्री की जिम्मेदाराना हैसियत होती है. वह गलत निर्णय ले रहा है तो बाद में उसे ही भुगतना पड़ेगा. कार्यवाही करने के बजाय केंद्र सरकार जिद पर अड़ गई. उस की इसी जिद ने अरविंद केजरीवाल को जनता के साथ बैठने का एक और मौका दे दिया.
यह ठीक है कि इस धरने से लोगों को तकलीफ हुई पर दिल्ली ही क्या, देश का हर शहर इस से ज्यादा तो धार्मिक यात्राओं के कारण तकलीफ सहता है.